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________________ * गीता दर्शन भाग-7 बुद्ध ने कहा है, मैं कोई मित्र नहीं बनाता हूं, क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। मित्र बनाएंगे, तो शत्रु बनना निश्चित है। आधा नहीं चुना जा सकता। और हम आधे को ही चुनने की कोशिश करते हैं। इससे हम कष्ट में पड़े हैं। अगर मित्र को चुनते हैं, तो शत्रु को स्वीकार कर लें। सुख को चुनते हैं, तो दुख को भी स्वीकार कर लें। पर यह स्वीकृति, यह तथाता उसी को संभव है, जो अपने में स्थित हुआ हो; जो भीतर खड़े होकर देख सके – दुख को, सुख को, दोनों को— निष्पक्ष भाव से । भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति देख पाता है निष्पक्ष भाव से । भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति तराजू की भांति हो जाता है, जिसके दोनों पलड़े एक सम स्थिति में आ गए; जिसका कांटा आत्म-भाव में थिर हो गया। तथा जो मान-अपमान में सम है। मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। कुंजी है, आत्म-भाव में स्थित होना । आत्म-भाव में स्थित है, द्वंद्व में सम हो जाएगा। जो आत्म-भाव में स्थित है, वह कर्तापन से मुक्त हो जाएगा। उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। भूख लगेगी, पर वह भूखा नहीं होगा। बड़ी मीठी कथा है कृष्ण के जीवन में। जैन शास्त्रों में उस कथा का उल्लेख है। कृष्ण की पत्नी ने, रुक्मिणी ने कृष्ण से पूछा कि एक परम वैरागी नदी के उस पार ठहरा है। वर्षा के दिन हैं, नदी में पूर है। और कोई भोजन नहीं पहुंचा पा रहा है। आप कुछ करें। तो कृष्ण ने कहा, तू ऐसा कर कि जा और नदी के किनारे नदी से यह प्रार्थना करना - कथा बड़ी मीठी है— नदी से यह प्रार्थना करना कि अगर वह वैरागी, जो उस पार ठहरा है, वह संन्यस्त वीतराग पुरुष सदा का उपवासा हो, तो नदी मार्ग दे दे। रुक्मिणी को भरोसा तो न आया, लेकिन कृष्ण कहते हैं, तो कर लेने जैसी बात लगी । और हर्ज क्या है; देख लें। और शायद यह हो भी जाए, तो एक बड़ा चमत्कार हो । तो वह सखियों को लेकर बहुत-से मिष्ठान्न और भोजन लेकर नदी के पास गई। उसने नदी से प्रार्थना की। भरोसा तो नहीं था । लेकिन चमत्कार हुआ कि नदी ने रास्ता दे दिया। कहा इतना ही कि उस पार जो ठहरा संन्यस्त व्यक्ति है, अगर वह जीवनभर का उपवासा है, तो मार्ग दे दो । नदी कट गई। अविश्वास से भरी रुक्मिणी, आंखों पर भरोसा नहीं, अपनी सहेलियों को लेकर उस पार पहुंच गई। उस वीतराग पुरुष के लिए भोजन वह इतना लाई थी कि पचास लोग कर लेते। वह अकेला संन्यासी ही उतना भोजन कर गया। भोजन के बाद यह खयाल आया कि हम कृष्ण से यह तो पूछना भूल ही गए कि लौटते वक्त क्या करेंगे। क्योंकि नदी अब फिर बह रही थी। और अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। क्योंकि यह आदमी आंख के सामने भोजन कर चुका। और थोड़ा-बहुत भोजन | नहीं कर चुका । निश्चित ही, जीवनभर का उपवासा रहा होगा । | पचास आदमियों का भोजन उसने कर लिया ! लेकिन अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। और अब कृष्ण से पूछने का कोई उपाय नहीं। तो एक ही उपाय है, इस वीतराग पुरुष से ही पूछ लो कि कोई कुंजी है वापस जाने की ! तो उसने कहा कि तुम किस कुंजी से यहां तक आई हो? तो उन्होंने कहा कि कृष्ण ने ऐसा कहा था, लेकिन वह तो अब बात बेकार हो गई। उस संन्यासी ने कहा कि वह बात बेकार होने वाली नहीं है। कुंजी काम करेगी। तुम नदी से कहो कि अगर यह संन्यासी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। पहले ही भरोसा नहीं आया था। अब तो भरोसे का कोई कारण भी नहीं था। अब तो स्पष्ट अविश्वास था। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इसलिए नदी से प्रार्थना करनी पड़ी। और नदी ने मार्ग दिया। करीब-करीब होश खोई हुई हालत में रुक्मिणी कृष्ण के पास पहुंची। और उसने कहा, यह हद हो गई। यह बिलकुल भरोसे की | बात नहीं है। क्योंकि हमने अपनी आंख से देखा है संन्यासी को भोजन करते हुए। उसके जीवनभर के उपवासे होने का कोई सवाल नहीं रहा। 146 कृष्ण ने कहा कि वही तुम नहीं समझ पा रही हो। भूख शरीर को लगती है, ऐसा जो जान लेता है, फिर भोजन भी शरीर में ही जाता है। ऐसा जो जान लेता है, उसका उपवास कभी भी खंडित नहीं होता। जिसको भूख ही न लगी हो, उसको भोजन करने का सवाल नहीं है । हम भोजन करते हैं, करते मालूम पड़ते हैं। कर्तापन आता है, क्योंकि भूख हमें लगती है, हमारी है। इस प्रयोग को थोड़ा करके देखें। कल से स्मरण रखें कि भूख लगे, तो वह शरीर की है। प्यास लगे, तो शरीर की है। पानी पीएं, तो शरीर में जा रहा है। प्यास बुझ रही, तो शरीर की बुझ रही है ।
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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