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त्रिगुणात्मक जीवन के पार
चूंकि सत्वगुण निर्मल है, शांत है, शुद्ध है, सुख देता है, ज्ञान भी देता है। क्योंकि एक क्लैरिटी, एक स्वच्छता आंखों में आ जाती है; देखने की एक क्षमता आ जाती है; चीजों को आर-पार पहचानने की कला आ जाती है। सुख भी देता है भीतर और साथ में एक जानकारी, जीवन में प्रवेश करने की, ज्ञान की क्षमता देता है । पर इन दोनों से अभिमान पैदा होता है।
ज्ञान से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं जानता हूं। सुख से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं सुखी हूं। और वह जो मैं का भाव इन दोनों से पैदा हो जाता है, तो सत्वगुण भी फिर संसार में ही रखने का कारण बनता है।
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जिस दिन ये दोनों बातें भी छोड़ दी जाती हैं, न तो कोई सुख बंधता है और न कोई ज्ञान से... ।
इसे थोड़ा हम समझ लें।
हम तो दुख से भी बंधे हुए हैं। दुख को भी कहते हैं, मेरा दुख, मेरा सिरदर्द, मेरी बीमारी। उसके साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं। अज्ञान के साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं, तो ज्ञान के साथ तो हम मैं जोड़ेंगे ही। सुख के साथ तो हम कैसे बचेंगे बिना जोड़े ! इसलिए अगर स्वर्ग के देवता मुक्त होने से वंचित रह जाते हैं, तो उसका कारण है। सत्व के साथ बंधे हुए लोग हैं। सुख बहुत है । और जहां सुख ज्यादा हो, वहां तादात्म्य तोड़ने का मन भी पैदा नहीं होता।
दुख से तो तादात्म्य तोड़ने का मन भी पैदा होता है कि कोई समझा दे कि दुख अलग है और मैं अलग हूं। कोई बता दे कि अज्ञान अलग है और मैं अलग हूं, इसकी थोड़ी आकांक्षा होती है। क्योंकि दुख कोई भी चाहता नहीं है, अज्ञान कोई भी चाहता नहीं है।
लेकिन जब आप सुख में हों और कोई बताए कि तुम अलग और सुख अलग, तो आप उसको मित्र न समझेंगे, शत्रु समझेंगे। उससे कहेंगे, जाओ, कहीं और समझाओ। कोई आपसे कहे, तुम्हारा ज्ञान अलग, तुम अलग, यह ज्ञान कचरा है। तुम ज्ञान नहीं हो। यह सुख व्यर्थ है। तुम सुख नहीं हो, तुम दूर अलग हो ।
इसलिए संतों ने कहा है, दुख अभिशाप नहीं, वरदान है। क्योंकि दुख में दुख से टूटने की कामना पैदा होती है।
सूफी फकीर जुन्नैद बीमार रहता था। उसके भक्तों ने उससे कहा कि तुम एक दफा प्रार्थना करो परमात्मा से, तो तुम्हारी सब बीमारी दूर हो जाए।
जुन्नैद हंसने लगा। कहा, प्रार्थना तो हम करते हैं। उन्होंने कहा, अगर तुम प्रार्थना करते हो, तो बीमारी दूर क्यों नहीं होती ? उसने
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| कहा, प्रार्थना ही हम यह करते हैं कि बीमारी बनी रहे। क्योंकि मुझे | अच्छी तरह याद है, जब भी बीमारी मिट जाती है, मैं परमात्मा को भूल जाता हूं। यह उसकी बड़ी कृपा है। बीमारी बनी रहती है, तो मैं सोचता रहता हूं, मैं शरीर नहीं हूं। यह बीमारी शरीर को है, मैं अलग हूं। और जैसे ही बीमारी हटती है, सुख हो जाता है, मैं भूल ही जाता हूं कि यह शरीर मैं नहीं हूं।
दुख भी साधना बन जाता है। दुख जब साधना बन जाता है, तो उसे हमने तपश्चर्या कहा है। तपश्चर्या का मतलब यह है कि दुख से हम अपने को अलग कर रहे हैं। इसलिए साधक सामान्य दुखों से अपने को तोड़ता ही है, अगर जरूरत पड़े तो विशेष दुख भी अपने लिए पैदा कर लेता है, जिनकी वजह से वह अपने को तोड़ सके।
आपने देखा है, सुना है, कोई साधु कांटों पर लेटा हुआ है। कोई साधु दिन-रात आग को जलाकर बैठा रहता है। भयंकर गर्मी है और वह आग को जलाकर बैठा है। पसीने-पसीने होता रहता है। शरीर सूखता है। इसमें वस्तुतः जो जानता है रहस्य को ... ।
जरूरी नहीं कि ऐसा करने वाले सभी जानते हों। उसमें कई तरह के लोग हैं। उसमें कई तो सिर्फ दुखवादी हैं, जो खुद को सताने में मजा ले रहे हैं। उसमें कई सिर्फ एक्झिबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं, | जो दूसरों को अपना दुख दिखाकर मजा ले रहे हैं। क्योंकि दूसरे उनको पूजते हैं सिर्फ इसीलिए कि वे कांटों पर लेटे हुए हैं।
लेकिन इसमें से कुछ हैं, जो इस तपश्चर्या को कर रहे हैं। उनकी तपश्चर्या क्या है? उनकी तपश्चर्या यह है कि सारे शरीर पर कांटे | चुभ रहे हैं, तब वे भीतर अपने को इस स्मृति से भर रहे हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। ये कांटे मुझे नहीं छू रहे हैं। ये कांटे शरीर को छू रहे हैं। और वे तब तक कांटों पर लेटे रहेंगे, जब तक कि कांटे बिलकुल ही विस्मृत न हो जाएं। शरीर को ही छुएं, उनको जरा भी न चुभें। जब चेतना कांटों से बिलकुल अलग हो जाएगी, तभी वे इस कांटों की सेज से उठेंगे।
तो साधक अपने आस-पास आयोजित दुख भी कर सकता है, जिससे अपने को तोड़े।
सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से! सत्व भी ज्ञान अभिमान से बांधता है।
तम और रज तो बांधते ही हैं, सत्व भी बांधता है। बुरा तो बांधता ही है, जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह भी बांधता है। शुभ भी बांधता | है। यहां जंजीरें सिर्फ लोहे की ही नहीं हैं, सोने की भी हैं। कुछ लोहे की जंजीरों से बंधते हैं, कुछ सोने की जंजीरों से बंध जाते हैं।