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श्रीमद्भगवद्गीता अथ पञ्चदशोऽध्यायः
गीता दर्शन भाग-7
श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् । । १ । । अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।। २ ।। गुणत्रय-विभाग- योग को समझाने के बाद श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है।
उस संसार - वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि
योगरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं।
स सूत्र में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लेनी
इ जरूरी हैं।
पहली बात, आधुनिक समय के बहुत-से विचारक, अधिकतम, मानते हैं कि जगत का विकास निम्न से श्रेष्ठ की ओर रहा है। डार्विन या मार्क्स, बर्गसन, और भी अन्य । जैसे-जैसे हम पीछे जाते हैं, वैसे-वैसे विकास कम; और जैसे-जैसे हम आगे आते हैं, वैसे-वैसे विकास ज्यादा । अतीत पिछड़ा हुआ था । वर्तमान विकासमान है। भविष्य और भी आगे जाएगा।
इस पूरी विचार-सरणी का मूल स्रोत, उदगम को छोटा मानना और विकास के अंतिम शिखर को श्रेष्ठ मानना है। लेकिन भारत की मनीषा बिलकुल विपरीत है; और इस सूत्र को समझने के लिए जरूरी होगा।
हम मानते रहे हैं कि मूल श्रेष्ठ है। वह जो स्रोत है, श्रेष्ठ है। | बिलकुल ही उलटी तर्क- सरणी है। बूढ़ा आदमी श्रेष्ठ नहीं है, वरन गर्भ में छिपा हुआ जो बीज है, वह श्रेष्ठ है । और जिसे पश्चिम में | वे विकास कहते हैं, उसे हम पतन कहते रहे हैं।
अगर विकास की बात सच हो, तो परमात्मा अंत में होगा, प्रथम नहीं हो सकता। तब तो जब सारा जगत विकसित होकर उस जगह पहुंच जाएगा, श्रेष्ठता के अंतिम शिखर पर, तब परमात्मा प्रकट होगा। लेकिन भारतीय दृष्टि कहती रही है कि परमात्मा प्रथम है। तो जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह विकास नहीं बल्कि पतन है। और अगर अंतिम को पाना हो, तो प्रथम को पाना होगा । और हम उससे ऊंचे कभी भी नहीं उठ सकते, जहां से हम आए हैं। मूल स्रोत से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं ।
इसलिए जब कोई व्यक्ति अपनी जीवन की श्रेष्ठतम समाधिस्थ अवस्था को उपलब्ध होता है, तो एक छोटे बच्चे की भांति हो | जाता है। जो परम उपलब्धि है शांति की, निर्वाण की, मोक्ष की, वह वही है, जैसा बच्चा मां के गर्भ में शांत है, निर्वाण को उपलब्ध है, मुक्त है।
प्रथम से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं है। या ठीक होगा, हम इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जितने हम आगे जाते हैं, उतने ही हम पीछे जा रहे हैं। और जो हमारी आखिरी मंजिल होगी, वह हमारा पहला पड़ाव था । या और तरह से कह सकते हैं कि जगत का जो | विकास है, वह वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। एक वर्तुल हम खींचते हैं; तो जिस बिंदु से शुरू होता है, उसी बिंदु पर पूरा होता है।
जगत का विकास रेखाबद्ध नहीं है, लीनियर नहीं है। एक रेखा की तरह नहीं जाता; एक वर्तुल की भांति है। तो प्रथम अंतिम हो जाता है; और जो अंतिम को पाना चाहते हैं, उन्हें प्रथम जैसी अवस्था पानी होगी।
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जगत परमात्मा का पतन है। और जगत में विकास का एक ही उपाय है कि यह पतन खो जाए और हम वापस मूल स्रोत को उपलब्ध हो जाएं; पहली बात । इसे समझेंगे तो ही उलटे वृक्ष का रूपक समझ में आएगा।
कोई उलटा वृक्ष जगत में होता नहीं। यहां बीज बोना पड़ता है, तब वृक्ष ऊपर की तरफ उठता है और विकासमान होता है। और वृक्ष बीज का विकास है, अभिव्यक्ति है, उसकी चरम प्रसन्नता है। लेकिन गीता ने और उपनिषदों ने जगत को उलटा वृक्ष कहा है। वह परमात्मा का पतन है, विकास नहीं। ऊंचाई का खो जाना है, नीचे