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नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ
को बड़े जोर से पकड़ लेती हैं।
ये जो ब्रह्मचर्य की इस तरह की बात करने वाले निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, इनमें से अधिक लोग कब्जियत के शिकार होंगे। क्योंकि जैसा वे वीर्य को बचाना चाहते हैं, ऐसा वे सब चीजों को बचाना चाहते हैं। वे मल तक को इकट्ठा करना सीख जाते हैं।
अभी आधुनिक विज्ञान बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहता है। वह कहता है, जो व्यक्ति भी कब्जियत का शिकार है, वह यह बता रहा है कि वह मल को भी छोड़ने को राजी नहीं है। उसकी चित्त की दशा सब चीजों को पकड़ लेने की है।
मनोवैज्ञानिक कई अनूठे नतीजों पर पहुंचे हैं, जो धर्म को और धर्म की खोज में जाने वाले लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब चीजें प्रतीकात्मक हैं। और एक बड़ी अनूठी बात है, जो एकदम से समझ में नहीं आती, लेकिन सही हो सकती है। वे कहते हैं, मल का जो रंग है, पीला रंग, वही सोने का रंग है। और सोने को जो लोग पकड़ते हैं, वे लोग कब्जियत के शिकार हो जाते हैं। वे मल को भी नहीं छोड़ सकते। और धन हाथ काल ही है, वह मैल ही है, उससे ज्यादा है भी नहीं। लेकिन हर चीज को पकड़ लेना है, रोक लेना; कुछ भी छोड़ते नहीं बनता उनसे । जीवन उनका महारोग हो जाता है।
काम विक्षिप्तता लाता है। लोभ उस विक्षिप्तता को बढ़ाने के लिए दूसरों का सहारा मांगता है, फैलाव मांगता है। क्रोध उस विक्षिप्तता में कोई भी बाधा डाले, उसको नष्ट करने को तैयार हो जाता है।
तीनों नरक के द्वार हैं। और हम जीवन में जितने दुख खड़े करते हैं, वह इनके द्वारा ही खड़े करते हैं। नरक कहीं कोई स्थान नहीं है, जहां द्वारों पर लिखा है कि काम, क्रोध, लोभ, कि यहां से भीतर मत जाइए। जहां-जहां ये तीन हैं, वहां-वहां नरक है, वहां-वहां जीवन दुख और संताप से भर जाता है। वहां-वहां जीवन की प्रफुल्लता कुम्हला जाती है; जीवन के फूल वहां नहीं लगते।
आपने कभी कंजूस आदमी को प्रसन्न देखा है ? कंजूस प्रसन्न हो ही नहीं सकता। प्रसन्नता में भी उसे लगेगा, कुछ खर्च हो रहा है, कुछ नुकसान हुआ जा रहा है। वह प्रसन्नता तक को रोके रखता है। वह हृदयपूर्वक हंस नहीं सकता; वह कठिन है, मुश्किल है; वह उसके व्यक्तित्व का ढंग नहीं है। वह किसी चीज में शेयर नहीं कर सकता, भागीदार नहीं बना सकता।
इसलिए कंजूस कभी प्रेम नहीं कर सकता, किसी को प्रेम नहीं
कर सकता। क्योंकि प्रेम में उसे डर लगता है कि जिससे प्रेम किया, उसको कुछ बांटना पड़ेगा, कुछ साझेदारी करनी पड़ेगी।
कंजूस किसी चीज में बंटाव नहीं कर सकता। कंजूस अकेला जीता है, आइसोलेटेड । अपने में बंद हो जाता है, और उसके चारों तरह कारागृह खड़ा हो जाता है। और अपने चारों तरफ कारागृह खड़ा हो जाए; हम किसी चीज में साझेदारी न कर सकें, मुस्कुरा भी न सकें, बांट भी न सकें ... ।
जीवन के सब आनंद बंटने से जुड़े हुए हैं। जो आदमी जितना बांट सकता है, जो जितना अपने को फैला सकता है, जो जितना अपने को दूसरों को दे सकता है, उतना ही प्रफुल्लित होता है, उतना ही आनंदित होता है।
अगर परमात्मा परम आनंद है, तो उसका इतना ही अर्थ है कि • परमात्मा ने अपने को पूरा का पूरा इस जगत को दे दिया है, इस पूरे अस्तित्व को अपने को दे दिया है। वह सब तरफ फैल गया है। उसे आप कहीं भी खोज नहीं सकते। आप अंगुली करके इशारा नहीं | कर सकते कि यह रहा परमात्मा । क्योंकि वह एक जगह होता, तो कंजूस होता, कृपण होता, बंधा होता । वह सब जगह है।
इसलिए आप जहां भी कहें, वहां वह है । और जहां भी आप | इशारा करें, वहीं आप पाएंगे कि मुश्किल है, वह सब जगह है। उसने अपने को सब तरह फैला दिया है। वह पूरा बंट गया है कि अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, अपने जैसा कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए परम आनंद है, इसलिए सच्चिदानंद है।
मैंने सुना है कि नानक एक गांव में ठहरे। गांव बड़े भले लोगों | का था, बड़े साधुओं का था, बड़े संत सज्जन पुरुष थे। नानक के शब्द- शब्द को उन्होंने सुना, चरणों का पानी धोकर पीया । नानक को परमात्मा की तरह पूजा । और जब नानक उस गांव से विदा होने लगे, तो वे सब मीलों तक रोते हुए उनके पीछे आए और उन्होंने कहा, हमें कुछ आशीर्वाद दें। तो नानक ने कहा, एक ही मेरा आशीर्वाद है कि तुम उजड़ जाओ।
सदमा लगा । नानक के शिष्य तो बहुत हैरान हुए, कि यह क्या | बात कही! इतना भला गांव। लेकिन अब बात हो गई और एकदम पूछना भी ठीक न लगा । सोचेंगे, विचार करेंगे, फिर पूछ लेंगे।
फिर दूसरे गांव में पड़ाव हुआ। वह दुष्टों का गांव था। सब उपद्रवी जमीन के वहां इकट्ठे थे। उन्होंने न केवल अपमान किया, तिरस्कार किया, पत्थर फेंके, गालियां दीं, मार-पीट की नौबत खड़ी हो गई; रात रुकने भी न दिया ।
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