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________________ * गीता दर्शन भाग-7* हुआ है? कोशिश यह है कि किसी तरह अर्जुन को धक्का लग जाए और वह | इनको मारने से मैं डरता हूं। यह आधी बात तो दैवी है और आधी खुले आकाश में पंख फैला दे। अज्ञान और आसुरी से भरी है। इन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए | दैवी तो इतनी बात है कि हिंसा के प्रति उनके मन में उपेक्षा पैदा और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, | हुई है, हिंसा में रस नहीं रहा। लेकिन कारण है, क्योंकि ये मेरे हैं। तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। | अगर ये पराए होते, तो अर्जुन उनको, जैसे किसान खेत काट रहा __अर्जुन को भरोसा दिला रहे हैं कि तू घबड़ा मत, तू दुख मत कर, हो, ऐसे काट देता। वह कोई नया नहीं था काटने में। जीवन में कई तू चिंता मत कर। तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है। बस, पंख बार उसने हत्याएं की थीं और लोगों को काटा था। काटना उसे खोलने की बात है, खुला आकाश तेरा है।। सहज काम था। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि आत्मा का क्या क्यों अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू दैवी संपदा को उपलब्ध होगा, स्वर्ग, मोक्ष-कुछ सवाल न उठे थे। लेकिन वे अपने नहीं थे, ये सब अपने लोग हैं। उस तरफ गुरु खड़े हैं, भीष्म खड़े हैं, अर्जन की जिज्ञासा दैवी है। यह भाव भी अर्जन के मन में आना सब चचेरे भाई-बंध हैं। ये मेरे हैं। कि क्यों मारूं लोगों को, क्यों हत्या करूं, क्यों इस बड़े हिंसा के यह ममत्व अज्ञान है। न काटूं, यह तो बड़ी दैवी भावना है। हिंसा उत्पात में उतरूं! यह खयाल मन में आना कि इससे राज्य मिलेगा, | न करूं, यह तो बड़ा शुभ भाव है। लेकिन मेरे हैं, इसलिए न करूं, साम्राज्य मिलेगा, बड़ी पृथ्वी मेरी हो जाएगी, पर उसका सार क्या | यह अशुभ से जुड़ा हुआ भाव है। वह अशुभ मिट जाए, फिर भी है। लोभ के प्रति यह विरक्ति, साम्राज्य के प्रति यह उपेक्षा, हिंसा अर्जुन दिव्यता की तरफ बढ़े, यह कृष्ण की पूरी चेष्टा है। और हत्या के प्रति मन में ग्लानि! वह भाव मेरे का पाप है। तो कौन मेरा है, कौन मेरा नहीं है? या ___ अर्जुन कहता है, मैं यह सब छोड़कर जंगल चला जाऊं, संन्यस्त तो सब मेरे हैं, या कोई भी मेरा नहीं है! फिर अर्जुन कहता है, इनको हो जाऊं, वही बेहतर है। अर्जुन कहता है, ये सब मेरे अपने जन हैं। मारूं, यह उचित नहीं है, यह बात तो दैवी है। लेकिन मैं इनको मार इस तरफ, उस तरफ। इन सबको मारकर, मिटाकर अगर मैंने राज्य सकता हूं, यह बात अज्ञान से भरी है। यह थोड़ा जटिल है। भी पा लिया, तो वह खुशी इतनी अकेले की होगी कि खुशी न रह __ मैं किसी को न मारूं, यह भाव तो अच्छा है; लेकिन मैं किसी जाएगी, क्योंकि खुशी तो बांटने के लिए होती है। जिनके लिए मैं | को मार सकता हूं, आत्मा की हत्या हो सकती है, यह भाव अज्ञान राज्य पाने की कोशिश कर रहा हूं, जो मुझे राज्य पाया हुआ देखकर से भरा है। मैं चाहूं तो भी मार नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा आपकी आनंदित और प्रफुल्लित होंगे, उनकी लाशें पड़ी होंगी। तो जिस | देह को नुकसान पहुंचा सकता हूं। और देह को क्या नुकसान सुख को मैं बांट न पाऊंगा, जो सुख मेरे अपने जो प्रियजन हैं उनके | पहुंचाया जा सकता है! देह तो मुरदा है। उसको मारने का कोई साथ साझेदारी में नहीं भोगा जा सकेगा, उसके भोगने का अर्थ ही | उपाय नहीं। वह तो मिट्टी है। उसको काटने से कुछ कटता नहीं। क्या है? देह के भीतर जो छिपा है, उस चिन्मय को तो काटा नहीं जा सकता। यह भाव दैवी है। लेकिन इन दैवी भावों के पीछे जो कारण वह | | वह तो कोई मिट्टी नहीं है। उस अमृत को तो मारने का कोई उपाय दे रहा है, वे अज्ञान से भरे हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि पहली बार नहीं है। जब दैवी आकांक्षा जगती है, तो उसकी जड़ें तो हमारे अज्ञान में ही ___ अर्जुन कहता है कि हिंसा बुरी है। लेकिन क्या हिंसा हो सकती होती हैं। हम अज्ञानी हैं। इसलिए हममें अगर दैवी आकांक्षा भी है? यह भाव अज्ञान से भरा है। हिंसा तो हो ही नहीं सकती; हिंसा जगती है, तो उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान का हाथ होता है। का कोई उपाय नहीं है। हिंसा का भाव किया जा सकता है, हिंसा उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान की छाया होती है। | नहीं की जा सकती। हिंसा का भाव पापपूर्ण है। हिंसा की जा सकती लेकिन कृष्ण पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह भरोसे से भर जाए; है, यह भाव अज्ञान से भरा है। वह अज्ञान को भी छोड़ दे। वह जिन कारणों को बता रहा है, उनको ___ अर्जुन में दिव्यता का जागरण हुआ है, लेकिन वह दिव्यता अभी भी गिरा दे। क्योंकि वे कारण अगर सही हैं, तो अर्जुन कठिनाई में | | आसुरी बिस्तर पर ही लेटी है। आंख खुली है, करवट बदली है, पड़ जाएगा। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरे प्रियजन हैं, इसलिए लेकिन बिस्तर अभी उसने छोड़ा नहीं है। वह बिस्तर भी छूट जाए, 328
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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