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असंग साक्षी
धीरे-धीरे शरीर की कोई जरूरत नहीं रह जाती और आप सोए हुए हैं, तो भीतर कोई जागकर देखने लगता है।
अगर आप छत्तीस घंटे पड़े हुए सोए रहें, तो आपको थोड़ी-सी झलक मिलेगी उस बात की, जिसको कृष्ण कह रहे हैं, तस्याम जागर्ति संयमी । क्योंकि नींद की कोई शरीर को जरूरत न रह जाएगी। और शरीर को आप नींद की अवस्था में पड़ा रहने दें। तो भीतर से जागरण का स्वर शुरू हो जाएगा।
उन दिनों में ही निरंतर सो-सोकर मैंने जाना कि सोए में जागना हो सकता है। रात भी सोता, सुबह भी सोता, दोपहर भी सो जाता; जब मौका मिलता। घर के लोगों को, प्रियजनों को, परिवार के
को यही खयाल था कि मैं निपट आलसी हूं, मुझसे जीवन में कुछ हो नहीं सकता। एक हिसाब से वह ठीक ही था उनका खयाल । मेरी तरफ से नींद मेरे लिए साधना थी ।
मेरे एक और प्रोफेसर थे। मेरे प्रोफेसर भी थे, मेरे मित्र भी थे। और जैसा आलसी मैं था, ठीक वैसे ही आलसी थे। अकेले वे भी रहते थे, अकेला मैं भी रहता था। उन्होंने कहा, बेहतर होगा, हम दोनों साथ ही रहें। मैंने कहा, इसमें थोड़ी अड़चन होगी। हो सकता है, आपकी नींद में मेरे कारण बाधा हो, मेरी नींद में आपके कारण बाधा हो। फिर भी आप चाहें तो...। पर साथ रहने में कुछ व्यवस्था बनानी जरूरी थी और दोनों ही आलसी थे। वे अब भी वैसे ही हैं; उन्होंने उस गुण का त्याग नहीं किया। उन्होंने कभी उसे साधना भी नहीं बनाया, अन्यथा वह छूट जाता ।
ध्यान रहे, जिस तत्व को भी आप साधना बना लें, थोड़े दिन में उसके पार आप चले ही जाएंगे। साधना का मतलब ही ट्रांसेंडेंस है, अतिक्रमण है । और जिसको भी आप पूरी तरह भोग लें, आप उसके भीतर नहीं रह सकते। अगर आप आलस्य को भी पूरी तरह भोग लें, आप अचानक पाएंगे कि आलस्य विदा हो गया। जिससे मुक्त होना हो, उसे पूरा भोग लेना जरूरी है।
इसलिए मैंने तमस को पहले पूरा ही भोग लेना उचित समझा। साथ रहे, तो पहले ही दिन रात हमें तय करना पड़ा कि कल से हमारी व्यवस्था कैसी होगी। अब तक अलग-अलग थे, इसलिए व्यवस्था का कोई सवाल नहीं था। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति पहले सुबह उठे, वह दूध लेने जाए। मैंने कहा, यह बिलकुल स्वीकार है। मैं भी खुश था, वे भी खुश थे। दोनों भ्रांति में थे। तो मैंने सोचा कि ऐसा सुबह पहले उठने की जरूरत क्या है ! और वे भी यही सोच रहे थे।
बजे के करीब मेरी नींद खुली, तो मैंने देखा, वे सोए हैं, तो | मैं फिर सो गया। दस बजे के करीब उनकी नींद खुली होगी, उन्होंने देखा कि मैं सोया हूं। वे भी सोना चाहे, लेकिन एक अड़चन थी, उनको ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी तो पहुंचना ही था, वे नौकरी में थे । मैं तो विद्यार्थी था; मुझे जाने की कोई आवश्यकता भी न थी, जरूरी भी नहीं था। ऐसे भी मैं कम ही जाता था।
आखिर मजबूरी में उनको उठना पड़ा; दूध लेने जाना पड़ा। जब | तक वे आए, तब तक मैं उठकर बैठा था। उन्होंने कहा कि यह | दोस्ती नहीं चल सकती, क्योंकि यह तो रोज का सवाल है । मुझे | ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी जाना ही है। तो मैं ज्यादा से ज्यादा दस बजे तक प्रतीक्षा कर सकता हूं। तुम पूरे दिन प्रतीक्षा कर सकते हो । |इसका मतलब हुआ कि दूध मुझे रोज ही लाना पड़ेगा; यह दोस्ती नहीं चल सकती।
जिस बात को भी करने से बचा जा सके; मैंने प्राथमिक चरण में पूरी तरह बचने की कोशिश की। दो वर्ष मैं विश्वविद्यालय में था, मैंने कभी अपना कमरा नहीं झाड़ा। अपने पलंग को दरवाजे पर रख छोड़ा था, जिससे सीधा दरवाजे से पलंग पर प्रवेश करूं और सीधे बाहर निकल जाऊं। और अकारण पूरे कमरे को क्यों ! न उसमें प्रवेश करना, न उसको साफ करने का कोई सवाल था । पर उसका अपना सुख था ।
और चीजें जैसी हैं, उनमें जितना कम रद्दोबदल करना पड़े... क्योंकि रद्दोबदल का मतलब होता है, कुछ करना पड़ेगा । उनको वैसे ही रहने देना। पर इससे अनूठे अनुभव भी हुए। और हर गुण का अनूठा अनुभव है। कितना ही कचरा था और कितनी ही गंदगी थी, उसके बीच ऐसे ही रहने का भाव आ गया जैसे कितनी ही | स्वच्छता के बीच रहने की स्थिति हो ।
जिस विश्वविद्यालय में मैं था, उसके भवन तब तक निर्मित नहीं हुए थे। नया विश्वविद्यालय निर्मित हुआ था और मिलिट्री के बैरेक्स का ही उपयोग हास्टल्स के लिए हो रहा था। तो अक्सर सांप आ जाते थे, क्योंकि घने जंगल में ही, खुले जंगल में बैरेक्स थे। तो मैं पड़ा हुआ अपने बिस्तर पर उनको देखता रहता था। आ जाते, बैठ जाते, कमरे में विश्राम कर लेते। न कभी उन्होंने कुछ किया, न मैंने कभी उनके लिए कुछ किया ।
करने का भाव ही न हो, तो बहुत-सी चीजें सहज स्वीकार हो जाती हैं। और करने का भाव न हो, तो जिंदगी में असंतोष की मात्रा एकदम नीचे गिरने लगती है। उन दिनों में कोई असंतोष का कारण
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