________________
* गीता दर्शन भाग-7 .
श्रीमद्भगवद्गीता
हो जाए, तब तक पिरहो गुरु को कीचड़ से निकालने को तैयार नहीं अथ चतुर्दशोऽध्यायः
है। क्योंकि कोई भी कृत्य तभी किया जा सकता है, जब उसके
अंतिम फल स्पष्ट हो जाएं। श्रीभगवानुवाच
भला हआ कि और लोग आ गए और उन्होंने डबते हए गरु को परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । बचा लिया। लेकिन पिरहो किनारे पर ही खड़ा रहा। और जानकर यज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।। आप आश्चर्यचकित होंगे कि जिन दूसरे शिष्यों ने गुरु को बचाया,
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । | गुरु ने कहा कि वे ठीक-ठीक विचारक नहीं हैं, ठीक विचारक सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।२।। | पिरहो ही है। इसलिए मेरी गद्दी का अधिकारी वही है। क्योंकि जिस
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्ग दधाम्यहम् । | कर्म का फल तुम्हें साफ नहीं, तुम उसे कर कैसे सकते हो?
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।। ३ ।। पिरहो पश्चिम में संदेहवाद का जन्मदाता है। लेकिन अगर कर्म इसके उपरांत श्रीकृष्ण बोले, हे अर्जुन, ज्ञानों में भी अति का फल स्पष्ट न हो, तो कोई भी कर्म किया नहीं जा सकता।
उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूंगा, कि | क्योंकि किसी कर्म का फल स्पष्ट नहीं है, और स्पष्ट नहीं हो जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर सकता है। क्योंकि कर्म है अभी, और फल है भविष्य में। और परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं।
प्रत्येक कर्म अनेक फलों में ले जा सकता है; वैकल्पिक फल हैं। हे अर्जुन, इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके इसलिए अगर कोई यही तय कर ले कि जब तक फल निर्णायक मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न रूप से निश्चित न हो, तब तक मैं कर्म में हाथ न डालूंगा, तो वैसा
नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं। | व्यक्ति कोई भी कर्म नहीं कर सकता है। हे अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया पिरहो खड़ा है-इसे फिर से सोचें। अगर मुझे वह मिल जाए, संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और तो उससे मैं कहूंगा कि खड़े रहने का फल ठीक होगा या बचाने का, मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस यह भी सोचना जरूरी है। क्योंकि खड़ा होना कृत्य है। तुम कुछ जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। निर्णय ले रहे हो। गुरु को बचाना ही अकेला निर्णय नहीं है। मैं
खड़ा रहूं या बचाने में उतरूं, यह भी निर्णय है। मैं इस समय सोचूं
या कर्म करूं, यह भी निर्णय है। ग नान में एक विचारक हुआ, पिरहो। विचारक को जैसा निर्णय से बचने का कोई उपाय नहीं है। चाहे मैं कुछ करूं और 4 होना चाहिए, जितने संदेह से भरा हुआ, उतने संदेह चाहे न करूं, निर्णय तो लेना ही होगा। और करने का भी फल होता से भरा हुआ विचारक पिरहो था।
है, न करने का भी फल होता है। न करने से गुरु मर भी सकता था। एक दिन सांझ पिरहो निकला है अपने घर के बाहर। वर्षा के | तो न करने का फल नहीं होता, ऐसा मत सोचना। फल तो न दिन हैं। रास्ते के किनारे एक गड्ढे में उसका बूढ़ा गुरु गिर पड़ा है। करने का भी होता है। कर्म का भी फल होता है, आलस्य का भी
और फंस गया है। गले तक कीचड़ में डूबा हुआ गुरु; पिरहो किनारे फल होता है। खड़ा होकर सोचता है, निकालूं या न निकालूं! क्योंकि पिरहो का | | हम कुछ करें या न करें, निर्णय तो लेना ही होगा। निर्णय मजबूरी खयाल है, तब तक कोई कर्म करना उचित नहीं, जब तक कि उसके | है। इसलिए जो सोचता हो कि मैं निर्णय से बच रहा हूं, वह बेईमान परिणाम पूरी तरह सुनिश्चित रूप से ज्ञात न हो जाएं। और परिणाम है। क्योंकि बचना भी अंततः निर्णय है और उसके भी फल होंगे। शुभ होंगे या अशुभ, जब तक यह साफ न हो, तब तक कर्म में | अर्जुन भी ऐसी ही दुविधा में है। वह कर्म में उतरे, न उतरे? युद्ध उतरना भ्रांति है।
| में प्रवेश करे, न करे? क्या होगा फल? शुभ होगा कि अशुभ गुरु को बचाने से शुभ होगा या अशुभ; गुरु बचकर जो भी | | होगा? इसके पहले कि वह कदम उठाए, भविष्य को देख लेना करेंगे जीवन में, वह शुभ होगा या अशुभ; जब तक यह साफ न | | चाहता है। जो कि संभव नहीं है, जो कभी भी संभव नहीं हुआ और