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अधिक / अनुभवों को पकड़ना नहीं / ध्यान घटता है-अपेक्षाशून्य दशा में / झेन गुरु द्वारा शिष्य की पिटाई / सात्विक अकड़ / दुर्वासा मुनि का क्रोध / सत्व के भी पार-गुणातीत अवस्था / संन्यास का गुणों से क्या संबंध है? / संन्यास गुणातीत है / कुछ न पकड़ना संन्यास है / गार्हस्थ्य है-पकड़ने की वृत्ति / साधु अर्थात सत्व से बंधा हुआ व्यक्ति / संन्यास अर्थात शरीर और मन से मुक्त साक्षी चेतना / गुणातीत पुरुष के क्या लक्षण हैं? / सब लक्षण काम-चलाऊ / विपरीत लक्षणों से अड़चन / जैन, बुद्ध, कृष्ण, जीसस आदि को गुणातीत नहीं मानते / बाह्य लक्षण भिन्न-भीतर की दशा एक / झेन फकीर ः अति-साधारण; पहचानना मुश्किल / नान-इन द्वारा गुरु की खोज / विपरीत व भिन्न लक्षणों के कारण धर्मों में वैमनस्य / आरोपित लक्षणों का खतरा / जैन मुनि का दिगंबर हो जाना / भिक्षा के नियमों में चालाकी / बौद्ध भिक्षुओं के मांसाहार की तरकीब / गुणों के सुख-दुख से अप्रभावित / वंचना की संभावना / घने युद्ध में खड़े कृष्ण मात्र साक्षी हैं | समस्त आकांक्षाओं से मुक्त-चुनाव रहित / गुण ही गुणों में वर्तते हैं | नीति चुनाव सिखाती है और धर्म-अचुनाव / चलायमान मन / गुणों से मुक्ति और निर्गुण में स्थिति।
आत्म-भाव और समत्व ... 133
ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति भी क्या काम, क्रोधादि वासनाओं में प्रवृत्त हो सकता है? / वीतराग व्यक्ति का नया जन्म नहीं / वासना के बीजों का दग्ध हो जाना / शरीर की त्रिगुणात्मक जरूरतें जारी / शरीर की भूख-प्यास के अलग साक्षी बने रहना / गुणों का वर्तन शुद्धतम रूप में / प्रवृत्तियों से कोई तादात्म्य नहीं रहता / चेतना अस्पर्शित और अछूती / शरीर का पुराना मोमेंटम सक्रिय / बिना पैडल मारे साइकिल का थोड़ी देर चलना / कर्ता नहीं-साक्षी / बिना पतवार चलाए नाव का चलना / न चलाना-न रोकना / ब्रेक लगाना अर्थात कर्तापन अभी शेष है / प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों गुणों का ही वर्तन है / कर्ताभाव का मिट जाना / संत और साधु में भिन्नता / साधुता में चुनाव है / संतत्व-अचुनाव में प्रतिष्ठा है / न कर्ता न भोक्ता मात्र द्रष्टा / पुरानी गति की निर्जरा-और शरीर का विसर्जन / जड़ गुणों से चैतन्य साक्षी का तादात्म्य कैसे संभव होता है? / गुणों के प्रतिबिंब-चेतना के दर्पण पर / प्रतिबिंब से तादात्म्य / चेतना की दोहरी सामर्थ्य / चेतना समर्थ है-भ्रांति में पड़ने में / स्वतंत्रता अर्थात गलत करने की भी स्वतंत्रता / विपरीत का मूल्य / पाने के सुख के लिए खोने का दुख जरूरी / बंधन की चाह / बंधन का दुख और मुक्ति का निर्णय / दुख में पकने पर दुख से मुक्ति / संसार में अनुभवों का पकना / युद्ध की पीड़ा से गुजर कर ही अर्जुन पकेगा / जीवन में हर चीज की उपादेयता है / अशांति व बंधन के आयोजन / जब तक शरीर से सुख, तब तक उससे तादात्म्य / दुख-बोध से दुख-मुक्ति / सच्चिदानंदघन परमात्मा क्या है? / आप ही हैं—सच्चिदानंद / हमारा स्वभाव है : सत, चित और आनंद / सत अर्थात सनातन-अपरिवर्तनशील / चित अर्थात चैतन्य स्वभाव वाला / शरीर की बेहोशी को अपनी बेहोशी मानने की भूल / हिप्नोसिस का आधार ः मान्यता की शक्ति / धारणा शक्ति के कुछ चमत्कार / बाप को भी प्रसव-पीड़ा / मान्यता के सुख मान्यता के दुख / भीतर छिपा परमात्मा / लुका-छिप्पौव्वल / पूरी तरह खेल लेने पर मुक्ति की अभीप्सा का जन्म / आत्म-भाव में सदा स्थिति / प्रतिबिंबों से तादात्म्य न करना / परमात्मा को बाहर खोजने की भूल / परमात्मा को कभी खोया नहीं है / समस्त द्वंद्वों के बीच भी समत्व / सुख-दुख, निंदा-स्तुति, मित्र-वैरी / चुनाव के कारण द्वंद्व / कर्तापन से मुक्ति-आत्म-भाव आने पर / आत्मस्थ पुरुष भोजन करके भी सदा उपवासाः बोध-कथा / मैं शरीर नहीं हूं-इसके स्मरण का अभ्यास / बिना भोजन के रहने की वैज्ञानिक संभावना / चेतना परम ऊर्जावान है / तादात्म्य के कारण मनुष्य में संवेदनशीलता की कमी / बीमार जानवरों का भोजन त्याग / शरीर की नैसर्गिक क्षमता / दूर खड़े होकर देखने की क्षमता / जरूरत पर रुक जाना / शरीर का दीया और चेतना का महासूर्य / परम सिद्धि-गुणातीत हो जाना।