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* दैवीय लक्षण *
बोलते हैं, जो कि निरंतर साथ रहने पर, विवाहित हो जाने पर, | पहला चरण है, प्रार्थना दूसरा चरण है, परमात्मा अंतिम चरण है। फिजूल मालूम पड़ेंगे।
| फिर और गहरे चरण हैं; प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा एक से ज्यादा गहरे लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, | हैं। परमात्मा को तो समझना बहुत ही कठिन है। उसके लिए भी अन्यथा प्रेम समाप्त हो जाएगा। क्योंकि शब्द ही हमारा कुल संबंध | | हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। है। तो पति चाहे वह बीस वर्ष से पत्नी के साथ हो, तो भी उसे रोज | इसलिए जब मैं बोलता हूं, तब आपको किसी शिखर की प्रतीति दोहराना चाहिए कि मैं तेरे प्रेम में पागल हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, | | हो सकती है, लेकिन वह शिखर वास्तविक शिखर नहीं है। जिस चाहे यह सत्य न भी मालूम पड़े, चाहे यह प्रतीति न भी होती हो, | | दिन मैं चुप बैठा हूं आपके पास और आपको कुछ अनुभूति हो, लेकिन प्रेम की भाव-भंगिमा, प्रेम के शब्द, प्रेम की मुद्राएं जारी| उसी दिन जानना कि किसी वास्तविक की प्रतीति का पहला, पहला रखनी चाहिए, अन्यथा संबंध टूट जाएगा।
आघात, पहला संघात हुआ, पहली बिजली आपके भीतर कौंधी। अधिक पति-पत्नियों का जीवन उदास और ऊब से भर जाता मेरे बोलने का सारा प्रयोजन ही इतना है कि कुछ लोगों को उस है। उसका बहुत कारण यह नहीं है कि उनके जीवन का प्रेम समाप्त घड़ी के लिए तैयार कर लूं, जब मैं न बोलूं, तब भी वे समझ पाएं। हो गया। प्रेम था, तो समाप्त होता भी नहीं। शब्द थे पहले, अब वे | और अगर कुछ लोग उसके लिए तैयार नहीं हो पाते, तो बोलना शब्द छूट गए। और निरंतर उन्हीं शब्दों को दोहराना बेहूदा मालूम व्यर्थ गया जानना चाहिए। पड़ता है। शब्द छूट गए, संबंध छूट गया।
बोलने की अपनी कोई सार्थकता नहीं है, सार्थकता तो मौन की __ मौन को तो कोई समझता नहीं। अगर कोई आपको प्रेम करता | | ही है। बोलना ऐसे ही है, जैसे छोटे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग हो और कहे न, तो आप पकड़ ही न पाएंगे कि प्रेम करता है। किसी | गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना-देना नहीं है। ग गधे का भी तरह प्रकट न करे-भाव-भंगिमा से, आंख के इशारे से, शब्दों | | उतना ही है। गणेश प्रतीक हैं; उसके सहारे हम ग को समझाते हैं। से, ये सभी शब्द हैं-चुप रहे, तो आप कभी भी न पहचान पाएंगे | | फिर समझ जाने के बाद गणेश को याद रखने की जरूरत नहीं है। कि कोई आपको प्रेम करता है। कहना पड़ेगा, प्रकट करना पड़ेगा। और जब भी आप ग पढ़ें, तो बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं कि __ और तब एक बड़े मजे की घटना घटती है। प्रेम न भी हो और ग गणेश का। और अगर यह दोहराना पड़े, तो आप पढ़ ही न अगर कोई कुशल हो प्रकट करने में, तो आपको लगेगा कि प्रेम | | पाएंगे। तब तो कुछ पढ़ना संभव न होगा; तब आप पहली कक्षा है। बहुत बार, जो अभिव्यक्ति में कुशल है, वह प्रेमी बन जाता है। के बाहर कभी जा ही न पाएंगे। जरूरी नहीं है कि प्रेम हो। क्योंकि प्रेम को आप समझते नहीं, आप | तो जो भी मैं कह रहा हूं, वह ग गणेश का है। सब कहा हुआ सिर्फ शब्दों को समझते हैं।
प्रतीक है। तैयारी इसकी करनी है कि वह छूट जाए और आप चुप . पति-पत्नी उदास होने लगते हैं, क्योंकि उन्हीं-उन्हीं शब्दों को | होने में समर्थ हो जाएं, तब जो दर्शन होगा, वह दर्शन वास्तविक क्या बार-बार कहना! फिर उनमें कुछ रस नहीं मालूम पड़ता। शिखर का है। लेकिन शब्दों के खोते ही संबंध खो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू दे रहा था। और इंटरव्यू लेने वाले अफसर ने कहा कि क्या आप दूसरा प्रश्नः रात आपने कहा कि प्रार्थना परमात्मा तक शादीशुदा हैं ? उसने कहा कि नहीं, मैं वैसे ही दुखी हूं। पहुंचा देती है और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की
शादीशुदा आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। शैली है। क्या इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश एक ऊब घेर लेती है। और इस ऊब का कुल कारण इतना है कि डालेंगे? धर्म-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है? जिन शब्दों के कारण प्रेम प्राथमिक रूप से संवादित हुआ था, वे शब्द आपने छोड़ दिए।
प्रेम भी समझ में नहीं आता शब्द के बिना, तो प्रार्थना तो कैसे 1 र्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है, शायद यह कहना समझ में आएगी, परमात्मा तो कैसे समझ में आएगा। क्योंकि प्रेम | प्रा बिलकुल ठीक नहीं है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि
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