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गीता दर्शन भाग-7*
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । | अगर मैं चुप बैठा हूं, तो फिर कोई संबंध नहीं बनता, सेतु खो जाता दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।।२।। है। फिर जब मैं चुप बैठा हूं, तब आप अपनी ही बातों को सोचते
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता। हैं; मुझसे संबंध नहीं बनता, आपका अपने से ही संबंध रहता है।
भवन्ति संपदं देवीमभिजातस्य भारत ।।३।। जब मैं बोल रहा हूं, तब थोड़ी देर को आपका मन बंद हो जाता है। दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, आपका अपने मन से संबंध टूट जाता है और मुझसे संबंध जुड़ अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना जाता है। तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा इसलिए सुनकर आपको जितनी शांति मिलती है, उतनी अगर मैं लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ शांत बैठा हूं, तो मेरे पास शांत बैठकर न मिलेगी। मिलनी चाहिए चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात ज्यादा। क्योंकि जब मैं मौन हूं, तब आप मेरे पास हैं ही नहीं। तब
बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी। आप अपने पास हैं। आपका मन भीतर चल रहा है। आपका जो शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान निरंतर का उपद्रव है, उसमें आप डूबे हैं। जब मैं बोल रहा हूं, तब का अभाव-ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए बीच-बीच में आपका मन छिटक जाता है; आप थोड़े मेरे पास आ पुरुष के लक्षण है।
जाते हैं। उस क्षण में कुछ प्रतीतियां आपको हो सकती हैं।
लेकिन ध्यान रहे, जो मैं कह रहा हूं वह, शब्द में कहा जाने योग्य
नहीं है। इसलिए शब्द से ही जो मुझे समझेंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। पहले कुछ प्रश्न।
और उनकी समझ अधकचरी होगी; नासमझी ज्यादा होगी उससे, पहला प्रश्नः आश्चर्य है कि जब आप बोलते हैं, तभी | | समझदारी कम। मौन में भी मुझे समझने की कोशिश करनी होगी। वाणी के माध्यम से हमें आपका शिखर थोड़ा दिखाई | स्वभावतः, शब्द की तैयारी है; जीवनभर शब्द आपने सीखा है, पड़ता है। ऐसा क्यों?
मौन आपने कभी सीखा नहीं। उसे भी सीखना होगा, उसके प्रशिक्षण से भी गुजरना होगा। ध्यान उसी का प्रशिक्षण है। ।
इसलिए आधा जोर मेरा मैं आपसे बोलता हूं उस पर है, और म नभावतः, शब्द समझ में आते हैं; मौन समझ में नहीं आधा जोर मेरा इस पर है कि आपके भीतर बोलने की प्रक्रिया बंद रप आता। शब्द तो बुद्धि से भी पकड़ लिए जाते हैं, मौन हो, आप ध्यानस्थ हों। जैसे-जैसे आप ध्यानस्थ होंगे, वैसे-वैसे
को पकडे़ने के लिए तो हृदय चाहिए। बुद्धि का शिक्षण ही मेरा न बोलना आपकी ज्यादा समझ में आएगा। और बोलने में है आपके पास; बुद्धि की धारणाओं की, बुद्धि के तर्क की, बुद्धि | भी जो आप समझेंगे, वह शब्दों के पार है, उसकी झलक मिलनी की भाषा की पकड़ है। मौन, शून्य, ध्यान की कोई पकड़ नहीं है। | शुरू हो जाएगी।
जिसे आप समझ सकते हैं, उसे आप समझ लेते हैं। उसे भी पूरा शब्द भी शून्य के संकेत बन जाते हैं, लेकिन उसके लिए हृदय समझते हैं, कहना कठिन है। क्योंकि जो केवल शब्द को ही समझता | | की तैयारी चाहिए। और हम एक ही तरह का संबंध जानते हैं, एक है और शून्य को नहीं, वह शब्द को भी पूरा नहीं समझ पाएगा। ही कम्युनिकेशन, एक ही संवाद का रास्ता जानते हैं कि बोलें।
साधारण बोलचाल के शब्द, साधारण जीवन और काम और | | भाषा के अतिरिक्त हमारे बीच कोई संबंध नहीं है। भाषा न हो, चर्या के शब्द तो वस्तुओं के प्रतीक हैं। शास्त्रों के शब्द अनुभूतियों | हमारे सब संबंध खो जाएं। के प्रतीक हैं। और अनुभूतियां तो बड़ी सूक्ष्म हैं, आकार में उन्हें पश्चिम के मनसविद पति-पत्नियों को सलाह देते हैं कि जैसा बांधा नहीं जा सकता; नाम देना संभव नहीं है; परिभाषाएं बनती प्राथमिक क्षणों में पति और पत्नी ने एक-दूसरे से प्रेम के शब्द बोले नहीं हैं; फिर भी शब्द आपको सुनाई पड़ते हैं और सुनाई पड़ने से थे, उनको जारी रखना चाहिए। आपको लगता है कि समझ में आ गया।
स्वभावतः, पति-पत्नी उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी जरूरत नहीं रह थोड़ी-सी झलक मिलती है, तो उससे मुझसे संबंध बनता है। जाती। जब आप पहली बार किसी के प्रेम में पड़ते हैं, तो कुछ शब्द
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