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* आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं *
है या नहीं कि क्या सार है, क्या असार है; क्या कर्तव्य है, क्या | में मेरी निष्ठा इतनी पूरी हो कि दूसरा स्वर बीच में डांवाडोल न अकर्तव्य है।
करता हो। अक्सर लोग जीवनभर दौड़ते रहते हैं, बिना इसका ठीक से __ अगर व्यक्ति का जीवन एक-एक क्षण भी इस भांति शुद्ध होने उनको पक्का पता हुए कि वे कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं। अगर | लगे, तो परमात्मा का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन आप कुछ लोग थोड़ी देर रुक जाएं इसके पहले कि कदम उठाएं, चलें, सोच | भी कर रहे हों, एक काम कभी भी नहीं कर रहे हैं, हजार काम साथ लें कि कहां जाना है और सारी जीवन ऊर्जा को वहां नियोजित कर | कर रहे हैं! कुछ भी सोच रहे हों, एक विचार कभी नहीं है, हजार दें. तो जीवन में फल लग सकते हैं।
| विचार विक्षिप्त की तरह भीतर दौड़ रहे हैं। आप एक बाजार हैं, एक अधिक लोग बेफल मर जाते हैं, निष्फल मर जाते हैं। ऐसा भी | | भीड़। और भीड़ भी पागल। इस स्थिति का नाम अशुद्धि है। नहीं कि श्रम कम करते हैं। श्रम बहुत करते हैं। आसुरी संपदा वाले ___ कृष्ण कह रहे हैं, उसमें न तो बाहर की शुद्धि है, न भीतर की। लोग दैवी संपदा वाले लोगों से ज्यादा श्रम करते हैं। बुद्ध ने क्या | न श्रेष्ठ आचरण है, न सत्य भाषण है। तथा वे आसुरी प्रवृत्ति वाले श्रम किया है! जो श्रम हिटलर और तैमूरलंग और चंगेज खां करते | मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित है। हैं! बुद्ध का श्रम क्या है! एक झाड़ के नीचे बैठे हैं, यही श्रम है! यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है।
तैमूरलंग को देखें, लंगड़ा है। वह लंग लंगड़े का ही हिस्सा है। आसुरी वृत्ति वाला व्यक्ति मानता है कि जगत में कोई रहस्य नहीं तैमर दि लेम। लंगड़ा है, लेकिन सारी जमीन को जीतने की | | है; मानता है कि जगत एक तथ्य है, जिसमें न कोई आश्चर्य है, न कोशिश में लगा है। और कोई आधी जमीन उसने जीत भी डाली। | कोई रहस्य है, कोई मिस्ट्री नहीं है। अगर हम विचार करें, तो कितने लाखों लोग उसने काट डाले। श्रम उसका भारी है, लेकिन बहुत-सी बातें साफ हो सकती हैं। परिणाम क्या है ? हिटलर के श्रम को कोई कम नहीं कह सकता। धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति में यही फासला है। धार्मिक फल क्या है?
| व्यक्ति जीवन को एक रहस्य की भांति अनुभव करता है। यहां जो ठीक साफ न हो कि क्या कर्तव्य है, क्या मैं करूं, क्यों करूं, | | प्रकट है, वह सिर्फ सतह है; इस सतह के पीछे अप्रकट छिपा है। और इसका क्या अंत होगा, इसकी ठीक-ठीक रूप-रेखा साफ न | और वह अप्रकट ऐसा है कि कितना ही प्रकट होता जाए, तो भी हो, तो आदमी करता बहुत है और पाता कुछ भी नहीं। शेष रहेगा।
आसुरी वृत्ति के लोग बड़ा श्रम उठाते हैं, पर उनकी सब साधना रहस्य का अर्थ होता है, जिसे हम पूरा कभी न जान पाएंगे, निष्फल जाती है।
जिसका अंतस्तल सदा ही अनजाना रहेगा। हम कितना ही जान लें, इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण हमारी सब जानकारी बाहर ही बाहर रहेगी। भीतर की अंतरात्मा है, और न सत्य भाषण ही।
सदा अनजानी छूट जाएगी। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति शुद्धि का विचार ही नहीं करता। वह अगर इसे ठीक से खयाल में लें, तो विज्ञान आसुरी मालूम उसके चिंतन में ही कभी नहीं आता, कि शुद्धि का भी कोई रस है, | पड़ेगा। क्योंकि विज्ञान मानता है, जगत में सभी कुछ जाना जा कि शुद्धि का भी कोई सुख है। जीवन उसका एक घोलमेल है, | सकता है-कम से कम मानता था। अभी नए कुछ वैज्ञानिक, उसमें सभी कुछ मिला-जुला है। वह प्रार्थना भी करता रहेगा, | आइंस्टीन के बाद, इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। अन्यथा दुकान की बात भी सोचता रहेगा। वह मंदिर में भी बैठा रहेगा, और | विज्ञान की दृष्टि थी, सभी कुछ जाना जा सकता है। जो हमने जान वेश्याघर उसे पहुंच जाना है शीघ्रता से, उसकी योजना बनाता | लिया वह, और जो नहीं जाना है, वह भी अज्ञेय नहीं है, रहेगा। उसके जीवन में शुद्धि नहीं है। उसके जीवन में सब मिला अननोएबल नहीं है। अज्ञात है, उसको भी हम कल जान लेंगे, हुआ है, कचरे की तरह सब इकट्ठा है। कोई एक स्वर नहीं है। बहुत | परसों जान लेंगे। समय की बात है। सौ, दो सौ वर्षों में हम सब स्वर हैं, विपरीत स्वर हैं।
| जान लेंगे, या हजार, दो हजार वर्षों में। लेकिन धारणा यह थी शुद्धि का अर्थ इतना ही है कि जीवन की धारा एक स्वर से भरी | | विज्ञान की कि जगत पूरा का पूरा जाना जा सकता है। हो, एक समस्वरता हो। और जब भी मैं जो कर रहा हूं, उस करने | अगर पूरा का पूरा जाना जा सकता है, तो परमात्मा की कोई
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