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दैवीय लक्षण
उसमें नहीं था । और खाली नाव को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। खाली नाव से क्या कहना ! संयोग की बात है। लेकिन यह आदमी बैठा है, यह रिस्पांसिबल है, यह जिम्मेवार है, इससे झगड़ा किया जा सकता है। लेकिन रिझाई कहता कि आदमी बैठा हो, या न बैठा हो, यह संयोग की बात है कि नाव टकरा गई। और तुम दोनों स्थितियों में एक-सा व्यवहार करो, तो अक्रोध जन्मेगा !
कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है । तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुसफुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है । सब अपने-अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो।
जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता; तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध ।
अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक-एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं।
जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता । क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है; वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है।
और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं, वह क्यों छिपाएगा कुछ ! किससे छिपाना है ? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या
छिपाना है। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा।
ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग-अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये अलग-अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे ! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण ! अपने बस बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी ! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप | पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं।
त्याग...।
एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी-कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा ; जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में | कुछ संगीत बजने लगता है।
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जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। | उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे-धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है।
त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख । और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है । छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख । और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है। दो फकीरों के संबंध में मैंने सुना है। उनमें बड़ा विवाद था। विवाद एक छोटी-सी बात को लेकर था कि एक फकीर कुछ पैसे पास रखता था, और एक फकीर कुछ भी पैसे पास नहीं रखता था।
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पास पैसे नहीं रखता था, वह कहता था, छोड़ने में आनंद है, पकड़ने में दुख है। जो पास पैसे रखता था, वह कहता था कि थोड़ा तो पकड़ना ही पड़े, नहीं तो बड़ा दुख होता है।
फिर वे एक नदी के किनारे पहुंचे। सांझ ढल गई, माझी नाव छोड़ने को था, उसने पैसे मांगे। इस तरफ रुकना खतरनाक था, जंगली जानवरों का डर था, उस तरफ जाना जरूरी था । तो जिसके पास पैसे थे, और जो पैसे का आग्रही था, उसने कहा, अब बोलो;