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गीता दर्शन भाग-7
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । सगुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। २६ ।। ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। २७ ।। और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।
तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं।
पहले कुछ प्रश्न |
पहला प्रश्नः ऐसा लगता है कि चेतना या बोध का विस्तार समस्त धर्म-साधना का मूल है, तब क्या ज्ञान व भक्ति, योग व तंत्र, कर्म व अकर्म आदि अनेकानेक मार्गों से इसी बुनियादी तत्व की खोज की जाती है ? और यदि इसी सुई को खोजना है, तो उसके इर्द-गिर्द सिद्धांतों का इतना भारी जंगल क्यों खड़ा किया जाता है?
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त्यतो अत्यल्प है, अति छोटा है। एक क्षण में भी समा एक शब्द में भी। पर वैसे सत्य को आप समझ न पाएंगे। उस अणु आप देख न पाएंगे। वह सूक्ष्म है, इसी कारण आप उससे चूक जाएंगे। उस छोटे-से सत्य को दिखाने के लिए आपकी बुद्धि बहुत-सी मांग करती है।
सिद्धांतों के जाल सत्य को इंगित करने के लिए नहीं खड़े किए जाते, आपकी बुद्धि की तृप्ति के लिए खड़े किए जाते हैं। और बिना तृप्त हुए आप खोज में संलग्न नहीं हो सकते।
आपके सभी प्रश्न व्यर्थ हैं। अर्जुन जो कृष्ण से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। आनंद जो बुद्ध से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। लेकिन वह पूछ रहा है; और जब तक उसे उत्तर न मिल जाएं, तब तक उसकी यात्रा प्रारंभ न होगी।
आप व्यर्थ ही पूछ रहे हों, तो भी सदगुरु को इसके उत्तर देने
| पड़ेंगे। इतना भर कह देने से कि वह व्यर्थ है, आपकी कोई तृप्ति नहीं होगी। इतना भर कह देने से कि असंगत है, पूछने में कोई सार नहीं है, आपकी तृप्ति नहीं होगी।
उत्तर देने का यह अर्थ नहीं है कि जो आप पूछ रहे हैं, वह सार्थक है । उत्तर देने का इतना ही अर्थ है, ताकि आपकी जिज्ञासा घिस - घिसकर शांत हो जाए। आप पूछ-पूछकर थक जाएं। गुरु नहीं थकेगा, उत्तर देता जाएगा। वह आपको थका रहा है। एक ऐसी घड़ी आ जाए, जहां आप खुद ही कहने लगें, अब पूछना नहीं है; अब कुछ करना है। और जब आप कहेंगे, अब कुछ पूछना नहीं, कुछ करना है, तब बात बहुत छोटी है।
जैसे छोटे बच्चों को कुछ समझाना हो, तो कहानी का जाल खड़ा करना पड़ता है। और बुद्धिमान बच्चों को कुछ समझाना हो, तो सिद्धांतों के जाल खड़े करने पड़ते हैं। ये सिद्धांतों के जाल उतने ही बड़े खड़े करने पड़ेंगे, जितनी आपकी बुद्धिमत्ता प्रश्न उठाती चली जाएगी।
झेन फकीर हुआ, रिंझाई। उससे एक सम्राट ने आकर पूछा कि भी जानने योग्य है, जो भी पाने योग्य है, आप एक शब्द में मुझे | कह दें। रिझाई ने कहा, जरूर कहूंगा। जो भी पूछने योग्य है, आप एक शब्द में मुझसे पूछ लें। अगर आप एक शब्द में उसे पूछ लेंगे, | तो मैं एक शब्द में उसे कह दूंगा। और अगर आप मौन में पूछने में समर्थ हों, तो एक शब्द की भी कोई जरूरत नहीं। आप मौन में ही पूछ लें, मैं मौन में ही कह दूंगा।
आप कितना लंबा करके पूछते हैं, इस पर निर्भर करेगा कि गुरु कितना लंबा शब्दों का जाल खड़ा करे। आपका प्रश्न कितना ही छोटा लगता हो, बहुत बड़ा होता है। उसके सारे पहलू छू लेने जरूरी हैं। अगर उसका एक भी पहलू आपके भीतर अनछुआ रह जाए, तो वह आपको कचोटता रहेगा, परेशान करता होगा । उसका मूल्य कुछ भी नहीं है। लेकिन आपको मूल्यवान लगता है।
अर्जुन जो भी पूछ रहा है, उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। और कृष्ण सीधा ही कह सकते हैं कि व्यर्थ है यह प्रश्न, मत पूछ । मैं कहता हूं, वह कर। लेकिन अर्जुन को अगर ऐसा कहा जाए कि | जो वह पूछ रहा है, वह व्यर्थ है; और कृष्ण जो कहते हैं, वह वह | करे। करना मुश्किल होगा ! क्योंकि अर्जुन तिरस्कृत हो गया। और | जिस अर्जुन का इतना भी मूल्य नहीं है कृष्ण की आंखों में कि उसके | प्रश्नों का उत्तर दें, वह अर्जुन कृष्ण पर श्रद्धा भी नहीं कर सकेगा। | वह अर्जुन कृष्ण की मानकर भी नहीं चल सकेगा।
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