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* गीता दर्शन भाग-7 *
गई, अगर जिंदगी में कारण से प्रसन्नता आती हो, तो बहुत थोड़ी | हैं, वह नहीं है। जो परमात्मा आप निर्मित किए हैं, वह नहीं है। प्रसन्नता आएगी।
| परमात्मा का तो एक ही अर्थ है, यह समग्र अस्तित्व, यह टोटेलिटी, इसीलिए लोगों के जीवन में सुख बहुत कम है, दुख बहुत ज्यादा | | यह जो पूर्णता है। ये जो वृक्ष हैं, पौधे हैं, पत्थर हैं, जमीन है, है। क्योंकि कारण से जब सुख मिलेगा, तब सुख; अन्यथा दुख ही चांद-तारे हैं, मनुष्य हैं, पशु-पक्षी हैं, यह जो सारा फैलाव है, यह दुख है। दुख अकारण हमने स्वीकार किया है; सुख के लिए हम | जो ब्रह्म है, यह जो विस्तार है, यह सब कुछ परमात्मा है। और जिस कारण खोजते हैं।
दिन आपको अपने में झुकने की कला आ जाएगी, आपका मस्तक और अगर आप प्रसन्न हैं बिना कारण के. तो लोग समझेंगे. झक सकेगा. लोचपर्ण होगा. हृदय आनंदित. प्रफल्लित होगा. आप पागल हैं। बिना कारण के प्रसन्न हैं! कोई कारण तो चाहिए। | प्रार्थना के स्वर वहां गूंजते होंगे, पैरों में धुन होगी आराधना की, भक्त अगर आप प्रसन्न हो रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, नाच रहे हैं, बिना किसी | का भाव होगा, तब आप पाएंगे कि यह सब परमात्मा है। उस दिन कारण के; न लाटरी मिली, न पत्नी मायके गई, कोई खुशी का | आप देखेंगे, जीवन नियम से चल रहा है। और धर्म भी विज्ञान है। कारण नहीं है, और आप प्रसन्न हो रहे हैं, तो लोग समझेंगे कि आप वस्तुतः धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। पागल हैं।
इस प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी समझने जैसा है: तब तो धर्म ये जो, जिनको हमने संत कहा है, उनके जीवन का रहस्य यही | | विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम की खोज में है कि उन्होंने बिना कारण प्रसन्न होने का रास्ता खोज लिया। संत | |निकलना मात्र धर्म रह जाता है।
और संसारी में यही भेद है। संसारी कारण खोजता है पहले। पहले निश्चित ही, उस परम नियम की खोज में निकलना ही धर्म है। सब प्रमाण मिल जाएं, तब वह प्रसन्न होगा। संत प्रसन्न होता है, | लेकिन वह परम नियम अगर बाहर आप खोजते हैं, तो आप प्रमाण का कोई आधार नहीं खोजता। क्या फर्क हुआ? वैज्ञानिक हो जाते हैं। और अगर उस परम नियम को आप भीतर
संत अंतरस्थ भाव में जीता है। बाहर आब्जेक्टिफिकेशन नहीं | खोजते हैं, तो धार्मिक हो जाते हैं। खोजता, बाहर वस्तु रूप में प्रमाण नहीं चाहता। तो संत कहता है, __ वैज्ञानिक भी धर्म ही खोज रहा है, लेकिन पदार्थ में खोज रहा प्रार्थना काफी है, परमात्मा हो या न हो। हो तो ठीक; न हो तो भी है, बाहर खोज रहा है। और अगर आप भी धर्म को मंदिर में खोजते उतना ही ठीक। इससे संत की प्रार्थना में कोई फर्क नहीं पड़ता। हैं, मस्जिद में खोजते हैं, तो आप भी बाहर खोज रहे हैं। आप में
संत प्रेम करता है, प्रेमी की तलाश नहीं करता। प्रेम में ही इतना और वैज्ञानिक में बहुत फर्क नहीं है। आनंद है कि अब प्रेमी का उपद्रव लेने की कोई जरूरत नहीं है। संत धार्मिक उसी नियम को भीतर खोजता है। क्योंकि धार्मिक ध्यान करता है, लेकिन ध्यान के लिए कोई विषय नहीं खोजता। व्यक्ति की यह प्रतीति है, जिसे मैं भीतर न पा सकूँगा, उसे मैं बाहर
विषय से मुक्ति हो, वस्तु से मुक्ति हो, पदार्थ से मुक्ति हो और कैसे पा सकूँगा। क्योंकि भीतर मेरा निकटतम है, जब भीतर ही मेरे अंतर्भाव में रमण हो, तो जीवन की परम समाधि अपने आप सध हाथ नहीं पहुंच पाते, तो बाहर मेरे हाथ कहां पहुंच पाएंगे? हाथ जाती है।
बड़े छोटे हैं। लेकिन हमें सब जगह बाहर कुछ चाहिए। अगर बाहर हमें कुछ ___ अपने ही भीतर नहीं छू पाता उसे, तो फिर मैं आकाश में उसे न मिले, तो हम बिलकुल खाली हो जाते हैं। क्योंकि भीतर हमने | कैसे छू पाऊंगा? और जो मेरे हृदय के भी पास है, और जो मेरे कभी फिक्र नहीं की। और हमने भीतर की जड़ें नहीं खोजी. जिनसे | प्राणों से भी निकट है, जो मेरी धड़कन-धड़कन में समाया है, वहां सारे जीवन के फूल खिल सकते हैं, बाहर की कोई भी जरूरत नहीं नहीं सुन पाता उसे, तो बादलों की गड़गड़ाहट में कैसे सुन पाऊंगा? है। जब तक ऐसा समझ में न आए, तब तक बाहर का सहारा लेकर | | बहुत दूर हैं बादल। और जो ज्योति मेरे भीतर जल रही है, वहां चलें। लेकिन ध्यान रखें कि वह सहारा सिर्फ सहारा है; वहां कोई | उससे मेरा मिलन नहीं होता, तो सूरज, चांद, तारों की ज्योति में मैं है नहीं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका क्या यह अर्थ हुआ कि मैं | | उसे नहीं पहचान पाऊंगा। कह रहा हूं परमात्मा नहीं है?
जब सत्य इतना निकट हो और हम उसे वहां चूक जाते हों, तो नहीं, मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं जिस परमात्मा को आप सोचते हमारी दूर की सब यात्रा व्यर्थ है। भीतर मुझे वह दिखाई पड़ जाए,
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