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________________ गीता दर्शन भाग-7 सांझ कभी आ नहीं पाती; दोपहर ही बनी रहती है। अधूरा ही अधूरा बना रहता है। संसार में पूरी तरह उतर जाएं; जो भी खेल खेलना है, पूरी तरह खेल लें। खेल खेलते-खेलते ही यह होश आ जाएगा कि अब हु आपको भी कई दफा दिखाई पड़ता है कि अब बहुत हो गया। आपको भी बहुत दफा खयाल में आने लगता है कि यह मैं क्या कर रहा हूं! यह कब तक जारी रखूंगा ! फिर आप अपने को भुला लेते हैं। यह तो खेल छोड़ने की बातें ठीक नहीं हैं। खेल मिटाने का मामला हो जाएगा। और जिंदगी एक व्यवस्था से चल रही है, उसे क्यों तोड़ना ! फिर आप चलाने लगते हैं। ये जो झलकें आपको आती हैं, वे झलकें इसी बात की हैं कि यह खेल वस्तुतः खेल है। और वास्तविक घर कहीं और छिपा है। जब यह बिलकुल ही व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा, ऊब और दुख इसमें घने हो जाएंगे, तब आप अपने पीछे झांक सकेंगे। वह जो पीछे छिपा है, कृष्ण बार-बार उसी को सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। आपकी तरफ ही इशारा है। वह सबके भीतर छिपा है। सबका वही केंद्र है। अब हम सूत्र को लें। और जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने वाला है; तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है; तथा जो मान और अपमान में सम है एवं जो मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। एक-एक शब्द को समझें । जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ... । जो निरंतर एक ही बात स्मरण रखता है कि मैं हूं अपने भीतर । जो अपनी छवियों के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ता; जो दर्पणों में दिखाई पड़ने वाले प्रतिबिंबों से अपने को नहीं जोड़ता; बल्कि जो सदा खयाल रखता है उस होश का, जो भीतर है। और जो सदा याद रखता है कि यह होश ही मैं हूं; मैं हूं यह चैतन्य; और इस चैतन्य को किसी और चीज से नहीं जोड़ता, ऐसी भाव - दशा का नाम आत्म-भाव है। मैं सिर्फ चेतना हूं। और यह चेतना किसी भी चीज को कितना ही प्रतिफलित करे, उससे मैं संबंध न जोडूंगा। यह चेतना कितनी ही किसी चीज में दिखाई पड़े... । रात चांद निकलता है; झील में भी दिखाई पड़ता है। आप झील देखकर अगर उसको चांद समझ लें, तो मुश्किल में पड़ेंगे। अगर डुबकी लगाने लगें पानी में चांद की तलाश में, तो भटक ही जाएंगे। और दुख तो निश्चित होने वाला है; क्योंकि थोड़ी ही हवा की लहर आएगी और चांद टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। तो जहां भी हम जिंदगी को देखते हैं, वहां हर चीज टूट-फूट जाती है। क्योंकि हम प्रतिबिंब में देख रहे हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक रात एक कुएं के पास से गुजर रहा है। रमजान के दिन हैं । और उसने नीचे कुएं में झांककर देखा। वहां चांद का प्रतिबिंब दिखाई पड़ा। गहरा कुआं है। हवा की कोई लहर भी वहां नहीं है, तो चांद बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा है। अकेला था। मरुस्थल का रास्ता था। आस-पास कोई दिखाई भी नहीं पड़ता था। नसरुद्दीन ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। | यह चांद यहां कुएं में उलझा है। और जब तक यह आकाश में दिखाई न पड़े, लोग मर जाएंगे भूखे रह-रहकर। रमजान का महीना | है। इसे बाहर निकालना एकदम जरूरी है। यहां कोई दिखाई भी नहीं पड़ता जो सहायता करे। 144 तो बेचारे ने ढूंढ़-ढांढ़कर रस्सी कहीं से लाया। रस्सी का फंदा बनाकर नीचे डाला। कुएं में चांद को फंसाने की रस्सी में कोशिश की। चांद तो नहीं फंसा, कुएं के किनारे पर कोई चट्टान का टुकड़ा होगा, वह फंस गया। उसने बड़ी ताकत लगाई। खींच रहा है। बड़ी मुश्किल में पड़ा है। और अकेला है। कहता है, कोई और है भी नहीं कि कोई साथ भी दे दे। और चांद वजनी मालूम पड़ता है। और | चांद भी हद्द कर रहा है कि बिलकुल रस्सी को पकड़े हुए है और उठ भी नहीं रहा है। बड़ी ताकत लगाने से रस्सी टूट गई। मुल्ला भड़ाम से कुएं के नीचे गिरा । सिर में चोट भी आई। एक क्षण को आंख भी बंद हो गई। फिर आंख खुली तो देखा, चांद आकाश में है। मुल्ला ने | कहा, चलो भला हुआ। निकल तो आए। अब लोग नाहक रमजान में भूखे तो न रहेंगे। सिर में थोड़ी चोट लग गई; कोई हर्ज नहीं । रस्सी भी टूट गई; कोई हर्ज नहीं। लेकिन चांद को कुएं से मुक्त कर लिया। जिस दिन आप आत्म-भाव में स्थित होंगे, उस दिन आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जहां से हम अब तक अपने को खोज रहे थे,
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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