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* होशः सत्व का द्वार *
तो छः घंटे, आठ घंटे, दस घंटे, बारह-बारह घंटे तक धीरे-धीरे | | विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं। साधक को सिर्फ बैठना होता है।
अगर रजोगुण से छूटना हो, तो इन सबसे छूटना जरूरी है। और थोड़ी देर सोचें, छः घंटे सिर्फ बैठे हैं! न कुछ कर सकते हैं और | छूटने का एक ही अर्थ है, इनको सहयोग मत दें। जब लोभ उठे, न सो सकते हैं। क्या होगा? .
तो उसे देखते रहें। उसको कोआपरेट मत करें। उसको साथ मत दें। पहली तो वृत्ति यह होगी कि कुछ करो। उस करने की वृत्ति से | लेकिन हम साथ देते हैं। बहत कछ पैदा होता है। खयाल आएगा कि पैर में खजलाहट हो। | सना है मैंने कि नसरुद्दीन एक रात. अचानक आधी रात उठा रही है। इसमें अपना क्या हाथ है! पैर तो खुजला ही सकते हैं। या| | और पत्नी से बोला, जल्दी चश्मा ला। पत्नी उसे जानती थी। कुछ कोई चींटी चल रही है। ये सब बातें आना शुरू होंगी। और ये सब | बिना पूछताछ–उससे पूछताछ करने का कोई सार भी नहीं झूठ हैं।
था—उसने चश्मा उठाकर दे दिया। उसने चश्मा लगाया। आंख अगर आप तैयार हैं बैठे रहने को, तो चींटी भी चलती रहे, तो | | बंद करके फिर से लेट रहा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और आप तैयार नहीं हैं, तो आप चींटी | । फिर थोड़ी देर बाद उठा और उसने कहा कि तूने देर कर दी। सब कल्पित कर लेंगे। वहां जब आप पाएंगे, तो वहां कोई चींटी नहीं गड़बड़ हो गया। एक सपना देख रहा था और सपने में एक देवदूत है! थोड़ी-बहुत देर अगर आपने रोकने की कोशिश की कि कुछ न | | मुझे रुपए दे रहा था। ठीक सौ-सौ के नोट थे। मुझे शक पैदा हो करें, तो नींद पकड़ने लगेगी।
| गया कि नोट असली हैं कि नकली, इसलिए तुझसे चश्मा मांगा। ___ हमारी ऊर्जा दो हिस्सों में बहती है, या तो तमोगुण या रजोगुण। और भी एक झंझट थी कि वह नौ नोट दे रहा था और मैं कह रहा रजोगुण से बचाएं, तो तमोगुण। तमोगुण से बचाएं, तो रजोगुण। | था दस दे। उसी दस की झंझट में नींद खुल गई। और फिर आंख और दोनों से बचाएं, तो तीसरे द्वार से पहली दफा झरना फूटेगा। | | बंद करके चश्मा लगाकर मैंने कई बार कहा कि अच्छा भाई, नौ ही
झेन का सारा सूत्र कृष्ण के इस एक सूत्र में समाया हुआ है। झेन दे दे। मगर वहां कोई नहीं है। सपना खो गया। सब नष्ट कर दिया। फकीर जो कर रहे हैं, वह इसी सूत्र का प्रयोग है। बैठे रहें; न तो इतनी देर लगा दी चश्मा उठाने में। तंद्रा आए, और न क्रिया पकड़े। अक्रिया में अतंद्रित!
सपने में भी अगर नौ मिल रहे हों, तो दस का मन होता है। वह तो आपकी चेतना कहां जाएगी? चेतना को कहीं तो जाना ही है, | | मन तो वही है, जो जाग रहा है। वही सपने में सो रहा है। और ऐसा क्योंकि चेतना एक गति है, ऊर्जा है। जब नींद भी नहीं बन सकती नहीं था कि दस दे रहा होता देवदूत, तो कोई मन रुक जाता। मन और कर्म भी नहीं बन सकती, तो चेतना ध्यान बन जाती है, होश | | कहता, जब मिल ही रहे हैं, तो थोड़े और मांग लो! बन जाती है।
__ मन भिखमंगा है; लोभ उसका स्वभाव है। इसको अगर आप ___ इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में सहयोग देते चले जाते हैं, तो रजोगुण बढ़ेगा। क्योंकि जितना लोभ
चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना बढ़ेगा, उतना कर्म में उतरना पड़ेगा। लोभ चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा।
दौड़-धूप करनी ही पड़ेगी। फिर जितना लोभ बढ़ेगा, उतनी अशांति और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात | बढ़ेगी। क्योंकि मिलेगा? नहीं मिलेगा? कैसे मिलेगा? ये सब सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ | | चिंताएं मन को पकड़ेंगी। और कैसे मिल जाए? क्या तरकीब एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता, विषय-भोगों की लालसा, | | लगाएं ? झूठ बोलें; बेईमानी करें; चोरी करें; क्या करें, क्या न करें; ये सब उत्पन्न होते हैं।
| यह सब आयोजन करना होगा। अशांति बढ़ेगी। और मन को बहुत रजोगुण के ये लक्षण हैं।
दौड़ाना पड़ेगा। चंचलता बढ़ेगी। रजोगुण इन सारी वृत्तियों को सत्वगुण का लक्षण है, बोध, अवेयरनेस, जागरूकता। रजोगुण भीतर जन्म देगा। और ये सारी वृत्तियां आपकी सारी ऊर्जा को का लक्षण है, लोभ, सांसारिक चेष्टा, कुछ पा लें संसार में। सब | | रजोगुण के द्वार से प्रकट करने लगेंगी। प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ। मुझे कुछ मिले लाभ, | । रजोगुण का अंतिम चरण विक्षिप्तता है। वे जो पागल होकर ऐसे किसी कर्म में उतरने की वृत्ति। अशांति, मन की चंचलता, | | पागलखानों में बैठे हैं, वे रजोगुण की साकार प्रतिमाएं हैं। उन्होंने
करना हो, तो
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