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________________ आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं मैं शून्य हो जाऊंगा ? बीमार के पास बीमारियों के सिवाय और कोई संपदा नहीं है; उसने स्वास्थ्य कभी जाना नहीं है। निश्चित ही, बीमारियां छूटें, तो स्वास्थ्य का जन्म होगा। धर्म की भाषा लगती है शून्यवादी है। क्योंकि धर्म कहता है, यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो। क्योंकि हम बीमारियां पकड़े हुए हैं, इसलिए छोड़ने पर इतना जोर है, त्याग की इतनी उपादेयता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है हम शून्य में खो जाएंगे। बीमारियां शून्य में खो जाएंगी; हम तो को उपलब्ध हो जाएंगे। और जिस दिन आप सब छोड़ देते हैं वह जो गलत था, उस दिन जो सही है, उसका आपके भीतर उदय होता है। उस दिन दीया जलता है। उस दिन आप यह न कहेंगे कि अंधेरा छोड़ दिया, अब शून्य हो अंधेरा छोड़ा, प्रकाश जला। वह जो प्रकाश का जलना है, वह उपलब्धि है। लेकिन जिसने अंधेरा ही जाना हो, वह शायद यही समझेगा कि सब छूट गया, सब खो गया, सब नष्ट हो गया, कुछ भी न बचा। हाथ में लकड़ी थी, अंधेरे में टटोलते थे, वह भी छूट गई; अंधेरा भी छूट गया। टकराते थे – उस टकराने को लोग जिंदगी समझते हैं—जगह-जगह ठोकर खाते थे। अब कोई ठोकर नहीं लगती; जगह-जगह टकराते नहीं। हाथ की लकड़ी छूटी, अंधेरा छूटा, सब छूट गया। प्रकाश की जो उपलब्धि हुई है, वह धीरे से समझ में आएगी, कि जो छूटा, वह छूटने योग्य था, छोड़ने योग्य था, छोड़ ही देना था कभी का उसे । इतने दिन खींचा यही आश्चर्य है । • लेकिन प्राथमिक रूप से लगेगा कि धर्म शून्य में ले जाता है। जो आपके पास है, उसे छीनता है, इसलिए लगता है कि शून्य में जाता है। और जिसका आपको पता नहीं है, उस शून्यता से उस पूर्णका उदय होता है। धर्म आपको खाली करता है, ताकि आप परमात्मा से भर सकें। आपको मिटाता है, ताकि आपके भीतर जो नहीं मिटने वाला तत्व है, केवल वही शेष रह जाए। आपको जलाता है, ताकि कचरा जल जाए, केवल स्वर्ण बचे। आपकी मृत्यु में ही आपके परमात्म-स्वरूप का जन्म है। और ध्यान रहे, यह निमंत्रण विरले लोगों के लिए नहीं है ! निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले इसे स्वीकार करते हैं। क्योंकि निमंत्रण बड़ा कठिन है। यात्रा दुरूह है, बड़ी लंबी है। उतनी | देर तक सातत्य को बनाए रखना, धैर्य को रखना, बहुत थोड़े लोगों की क्षमता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कितने दिन ध्यान करें तो | आत्मा उपलब्ध हो जाएगी ? कितने दिन ! और ऐसा लगता है उनकी बात से कि काफी कृपा कर रहे हैं ! कितने दिन ? और दो-चार दिन कोई ध्यान कर लेता है, तो वह मुझे लौटकर कहता है कि अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए! विरले स्वीकार कर पाते हैं, क्योंकि धैर्य की कमी है। और सातत्य थोड़े दिन भी बनाए रखना मुश्किल है। आज करते हैं, कल छूट जाता है। दो-चार दिन करते हैं, हजार बहाने मन खोज लेता है न करने के। और दो-चार दिन में मन कहने लगता है, इतना समय नष्ट कर रहे हो! इतने में तो न मालूम कितना कमाया जा सकता था। न मालूम क्या-क्या कर लेते। यह प्रार्थना, यह पूजा, यह ध्यान, यह समय का अपव्यय मालूम होता है। हमारी दशा उन छोटे बच्चों जैसी है, जो आम की गुठली को | जमीन में गड़ा देते हैं। फिर घड़ीभर बाद जाकर उघाड़कर देखते हैं, पौधा आया या नहीं ? फिर घड़ीभर बाद जाकर खोदकर देखते हैं। • अगर हर घड़ी गुठली को खोदकर देखा गया, तो पौधा कभी भी न आएगा। क्योंकि गुठली को मौका ही नहीं मिल रहा है कि वह जमीन के साथ एक हो जाए, टूट जाए, मिट जाए, खो जाए। गुठली मिटे, तो पौधे का जन्म हो । और जो उसे हर घड़ी खोदकर देख रहा है, वह मौका ही नहीं दे रहा है। गुठली गुठली ही बनी रहेगी। और तब उसका तर्क कहेगा, फिजूल है यह बात । महीनों से देख रहा हूं, गुठली गड़ा रहा हूं, | उखाड़ रहा हूं, कुछ पौधा - वौधा आता नहीं। झूठी हैं ये बातें । ये कृष्ण और बुद्ध और क्राइस्ट जो कहते हैं, सब कपोल-कल्पित है। यह गुठली पत्थर है, इसमें कुछ पौधा है नहीं, इससे पौधा कभी आ नहीं सकता। और तब यह तर्क ठीक भी मालूम पड़ता है। क्योंकि महीनों का अनुभव यह कहता है कि रोज तो देख रहे हैं, कहीं से जरा-सी भी तो अंकुर के फूटने की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती । गुठली | वैसी की वैसी है। यह पत्थर है । न कोई आत्मा है भीतर, न कोई पौधा है, न कोई फूल छिपे हैं। तब हम गुठली को फेंक देते हैं। धीरज की जरूरत है। और जब आम की गुठली के लिए महीनों 337
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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