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गीता दर्शन भाग-7
जो हम देते हैं, वह हमारे पास अनंतगुना होकर लौट आता है। फिर हम सुख दें तो, हम दुख दें तो हम वही अर्जित कर लेते हैं, जो हम बांटते हैं।
ऐसा व्यक्ति, जो दुख देता है और सुख देने की केवल कल्पना करता है, वह दुख पाता है और सुख की केवल आशा कर सकता है । उसे सुख मिल नहीं सकता। हमारे वास्तविक कृत्य ही हमारे जीवन में परिणाम लाते हैं, वे हमारी निष्पत्तियां हैं। जो हम करते हैं, वही हमारी निष्पत्ति बनता है।
अगर आप दुख पा रहे हैं, तो आप निरंतर ऐसा ही सोचते हैं कि लोग बहुत बुरे हैं, इसलिए दुख दे रहे हैं। आप दुख इसलिए पा रहे हैं कि दुख आपने बांटा है आज, पीछे, कल और पीछे कल। आप वही पा रहे हैं, जो आपने बांटा है।
बुद्ध को किसी पागल आदमी ने मारने की, हत्या करने की कोशिश की; एक पागल हाथी उनके ऊपर छोड़ा। एक पहाड़ के नीचे बैठकर ध्यान करते थे, तो चट्टान ऊपर से सरकाई ।
बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध को कहा कि यह आदमी महान दुष्ट है। बुद्ध ने कहा, ऐसा मत कहो। मैंने उसे कभी कोई दुख दिया होगा, वही दुख मुझ पर वापस लौट रहा है। और मैं इस खाते को बंद कर देना चाहता हूं। इसलिए उसे चट्टान गिराने दो; उसे पागल हाथी छोड़ने दो; और मैं कोई प्रतिक्रिया न करूं, मैं कुछ भी न कहूं इस संबंध में अब; अब इस चीज को आगे बढ़ाना नहीं है। क्योंकि इतना भी मैं कहूं कि वह दुष्ट है, तो फिर मैं उसे दुख देने का उपाय कर रहा हूं। यह बात भी उसको चोट पहुंचाएगी कि दुष्ट है, ऐसा मैंने कहा। यह बात भी उसको कांटा बनेगी, फिर इसका प्रतिफल होगा । तो वह जो कर रहा है, वह मैंने कुछ किया होगा, उसका प्रतिफल है। और इस खाते को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूं। यह किताब अब बंद कर देनी है। उसे कर लेने दो। और मैं अब कुछ भी न करूंगा, कोई भी प्रतिक्रिया, ताकि आगे के लिए कोई भी लेन-देन निर्मित न हो ।
जब भी हमें दुख मिलता है, हम सोचते हैं, लोग हमें दुख दे रहे हैं। वह हमारी भ्रांति है। कोई आपको क्यों दुख देने चला ? किसी को क्या प्रयोजन है? किसको फुरसत है ? लोगों को अपना जीवन ना है कि आपको दुख का उपाय करना है?
नहीं, कहीं कोई आपने निर्मिति की है; कहीं कोई प्रतिध्वनि आपने फेंकी थी, वह आज वापस लौट रही है। उसे इस भांति जो चुपचाप स्वीकार कर लेता है, उसके दुखों के जो अतीत के बोझ
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हैं, वे कट जाते हैं और नए बोझ निर्मित नहीं होते ।
और अगर कभी आपको कोई सुख मिलता है, तो भी आप जानना कि आपने कोई सुख बांटा होगा, जाने या अनजाने, उसका प्रतिफल है।
अगर हम अपने सुखों और दुखों को अपने ही कर्मों का प्रतिफल समझ लें, तो कर्म का सिद्धांत हमारी समझ में आ गया। कर्म का सिद्धांत बस सार में इतना ही है कि मुझे वही मिलता है, जो मैंने किया है। मैं वही फसल काटता हूं, जो मैंने बोई है; अन्यथा कुछ भी हो नहीं सकता।
ऐसी चित्त की दशा बनती चली जाए, तो आप धीरे-धीरे आसुरी संपदा से मुक्त होकर दैवी संपदा में प्रवेश कर जाएंगे। इससे विपरीत अपने को आप आदत बनाते रहें, तो आसुरी संपदा में धीरे-धीरे थिर हो जाएंगे। ऐसे थिर हो गए लोग, कृष्ण कहते हैं, महानरक में गिर जाते हैं। आज इतना ही