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* गीता दर्शन भाग-7*
जन्म में जुड़ता है, मृत्यु में टूटता है। अज्ञान में लगता है कि मैं शरीर हूं; ज्ञान में लगता है, मैं पृथक हूं।
जैसे ही यह बोध किसी व्यक्ति को हो जाता है कि मैं पृथक हूं और शरीर पृथक है; चैतन्य और जड़ अलग-अलग हैं, माया और ब्रह्म अलग-अलग हैं, जैसे ही यह बोध साफ हो जाता है, इस सारे जगत का खेल सिर्फ आभास रह जाता है। युद्धों का होना, लोगों का पैदा होना या मरना, महामारियां, जीवन या मृत्यु, सब एक बड़े नाटक के हिस्से हो जाते हैं। क्योंकि मृत्यु असंभव है। केवल संयोग टूटते हैं, कुछ मरता नहीं। कुछ मर सकता नहीं।
कृष्ण अर्जुन को एक ही बात का बोध दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। वह मृत्यु को देखकर भयभीत है। वह सोच रहा है, मृत्यु होगी। कृष्ण कहते हैं, मृत्यु एक असत्य है; वह माया का एक आभास है। जन्म भी एक असत्य है; वह भी सिर्फ माया का आभास है।
लेकिन जब तक हम माया में होते हैं, तब तक हमें सत्य मालूम होता है। ठीक जैसे रात सपना देखते हैं। सपने के क्षण में तो सपना बिलकुल ही सच मालूम होता है।
यह जगत एक विराटतर सपना है। कहें कि यह ईश्वर के चित्त में चल रहा सपना है। हमारे सपने निजी होते हैं, यह सपना विराट है। जैसे हम अपने सपने से सुबह जागते हैं और सपना फिजूल हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष इस सपने से जाग जाता है, इस विराट सपने से, और यह सपना व्यर्थ हो जाता है। ..
सबह जागकर आप रोते नहीं हैं कि रात मैंने एक आदमी की हत्या कर दी। न सुबह जागकर आप गांव में ढिंढोरी पीटते हैं कि रात मैंने एक भूखे आदमी को सपने में रोटी खिला दी। सुबह आप जानते हैं कि सपना सपना था। न तो सपने की हत्या सच थी, और न सपने | की सेवा सच थी। न तो पाप का भाव पैदा होता है सुबह, न पुण्य का। सपने को जानते ही कि सपना है, सब भाव खो जाते हैं।
ज्ञानी पुरुष इस विराट सपने से भी जाग जाता है। एक और जागरण है। उस जागरण का नाम ही ध्यान है, समाधि है। उस जागरण में ज्ञानी पुरुष जानता है कि वह जो उसने देखा था-युद्ध थे, शांतियां थीं; प्रेम था, घृणा थी; मित्र थे, शत्रु थे-वे सब स्वप्नवत खो गए।
कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान मैं तुझे फिर से कहूंगा, वह परम ज्ञान, जिसे जानकर व्यक्ति परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है।
आज इतना ही।