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*नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ *
जीवेषणा दो पहलुओं से चलती है, व्यक्ति बचे और संतति | काम, लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब भी आप जो बचे। इसलिए कामवासना बहुत गहरे में पड़ी है। और उससे चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है, तभी आप में आग जल छटकारा इतना आसान नहीं. जितना साध-संत समझते हैं। उससे उठती है, आप क्रोधित हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर छुटकारा बड़ी आंतरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा होता है; बच्चों | | आपको बड़ा स्नेह आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता का खेल नहीं है। नियम और व्रत लेने से कुछ हल नहीं होता, | | है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो आपकी कसमें खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि जीवन का | | वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो आपकी रोआं-रोआं रूपांतरित न हो जाए, जब तक बोध इतना प्रगाढ़ न हो | | वासनाओं में बाधा हैं। कि आप शरीर से अपने को बिलकुल अलग देखने में समर्थ न हो | लोभ और क्रोध से तभी छटकारा होगा. जब काम से छटकारा जाएं, तब तक कामवासना पकड़ती ही रहती है।
हो। और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें, इसके पीछे | | काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह दौड़ें, तो जो एक नई वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ | | कभी भी होने वाला नहीं है। कामवासना के फैलाव का नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक बिंदु है, वह हजार स्त्रियां चाहिए! तो भी हल नहीं होगा।
| यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा सार्च ने अपने एक उपन्यास में उसके एक पात्र से कहलवाया है | | है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक कि जब तक इस जमीन की सारी स्त्रियां मुझे न मिल जाएं, तब तक विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा हो। मेरी कोई तृप्ति नहीं।
कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं। " आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को; वह सवाल नहीं है; लेकिन हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो जिसे हम जीवन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है।
| कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं। जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में कुछ है। धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से | बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें, फिर कामवासना खरीदी जा सकती है; धन से सुविधाएं खरीदी जा | क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें, फिर कुछ सकती हैं, सुविधाएं कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं। खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम
लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी व्यक्ति शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए। कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे आप। अगर क्रोध नहीं लोभ में इतना पड़ गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने बचे, न पराए बचे; आप एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों तक | | अकेले रह गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए घबड़ाने वाला हो जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते खोज रहा है कि जब धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम इन तीनों को जीवन समझे आवाज देकर बुलाया जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं। । | हुए हैं।
यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको खयाल ही न आए, हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम से भरे हुए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में हैं। उठते-बैठते, सोते-चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो कामवासना है।
फैलाव है, वह कामवासना का है। सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के विस्तार में, इस | अगर अभी एक हवाई जहाज गिर पड़े, आप उसके टूटे लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध आता है। कामवासना | | अस्थिपंजर के पास जाएं। उसमें जो यात्री मरे हुए पड़े होंगे, उन मरे है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट डालता है, तो क्रोध | हुए यात्रियों में भी आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई पड़ेगी, वह आता है।
यह कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष।
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