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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उसकी मां ने आंख बंद कर लीं। उसके चेहरे पर एक समाधि का भाव आ गया। उसने कहा, बेटे, अगर सोलह साल की हो जाऊं, तो फिर कुछ चाहने को बचता भी नहीं है। उतना काफी है। उतना बहुत है; फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। जैसे ही किसी को भीतर के पुरुषोत्तम का स्वर सुनाई पड़ता है, फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। वह पा लेना सब पा लेना है। लेकिन उसकी तलाश करनी होगी। पास ही है बहुत, फिर भी खोदना पड़ेगा। और जितनी त्वरा से खोदेंगे, जितनी तीव्रता से, उतना ही निकट उसे पाएंगे। अगर तीव्रता परिपूर्ण हो, सौ प्रतिशत हो, तो बिना खोदे भी मिल सकता है। धीरे-धीरे बेमन से खोदेंगे, तो बहुत दूर है। ऐसे ही खोदेंगे कि चलो देख लें, शायद हो, कभी न मिलेगा। क्योंकि खोदने की भावना क्या है, इस पर सब निर्भर है। अगर कोई तीव्रता से, पूर्ण तीव्रता से चाहे, तो किसी भी क्षण उसके द्वार खुल जाते हैं। और हमें अगर जन्मों-जन्मों से नहीं मिला पुरुषोत्तम, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह दूर है। उसका एक कारण है कि एक तो हमने खोजा ही नहीं। कभी खोजा भी, तो बेमन से खोजा। कभी गहरी प्यास से न पुकारा। कभी पुकारा भी, तो ऐसा कि लोगों को दिखाने के लिए पुकारा। प्रार्थना भी की, तो वह हार्दिक न थी; ऊपर-ऊपर थी; शब्दों की थी। अगर इतना स्मरण रहे, तो उसे किसी भी क्षण पाया जा सकता है। हाथ बढ़ाने भर की बात है। आज इतना ही। 262
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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