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*गीता दर्शन भाग-7*
स्वभाव है, आप कौन हैं! मैं कौन हूं!
शस्त्रों से छिदता हूं, न अग्नि मुझे जला सकती है। और जरा-सा ये सारी सांयोगिक बातें हैं। मेरा नाम, मेरा घर, पता, ये सब दुख आ जाए और आप छाती पीटकर रो रहे हैं! सब गीता वगैरह कुछ मूल्य के नहीं हैं। मेरा न कोई नाम है, और न मेरा कोई घर है, | रखी रह जाती है! वहां पता चलता है कि यह प्रज्ञा है या नहीं।
और न मेरा कोई रूप है। मेरी वह जो अरूप और अनाम स्थिति है. प्रज्ञा आपके अनभव में काम आती है। और ज्ञान केवल बद्धि उसको कृष्ण कहते हैं, वह स्मृति है।
की बातचीत है। और बुद्धि की बातचीत तो हम कुछ भी इकट्ठी कर स्मृति शब्द बाद में बिगड़ा और कबीर और दादू के समय में ले सकते हैं। सुरति हो गया। नानक और दादू और कबीर सुरति का उपयोग करते | मैं एक प्रोफेसर के घर मेहमान था। ऐसे अचानक मेरे कान में हैं। वे कहते हैं, सुरति जगाओ। सुरति का मतलब है, जगाओ | पति-पत्नी की बात पड़ गई। मैं अपने कमरे में बैठा था, जहां उनके उसको, जो आपके भीतर परमात्मा है।
घर में रुका था। पति बाहर से आए। पत्नी से कहा—कुछ जोर से और जब रमण कहते हैं, जानो कि तुम कौन हो-हू एम आई; | ही कहा, बड़े प्रसन्न थे—कि आज रोटरी क्लब में रात मेरा तो वे इसी कृष्ण के पीछे पड़े हैं। यही कह रहे हैं कि पीछे पहचानो। | व्याख्यान है तिब्बत के ऊपर। पत्नी ने कहा, तिब्बत? लेकिन तुम वह जो सब संयोगों के पार है; सब स्थितियों के पार है; सभी | तिब्बत तो कभी गए नहीं! पति ने कहा, छोड़ो भी। सुनने वाले ही स्थितियों से गुजरता है, फिर भी किसी स्थिति के साथ एक नहीं है; कौन से तिब्बत होकर आए हैं! सभी अवस्थाओं से गुजरता है...।
यह मैं सुन रहा था। तब मुझे पता चला कि ज्ञान के लिए तिब्बत कभी आप बच्चे हैं; कभी जवान हैं; कभी बूढ़े हैं; लेकिन | जाने की कोई जरूरत नहीं है; न सुनने वाले को, न बोलने वाले को। आपके भीतर कोई है, जो न बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है; जो अक्सर अध्यात्म के नाम पर ऐसे ही तिब्बत के यात्री चलते रहे तीनों से गुजरता है। जैसे तीन स्टेशनें हों और आपकी ट्रेन तीनों से | | हैं। न सुनने वाले को कुछ पता है कि ब्रह्म क्या; न बोलने वाले को गुजर जाए। वह जो यात्री भीतर बैठा है, जो सदा चल रहा है, कहीं | कुछ पता है। जब दोनों को पता नहीं, तो कोई अड़चन ही नहीं है। भी ठहरता नहीं है; किसी भी अवस्था के साथ एक नहीं हो जाता । यहां जो कृष्ण कह रहे हैं ज्ञान, तो विजडम, प्रज्ञा से उसका संबंध है; सदा अवस्था-मुक्त है, उसकी स्मृति को कृष्ण कहते हैं, मैं हूं। | है। अनुभव में जिसके, जीवन में जिसका बोध सधा हुआ है; कैसी
ज्ञान! यहां ज्ञान से अर्थ नालेज का नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान भी अवस्था हो, जिसके बोध को डिगाया नहीं जा सकता, वह मैं हूं। देते हैं। कृष्ण उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं। शिक्षक ज्ञान देते स्मृति, ज्ञान और अपोहन, सब वेदों द्वारा जानने योग्य...। हैं! स्मृति इकट्ठी कर लेती है ज्ञान को। संग्रह हो जाता है आपके ये ही तीन बातें हैं। सारा वेदांत इन्हीं तीन की खोज करता है। पास; बड़ी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं। कृष्ण उसको ज्ञान नहीं कह और न केवल सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं, वरन
| वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं। ज्ञान से अर्थ नालेज नहीं है। ज्ञान से अर्थ प्रज्ञा है। ज्ञान से अर्थ | ___ सारे वेद मुझे ही खोजते हैं। और सारे वेद मेरे ही अनुभव से विजडम है। बड़ी अलग बात है। क्योंकि यह हो सकता है, आप निकलते हैं। कुछ न जानते हों और ज्ञानी हों। और यह भी हो सकता है, बहुत सारे वेदों की खोज क्या है? कि वह अंतर्यामी मिल जाए। वह कुछ जानते हों और निपट अज्ञानी हों। आपके जानने से कोई संबंध जो भीतर छिपा हुआ राजों का राज है, वह मिल जाए। लेकिन वेद नहीं है।
निकलते कहां से हैं? एक आदमी बहुत कुछ जान सकता है। सब शास्त्र कंठस्थ हों; जिनको वह मिल जाता है, उनकी वाणी वेद बन जाती है। जो तोते की तरह कंठस्थ हो सकते हैं; जरा भी भूल न करे। यंत्रवत | उसे पा लेते हैं, उनकी सुगंध वेद बन जाती है। जो वहां तक पहुंच स्मृति हो। और फिर भी जीवन में व्यवहार जो करे, वहां अज्ञानी जाते हैं उस अंतर्यामी तक, फिर वे जो भी कहते हैं, वही वेद बन सिद्ध हो।
जाता है। वे न कहें, तो मौन उनका वेद हो जाएगा। वे चलें-फिरें, आपको वेद कंठस्थ हों; सारी बातें याद हों; और गीता आपकी | उठे, तो उनकी गतिविधि वेद हो जाएगी। जबान पर बैठी हो; और आपको मालूम है बिलकुल कि न तो | अगर बुद्ध को चलते हुए भी देख लो, तो भी उस चलने में
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