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* गीता दर्शन भाग-7 *
साधुता में सिर्फ पूर्व-भूमिका है। संतुलन पैदा हो गया है। अब चाहे | शरीर, जितने रूप उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया को तो समाधि भी आ सकती है। लेकिन संतुलन ही समाधि नहीं है। | तो गर्भ धारण करने वाली माता समझो। यह जो प्रकृति है तीन गुणों
ये तीन तत्व तो प्रकृति के ही हैं। इसमें तम मूर्छा में ले जाता है। से भरी हुई, इसे तुम मां समझो, गर्भ समझो। और मैं बीज को इसमें रज गति और विकास, त्वरा में ले जाता है। इसमें सत्व शांति स्थापन करने वाला पिता हूं। में ले जाता है। लेकिन ये तीनों तत्व जगत के भीतर हैं। __ तो शरीर और रूप तो इन तीन गुणों से मिलता है। मन, शरीर,
सत्व के भी पार जाना जरूरी है। तब गुणातीत अवस्था पैदा होती रूप इन तीन गुणों से मिलता है। चेतना परमात्मा से आती है। इन है, जो तीनों गुणों के पार है। और जो तीनों गुणों के पार है, वह | | तीनों गुणों के पार से आती है। चेतना इन तीनों गुणों के भिन्न जगत प्रकृति के पार है। वही परमात्मा है। तीन गुण प्रकृति के और तीनों | से आती है। और इन तीन के भीतर आवास करती है। गुणों के जो पार निकल जाए, वह परमात्मा है, वह पुरुष है, वह लेकिन इन तीनों में से किसी न किसी में जकड़ जाने का डर है। मुक्त की दशा है।
या तो आलस्य में उलझ जाती है, तम में पड़ जाती है। या तो लेकिन सत्व द्वार बन जाता है। पर अगर आप नासमझी करें, तो विक्षिप्तता में, चंचलता में, दौड़ में पड़ जाती है। और या फिर सत्व सत्व ही बाधा भी बन सकता है। क्योंकि अगर साधुता का के अहंकार में पड़ जाती है। और इन तीनों में से किसी एक से भी अभिमान आ जाए, जो कि आ सकता है। शांति का अभिमान आ| | जुड़ जाए, तो अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाती, जाए, जो कि आ सकता है। सत्व में ज्ञान का अभिमान आ जाए, क्योंकि वास्तविक स्वरूप तीनों के पार से आता है। जो कि आ सकता है। सात्विक होने की अहंमन्यता आ जाए, जो यह इसका अर्थ है। तीन गुण तो मां है, और मैं बीज को स्थापन कि बड़ी सरल है।
करने वाला पिता हूं। मैं से अर्थ है, ब्रह्म। मैं से अर्थ है, इस जगत इसलिए साधु से ज्यादा अहंकारी आदमी दूसरे नहीं पाए जाते। की परम चेतना। उनके पास अहंकार करने को कुछ है भी। और जब कुछ अहंकार हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से करने को हो, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। संसार में तो ऐसे लोग उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। भी अहंकार में पड़े हैं, जिनके पास अहंकार करने को कुछ भी नहीं ये तीन जीवात्मा के लिए बंधन निर्मित करते हैं। इन तीनों के है। उनका अहंकार जस्टीफाइड भी नहीं है। वे भी अहंकार कर रहे | बिना जीवात्मा शरीर में नहीं हो सकती। तम चाहिए, जो ठहराव की हैं। लेकिन साधु का अहंकार न्यायसंगत भी मालूम पड़ सकता है। शक्ति दे। रज चाहिए, जो गति दे और जीवन दे। सत्व चाहिए, जो उसके पीछे तर्क है, आधार भी है। वह शांत है। वह सत्व में ठहरा संतुलन दे, सुख दे। अगर इन तीनों में से एक भी कम है, तो आप हुआ है। वह एक तरह का सुख पा रहा है।
टिक न पाएंगे। सत्व एक सुख देता है, जिसका अंतिम दर्जा स्वर्ग है। सत्व की अगर सुख बिलकल न रह जाए, तो आप आत्महत्या कर लेते। जो आखिरी दशा है, वह स्वर्ग है; मोक्ष नहीं, स्वर्ग। सुख की बड़ी | क्यों? किसलिए जीएं? सुख की थोड़ी झलक तो चाहिए। असाधु गहन क्षमता है।
में भी थोड़ी-सी तो सुख की झलक चाहिए ही। आज नहीं कल, उसके पास कुछ है। और जब हम ना-कुछ के अभिमानी हो | कल नहीं परसों, कहीं सुख मिलेगा, इसका थोड़ा आसरा चाहिए। जाते हैं, तो जिनके पास कुछ है, उनको अहंकार पकड़ ले, इसमें उतना भी काफी है बांधने के लिए। अगर सुख के सब सेतु टूट आश्चर्य नहीं है। वही खतरा है। उनको अहंकार से छुड़ाना बहुत | | जाएं; साफ हो जाए, कोई सुख नहीं; आप इसी क्षण मर जाएंगे। मुश्किल है। संसारी को अहंकार से छुड़ाना बहुत आसान है, साधु | | ये तीनों चाहिए। ये तीन शरीर को बांधते हैं। को अहंकार से छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि उसको लगता है | हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार कि अहंकार का कुछ कारण है। वह ऐसे ही अहंकार नहीं कर रहा सत्वगुण है। इन तीनों गुणों में सबसे ज्यादा प्रकाशित, सबसे ज्यादा है; कुछ वजह है। वह वजह बाधा बन जाती है।
निर्मल, निर्विकार सत्वगुण है। निर्मल होने के कारण सुख की अब हम इस सूत्र को देखें।
आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां, जितने | | बांधता है।
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