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गीता दर्शन भाग-7*
स्वास्थ्य भीतरी भाव है। इसलिए दुनिया में कोई दवा नहीं, जो स्वास्थ्य दे सके। दवा तो सिर्फ बीमारी को काटती है। बीमारी कट जाती है, स्वास्थ्य आपके भीतर उत्पन्न होता है। स्वास्थ्य दवा से भीतर नहीं जाता। दवा तो बीमारी को काटती है। बीमारी भी एक जहर है, और दवा भी एक जहर है। और जहर से जहर कट जाता है । और आपके भीतर स्वस्थ होने की क्षमता तो छिपी है; बीमारी के हटते ही वह प्रकट होनी शुरू हो जाती है।
सत्य आपके भीतर छिपा है। कोई कृष्ण, कोई बुद्ध सत्य नहीं दे सकते। कोई कभी किसी को सत्य नहीं दिया है। सिर्फ आपका असत्य काटा जा सकता है।
सिद्धांतों के जाल आपके असत्य को काटने के लिए हैं। और आपने असत्य को इतनी मजबूती से जमाया है कि उसको इतनी ही मजबूती से कोई काटे, तो ही काट पाएगा।
अर्जुन काफी पैर जमाकर खड़ा है। वह अपने संदेह को छोड़ता नहीं है। वह अपनी शंकाओं को हटाता नहीं है। वह अपनी समस्या को नए रूपों में खड़ा करता जाता है। जितने नए रूपों में वह खड़ा करेगा, कृष्ण उतने नए रूपों से हमला करेंगे। इस बीमारी के लिए औषधि खोजनी होगी।
जिस क्षण अर्जुन संदेह से मुक्त हो जाएगा, उसी क्षण कृष्ण चुप और मौन हो जाएंगे। उसी दिन शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा। फिर शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है।
इतने सिद्धांतों का जाल इसलिए है कि आपने संदेहों का जाल खड़ा कर रखा है। यह तो सिर्फ एंटीडोट है। सिद्धांत संदेह का एंटीडोट है।
जितने संदेहशील लोग होंगे, उतने ज्यादा शास्त्रों की जरूरत पड़ जाएगी। जब लोग बिलकुल संदेहशील नहीं होंगे, शास्त्र तिरोहित हो जाएंगे। जिस गांव में कोई बीमार न होगा, वहां से डाक्टर धीरे-धीरे विदा हो जाएगा; औषधियां विलुप्त हो जाएंगी।
असत्य के कारण इतने शास्त्र हैं। असत्य के लिए इतने शास्त्र हैं। संदेह के कारण इतने सिद्धांत हैं। अगर सिद्धांत कम करने हों, तो सिद्धांत कम करने से न होंगे; संदेह कम करें, सिद्धांत कम हो जाएंगे। आप असंदिग्ध खड़े हो जाएं, आपके लिए एक भी सिद्धांत नहीं है।
अगर अर्जुन असंदिग्ध खड़ा होता कृष्ण के सामने, तो कृष्ण एक शब्द भी नहीं बोलते। बोलने का कोई प्रयोजन नहीं था। बीमारी ही हो, तो औषधि का कोई अर्थ नहीं है।
दूसरा प्रश्न : कल आपने जो कहा, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु जो साधना करवाता है और शिष्य जो साधना करता है, उसकी मात्र उपादेयता करने की व्यर्थता को जान लेना है। क्या करने की व्यर्थता को जान लेना साधक के लिए अनिवार्य है? और क्या विभिन्न साधनाओं का अपने आप में मूल्य नहीं है?
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ही मूल्य है। इतना ही मूल्य है। इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। समस्त प्रक्रियाओं का इतना ही मूल्य है कि आपको पता चल जाए कि करने से कुछ भी न होगा । | कर-करके आप थक जाएं और उस जगह आ जाएं, जहां करने की वासना ही न उठे। जहां लगे, से कुछ होगा ही नहीं। जिस क्षण भी करने की वासना न उठेगी, उसी क्षण आप कर्ता से मुक्त हो गए, उसी क्षण अहंकार शून्य हो गया।
करने में सार्थकता दिखती है, क्योंकि करने वाले में सार्थकता है। आप कुछ कर-करके क्या सिद्ध कर रहे हैं? कि मैं करने वाला हूं! आप अपने कर्ता को सिद्ध कर रहे हैं।
कोई धन इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई ज्ञान इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई त्याग करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। लेकिन सभी की मूल बात एक है कि मैं हूं। सब अपने अहंकार को सिद्ध कर रहे हैं। और अहंकार जब तक न मिटे, तब तक परमात्मा से कोई संबंध नहीं है।
तो एक ही उपाय है कि आपका सब करना व्यर्थ हो जाए, आप सब जगह असफल हो जाएं, आपको कहीं भी सफलता न मिल पाए। जिस दिन आपकी असफलता पूर्ण होगी, जिस दिन आपको | रंचमात्र भी आशा न रह जाएगी कि मैं सफल हो सकता हूं, उसी दिन आपका मैं गिरेगा। और मैं के गिरते ही परम सफलता मिल जाएगी। क्योंकि मैं के गिर जाने का अर्थ ही यह है, अब कुछ खोजने को न रहा। दीवार गिर गई। द्वार खुल गए।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में ज्योतिषी का काम भी करता था। बैठा था बाजार में अपनी दुकान खोलकर, कि गांव का एक राजनेता जो कि चुनाव अभी-अभी हार गया था, वहां से निकला। नसरुद्दीन ने कहा कि ठहरो, अपना भविष्य नहीं जानना चाहते ? उस राजनेता ने कहा, छोड़ो भविष्य अब; अब मैं हार चुका, अब कोई भविष्य नहीं है। मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मेरे लिए
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