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* मूल-स्रोत की ओर वापसी *
ही नहीं जान सकेगा, वह परमात्मा से कैसे उसका कोई संबंध होगा। | बड़ा होने लगे त्याग के साथ। दिशा बदल गई, आयाम बदल गया,
मूल सहित इस पूरे संसार को जो जान लेता है, वह वेद के | | ढंग-ढांचा बदल गया, लेकिन माली कुशल है और शाखा की मूल तात्पर्य को जानता है।
धारा नहीं बदली; शाखा अब भी वही है। यह हो भी सकता है, उसे वेद पता ही न हों, लेकिन तात्पर्य पता ___ आसान है दिशा बदल लेना। स्वयं को बदल देना कठिन है। होगा। यह हो सकता है, उसे वेदों से कोई परिचय न हो। वह | और यह भी हो सकता है कि अगर आप स्वयं को बदल लें, तो संस्कृत का ज्ञाता न हो, वह व्याकरण का अधिकारी न हो, लेकिन | | दिशा को बदलने की चिंता करनी भी आवश्यक नहीं है। स्मरण आ तात्पर्य उसके पास होगा।
जाए मूल का, तो शाखा नीचे की तरफ बढ़ती रहे, इससे कोई फर्क तात्पर्य बड़ी अलग बात है। तात्पर्य वैसे है, जैसे फूल में सुगंध | नहीं पड़ता। लेकिन अब आप मूल की तरफ सरकने शुरू हो गए। होती है। फूल से चाहे मिलना न भी हुआ हो, हवा में तैरती हुई | | तो त्याग अपरिहार्य नहीं है। भोग में भी कोई रह सकता है। सुगंध से मिलना हो जाता है। और वही सार है। वेद फूल की तरह | लेकिन मूल का स्मरण आना शुरू हो जाए। होंगे। उनकी सुगंध सब तरफ विस्तीर्ण है। संसार के कण-कण से | कृष्ण खुद भी वैसे ही व्यक्ति हैं, जिन्होंने शाखाओं की दिशा वेद का जन्म हो रहा है, प्रतिपल।
नहीं बदली है। शाखाएं जिस तरफ बढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं। लेकिन वेद शब्द हिंदुओं का बड़ा अनूठा है। उसका मतलब होता है, | शाखाओं के भीतर जो प्राण की धारा बह रही है, उसका रुख बदल ज्ञान, जानना। यहां प्रतिपल ज्ञान की संभावना है, लेकिन खुली गया है। वह अब मूल की तरफ बह रही है। उसको स्मरण अब आंखें चाहिए। अक्सर शास्त्र आंखों को बंद कर देते हैं। | उदगम का है, स्रोत का है, प्रथम का है। अंतिम की तरफ यात्रा नहीं
इस संसार को जो मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के हो रही है। शाखाएं बढ़ती रहें, संसार चलता रहे, लेकिन चेतना तात्पर्य को जानने वाला है।
| अब प्रथम की ओर जा रही है। उस संसार-वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं | ___ इससे उलटा अक्सर हो जाता है। लोग शाखाएं भी काट डालते विषय-भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि | | हैं इस डर से कि कहीं नीचे पतन न हो जाए। इंद्रियां काट डालते योनिरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। तथा हैं, आंखें फोड़ लेते हैं, कान फोड़ डालते हैं, इस डर से कि कहीं मनुष्य-योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और कोई इंद्रिय भटका न दें। लेकिन चेतना की धारा आंखें फोड़ने से वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। नहीं बदलती। नहीं तो सभी अंधे परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाते।
कुछ और बातें, फिर यह सूत्र का दूसरा हिस्सा खयाल में आ सारी दुनिया में इस तरह के वर्ग रहे हैं, जिन्होंने शाखाओं को सकेगा।
| काटने की कोशिश की, इस आशा में कि न होंगी शाखाएं, न होगी . यह जो वृक्ष है, यह जो संसार है, इसमें वासनाएं नीचे की तरफ शाखाओं की तरफ गति। यह आशा भ्रांत है, यह तर्क भूल भरा है। ले जाती हैं। लेकिन इससे आप इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि अगर | शाखा न हो, तो भी गति हो सकती है। क्योंकि गति भीतर की आप ऊपर की तरफ जाना शुरू कर दें, तो वासनाओं से छुटकारा | धारणा है। शाखा हो, तो भी गति न हो, यह भी हो सकता है। हो जाएगा। क्योंकि यह भी हो सकता है, एक शाखा पहले नीचे | आप बिलकुल घर में रहकर संन्यस्त हो सकते हैं। और पूरी तरह की तरफ यात्रा करे-अक्सर हो जाता है; और अगर माली कुशल संन्यासी होकर गृहस्थ हो सकते हैं। इसमें दूसरी बात के प्रतीक हो, तो हर शाखा के साथ हो सकता है-शाखा पहले नीचे की आपको जगह-जगह मिल जाएंगे। संन्यासियों को जाकर गौर से तरफ यात्रा करे, फिर मोड़ दी जाए, और शाखा ऊपर की तरफ | देखें, तो आप पाएंगे कि वे नए ढंग के गृहस्थ हैं। दूसरी बात जरा उठने लगे। शाखा वही रहे, उसका प्राण वही रहे, उसकी दिशा कठिन है। उस गृहस्थ को खोजना जरा कठिन है, जो संन्यस्त हो। बदल जाए, लेकिन उसका सत्व न बदले।
लेकिन वह भी मिल जाएगा। अगर आंखें आपके पास खुली हों तो यह हो सकता है, एक आदमी धन के साथ अपने अहंकार | | और आप तीक्ष्णता से जांच-परख कर रहे हों, धारणा पहले से न को जोड़ रहा हो; फिर धन छोड़ दे और त्याग के साथ अहंकार को बना रखी हो, निर्णय पहले से न ले लिया हो, तो आपको ऐसे बांध ले। कल उसका अहंकार बड़ा होता था धन के साथ, अब गृहस्थ भी मिल जाएंगे जो बिलकुल संन्यस्त हैं। चेतना के प्रवाह
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