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________________ गीता दर्शन भाग-7 है, जो कि तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है। क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। ये तीन परतें दार्शनिक सिद्धांत नहीं हैं। ये तीन परतें आपके भीतर अनुभव की परतें हैं। जैसे-जैसे आप भीतर जाएंगे, वैसे-वैसे पर्त उघड़नी शुरू हो जाएगी । अधिक लोग पहली पर्त पर ही रुके हैं, जो अपने को मान लेते हैं कि मैं शरीर हूं। जिस व्यक्ति ने अपने को मान लिया कि मैं शरीर हूं, वह अपने भीतरी खजानों से अपने ही हाथ से वंचित रह जाता है । उसका तर्क ही गलत नहीं है, उसका पूरा जीवन ही अधूरा अधकचरा हो जाएगा। क्योंकि जो वह हो सकता था, जो उसके बिलकुल हाथ के भीतर था, वह उसने ही द्वार बंद कर दिए। जैसे अपने ही घर के बाहर आप बैठे हैं ताला लगाकर; और कहते हैं कि यही घर है। बाहर की जो छपरी है, उसको घर समझे हुए हैं। पोर्च में जी रहे हैं, उसको घर समझे हुए हैं। नास्तिक की, शरीरवादी की भूल तार्किक नहीं है, जीवनगत है, एक्झिस्टेंशियल है। और एक दफा आप पक्का जड़ पकड़ लें कि यही मेरा घर है, तो खोज बंद हो जाती है। फिर आप डरते हैं; फिर आप आंख भी नहीं उठाते; फिर प्रयत्न भी नहीं करते। आस्तिक के साथ संभावना खुलती है। क्योंकि आस्तिक कहता है, तुम जहां हो, उतना सब कुछ नहीं और भीतर जाया जा सकता है। इसलिए नास्तिक बंद हो जाता आस्तिक सदा खुला है और खुला होना शुभ है। है। अगर आस्तिक गलत भी हो, तो भी खुला होना शुभ है, क्योंकि खोज हो सकती है। जो छिपा है, उसको हम प्रकट कर सकते हैं। नास्तिक अगर ठीक भी हो, तो भी गलत है, क्योंकि खोज ही बंद हो गई; आदमी जड़ हो गया। उसने मान लिया कि जो मैं हूं बस, यह बात समाप्त हो गई। जैसे एक बीज समझ ले कि बस, बीज ही सब कुछ है; तो फिर अंकुरण होने का कोई कारण नहीं है । फिर अंकुरित हो, जमीन की पर्त को तोड़े, कष्ट उठाए, आकाश की तरफ उठे, सूरज की यात्रा करे - यह सब बंद हो गया। बीज ने मान लिया कि मैं बीज हूं। जो व्यक्ति मान ले कि मैं शरीर हूं, उसने अपने ही हाथ से अपने पैर काट लिए। पोर्च भी हमारा है, लेकिन घर के और भी कक्ष हैं। और जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही सुख, उतनी ही शांति, उतने ही आनंद में प्रवेश होता है। क्योंकि उतने ही हम घर में प्रवेश होते हैं। उतने ही विश्राम में हम प्रवेश होते हैं। कृष्ण कहते हैं, शरीर, वह क्षर, आत्मा, वह अविनाशी, शरीर के साथ जुड़ा हुआ; और इन दोनों के पार साक्षी - आत्मा है, दोनों से मुक्त। आत्मा और साक्षी - आत्मा में इतना ही फर्क है। वे दो नहीं हैं। एक ही चेतना की दो अवस्थाएं हैं। खयाल आत्मा का अर्थ है, शरीर से जुड़ी हुई। आत्मा का अर्थ है, जिसे का। आत्मा शब्द का भी अर्थ होता है, मैं, अस्मिता । जिस आत्मा को खयाल है शरीर से जुड़े होने का, उसको खयाल होता है। शरीर से मैं भिन्न हूं, तो मैं भी खो जाता है। और मैं के खोते ही सिर्फ शुद्ध चैतन्य रह जाता है। वहां यह भी खयाल नहीं है कि मैं हूं। उस शुद्ध चैतन्य का नाम पुरुषोत्तम है। ये आपके ही जीवन की तीन परतें हैं। और पहली पर्त से तीसरी पर्त तक यात्रा करनी ही सारी आध्यात्मिक खोज और साधना है। और तीसरी का लक्षण है कि वह दोनों के पार है। न तो वह देह न वह मन है । न वह पदार्थ है, न अपदार्थ है । वह दो से भिन्न, तीसरी है। आप अपने भीतर कभी-कभी उसकी झलक पाते हैं। और चेष्टा करें, तो कभी-कभी उसकी झलक आयोजन से भी पा सकते हैं। भोजन कर रहे हैं, तब एक क्षण को देखने की कोशिश करें। भोजन शरीर में जा रहा है, भोजन क्षर है और क्षर में जा रहा है। लेकिन जो उसे शरीर में पहुंचा रहा है, वह आत्मा है। और आत्मा मौजूद न हो, तो शरीर भोजन न तो कर सकेगा, न पचा सकेगा। भूख शरीर में लगती है, लेकिन जिसको पता चलता है, वह आत्मा है। आत्मा न हो, तो शरीर को भूख लगेगी नहीं, पता भी नहीं चलेगी। भूख शरीर में पैदा होती है, लेकिन जिसको एहसास | होता है, वह आत्मा है। भूख, भूख की प्रतीति, ये दो हुए तल। क्या आप तीसरे को भी खोज सकते हैं, जो देख रहा है दोनों को कि शरीर में भूख लगी और आत्मा को भूख का पता चला और मैं दोनों को देख रहा हूं। इस तीसरे की थोड़ी-थोड़ी झलक पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। कोई भी अनुभव हो, उसमें तीनों मौजूद रहते हैं। इन तीन के बिना कोई भी अनुभव निर्मित नहीं होता। लेकिन तीसरा छिपा है 258
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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