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________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्छी | ठंडा हो जाएगा, क्योंकि उसकी गरमी रोज चुकती जाती है। लेकिन प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप कुछ दूसरे सूरज, जो ठंडे पड़े हैं, गरम होते जा रहे हैं। जैसे ही अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप हमारा सूरज ठंडा होगा, कोई सूरज दूसरा गरम हो जाएगा। इस शस्त्र द्वारा काटकर...। . सूरज के ठंडे होते ही इस पृथ्वी से जीवन तिरोहित हो जाएगा। यह जो उलटे वृक्ष की कल्पना कृष्ण ने दी, ऐसा हम खोजने | लेकिन किसी और पृथ्वी पर जीवन के अंकुरण शुरू हो जाएंगे। जाएंगे, तो हमें मिलेगा नहीं। उसके कई कारण हैं। वैज्ञानिक हिसाब से कोई पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन अभी पहला तो कारण यह है कि हम उस वृक्ष की एक छोटी शाखा है। होना चाहिए। वृक्ष की एक शाखा सूखती है, तो दूसरी शाखा हैं। हम खोजने जा नहीं सकते। हम उस वृक्ष से दूर खड़े होकर देख | | निकल जाती है। वृक्ष मुरझाए, कि नए अंकुर आ जाते हैं। पुराने नहीं सकते। हम उस वृक्ष के अंग हैं। इसलिए हम कैसे देख पाएंगे | | पत्ते गिर भी नहीं पाते कि नए पत्ते प्रकट होने लगते हैं। कि वृक्ष उलटा खड़ा है; जड़ ऊपर है और पत्ते नीचे हैं। हम पत्ते ही __ श्रृंखला अनंत है। इसलिए न पीछे खड़े होने का उपाय है, न हैं या हम शाखाएं हैं। हम वृक्ष के अंग हैं, उससे हम दूर नहीं हो आगे खड़े होने का उपाय है। न किनारे खड़े होने का उपाय है, सकते हैं। क्योंकि हम उसके हिस्से हैं; हम शृंखला हैं। इसलिए संसार के वृक्ष की यह उलटी जो अवस्था है, ध्यान की और इसलिए भी अच्छी प्रकार से नहीं समझा जा सकता, परम गुह्य स्थिति में ही दिखाई पड़ती है। उसके पहले नहीं। क्यों? क्योंकि इसकी कोई ठीक स्थिति नहीं है। यह शब्द समझ लेने जैसा क्योंकि ध्यान की उस गुह्य स्थिति में आप वृक्ष के हिस्से नहीं रह है। स्थिति केवल परमात्मा की है, संसार की केवल गति है, स्थिति जाते, आप संसार के हिस्से नहीं रह जाते। इसलिए सिर्फ समाधि नहीं है। में ही इस उलटे वृक्ष का पूरा रूप दिखाई पड़ता है। यह समाधिस्थ | यहां सब चीजें हो रही हैं; कोई भी चीज है की अवस्था में नहीं चित्त की अनुभूति है। | है। इसलिए बुद्ध ने तो कहा कि है शब्द का प्रयोग ही मत करना। आप इसे समझ लें बुद्धि से, उतना ही काफी है। आप इसे देख जैसे हम कहते हैं, वृक्ष है। तो बुद्ध कहते हैं, ऐसा कहना ही मत, न पाएंगे। वृक्ष विराट है। वैज्ञानिक कहते हैं, इसका हम कोई | क्योंकि है की कोई स्थिति नहीं है। वृक्ष हो रहा है। जब तुम कहते ओर-छोर नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। जितनी खोज बढती है. उतना हो. वक्ष है. तब भी वह हो रहा है। हम कहते हैं. यह जवान है. तब ही यह वृक्ष विराट मालूम होता है। रोज नए तारे खोजे जाते हैं; नए | भी हम गलत कहते हैं। क्योंकि जब हम कहते हैं, जवान है, तब सूरज खोजे जाते हैं। वह जवान हो रहा है या बूढ़ा हो रहा है। लेकिन है की कोई स्थिति अब तक कोई चार अरब सूरज खोजे जा चुके हैं। और कभी ऐसा | नहीं है। हमेशा होने की स्थिति है, भवति। सभी कुछ बिकमिंग है। लगता था कि एक सीमा आ जाएगी, जब खोज समाप्त हो जाएगी | कहीं कुछ ठहरा नहीं है। हम पहुंच जाएंगे अंतिम सीमा पर। पर अब कोई सीमा नहीं मालूम । स्थिति का अर्थ है, ठहराव। परमात्मा के सिवाय और किसी की होती है। जितना आगे बढ़ते हैं, नई खोज होती चली जाती है। | कोई स्थिति नहीं है। बाकी सब बहाव है। जैसे नदी बह रही है, ऐसे वृक्ष बहुत बड़ा मालूम होता है, विराट मालूम होता है। और हम | | आप भी बह रहे हैं। ऐसी हर चीज बह रही है। उसके अंग हैं, इसलिए दूर खड़े होकर हम देख नहीं पाते हैं। देखने यह वृक्ष एक बहाव है, इसलिए भी देखना बहुत मुश्किल है। की कोई संभावना भी नहीं है। क्योंकि हर चीज बदल रही है। आप देख भी नहीं पाते कि बदल फिर न तो इसका कोई आदि है और न अंत है। अगर इसका कोई | जाती है। आप इसके पहले कि समझ पाएं, स्थिति बदल जाती है। प्रारंभ होता, तो भी देखना आसान था। अगर कभी यह अंत होता | इसके पहले कि आप पकड़ पाएं, जिसको आप पकड़ रहे थे, वह होता, तो भी देखना आसान था। यह एक अनंत श्रृंखला है। एक वहां मौजूद न रहा। कुछ और हो गया। यहां सब धुआं-धुआं है, तरफ एक ग्रह उजड़ता है, तो दूसरा ग्रह निर्मित हो जाता है। एक | बादलों की तरह है। जैसे बादलों में हम आकृति नहीं पकड़ पाते हैं। तरफ एक सूरज बुझता है, तो दूसरे सूरज में प्राण आ जाते हैं। । | आप देख रहे हैं कि एक हाथी बन रहा है बादलों में; और आप देख वैज्ञानिक सोचते हैं कि शायदे पांच हजार वर्ष बाद हमारा सूरज | भी नहीं पाए कि हाथी बिखर गया, कुछ और बन गया। 189
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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