________________
* दैवीय लक्षण *
खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो | न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी | | छोटी-छोटी बातों में हां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग | न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर नियम है, खेल खराब हो गया।
उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता। यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से | इसलिए जिसको वस्तुतः क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड़ने में नहीं लगना चाहिए, पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है; कोई छोटा है, कोई बड़ा है;|| | जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो। कोई पूज्य है; कोई शिष्य है, कोई गुरु है-वे सारे खेल हैं। उस | तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना, अपने में कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को | | पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा उलझन में डालता है।
को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं | इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार-शून्यता। मैं पूज्य हूं, है। आप अगर बाएं को छोड़कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी दूसरे मुझे पूजें, दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। क्रांति नहीं हो जाएगी; सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे।
यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा आसरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड़ने और रक्षित होगा। मैं दूसरे को पूजं, यह कठिन है। गुरु होना एकदम में रस आता है. उच्छंखल होने में रस आता है. विद्रोह में रस आता आसान है. शिष्य होना बहत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण। सिद्ध होता है। उसे आज्ञा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान | इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा।
| है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा है कि यह मत कर, के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी वह मत कर। बेटा सुनता नहीं। वह नसरुद्दीन का ही बेटा है! करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी आखिर नसरुद्दीन उससे परेशान आ गया और उससे बोला, दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए! अच्छा, अब तुझे जो करना हो कर। अब मैं देखू, तू कैसे मेरी आज्ञा | | अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और का उल्लंघन करता है! जो तुझे करना हो कर, यह मेरी आज्ञा है। कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको अब मैं देखता हूं कि तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है! | | पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निरहंकार भाव की है।
वह जो आसुरी वृत्ति का व्यक्तित्व है, उसे तोड़ने का रस है। | जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, आप कुछ कहें, वह उसको तोड़ेगा। जो आपको न करवाना हो, लेकिन आपकी वह आकांक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, उससे कहें कि करो, तो वह नहीं करेगा।
आपका समभाव होगा। दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो __मैं मिटूं, ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, हां भर देगा। खेल के नियम | | उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं, मैं रहूं, मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल | जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक | आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा।
आज इतना ही। और ध्यान रहे, जो छोटी-छोटी बातों में न कहता है, उसके पास
313