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________________ * गीता दर्शन भाग-7 गिरता है, वहां भविष्य गिर जाता है, क्योंकि कौन सोचेगा भविष्य? जो उस अंधेरे में मजे से रह रहा है, उसकी चिंताएं कारागृह के __ मन के गिरते ही वर्तमान के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व नहीं | | भीतर की हैं। जो कारागृह के बाहर जाना चाहता है, उसकी तो नई है। मन के गिरते ही व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन कर्ता नहीं होता चिंताएं आ गईं, कि कारागृह से बाहर कैसे निकलें? इसलिए है। क्योंकि वहां कोई अहंकार नहीं बचता पीछे, जो कहे, मैं। मन | धार्मिक आदमी गहन चिंता में डूब जाता है। यह स्वाभाविक है। मैं ही कहता है, मैं। चूंकि चिंता का केंद्र है। फिर कर्म सहज और सरल हो जाता है। फिर वह कर्म चाहे युद्ध __ कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन कैसे मिट जाए। गुरु का में जाना हो, चाहे युद्ध से हट जाना हो, लेकिन उस कर्म के पीछे सारा उपाय सदा ही यही रहा है कि शिष्य कैसे मिट जाए। कर्ता नहीं होगा। सोच-विचारकर, गणित, तर्क से लिया गया ___ यहां जरा जटिलता है। क्योंकि शिष्य मिटने नहीं आता। शिष्य निष्कर्ष नहीं होगा। सहज होगा कर्म। अस्तित्व जो चाहेगा उस क्षण होने आता है। शिष्य बनने आता है, कुछ पाने आता है। सफलता, में, वही अर्जुन से हो जाएगा। कृष्ण की भाषा में, परमात्मा जो शांति, सिद्धि, मोक्ष, समृद्धि, स्वास्थ्य-कुछ पाने आता है। चाहेगा अर्जुन से वही हो जाएगा। अर्जुन निमित्त हो जाएगा। इसलिए गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष है। दोनों की __ अभी अर्जुन कर्ता होने की कोशिश कर रहा है। अभी वह चाहता आकांक्षाएं बिलकुल विपरीत हैं। शिष्य कुछ पाने आया है और गुरु है, मैं जो करूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है। उसका दायित्व मेरा है। कुछ छीनने की कोशिश करेगा। शिष्य कुछ होने आया है, गुरु मेरे ऊपर होगा, शुभ या अशुभ। मैं कर रहा हूं। मिटाने की कोशिश करेगा। शिष्य कहीं पहुंचने के लिए उत्सुक है, और अगर आप कर रहे हैं. तो बडी चिंता पकडेगी। इसलिए गरु उसे यहीं ठहराने के लिए उत्सक है। जितना ज्यादा मैं का भाव होगा, उतनी ज्यादा जीवन में चिंता होगी। पूरी गीता इसी संघर्ष की कथा है। अर्जुन घूम-घूमकर वही जितना मैं का भाव कम होगा, उतनी चिंता क्षीण हो जाएगी। और | चाहता है, जो प्रत्येक शिष्य चाहता है। कृष्ण घूम-घूमकर वही जिस व्यक्ति को चिंता से बिलकुल मुक्त होना है, उसे मैं से मुक्त | | करना चाह रहे हैं, जो प्रत्येक गुरु करना चाहता है। एक दरवाजे से हो जाना पड़ेगा। मैं ही चिंता है। कृष्ण हार जाते लगते हैं, क्योंकि अज्ञान गहन है, तो दूसरे दरवाजे लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम कैसे निश्चित हो जाएं ? | से कृष्ण प्रवेश की कोशिश करते हैं। वहां भी हारते दिखाई पड़ते . मैं उनसे कहता हूं, जब तक तुम हो, तब तक निश्चित न हो सकोगे। हैं, तो तीसरे दरवाजे से प्रवेश करते हैं। क्योंकि तुम चिंता के स्रोत हो। जैसे बीज से अंकुर निकलते हैं, ऐसे ___ ध्यान रहे, शिष्य बहुत बार जीतता है। गुरु सिर्फ एक बार जीतता तुमसे चिंताओं के अंकुर निकलते हैं। तुम चिंताओं को पोषण कर | है। गुरु बहुत बार हारता है शिष्य के साथ। लेकिन उसकी कोई हार रहे हो। तुम आधार हो। फिर तुम परेशान हो कि मैं कैसे निश्चित | | अंतिम नहीं है। और शिष्य की कोई जीत अंतिम नहीं है। बहुत बार हो जाऊं! तब निश्चित होना और एक नई चिंता बन जाती है। तब जीतकर भी शिष्य अंततः हारेगा। क्योंकि उसकी जीत उसे कहीं नहीं शांत होने की चेष्टा एक नई अशांति बन जाती है। ले जा सकती। उसकी जीत उसके दुख के डबरे में ही उसे डाले इसलिए साधारण आदमी उतना चिंतित नहीं है, जितना धार्मिक, | | रखेगी। और जब तक गुरु न जीत जाए, तब तक वह दुख के डबरे असाधारण आदमी चिंतित होता है। अपराधी उतना चिंतितं नहीं है, | के बाहर नहीं आ सकता है। लेकिन संघर्ष होगा। बड़ा प्रीतिकर जितना साधु चिंतित दिखाई पड़ता है। संघर्ष है। बड़ी मधुर लड़ाई है। जितना ज्यादा चिंता से हम छूटना चाहते हैं, उतनी नई चिंता हमें | शिष्य की अड़चन यही है कि वह कुछ और चाह रहा है। और पकड़ती है। एक तो यह नई चिंता पकड़ लेती है कि चिंता से कैसे इन दोनों में कहीं मेल सीधा नहीं बैठता। इसलिए गीता इतनी लंबी छुटे! और कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता छूटने का, तो मन बड़े होती जाती है। एक दरवाजे से कृष्ण कोशिश करते हैं, अर्जुन वहां भयंकर बोझ से दब जाता है। जैसे कोई छुटकारा नहीं, कोई मार्ग जीत जाता है। जीत जाता है मतलब, वहां नहीं टूटता। जीत जाता नहीं। इस कारागृह के बाहर जाने के लिए कोई द्वार खुला नहीं | है मतलब, वहां नहीं मिटता। चूक जाता है उस अवसर को। उसकी दिखता, कोई स्रोत नहीं दिखता, कोई सूत्र नहीं समझ में आता कि जीत उसकी हार है। क्योंकि अंततः जिस दिन वह हारेगा, उसी दिन कैसे बाहर जाएं। एक प्रकाश की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। | जीतेगा। उसकी हार उसका समर्पण बनेगी।
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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