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* गीता दर्शन भाग-7 *
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । अहंकार की भाव-दशा का अर्थ है कि मैं साध्य हूं और सभी यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। ६ ।। | कुछ साधन है। सब कुछ मेरे लिए है और मैं किसी के लिए नहीं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। | हूं। मैं ही लक्ष्य हूं; मेरे लिए ही सब घटित हो रहा है। सभी कुछ मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। ७ ।। | मेरी सेवा का आयोजन है। यह अहंकार भाव है।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्यत्क्रामतीश्वरः।। | शरणागति का भाव ठीक इससे विपरीत है; कि मैं कुछ भी नहीं गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् । । ८।। हूं। मेरा होना शून्यवत है और केंद्र मुझसे बाहर है। वह केंद्र आप
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। कहां रखते हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई उसे बुद्ध में रखे,
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।९।। | कोई उसे क्राइस्ट में रखे, कोई उसे राम में, कृष्ण में, यह बहुत उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर | महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे होने का केंद्र मैं नहीं हूं, मुझसे बाहर है; और सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है मैं उसके लिए जी रहा हूं। मैं साधन हूं, वह साध्य है। तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में ___ अति कठिन बात है। क्योंकि अहंकार बिलकुल स्वाभाविक
नहीं आते हैं, वहीं मेरा परम धाम है। | मालूम होता है। लेकिन इस क्रांति के बिना घटे कोई भी व्यक्ति और हे अर्जन. इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश सत्य को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि सत्य यही है कि आपका केंद्र है और वहीं इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित आपके भीतर नहीं है। पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।
इस सारे जगत का केंद्र एक ही है। सभी का केंद्र एक है। जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले। इसलिए प्रत्येक के भीतर अलग-अलग केंद्र होने का कोई उपाय जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस नहीं है। हम संयुक्त जीते हैं, वियुक्त नहीं। व्यक्ति होना भ्रांति है। पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों को | सारा अस्तित्व जुड़ा हुआ इकट्ठा है। यह विश्व एक इकाई है, एक ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता | | यूनिट है। यहां खंड-खंड अलग-अलग नहीं हैं। यहां कोई एक
पत्ता भी अलग नहीं है। और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और हमने सुन रखा है कि राम की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके । हिलता। और हमने जो उसको अर्थ दिए हैं, वे नासमझी से भरे हैं। अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों को सेवन करता है। | राम की बिना मरजी के पत्ता भी नहीं हिलता, इसका केवल इतना
ही अर्थ है कि इस संसार में दो मरजियां काम नहीं कर रही हैं। पत्ते
की मरजी और इस अस्तित्व की मरजी, दो नहीं हैं। यह पूरा पहले कुछ प्रश्न।
| अस्तित्व इकट्ठा है। और जब पत्ता हिलता है, तो पूरे अस्तित्व के पहला प्रश्नः शरणागत-भाव को कैसे उपलब्ध हुआ | हिलने के कारण ही हिलता है। जा सकता है?
अकेला पत्ता हिल नहीं सकता है। हवाएं न हों, फिर पत्ता न हिल सकेगा। सूरज न हो, तो हवाएं न हिल सकेंगी। सब संयुक्त है।
और एक छोटा-सा पत्ता भी हिलता है, तो उसका अर्थ यह हुआ जीवन में सर्वाधिक कठिन, सब से ज्यादा दुरूह अगर कि सारा अस्तित्व उसके हिलने का आयोजन कर रहा है। उस क्षण Oil कोई भाव-दशा है, तो शरणागति की है। | में सारे अस्तित्व ने उसे हिलने की सुविधा दी है। उस सुविधा में
मन अहंकार के आस-पास निर्मित है। मन को मानना | | रत्तीभर भी कमी हो और पत्ता नहीं हिल पाएगा। आसान है कि मैं ही केंद्र हूं सारे जगत का। जैसे पृथ्वी और सूर्य, | | राम की बिना मरजी के पत्ता नहीं हिलता है, इसका केवल इतना तारे, सब मेरे आस-पास घूमते हों, मेरे लिए घूमते हों; पूरा जीवन ही अर्थ है। ऐसा कुछ अर्थ नहीं कि कोई राम जैसा व्यक्ति ऊपर साधन है और साध्य मैं हूं।
बैठा है और एक-एक पत्ते को आज्ञा दे रहा है कि तुम अब हिलो,
है।
1981