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________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * रहा है। और जो आनंद इस प्रार्थना से घटित होगा, वह किसी का प्रार्थना कर रहा है, महावीर से, ऋषभ से, नेमीनाथ से। इससे कोई दिया हुआ नहीं है; वह आपके ही अहंकार छोड़ने से आपको | फर्क नहीं पड़ता। मिलता है। लेकिन परमात्मा के बिना प्रार्थना करना बड़ा कठिन है; जो कर धर्म तो एक नियम है। जो झुकता है, उसकी समृद्धि बढ़ती चली | पाए, उसके जीवन में बड़े फूलों की वर्षा हो जाती है। लेकिन आप जाती है; जो अकड़ता है, उसकी समृद्धि टूटती चली जाती है। जो न कर पाते हों, तो परमात्मा से शुरू करें; कोई हर्जा नहीं है। जितना अकड़ जाता है, उतना मुर्दा हो जाता है। जो जितना झुक परमात्मा सिर्फ खिलौना है; असली चीज प्रार्थना घट जाए। जिस जाता है, जितना लोचपूर्ण हो जाता है, फ्लेक्सिबल हो जाता है, | दिन प्रार्थना घट जाएगी, उस दिन तो आप खुद समझ जाएंगे कि उतना ही जीवंत हो जाता है। परमात्मा के होने न होने का सवाल नहीं है। बच्चे में और बूढ़े में वही फर्क है। बूढ़े की हड्डी-हड्डी अकड़ गई ___धर्म नियम है, इसलिए मैंने कहा। और जो भी घटता है जीवन है। अब वह झुक नहीं सकता। बच्चा लोचपूर्ण है। | में, वह एक आत्यंतिक नियम के कारण घटता है। आपकी प्रार्थना आपको लोच देती है, फ्लेक्सिबिलिटी देती है, आपको | | प्रार्थनाओं के कारण कुछ भी नहीं घटता। आपकी पूजा के कारण झुकना सिखाती है। जो प्रार्थना नहीं करता, वह अकड़ जाता है; | कुछ भी नहीं घटता। हां, अगर पूजा आपकी, प्रार्थना आपकी असमय में बूढ़ा हो जाता है, असमय में मृत हो जाता है; जीते जी | | आपको बदल देती हो, तो आप नियम के अनुकूल बहने लगते हैं। मुर्दा हो जाता है। और जो प्रार्थना करना जानता है, उसे मृत्यु भी | उस नियम के अनुकूल बहने से घटना घटती है। नहीं मिटा पाती। मृत्यु के क्षण में भी वह लोचपूर्ण होता है, मृत्यु के ___ हम जीवन में करीब-करीब उन्हीं-उन्हीं भूलों को बार-बार क्षण में भी वह बच्चे जैसा जीवंत होता है। | दोहराते हैं। पिछले जन्म में भी आपने वही भूलें कीं, उसके पिछले 'जो व्यक्ति प्रार्थना की कला सीख लेता है, उसे परमात्मा से कोई | | जन्म में भी वही भूलें की, आज भी वही कर रहे हैं। और डर यह संबंध नहीं। परमात्मा सिर्फ बहाना है, ताकि प्रार्थना हो सके। है कि शायद कल और आने वाले जन्म में भी वही भूलें करेंगे। हर परमात्मा सिर्फ खूटी है, जिस पर हम प्रार्थना के कोट को टांग पीढ़ी उन्हीं को दोहराती है; हर आदमी उन्हीं को दोहराता है। सकें। असली बात प्रार्थना है। बड़ी से बड़ी भूल जो है, वह यह है कि हम अंतरस्थ भावों को इसलिए बुद्ध और महावीर जैसे महाज्ञानियों ने परमात्मा को | | भी बिना आब्जेक्टिफाइ किए, बिना उनको वस्तु में रूपांतरित किए बिलकुल इनकार ही कर दिया। लेकिन प्रार्थना को इनकार नहीं कर | स्वीकार नहीं कर पाते। भाव तो भीतरी है, लेकिन उस भाव को भी सके, प्रार्थना जारी रही। पूजा को इनकार नहीं कर सके, पूजा जारी | सम्हालने के लिए हमें बाहर के सहारे की जरूरत पड़ती है। यह रही। समर्पण को इनकार नहीं कर सके; समर्पण जारी रहा। इसलिए बुनियादी भूलों में से एक है। जैन धर्म बहुत ज्यादा जनता तक नहीं पहुंच सका, क्योंकि यह बात | अगर आप प्रसन्न हैं और कोई आपसे पूछे कि आप क्यों प्रसन्न ही समझ में नहीं आती। अगर भगवान ही नहीं है, तो फिर कैसी | हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि मैं बस, प्रसन्न हूं। क्यों का क्या आराधना? जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी? | सवाल है? आप कारण बताएंगे कि मैं इसलिए प्रसन्न हूं कि आज तो जैन विचार बहुत थोड़े लोगों की पकड़ में आया, ज्यादा लोग मित्र घर आया। इसलिए प्रसन्न हूं कि धन मिला। इसलिए प्रसर उसके साथ नहीं चल सके। और जो थोड़े-से लोग भी प्रथम दिन | | कि लाटरी जीत गया। आप कोई कारण बताएंगे। आप इतनी हिम्मत चले थे, वे ही समझदार थे। पीछे तो उनकी संतान सिर्फ अंधेपन | | नहीं कर सकते कि कह सकें कि मैं प्रसन्न हूं, क्योंकि प्रसन्न होने में के कारण चलती है। क्योंकि उनके मां-बाप जैन थे, वे भी जैन हैं। | प्रसन्नता है। लेकिन उनकी भी समझ में नहीं आता। . और मूढ़ हैं, जो कारण खोजते हैं। क्योंकि कारण खोजने वाला __ और इसलिए उन्होंने फिर नए उपाय कर लिए। बिना परमात्मा | | बहुत ज्यादा प्रसन्न नहीं हो सकता। कितने कारण खोजिएगा? रोज के तो पूजा हो नहीं सकती, तो फिर महावीर को ही परमात्मा की कारण नहीं मिल सकते। और आज कारण मिल जाएगा, घड़ीभर जगह बिठा दिया; फिर पूजा जारी हो गई! अब कोई फर्क नहीं है। | बाद कारण चुक जाएगा। लाटरी मिल गई, एक धक्का लगा, खुशी जैन और हिंदू में। हिंदू प्रार्थना कर रहा है, राम से, कृष्ण से। जैन आ गई। फिर? मित्र आज घर आ गया, कल कोई और घटना घट | 4031
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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