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________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि इस संबंध में महावीर की अंतर्दृष्टि बड़ी गहरी है। महावीर ने ध्यान के दो रूप कर दिए हैं। एक को वे धर्म- ध्यान कहते हैं; एक को अधर्म - ध्यान | ऐसा भेद मनुष्य जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया। यह भेद बड़ा कीमती है। हमें तो लगेगा कि सभी ध्यान धार्मिक होते हैं। लेकिन महावीर दो हिस्से करते हैं, अधर्म ध्यान और धर्म - ध्यान । तो ध्यान अपने आप में धार्मिक नहीं है। शुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो ही धार्मिक है, अशुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो अधार्मिक है। आपको भी अनुभव हुआ होगा । धार्मिक ध्यान का तो अनुभव शायद न हुआ हो, लेकिन अधार्मिक ध्यान का आपको भी अनुभव हुआ है। जब आप क्रोध में होते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। जब कामवासना से भरते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। परमात्मा पर मन को लगाना हो, तो यहां-वहां भटकता है। एक सुंदर स्त्री मन में समा जाए, तो भटकता नहीं है; सुंदर स्त्री में रुक जाता है। परमात्मा की मूर्ति पर ध्यान को लगाएं, तो बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तो भी नहीं रुकता। एक नग्न स्त्री का चित्र सामने रखा हो, तो मन एकदम रुक जाता है; कहीं जाता नहीं। पास शोरगुल भी होता. रहे, तो भी मन विचलित नहीं होता। इसे महावीर अधर्म-ध्यान कहते हैं। यह भी ध्यान तो है ही । क्योंकि ध्यान का तो मतलब है, मन का ठहर जाना । वह कहां ठहरता है; यह सवाल नहीं है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मन ठहर जाता है। इसलिए आपको अनुभव होगा कि क्रोध में आपकी शक्ति बढ़ जाती है। साधारणतः हो सकता है आपमें इतनी शक्ति न हो, लेकिन जब क्रोध में आप होते हैं, तो अनंत गुना शक्ति हो जाती है। क्रोध की अवस्था में लोगों ने ऐसे पत्थरों को हटा दिया है, जिनको सामान्य अवस्था में वे हिला भी नहीं सकते। क्रोध की अवस्था में अपने से दुगुने ताकतवर आदमियों को लोगों ने पछाड़ दिया है, जिनको साधारण अवस्था में वे देखकर भाग ही खड़े होते । क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है; शक्ति उपलब्ध होती है। वासना केक्षण में मन एकाग्र हो जाता है; शक्ति उपलब्ध होती है। एकाग्रता शक्ति है। कहां एकाग्र कर रहे हैं, यह बात... एकाग्रता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह शुभ हो या अशुभ हो । रासपुतिन जैसे व्यक्ति बड़ी एकाग्रता को साधते हैं। लेकिन हृदय अशुद्ध है, तो उस एकाग्रता का अंतिम परिणाम अशुभ होता है | रासपुतिन ने अपनी शक्तिओं का जो उपयोग किया... । | ज़ार का एक ही लड़का था; रूस के सम्राट का एक ही लड़का था । और सम्राट और सम्राज्ञी दोनों ही उस लड़के के लिए बड़े चिंतातुर थे। वह बचपन से ही बीमार था, अस्वस्थ था। रासपुतिन की किसी ने खबर दी कि वह शायद ठीक कर दे। रासपुतिन ने उसे | ठीक भी कर दिया। रासपुतिन ने उसके सिर पर हाथ रखा और वह बच्चा पहली दफा ठीक स्वस्थ अनुभव हुआ। लेकिन तब से सम्राट के पूरे परिवार को रासपुतिन का गुलाम हो | जाना पड़ा। क्योंकि रासपुतिन दो दिन के लिए कहीं चला जाए, तो | वह बच्चा अस्वस्थ हो जाए । रासपुतिन का रोज राजमहल आना जरूरी है। और यह बात थोड़े दिन में साफ हो गई कि रासपुतिन अगर न होगा, तो बच्चा मर जाएगा। इलाज कम हुआ, इलाज बीमारी बन गया। पहले तो कुछ चिकित्सकों का परिणाम भी होता था, अब किसी का भी कोई परिणाम न रहा । अब रासपुतिन की मौजूदगी नियमित चाहिए। | और उस लड़के के आधार पर रासपुतिन जितना शोषण कर सकता था ज़ार का और ज़ारीना का, उसने किया। उसने जो चाहा, वह करवाया। मुल्क का प्रधानमंत्री भी नियुक्त करना हो, तो | रासपुतिन जिसको इशारा करे, वह प्रधानमंत्री हो जाए। क्योंकि वह लड़के की जान उसके हाथ में हो गई। जिस व्यक्ति ने चित्त को बहुत एकाग्र किया हो, यह बड़ा आसान है। वह बच्चा सम्मोहित हो गया। वह बच्चा हिप्नोटाइज्ड हो गया। अब यह सम्मोहित अवस्था उस बच्चे की, शोषण का आधार बन गई। जीसस ने भी लोगों को स्वस्थ किया है। जीसस ने भी लोगों के सिर पर हाथ रखकर उनकी बीमारियां अलग कर दी हैं। रासपुतिन के पास भी ताकत वही है, जो जीसस के पास है । रासपुतिन भी बीमारी दूर कर सकता है। लेकिन रासपुतिन बीमारी को रोक भी सकता है; जीसस वह न कर सकेंगे। रासपुतिन बीमारी का शोषण भी कर सकता है; जीसस वह न कर सकेंगे। हृदय शुद्ध हो, वही शक्ति सिर्फ चिकित्सा बनेगी । हृदय अशुद्ध हो, तो वही शक्ति शोषण भी बन सकती है। कठिनाई हमें समझने में यह होती है कि अशुद्ध हृदय एकाग्र कैसे हो सकता है! कोई अड़चन नहीं है। एकाग्रता तो एक कला है; मन को एक जगह रोकने की कला है। इसलिए अगर दुनिया में | बुरे लोगों के पास भी शक्ति होती है, तो उसका कारण यही है कि 231
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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