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अव्यभिचारी भक्ति
उसकी बुद्धि की खुजली थोड़ी तृप्त होनी जरूरी है। यद्यपि उस खुजली से कुछ हल होने वाला नहीं है। खुजली खुजलाने से और बढ़ती है। न केवल बढ़ती है, बल्कि लहूलुहान भी कर सकती है; दुख और पीड़ा भी ला सकती है। लेकिन उस सीमा तक जाना ही होगा ।
गुरु को अनंत धैर्य चाहिए । अगर अधीर गुरु हो, तो आपके साथ एक क्षण गति नहीं हो सकती। उसको इतना धैर्य तो चाहिए ही, जितना धैर्य आपमें पूछने का है। इससे थोड़ा ज्यादा चाहिए। आप जब पूछकर चुक जाएं, तब भी वह जवाब देने को तैयार है।
ये जवाब आपकी जिज्ञासाओं के मूल्य के कारण नहीं दिए जाते हैं। आपकी जिज्ञासाएं समाप्त हो जाएं, गिर जाएं...। ये उत्तर प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं, प्रश्नों को गिराने की योजना है। और मन की एक क्षमता है, उस क्षमता के बाद मन गिर जाता है। और खुद ही आप कहने लगते हैं कि अब पूछना नहीं, अब कुछ जानना नहीं; अब कुछ करना है, अब कुछ होना है। उस घड़ी की तलाश है।
और जब तक आप न पूछें, तब तक गुरु कहे कि कुछ करो, व्यर्थ है। क्योंकि करना आपको है । और जब तक आपके भीतर यह भाव सजग न हो जाए, तब तक इस भाव को पैदा नहीं किया
जा सकता।
इसलिए बुद्ध जीवनभर बोलते हैं; सुबह से सांझ तक बोल रहे हैं। वे ही प्रश्न लोग फिर-फिर पूछते हैं; बुद्ध फिर-फिर उत्तर दे रहे हैं। सिर्फ इस धैर्य में कि आप थकोगे।
पूछने वाला अनंत नहीं है, और जवाब देने वाला अनंत है। वह जो शिष्य खोज रहा है, उसकी खोज की सीमा है। और जिस कृष्ण . या बुद्ध के पास खोज रहा है, उसके सागर की कोई सीमा नहीं। वह आपको थका ही डालेगा।
गुरु से जीतने का उपाय नहीं है। उससे हारना ही होगा। वही हार आपकी विजय भी होगी। क्योंकि उसी दिन आप शब्दों के ऊपर उठेंगे।
इसे ऐसा समझें, एक कांटा लग जाए, तो दूसरे कांटे से उस कांटे को निकालना पड़ता है। आपके पैर में कांटा लगा है, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध, उसे दूसरे कांटे से बाहर निकालते हैं। आप कह सकते हैं कि मैं एक ही कांटे से परेशान हूं; तुम दूसरा कांटा मेरे पास क्यों ला रहे हो? एक कांटा मेरे पैर में चुभा है, उससे ही पीड़ा पा रहा हूं। तुम और दूसरा चुभा रहे हो! ऊपर से ऐसा ही दिखेगा। दूसरा कांटा भी चुभाना होगा, क्योंकि दूसरा कांटा पहले कांटे
को बाहर निकाल सकता है। दोनों कांटे हैं। दोनों में चुभन है। और जब कांटा बाहर निकल आएगा पहला दूसरे कांटे से, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे।
आपको शब्दों के कांटों की चुभन है । शब्दों के ही कांटों से उन्हें निकालना होगा । और जब निकल आएगी आपकी शब्दों की चुभन, प्रश्न बाहर हो जाएंगे, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे।
जब अर्जुन ठीक समझ की हालत में आएगा, तो जो उसने पूछा था, वह तो व्यर्थ है ही; जो कृष्ण ने कहा था, वह भी उतना ही व्यर्थ है। उस दिन वह गीता को आग लगा दे सकता है। और जब तक शिष्य गीता को आग लगाने में समर्थ न हो जाए, तब तक जानना अभी चुभन मिटी नहीं है। अभी पहला कांटा गड़ा है, दूसरे से निकालने की कोशिश चल रही है। जब दोनों ही कांटे बाहर हो गए, तो दोनों ही फेंकने जैसे हैं ।
इसलिए सभी शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। और एक घड़ी जरूर आती है, जब आप शास्त्र की तरफ पीठ कर लेते हैं। और जब तक यह घड़ी न आ जाए, तब तक समझना कि जीवन में अभी वास्तविक क्षण नहीं आया। जब तक शास्त्र व्यर्थ न हो जाए, तब तक समझना, बुद्धि अभी सता रही है; अभी विचार परेशान कर | रहे हैं; अभी मन घूम रहा है, भटक रहा है, प्रश्न उठा रहा है। अभी संदेह बाकी है।
जब तक शास्त्र आपको मूल्यवान दिखे, तब तक समझना कि संदेह बाकी है। जिस दिन संदेह मिटेगा, उस दिन शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि शास्त्र संदेह मिटाने के लिए ही उपयोगी | है। ऐसे ही जैसे एक बीमार आदमी है। दवा की बोतल लिए घूमता है। फिर जब वह स्वस्थ हो जाएगा, तो बीमारी ही नहीं छूटेगी, दवा की बोतल भी छूट जाएगी।
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शास्त्र औषधि से ज्यादा नहीं हैं। उनका अपने में कोई भी मूल्य नहीं है। औषधि का क्या मूल्य है अपने में? अगर आप बीमार नहीं हैं, तो औषधि का कोई भी मूल्य नहीं है। आप बीमार हैं, तो बड़ा मूल्य है। शास्त्र का अपने में कोई मूल्य नहीं है। बीमार मन के लिए | शास्त्र की औषधि सार्थक है । पर इस घड़ी को लाने के लिए भी दूसरे कांटे का उपयोग करना होगा ।
तो कृष्ण कुछ सत्य नहीं दे रहे हैं अर्जुन को। सत्य तो दिया नहीं | जा सकता। असत्य छीना जा सकता है, सत्य दिया नहीं जा सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें ।
स्वास्थ्य दिया नहीं जा सकता; बीमारी हटाई जा सकती है।