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* गीता दर्शन भाग-7 *
जैसा अंतःकरण हम लेकर पैदा हुए हैं, जो किसी ने हमें दिया | | एक पवित्र धारणा विकसित न हो पाएगी। और प्रेम का एक पवित्र नहीं, समाज ने जिसे निर्मित नहीं किया, जो हमारी भीतरी संपदा है, | रूप भी है, जहां यौन का कोई संबंध नहीं है। अगर भाई-बहन में उस शुद्ध अंतःकरण को, कृष्ण कहते हैं, अगर हम निखार लें, | वह विकसित न हुआ, तो फिर कहां विकसित होगा? उस पवित्र समाज की धारणाओं के रूखे-सूखे पत्ते अलग कर दें, भीतर छिपी | | प्रेम की लकीर फिर सदा के लिए खो जाएगी। उनकी बात में भी पानी की धार नजर में आ जाए, तो दैवी संपदा का दूसरा लक्षण है। बल है। फिर उसके ही सहारे, उस अंतःकरण के सहारे दिव्यता तक पहुंचा कह मैं यह रहा हूं कि जिस समाज ने भी जो धारणा मानी है, जा सकता है।
उसके कारण हैं, उसके ऐतिहासिक विकास में आधार है; कुछ जिसको आप अभी अच्छा और बुरा कहते हैं, वह सिर्फ वजह से मानी है। उस धारणा को ही मानकर जो चलता है, वह सामाजिक मान्यता है। किसी दूसरे समाज में मान्यताएं बदल जाती अच्छा आदमी तो हो सकता है, बुरा आदमी हो सकता है। लेकिन हैं, तो दूसरी मान्यताएं हो जाती हैं। जमीन पर कोई हजारों तरह के जिसको शुद्ध अंतःकरण का आदमी कहें, वह उन धारणाओं को समाज हैं। ऐसी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में मानकर कोई नहीं हो सकता। अच्छी न मानी जाती हो; और ऐसी भी कोई मान्यता नहीं है, जो इसका यह अर्थ नहीं कि शुद्ध अंतःकरण का आदमी सारी किसी न किसी समाज में बुरी न मानी जाती हो। सब तरह की बातें धारणाओं को तोड़ दे, समाज का दुश्मन हो जाए। यह अर्थ नहीं
अच्छी मानी जाती हैं, सब तरह की बातें बुरी मानी जाती हैं। कि समाज की बगावत करे, उच्छृखल हो जाए। शुद्ध अंतःकरण ___ ऐसे समाज हैं, जहां सगी बहन से विवाह करना अच्छा माना | का आदमी अपने भीतर अंतःकरण को धारणाओं से मुक्त करने में जाता है। जहां पिता मर जाए, तो ऐसे समाज हैं, जहां बड़े बेटे को | लगेगा। और उस बिंदु पर अपने अंतःकरण को ले आएगा, जहां मां से विवाह करना अच्छा माना जाता है। ऐसे समाज हैं, जहां पिता समाज की कोई छाप नहीं है; जहां उसका अंतःकरण दपी बूढ़ा हो जाए, वृद्ध हो जाए, तो जीवित पिता को अग्निसंस्कार दे देना | शुद्ध है, जैसा वह जन्म के साथ लेकर पैदा हुआ था, जब समाज बड़े बेटे का कर्तव्य माना जाता है। और इन सबकी अपनी धारणाएं | ने कुछ भी लिखा नहीं था, खाली, शून्य। हैं, और अपनी धारणाओं के तर्क हैं। और अगर उनके तर्क को | उस अंतःकरण के माध्यम से ही दैवी संपदा को खोजा जा सकता सहानुभूति से समझें, तो उनकी बात भी सही मालूम पड़ सकती है। । है, दिव्यता को खोजा जा सकता है। क्योंकि उस अंतःकरण में जो
जिन समाजों में भाई और बहन का विवाह प्रचलित है, अफ्रीका स्वर उठते हैं, वे दिव्यता के स्वर हैं। जिस अंतःकरण को हम के कुछ कबीले, उनका कहना यह है कि भाई और बहन ही पति अंतःकरण मानते हैं, उसमें जो स्वर उठते हैं, वे समाज के स्वर हैं।
और पत्नी बन सकते हैं। क्योंकि उनमें इतना सामीप्य है, इतनी ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति...। निकटता है; उन दोनों के पास एक-सा स्वभाव है। किसी भी दूसरी ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति! एक तो हमारा जीवन है, जिसे स्त्री से विवाह करना, दो विपरीत संस्कारों में पले, दो विपरीत हम मूर्छा में दृढ़ स्थिति कह सकते हैं। जो भी हम करते हैं, सोए परिवारों में पले व्यक्तियों को कठिनाई होगी, अड़चन होगी, उपद्रव हुए करते हैं। हमें कुछ पक्का पता नहीं, हम क्यों कर रहे हैं; क्यों होगा। और भाई और बहन के बीच एक स्वाभाविक नैसर्गिक प्रेम हमने क्रोध किया, क्यों हमने प्रेम किया, क्यों हमने जीवन ऐसा है, इसी प्रेम को रूपांतरित किया जाए।
बिताया, जैसा हमने बिताया, कुछ साफ नहीं है। उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। जिन मुल्कों में विरोध एक अंधेरे में शराब पीए हुए जैसे कोई आदमी चलता हो, और है, उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। क्योंकि वे कहते हैं, कहीं भी पहुंच जाए; न रास्ते का कुछ पता है, न दिशा का कोई पता अगर भाई और बहन में विवाह हो, तो फिर भाई और बहन के बीच | है; यह भी हो सकता है कि गोल घेरे में चक्कर ही लगाता रहे और प्रारंभ से ही कामुक संबंधों को रोकने का कोई उपाय नहीं। तो सोचे कि बड़ी यात्रा हो रही है। ऐसी हमारी दशा है। मूर्छा में हमारी परिवार प्राथमिक रूप से ही कामुक संबंधों में उलझ जाएगा।
दृढ़ स्थिति है। कामुक संबंध अगर बचपन से इस भांति खुले छोड़ दिए जाएं, तो | | ज्ञान-योग में दृढ़ स्थिति का अर्थ है, जागरूकता में दृढ़ स्थिति, जीवन प्राथमिक आधार से विलास की ओर बढ़ेगा और प्रेम की | अवेयरनेस में, होश में। उर्ले, बैलूं, चलूं, जो भी व्यवहार हो,