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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। | सकती है, जब व्यक्तिगत रूप से ईश्वर मौजूद हो। हमने अब तक कामः क्रोषस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। २१।। | ऐसा ही सुना और समझा है कि पूजा तभी हो सकती है, जब पूजा एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्धारैस्त्रिमिनरः । | लेने वाला मौजूद हो। आराधना और भक्ति तभी सार्थक है, जब आवरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।। २२ ।। | भगवान हो; कोई व्यक्ति की तरह मौजूद हो, जो स्वीकार करे, यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । अस्वीकार करे; स्तुति से प्रसन्न हो, निंदा से नाराज हो। कोई नस सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।। २३ ।। | प्रतिक्रिया करने वाला मौजूद हो, तो ही हमारे प्रेम की पुकार का तस्माच्छात्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिती।। कोई अर्थ है; कोई जबाब दे! हमने अब तक ऐसा ही समझा है, ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाहसि ।। २४ ।। | इसलिए प्रश्न उठता है। और हे अर्जुन, काम, क्रोष तथा लोभ, ये तीन प्रकार के लेकिन हमारी समझ भ्रांत है; हमारी समझ में भूल है। नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति ___प्रार्थना की उपादेयता परमेश्वर है, इससे जरा भी नहीं है। प्रार्थना में ले जाने वाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिए। | करने का सारा का सारा विज्ञान प्रार्थना करने वाले से संबंधित है। क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ भगवान हो या न हो, व्यक्ति की तरह कोई आकाश में बैठकर पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है। इससे वह परम | जीवन को चलाता हो या न चलाता हो, भक्ति का उससे कुछ गति को जाता है अर्थात मेरे को प्राप्त होता है। | लेना-देना नहीं है। भक्ति तो भक्त की अंतर्दशा है। और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से भक्त को कठिन होगा बिना भगवान के भक्तिपूर्ण होना, बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम | इसलिए सभी धर्मों ने भगवान की धारणा को पोषित किया है। यह गति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है। सिर्फ भक्त को सहारा देने के लिए है। लेकिन अगर समझ हो, तो इसलिए तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में | भक्ति अपने आप में पूरी है, भगवान की कोई भी जरूरत नहीं। शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र-विधि से नियत प्रार्थना अपने आप में पूरी है, कोई उसे सुनता हो कि न सुनता हो; किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है। सुनने वाला आवश्यक नहीं। आराधना पर्याप्त है, आराध्य जरा भी आवश्यक नहीं है। जब मैं यह कहता हूं, तो क्या मेरा अर्थ होगा! क्योंकि बात पहले कुछ प्रश्न। कठिन लगेगी। आराधना हमारे लिए तभी समझ में आती है, जब पहला प्रश्नः ईश्वर और धर्म यदि परम नियम के ही आराध्य हो; पूजा तभी समझ में आती है, जब कोई पूज्य हो। नाम हैं, उससे अन्यथा कुछ भी नहीं, तो प्रार्थना, | लेकिन मैं आपको कहना चाहूंगा कि पूजा चित्त की एक दशा है। भक्ति, आराधना, सब व्यर्थ हो जाते हैं। तब तो धर्म बुद्ध किसी भगवान को मानते नहीं, फिर भी उनकी आराधना में विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम | रत्तीभर कमी नहीं है। किसी परमेश्वर की उनके मन में कोई धारणा की खोज में निकलना मात्र धर्म रह जाता है। इस पर | नहीं है, लेकिन बुद्ध से ज्यादा प्रार्थनापूर्ण हृदय आप खोज पाइएगा? कुछ और प्रकाश डालें। एच.जी.वेल्स ने लिखा है कि बुद्ध जैसा ईश्वररहित और ईश्वर जैसा व्यक्ति खोजना कठिन है—सो गॉडलेस एंड सो गॉड लाइक। इसे हम थोड़ा-सा अंतर्मुखी हों, तो खयाल में आ सकेगा। + सा प्रश्न मन में उठेगा। यदि धर्म मात्र नियम है, तो | क्या आप प्रेमपूर्ण हो सकते हैं बिना प्रेमी के हुए? क्या प्रेमपूर्ण स्वभावतः धर्म विज्ञान ही हो गया। फिर प्रार्थना कैसी? | होना आपके जीवन का ढंग और शैली हो सकती है? क्या प्रेमपूर्ण किससे? आराधना कैसी और किसकी? पूजा, भक्ति | होना आपकी भाव-दशा हो सकती है? सब व्यर्थ हो जाते हैं। | तो फिर आप उठेंगे भी तो प्रेम से. बैठेंगे भी तो प्रेम से. भोजन क्योंकि हमने अब तक ऐसा ही समझा है कि प्रार्थना तभी हो | | करेंगे तो भी प्रेम से, सोने जाएंगे तो भी प्रेम से। कोई प्रेमी नहीं 400
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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