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________________ गीता दर्शन भाग-7 इसलिए हैं कि मालिक हैं। एक झूठ दूसरे झूठ को पैदा करता है। तो बुद्ध दया कर सकते हैं। और अगर आप बहुत ही रोएं-गाएं, तो वे आपको समझा-बुझा भी सकते हैं। लेकिन वह समझाना - बुझाना सिर्फ दयावश है। इसमें कोई व्याकुलता नहीं है। जिस दिन पूरी सृष्टि भी विनष्ट हो रही हो, उस दिन भी सिद्ध पुरुष, कृष्ण कहते हैं, व्याकुल नहीं होता। और अर्जुन व्याकुल हो रहा है, जरा-सा युद्ध खड़ा है उससे पूरी सृष्टि के हिसाब से वह युद्ध ना कुछ है । गुड़ियों का खेल है। बड़ा व्याकुल हो रहा है। कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे वह ज्ञान कहूंगा, फिर से कहूंगा, जिससे प्रलयकाल में भी सिद्ध पुरुष व्याकुल नहीं होते। यह युद्ध तो बिलकुल खेल है। हे अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है । और मैं उस योनि में चैतन्यरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है ... । कृष्ण कहते हैं कि सारा जगत एक गहन स्वप्न से पैदा होता है। जिस जगत को हम देखते हैं, वह वास्तविक कम, स्वप्नमय ज्यादा है। वह पदार्थ से कम बना है और वासना से ज्यादा बना है। उसका निर्माण इच्छाओं के सघनभूत रूप से हुआ है। इसलिए भारत ने एक शब्द चुना है, जो है माया । यह माया शब्द बहुत अदभुत है। और ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में खोजना आसान नहीं है। क्योंकि ऐसी दृष्टि, ऐसे तत्व के संबंध में खोज किसी और संस्कृति में पैदा नहीं हुई। पश्चिम में जो शब्द है मैटर, पदार्थ, वह माया का ही एक विकृत रूप है। मूल धातु संस्कृत की वही है मैटर की भी, मात्र, जो माया की है। लेकिन पश्चिम का विज्ञान कहता है कि जगत मैटर से, पदार्थ से बना है। लेकिन अब पदार्थ की खोज जैसे-जैसे गहरी हुई, वैसे-वैसे उनको पता चला, पदार्थ तो है ही नहीं, बिलकुल माया है पदार्थ। जैसे ही खोज करके वे इलेक्ट्रांस पर पहुंचे, वैसे उनको पता चला कि वहां तो पदार्थ है ही नहीं। सिर्फ दिखता था, है नहीं। मौलिक जो आधारभूत तत्व है विद्युत, वह तो अदृश्य है। उसे अब तक किसी ने देखा नहीं । उसे कोई कभी देख भी नहीं सकेगा। वह है भी या नहीं, इसको हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। पदार्थ | दिखाई पड़ता है। और पदार्थ नहीं है; उसका आण्विक रूप, अदृश्य, वही है। पश्चिम में मैटर का भी अर्थ अब माया ही करना चाहिए। अब कोई फर्क नहीं रहा । मूल धातु वही है। लेकिन अब तो मैटर शब्द | का अर्थ भी माया ही हो गया है। माया का अर्थ है, जो दिखाई पड़ती | है और है नहीं। जो सब भांति प्रतीत होती है कि है, और है नहीं । तो ध्यान रहे, भारतीय मनीषा की खोज तीन हैं। एक, सत्य — जो है और दिखाई नहीं पड़ता। उसे हम ब्रह्म कहें, ईश्वर कहें, परमात्मा कहें, जो भी नाम देना चाहें। परम सत्य, जो है और दिखाई नहीं पड़ता । दूसरा, परम असत्य - जो नहीं है । और नहीं है इसलिए दिखाई पड़ने का कोई कारण ही नहीं है। और दोनों के मध्य में, माया— जो दिखाई पड़ती है और नहीं है। ये तीन तल हैं। माया मध्यवर्ती तल है । माया दिखाई पड़ती है ऐसे, जैसे ब्रह्म दिखाई पड़ना चाहिए, जो है, वास्तविक । और माया नहीं है वैसे, जैसे कि असत्य, जो कि है ही नहीं । माया मध्यवर्ती तत्व है। भास, एपियरेंस, सिर्फ प्रतीति । आपकी वासनाएं प्रतीतियां हैं। हैं नहीं; सिर्फ भाव हैं; सिर्फ स्वप्न हैं। और जब तक आप उनको सत्य मानते हैं, तब तक बड़े सत्य मालूम होते हैं। जैसे ही आप जागते हैं, सब असत्य हो जाते हैं। जिब्रान की एक छोटी-सी कहानी है। एक आदमी एक अजनबी | देश में आया। वह उस देश की भाषा नहीं जानता है। एक बड़े महल में उसने लोगों को आते-जाते देखा, वह भी भीतर प्रविष्ट हो गया। द्वारपालों ने झुक-झुककर नमस्कार किया, तो उसने समझा कि कोई महाभोज है। वह एक बहुत बड़ी होटल थी। लोग खा रहे थे। आ रहे थे, जा | रहे थे, पी रहे थे। टेबलें भरी थीं। वह भी एक खाली टेबल पर जाकर बैठ गया। एक बैरा आया, सामने उसने भोजन रखा। वह | बहुत चकित हुआ । उसने सोचा कि कोई महाभोज है। वह बहुत खुश भी हुआ। उसने सोचा कि यह गांव बड़ा अतिथियों का प्रेमी है। मैं अजनबी, अनजान आदमी; भाषा नहीं जानता; मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है! 14 फिर बैरा ने उसको, जब भोजन पूरा हो गया, तो उसका बिल लाकर दिया। तो वह सोचा कि गजब के लोग हैं! न केवल भोजन देते हैं, बल्कि लिखित धन्यवाद भी देते हैं। तब अड़चन शुरू हुई, क्योंकि बैरा उससे कहने लगा कि वह पैसे चुकाए और वह | झुक-झुककर धन्यवाद करने लगा। वे दोनों एक-दूसरे की भाषा समझने में असमर्थ हैं।
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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