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* गीता दर्शन भाग-7 *
आप भोजन देकर ताकत पचाने में लगा देते हैं। तो भोजन बीमारी | हम अडिग बने रहते हैं; बोध साफ होता है; चीजें स्पष्ट दिखाई को बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता।
पड़ती हैं; धुआं नहीं होता। कोई जानवर राजी नहीं होगा। साधारण-सा कुत्ता, जिसको हम | जितना आत्म-भाव बढ़ेगा, जितना आप अपने को शरीर से बहुत समझदार नहीं कहते, वह भी भोजन नहीं करेगा। भोजन तो अलग और चेतना के साथ एक मानेंगे, देखेंगे, समझेंगे, ठहरेंगे, करेगा ही नहीं, घास-पात खाकर वमन कर देगा। जो पेट में पड़ा उतना ही आप पाएंगे कि चीजें उतनी ही होती हैं, जितनी जरूरी हैं। है, उसको भी निकाल देगा। ताकि खाली हो जाए; ताकि शरीर की जरूरत पर रुक जाना, जरूरत से आगे इंचभर न जाना। तो फिर पूरी ऊर्जा पचाने में नष्ट न हो, बीमारी से लड़ने में लग जाए। | | आपके लिए कोई बंधन नहीं है। क्योंकि तब शरीर के चलने योग्य
और शरीर के पास नैसर्गिक व्यवस्था है बीमारियों से लड़ने की। शरीर को देते रहेंगे आप। शरीर अपनी गतिविधि पूरी कर लेगा और वह सब बीमारियों के पार उठ सकता है। और अगर आधुनिक समाप्त हो जाएगा। जिस दिन शरीर की गतिविधि पूरी हो जाएगी, आदमी नहीं उठ पाता, तो उसका कारण यह है कि वह शरीर की| | जैसे दीए का तेल चुक गया, वैसे ही दीया बुझ जाएगा। और इस ऊर्जा को तो भोजन में ही लगाए रखता है।
| शरीर के दीए के बुझते ही आपके जीवन में महासूर्य का उदय होगा। हम निष्पक्ष नहीं हो पाते, बीमारी में ज्यादा खा लेते हैं। हमें कभी | इस दीए पर आंखें बंधी हैं, इसलिए सूरज को देखना मुश्किल है। पता भी नहीं चलता; ठीक हमारा, जिसको पता चलने का बोध । कृष्ण कहते हैं, आत्म-भाव में स्थित हुआ, संपूर्ण आरंभों में कहना चाहिए, वह भी क्षीण हो गया है। हमें पता ही नहीं चलता कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। कि कितना खाना, कब खाना, कब नहीं खाना, उसका हमें कोई | ऐसा जो व्यक्ति है, ऐसी जो चेतना है, वह गुणों के अतीत है। बोध नहीं रहा है। कोई नैसर्गिक हमारी प्रतीति नहीं रही है कि कितना और गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है। खाना, कितना नहीं खाना; कब कुछ करना और कब नहीं करना; | आज इतना ही। कहां रुक जाना।
उस सबका कारण इतना है कि हम इतने ज्यादा जुड़ गए हैं शरीर के साथ कि दूर खड़े होने से, दूर से देखने पर जो निष्पक्षता होती है, वह नष्ट हो गई है। साक्षी-भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आत्म-भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आप दूर खड़े होकर देख सकेंगे।
और ध्यान रहे, बहुत-सी समस्याएं सिर्फ इसलिए नहीं हल हो पाती कि आप दूर नहीं हो पाते।
आपके पास कोई दूसरा आदमी आए और अपनी कोई समस्या कहे, तो आप जो सुझाव देते हैं, वह हमेशा सही होता है। वह दूसरे की समस्या है। आप दूर से खड़े होकर देखते हैं। वही समस्या आप पर आ जाए, फिर आपकी बुद्धि काम नहीं करती। जो दूसरे को सलाह देने में काम कर रही है, वह खुद को सलाह देने में काम नहीं कर पाती। वैसे ही जैसे एक सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन कर रहा हो। सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन करने को राजी नहीं होगा। जब तक कि मार डालने की इच्छा न रखता हो। क्योंकि वह जानता है, पत्नी से इतनी निकटता है, हाथ कंपेगा। वह निष्पक्ष नहीं हो पाएगा। तो सर्जन अपने मित्र को कहेगा कि तू आपरेशन कर। निष्पक्षता न हो, तो सब चीजें कंप जाती हैं। निष्पक्षता हो, तो
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