Book Title: Gita Darshan Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বহুনি भाग चार ओशो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्ण ने यह गीता कही—इसलिए नहीं कि कह कर सत्य को कहा जा सकता है। कृष्ण से बेहतर कौन जानेगा कि सत्य को कहा नहीं जा सकता है। फिर भी कहा; करुणा से कहा। सभी बुद्धपुरुषों ने इसलिए नहीं बोला है कि बोल कर तुम्हें समझाया जा सकता है। बल्कि इसलिए होला है कि बोलकर ही तुम्हें प्रतिबिंब दिखाया जा सकता है। गतिबिंब ही सही-चांद की थोड़ी खबर तो ले आयेगा! शायद प्रतिबिंब से प्रेम पैदा हो जाए और तुम असली की तलाश करने लगो, असली की खोज करने लगो, असली की पूछताछ शुरू कर दो। -ओशो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REBEL PUBLISHING HOUSE Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 自 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन भाग चार __अध्याय 8-9 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय आठ 'अक्षर-ब्रह्म-योग' एवं अध्याय नौ 'राजविद्या-राजगुह्य-योग' पर दिए गए चौबीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन। Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিনি अध्याय 8-9 भाग चार ओशो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलनः स्वामी दिनेश भारती, स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी डिजाइन ः मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या, स्वामी सत्यम विभव .. डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद संयोजन : स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना मुद्रण : टाटा प्रेस लिमिटेड, बंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना कापीराइटः ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन सर्वाधिकार सुरक्षितः इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। विशेष राज संस्करण ः नवंबर 1992 प्रतियां : 3000 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विश्व-चेतना की उत्क्रांति मानव-जाति के इतिहास में फ्रायड का बहुत बड़ा योगदान है। उसने अपने अध्ययन, निरीक्षण और प्रयोगों द्वारा मनुष्य के मन की, भीतर अंधकार में छिपी हुई परतों तक पहुंचने का सफल प्रयास किया। यद्यपि ध्यान देने जैसी बात तो यह है कि उसने जो परतें उघाड़ीं, उसने जो विश्लेषण किया मनुष्य के मन का, वह बहुतांश मनुष्य के रुग्ण मन को उजागर करता है। फ्रायड ने अपने जीवनकाल में यह सिद्ध किया कि मनुष्य भीतर से रुग्ण है, चाहे बाहर से कितना ही स्वस्थ नजर आता हो। तथा फ्रायड और उसके विचारों को लेकर चलने वालों ने मनष्य की रुग्णता का मनोविज्ञान प्रस्तत किया। और वहीं वे रुक गए। ___ फ्रायड के प्रयासों से यह तो स्पष्ट हुआ कि मनुष्य मन से रुग्ण है, परंतु वह स्वस्थ कैसे हो, इसका कोई सुराग फ्रायड नहीं दे पाया। यदि उपरोक्त तथ्य को समझ लें, तो श्रीमद्भगवद्गीता की महत्ता और प्रासंगिकता को समझना सरल होगा। अर्जुन मनुष्य-जाति का ही प्रतिनिधि है। उसके मन की विचलता, उसका विषाद, उसके अहंकारी और दिखाऊ वक्तव्य, सब उसकी मानसिक अ-स्वस्थता को ही प्रकट करते हैं। उलझा हुआ मन है अर्जुन का, जैसा कि हम सब का होता है। पीड़ा, संताप, शंका-कुशंका से भरे मन को बड़े-बड़े दार्शनिक विचारों द्वारा या संस्कृति और सभ्यता के नाम पर उन्हें ढंकने की आदत है अर्जुन को, जैसी हमारी भी होती है। परंतु कृष्ण की पैनी दृष्टि उसके तमाम आवरण फेंककर अर्जुन को अपनी असलियत देखने को बाध्य करती है। ___ यह तो हुआ कृष्ण की करुणा का एक अंग। परंतु यहीं वे नहीं रुकते, वे उस अ-स्वस्थ मन को स्वस्थ करने की प्रक्रिया भी अर्जुन को करुणावश समझाते हैं। कर्म-योग, भक्ति-योग, ध्यान-योग-ये सब भीतर की स्वस्थता अर्जित करने के मार्ग हैं। कृष्ण की मनोविज्ञान की दृष्टि अद्भुत एवं विशेष रूप से हितकारी है। इसीलिए ओशो ने उन्हें 'मनोविज्ञान का पिता' घोषित किया है। ___ अर्जुन और कृष्ण और हमारे बीच पांच हजार वर्ष का फासला है। आज का मन अर्जुन के मन से कहीं अधिक विकसित, कहीं अधिक जटिल है। आज की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति अर्जुन के समय से कहीं अधिक भिन्न है और उलझी हुई है। आज का जगत अर्जुन के जगत से कहीं अधिक संपन्न, विज्ञान की ऊंचाइयां छूने वाला, तर्कशील और बुद्धिमान है। अतः यद्यपि कृष्ण के समझाने से अर्जुन की शंकाओं का समाधान हो जाता है, और वह समाधान बहुत अंशों तक आज भी उपयोगी हो सकता है। परंतु वह समाधान और उनके भी आगे के समाधान कृष्ण की चेतना का कोई व्यक्ति, या कि कृष्ण की चेतना से भिन्न चेतना का व्यक्ति ही प्रस्तुत कर सकता है-और ओशो वही हैं। गीता के कष्ण और गीता-दर्शन के ओशो दोनों एक ही हैं. और भिन्न भी। मनुष्य-चेतना के विकास की श्रृंखला में ओशो की अद्वितीय देन है। आज के मनुष्य का मन–चाहे वह पूर्व का हो, चाहे पश्चिम का—उसकी गुत्थियां, उसकी पीड़ाएं, उसके प्रश्न, उसकी घुटन, इन सबका जैसा विश्लेषण ओशो ने किया है, वह अभूतपूर्व है। उन्होंने न केवल आज के रुग्ण मानस को उसकी जड़ों में जाकर पकड़ा है, वरन् उसका निवारण करने के हेतु ध्यान, संन्यास और संघ यानि कम्यून का विधायक मार्ग भी दिखाया है। उन्होंने एक-एक कदम हमारे साथ चलकर पूरी करुणा और सहानुभूति से हमारी सीमाएं, हमारी मजबूरियां जानकर हमें इतना साहस दिया है कि हम निडर होकर, होशपूर्वक चेतना की उत्क्रांति में सहभागी हो सकें। और यह कार्य उन्होंने वर्तमान विश्व-स्थिति के, वर्तमान समाज-व्यवस्था के, वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में किया है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मानवीय चेतना में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए ओशो के अमृत गीता-प्रवचन मूलभूत रूप से सहायक हैं। ओशो ने कृष्ण की गीता में निहित रुग्ण-मानस और स्वस्थ-मानस की द्वंद्वात्मक स्थिति (डायलेक्टिक्स) को समझने के लिए न केवल हमें दृष्टि दी है, वरन् Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थ-मानस के पक्ष में उस पर कैसे अग्रसर हो सकें उसकी रूप-रेखा भी दी है। कहना चाहिए, ओशो ने हमें हम स्वस्थ से स्वस्थतर कैसे होते चलें, उसके अंतर-संकेत दिए हैं इन प्रवचनों में। ___ भविष्य के निर्माता हैं ओशो। श्रीमद्भगवद्गीता पर दिए गए उनके ये अमृत-प्रवचन उसी निर्माण कार्य की एक नींव हैं। हम जहां हैं, जैसे हैं, विकास की जिस सीढ़ी पर हैं, वहां से कृष्ण को सीधे जानना-समझना बहुत कठिन है। ओशो ने कृष्ण को जाना है। गीता ओशो के जीवन से निःसृत होती है। अतः कृष्ण को और कृष्ण की गीता को देखने-समझने में ओशो अद्भुत रूप से सहायक होते हैं। आज यदि अर्जन प्रश्न-कर्ता होता. तो कष्ण शायद वही दष्टि उसे देते जो ओशो ने गीता-दर्शन में दी है। गीता-दर्शन की पंखडियां प्रस्तुत हैं। इसी प्रार्थनापूर्ण हृदय से कि ये ओशो के वचन अपनी व्यक्तिगत चेतना के विकास और विश्व-चेतना की उत्क्रांति के महायज्ञ में दीप-स्तंभ बन सकें मैं यहां ओशो के प्रति अपने अहोभावपूर्वक प्रणाम व्यक्त करता हूं। स्वामी सत्य वेदांत (डा.वसंत जोशी) एम.ए., पी एच.डी., महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा पी एच.डी.मिशिगन विश्वविद्यालय, यू.एस.ए. कुलपति, ओशो मल्टिवर्सिटी, पूना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं। जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए व्यक्ति हैं हंसते हुए, गीत गाते हुए। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, सिर्फ कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। ओशो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 8 स्वभाव अध्यात्म है ...1 प्रश्नों का कोई अंत नहीं है / प्रश्नों से भरा मन-सुनने में असमर्थ / निष्प्रश्न चित्त में उत्तर का आगमन / मन ही बाधा है / समझने की बहुत कोशिश भी तनाव है / ब्रह्म क्या है? -परम प्रश्न, अंतिम प्रश्न / अर्जुन में प्रश्नों की भीड़। बुद्धि की खुजलाहट वाले प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं / अर्जुन पूछता ही चला जा रहा है-पिछले सात अध्यायों से / कृष्ण जैसे लोग थकते नहीं / अर्जुन को जवाब नहीं-रूपांतरण चाहिए / कृष्ण और अर्जुन के बीच बड़ा अंतराल है / अर्जुन के सवाल-उत्तर से बचने की तरकीब / बुद्ध का इनकार-बहुत से प्रश्नों के लिए / बुद्ध कहतेः अनुभव में उतरना न हो, तो मत पूछो / साक्रेटीज के प्रश्नों से परेशान एथेंस / ब्रह्म-जिसका कभी नाश न हो / इंद्रियों से ब्रह्म नहीं जाना जा सकता / विज्ञान कहता है : कुछ भी विनष्ट नहीं होता / रूप में छिपा हुआ अरूप / विज्ञान को अभी अरूप का पता नहीं चला है / अरूप को खोजना-पहले स्वयं के भीतर / विचार भी रूप है / दो विचारों के बीच में अंतराल-अरूप का / भावों के आकार / दीर्घकालीन भावों की स्थायी रेखाएं चेहरे पर / मूसा के चेहरे पर क्रोध व हिंसा की शेष रेखाएं / रूप का विनाश होगा–विनाश से पीड़ा होगी / बचपन, जवानी, बुढ़ापा / पकड़ने के कारण दुख / स्वभाव अध्यात्म है । स्वयं के भीतर शाश्वत की पहचान करना / मैं कौन हूं / भाषा आरोपित है / मौन स्वभाव है / मौन की साधना / वाणीरहित मानसिक बकवास / भाषा तोड़ती हैं; मौन जोड़ता है / मौन में प्रकृति से जुड़ जाना / महावीर की अहिंसा-महा मौन से जन्मी / आंख बंद करके भीतर खोजें-शरीर के अतिरिक्त मेरी आकृति क्या है? / निराकार में स्वभाव है / हथेली से. माथे के बीच को रगड़ने से प्रसन्नता सघन होती और उदासी बिखर जाती / माथे को रगड़कर सिर छोटा-बड़ा होने का सुझाव / फिर शरीर के छोटे-बड़े होने का सुझाव / तीसरे नेत्र पर ऊर्जा—फिर विचार घटना बन जाती है / तीसरे नेत्र की ऊर्जा-परमाणु ऊर्जा की तरह शक्तिशाली / पूरब में इस ऊर्जा के रहस्य को छिपा दिया गया-खतरों से बचने के लिए / यह छोटा-बड़ा होता सूक्ष्म शरीर मैं नहीं हूं / मैं शरीर हूं यह भाव एक आत्म-सम्मोहन मात्र है / शरीर और मन के पार-अनबनाया स्वभाव / अध्यात्म है-ब्रह्म को जानने का विज्ञान / करना, होना नहीं है / भोग में स्व से चूकना पड़ता है / भोगी ने विराट का त्याग किया है / धन-पद-यश के लिए आत्मा को बेचना / कर्म हो, लेकिन आत्मा में प्रतिष्ठा बनी रहे / करते हुए अकर्ता बने रहना / सांझ गीता-प्रवचन; सुबह ध्यान का प्रयोग। 2 मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण ... 17 ब्रह्म अर्थात जो अजन्मा और शाश्वत है / जो भी परिवर्तनशील है, वह पदार्थ-अधिभूत है / इंद्रियों से केवल परिवर्तनशील का बोध संभव / मछली को सागर का पता न चलना / इंद्रियों का काम-बदलते हुए संसार के योग्य हमें बनाना / अविनाशी होने के लिए जरूरी-न-होने जैसे होना / आकार विनष्ट होगा ही / निराकार विनष्ट नहीं हो सकता / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की गैर-मौजूद-सी मौजूदगी / ब्रह्म अखंड है / पदार्थ विभाज्य है / विनाश के लिए खंड होना जरूरी / असीम का विभाजन संभव नहीं / जो भी निर्मित होगा, वह विनष्ट होगा / चैतन्य पुरुष अधिदैव कहा जाता है / पदार्थ है मूछित / परमात्मा है पूर्ण चैतन्य / मनुष्य है : अर्ध-मूछित, अर्ध जाग्रत / क्रोध, हिंसा आदि के लिए मूर्छित होना जरूरी / सभी धर्मों द्वारा मादक द्रव्यों का निषेध / मूर्छा और अमूर्छा के बीच डोलता आदमी / अर्जुन को देहधारियों में श्रेष्ठ क्यों कहते हैं कृष्ण? / परम सत्य के अनुभव, दर्शन, श्रवण, स्पर्श के निकट होने के कारण / कृष्ण के निकट अर्जुन, बुद्ध के निकट आनंद, क्राइस्ट के निकट ल्यूक-अलौकिक क्षण हैं वे / पूर्ण चैतन्य को अधियज्ञ कहा है / निर्धूम ज्योति-बिन बाती बिन तेल / ज्योतिर्मय ब्रह्म / तीन आयाम-अचेतन, अर्ध चेतन, पूर्ण चेतन / मूर्छा में सुख का धोखा / दुख को भूलना है-सुख / दुख का मिट जाना है-आनंद / मृत्यु के क्षण में असली चेहरे का प्रकट होना / जिंदगी भर की आदत-मरते समय तक पीछा / मरते हुए आदमी को राम-नाम या गीता सुनना / जीवन भर प्रभु-स्मरण-तो ही मरते क्षण में स्मरण संभव / प्रभु-स्मरण न हो, तो सदाचार से अहंकार का पुष्ट होना / भय से किया गया प्रभु-स्मरण व्यर्थ है / मृत्यु का भय—शरीर से तादात्म्य के कारण / मृत्यु-क्षण के अंतिम भाव के अनुकूल ही नया जन्म मिलना / अखंड जप का आधार–किसी भी क्षण मृत्यु आ सकती है / रात का अंतिम विचार-सुबह का पहला विचार / यंत्रवत राम-राम करना-आटोनामस, स्वायत्त / यंत्रवत और हार्दिक स्मरण का फर्क / किसी के प्रेम में गिरना / बरबस स्मरण आना / प्रभु-प्रेम में ऊपर उठना / सब तरफ से उसका ही संदेश आना / मृत्यु का पूर्वाभ्यास संभव नहीं / अभ्यास वाला स्मरण मौत में काम न आएगा / हार्दिक प्रभु-प्रेम साथ रहेगा / हमारे हृदय-छोटे, संकुचित / जितना बड़ा प्रेम-पात्र-उतना बड़ा आपका हृदय / विराट प्रेम-परमात्मा के बहुत निकट / सूर्योदय और प्रभु-स्मरण / तारों भरा आकाश/ उसे भूल ही नहीं पाते, तो नमाज पढ़ने मस्जिद क्यों जाएं : बायजीद / गीता-प्रवचन सुनना काफी नहीं-सुबह के ध्यान के प्रयोग में आएं / कीर्तन है-प्रभु के हार्दिक स्मरण में नाचना-गाना। स्मरण की कला ... 31 सतत प्रभु-स्मरण / अर्जुन, तू मेरा स्मरण कर-और युद्ध भी कर / चित्त केवल एक चीज पर एकाग्र होता है / नाम तो बहाना है-स्मरण बनाए रखने का / स्मरण के लिए कपड़े में गांठ लगाना / रूजवेल्ट का बोलते समय समय भूल जाना / जीवन की हर घटना, हर वस्तु प्रभु की याद दिलाए / काम-ही ध्यान बन जाए / कबीर का चादर बुनना और बाजार में बेचना / परमात्मा भी विराट काम में रत है | अर्जुन की चिंता-युद्ध और धर्म दो अलग चीजें हैं / घर में रहते हुए संन्यासी रहो / जीवन बेबूझ है / ध्यानपूर्वक युद्ध हो सकता है / स्मरण की कला / बुद्धि और हृदय के बीच सतत विरोध-स्मरण में बाधा / लोभ या भय से निकला प्रभु-स्मरण-बौद्धिक व्यापार है / बचपन से लोभ और भय को ईश्वर से जोड़ना / लाभ-केंद्रित जीवन शैली / स्मरण को एक साधन की तरह उपयोग करना / परमात्मा की खुशामद / तथाकथित आस्तिक-नास्तिक से भी बदतर / सारा शिक्षण बुद्धि का है / कीर्तन में बुद्धि का बाधा डालना / बुद्धि ऊपरी सतह है हमारी / हृदय है—गहन अंतस्तल / बुद्धि से विज्ञान का और हृदय से धर्म का संबंध / हृदय से पूछे : क्या करना है / बुद्धि से पूछे : कैसे करना है / बुद्धि और हृदय के मिलन पर योग फलित / बुद्धि है अहंकार / हृदय है समर्पण / अपने को बचा-बचाकर प्रेम करना / हमारी, प्रार्थना, नमाज-एक व्यायाम जैसा / अर्पण भाव के प्रयोग करनाः जमीन में लेट कर; सूरज की किरणों में / अर्पण भाव का कोई अवसर न चूकें / अर्पण भाव को फैलने दें-सीमित से विराट की ओर / अहंकार द्वारा बहाने खोजना-समर्पण से बचने के लिए / समर्पण के बहाने-व्यक्ति, मूर्ति / चूहे का शिवजी की मूर्ति पर चढ़ना; स्वामी दयानंद का देखना; आर्य-समाज का जन्म / समर्पण सीखें-पृथ्वी से, सूरज से, आकाश से / प्रेम और सौंदर्य से वंचित व्यक्ति को समर्पण कठिन / अकड़ा हुआ आदमी / प्रभु में एकीभाव / मन की चंचलता का आधार-सतत नए की खोज; पुराने से ऊबना / अपने से ही ऊबा हुआ आदमी / ध्यान अर्थात एकरसता से न ऊबने का अभ्यास / परमात्मा सर्वज्ञ है / ज्ञान की घोषणा–अज्ञान का लक्षण / यथार्थ ज्ञानी को न ज्ञान का पता होता—न अज्ञान का / पंडित-पुरोहित के पास रेडीमेड उत्तर / कृष्ण के शून्य से उत्तर का आना / परमात्मा नियंता है अर्थात परम नियम है / पानी का नीचे बहना; जमीन की कशिश / परमात्मा सूक्ष्मतम है / परमात्मा प्रकाशरूप है / अविद्या से परे है / मैं अज्ञानी हूं-यह एक धारणामात्र है / अज्ञान-आत्म सम्मोहन है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और भक्ति ... 47 मृत्यु-क्षण-नए जन्म का प्रारंभ बिंदु / मृत्यु और जन्म के बीच का संध्याकाल / भक्तिभाव का अर्थ / चेतना की दो क्षमता विचार और भाव / विचार-संसार के लिए उपयोगी-परमात्मा की दिशा में बाधक / विचार विज्ञान का जन्मदाता है / विश्लेषण, मृत को जानता है / जीवंत को जानने का मार्ग है-भाव / भाव जुड़कर जानता है / दुनिया भाव से टूटती चली गई है / भाव खो गया है / भक्ति है-भाव का प्रशिक्षण / फूल का रासायनिक विश्लेषण / फूल का सौंदर्य / विचार हिंसात्मक है / सौंदर्य के बोध में कवि का खो जाना / भाव का परमात्मा की ओर प्रवाह भक्ति है / विचार बाहर की ओर दौड़ना है / भाव है-अंतस प्रवेश / विचार से अंतर्यात्रा संभव नहीं है / प्रेम मेरे-तेरे से ग्रसित नहीं होता / भाव जगत में विचार को बाधा न डालने देना / जहां भी भाव का मौका मिले, उसे चूकना नहीं / भक्ति है-भाव का समस्त के प्रति अकारण बहना / तीसरी आंख-संसार के बाहर जाने का द्वार है / विचार कंपन है / जरा-सा कंपन-और ध्यान तीसरी आंख से हट जाएगा / प्रेम से एक निष्कंपता / मृत्यु-क्षण में भृकुटी पर ध्यान हो / लंबा अभ्यास जरूरी / काम केंद्र-आज्ञा-चक्र से ठीक विपरीत / काम केंद्र से ग्रसित मनुष्य / आज्ञा-चक्र में ऊर्जा का प्रवाह / वेद अर्थात ज्ञान / कुरान, बाइबिल भी वेद हैं / वेद के जानने वाले उसे ओंकार कहते हैं / ओंकार अक्षर है, अनाहत है / अस्तित्व ही ध्वनित होता है / ओंकार नाद वाहन है-संसार से मोक्ष में प्रवेश का / नाद पर सवारी और आज्ञा-चक्र से मोक्ष में प्रवेश / आसक्तिरहित यत्न / यत्न ही आनंद हो जाए / संन्यास, प्रार्थना, ध्यान अपने आप में आनंद है / ब्रह्मचर्य-प्रभु-स्मरण-ब्रह्म जैसी चर्या / चर्या से अनुभूति का द्वार / कीर्तन से ओंकार की वर्षा संभव। योगयुक्त मरण के सूत्र ... 59 इंद्रियां द्वार हैं-चेतना के अंतर्गमन या बहिर्गमन के लिए / एक ही सीढ़ी : दो संभावनाएं-ऊपर जाना, नीचे जाना / स्वयं को छोड़कर भागना संभव नहीं / जैसे आग से बचती फिरे बारूद / कृष्ण कुछ भी छोड़कर नहीं गए / जीवन की सघनता में रहकर रूपांतरण / वृत्ति-विसर्जन से सहज इंद्रिय संयम घटित / चेतना जहां बहती, उस तरफ द्वार खुल जाते हैं / चेतना भीतर से धक्का न दे, तो द्वार बंद रहते हैं / कसमें खाना-द्वंद्वात्मक संघर्ष / मुल्ला: मछली छोड़ी है-शोरबा नहीं / जहां ध्यान-वहीं चेतना प्रवाहित / बाहर जाती ऊर्जा विषाद लाती है, और भीतर जाती ऊर्जा-तृप्ति और आनंद / संयम अर्थात ऊर्जा का अंतर्वर्तुल / ऊर्जा का स्वयं में ही रमण करना / अनुभवों के भिन्न-भिन्न केंद्र / एक केंद्र का काम दूसरे केंद्र से लेना-विकृत है / काम-वासना का चिंतन / प्रत्येक केंद्र अपना-अपना काम करे-तो संतुलन, संयम फलित / मस्तिष्क अनुभव नहीं कर सकता / अनुभव होते हैं हृदय से / पहले भाव-फिर शब्द / प्रेम, प्रार्थना, सौंदर्य के क्षणों में बुद्धि को हटाएं, भाव को मौका दें / प्रेम की मौन अभिव्यक्ति / सौंदर्य बोध शुभ है / घूरना हिंसात्मक है / भाव शुद्ध हो, तो वासना तिरोहित / भावरहित आदमी यंत्रवत हो जाता है | केवल बुद्धि वाला आदमी-कम्प्यूटर जैसा / भावकेंद्र का पुनर्जागरण आज अत्यंत जरूरी / मृत्यु-क्षण में प्राण मस्तक में केंद्रित हो, तो परमगति उपलब्ध / प्राणों का निकलना–अलग-अलग केंद्र से / सहस्रार से प्राण निकलने पर कभी-कभी कपाल का फूट जाना / कपाल क्रिया-सूचक मात्र / प्राण निकलने वाले केंद्र के अनुकूल नया जन्म / अधिकतम लोगों के प्राण जननेंद्रिय से निकलना / जो ठीक से जिया-वही ठीक से मर पाएगा / ध्यान में सफलता का सूचक-भ्रूमध्य पर प्राणों का प्रवाह / मरते समय प्रभु-स्मरण और ओम का उच्चार / नाद का उच्चार आहत नाद है / आहत नाद कंठ से / अनाहत नाद हृदय से / समस्त घर्षणों से शून्य, मौन में ओंकार नाद का गूंजना / ओम निकटतम ध्वनि है / आमेन-ओम का ही दूसरा रूप / यहूदी, ईसाई, मुसलमान-उसे आमेन कहते हैं / भारत के धर्म उसे ओम कहते हैं / न मरने के लिए छीना-झपटी करना / समग्रता से जीवन को भोगने वाला ही मृत्यु का स्वागत कर पाता है / परम गति-विरोधाभाषी शब्द हैं / कोई भी गति परम नहीं / सत्य की सभी अभिव्यक्तियां विरोधाभासी / वह पास से भी पास Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-और दूर से भी दूर है / परम गति—पूर्ण जीवंत ठहराव है / परम गति-अशरीरी अवस्था है / परमात्मा दुर्लभ है, क्योंकि हम बहुत उलझे हैं | ध्यान, समाधि है-स्वयं पर लौट आना। वासना, समय और दुख ...75 ___ पश्चिम सोचता है : दुख का कारण परिस्थिति में है / विज्ञान और भौतिक समृद्धि का विकास / बाह्य सफलता का शिखर-और पश्चिम का विषाद / पूरब की अंतर्दृष्टि है : चेतना के रूपांतरण से दुख-मुक्ति / दुख का सूत्रः वासना / वासना के लिए पुनः-पुनः जन्म चाहिए / मोक्ष में समय नहीं है / समय नहीं अर्थात वासना नहीं / वर्तमान क्षण-शाश्वत और अनंत / वासना की दौड़ के लिए समय चाहिए-स्थान नहीं / समाधि कालातीत है / वासना दुष्पूर है / अधूरेपन की कोई सीमा नहीं है / जड़ पुनरावृत्ति / क्षणभंगुर को पकड़ने का परिणाम-विषाद, दुख / प्रेम को स्थिर बनाने की कोशिश / शाश्वत को जान लेने पर क्षणभंगुर की कामना समाप्त / जीवन में चार हजार संभोग-पुनरावृत्ति मात्र / बुढ़ापे में भी काम-वासना सताती है / पिछले जन्मों की स्मृति का परिणाम / कुछ भी नया नहीं है | परमात्मा नित-नूतन है | काल-रहस्य / समय की सापेक्षता / मृत्यु-बोध-समय-बोध / समय का अतिक्रमण / ध्यान है विधि। 7 सृष्टि और प्रलय का वर्तुल ... 91 समय के भीतर घटित सृष्टि और प्रलय-स्वप्नवत है / दर्पण या झील में प्रतिफलन का होना / समय के तत्व को जानने वाले के लिए संसार स्वप्नवत है / समय ही संसार है / समय के पार जाना / अधिक वासना—तो समय की जकड़ अधिक / समय या वासना के पार जाने का सूत्रः क्षण में जीना / वासना के फैलाव के लिए भविष्य और अतीत जरूरी / परमाणु या इलेक्ट्रान्स में टूटकर पदार्थ पदार्थ नहीं रह जाता / क्षण में, समय समय नहीं रह जाता / क्षण में ठहरने पर समय खो जाता है / सृष्टि है-ब्रह्म का एक दिन / प्रलय है-ब्रह्म की एक रात / अव्यक्त शून्य से सृष्टि का जन्म / पदार्थ का परमाणु में विघटित होने पर, अव्यक्त में लीन हो जाना / विज्ञान का समर्थन-धर्म को / नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री / आधुनिक विज्ञान का अनिश्चयवाद / ब्रह्म-मुहूर्त में अव्यक्त से व्यक्त का जन्म / निद्रा है-आंशिक मृत्यु / अव्यक्त में गिर जाना / पश्चिम की समय की धारणा–सीधी रेखा में / पूरब ने पुराण लिखा-इतिहास नहीं / पुराण लेखा-जोखा है अंतरतम का / तिथियों को बहुत मूल्य नहीं / ब्रह्म के हर दिन में राम जैसे व्यक्ति का होना / ब्रह्म के एक दिन में चौबीस तीर्थंकरों का होना / पुराणों में सनातन सत्य वर्णित / सृजन और विनाश-एक ही प्रक्रिया / ब्रह्मांड फैल रहा है / ब्रह्म अर्थात फैलने वाला / प्रलय अर्थात फैलते-फैलते टूटकर बिखर जाना / प्रलय अर्थात व्यक्त की पुनः वापसी अव्यक्त में / अर्जुन! तू अपने को युद्ध का कर्ता मत मान / जो जन्मा-उसकी मृत्यु सुनिश्चित / अव्यक्त से भी परे क्या है / ब्रह्म है-सनातन अव्यक्त / मनुष्य की भी तीन परतें–व्यक्त शरीर, अव्यक्त मन, अव्यक्तातीत आत्मा / मृत्यु-क्षण में पूरा मन बीजरूप होकर नए गर्भ की खोज में निकल जाता है / मां-बाप के व्यक्त जीवाणु और अव्यक्त मनस-बीज का संयोग / जो शरीर के पिंड में है, वही विराट रूप से ब्रह्मांड में है / बौद्धिक ज्ञान नहीं—अंतोज में निकलना / हमें शरीर के रहस्यों का भी पूरा पता नहीं है / शरीर की छिपी हुई शक्तियों को जगाकर मन की खोज में लगाना / स्मृतियों का अपार संग्रह / सिद्धियां मन की ही शक्तियां हैं और संसार का ही हिस्सा हैं / परम यात्रा में सिद्धियों की बाधा / शक्तियों के दो उपयोग-क्षुद्र वासनाओं के लिए या ऊर्ध्वगमन के लिए / बोध घटनाः एक गरीब दर्जी को दस लाख की लाटरी मिलना / रुपयों से जीवन को नष्ट करना / ध्यान से मन की अव्यक्त शक्तियों का प्रकट होना / शक्तियों के दुरुपयोग से बचना / बोध घटना: एक महिला का हीलिंग की शक्ति मिलने पर ध्यान बंद कर देना / मन की शक्तियों को आगे की यात्रा के Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए ईंधन बना लेना / शरीर के तल पर अनेकता रहेगी/आंशिक एकता-प्रेम में / शरीर और मन के पार-शाश्वत एकता-सदा से है। अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा ... 107 गति संसार का स्वभाव है / कुछ भी थिर नहीं है / दीवाल के परमाणु बड़ी तीव्र गति से घूम रहे हैं / गति अनेक आयामी है / गति और श्रम में विश्राम कहां / विश्राम के लिए चेतना का तल बदलना जरूरी / अक्षर-जो न बदलता, न क्षीण होता / घूमते चाक की स्थिर कील / परिधि से केंद्र की तरफ गति / संसार की कोई भी यात्रा तीर्थयात्रा नहीं है / प्रत्येक व्यक्ति के केंद्र पर अक्षर / तादात्म्य की अनेक पर्ते / मन से हमारा तादात्म्य गहरा / शरीर का चाक, विचार का चाक, वासना का चाक / केंद्र पर पहुंच जाना परम गति है / सनातन अव्यक्त की उपलब्धि के बाद कोई वापसी नहीं / सौ डिग्री तापक्रम पर पानी में क्रांति घटित / चेतना का सौ डिग्री का बिंदु / कवियों व कलाकारों की छोटी-छोटी छलांगे / कवि और ऋषि का फर्क / ऋषि प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न पर पहुंच गया है / कवि वापस गिर जाता है / रहस्यवादियों के वक्तव्य बेबूझ / सनातन अव्यक्त का वर्णन करना / संत की चुप्पी भी एक वक्तव्य है / स्वयं को उघाड़ना-परमात्मा का प्रकट होना / अक्षर ब्रह्म तो सदा से भीतर विराजमान है / मुल्ला नसरुद्दीन का गधे पर बैठकर गधे को खोजने निकलना / हम स्वयं को खोज रहे हैं / जिसकी खोज है, वह भीतर है / भक्त के निरावरण होते ही भगवान उपलब्ध हो जाता है | भगवान भक्त को खोज लेता है / परमधाम अर्थात जिसके आगे कुछ नहीं / जापानी कथा : एक पहाड़ी तीर्थस्थल के नीचे ही ठहर गया फकीर / परमधाम पहुंचकर पता चलना कि वहां हम सदा से थे ही / संबोधि के बाद बुद्ध का वक्तव्यः कुछ पाया नहीं, जो सदा से मिला था, उसे पहचाना / परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं / पश्चिम में चेतना के विस्तार पर रासायनिक प्रयोग / प्राचीन आकांक्षा-चेतना इतनी -विस्तीर्ण हो कि सब उसमें समा जाए । जीसस-निकोडेमस-संवाद / पहले खोजो प्रभु का राज्य, शेष सब पीछे चला आएगा / पदार्थों को पाकर भी कुछ न मिलेगा./ मालिक के पीछे-पीछे सब चला आता है / परमात्मा को पाया कि सब पाया / कृष्ण कहते हैं : परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है / हमें तो परमात्मा बिलकुल ही नहीं दिखाई पड़ता / गेस्टाल्ट मनोविज्ञान / एक ही रेखा-संयोग में दो चित्र बनाना / एक बार में केवल एक का दिखना / जगत एक गेस्टाल्ट है-पदार्थ और परमात्मा . का / वानगॉग के चित्र / वृक्ष हैं पृथ्वी की आकांक्षाएं-आकाश को छूने की / हमारा गेस्टाल्ट संसार पर लगा है / परमात्मा पर गेस्टाल्ट को बदलना-योग है, साधना है, धर्म है / अनन्य भक्ति से सनातन अव्यक्त परमात्मा उपलब्ध / बंटी हुई निष्ठा संसार के गेस्टाल्ट में ले जाती है / आदमी भीतर एक भीड़ है / जितनी इच्छाएं-उतने खंड / प्राणों का एकजुट हो जाना / भक्ति का अर्थ है-प्रेम / चित्त खंड-खंड हो, तो प्रेम नहीं हो सकता / भीतर के खालीपन को बाहर की चीजों से भरने की कोशिश / परमात्मा एकमात्र भराव है / पश्चिम में रिक्तता का प्रगाढ़ बोध / परमात्मा के इनकार से जीवन में खालीपन / परमात्मा को जाना कि भर गए। जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ ... 123 जीने की कला और मरने की कला / नाम मात्र का जीवन / मरते समय वासनाओं से भरा चित्त / निर्विचार शुद्ध समय / सामायिक अर्थात ध्यान / अतीत की जुगाली-भविष्य के सपने / वर्तमान को चूकते जाना / वर्तमान अर्थात जो है / जीवन सत्य-अभी और यहीं / अतीत और भविष्य के बीच डोलता हुआ मन / वर्तमान मन का हिस्सा नहीं है / वर्तमान क्षण कालातीत है / समय ही मन है / अस्तित्व अर्थात जो है-सनातन वर्तमान / मनुष्य अर्थात जिसके पास मन है / सिर्फ होना मात्र विचारशून्य, तृष्णाशून्य, कालशून्य / मृत्यु-क्षण में अ-मनी दशा-तो फिर वापस जन्म नहीं / गलत मृत्यु-गलत जीवन का प्रारंभ / संसार में समय जरूरी / संन्यास है-समय के बाहर छलांग / संन्यास का सोच-विचार से कोई संबंध नहीं / लिंची Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बोधकथा-संन्यास के लिए सोचा, कि चूका / वर्तमान के क्षण में समस्त रहस्यों का उदघाटन / वर्तमान में होना-धर्म का सार-सांख्य है-तत्काल संबोधि का.मार्ग / कृष्णमूर्ति के श्रोताओं की कठिनाई / सांख्य परम योग है । कुछ भी पाने की आकांक्षा बाधा है / सांख्य का पूर्व-आधार-जन्मों-जन्मों की साधना / मोक्ष की वासना भी पुनर्जन्म का कारण / न तो दुख चाहिए-न सुख / दो मार्ग-उत्तरायण और दक्षिणायण / अंतर्जगत की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों का उपयोग जरूरी / ध्यान में संभोग जैसा अनुभव / जीवन ऊर्जा का प्रतीकः सूर्य / जीव-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ / जीव-ऊर्जा का अधोगमन-दक्षिणायन पथ / ऊर्ध्वरेतस के पैर ठंडे और सिर गरम / बीमार व्यक्ति के भी पैर ठंडे / शीर्षासन का थोड़ा-सा उपयोग / उम्र का आधा-आधा हिस्सा–दक्षिणायण और उत्तरायण / उत्तरायण-वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम / जीवन ऊर्जा के चार चरण-अग्नि, ज्योति, दिन का प्रकाश, चंद्रमा का प्रकाश / प्रथम चरण में सेक्स सेंटर पर अग्नि का इकट्ठा होना / धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा / तीसरे चरण में ऊब का खतरा / चौथी अवस्था में धीरे-धीरे चांद-सा प्रकाश बढ़ना / पूर्णिमा की अंतर्भावस्था में मृत्यु-तो बुद्धत्व की पूर्णता / काम केंद्र के ऊपर के छह चक्र—उत्तरायण के छह माह / बुद्ध और महावीर का संबोधि के बाद चालीस साल जीवित रहना / निर्वाण-और फिर महापरिनिर्वाण / निर्वाण के बाद भीतर कोई समय नहीं होता / पूर्व अर्जित त्वरा से शरीर का चलना / पैंतीस वर्ष की उम्र के बाद संबोधि-तो लंबी उम्र आसान / शंकराचार्य और जीसस की अल्पायु में मृत्यु / रामकृष्ण का जीने के लिए बड़ा प्रयास करना / भोजन में रुचि न रहे तो तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु / फिर वापसी नहीं। 10 दक्षिणायण के जटिल भटकाव ... 137 दक्षिणायण पथ का साधक-ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग तक / फल समाप्ति पर पृथ्वी पर वापसी / काम-ऊर्जा का दमित अंतर्गमन / काम केंद्र के नीचे भी छह चक्र / मैली-विद्या-ब्लैक मैजिक / सुख की आकांक्षा ले जाएगी स्वर्ग तक–मोक्ष तक नहीं / सुख भी एक तनाव है, उत्तेजना है / सुख भी उबाता है | दुखी समाज में ऊब कम / संपन्नता में भविष्य में सुख की आशा भी समाप्त / सुख-दुख दोनों से मुक्ति की आकांक्षा-उत्तरायण पथ / सभी अनुभव बंधन हैं / रवींद्रनाथ की बोधकथा-परमात्मा के द्वार से लौट भागना / लोग सुख चाहते हैं—मुक्ति नहीं / शत्रुओं को भी खोकर खालीपन का अनुभव / जस्ट फ्रीडम-नॉट फ्रीडम फ्रॉम समथिंग/ किसी से मुक्ति नहीं मात्र मुक्ति / किसी से स्वतंत्रता-अर्थात अतीत से छुटकारा / किसी के लिए स्वतंत्रता अर्थात भविष्य की वासना / बस स्वतंत्रता-मन के पार / बुद्ध द्वारा ईश्वर-चर्चा पर चुप्पी-भारत न समझ सका / सुख-दुख ः एक सिक्के के दो पहलू / पूरा सिक्का ही फेंकना पड़ेगा / पूरा सिक्का गिरते ही ऊर्ध्वगमन शुरू / ऊर्जा के लिए तीन मार्ग हैं : बहिर्गमन, ऊर्ध्वगमन और दमित निम्न गमन / दक्षिणायण पथ पर पहला प्रतीक-धुआं / धुआं-गीलेपन के कारण / वासना गीलापन है / वासना है अंधापन और निर्वासना है स्पष्टता / धुएं की सघनता रात्रि बन जाती है / हठयोगियों की बुद्धि-क्षीणता का कारण / दस वर्षों से खड़ा हुआ व्यक्ति / प्रकृति से नीचे गिर जाने पर एक जड़ शांति / शरीर की जड़-थिरता से मन का भी थिर हो जाना / पथरीली आंखें / कांटों पर लेटना : संवेदन क्षीणता का अभ्यास / निर्विचार और अविचारः ब्रह्मचर्य और नपुंसकता / निर्विचार व्यक्ति की आंखें-बिलकुल स्वच्छ / संकल्प से काम ऊर्जा का प्रवाह बंद करना संभव / रात्रि का सघन होना / पर का दिखाई न पड़ना / उत्तरायण पथ पर क्रमशः अहंकार का विसर्जन / दक्षिणायण पथ पर अंधकार बढ़ते जाने से पर का बोध क्रमशः क्षीण होते जाना / संसार न दिखाई पड़ने से मुक्त होने का भ्रम होना / पूर्णिमा की स्थिति में अहंकार शून्य और परमात्मा पूर्ण / अमावस की स्थिति में पर शून्य और अहंकार ठोस / अमावस वाला व्यक्ति भी कह सकता है: अनलहक-अहं ब्रह्मास्मि / मंसूर को सूली—इस भूल के कारण कि उसकी घोषणा अमावस-अवस्था की है / मंसूर और जीसस की घोषणाएं-पूर्णिमा की घोषणाएं हैं / बाहर से तय करना मुश्किल / अहंकारियों की नासमझी / अहंकार की भाषा-विनम्रता / अमावस की स्थिति में व्यक्ति मोनोड जैसा हो जाता है-बिलकुल बंद / संकल्प है: मैं को साधना / समर्पण है : मैं को विसर्जित करना / हठयोग और राजयोग / पर्ण अंधकार की पष्ठभमि में संभावित चांद की छाया बनना / गहरे कएं के भीतर से दिन में तारे दिखाई पड़ना / संचित पुण्य चुक जाने पर स्वर्ग से वापसी / पाप होते हैं-संकल्प की कमी के कारण / पुण्य होते हैं संकल्प की सामर्थ्य से / मोक्ष घटित-संकल्प के विसर्जन से / हमारा किया हुआ चुक ही जाएगा / कर्म से क्षणिक ही प्राप्त / सुख में समय छोटा और दुख में समय लंबा / बड रसेल की आपत्ति-ईसाइयत के शाश्वत नर्क की धारणा पर / नर्क में दुख इतना प्रगाढ़-कि समय शाश्वत-सा लगता है / समर्पण कर्म नहीं है / समर्पण समस्त कर्मों का विसर्जन है / समर्पण में उपलब्ध होता है-प्रभु-प्रसाद-शाश्वत। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार ... 153 दक्षिणायण अर्थात अचेतन और समूह अचेतन / उत्तरायण अर्थात अति-चेतन और ब्रह्म-चेतन / पश्चिम का नैतिक ह्रास और आध्यात्मिक पतन-केवल दक्षिणायण को जानने के कारण / भौतिक समृद्धि-आध्यात्मिक खोज का प्रारंभ बिंदु / पतन को स्वाभाविक मान लेने का.खतरा / मनोविश्लेषण की भ्रामक दिशा-विकार जारी हैं; अब अपराधभाव नहीं होता / फ्रायड की अधूरी खोजों के घातक परिणाम / अधोगमन और ऊर्ध्वगमन दोनों को जान लेने वाला फिर मोहित नहीं होता / आकर्षण सदा ही विपरीत का / विपरीत से आकर्षण भी-संघर्ष भी / दो समानधर्मा व्यक्तियों के बीच विकर्षण / तत्व से जानना अर्थात स्वानुभव / विपरीत के बीच डोलने वाला शांत नहीं हो सकता / दूर जाना—पास आना : द्वंद्वात्मक प्रेम-संबंध / अति भोजन-उपवास / मुक्ति का सूत्र-मध्य में होना / परमात्मा संसार का विपरीत ध्रुव नहीं है / कृष्ण सर्वाधिक मध्य में जीने वाले / अचुनाव में जीने वाले-बेबूझ कृष्ण / कृष्ण महायोगी हैं / योगयुक्त व्यक्ति जो सम है / परमात्मा को चुनना-संसार के खिलाफ / तत्व से जानने वाले के लिए-शास्त्रज्ञान, तप, यज्ञ, दान आदि व्यर्थ हो जाते हैं / पंडित का मिथ्या ज्ञान / कबीर और नानक का स्वानुभव / अनुभूति के बाद ही शास्त्रों में अर्थवत्ता /धर्मों के क्रिया-कांड / खंडन, मंडन-दोनों करुणावश करना / तप के नाम पर प्रचलित-आत्म-पीड़न और पर-पीड़न /सम्यक तप-सत्य की खोज में कष्टों का स्वीकार / दान का गहरा अर्थ-अपरिग्रह / अपना-पराया-भाव न हो, तो दान की महत्ता क्षीण हो जाती है / कबीर का हर किसी को भोजन के लिए निमंत्रण देना / बेटे कमाल को चोरी में सहायता करना / तत्वविद का अभेद-बोध / कृष्ण का संदेश-नीति-अतीत है । परम नीति है-समस्त नीति के पार हो जाना। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 9 श्रद्धा का अंकुरण... 165 जैसी दृष्टि-वैसी सृष्टि / जानने में व्यक्तित्व का सम्मिश्रण / व्याख्यारहित देखना असंभव है / आस्तिक-दृष्टि-नास्तिक-दृष्टि / चुनाव के अनुकूल दिखाई पड़ना / गेस्टाल्ट का नियम / नास्तिक की दृष्टि में श्रेष्ठ का, सौंदर्य का, काव्य का खो जाना / पहले सात अध्यायों में कृष्ण अर्जुन के संदेह काटते रहे / अब श्रद्धा का जन्म हो रहा है / संदेह भरे चित्त को क्षुद्र बातें ही कही जा सकती हैं / गहन आत्मीयता में ही रहस्य कहे जा सकते हैं / रहस्य हृदय से समझे जा सकते हैं / बुद्धि तोड़ती है, दूर करती है / बुद्धि के प्रश्न-हृदय के प्रश्न / श्रद्धा से भरे व्यक्ति का देह-रसायन भी बदल जाता है | भक्त के प्रश्न अनुभूति की पिपासा से उठे / समग्रता में है सौंदर्य / इंद्रियों की बोध-क्षमता सीमित / परमाणु विज्ञान का अदृश्य जगत में प्रवेश / बुद्धि की समग्र विफलता पर भक्ति का जन्म / भक्ति-बुद्धिहीनता नहीं-बुद्धि का अतिक्रमण है / भक्ति बुद्धि से पलायन नहीं है । बुद्धि से पूरा गुजरकर ही पता चलना कि बुद्धि बेकार है / भक्ति परम ऊर्जा का जागरण है / तथाकथित कमजोर भक्त / संदेह का भय / बुद्धि का थककर गिर जाना / श्रद्धा का अंकुरण / जिज्ञासा और अभीप्सा का फर्क / भक्ति के अभाव में ज्ञान खतरनाक / गलत हाथों में ज्ञान / विज्ञान से विध्वंस की संभावनाएं / ज्ञान शक्ति है / भक्त अर्थात जो अब गलत नहीं कर सकता / वैज्ञानिकों की चिंता-ज्ञान को गोपनीय करना पड़े / मनुष्य के अंतश्चेतन में विराट शक्ति के स्रोत / गुह्य-ज्ञान / न लिखे जाने का आग्रह / मुखाग्र गुरु-शिष्य परंपरा / मजबूरी में लिखना पड़ा / सूत्रों में छिपे रहस्य / सूत्रों को केवल अनुभवी ही समझा सकें / अनुभव का सूत्रबद्ध हस्तांतरण / दुख का कारण अज्ञान है-पाप नहीं / दुनिया के दो मौलिक धर्म-हिंदु और यहूदी / जानकर कुछ गलत करना संभव नहीं / पुण्य और सेवा से पापों को काटना / ईसाइयत की धारणा / पूरब का जोर-ध्यान से ज्ञान जन्मेगा / अज्ञानी की सेवा भी अज्ञान भरी होगी / अज्ञानी का अंधापन / पकड़ता है फूल-निकलते हैं कांटे / सुनना और पढ़ना जानना नहीं है / स्मृति से ज्ञान का धोखा / ज्ञान से पीड़ित भारतीय / देश में घूम-घूमकर ब्रह्म-ज्ञान बांटना / राजविद्या है-स्वयं को जानना / पात्रता हो तो भक्ति सुगम है-अन्यथा दुर्गम है / शुद्ध हृदय आज दुर्लभ है / पानी को सौ डिग्री तक गरम करने का श्रम / भक्त सौ डिग्री पर होता है / भक्ति के लिए शार्टकट नहीं है / गरम पानी ठंडा हो सकता है / श्रद्धायुक्त हृदय है द्वार / श्रद्धा-एक गहरा अपनापन, एक गहन आत्मीयता / जगत की सबसे बड़ी घटना है श्रद्धा / श्रद्धा का फल खिलना। 2 अतयं रहस्य में प्रवेश ... 181 श्रद्धा से ही अतयं प्रवेश संभव / आकर्षण के चार तल-चुंबकीय, कामवासना, प्रेम और श्रद्धा / पाजिटिव और निगेटिव-पुरुष और स्त्री / विद्युत, देह, मन और आत्मा / श्रद्धा श्रेष्ठतम आकर्षण है / ऊर्जा अदृश्य है-केवल परिणाम दृश्य हैं / धन, पद, प्रतिष्ठा का आकर्षण–यौन आकर्षण से भी नीचे / केवल शरीर के आकर्षण पर बने विवाह टेंगे ही / दो मन के बीच आकर्षण-प्रेम-कम होता गया है / प्रेम मैत्री है / गुरु और शिष्य के बीच-आत्मिक आकर्षण / भक्त की स्त्रैणता / अर्जुन के हृदय के द्वार खुले हैं / शिष्य ग्राहक गर्भ बन जाता है / प्रेम के फूल खिलना / प्रेम रूपांतरणकारी है / श्रद्धा आत्यंतिक क्रांति है / अनहोना भी हो रहा है / अब कृष्ण उलटबांसी में बोलते हैं / मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत परिपूर्ण है / रूप में अरूप-आकार में निराकार / जीवन में विपरीत मिले हुए हैं / सगुण-निर्गुण विवाद की नासमझी / मूर्तियां बनाने वाले–मूर्तियां तोड़ने वाले / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रिय-निर्मित सीमाएं / विराट-क्षुद्र में होते हुए भी क्षुद्र के परे है / कृष्ण कह रहे हैं : मैं अतळ हूं / बुद्धि कभी न पकड़ पाएगी सत्य को / कृष्ण और अर्जुन की चर्चा ठीक तर्कयुक्त चले तो कृष्ण की हार सुनिश्चित है / विरोध न दिखाई पड़ना-श्रद्धा में या बुद्धिहीनता में / श्रद्धा की गहराई बुद्धि से युक्ति है / विज्ञान की बेचैनी : इलेक्ट्रांस-कण भी, तरंग भी / इलेक्ट्रांस तर्क नहीं मानते / विपरीत एक साथ मौजूद हैं जीवन में / जीवन की इच्छा—मरने की इच्छा—साथ-साथ / हिंदू-चिंतन में परमात्मा के विपरीत कोई शैतान नहीं है / पापी में होते हुए भी परमात्मा पाप के पार है / भीड़ में रहकर भी भीड़ के बाहर होना / कृष्ण कहते हैं: मैं ही लड़ता हूं, मैं ही लड़ाता हूं / मोहम्मद के हाथ में तलवार–पूर्ण अहिंसक / कर्ताशून्य कृत्य / सब करते हुए भी अछूते बने रहना। जगत एक परिवार है ... 197 जीवन सुनियोजित लयबद्धता है, या एक अराजक दुर्घटना? / दुर्घटना मानने पर जीवन से दिशा और अर्थ खो जाएगा/मनुष्य चेतना को अराजकता पसंद नहीं / जगत अराजक है, तो कुछ भी सही-गलत न होगा / प्राणों की गहराई में व्यवस्था की मांग / ईश्वर की धारणा का आधार-जीवन एक अर्थगर्भित सुव्यवस्था है / विचार व्यवस्था की मांग / अंतरऐक्य और अंतर्व्यवस्था / जगत की अंतर्व्यवस्था अदृश्य है / जगत एक परिवार है / विश्व के इंच-इंच में व्यवस्था की छाप है / बीज में छिपा है पूरा वृक्ष / गर्भाधान के अणु में पूरा व्यक्ति छिपा हुआ है / बीज को तोड़ने पर वृक्ष नहीं मिलेगा / वृक्ष के प्रगटीकरण की पूरी प्रक्रिया जरूरी / प्राणों में विकास की गहन प्यास / सदा आगे की ओर विकास / जगत एक सचेतन विकास है / गतिमान, विकासमान चेतना में होता है आनंद / अवरुद्ध चेतना में है दुख, पीड़ा / ईश्वर विकास का अंतिम बिंदु है / अस्तित्व के पांच तल–अस्तित्व, जीवन, मन, ध्यान और परमात्मा / अंत में वही प्रकट होता है, जो प्रथम में छिपा है / कल्प के अंत में सब परमात्मा में लीन / जगत एक वर्तुलाकार यात्रा है। समस्त गतियां-वर्तुलाकार / बूढ़ा पुनः बालवत हो जाता है / नए कल्प की शुरुआत--पिछले कल्प के कर्मानुसार / विराट सृजन और विनाश के बावजूद भी परमात्मा को कोई बंधन नहीं / खेल में अनासक्त रहना सरल / खेल को भी काम बना लेना / बच्चे अनासक्त होते हैं खेल में / बद्ध का . संस्मरण : बच्चों को रेत का घर बनाते देखना / जगत परमात्मा की लीला है / ईसाइयत की धारणा में ईश्वर ने छह दिन में जगत को बनाया, फिर थककर सातवें दिन विश्राम किया / हिंदू-धारणा में ईश्वर बहुत गैर-गंभीर है / सृष्टि परमात्मा के आनंद की अभिव्यक्ति है | जीवन को लीला बना लेने वाला व्यक्ति मुक्त हो जाता है / सभी काम कुरूप हो जाते हैं / मां और नर्स का फर्क / हमारे गंभीर महात्मा / हिंदू धर्म के प्राण निकल गए / कर्म अनासक्त हो, तो बंधन नहीं होता। विराट की अभीप्सा ... 211 परमात्मा कैसे सृजन करता है? / कैटेलिटिक एजेंट का नियम / केवल उपस्थिति जरूरी / गुरु अर्थात जिसकी मौजूदगी में आदर उत्पन्न हो/सर्योदय के साथ कलियों का खिलना, पक्षियों का चहचहाना / बिजली की उपस्थिति में ही हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिलकर पानी बनना / सृष्टि में नहीं सृजन की प्रक्रिया में परमात्मा की झलक मिलेगी / रवींद्रनाथ पर कविता का अवतरण / गुरदयाल मलिक का छिपकर देखना / कवि और ऋषि का फर्क / गर्भवती स्त्री का सौंदर्य / स्त्रियों ने बाह्य जगत में बहुत सृजन नहीं किया / सृजनात्मक होना–परमात्मा के खोजी का जरूरी गुण / अहिंसा का अर्थ है सृजन / असृजनात्मक अहिंसा नपुंसक है / परमात्मा स्रष्टा नहीं-सृजनात्मकता का प्रवाह है / मृत वस्तुओं से घिरा आधुनिक मनुष्य / आधुनिक कला / मूढ़ लोग मुझ देहधारी परमात्मा को तुच्छ समझते हैं / मूढ़ अर्थात वह अज्ञानी जिसे ज्ञानी होने का भ्रम है / बच्चे मूर्ख हो सकते हैं-मूढ़ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं / अज्ञान + अहंकार = मूढ़ता / संस्मरण : एक महिला जिनका दूसरों को बदलने में रस है / दूसरों की कुंडलिनी जगाना / मूढ़ता का कोई अंत नहीं है / परमात्मा का इनकार-चाहे प्रकट हो, चाहे अप्रकट / अपने से श्रेष्ठ को देखना करीब-करीब असंभव / ऊंचाई से नीचे देखना आसान है / कृष्ण की भगवत्ता को देखने के लिए आंख चाहिए / स्वयं से पार जो है, उसे अस्वीकार करने की जिद्द / कृष्ण की देहगत सीमाओं को देखना / विधायक खोज में ऊर्जा को लगाना / विराट के स्वीकार से विकास की संभावनाओं का खुलना / मूढ़ता-अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना / कृष्ण को हो सकता है, तो मुझे भी हो सकता-यह भरोसा / मूढ़ता का केंद्र है-अहंकार / निंदा का मनोविज्ञान / विकास की चुनौती से बचने की तरकीबें / मुर्दा व्यक्तियों को भगवान मानने की आसानी / चमत्कारों की अपेक्षा / मदारीगिरी की पूजा / आदमी की गरिमा-पशु से भी नीचे गिर सकता; देवताओं से भी ऊपर उठ सकता / ऊपर न जाने वाला-नीचे गिरेगा / श्रेष्ठ की अभीप्सा। देवी या आसुरी धारा ... 227 मूढ़ता के तीन लक्षणः वृथा आशा, वृथा कर्म, वृथा ज्ञान / भविष्य का सपना / समय का धोखा / दुष्पूर चाह / दूसरे से कभी सुख नहीं मिला है। सुख है भीतर स्वयं में / दूसरे से दुख भी नहीं मिल सकता / रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश / जीवन के नियमों को न समझने से दुख / नियम के अनुकूल होने से सुख / आंतरिक दरिद्रता का बोध / आत्मिक भूख / गलत दिशाएं–धन, यश / हमारा पूरा जीवन-वृथा कर्मों का जोड़ है / क्रोध है-दूसरे की गलती के लिए स्वयं को सजा देना / अहंकार को सिद्ध करने की कोशिशें / पुण्य है-वर्तमान क्षण का आनंद / वृथा ज्ञान-उधार ज्ञान / सार्थक ज्ञान—जो रूपांतरण लाए / बंबई के गीतापाठी और सत्संगी / ज्ञान का लेन-देन-धंधा / दैवी प्रकृति के साथ बहने वाले अमूढ़ हैं / शुभ काम को टालने और अशुभ को शीघ्र करने वाले मूढजन / दैवी-धारा / हर घटना या परिस्थिति को देखने के दो ढंग/ कर्म नहीं-अंतस के भाव का मूल्य है / बोधकथा : वेश्या गई स्वर्ग, साधु गए नर्क / भगवान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है-भक्ति की क्षमता का होना / योगशास्त्र कहते हैं-भगवान भी एक उपाय है / बड़े सबल व्यक्ति थे-बुद्ध और महावीर / बिना भगवान के भक्त होना-कठिन है-असंभव नहीं / कोई प्रेम-पात्र न हो तो भी प्रेम बिखरता रहे / परमात्मा की धारणा का सहयोग / उपासना अर्थात प्रभु की निकटता में होना / यांत्रिक क्रियाकांड नहीं—जीवंत अंतस भाव / किराए के पंडे-पुजारी / सारा जगत उसका मंदिर है / उपासना का भाव चौबीस घंटों में फैल जाए / स्तुति खुशामद नहीं है / अनुकंपा का सतत बोध / मंसूर का विपरीत परिस्थिति में भी अहोभाव / हमारी कमजोर आस्था / प्रभु-स्मरण का कोई अवसर न चूकें। O ज्ञान, भक्ति , कर्म ... 243 अनेक मार्ग, अनेक विधियां-गंतव्य एक / प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है / अहंकार का निष्कर्षः मेरा मार्ग ही सबके लिए सही / दूसरों को गलत सिद्ध करने का रुग्ण रस / जन्म से धर्म को निश्चित करना गलत है / व्यक्तित्व के ढांचे के अनुकूल धर्म का चुनाव जरूरी / सचेतन चुनाव की जीवंतता / निष्ठा में है बल / स्वधर्म की खोज / आरोपित धार्मिक शिक्षा / मां-बाप से शरीर मिलता है / आत्मिक विकास की यात्रा अलग है / संकल्प से आत्मा सबल / धर्म-सबसे बड़ी चुनौती, सबसे बड़ा अभियान / वसीयत की तरह धर्म का हस्तांतरण संभव नहीं / तीन मौलिक ढांचे–ज्ञान, भाव और कर्म / जानने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने वाला / तीन टुकड़े-ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान / परिचय और ज्ञान में फर्क / विज्ञान और धर्म का फर्क / निष्पक्ष दूरी / एकात्म, लीनता, एकरसता / तटस्थ दर्शक होना या भागीदार बनना / दूसरे का मार्ग समझना कठिन / विपरीत मार्ग के प्रति सदभाव व उदारता / अभेद-अद्वैत-बोध निराकार की खोज / भक्त के लिए ज्ञानमार्ग रूखा-सखा / ज्ञान नहीं—प्रेम / जानना नहीं बना / ज्ञान मार्ग में दो-पन बाधा है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति में दो-पन से अद्वैत फलित / प्रेम की एकता–ज्ञान की एकता से ज्यादा समृद्ध / भक्त ने जगत को सौरभ दिया है | सबका अपना-अपना सौंदर्य / हिंदू धर्म ने सभी मार्गों को आत्मसात कर लिया है / जैन धर्म में भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है / नग्न महावीर के सामने नाचना-गाना बेढंगा है। भक्ति का विरोधाभास-दो हों, तो मिलन का मजा / मंसूर का मार्ग था ज्ञान / मंसूर की तकलीफ-भक्ति-उन्मुख लोगों के बीच ज्ञानी की भाषा बोलना / भक्ति के अनेक ढंगः स्वामी-सेवक-भाव; प्रेमी-प्रेमिका-भाव; प्रेमिका-प्रेमी-भाव / हिंदू-धारा में परमात्मा पुरुष है / सूफियों की हिम्मतः परमात्मा को प्रेयसी मानना / हिंदू भक्तों की शालीनता व झिझक / सूफी भक्तों की निस्संकोच अभिव्यक्तियां / भक्ति के और रूप-परमात्मा को मां, पिता, पुत्र आदि मानना / संबंधों की आत्मीयता से एकता को उपलब्ध होना / शाश्वत प्रेम-केवल भक्ति में संभव / प्रेमियों की तकलीफ / प्रेम एक इशारा है-भक्ति की ओर / ईसाइयत का सारः कर्म और सेवा ही उपासना है / कर्म में इतने डूब जाना कि कर्ता मिट जाए / तीसरा मार्ग-कर्म, क्रिया, सेवा / प्रभु-स्मरणयुक्त प्रभु-अर्पित सभी क्रिया-कर्म उपासना बन जाते हैं / उपासना हार्दिक घटना है / स्वचालित, यंत्रवत पूजा-उपासना व्यर्थ है / आदत न बन जाए / सब में परमात्मा / अहंकार का अंधापन / प्रज्ञा की आंख का खलना। मैं ओंकार हूं ... 257 धर्म अर्थात जो सबको धारण किए है / धर्म प्राणों का स्रोत है / महावीर कहते हैं : धर्म हमारा स्वभाव है / स्वभाव ही हमें धारण किए हए है / धर्म को हम खो नहीं सकते सिर्फ भूल सकते हैं / धर्म शिक्षण नहीं—पुनमरण है / सब जीवन-ऊर्जा के स्रोत छिपे हुए / वृक्ष जड़ों को भूल जाए, तो भी पोषण मिलना जारी / नास्तिक को भी ईश्वर से पोषण मिलना / ईश्वर अर्थात अस्तित्व का सार / जन्म-मृत्यु, सृजन-प्रलय, अमृत-जहर-सब ईश्वरीय / मैं हूं सबका धाता / मैं ही हूं-पिता, माता, पितामह / जीवन एक सतत श्रृंखला है / तुम थे; तुम हो; तुम रहोगे / हम परमात्मा की लहरें हैं । जानने योग्य ओंकार भी मैं हूं / जीवन की आत्यंतिक संभावना भी मैं हूं / आत्यंतिक अनुभव–ओंकार का / ओंकार है-अस्तित्व का परम संगीत / ओंकार है-शून्य का स्वर / आहत ध्वनि-जो घर्षण से पैदा होती है / अनाहत नाद-समस्त घर्षणों के शून्य हो जाने पर जो पता चलता है / ओंकार । नाद-न जो कभी बना, न कभी मिटेगा / पूर्ण मौन और शांत होने पर ओंकार नाद का अनुभव / शाश्वत ध्वनि / ओंकार जगत का आधार है / विज्ञान का निष्कर्ष : आत्यंतिक तत्व विद्युत है । पूरब का निष्कर्षः अस्तित्व का मूल आधार ध्वनि है । विद्युत-ध्वनि का ही एक रूप / ध्वनि-विद्युत-मुर्गी-अंडा-कौन पहले / पदार्थ के विश्लेषण पर मिलता है विद्युतकण / मन के विश्लेषण पर-ध्वनि / अ-मन में ओंकारनाद / वेद भी मैं ही हं / वेद-जिनमें ओंकार की तरफ जाने के मार्ग कहे गए हैं / कृष्ण के समय केवल तीन वेद थे / कुरान, बाइबिल, जेंदवेस्ता, ताओ-तेह-किंग भी वेद हैं / वेद कोई सीमित किताब नहीं है / नए ऋषि सदा होते रहेंगे / वेद के दरवाजे बंद करते ही हिंदू धर्म मुर्दा हो गया / सिक्खों का वेद-गुरु-ग्रंथ / उस समय तक के सब ज्ञानियों के इशारे नानक ने संग्रहीत किए / दसवें गुरु ने दरवाजे बंद कर दिए / वेद हमारा इनसाइक्लोपीडिया था / एकमात्र पाने योग्य परमात्मा है / प्रभु अनुभव की संपदा / मैं बनाता, मैं सम्हालता, मैं ही मिटाता / अर्जुन, तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला / अहंकार निर्णायक बनना चाहता है / एक ही पाप है—अहंकार को मजबूत करना / परमात्मा के सागर की एक लहर मात्र है अर्जुन / हमारे अहंकार-बर्फ की तरह जमे हुए / हम एक दूसरे के अहंकार को जमाते रहते हैं / बुद्ध और महावीर को जंगल जाना—ताकि दूसरों की अनावश्यक ठंड न झेलनी पड़े । अर्जुन के अहंकार को पिघलाने के लिए कृष्ण कह रहे हैं : मैं सब कुछ हूं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 जीवन के ऐक्य का बोध - अ - मन में ... 271 मन के देखने का ढंग - खंड-खंड करके / मन अंश को ही देख पाता है / धर्म है अमन से दिए गए वक्तव्य / फिलासफी है - शिक्षित मन से दिए गए वक्तव्य / अरस्तू, प्लेटो, कांट, हीगल - विचारक हैं / धर्म का जन्म होता है उस आदमी से - जिसका मन खो गया / मन की दूसरी कठिनाई - विरोधों में तोड़कर देखना / रावण के बिना राम नहीं हो सकते / दोनों एक खेल के हिस्से हैं / जिंदगी तर्क और गणित को मानकर नहीं चलती / राम भली-भांति जानते हैं कि रावण भी उनका ही दूसरा छोर है / लक्ष्मण को रावण के पास भेजना – सीखने के लिए / मन क्या है ? / विचार और शब्द को पैदा करने वाला यंत्र है मन / गहरी नींद या बेहोशी-मन से नीचे की अवस्था / समाधि मन के ऊपर की अवस्था है / अधिक चिंतन - अधिक खंड / बुद्धः न कुछ सुंदर है, न कुछ कुरूप; जो जैसा है, वैसा है / ध्यान अर्थात मन का, विचार का खो जाना / जब उपयोग हो, तभी मनचले / सूर्य, बादल, बरसात - सब मैं हूं / ईश्वर मृत्यु भी है / मृत्यु जीवन की पूर्णता है / मृत्यु को बुरा कहने से बुढ़ापा बुरा हो गया / पश्चिम में बूढ़ा अनादृत / पत्नी के मरने पर च्वांगत्सू का खंजड़ी बजाकर गीत गाना, उत्सव मनाना / विपरीत हमारी भ्रांति है / वही रस कांटा बनता - और वही रस फूल / शिवलिंग का विरोधाभासी प्रतीकः शिव मृत्यु के देवता हैं, और लिंग जीवन का प्रतीक है / मैं ही सत - मैं ही असत / सत अर्थात जो है, असत अर्थात जो नहीं है / मन के लिए सर्वाधिक कठिन विरोधाभास होना, न होना एक है / दो नहीं के बीच में छोटा-सा होना / है से नहीं है— नहीं है से है— सतत प्रवाह / हिंदी और अंग्रेजी दोनों का जन्म - संस्कृत भाषा से / मां, माता, मातृ, मदर / पिता – पीटर, पैटर, फादर / प्रतिपल चीजें बन रही हैं, मिट रही हैं / जन्म दिन से ही मरना शुरू हो जाता है / सकाम अर्थात मन से जीना / स्वर्ग की कामना / समस्त द्वंद्वों में जो चुनावरहित हो गया - वह प्रभु को उपलब्ध / सकामी इंद्रलोक को तो पा ही सकता है / आनंद - सुख-दुख के पार है / सुख-दुख परस्पर विपरीत हैं / अ-मन हो जाए, तो ही अद्वैत, निर्द्वद्व, जीवन ऐक्य का बोध 9 वासना और उपासना ... 285 अनेक मन हैं हमारे भीतर / विपरीत खंड - एक साथ / मन बाहर भी बांटता है - और भीतर भी / धर्म है मन को खाने की प्रक्रिया / संसार है मन को शक्तिशाली बनाना / मन ही मन - आत्मा बिलकुल नहीं / द्वंद्व के हटते ही, जो है, उसका अनुभव / द्वंद्व — चुनाव — अस्वीकार - दुख / सुखे के पीछे-पीछे दुख आता है / उपेक्षा और आशा का फल -विषाद / जन्मों-जन्मों का भ्रम / विपरीत दिखाई नहीं पड़ता / वासना गई — कि मन गया / गरीब का दुख — अभाव का / अमीर का दुख — उपलब्धि का / अप्राप्त में सुख की आशा / प्राप्त से ऊब / सकाम साधना का फल चुक ही जाता है / स्वर्ग भी तृप्त नहीं कर पाता / सुख से लौटने पर दुख का बोध और प्रगाढ़ हो जाना / संसार चक्र में घूमते रहना / वासना की सभी उपलब्धियां स्वप्नवत / उपासना और वासना का फर्क / जहां वासना है - वहां उपासना संभव नहीं / परमात्मा का भी साधन की तरह उपयोग करना / विवेकानंद काली से धन न मांग सके / उपासना अर्थात परमात्मा के पास होना / इस जगत के सारे संबंध - सकारण / कारण के हटते ही प्रेम का बिखर जाना / अकारण की भाषा ही हमें नहीं आती / निष्काम उपासक का योग-क्षेम प्रभु सम्हालते हैं / बोधकथाः सम्राट का प्यारा गुलाम और कड़वा फल / आस्तिकता अर्थात सर्व-स्वीकार / मोहम्मद की फकीरी: रात सब बांटकर सोना / जो भी हो उसमें ही प्रभु कृपा जानना / जहां निर्वासना - वहां परमात्मा / परमात्मा एक खाली शब्द है हमारे लिए / उपासना आंख है / हर जगह उसकी याद जाने लगे / उसकी उपस्थिति का बोध सघन होना / वासना भिक्षा पात्र है / स्वामी राम की बादशाहत / हमारी प्रार्थनाएं बंधन को बढ़ाने वाली। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोज की सम्यक दिशा ... 301 मनुष्य की सब चाहों में परमात्मा की ही चाह छिपी / बीज में छिपी संभावनाएं / अनजानी खोज / आदमी धन क्यों खोजता है / असुरक्षा, खालीपन, अतृप्ति / खोज की गलत और भ्रांत दिशा / पद की खोज-हीनता की ग्रंथि / हर सफलता अधूरी / प्रथम होने का संघर्ष / परमात्मा से कम में तृप्ति संभव नहीं / मौत से बचने की कोशिश / मृत्यु से बचाव नहीं-अमृत की खोज / सकाम उपासना-अज्ञानपूर्ण / परमात्मा के सिर्फ पास होना काफी है / हजारों यांत्रिक विधियां / रामकृष्ण की सहज पूजा / हार्दिकता, आत्मीयता / अस्तित्व का केंद्र है परमात्मा / विकासमान चेतना का लक्षण-व्यर्थ की पुनरावृत्ति न करना / पिछले जन्मों का विस्मरण / पछतावा है-फिर से क्रोध करने की तरकीब / जैसा श्रद्धा-पात्र, वैसे ही हो जाना / देवता-वासनाओं से घिरे हुए / मनुष्य चौराहा है / मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर सकता है और देवताओं के भी पार जा सकता है / परमात्मा न नया है, न पुराना-बस है / अनुभव की पूर्णता अतिक्रमण है / परमात्मा चरम बिंदु है / यांत्रिकता तोड़ो / बुद्ध-पुरुषों के बाबत भविष्यवाणी नहीं की जा सकती / परमात्मा से कम को लक्ष्य न बनाएं / असंभव को चुनें। कर्ताभाव का अर्पण ... 317 सब परमात्मा का है-सब परमात्मा है / पूजा में क्या चढ़ाएं / उसकी ही चीजें उसे लौटा रहे हैं / मनुष्य निर्मित केवल एक चीज-अहंकार, कर्ताभाव / कर्ताभाव का अर्पण / मैं को बचाकर कुछ भी चढ़ाएं-व्यर्थ है / त्याग का, तपस्या का हिसाब रखना / पुण्य और नैतिकता का अहंकार / भला-बुरा सब मुझ पर छोड़ / कर्म छोड़ना बिलकुल सरल है / कर्ता को छोड़ना बहुत कठिन है / अहंकार गहरे से गहरा संसार है / शुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेमी भक्त / बुद्धि शुद्ध होती है-जब निर्विचार होती है / विचारों पर मालकियत भी शुद्ध बुद्धि नहीं है / बोधकथाः गाय तुमसे बंधी है या तुम गाय से बंधे हो / बांधने वाला बंध जाता है / नीति अर्थात अशुभ को दबाना और शुभ को उभारना / कभी-कभी छुट्टी का दिन जरूरी / नीति की सामाजिक उपयोगिता / धर्म और नीति का फर्क / प्रेम अशद्ध हो जाता है-वासना से, कामना से / भक्ति की दोहरी शर्त-बुद्धि शुद्ध हो और हृदय निष्काम / भक्ति कठिन है / प्रेम किया नहीं जा सकता / भक्त का जीवन बहु-आयामी / मीरा का नृत्य / बुद्ध का शून्य मौन / भक्त की अभिव्यक्तियां / बुद्धि के बहुत विश्वविद्यालय हैं / हृदय की शिक्षा का अभाव / प्रेम में तो जाना-वासना से बच जाना / पानी में उतरना-भीगना मत / हमारे प्रेम के पीछे छिपी है वासना / ऐसा प्रेम-जो अंतर्दशा हो / प्रेम को फैलाने के प्रयोग करना / प्रेम-ऊर्जा का चुंबकीय आकर्षण / घृणा का विकर्षण / मुक्त और अनबंधी प्रेम-ऊर्जा / व्यक्ति की खिलावट की तीन अवस्थाएं-पत्ते, पुष्प, फल / पूजा में पत्र-पुष्प-फल चढ़ाने का प्रतीक / नीत्से का वचनः पक जाना सब कुछ है / कृष्ण का वचनः अर्पित हो जाना सब कुछ है | आप जो हैं, वही अर्पित कर दें / चेतना के फूल चढ़ाना / अर्पित व्यक्ति परमात्मा ही हो जाता है / कृष्ण का कहनाः सब छोड़; मेरी शरण आ / अहंशून्य मैं / कृष्ण और अर्जुन का संबंध बड़ा आत्मीय / प्रभु-अर्पित हो युद्ध में उतर जा / कृष्ण द्वारा प्रस्तावित संन्यास की क्रांतिकारी धारणा / समर्पण के बाद-समस्त शुभ-अशुभ का अतिक्रमण / परमात्मा मुक्ति है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 नीति और धर्म ... 331 आचरण नहीं, अंतस महत्वपूर्ण है / आचरण है परिधि-अंतस है केंद्र / आचरण ऊपर से आरोपित किया जा सकता है / नैतिक होना आसान है। धार्मिक होकर जीना कठिन है / नैतिकता समाज के लिए सुविधापूर्ण है / नीति–एक जरूरी बुराई है / धार्मिक व्यक्ति निश्चय रूप से नीतिवान / यथार्थ निश्चय वाला व्यक्ति साधु है / यथार्थ निश्चय अर्थात समग्रता / हसन—एक चोर से दृढ़ निश्चय का पाठ सीखना / दृढ़ निश्चय अर्थात अटूट आस्था / दुराचरण-निश्चय की कमी के कारण / चाह मात्र काफी नहीं संकल्प चाहिए / बुरे लोगों में एक तरह की दृढ़ता, एक निश्चय / संकल्पवान दुराचारी-क्षण में रूपांतरित / भय और भक्तिहीनता पर आधारित साधुता / हिटलर का प्रगाढ़ संकल्प / संकल्पहीन व्यक्ति-छिद्रों वाली बालटी की तरह / छोटे-छोटे संकल्पों को पूरा करने का अभ्यास करें / संकल्प को जगाने के प्रयोगः उपवास, रात्रि जागरण आदि / एक संस्मरण : अखंड धूम्रपान की आदत तुड़वाना / छोटे-छोटे संकल्प करें और उन्हें पूरा करें / निश्चय मात्र से रूपांतरण घटित / अनेक शाखाओं में बंटकर नदी की धारा क्षीण / एक धारा में प्रवाहित चेतना बलशाली / भाव की सतत धारा-प्रभु की ओर / मां की सुरति-बच्चे पर सतत लगी / जहां भाव सहज बहे-उसे ही ध्यान बना लेना / हर बात को प्रभु-स्मरण का निमित्त बना लेना / अनैतिक व्यक्ति बाहर अशांतः नैतिक व्यक्ति भीतर अशांत / सदा रहने वाली शांति-प्रभु-मिलन पर / अप्रकट परमात्मा का प्रकट होना-भजन से / भजन है-बीज को जमीन में डालना / भक्त में परमात्मा-परमात्मा में भक्त / प्रभु-कृपा की सतत वर्षा / हम अपना घड़ा उलटा रखे बैठे हैं | हम स्वयं अपने शत्रु हैं / प्रभु-कृपा सब पर समान / व्यर्थ का प्रश्न : चांद पर देवता रहते हैं या नहीं / दूसरा व्यर्थ प्रश्न : दशरथ नपुंसक और लक्ष्मण व्यभिचारी थे या नहीं / एक मित्र स्टेज पर आकर सिद्ध करना चाहते हैं कि रजनीश मूर्ख हैं / गीता में एक नया वाक्य जोड़नाः जिनके दिमाग के स्क्रू ढीले हैं, उनमें भी मैं हूं / व्यर्थ के प्रश्न नहीं-साधना संबंधी प्रश्न पूछे। क्षणभंगुरता का बोध ... 347 स्त्रैणता और पुरुषता का मनोविज्ञान / प्रत्येक व्यक्ति स्त्री-पुरुष दोनों है / बदलते हुए स्त्री-क्षण और पुरुष-क्षण / पुरुष-चित्त का लक्षण-खोज, पहल करना / स्त्रैण-चित्त का लक्षण-प्रतीक्षा, अप्रयास / सब की आत्माएं तो एक हैं लेकिन मन अलग-अलग/मन के ढांचे के अनुकूल शरीर मिलना / व्यक्तित्व के चार मनोवैज्ञानिक ढांचे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र / भारत का महान प्रयोगः व्यक्तित्व के ढांचे और जन्म की व्यवस्था को जोड़ने की कोशिश / शूद्र-जिसका जीवन शरीर-केंद्रित है / जन्म से तो सभी व्यक्ति शूद्र होते हैं / शरीर ही सब कुछ-शूद्र के लिए / शूद्र भी प्रभु-स्मरण से भर जाए, तो परमात्मा की किरण उपलब्ध / वैश्य-धन, पद, प्रतिष्ठा के लिए जीने वाला / क्षत्रिय आत्म-गौरव और स्वाभिमान के लिए जीता है / ब्राह्मण-ब्रह्म केंद्रित / मृतात्मा द्वारा अनुकूल गर्भ की अचेतन खोज / अनुकूल स्थितियां उपलब्ध हों इसकी व्यवस्था / गर्भ और जन्म पर वैज्ञानिक नियंत्रण की संभावनाएं / वर्ण-व्यवस्था से खतरा हुआ-शोषण और शत्रुता जन्मी / हर प्रयोग के खतरे / परमाणु शक्ति के खतरे / वर्ण का कीमती प्रयोग गलत हाथों में पड़ गया / न कर्म, न जाति, वरन समर्पण की क्षमता महत्वपूर्ण / संसार से सुख चाहते हैं, इसलिए दुख मिलता है / दुख है-टूटी हुई अपेक्षा / दुख स्व-अर्जित है / परिवर्तनशील और क्षणभंगुर जीवन में चीजों को ठहराने की कोशिश से दुख / अमर प्रेम की कविताएं / प्रेम थिर नहीं हो सकता / ज्ञान अर्थात जीवन के नियम को जानकर जीना / क्षणभंगुरता का बोध निराशावाद नहीं है / केवल परमात्मा का प्रेम शाश्वत है / पति में, पत्नी में परमात्मा देखना / पश्चिम में प्रेम, परिवार और विवाह का टूटना-बिखरना / हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता / आदमी के थोड़े पार देखो / संसार से तृप्त मत हो जाना / रुदन, विह्वलता, पुकार-अज्ञात को निवेदित / असहाय पीड़ा की अभिव्यक्ति / ज्ञात की व्यर्थता-अज्ञात का आह्वान / भक्तों का रुदन-योग की प्रक्रिया / रुदन, चीख-पुकार के किसी क्षण में आत्मिक हृदय की धड़कन शुरू / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यर्थता-विह्वलता-समर्पण / अज्ञात के साथ बहने का साहस / सहयोग और भरोसा / पाल खोलना / अज्ञात की, परमात्मा की हवाएं-किसी दूसरे लोक में ले जाने को आतुर / सुनें-समझें और चलें-सोच-विचार में न पड़ें / मन के पुराने ढांचे से बाहर निकलना जरूरी / प्रभु घटे तो जीवन सार्थक हो। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 पहला प्रवचन स्वभाव अध्यात्म है Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* श्रीमद्भगवद्गीता कृष्ण कहते हैं जरूर; अर्जुन तक पहुंच नहीं पाता है। दुविधा है; अथ अष्टमोऽध्यायः | लेकिन ऐसी ही स्थिति है। जब तक प्रश्न होते हैं मन में, तब तक | उत्तर समझ में नहीं आता। और जब प्रश्न गिर जाते हैं, तो उत्तर अर्जुन उवाच समझ में आता है। और प्रश्न से भरा हुआ मन हो, तो कृष्ण भी किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म कि कर्म पुरुषोत्तम । | सामने खड़े हों, साक्षात उत्तर ही सामने खड़ा हो, तो भी समझ के अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।। १।। | बाहर है। और मन से प्रश्न गिर जाएं, तो पत्थर भी पड़ा हो सामने, अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । तो भी उत्तर बन जाता है। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।२।। निष्प्रश्न मन में उत्तर का आगमन होता है। प्रश्न भरे चित्त में उत्तर श्रीभगवानुवाच | को आने की जगह भी नहीं होती। इतनी भीड़ होती है अपनी ही कि अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । उत्तर के लिए प्रवेश का मार्ग भी नहीं मिलता है। भूतभावोद्भवको विसर्गः कर्मसंजितः ।।३।। __ अर्जुन पूछे चला जाता है। ऐसा भी नहीं है कि समझने की अर्जुन बोला, हे पुरुषोत्तम, जिसका आपने वर्णन किया, वह | कोशिश न करता हो; पूरी कोशिश करता है। लेकिन बहुत बार ब्रह्म क्या है, और अध्यात्म क्या है तथा कर्म क्या है, और | समझने की कोशिश ही समझने में बाधा बन जाती है। जब भी मन अधिभूत नाम से क्या कहा गया है तथा अधिदेव नाम से कोशिश करता है, तो तनावग्रस्त हो जाता है, खिंच जाता है। उस ___ क्या कहा जाता है? खिंची हुई, तनी हुई हालत में कुछ भी समझ नहीं आता है। और हे मधुसूदन, यहां अधियज्ञ कौन है, और वह इस शरीर समझने की कोशिश भी जहां नहीं है, सिर्फ पी लेने का भाव है; में कैसे है, और युक्त वित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में | पूछने का भी जहां खयाल नहीं है, जो मिल जाए, उसे प्राणों में संजो आप किस प्रकार जानने में आते हो? | लेने की आकांक्षा है; खींच लेने की भी आतुरता नहीं है कि यही मैं श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, परम अक्षर अर्थात जिसका | खींच लूं, जान लूं, पालूं, द्वार खोलकर प्रतीक्षा करने की जहां हिम्मत कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानंदघन परमात्मा तो ब्रह्म है | है, वहां उत्तर चुपचाप, बिना पदचाप किए भीतर चला आता है। . और अपना स्वरूप अर्थात स्वभाव अध्यात्म नाम से कहा | और बड़े-बड़े प्रश्न पूछने से उत्तर मिल जाएगा, ऐसा भी नहीं जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो विसर्ग | | है। मन बड़े-बड़े प्रश्न खड़े कर देता है। लेकिन जब तक मन प्रश्न अर्थात त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है। | खड़े करता रहता है, तब तक छोटा भी उत्तर नहीं मिलता. क्योंकि मन ही बाधा है। अर्जुन प्रश्नों की एक कतार खड़ी करता है। इसके पहले कृष्ण 27 र्जुन के प्रश्नों का कोई अंत नहीं है। किसी के भी प्रश्नों | | उत्तर देते रहे हैं। पिछले सात अध्यायों में उन्होंने बहुत उत्तर दिए हैं। l का कोई अंत नहीं है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे | | वह घूम-घूमकर नए-नए प्रश्नों के नाम से फिर पुरानी-पुरानी बातें मनुष्य के मन में प्रश्न लगते हैं। और जैसे झरने नीचे खड़ी कर लेता है। वह फिर पूछता है। और एक बात भी नहीं की तरफ बहते हैं, ऐसा मनुष्य का मन प्रश्नों के गड्ढों को खोजता है। | पूछता, यह भी थोड़ी समझ लेने जैसी बात है। कृष्ण जैसा व्यक्ति भी मौजूद हो, तो भी प्रश्न उठते ही चले जाते | वह पूछता है, हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है? हैं। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण को भी देख पाने | प्रश्न का अंत नहीं होता, यद्यपि समस्त प्रश्नों का अंत ब्रह्म के में समर्थ नहीं है। और शायद उन्हीं प्रश्नों के कारण अर्जुन कृष्ण के | | प्रश्न के साथ हो जाता है। उसके बाद प्रश्न बचते नहीं। ब्रह्म के उत्तर को भी नहीं सुन पाता है। | बाद भी कोई प्रश्न शेष रह जाएगा? ब्रह्म तो दि अल्टिमेट क्वेश्चन जिस मन में बहुत प्रश्न भरे हों, वह उत्तर को नहीं समझ पाता है। है, आखिरी सवाल है। इसके बाद पूछने को क्या बचता होगा? क्योंकि वस्तुतः जब उत्तर दिए जाते हैं, तब वह उत्तर को नहीं सुनता; लेकिन पूरी कतार है। अपने प्रश्नों को ही, अपने प्रश्नों को ही भीतर गुंजाता चला जाता है। अर्जुन पूछता है, ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वभाव अध्यात्म है है अधिभूत क्या है? अधिदैव क्या है? यहां अधियज्ञ कौन है? इस | | छोटे-से दो शब्दों से शुरू होता है ब्रह्म-सूत्र, अथातो ब्रह्म शरीर में वह कैसे है? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय | जिज्ञासा-यहां से ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है। पर यह आखिरी में आप किस प्रकार जानने में आ जाते हो? | सवाल है; अब इसके आगे सवाल नहीं हो सकते। हेंस दि इंक्वायरी ऐसा भी नहीं लगता कि किसी भी एक प्रश्न में उसकी बहुत | आफ दि ब्रह्म; यहां से शुरू होती है ब्रह्म की जिज्ञासा। बस, अब उत्सुकता होगी! वह इतनी त्वरा से, इतनी तीव्रता से सवाल पूछ रहा | | कोई सवाल नहीं उठ सकते; आखिरी सवाल पूछ लिया गया। है कि लगता है, सवाल पूछने के लिए ही सवाल पूछे जा रहे हैं। __ अर्जुन भी पूछता है, ब्रह्म क्या है? लेकिन क्षणभर रुकता नहीं, अन्यथा ब्रह्म के बाद कोई सवाल नहीं है। और ब्रह्म के बाद जो | जरा-सा अंतराल नहीं है। पूछता है, अध्यात्म क्या है ? अगर कृष्ण सवाल पूछता है, वह कहता है, ब्रह्म में उसकी बहुत उत्सुकता और | | ने लौटकर पूछा होता कि अर्जुन, अपने सवाल को फिर दोहरा, तो जिज्ञासा नहीं है। अन्यथा एक सवाल काफी है कि ब्रह्म क्या है ? जैसे मुझे उसका कागज हाथ में रखना पड़ा, ऐसा उसे भी रखना दूसरा सवाल उठाने की अब कोई और जरूरत नहीं है। इस एक का | | पड़ता। बहुत संभावना तो यही है कि वह दुबारा अपना सवाल वैसा ही जवाब सबका जवाब बन जाएगा। एक को ही जानने से तो सब | का वैसा न दोहरा पाता। और यह भी संभावना बहुत है कि उसमें जान लिया जाता है। लेकिन जो सबको जानने की विक्षिप्तता से भरे | ब्रह्म और अध्यात्म चूक सकते थे, भूल जा सकते थे। होते हैं, वे एक को भी जानने से वंचित रह जाते हैं। ऐसा मेरा रोज का अनुभव है। आता है कोई, कहता है, ईश्वर ब्रह्म के बाद भी अर्जुन के लिए सवाल हैं। इससे एक बात साफ | | के संबंध में कुछ कहें। अगर मैं दो क्षण उसकी बात को है कि कोई भी जवाब मिल जाए, अर्जुन के सवाल हल होने वाले टाल-मटोल कर जाता हूं, पूछता हूं, कब आए? कैसे हैं? वह फिर दिखाई नहीं पड़ते हैं। जो ब्रह्म के बाद भी सवाल पूछ सकता है, घंटेभर बैठकर बात करता है, दुबारा नहीं पूछता उस ईश्वर के वह हर सवाल के बाद, हर जवाब के बाद, नए सवाल खड़े करता | संबंध में, जिसे पूछते हुए वह आया था! चला जाएगा। ऐसे सवाल भी हम कहां से पूछते होंगे? ये हमारे हृदय के किसी असल में हमारा मन जब भी एक जवाब पाता है. तो उस जवाब | गहरे तल से आते हैं या हमारी बुद्धि की पर्त पर धूल की तरह जमे का एक ही उपयोग करना जानता है, उससे दस सवाल बनाना हुए होते हैं? ये हमारे प्राणों की किसी गहरी खाई से जन्मते हैं या जानता है। बस हमारी बुद्धि की खुजलाहट हैं? अगर यह बुद्धि की खुजलाहट पूरे मनुष्य जाति के मन का इतिहास नए-नए प्रश्नों का इतिहास | है, तो खाज को खुजला लेने से जैसा रस आता है, वैसा रस तो है। एक भी उत्तर आदमी खोज नहीं पाता। हालांकि हर दिए गए | आएगा, लेकिन बीमारी घटेगी नहीं, बढ़ेगी। उत्तर के साथ दस नए सवाल खड़े हो जाते हैं। __ अर्जुन की बीमारी घटती हुई मालूम नहीं पड़ती। वह पूछता ही अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी के उत्तर जितने आज हैं, उतने चला जाता है। वह यह भी फिक्र नहीं करता कि जो मैं पूछ रहा हूं, ही सदा थे। कृष्ण के समय में भी उत्तर वही था; बुद्ध के समय में वह बहुत बार पहले भी पूछ चुका हूं। वह यह भी फिक्र नहीं करता भी उत्तर वही था; आज भी उत्तर वही है। लेकिन सवाल आज कि मैं केवल नए शब्दों में पुरानी ही जिज्ञासाओं को पुनः-पुनः खड़ा ज्यादा हैं। अगर कोई प्रगति हुई है, तो वह एक कि हमने और ज्यादा | | कर रहा हूं। वह इसकी भी चिंता नहीं करता कि कृष्ण उत्तर देते जा सवाल पैदा कर लिए हैं; जवाब नहीं। और ज्यादा सवालों की भीड़ | रहे हैं, लेकिन मैं उत्तर नहीं सुन रहा हूं। में जो हाथ में जवाब थे, वे भी छूट गए हैं और खोते चले जाते हैं। शायद वह इस खयाल में है कि कोई ऐसा सवाल पूछ ले कि यह बात उलटी मालम पडेगी कि जहां बहत सवाल होते हैं. वहां कृष्ण अटक जाएं! शायद वह इस प्रतीक्षा में है कि कोई तो वह जवाब कम हो जाते हैं; और जहां सवाल बिलकुल नहीं होते, वहीं | सवाल होगा, जहां कृष्ण भी कह देंगे कि कुछ सूझता नहीं अर्जुन, जवाब, उत्तर, दि आंसर, एक ही उत्तर सारी ग्रंथियों को, सारी | | कुछ समझ नहीं पड़ता। इस प्रतीक्षा में उसका गहरा मन है। उसका उलझनों को तोड़ जाता है। अनकांशस माइंड, उसका अचेतन मन इस प्रतीक्षा में है कि कहीं बादरायण का ब्रह्म-सूत्र एक छोटे-से सूत्र से शुरू होता है। और वह जगह आ जाए, या तो कृष्ण कह दें कि मुझे नहीं मालूम; या एक छोटे-से सवाल का ही जवाब पूरे बादरायण के ब्रह्म-सूत्र में है। | कृष्ण ऊब जाएं, थक जाएं और कहें कि जो तुझे करना हो कर; Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 मुझसे इसका कुछ लेना-देना नहीं है ! तो अर्जुन जो करना चाहता है, उसे कर ले। लेकिन कृष्ण जैसे लोग थकते नहीं । यद्यपि यह बिलकुल चमत्कार है। अर्जुन जैसे थकाने वाले लोग हों, तो कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी थक ही जाना चाहिए। लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति थकते नहीं हैं। और क्यों नहीं थकते हैं? न थकने का कुछ राज है, वह मैं आपसे कहूं, फिर हम कृष्ण के उत्तर पर चलें। न थकने का एक राज तो यह है कि कृष्ण यह भलीभांति जानते हैं कि अर्जुन, तुझे तेरे प्रश्नों से कोई भी संबंध नहीं है। और अगर अर्जुन इस दौड़ में लगा है कि हम प्रश्न खड़े करते चले जाएंगे, ताकि किसी जगह तुम्हें हम अटका लें कि अब उत्तर नहीं है। कृष्ण भी उसके साथ-साथ एक कदम आगे चलते चले जाते हैं कि हम तुझे उत्तर दिए चले जाएंगे। कभी तो वह क्षण आएगा कि तेरे प्रश्न चुक जाएंगे और उत्तर तेरे जीवन में क्रांति बन जाएगा। कृष्ण को भलीभांति पता है, अर्जुन को प्रश्नों से प्रयोजन ज्यादा नहीं है, अन्यथा वे कहते कि यह तो तू पूछ चुका । कृष्ण जानते हैं। कि अर्जुन का सवाल सवाल नहीं है, अर्जुन की बीमारी है । उसे जवाब नहीं चाहिए, उसे रूपांतरण चाहिए, उसे ट्रांसफार्मेशन चाहिए; उसका आमूल जीवन बदले, ऐसी घड़ी चाहिए। लेकिन उस स्थिति तक लाने के लिए भी उसे फुसलाना पड़ेगा, उसे राजी करना पड़ेगा; अर्जुन की ही भाषा में बोलना पड़ेगा। "सुना है मैंने कि एक गांव में पहली ही बार कुछ लोग एक घोड़े को खरीदकर ले आए थे। उस देश में घोड़ा नहीं होता था और उस गांव के लोगों ने घोड़ा देखा भी नहीं था। जो लोग ले आए थे परदेश से, वे घोड़े के शरीर से, उसकी दौड़ से, उसकी गति से प्रभावित होकर आए थे। लेकिन उन्हें घोड़े के संबंध में कुछ भी पता नहीं था। एक बात पक्की थी, उन्हें घोड़े की भाषा बिलकुल पता नहीं थी। बहुत मुश्किल में पड़ गए। घोड़े को उन्होंने चलते देखा था हवा की रफ्तार से। गांव में लाकर उन्होंने पाया कि चार आदमी आगे से खींचें और चार आदमी पीछे से धकाएं, तब कहीं वह मुश्किल से कुछ-कुछ चलता है। बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि अगर घोड़े को चलाने के लिए आठ आदमियों की जरूरत पड़े, तो यह घोड़ा है किसलिए! बहुत उन्होंने कहा कि हमने देखा था तुझे हवा से बातें करते! घोड़ा खड़ा सुनता रहा, वैसे ही जैसे अर्जुन सुनता रहा होगा । कृष्ण की भाषा और है। एंड देअर इज़ सच ए बिग गैप आफ लैंग्वेज, ऐसा बड़ा अंतराल है कि घोड़ा भी आदमी की भाषा समझ 4 | ले, कृष्ण की भाषा समझना अर्जुन को मुश्किल है। घोड़े और आदमी के बीच इतना अंतराल नहीं है। कुछ लोग तो कहते हैं, उतना ही अंतराल है, जितना गधे और घोड़े के बीच होता है। मगर उनकी बात सही न भी हो, फिर भी आदमी और घोड़े के बीच बहुत अंतराल नहीं है। कृष्ण और अर्जुन के बीच अंतराल ज्यादा है। पर मुश्किल में तो पड़ ही गए, अंतराल कम हो तो भी। और घोड़ा रोज सूखने लगा और दुबला होने लगा, क्योंकि उन्होंने पूछा ही नहीं था कि उसे भोजन भी देना है! अब चलना रोज-रोज मुश्किल होता चला गया। चार की जगह आठ और आठ की जगह दस और दस की जगह बारह, रोज-रोज आदमी बढ़ाने पड़ते जब उस घोड़े को चलाना पड़ता । पूरा गांव दिक्कत में पड़ गया। लोगों | ने कहा, तुम यह क्या ले आए हो? ऐसा वक्त आ जाएगा जल्दी कि पूरे गांव को चलाना पड़ेगा! लेकिन फिर चलाने से फायदा क्या है? ठीक था; एक दिन तमाशा हो गया; लोगों ने चलाकर भी देख लिया, फिर क्या करेंगे? गांव में एक अजनबी उस रात रुका था, उसने भी देखा यह खेल कि पूरा गांव धक्का देता है, घोड़े को चलाता है, घोड़ा चलता नहीं। | उसने कहा कि पागलो, क्या तुम्हें घोड़े की भाषा बिलकुल भी पता | नहीं ? उन्होंने कहा, हम इसी मुश्किल में पड़े हैं। वह आदमी सिर्फ घोड़े के सामने घास का एक छोटा-सा पूला लेकर चलने लगा। और घोड़ा इतना कमजोर था, तो भी तेजी से उसने गति पकड़ ली। वह आदमी दौड़ने लगा, तो घोड़ा दौड़ने लगा। घास का एक छोटा-सा पूला हाथ में लेकर ! घोड़े को घास का पूला समझ में आया। कृष्ण जैसे लोग भी हजार तरह की कोशिश करते हैं अर्जुन जैसे व्यक्तियों के सामने, जो उनकी समझ में आ जाए, उसे रखने की। लेकिन अर्जुन होशियार घोड़ा है, जल्दी उलझाव में नहीं आता। वह | कहता है, होगा । यह ठीक है। लेकिन अभी कुछ और सवाल बाकी हैं, अभी उनका जवाब चाहिए। वह असल में ध्यान नहीं देता कि | कृष्ण उसके सामने क्या रख रहे हैं। शायद वह अपने को बचाने के लिए ही यह कर रहा है। कहीं कृष्ण की बात सुनाई न पड़ जाए, इसलिए वह जल्दी सवाल पूछता है। वह इतने जल्दी सवाल पूछता है, जितने जल्दी कृष्ण जवाब भी नहीं दे पाते। इधर कृष्ण का जवाब समाप्त नहीं होता और अर्जुन के सवाल खड़े हो जाते हैं। यह बिलकुल असंभव है। अगर मैं आपसे कुछ बोलूं, बोल भी न पाऊं और आपका सवाल खड़ा हो जाए, तो इसका मतलब सिर्फ एक हुआ कि जब Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वभाव अध्यात्म है मैं बोल रहा था, तब आप सवाल तैयार कर रहे थे। मुझसे पूछे चले जाते हैं! मैंने मृत्यु पछा, तो आप पूछने लगे कि और ऐसा भी नहीं लगता कि वे सवाल, कृष्ण जो बोलते हैं किसलिए? ध्यान पूछता हूं, तो आप पूछते हैं, किसलिए? बुद्ध उससे पैदा होते हों। वे सवाल अर्जुन के अपने ही हैं; कृष्ण का | कहते हैं, जब तक मैं यह न जान लूं कि सच में तू जानना चाहता बोलना इररेलेवेंट है, असंगत है। कृष्ण के बोलने को कहीं सुना ही | | है, तब तक मैं उतर नहीं देता हूं। नहीं जा रहा है। ___ शायद—क्योंकि बुद्ध की करुणा में कृष्ण की करुणा से रत्तीभर लेकिन फिर भी कृष्ण जैसे व्यक्ति उत्तर देते हैं, इस आशा में कि | भी भेद तो नहीं है लेकिन शायद कृष्ण और अर्जुन की बातचीत शायद किसी क्षण में थका हुआ अर्जुन का मन नए प्रश्न न खोज | का अनुभव बुद्ध के लिए काफी महंगा पड़ा है। उस अनुभव के पाए, नए सवाल न उठा पाए और शायद एक किरण भी प्रकाश की | कारण शायद अब वे राजी नहीं हैं कि इतनी लंबी गीता चले; वही उसके भीतर पहुंच जाए। उत्तर का एक छोटा-सा स्वाद भी उसे आ | | सवाल आदमी बार-बार पूछता रहे। जाए, तो वह फिर घोड़े की तरह घास के पीछे चल सकता है। इस साक्रेटीज के पास अगर कोई पूछने जाता था, तो फिर दुबारा आशा में पूरी गीता कही गई है। और कृष्ण जैसा उत्तर देने वाला पूछने नहीं जाता था। क्यों? क्योंकि साक्रेटीज उत्तर तो देता ही नहीं आदमी बहुत मुश्किल से होता है; बहुत मुश्किल से होता है। । | था। आप पूछकर अगर फंस बैठे, तो आपसे इतने प्रश्न पूछता था बुद्ध बहुत-से प्रश्नों के लिए इनकार कर देते थे। वे कहते थे, | कि दुबारा आप कभी उस रास्ते नहीं निकलते, जहां साक्रेटीज रहता ये सवाल पूछो ही मत। मैं इनके जवाब दूंगा ही नहीं। क्योंकि वे | | है। साक्रेटीज को एथेंस के लोगों ने जहर दिया, उसमें सबसे बड़ा कहते थे, ये सवाल तुम्हारे सवाल ही नहीं हैं; ये तुम्हारे प्राणों से कारण यही था कि साक्रेटीज ने एथेंस के हर आदमी को अज्ञानी कहीं पूछे ही नहीं जा रहे हैं। तुम वही पूछो, जो सच में तुम जानना | | सिद्ध कर दिया था, प्रश्न पूछ-पूछकर। चाहते हो। मत पूछो वह, जो तुम जानना नहीं चाहते हो। | अगर आप पूछते कि ईश्वर है? तो साक्रेटीज पहले पूछता, आदमी बद्ध के पास आता है, वह पछता है कि मत्य ईश्वर से आपका क्या अर्थ है? अब आप फंसे। आप कहेंगे, अर्थ क्या है ? बुद्ध कहते हैं, तू मृत्यु को जानना चाहता है? वह आदमी | ही मालूम होता, तो हम पूछते ही क्यों? साक्रेटीज कहता है, जिस कहता है, जानना इसलिए चाहता हूं, क्योंकि बचना चाहता हूं। और | शब्द का अर्थ ही नहीं मालूम, उसका तुम प्रश्न कैसे बनाओगे? जानने का कोई प्रयोजन नहीं है। अगर यह मृत्यु कुछ है, तो मैं जान | | एथेंस के एक-एक आदमी को उसने उलझन में डाल दिया था। लूं, ताकि बच जाऊं। पर बुद्ध कहते हैं, जानना हो तो मृत्यु में प्रवेश आखिर एथेंस गुस्से में आ गया। उस नगर ने कहा कि यह आदमी करना पड़ेगा, उसके अतिरिक्त जानने का कोई उपाय नहीं है। तो तू | इस तरह का है कि जवाब तो देता नहीं, और उलटे हम सबको छोड़; यह सवाल तू छोड़। तू कुछ और सवाल पूछ, जो तू जानना | | अज्ञानी सिद्ध कर दिया है। चाहता हो प्रवेश करके। ___ छोटी-मोटी बातों पर अज्ञान सिद्ध हो जाता है। कोई पूछता नहीं, वह आदमी जरा मुश्किल में पड़ गया है। सोच-समझकर वह इसीलिए आपका ज्ञान चलता है। इसलिए छोटे बच्चे बहुत परेशान कहता है कि ठीक, तो कुछ ध्यान के संबंध में मुझे कह दें। करने वाले मालूम पड़ते हैं। इसलिए नहीं कि वे आपसे कुछ भी __ यह मजबूरी में पूछ रहा है। अब फंस ही गए हैं। अब बुद्ध कहते अनर्गल पूछते हैं। असल में वे ऐसे सवाल पूछते हैं कि पूछते से हैं, मृत्यु के बाबत बताऊंगा नहीं, क्योंकि तू मृत्यु में घुसने को राजी ही आपके जवाब डगमगा जाते हैं। कोई पूछता नहीं है, इसलिए नहीं। छोड़। कुछ और पूछ ले। अब वह यह भी नहीं कह सकता, चलता है। इतनी भी ईमानदारी नहीं है कि अब मैं नहीं पूछना चाहता, बात संत अगस्तीन कहता था कि कई सवाल ऐसे हैं कि जब तक तुम खतम हो गई; मैं नहीं पूछंगा। यह भी नहीं है। इतनी आनेस्टी भी, | नहीं पूछते, तब तक मुझे जवाब मालूम होते हैं। तुमने पूछा कि इतना भी व्यक्तित्व का बल नहीं है कि कह दे कि नहीं। जवाब गया! वह कहता था, मुझे अच्छी तरह पता है कि व्हाट इज़ अब कहते हैं, अब मिल ही गए, तो पूछ ही लो। तो वह टाइम-समय क्या है, मैं जानता हूं। बट दि मोमेंट यू आस्क मी; पूछता है, ध्यान क्या है? बुद्ध कहते हैं, तू ध्यान किसलिए चाहता | | पूछा नहीं तुमने कि सब गड़बड़ हुआ! है? वह आदमी कहता है कि मैं आपसे पूछने आया हूं, कि आप | आप भी जानते हैं कि समय क्या है। लेकिन आपको पता होना अब एक आदमी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 चाहिए, आइंस्टीन भी उत्तर नहीं दे सकता कि व्हाट इज़ टाइम? समय क्या है? और आप सब जानते हैं कि समय क्या है। हम सबको पता है। समय से ट्रेन पर पहुंचते हैं, समय से घर आते हैं, दफ्तर जाते हैं। कौन ऐसा आदमी होगा जिसको पता नहीं कि समय क्या है! लेकिन आइंस्टीन भी जवाब नहीं दे सकता कि समय क्या है। पूछ लो, तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। अज्ञान छिपा- छिपा चलता है, जब तक कोई पूछता नहीं।' पूछना कोई शुरू कर दे, अज्ञान के अतिरिक्त हाथ में कुछ नहीं रह जाता। सुकरात ने लोगों को पूछकर दिक्कत में डाल दिया। जवाब तो दिए नहीं। शायद सुकरात बुद्ध से भी ज्यादा अनुभवी हो चुका था। उसने सोचा कि इसके पहले कि तुम पूछो, बेहतर है कि हम ही पूछ लें ! लेकिन कृष्ण इस लिहाज से अदभुत हैं। शायद गैर-अनुभव के कारण ही, क्योंकि वे ज्यादा प्राचीन हैं। वे उत्तर दिए चले जाते हैं। वे अर्जुन को टोकते भी नहीं कि तू क्या पूछ रहा है? क्यों पूछ रहा है? और इसका जवाब मैं दे चुका हूं। नहीं, वे फिर से उत्तर देने को राजी हो जाते हैं। कृष्ण ने जो उत्तर दिया है, वह हम समझें। अर्जुन का पहला प्रश्न है, ब्रह्म क्या है ? कृष्ण ने कहा, जिसका कभी नाश न हो । फिर तो साफ हो गई बात कि इस जगत में ब्रह्म कहीं भी नहीं है। यहां तो जो भी है, सभी का नाश है। आपने कोई ऐसी चीज देखी है, जिसका कभी नाश न हो? कभी कोई ऐसी चीज सुनी है, जिसका कभी नाश न हो? कभी कोई ऐसा अनुभव हुआ है, जिसका कभी नाश न हो ? यहां तो जो भी है, सभी नाशवान है। यहां तो होने की शर्त ही विनाश है । होने की एक ही शर्त है, न होने की तैयारी। जन्म होने के साथ मृत्यु के साथ समझौता करना पड़ता है। जन्म के साथ ही दस्तखत कर देने होते हैं मौत के सामने कि मरने को तैयार हूं। यहां तो कुछ पाया कि खोने के अतिरिक्त और अब कुछ होने वाला नहीं है। यहां तो कोई मिला, तो बिछुड़ना होगा। यहां गले मिलने का इंतजाम, सिर्फ गले को अलग कर लेने के लिए है। यहां सभी कुछ नाशवान है। यहां जो बनता हुआ दिखाई पड़ रहा है, एक तरफ से देखो तो मालूम होता है बन रहा है, दूसरी तरफ से देखो मालूम होता है कि बिगड़ रहा है। एक धर्मगुरु के एक छोटे लड़के ने उससे पूछा है एक दिन कि यह आदमी कैसे बना? और यह आदमी जब मिटता है, तो क्या हो 6 जाता है? तो उस धर्मगुरु ने कहा, डस्ट अनटु डस्ट; मिट्टी में मिट्टी मिल जाती है। मिट्टी से ही आदमी बनता है, मिट्टी में ही आदमी गिर जाता है। दूसरे ही दिन सुबह वह धर्मगुरु अपने तख्त पर बैठकर अपनी किताब पढ़ता है। उसका छोटा बेटा आया, तख्त के नीचे घुस गया, और उसने वहां से चिल्लाया कि पिताजी, जरा नीचे आइए। ऐसा लगता है कि या तो कोई बन रहा है, या तो कोई मिट रहा है! एक मिट्टी का ढेर लगा हुआ है। तख्त के नीचे धूल इकट्ठी हो गई है। बेटे ने कहा कि या तो कोई बन रहा है, या कोई मिट रहा है; जल्दी | नीचे आइए! धूल के ढेर को अगर आदमी सिर्फ धूल है, तो दोनों तरह से देखा जा सकता है - या तो कोई बन रहा है, या कोई मिट रहा है। असल जब भी कोई बन रहा है, तभी कोई मिट भी रहा है। और कहीं दूर नहीं, वहीं। जहां बनना चल रहा है, वहीं मिटना चल रहा है। यहां तो सभी कुछ विनाश है। यहां ठहराव नहीं है। यहां तो सभी कुछ नदी की धार की तरह बह रहा है। छू भी नहीं पाते किनारा कि छूट जाता है। मिलन हो भी नहीं पाता कि विदा की घड़ी आ जाती है। और कृष्ण कहते हैं, वह जिसका विनाश नहीं है, वह है ब्रह्म । अर्जुन शायद ही समझ पाए। असल में अर्जुन तो मान ही यह रहा है कि मैं इन लोगों को अगर मारूं जो सामने खड़े हैं, तो विनाश के लिए मैं जिम्मेवार हो जाऊंगा। लेकिन कृष्ण यह कह रहे हैं कि यहां तो जो है, वह सभी विनाशवान है। और अगर तू अविनाश में ठहरना चाहता है कि तुझसे विनाश न हो, तो तुझे ब्रह्म में ठहरना पड़ेगा। लेकिन वह ब्रह्म कहां है? वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि आंख जिसे देख सकती है, वह नष्ट होगा। वह कहीं सुनाई नहीं पड़ता; क्योंकि कान जिसे सुन सकते हैं, वह खो जाएगा। उसका कहीं स्पर्श नहीं होता; क्योंकि हाथ जिसे छू सकते हैं, वह नष्ट होगा ही। इंद्रियां जिसे जान सकती हैं, वह विनाश का क्षेत्र है। असल में इंद्रियां जान ही उसे सकती हैं, जो बन रहा है या मिट रहा है। उसे नहीं, जो है, दैट व्हिच इज़; उसे नहीं, जो है। अगर उस है को जानना है, तो उसे जानने का उपाय इंद्रियां नहीं हैं। स्वयं के अंतस में उस जगह को खोज लेना है, जहां इंद्रियों की कोई गति नहीं होती है। लेकिन वह कहां है? भीतर भी अगर हम देखने जाएं, तो भी तो वह नहीं मिलता। भीतर देखने जाएं, तो मन दिखाई पड़ता है, वह भी विनाशवान है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वभाव अध्यात्म है । सुबह मेरे पास कोई आता है और कहता है, अपरिसीम आनंद बदलता है, लेकिन एक बात पता चल गई कि सिर्फ रूप ही बदलता में हूं। और उसकी बात मैं सुनता हूं और उसकी आंखों में झांकता | है। लेकिन रूप के पीछे कुछ है जरूर, जो नहीं बदलता है। उसका हूं और सोचता हूं, कितनी देर लगेगी कि यह आकर मुझे कहेगा, | कोई पता नहीं है। इसलिए विज्ञान की खोज निगेटिव है, वह उदासी फिर आ गई! ज्यादा देर नहीं लगेगी। भीतर भी मन में | नकारात्मक है। उसे एक बात पता चल गई कि जो बदलता है, वह जो बनता है. वह भी बिगडता रहता है। और हम मन के अतिरिक्त कुछ जानते नहीं। लेकिन रूप के भीतर कुछ न बदलने वाला भी सदा मौजूद है, कृष्ण कहते हैं और बड़ी छोटी परिभाषा, इससे छोटी और क्या | अन्यथा रूप भी बदलेगा कैसे? किस पर बदलेगा? बदलाहट के परिभाषा होगी-कि वह, जिसका नाश नहीं होता है, वह ब्रह्म है। | लिए भी एक न बदलने वाला आधार चाहिए। परिवर्तन के लिए भी क्या है वह जिसका नाश नहीं होता है? कहां है? कौन है? एक शाश्वत तत्व चाहिए। और दो परिवर्तन के बीच में जोड़ने के दो-तीन बातें समझ में खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। लिए भी कोई अपरिवर्तित कड़ी चाहिए। एक तो, जहां भी आप विनाश देखें, वहां एक बात गौर से क्या आपने कभी खयाल किया कि जब पानी भाप बनता है, तो देखना, सिर्फ रूप विनष्ट होता है, रूपायित नहीं। आकार विनष्ट जरूर बीच में एक क्षण होता होगा, एक गैप, इंटरवल, जब पानी होता है, लेकिन जो आकार के भीतर था, वह नहीं। दि कंटेनर तो | भी नहीं होता और भाप भी नहीं होती। लेकिन अभी विज्ञान को उस नष्ट हो जाता है, बट दि कंटेंट, वह नष्ट नहीं होता। पानी को भाप | गैप का, उस अंतराल का कोई पता नहीं है। विज्ञान कहता है, पानी बना दो, तो पानी तो विनष्ट हो गया; लेकिन क्या सच ही पानी | हम जानते हैं; गर्म करते हैं; फिर एक क्षण आता है कि भाप को विनष्ट हो गया? तो फिर भाप में कौन है? भाप को ठंडा कर लो, | हम जानते हैं। भाप विनष्ट हो गई; लेकिन क्या सच में ही विनष्ट हो गई? क्योंकि | लेकिन पानी और भाप के बीच में कोई एक क्षण जरूरी है; अब जो पानी है, उसमें कौन है? नहीं; विनाश सिर्फ रूप होता है, क्योंकि जब तक पानी पानी है, तो पानी है; और जब वह भाप हो आकार होता है; रूपायित, रूप से जो घिरा है, वह नहीं। गया, तो भाप हो गया। लेकिन कोई एक क्षण चाहिए, जब पानी लेकिन हमें रूप ही दिखाई पड़ता है, क्योंकि इंद्रियां रूप को ही | | के भीतर की जो वस्तु है, जो कंटेंट है, जो आत्मा है, वह पानी भी देख सकती हैं। वह जो रूप में घिरा है, वह नहीं। जब आप जल | न हो। क्योंकि अगर वह पानी होगी, तो भाप न हो सकेगी। और को देखते हैं, तो आप उसको कभी नहीं देख पाते, जो जल के भीतर | | भाप भी न हो, क्योंकि अगर वह भाप हो चुकी होगी, तो पानी न छिपा है। सिर्फ रूप! फिर गर्मी दे दी, रूप बदल गया। भाप बन होगी। एक क्षण के लिए न्यूट्रल... गई। भाप को भी जब आप देखते हैं, तब फिर एक रूप, एक फार्म, __ जैसे कोई आदमी गाड़ी के गेयर बदलता है, तो अगर पहले गेयर एक आकार! फिर भी वह नहीं दिखाई पड़ता, जो भीतर छिपा है। से दूसरे गेयर में गाड़ी डालता है, तो चाहे कितनी ही त्वरा से डाले, वह जो भीतर छिपा है, वह तो विनष्ट नहीं होता। कितनी ही तेजी से डाले, चाहे आटोमैटिक ही क्यों न हो गेयर, विज्ञान कहता है, कोई भी चीज विनष्ट नहीं होती। यह बहत मजे | आदमी को डालना भी न पड़े, पर बीच में एक न्यूट्रल, एक तटस्थ की बात है। विज्ञान की तीन सौ वर्षों की खोज कहती हैं कि कोई | क्षण है, जब गेयर ऐसी जगह से गुजरता है, जहां वह पहले गेयर भी चीज विनष्ट नहीं होती। और कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो विनष्ट | में नहीं होता और दूसरे में पहुंचा नहीं होता। यह जरूरी क्षण है, यह नहीं होता, वही ब्रह्म है। क्या विज्ञान को कहीं से कोई गंध मिलनी | कड़ी है। शुरू हो गई ब्रह्म की? क्या कहीं से कोई झलक विज्ञान को पकड़ लेकिन इस कड़ी का विज्ञान को अनुमान भर होता है। और वही में आनी शुरू हुई उसकी, जो विनष्ट नहीं होता? कड़ी ब्रह्म है। लेकिन इंद्रियों के द्वारा अनुमान भी हो जाए तो बहुत झलक नहीं मिली, लेकिन अनुमान मिला है। नाट ए ग्लिम्प्स, है। बट जस्ट एन इनफरेंस। एक अनुमान विज्ञान के हाथ में आ गया है। ___ कृष्ण कहते हैं, वह जो नहीं नाश को उपलब्ध होता है, वही उसको एक बात खयाल में आ गई है कि सिर्फ रूप ही बदलता है। ब्रह्म है। ध्यान रहे, विज्ञान को अभी उसका कोई पता नहीं चला जो नहीं | | कहां है वह ब्रह्म? अगर आप रूप को देखते रहेंगे, तो वह ब्रह्म Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन अरूप को कैसे देखें ? कहां देखें ? पानी दिखता है, भाप दिखती है, बीच का वह अरूप तो दिखाई नहीं पड़ता। अगर उसे देखना हो, तो सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं में ही उस अरूप को देखना पड़ता है। जब आपका एक विचार जाता है और दूसरा आता है, तो दोनों विचारों के बीच में भी फिर वही कड़ी होती है, जब कोई विचार नहीं होता । विचार एक रूप है, दूसरा विचार दूसरा रूप है - थाट फार्म है— विचार की अपनी आकृतियां हैं। यह जानकर आप हैरान होंगे कि विचार भी आकृतिहीन नहीं हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है। जब आप प्रेम में होते हैं, तब आपके चित्त की आकृति भिन्न होती है। कभी आपने खयाल किया, जब आप कंजूसी से भरे होते हैं, तो सिर्फ कंजूसी नहीं होती, भीतर भी कोई चीज सिकुड़ जाती है। जब आप किसी को प्रेम से कुछ देते हैं, तो सिर्फ देना बाहर ही नहीं घटता, भीतर भी कुछ फैल जाता है। आकार है। जब हम कहते हैं। कंजूस, तो उस शब्द में भी सिकुड़ने का भाव है; कोई चीज सिकुड़ गई है। जब हम कहते हैं दानी, वाला, प्रेमी, बांटने वाला, तो कोई चीज बंटती है और फैल जाती है। प्रत्येक विचार का आकार है । और आपके भीतर प्रतिपल आकार बदलते रहते हैं। आपके चेहरे पर भी आकार छप जाते हैं। जो आदमी निरंतर क्रोध करता है, वह जब नहीं भी क्रोध करता है, तब भी लगता है, क्रोध में है। वह निरंतर क्रोध की जो आकृति है, उसके चेहरे पर स्थायी हो जाती है और फिर चेहरा उसको छोड़ता नहीं। क्योंकि चेहरे पता है कि कभी भी अभी थोड़ी देर में फिर जरूरत पड़ेगी। वह पकड़े रखता है, जस्ट टु बी इफिशिएंट, कुशल होने की दृष्टि से । अब ठीक है, जब बार- बार जरूरत पड़ती है, तो उसको हटाने की आवश्यकता भी क्या है! जब तक हटाएंगे, तब तक पुनः आवश्यकता आ जाएगी। तो रहने दो। तो फिक्स्ड इमेज बैठ जाती है चेहरे पर, सभी लोगों के। और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि पीछा ही नहीं छोड़ता । हजरत मूसा के संबंध में सुना है। हजरत मूसा दुनिया के उन थोड़े-से लोगों में एक हैं, कृष्ण या बुद्ध या महावीर जैसे एक सम्राट ने अपने चित्रकार को कहा कि तू जा और हजरत मूसा का एक चित्र बना ला। हजरत मूसा जिंदा थे। वह चित्रकार गया और 8 चित्र बना लाया। सम्राट ने चित्र देखा और उसने कहा कि जो कुछ हजरत मूसा के संबंध में मैंने सुना है उसमें और इस चित्र में बहुत फर्क मालूम पड़ता है। यह चित्र देखकर मालूम पड़ता है कि किसी बहुत दुष्ट, हिंसक, क्रोधी आदमी का चित्र है। इसमें हजरत मूसा की खबर नहीं मिलती। उस चित्रकार ने कहा कि आश्चर्य ! आपने कभी हजरत मूसा को | देखा? उस सम्राट ने कहा, मैंने देखा नहीं है, सुना है उनके बाबत ; और उनसे मेरा लगाव भी बन गया। इसीलिए तो चित्र बनाने तुझे भेजा। तो उसने कहा कि मैं देखकर आ रहा हूं। महीनों बैठकर इस चित्र को मैंने बनाया है। इसमें रत्तीभर भूल नहीं है। और हजरत मूसा से पूछकर आया हूं कि चित्र ठीक बन गया जनाब ! उन्होंने कहा कि बिलकुल ठीक है। तब आया हूं। | सम्राट ने कहा, लेकिन कहीं न कहीं कुछ न कुछ भूल है । और मालूम होता है कि हजरत मूसा या तो दयावश तुझसे कह दिए कि ठीक है, या उन्होंने अपनी शक्ल कभी आईने में न देखी होगी। और कोई कारण नहीं हो सकता। लेकिन सम्राट की यह जिद्द, जिसने देखा न हो मूसा को हैरानी की थी। चित्रकार ने कहा, फिर चलिए । और हजरत मूसा के पास चित्रकार और सम्राट पहुंचे। सम्राट भी थोड़ा हैरान हुआ चेहरे को देखकर। चित्रकार ही ठीक मालूम | पड़ता है। बाजी हार गया मालूम हुआ उसे। फिर भी पूरी बाजी हार | जाने के बाद सम्राट ने मूसा से कहा कि एक सवाल मैं पूछने आया हूं। एक बाजी हार गया इस चित्रकार के साथ। पूछना मुझे यही है। | कि जो कुछ मैंने आपके संबंध में सुना है, उसे सुनकर मैंने आपकी एक आकृति बनाई थी, लेकिन इस आकृति में वह बात नहीं है। हजरत मूसा ने कहा, यह आकृति मेरी पुरानी है और पीछा नहीं | छोड़ती। आज से बीस साल पहले ही हुआ करता था। जो कुछ इस चित्र में है, वही हुआ करता था। ऐसा ही क्रोधी, ऐसा ही दुष्ट ऐसा ही हिंसा से भरा हुआ। अब सब बदल गया, लेकिन चेहरे पर पुराने चिह्न रह गए हैं। चिह्न छूट जाते हैं। विचार भी आकृति रखता है, भाव भी आकृति | रखता है। इन आकृतियों के बीच में अगर आप देख पाएं, तो अरूप का दर्शन होता है। दो विचार के बीच में खड़े जाएं, दो विचार के बीच में झांक लें, दो विचार के बीच में जो खाली जगह छूटे, स्पेस बने, उसमें डूब जाएं और आपको अरूष का दर्शन हो जाए। भीतर अगर हो जाए, तो फिर आप बाहर भी दो आकारों के बीच में कद सकते हैं और निराकार को जान सकते हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वभाव अध्यात्म है * कृष्ण कहते हैं, वही है ब्रह्म, जिसका कभी नाश नहीं होता। छोड़ती; वह असर्ट करती है। तब फिर रूप का संघर्ष शुरू हो जाता रूप का नाश है, अरूप का नाश नहीं, अरूप है ब्रह्म। ऐसा | है। किसी तरह बामुश्किल जिंदगी के साथ ठहर नहीं पाते कि मौत सच्चिदानंद, विनाश जिसका नहीं होता, वही ब्रह्म है। दरवाजे पर दस्तक दे देती है कि चलो, वक्त हो गया। इधर अभी निश्चित ही, बार-बार कृष्ण जैसे लोग कहते हैं कि वह ब्रह्म हम आ भी नहीं पाए थे, उधर जाने का वक्त हो गया। ठहर भी नहीं सच्चिदानंद है, परमानंद है, अंतिम आनंद है। यह क्यों दोहराते हैं! | पाए थे कि तंबू उखाड़ो। अभी बल्लियां गाड़ ही रहे थे, अभी असल में जहां-जहां रूप है, वहां-वहां मत्य होगी। क्योंकि एक | खूटियां लगाई ही थीं, अभी तंबू पूरा फैल भी नहीं पाया था। रूप दूसरे रूप में बदलेगा। और जहां-जहां रूप है, वहां विनाश | __ किसका तंबू कब पूरा फैल पाता है! खूटियां गड़ी रह जाती हैं, होगा। विनाश होगा, तो पीड़ा होगी, बीमारी होगी, संताप होगा, उखड़ने का वक्त आ जाता है। इधर हम तैयारी कर रहे थे कि और चिंता होगी। हम एक रूप को पकड़ लेंगे, फिर दूसरा रूप आएगा। खूटियां कैसे गाड़ें, कि खबर आती है, उखाड़ो, वक्त जाने का हो हम बचपन को पकड़ लेंगे, फिर जवानी आने लगेगी, तो बचपन का | गया। तंबू समेटो! रूप नष्ट होगा। फिर बच्चे को पीड़ा होगी। वह तकलीफ में पड़ेगा। ___ एक रूप बन नहीं पाता कि दूसरा रूप भीतर से आकर खबर देता पश्चिम के मनोवैज्ञानिक अनुभव कर रहे हैं कि वह जो | | है कि चलने की तैयारी है। इसलिए रूप के साथ कभी भी आनंद एडॉलसेंस है, वह जो एक उम्र है दस साल से चौदह साल के बीच नहीं हो सकता। आकार के साथ कभी आनंद नहीं हो सकता। दुख की, वह बड़ी पीड़ा की है। क्योंकि बच्चा छोड़ नहीं पाता अपने | ही होगा, संताप ही होगा, एंग्विश ही होगी, नर्क ही होगा। पुराने फार्म को, अपनी पुरानी आकृति को, और नई आकृति उसमें | | इसलिए कृष्ण जैसे लोग बार-बार दोहराते हैं कि वह जो अरूप बनने लगती है। तो वह काम बच्चों जैसे भी करता है और अकड़ | है, वह जो शाश्वत है, वह जो नहीं विनष्ट होता है, वह परम आनंद बड़ों जैसी भी दिखाता है। यह बड़े लोगों को भी, मां-बाप को भी | भी है। समझ में नहीं आती है। दोनों बातें एक साथ करने लगता है। पुराना और अपना स्वरूप अर्थात स्वभाव अध्यात्म है। रूप भी उससे छोड़ा नहीं जाता, तो अपनी मां की साड़ी का पुछल्ला बड़ी कीमत का सूत्र कहा है। यह एक सूत्र भी गीता को गीता पकड़कर भी घूमना चाहता है; और मां अगर जरा डांट दे, तो वह बना देने के लिए काफी है। बाकी सब फेंक दिया जाए, तो चलेगा। पूरा सिर ऊंचा उठाकर खड़ा हो जाता है, तो बाप की ऊंचाई का हो स्वभाव अध्यात्म है—काफी है। जाता है। और मां के सामने घूरकर देख ले, तो मां भी घबड़ा जाती . लाओत्से ने अपनी जिंदगीभर इस सूत्र के अतिरिक्त किसी सूत्र है। और ये दोनों उसमें होते हैं। की व्याख्या नहीं की स्वभाव अध्यात्म है। इसलिए एडॉलसेंस जो है, वह बड़ी पीड़ा का वक्त है। पुराना नहीं, लेकिन गीता पढ़ने वाले को भी इस सूत्र पर ज्यादा ध्यान — रूप छूटता नहीं, नया रूप असर्ट करता है, तोड़ता है। जैसे बीज | नहीं जाता कि स्वभाव अध्यात्म है। क्या मतलब है? टूटता हो, तो पीड़ा तो होगी। फिर एक आदमी बामुश्किल इसमें __ स्वभाव अध्यात्म है का अर्थ है कि अपने भीतर उसकी तलाश प्रवेश कर जाता है। काफी वक्त लगता है। किसी तरह प्रवेश कर | कर लेनी है, जो सदा से है और मेरा बनाया हुआ नहीं है। स्वभाव जाता है। फिर जवानी के साथ ठहर जाता है। तो थोड़े ही दिनों में | | अध्यात्म है, इसका अर्थ है, मुझे उसे खोज लेना है, जिसके द्वारा बुढ़ापा धक्के देने लगता है। तो बड़ी मुश्किल होती है; फिर बड़ी | | मेरा सब कुछ बना है और जो स्वयं अनबना है, अनक्रिएटेड है। मुश्किल होती है। लेकिन हम सब तो इतने कृत्रिम हैं कि उस स्वभाव का पता मुल्ला नसरुद्दीन से किसी ने पूछा है; एक दिन शराबघर से | | लगाना बहुत मुश्किल होगा। हम तो कृत्रिम होने की एक इतनी बड़ी लौटता है, एक मित्र ने उससे कहा कि नसरुद्दीन, बुढ़ापे के लक्षण | | भीड़ हैं कि हम कौन हैं, हमें इसका ही पता नहीं है। शुरू हो गए। तुम्हारे बाल सफेद पड़ने लगे। नसरुद्दीन ने कहा, स्वभाव अध्यात्म है। फिक्र छोड़ो बालों की। बाल हो जाएं सफेद, दिल तो अभी भी | ___ मैं कौन हूं, यह मुझे पता नहीं! ऐसा नहीं कि मुझे पता नहीं कि काला है। मैं कौन हूं। कौन हूं, बहुत कुछ मुझे पता है, लेकिन वह कोई भी बाल जब सफेद हो जाते हैं, तब भी जवानी पीछा तो नहीं | | स्वभाव नहीं है। वह सब सीखा हुआ है, कल्टिवेटेड है। जरा कुछ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 दो-चार जगह से खोज करें. तो शायद खयाल में आ जाए। खड़ी हो गई थी, वह कैसी उदास लौटती है! बेकार! मैं एक भाषा बोल रहा हूं। अगर मैं इस भाषा बोलने वाले लोगों । उसने कहा, क्या मामला है? अकेले! नसरुद्दीन ने कहा, के घर में पैदा न होता, मैं दूसरी भाषा बोलता, तीसरी बोलता। | | बिलकुल अकेला। उसने कहा, तुम अभी विवाद कर रहे थे किसी जमीन पर कोई तीन सौ भाषाएं हैं। किसी भी घर में पैदा हो सकता से? उसने कहा, किसी से कर नहीं रहा था। आज कोई बकवासी था तीन सौ भाषाओं के, तो वही भाषा बोलता। आया ही नहीं, तो फिर चैन नहीं पड़ी। तो मैं खुद ही कर रहा था। भाषा स्वभाव नहीं है, ट्रेनिंग है, सिखाई गई है। इसलिए इस भ्रम | | उस आदमी ने कहा कि अकेले? अकेले कर रहे थे! समझ में में कोई न रहे कि अगर आपको न सिखाया जाए, तो भी आप कोई | आता है कि आदमी अकेले में कभी-कभी बातचीत करता है। तो भाषा बोलेंगे। नहीं, कोई भाषा न बोलेंगे। अगर आपको जंगल लेकिन वह भी चुपचाप करता है, क्योंकि जब दसरा है ही नहीं में छोड़ दिया जाए पैदा होते ही से और भेड़िए आपको पाल लें, तो | सुनने वाला, तो जोर से बोलने की जरूरत क्या है! भीतर ही करो, आप कोई भी भाषा नहीं बोलेंगे। जैसा सब करते हैं! , और ऐसा नहीं कि यह मैं कल्पना से कह रहा हूं। ऐसी घटनाएं नसरुद्दीन ने कहा कि उसमें बहुत मजा नहीं आता, क्योंकि अपने घटी हैं बहुत, जब भेड़िए बच्चों को उठाकर ले गए और उन्होंने और उन्होंने | | को पता ही नहीं चलता, क्या कह रहे हैं। सनना भी जरूरी है। और उनको बड़ा कर लिया। वे बच्चे कोई भी भाषा नहीं बोल सकते। | इधर कुछ दिन से मैं जरा कम सुनने लगा हूं। उम्र है। तो जब तक हां भेड़ियों की गुर्राहट कर सकते हैं; उतनी भाषा बोल सकते हैं। | जोर से न बोलूं, सुनाई नहीं पड़ता। क्यों? क्योंकि भाषा सीखनी पड़ती है। तो उस आदमी ने कहा, यह भी मान लो कि तुम बहरे हो गए हो लेकिन भाषा के पीछे छिपा हुआ एक तत्व और है, वह है मौन। और जोर से सुनने के लिए बोल रहे हो, लेकिन इसमें विवाद की मौन सीखना नहीं पड़ता। इसलिए भाषा कृत्रिम है; मौन स्वभाव है। कहां गुंजाइश है, क्योंकि दूसरा तो मौजूद ही नहीं है! यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। इस तरह एक-एक चीज | नसरुद्दीन ने कहा कि मुझे दोनों रोल अदा करने पड़ रहे हैं। इधर की पर्त भीतर है। एक चीज सीखी हुई है-कई चीजें सीखी हुई हैं | | से भी बोल रहा हूं, उधर से भी बोल रहा हूं। ऊपर-भीतर कहीं खोजने पर वह जगह मिल जाएगी, जो | फिर भी उस आदमी ने कहा कि होगा, दोनों तरफ से बोलो, फिर स्वभाव है। भी इतनी तेजी की क्या जरूरत है? तुमको पता ही है कि तुम्हीं दोनों मौन स्वभाव है। इसलिए मौन साधना बन गया। क्योंकि वह तरफ हो! स्वभाव में ले जाने का मार्ग है, हो सकता है। लेकिन अगर आप | नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी बकवासी की बातें कभी नहीं सुन चुप बैठकर भीतर भी बोलते चले जाएं, जैसा कि हम करते हैं। और | | पाता। और जब उस तरफ से मैं बकवास करता हूं, तो इस तरफ से आमतौर से जब कोई नहीं होता, तब हम जितने जोर से बोलते हैं, | क्रोध आ जाता है। और जब इस तरफ से बकवास करता हूं, तो उतना जब कोई होता है, तो नहीं बोलते। क्योंकि दूसरे का भी थोड़ा | उस तरफ से क्रोध आ जाता है! तो लिहाज रखना ही पड़ता है। सभी लोग यही कर रहे हैं। अकेले में भी, वह जो मौन लेकर मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने कमरे में जोर से किसी से विवाद | | बैठा हुआ है, वह भीतर इतनी बकवास और इतने विवाद में पड़ा कर रहा है। बाहर से उसका एक मित्र निकल रहा है। उसने खिड़की हुआ है, जिसका हिसाब नहीं। से झांककर देखा। विवाद काफी रोचक है और तेजी पर आ गया मौन का अर्थ? मौन का अर्थ यह नहीं कि होंठ बंद हो गए। मौन है, और मारपीट होगी, ऐसे आसार हैं। मारपीट छोड़कर तो कोई | का अर्थ है, भीतर भाषा बंद हो गई, भाषा गिर गई। जैसे कोई भाषा नहीं जा सकता कहीं, हालांकि वह मित्र मस्जिद जा रहा था। तो | ही पता नहीं है। और अगर आदमी स्वस्थ हो, तो जब अकेला हो, उसने सोचा, जाने भी दो आज। आकर दरवाजा खटखटाया। अंदर उसे भाषा पता नहीं होनी चाहिए। क्योंकि भाषा दूसरे के साथ जाकर देखा तो मुल्ला अकेला है! बड़ी निराशा हुई। जैसी कि सभी | | कम्युनिकेट करने का साधन है, अकेले में भाषा के जानने की को होती है। अगर दो आदमी लड़ रहे हों और फिर लड़ाई न हो | | जरूरत नहीं है। अगर वह भाषा गिर जाए, तो जो मौन भीतर बनेगा, और दोनों अचानक अहिंसात्मक हो जाएं, तो देखा है, भीड़ जो वह स्वभाव है, वह किसी ने सिखाया नहीं है। 10 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *स्वभाव अध्यात्म है मैं किसी भी भाषा वाले घर में पैदा हो जाऊं, हिंदी बोलूं कि | ___ एक उदाहरण से मैंने कहा, भाषा न हो, तो मौन स्वभाव हो मराठी कि गुजराती, कुछ भी बोलूं, लेकिन जिस दिन मैं मौन में || जाएगा। एकाध और खयाल ले लें, तो यह बात साफ, जाऊंगा, उस दिन मेरा मौन न गुजराती होगा, न हिंदी होगा, न | शायद-शायद-साफ हो जाए। मराठी होगा। सिर्फ मौन होगा; वह स्वभाव है। कभी आपने आंख बंद करके यह खयाल किया कि मेरे शरीर . हम इतने लोग यहां बैठे हैं। अगर हम शब्दों में जीएं, तो हम | | की आकृति को छोड़ दं, तो मेरी आकृति क्या है? कभी आपने सब अलग-अलग हैं। और अगर हम मौन में जीएं, तो हम सब | | खयाल किया कि आंख बंद करके बैठ गए हों, और सोचा हो कि एक हैं। अगर इतने बैठे हुए लोग यहां मौन हो जाएं क्षणभर को, | शरीर का खयाल छोड़ दूं कि शरीर की आकृति क्या है, मेरी आकृति तो यहां इतने लोग नहीं, एक ही व्यक्ति रह जाएगा। एक ही!| क्या है? इस शरीर के भीतर जो मेरा होना है, उसकी आकृति, बिकाज लैंग्वेज इज़ दि डिवीजन। भाषा तोड़ती है। मौन तो जोड़ | उसका आकार, उसका रूप क्या है? देगा। हम एक ही हो जाएंगे। नहीं, हम शरीर के ही रूप को अपना रूप समझते हैं। हालांकि और ऐसा ही नहीं कि हम व्यक्तियों से एक हो जाएंगे। भाषा के | | शरीर रोज अपना रूप बदल रहा है, फिर भी हमें खयाल नहीं कारण हम मकान से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम वृक्ष | आता। अगर आपके सामने तस्वीर रख दी जाए आपकी ही, एक से एक नहीं हो सकते। भाषा के कारण हम चांद-तारों से एक नहीं | | दिन के जीवन की, जब आप एक दिन के हुए थे उस दिन की, आप हो सकते। लेकिन मौन में तो हम उनसे भी एक हो जाएंगे। आखिर पहचान नहीं सकेंगे कि आपकी तस्वीर है। हालांकि उस दिन आपने मौन में क्या बाधा है कि मैं चांद से बोल लूं! मौन में क्या बाधा है। माना होगा कि यह मेरा रूप है। आज जो आपकी तस्वीर है, आप कि चांद से हो जाए बातचीत-बातचीत मुझे कहनी पड़ रही बीस साल बाद नहीं पहचान पाएंगे कि यह मेरी तस्वीर है। यह मैं है कि चांद से हो जाए संवाद, मौन में! भाषा में तो नहीं हो | हूं! लेकिन आज आप कह रहे हैं, मैं हूं। बीस साल बाद दूसरी सकता; मौन में हो सकता है। | तस्वीर को कहेंगे कि मैं हूं। यह तस्वीरों की श्रृंखला, इसे आप इसलिए जो लोग गहरे मौन में गए, जैसे महावीर। इसलिए कहते हैं, मैं हूँ! महावीर का जो सर्वाधिक प्रख्यात नाम बन गया, वह बन गया मुनि, झेन फकीर कहते हैं, फाइंड आउट योर ओरिजिनल फेस, अपना महामुनि। मौन में गए। इसलिए आज भी महावीर का संन्यासी जो | | असली चेहरा खोजो। वे कहते हैं, इस चेहरे को भूलो, जो तुमने है. मनि कहा जाता है, हालांकि मौन में बिलकुल नहीं है। आईने में देखा। महा मौन में चले गए। और इसीलिए महावीर कह सके कि जिस चेहरे को देखने के लिए भी आईने की जरूरत पड़ती है, वनस्पति को भी चोट मत पहुंचाना। रास्ते पर चलते वक्त कीड़ी भी | वह चेहरा अपना नहीं हो सकता। कम से कम अपना चेहरा तो बिना न दब जाए, इसका खयाल रखना। यह महावीर को पता कैसे चला | | आईने के दिखाई पड़ जाना चाहिए। अपना! उसे भी देखने के लिए कि कीड़ी की इतनी चिंता करनी चाहिए! आईना चाहिए? वह भी उधार; वह भी वापस रिफ्लेक्टेड; आईना जो भी आदमी मौन में जाएगा, उसके संबंध चींटी से भी उसी जो कहेगा! तरह जुड़ जाते हैं, वृक्ष से भी उसी तरह जड़ जाते हैं, पत्थर से भी और ध्यान रखें, कोई आईना सच नहीं कह सकता। कोई आईना उसी तरह जुड़ जाते हैं, जैसे आदमियों से जुड़ते हैं। अब उसके लिए | | सच नहीं कह सकता। आईना अपनी भाषा में कुछ कहेगा; आईने जीवन सर्वव्यापी हो गया। अब सबमें एक का ही विस्तार हो गया। | के ढंग से कहेगा। तो आपने आईने देखे होंगे, जिनमें आप लंबे हो अब यह चींटी नहीं है, जो दब जाएगी, जीवन है। और यह वृक्ष | गए हैं, मोटे हो गए हैं, दुबले हो गए हैं, चेहरा कुरूप हो गया है। नहीं है, जो कट जाएगा, जीवन है। अब जहां भी कुछ घटता है, | वे आईने अपनी-अपनी भाषा में बोल रहे हैं। एक हमने कामन वह जीवन पर घटता है। और मौन में होकर जिसने इस विराट आईना बना रखा है, सबको धोखा देने के लिए। उसके सामने हम जीवन को अनुभव किया, जब भी कहीं कुछ कटता है, तो मैं ही खड़े हो जाते हैं; समझ लेते हैं, यही मेरा चेहरा है; यही। कटता हूं फिर, फिर कोई दूसरा नहीं कटता है। नहीं, भीतर कभी चुप और मौन होकर आंख बंद करके शरीर कृष्ण कहते हैं, स्वभाव अध्यात्म है। को कहें कि ठीक, तेरी यह आकृति है, मान गए। मेरी आकृति क्या Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 * है ? जिसके ऊपर यह शरीर की सारी आकृतियां बदलती रहती हैं, उसकी आकृति क्या है ? अगर आप उसकी आकृति को खोजने उतरें, तो धीरे-धीरे सब आकृतियां खो जाएंगी और निराकार में आप खड़े हो जाएंगे। उस निराकार में स्वभाव है। शरीर की आकृतियों में सब कृत्रिमता है। यह मां-बाप से दी गई आकृति है आपको। आपको शायद पता न हो, लेकिन जरूर अच्छा होगा जान लेना। अभी तो जमीन पर एक ही शक्ल आदमी नहीं होते। ठीक जुड़वां बच्चों में भी थोड़ा-सा फर्क होता है। एक अंडे से हुए दो बच्चों में भी थोड़ा-सा फर्क होता है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि अब हम डुप्लीकेट कापी तैयार कर सकते हैं। अब हर आदमी की नकल तैयार की जा सकती है; क्योंकि फार्मूला खयाल में आ गया है। फार्मूला बहुत कठिन नहीं था; खयाल : नहीं था । जिन अणुओं से बच्चे का निर्माण होता है मां के पेट में, ठीक अणुओं को दो हिस्सों में काटा जा सकता है, पहले ही अंडे में । और एक अंडे के दो अंडे बनाए जा सकते हैं अब । तब उन दोनों में से बिलकुल एक-सी आकृति के दो आदमी पैदा होंगे, बिलकुल एक-सी । यह तो वैज्ञानिकों की जरूरत है फिलहाल अभी । क्योंकि वे कहते यह हैं कि हर एक आदमी को आने वाले पचास सालों में कम से कम उन लोगों को, जिनकी लोगों को ज्यादा जरूरत होगी — उसकी एक कापी हम, डुप्लीकेट कापी, जैसे ही वह मां के पेट में पहुंचेगा पहले दिन, उसी क्षण निकालकर, आधे हिस्से को काटकर, अलग तैयार कर लेंगे मशीन में। उधर मां के पेट में जो बच्चा बड़ा होगा, ठीक ऐसा ही बच्चा मशीन में बड़ा होता जाएगा। इस बच्चे को बड़ा करके, फ्रीज करके रख दिया जाएगा। यह करीब-करीब मुर्दा ही रहेगा। इसे इसलिए रख दिया जाएगा कि आने वाली दुनिया में दुर्घटनाएं रोज बढ़ती चली जाएंगी जैसे-जैसे विज्ञान विकसित होगा; और लोगों को रोज ही स्पेयर पार्ट्स की जरूरत पड़ती रहेगी, तो उसकी खोज नहीं करनी पड़ेगी। यह उनकी डिपाजिट जो कापी है, इसमें से कभी भी एक आदमी का हाथ टूट गया, तो उसका हाथ काटकर इसमें लगा दिया जाएगा। वह बिलकुल फिट हो जाएगा, क्योंकि वह इसका ही हाथ है। गर्दन भी कट गई, तो उसकी गर्दन इस पर बिठाई जा सकेगी। एक जैसे दस-बारह आदमी भी तैयार किए जा सकते हैं, कापी की जा सकती है, कोई हर्जा नहीं । लेकिन फिर भी फर्क कायम रहेंगे। क्योंकि शरीर एक जैसे हो | सकते हैं। वह जो भीतर है, वह बहुत यूनीक है, वह बहुत बेजोड़ | है । इसलिए अगर दो कापी भी विज्ञान बना लेता है, तो शरीर बिलकुल एक जैसे होंगे, लेकिन व्यक्ति बिलकुल अलग-अलग होंगे। वह कौन है भीतर, जो अलग है शरीर से ? और दो शरीर भी एक जैसे हो जाएं, तो भी भीतर अलग होता है ! शरीर को भूलकर, इसका थोड़ा खयाल करें। इस खयाल को दो तरह से कर सकते हैं, और स्वभाव की थोड़ी सी झलक मिल | सकती है, वही अध्यात्म है। तो एक छोटा-सा प्रयोग आपको कहता हूं। कभी जब चित्त बहुत प्रसन्न हो, कभी जब चित्त बहुत प्रसन्न हो, तो द्वार - दरवाजे बंद करके अपने कमरे में लेट जाएं नग्न होकर; आंख बंद कर लें। और एक मिनट तक अपने माथे पर हाथ रखकर दोनों आंखों के बीच में एक मिनट तक रगड़ते रहें। चित्त अगर प्रसन्न हो, तो माथे पर रगड़ते ही सारी प्रसन्नता माथे पर इकट्ठी हो जाएगी। ध्यान रहे, जब आदमी उदास होता है, तो अक्सर माथे पर रखता है। माथे पर हाथ रखने से उदासी बिखरती है और प्रसन्नता इकट्ठी होती है। हालांकि प्रसन्नता में कोई नहीं रखता, उसका खयाल नहीं है। जब आदमी उदास होता है, दुखी होता है, चिंतित होता है, तो माथे पर हाथ रखता है। उससे चिंता बिखर जाती है; उस जगह जो | इकट्ठा है, वह बिखर जाता है। निगेटिव कुछ होगा, तो माथे पर हाथ रखने से बिखर जाता है । पाजिटिव कुछ होगा, तो माथे पर | हाथ रखने से इकट्ठा हो जाता है। इसलिए मैंने कहा, जब प्रसन्न क्षण हो मन का कोई, लेट जाएं, माथे पर एक क्षण रगड़ लें जोर से हाथ से, अपने ही हाथ से । वह | जगह बीच में जो है, वह बहुत कीमती जगह है। शरीर में शायद सर्वाधिक कीमती जगह है। वहां अध्यात्म का सारा राज छिपा है। थर्ड आई कोई कहता है उसे, कोई शिवनेत्र; उसे कोई भी कुछ नाम | देता हो, पर वहां राज छिपा है। उस पर हाथ रगड़ लें। उस पर हाथ रगड़ने के बाद जब आपको लगे कि प्रसन्नता सारे शरीर से दौड़ने लगी है उस तरफ, आंख बंद रखें और सोचें कि मेरा सिर कहां है ! खयाल करें आप आंख बंद करके कि मेरा सिर कहां है! आपको बराबर पता चल जाएगा कि सिर कहां है। सबको पता 12 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव अध्यात्म है * है, अपना सिर कहां है। फिर एक क्षण के लिए सोचें कि मेरा सिर है, वह छ: इंच लंबा हो गया। आप कहेंगे, कैसे सोचेंगे ! यह बिलकुल सरल है, और एक दो दिन में आपको अनुभव में आ जाएगा कि माथा छः इंच लंबा हो गया। आंख बंद किए ! फिर वापिस लौट आएं, नार्मल हो जाएं, अपनी खोपड़ी के अंदर वापिस आ जाएं। फिर छः इंच पीछे लौटें, फिर वापस लौटें। पांच-सात बार करें। जब आपको यह पक्का हो जाए कि यह होने लगा, तब सोचें कि पूरा शरीर मेरा जो है, वह कमरे के बराबर बड़ा हो गया। सिर्फ सोचना, जस्ट ए थाट, एंड दि थिंग हैपेंस । क्योंकि जैसे ही यह तीसरे नेत्र के पास शक्ति आती है, आप जो भी सोचें, वही हो जाता है । इसलिए इस तरफ शक्ति लाकर कभी भी कुछ भूलकर गलत नहीं सोच लेना, वह भी हो जाता है। इसलिए इस तीसरे नेत्र के संबंध में बहुत बातें लोगों को नहीं कही जाती हैं, क्योंकि इससे बहुत संबंधित द्वार हैं। यह करीब-करीब वैसी ही जगह है, जैसा पश्चिम का विज्ञान एटामिक एनर्जी के पास जाकर झंझट में पड़ गया है, वैसा ही पूरब का योग इस बिंदु के पास आकर झंझट में पड़ गया था। और पूरब के मनीषियों ने खोजा हजारों वर्षों तक, और फिर छिपाया इसको । क्योंकि आम आदमी के हाथ में पड़ा, तो खतरे शुरू हो गए थे। अभी पश्चिम में वही हालत है। आइंस्टीन रोते-रोते मरा है कि किसी तरह एटामिक एनर्जी के सीक्रेट खो जाएं, तो अच्छा है; नहीं तो आदमी मर जाएगा। पूरब भी एक दफा इस जगह आ गया था दूसरे बिंदु से, और • उसने सीक्रेट खोज लिया था, और उससे बहुत उपद्रव संभव हो थे, और शुरू हो गए थे। तो फिर उसको भुला देना पड़ा। पर यह छोटा-सा सूत्र मैं कहता हूं, इससे कोई बहुत ज्यादा खतरे नहीं हो सकते हैं, क्योंकि और गहरे सूत्र हैं, जो खतरे ला सकते हैं। सोचें एक क्षण को कि जब आपका सिर बाहर निकलने, भीतर आने में समर्थ हो जाए – और एक दो-चार दफे में हो जाता है - तो सोचें कि मेरा शरीर पूरे कमरे में फैल गया है, इतना बड़ा हो गया है। आप फौरन पाएंगे कि एक बैलून की तरह, एक गुब्बारे की तरह आप दीवालों को छू रहे हैं। तब आप पूछें कि मेरी आकृति क्या है? क्योंकि यह तो मेरी आकृति नहीं है। शरीर की जो हमारी प्रतीति है, वह केवल आटोहिप्नोटिक है। बचपन से हम सोच रहे हैं, यह मेरी सीमा है, यह मेरा शरीर है; यह मेरी सीमा है, यह मेरा शरीर है। बस । यह सिर्फ सम्मोहित है। इसे छोड़ देना पड़े। यह कंडीशंड है, यह सीखी हुई बात है, इसका प्रशिक्षण हुआ है। यह है नहीं। इस प्रशिक्षण को तोड़ दें, जैसे भाषा को तोड़ा। यह भी एक भाषा है आकार की, इसको तोड़ दें, और निराकार में आप खड़े हो जाएंगे। और तब आप जानेंगे, कृष्ण का क्या अर्थ है, स्वभाव अध्यात्म है। स्वभाव का अर्थ है, जो मैं हूं, बिना बनाया। बिना किसी की सहायता के बिना आयोजन के, बिना चेष्टा के, बिना प्रयत्न के जो मैं हूं ही; वह जो मेरा सारभूत हिस्सा है— असृष्ट, अनिर्मित, अनायोजित — वही मैं हूं, उसको जान लेना ही अध्यात्म है। जो उसे | जान ले, वही ब्रह्म को भी जान लेता है। इसलिए अध्यात्म ब्रह्म को जानने का विज्ञान है। 13 अपना स्वरूप अध्यात्म। भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग, त्याग, वह कर्म के नाम से कहा गया है। अर्जुन ने पूछा है, कर्म क्या है ? कृष्ण कहते हैं, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग, कर्म के नाम से कहा गया है। इस संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं। एक, जो लोग भी गीता पर टीकाएं किए हैं, उन सबने कर्म से अर्थ लिया है वैदिक कर्मकांड का । उन सबने अर्थ लिया है, शास्त्र - विहित यज्ञ, दान, होम आदि के निमित्त जो द्रव्य आदि का | त्याग है, वह कर्म कहा गया है। लेकिन यह थोपा हुआ अर्थ है। कृष्ण जैसे व्यक्ति सामयिक भाषाओं में नहीं बोलते हैं, शाश्वत भाषाओं में बोलते हैं। कृष्ण का क्या अर्थ होगा ? भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला, जो त्याग है, वह कर्म कहा गया है। यह बहुत कठिन सूत्र है। अगर इसकी पहली व्याख्या - जैसा कि आमतौर से की जाती है— की जाए, तो एकदम साधारण सूत्र है। लेकिन मैं जो इसमें देखता हूं, वह बहुत असाधारण है। तो उसे थोड़ा पकड़ने में दिक्कत पड़ेगी। आदमी का जो स्वभाव है, वह उसका बीइंग है । और आदमी का जो स्वभाव नहीं है; वह उसका कर्म है, वह उसका डूइंग है। और हमारे दो हिस्से हैं, एक हमारा स्वभाव, जो मैं हूं; और एक मेरे कर्म का जगत, जो मैं करता हूं। निश्चित ही, कृष्ण का दूसरा अर्थ है। क्योंकि जस्ट आफ्टर बीइंग की परिभाषा, कि स्वभाव अध्यात्म है, वह कर्म की परिभाषा करनी ही उनको चाहिए, कि फिर कर्म क्या है ! क्योंकि हम सारे लोग डूइंग को ही समझते हैं, मैं हूं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 एक आदमी से पूछें, आप कौन हैं? वह कहता है कि मैं चित्रकार हूं। असल में चित्रकार होना, उसके होने की खबर नहीं है; इस बात की खबर है कि वह क्या करता है। चित्र बनाता है। एक आदमी कहता है कि मैं दुकानदार हूं। दुकानदार कोई हो सकता है दुनिया में? दुकानदार कर्म है, होना नहीं है। वह आदमी यह कह रहा है कि मैं दुकानदारी करता हूं। उसको कहना यह चाहिए | कि मैं दुकानदारी करता हूं। पर वह कहता है, मैं दुकानदार हूं। हम कर्म के जोड़ को ही अपनी आत्मा बनाए हुए बैठे हैं। इसलिए हर आदमी अपने कर्म से ही अपना परिचय देता है— हर आदमी किसी से भी पूछो, कौन हो ? वह फौरन बताता है कि मेरा कर्म क्या है। पूछा ही नहीं आपसे कि आपका कर्म क्या है। लेकिन अगर नहीं पूछा कि कर्म क्या है, तो बड़ी मुश्किल है। उसका तो हमें पता ही नहीं कि मैं कौन हूं। कर्म का ही लेखा-जोखा है। तो हर आदमी अपना खाता-बही लिए अपने साथ चलता है। वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी तिजोड़ी ढोता है, वह कहता है, यह मैं हूं। कोई आदमी अपनी पोथियां लेकर चलता है कि यह मैं हूं। कोई आदमी अपना त्याग लिए चलता है कि यह मैं हूं। देखो, मैंने बारह साल तपश्चर्या की ; यह मैं हूं। कर्म को ही हम कहते हैं कि यह मैं हूं। अगर कर्म छीन लिया जाए, भी आप होंगे या नहीं होंगे? अगर त्यागी से त्याग छीन लिया जाए, धनी से धन छीन लिया जाए, चित्रकार से उसकी चित्रकला छीन ली जाए, उसके हाथ काट दिए जाएं कि वह चित्र भी न बना सके, तो भी चित्रकार, जो कह रहा था कि मैं चित्रकार हूं, वह होगा कि नहीं? वह होगा ही। हाथ काट डालो, तूलिका छीन लो; धन छीन लो, त्याग छीन लो, ज्ञान छीन लो; कोई फर्क नहीं पड़ता । मेरा होना तो होगा । मेरा होना मेरा करना नहीं है । मेरा होना नितांत अकर्म की अवस्था है, नान एक्शन की; जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, सिर्फ हूं। स्वाभाविक है कि कृष्ण तत्काल कर्म की बात कहें। और अर्जुन भी पूछा है, कर्म क्या है? उसने भी नहीं पूछा, वैदिक कर्मकांड क्या है ? पूछा कि कर्म क्या है ? कृष्ण भी नहीं कहते कि वैदिक कर्म है । वे कहते हैं, कर्म, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है। बड़ा ही महत्वपूर्ण सूत्र है। इस जगत में हमारे मन में, जब भी हम कुछ पाने की इच्छा से चलते हैं, जब भी हम भोगना चाहते हैं, तब हमें कुछ त्यागना पड़ता है । और ध्यान रहे, जब भी हम जगत में कुछ भोगना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को त्यागना पड़ता है, दि वेरी मोमेंट। अगर मैं चाहता हूं कि मैं धनी हो जाऊं, तो हर धन की तिजोड़ी भरने के साथ-साथ मुझे अपनी आत्मा को क्षीण करते जाना पड़ेगा। अगर मैं चाहता हूं कि बड़े यश के सिंहासनों पर प्रतिष्ठित हो जाऊं, तो जैसे-जैसे मैं यश के सिंहासन की सीढ़ियां चढूंगा, वैसे-वैसे मेरा अस्तित्व, मेरा बीइंग, मेरी आत्मा नर्क की सीढ़ियां उतरने लगेगी। 14 इस जगत में कुछ भी भोग, त्याग है अपना । और व्यर्थ के लिए हम सार्थक को छोड़ते चले जाते हैं! भोगादि की इच्छा से, वासना से, कुछ पाने की आकांक्षा से, जो भी त्याग किया जाता है, जो विसर्ग है...। यह विसर्ग शब्द बहुत अदभुत है। अपने से बिछुड़ जाने का नाम | विसर्ग है । डिसज्वाइंट फ्राम वनसेल्फ- स्वयं से टूट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना, हट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना ही त्याग है। यह बड़े मजे की बात है, जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, शायद वे त्यागी नहीं। हम सब, जिन्हें हम भोगी समझते हैं, बड़े त्यागी हैं, महात्यागी हैं। क्योंकि हम क्षुद्र के लिए विराट को छोड़कर बैठे हैं! हम जैसा त्यागी खोजना बहुत कठिन है। एक कौड़ी हमें मिलती हो,' तो हम आत्मा को बेचने को तैयार हैं, कि सम्हालो यह आत्मा, कौड़ी दो। हम न हुए तो चल जाएगा, कौड़ी न हुई तो कैसे चलेगा ! मुल्ला नसरुद्दीन को कुछ डाकुओं ने घेर लिया है एक अंधेरे रास्ते पर। और वे कहते हैं कि क्या इरादा है ? धन देते हो अपना | कि जान? नसरुद्दीन ने कहा, जान ले लो। धन तो मैंने बुढ़ापे के लिए बचाकर रखा है ! और फिर जान की कीमत ही क्या है? मुफ्त मिली थी, मुफ्त एक दिन जाएगी। धन बड़ी मुश्किल से कमाया है ! हंसते हम जरूर हैं, लेकिन करते हम भी यही हैं। नसरुद्दीन इकट्ठा कर रहा है; हम जरा फुटकर - फुटकर करते हैं। वही आदमी | अच्छा है; इकट्ठा कर रहा है। वही लाजिकल कनक्लूजन है हमारी | जिंदगी का, वह जो नसरुद्दीन कह रहा है कि ठीक, ले लो जान । क्योंकि जान के लिए किया क्या हमने कभी कुछ मुफ्त मिली, मुफ्त चली जाएगी। धन ? धन के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी है। और फिर, मोरओवर आई एम सेविंग इंट फार दि ओल्ड एज - बुढ़ापे के लिए बचा रहा हूं। जान का क्या करेंगे बुढ़ापे में अगर धन ही न हुआ ? एक बार बिना जान के चल जाए, बिना धन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वभाव अध्यात्म है के नहीं चल सकता है। जल्दी राष्ट्रपति का सिंहासन हो जाता है। मन ही मन में न मालूम मगर यह आदमी जो है, यह हमारी ही निष्पत्ति है, हमारी ही | | कहां-कहां चढ़ते-बैठते रहते हैं! न मालूम क्या-क्या करते रहते हैं। बुद्धि। यही हम सब कर रहे हैं। हम जरा हिम्मतवर कम हैं, तो मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी, तो उस पर धीरे-धीरे बेचते हैं, काट-काटकर बेचते हैं। यह आदमी हिम्मतवर | | मुकदमा चला। और मजिस्ट्रेट ने पूछा, नसरुद्दीन, क्या तुम कुछ है। और मूढ़ हिम्मतवर ज्यादा होते हैं। हम सब बहुत अपने को | | भी अपने पक्ष, अपने बचाव में कह सकते हो? तो नसरुद्दीन ने बुद्धिमान समझे हैं, धीरे-धीरे काट-काटकर बेचते रहते हैं। । कहा, पहली बात तो यह कि अगर अपना बचाव ही कर सकते, तो ___ इसे कृष्ण कहते हैं कि स्वयं से छुट जाना, स्वयं का त्याग, कर्म | | हत्या क्यों करते? अगर अपना बचाव ही कर सकते, तो हत्या क्यों है। यह बड़ी अदभुत बात है। यह सूत्र बहुत कीमती है। अपने से | | करते? और फिर दूसरी बात यह कि इस स्त्री के साथ हम तीस छूट जाना, अपने को छोड़ जाना, अपने होने को, स्वभाव को, | साल रहे, क्या यह भी काफी नहीं है कि हमने इसके पहले इसकी स्वरूप को छोड़कर भागना ऐसी किसी चीज के प्रति, जो न कभी | | हत्या कभी नहीं की! और नसरुद्दीन ने कहा, अब सच्ची आखिरी मिल सकती है, और मिल भी जाए तो उसके मिलने से कुछ नहीं | | बात आपको बता दूं कि तीस साल तक हत्या के संबंध में सोचते मिलता है। लेकिन हर आदमी अपने को छोड़कर भागता है। । रहने की बजाय मैंने सोचा, कर ही देना उचित है। तीस साल! कर्म की अगर यह व्याख्या खयाल में आ जाए, तो जहां-जहां | नसरुद्दीन ने कहा, सोचिए, तीस साल! और मेरा वकील मुझ से हम कर्म में रत हैं, वहां-वहां हम अपने को छोड़कर भागे हैं। क्या | कहता है कि अब तुझे तीस साल की सजा होगी कम से कम। इस इसका यह अर्थ है कि हम कर्म छोड़कर भाग जाए? | कमबख्त ने अगर पहले ही बता दिया होता, तो हम पहले दिन नहीं, कृष्ण तो कहते हैं, कर्म छोड़कर कोई भागेगा भी तो कहां | इसकी हत्या कर देते, तो आज छूट गए होते! तीस साल! आज हमें भागेगा! क्योंकि भागना भी कर्म है, और छोड़ना भी कर्म है। एक | दुख इस बात का नहीं है, नसरुद्दीन ने कहा कि क्यों हत्या की! आज ही उपाय है कि कर्म चलता रहे, तो भी प्रतिष्ठा कर्म में न हो; | दुख इस बात का है कि तीस साल काहे पिछड़े! किसलिए? आज प्रतिष्ठा बीइंग में, अस्तित्व में, आत्मा में हो। प्रतिष्ठा! मैं कितना | | छूट गए होते। आज मुक्त, बाहर होते। इस कमबख्त से पहले भी ही तेजी से दौडूं, मेरे भीतर तो कोई बिंदु ऐसा ही होना चाहिए जो | पूछा था, तब इसने कहा था, फांसी लग जाएगी नसरुद्दीन! और बिलकुल अदौड़ा है, दौड़ा ही नहीं है। मैं कितना ही भोजन करूं, अब कहता है, तीस साल की सजा होगी! मेरे भीतर तो कोई होना चाहिए, जिसने भोजन कभी किया ही नहीं। कर रहे हैं हम सब। कितनी हत्याएं आपने की हैं, हिसाब है? वह है। सिर्फ उसका स्मरण नहीं है। मैं बाएं जाऊं कि दाएं, मैं | | कितने साल से, कितने लोगों की हत्या कर रहे हैं? बिना किए, किए ऊपर जाऊं कि नीचे, मेरे भीतर तो कोई होना चाहिए जो सदा थिर चले जाते हैं। क्योंकि करें, तब तो एक ही करने में मुश्किल पड़ेगी। है और कहीं आया नहीं, गया नहीं। इस प्रतिष्ठा का नाम अध्यात्म; | इसमें बड़ी सुविधा रहती है; ज्यादा करने की सुविधा रहती है। और इस प्रतिष्ठा से चूकने का नाम कर्म है। हम बिना किए करते रहते हैं। कुछ लोग हैं, जो करते भी हैं और यहां कर्म की एक आखिरी बात और। इसका अर्थ यह हुआ कि नहीं करते हैं। पर तब उनका कर्म विकर्म, अकर्म हो जाता है, विशेष कर्म भी तभी स्वयं का त्याग बनता है, जब उसमें कर्ता-भाव हो; | कर्म हो जाता है या कर्म-शून्य हो जाता है; वे कर्ता नहीं रह जाते। मैंने किया, ऐसा भाव हो। ज्ञानी भी करता है, लेकिन कर्ता का भाव आज इतना ही। कल हम दूसरे सूत्र पर आगे बढ़ेंगे। नहीं होता, इसलिए उसके कर्म को कृष्ण कहते हैं, अकर्म जैसा कर्म सुबह के लिए एक-दो सूचनाएं दे देनी हैं। सुबह केवल वे ही है उसका। अकर्म ही है! वह करते हुए भी नहीं करता है। | लोग आएंगे, जो सुनने के लिए नहीं, कुछ करने के लिए उत्सुक और हम ऐसे लोग हैं कि हम न भी करते हों, तो भी करते रहते | | हों। वे ही लोग आएंगे सुबह, जो ध्यान में उतरना चाहते हों। हैं! हममें सब ऐसे लोग हैं। हममें से सबको राष्ट्रपति के पद पर | | अन्यथा न आएं। कोई दर्शक न आए। बैठने का उपद्रव नहीं झेलना पड़ेगा। ऐसे अभागे हममें बहुत कम हैं, | __ और जो लोग आ जाएं, वे फिर पूरे साहस से उस प्रयोग में उतरें। जिनको ऐसी दुर्घटना घटे कि राष्ट्रपति हो जाएं। लेकिन हम सब | क्योंकि सांझ हम जो बात करेंगे, वह बात ही रह जाएगी, अगर बैठते रहते हैं; वह हम नहीं छोड़ते मौका। कुर्सी पर बैठे हैं, बहुत | | सुबह हमने उसका प्रयोग न किया। और आदमी इतना बेईमान है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* कि डर तो यह है कि सांझ जिसे कहा है, उसे वह सुबह तक कभी का भूल चुका होगा। लेकिन फिर भी एक कोशिश...। सांझ जो मैंने कहा है अभी, कल सुबह हम प्रयोग में कर सकें, तो शायद कहीं कोई रेखा हमारे भीतर छूट जाए। कहीं कोई प्रयोग से फूल खिल जाए। और चाहे अर्जुन समझा हो गीता या न समझा हो, अगर वह फूल खिल जाए, तो जिसके भीतर वह फूल खिल जाता है, वह तो समझ ही जाता है। आज के लिए इतना ही। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 दूसरा प्रवचन मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । का तो प्रमाण है, वह प्रत्यक्ष है और इंद्रियां उसका साक्षात्कार करती अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।४।। हैं। परमात्मा का कोई भी प्रमाण नहीं है। इसलिए पदार्थवादी सदा अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । से कहता रहा है कि पदार्थ ही है, परमात्मा नहीं है। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। ५।। | लेकिन कृष्ण जो परिभाषा करते हैं, वह पूर्वीय मनीषा की यं यं वापि स्मरम्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । | गहनतम खोजों में से एक है। वह यह है कि हम परमात्मा उसे कहते तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।६।। | हैं, जो सदा है एकरस, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं है। और पदार्थ उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और | हम उसे कहते हैं, जो एक क्षण को भी वैसा नहीं है जैसा क्षणभर हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ पहले था। परिवर्तन ही जिसका स्वभाव है, उसे हम पदार्थ कहते अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं। | हैं; और नित्य होना ही जिसकी स्थिति है, उसे हम ब्रह्म कहते हैं। और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ | चारों ओर जो हमें दिखाई पड़ता है, वह परिवर्तन ही है, क्योंकि शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता | परिवर्तन ही हमें दिखाई पड़ सकता है। इसे थोडा समझना होगा। है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। जो चीज बदलती है वह हमें दिखाई पड़ती है, यह आपने खयाल कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में शायद न किया हो। कभी आपने देखा हो, एक कुत्ता आपके घर के जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को सामने बैठा हुआ है। ठीक उसके सामने एक पत्थर पड़ा हुआ है, त्यागता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है। लेकिन उस कुत्ते को कोई फिक्र नहीं है। एक पतले धागे में उस परंतु सदा उस ही भाव को चिंतन करता हुआ, क्योंकि सदा पत्थर को बांधकर आप बैठे रहें; कुत्ता आराम से बैठा है। उस जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः उसी पत्थर का उसे कोई भी पता नहीं है। आप धागे से पत्थर को थोड़ा का स्मरण होता है। खींचें। और कुत्ते को फौरन एहसास होगा कि पत्थर है। भौंकेगा; | तैयार हो जाएगा। क्या हुआ? जो चीज बिलकुल थिर थी, उसने आकर्षित नहीं किया। वह . न सका न प्रारंभ है और न जिसका अंत, उसे कृष्ण ने थी या न थी, बराबर था। लेकिन जैसे ही गति आई, कि आकर्षण UI ब्रह्म कहा है। जो न कभी जन्मता है और न कभी मरता शुरू हुआ। है, वह ब्रह्म है। लेकिन जो भी हमारे चारों ओर मौजूद __ हम भी उन चीजों को भूल जाते हैं, जो बिलकुल थिर हैं। और दिखाई पड़ता है, वह जन्मता भी है और मरता भी है। उत्पत्ति भी | उन्हीं चीजों को याद रख पाते हैं, जिनमें गति है और परिवर्तन है। होती है उसकी और विनाश भी। कृष्ण कहते हैं, यही पदार्थ है, यही परिवर्तन दिखाई पड़ता है, क्योंकि इंद्रियां, जो बदलता है, उसकी अधिभूत है। बदलाहट के कारण बेचैन हो जाती हैं। इसे थोड़ा समझें, तो यह पदार्थ की और परमात्मा की यह परिभाषा समझ लेने जैसी है। भीतर प्रवेश करने में सहयोगी होगा। पदार्थ हम उसे कहते रहे हैं सदा से, जो वास्तविक मालूम पड़ता। जो चीज बदलती है, वह मन को बेचैन करती है, क्योंकि मन है, रियल मालूम पड़ता है, जिसे हम ठोंक-बजाकर देख और | को रि-एडजस्टमेंट करना होता है। फिर से अपने को बदलती हुई पहचान सकते हैं। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है-सुना | | स्थिति के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। जो चीज नहीं बदलती, जा सकता है, देखा जा सकता है, छुआ जा सकता है। जो हम उसे भूल जा सकते हैं, क्योंकि उसके साथ कोई नई स्थिति पैदा वास्तविक है, यथार्थ है, उसे हम पदार्थ कहते रहे हैं। | नहीं होगी, जिसके लिए हमें उसकी याद रखनी पड़े। जब साधारण और इसीलिए पदार्थवादी दर्शन है कि परमात्मा नहीं है, क्योंकि | | स्थिर चीजों के साथ ऐसा हो जाता है, तो जो शाश्वत है, नित्य है, वह पदार्थ की तरह यथार्थ नहीं है। न हम उसे देख सकते, न छू जो सदा से ही रहा है-जब हम नहीं थे, तब भी था; और जब हम सकते। जो न छुआ जाता, न देखा जाता, न इंद्रियों की पकड़ में नहीं होंगे, तब भी होगा; हम जागते हैं, तब भी वह वैसा है; हम आता, वह नहीं है। क्योंकि उसके होने का प्रमाण क्या है? पदार्थ | | सोते हैं, तब भी वह वैसा है—उसको अगर हम बिलकुल ही भूल 18 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु स्मरण * जाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है। मछली को सागर के पानी का पता नहीं चलता। चल भी नहीं सकता, जब तक मछली को पानी के बाहर न निकाल दिया जाए। क्योंकि जब मछली नहीं जन्मी थी, तब भी सागर था । वह उसी में जन्मी, उसी में बड़ी हुई, उसी में जीयी। उसे पता भी नहीं हो सकता कि सागर भी है। सागर का होना इतना थिर है उसके लिए कि अपने होने में और सागर के होने में कोई फर्क और फासला भी नहीं है कि उसे उसका पता चले। हां, एक बार मछली को सागर से बाहर निकाल लें, तो जो पहली चीज मछली को पता चलेगी, वह सागर है। फिर दूसरी चीजें तो पीछे पता चलेंगी। पहला पता चलेगा सागर का । मछली को सागर से निकाला जा सकता है, लेकिन मनुष्य को परमात्मा के बाहर नहीं निकाला जा सकता है। इसलिए हमें उसका पता भी नहीं चल सकता है। हम उसे स्वीकार — स्वीकार करने का भी सवाल नहीं है, हम उसकी प्रत्यभिज्ञा को, उसके रिकग्नीशन को भी उपलब्ध नहीं होते हैं। `पदार्थ का पता चलता है; वह प्रतिपल भागा जा रहा है, बदलता जा रहा है। बदलते हुए पदार्थ के साथ हमें बदलना पड़ता है। हमें बदलना पड़ता है, इसलिए हमें उसका स्मरण रखना पड़ता है। इसलिए इंद्रियां केवल बदलते हुए पदार्थ को ही पकड़ती हैं। इंद्रियों का काम ही यही है। बदलते हुए संसार के हमें योग्य बनाए रखना, इंद्रियों का काम है। यही उनकी कुशलता है। हम एक आदमी को बहरा कहते हैं, क्यों? क्योंकि बाहर जो ध्वनियों में अंतर हो रहा है, वह उसकी पकड़ में नहीं आता । लेकिन अगर पूर्ण सन्नाटा हो, तो बहरे और कान वाले आदमी में कोई फर्क होगा? अगर पूर्ण सन्नाटा हो और आप अचानक बहरे हो जाएं, तो क्या आपको पता चलेगा कि आप बहरे हो गए हैं? आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि आपको अपने कान का ही पता तब चलेगा, जब बाहर दुनिया बदलती हो और आप उन्हें न पकड़ पाते हों। अगर कोरे आकाश को मेरी आंखें देखती हों, जहां कोई भी परिवर्तन न हो, तो मैं कब अंधा हो गया, मुझे पता नहीं चल सकेगा। बदलती हुई चीजों की वजह से पता चलता है। आंख का काम है कि वह बदलती हुई चीजों की खबर देती रहे। ये सारे उपकरण इंद्रियों के बदलाहट की खबर देने के लिए हैं। और जिंदगी पूरे समय बदलती है। पदार्थ पूरे समय बदलता है। और आपको प्रतिपल होश रखना पड़ेगा, बदलाहट तेजी से हो रही है। लेकिन परमात्मा तो कभी बदलता नहीं। कृष्ण कहते हैं, वह | नित्य है, निराकार है, शून्य जैसा है, शून्य का सागर है। उसमें तो कोई बदलाहट होती नहीं है। इसलिए हमें उसका कोई भी पता नहीं चलता है। तो कृष्ण ने पहले तो ब्रह्म की परिभाषा में कहा कि वह जो विनाश को कभी उपलब्ध नहीं होता। विनाश को वही उपलब्ध नहीं हो सकता, जिसका होना न होने जैसा हो। इसे थोड़ा खयाल ले लेंगे। जिसका होना न होने जैसा हो, वही केवल विनाश को उपलब्ध नहीं हो सकता। जिसका होना जितना ठोस होगा, उतनी जल्दी विनाश को उपलब्ध हो जाएगा। कल कोई मुझसे पूछता था कि क्या आप मुझे प्रेम करते हैं? और यदि मुझे प्रेम करते हैं, तो क्या आपका प्रेम सदा बना रहेगा मेरे प्रति? तो मैंने उस व्यक्ति को कहा कि अगर मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, | तो वह सदा बना रहना बहुत मुश्किल होगा। और जितना ज्यादा करूंगा, उतनी जल्दी खो जाएगा। अगर तुम चाहते हो कि मेरा प्रेम | बना ही रहे सदा तुम्हारे प्रति, तो तुम्हें मेरे ऐसे प्रेम को स्वीकार | करना पड़ेगा, जिसका पता भी नहीं चलता है। जिस चीज का भी पता चलेगा, वह ठोस हो गई, पदार्थ हो गई। प्रेम भी पदार्थ हो जाता है, जब उसका पता चलता है । फिर वह विनाश के जगत में प्रवेश कर जाता है। जिस प्रेम का पता ही नहीं चलता, वह कभी विनष्ट नहीं होता। क्योंकि उसके विनाश का कोई उपाय नहीं है। आकार चाहिए, तो कोई चीज विनष्ट की जा सकती है । निराकार को विनष्ट करने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा का होना, न होने जैसा है। एक्झिस्टेंस, एज इफ नान एक्झिस्टेंट, जैसे न हो । छूने जाते हैं, तो छूने में नहीं आता। देखने जाते हैं, तो दिखाई नहीं पड़ता। खोजते हैं, खोज में नहीं आता । मुट्ठी बांधते हैं, कहीं कोई पकड़ नहीं बैठती। और है! और वही है। और बाकी सब होना, न होने में डूबता चला जाता है। लेकिन जिसे सदा होना है, उसे ऐसा होना पड़ेगा कि वह पकड़ में न आए। क्योंकि जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ हो जाता है । जिस चीज को भी हम कह सकते हैं, है; हमारे कहते ही वह | विनष्ट होनी शुरू हो जाती है। इसलिए कुछ अदभुत आस्तिक जमीन पर हुए हैं, उनकी मैं आपसे बात कहूं, जैसे बुद्ध । बुद्ध से कोई पूछे कि ईश्वर है, तो वे चुप रह जाते हैं। बुद्ध के इस चुप रह जाने के कारण एक भ्रांति पैदा हुई। लोगों ने समझा, 19 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* बुद्ध नास्तिक हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं। लेकिन बुद्ध केवल | लोगों ने कहा है कि वह आकाश जैसा है-शून्य, न होने जैसा, इसीलिए चुप रह जाते हैं कि जिस ईश्वर को हम कहेंगे है, उसे फिर | रिक्त, खाली। ऐसा हो, तो ही विनाश के बाहर हो सकता है। ऐसा नहीं भी होना पड़ेगा। इसलिए उसके संबंध में है कहना भी ठीक न हो, तो विनाश के भीतर आ जाता है। नहीं है। है कहते से ही पदार्थ प्रवेश करता है। विनष्ट होने का कारण क्या है पदार्थ का? पदार्थ क्यों विनष्ट इस जगत में जो सच्चे आस्तिक हुए हैं, उन्होंने ईश्वर के होने के | होता है? लिए कोई प्रमाण, कोई आर्ग्युमेंट नहीं दिया है। और जिन्होंने प्रमाण पदार्थ इसलिए विनष्ट होता है कि पदार्थ डिविजिबल है, उसका दिए हैं और आर्म्युमेंट दिए हैं, उन्हें ईश्वर का कोई भी पता नहीं है। | विभाजन किया जा सकता है। हम एक पत्थर के दो टुकड़े कर जो कहते हैं कि ईश्वर है, क्योंकि उसने दुनिया को बनाया...। सकते हैं। जो चीज भी विभाजित हो सकती है, उसके कितने ही ध्यान रखें, बनाई हुई चीज भी नष्ट हो जाती है, बनाने वाले भी नष्ट टुकड़े किए जा सकते हैं, वह नष्ट हो जाएगी। जो चीज विभाजित हो जाते हैं। होती है, उसका अर्थ है कि वह बहुत चीजों से मिलकर बनी है; नहीं; परमात्मा को न तो बनाया हुआ कहो और न बनाने वाला संयोग है, कंपाउंड है। कहो, क्योंकि ये दोनों ही बातें विनाश के जगत में प्रवेश कर जाती परमात्मा संयोग नहीं है; अस्तित्व संयोग नहीं है। अस्तित्व हैं। वह है, जैसे कि न हो। उसकी जो उपस्थिति है, उसकी जो इकट्ठा है, एक है; उसमें कोई खंड नहीं हैं। इसलिए ब्रह्म को अखंड मौजूदगी है, उसकी मौजूदगी का जो स्वभाव है, वह जस्ट लाइक | कहा है। उसके टुकड़े नहीं हो सकते। जिस चीज के टुकड़े नहीं हो एब्सेंस, जैसे गैर-मौजूद हो। सकते, उसका विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि विनाश की प्रक्रिया हम अपने कमरे से फर्नीचर को बाहर निकालकर फेंक सकते हैं। में खंडित होना जरूरी हिस्सा है। क्योंकि फर्नीचर है, मौजूद है, उसे बाहर किया जा सकता है। | किस चीज का खंड नहीं हो सकता? जिसकी कोई सीमा-रेखा लेकिन कमरे से हवा को निकालना हो, तो बड़ी कठिनाई होगी। न हो, उसका खंड नहीं हो सकता। जिसकी सीमा-रेखा हो, उसका क्योंकि हवा फर्नीचर की तरह ठोस नहीं है। फिर भी हवा को खंड हो सकता है। वह कितनी ही छोटी हो, कितनी ही बड़ी हो, निकाला जा सकता है. फिर भी निकाला जा सकता है। हाथ से जिसकी सीमा है. उसके हम दो हिस्से कर सकते हैं। लेकिन धक्का मारें, तो स्पर्श हो जाता है। धुआं उड़ाएं, तो हवा की रेखाएं | | जिसकी कोई सीमा नहीं है, उसके हम दो हिस्से नहीं कर सकते। बोध में आने लगती हैं। सांस खींचें, तो हवा भीतर ली जा सकती अस्तित्व असीम है और पदार्थ सदा सीमित है। इसलिए पदार्थ है। तो फिर एक पंप लगाकर सक की जा सकती है, बाहर खंडन को उपलब्ध हो सकता है। खंडन से विनाश हो जाता है। निकालकर फेंकी जा सकती है। नहीं तो है, लेकिन फिर भी काफी फिर जिस चीज को हम बना सकते हैं, वह मिटेगी। सिर्फ एक हैबाहर निकाली जा सकती है। चीज है, जिसे हम नहीं बना सकते हैं, और वह परमात्मा है। बाकी लेकिन एक और चीज भी है कमरे के भीतर, वह है आकाश। सब चीजें हम बना सकते हैं। ऐसी कौन-सी चीज है, जो हम नहीं आकाश को बाहर बिलकुल नहीं निकाला जा सकता। पदार्थ है, बना सकते? सब बना सकते हैं। अस्तित्व भर नहीं बना सकते हैं। उसे बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है। हवा है, वह पदार्थ | जिसे हम बना सकते हैं, वह मिट जाएगा। और हम बना सकते हैं, और आकाश के बीच में डोलता हुआ अस्तित्व है, उसे भी निकाला | ऐसा नहीं, प्रकृति भी जिसे बना सकती है, वह मिट जाएगा। जो भी जा सकता है। लेकिन आकाश है कमरे के भीतर, स्पेस है, उसे नहीं कंस्ट्रक्ट हो सकता है, वह डिस्ट्रक्ट हो सकता है। जिसको हम बना निकाला जा सकता। क्यों? क्योंकि वह न होने के जैसा है। उसे ही नहीं सकते, वही केवल विनाश को उपलब्ध नहीं हो सकता है। निकालिएगा कैसे। निकालने के लिए कछ तो होना चाहिए. जिसे | | हमारा अनबनाया क्या है? अगर उसे हम खोज लें. तो वही ब्रह्म हम धक्का दे सकें। आकाश को हम धक्का नहीं दे सकते। | है। और जो भी बन सकता है, और बनाया जा सकता है, और इसलिए इस जगत में सभी चीजें बनती हैं और मिटती हैं। लेकिन | बनाया जा रहा है चाहे आदमी बनाए, चाहे प्रकृति बनाए-वह आकाश? आकाश अनबना, अनमिटा मौजूद रहता है। इसलिए सब पदार्थ है। जिन लोगों ने परमात्मा के लिए निकटतम प्रतीक खोजा है, उन तो कृष्ण कहते हैं, उत्पत्ति और विनाश धर्म वाले सब पदार्थ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण * अधिभूत हैं, वे भौतिक हैं, फिजिकल हैं। और पुरुष अधिदैव है। | | तब आप परमात्मा के मंदिर के बहुत निकट होते हैं। और जब आप यह पुरुष कौन है? इस पदार्थ के बीच में जो जीता है और पदार्थ | बेहोश होते हैं किसी भी क्षण में, तब आप पदार्थ के बहुत निकट के प्रति होश से भर जाता है, उसे कृष्ण पुरुष कहते हैं। होते हैं। पदार्थ को स्वयं का कोई बोध नहीं है। पत्थर पड़ा है आपके द्वार | कब आप बेहोश होते हैं? कब आप होश में होते हैं? पर, तो पत्थर को कोई पता नहीं कि वह है। और पत्थर को यह भी कभी आपने खयाल किया कि जब आप क्रोध से भरते हैं, तो पता नहीं कि आप भी हैं। ये दोनों बोध आपको हैं। पत्थर है, यह होश खो जाता है। इसलिए अक्सर क्रोध के बाद आदमी कहता है भी आपका बोध है; और आप हैं, पत्थर से भिन्न, यह भी आपका | | कि समझ नहीं पड़ता, यह मैंने कैसे किया! यह मुझसे कैसे हो बोध है। सका! यह तो मैं कभी नहीं कर सकता हूं। ___पुरुष शब्द का अर्थ होता है, नगर के बीच में रहने वाला, पुर | | वह ठीक कहता है। अब उसका थर्मामीटर होश के करीब है, के बीच में रहने वाला। यह पदार्थ का जो पुर है, पदार्थ का जो यह | इसलिए वह कह रहा है कि यह मैं कभी नहीं कर सकता हूं। उसने महानगर है, इसके बीच में जो रहता है। वह अपने प्रति भी होश से | | यह किया भी नहीं। अगर इतना होश होता, तो वह करता भी नहीं। भरा हुआ होता है, इस नगर के प्रति भी होश से भरा हुआ होता है। लेकिन जब उसने किया, तो बेहोशी के करीब था। क्रोध शरीर में इस हिरण्यमय को कृष्ण कहते हैं, यह पुरुष अधिदैव है। यही जहर छोड़ देता है। मार्फिया की तरह, सब भीतर चेतना को कुंद कर चैतन्य है, यही परम चैतन्य है, यही परम दिव्यता है। | देता है। फिर आप कुछ भी कर गुजरते हैं। उस कर गुजरने में चेतना का लक्षण है, होश, अवेयरनेस। इसलिए सारे धर्मों ने | | बेहोशी है। शराब का, बेहोशी का विरोध किया है, सिर्फ एक कारण से; कोई ___ इसलिए जब कोई आदमी किसी की हत्या करता है, तो पुरुष की और कारण नहीं है। सिर्फ एक कारण, कि जितने आप बेहोश होते | | हैसियत से कोई कभी किसी की हत्या नहीं करता, पदार्थ की हैं, उतने आप पदार्थ हो जाते हैं, पुरुष नहीं रह जाते। और सारे धर्मों | | हैसियत से ही हत्या करता है। और वस्तुतः समस्त धर्मों ने अगर ने ध्यान का समर्थन किया है, सिर्फ एक कारण से, कि जितने आप | हत्या का विरोध किया है, तो इसलिए नहीं कि दूसरा मर जाएगा; ध्यानस्थ होते हैं, उतने पदार्थ कम हो जाते हैं और पुरुष ज्यादा हो | | क्योंकि धर्म भलीभांति जानते हैं कि दूसरा कभी नहीं मरता है। फिर जाते हैं। भी विरोध किया है, और विरोध का कारण यह है कि हत्या करते जिस दिन कोई व्यक्ति पूर्ण ध्यान को उपलब्ध होता है, सिर्फ | वक्त हत्या करने वाला मर जाता है और पदार्थ हो जाता है। उसके शुद्ध चेतना रह जाता है, उस दिन वह परम पुरुष हो जाता है, | भीतर सारा होश खो जाता है। पुरुषोत्तम हो जाता है। बुराई में और कोई बुराई नहीं है। और भलाई में और कोई भलाई और जिस दिन कोई व्यक्ति पूर्ण मूर्छा को उपलब्ध हो जाता है, | | नहीं है। बुराई में एक ही बुराई है कि हम पदार्थवत हो जाते हैं। और कि उसके हाथ-पैर काट डालो, तो भी उसे पता नहीं चलता। | भलाई में एक ही भलाई है कि हम पुरुषवत हो जाते हैं। यह जो उसकी छाती में छुरा भोंक दें, तो भी उसे पता नहीं चलता। उसे यह | भीतर चैतन्य है, यह जो चेतना की ज्योति है, इसको जितना बढ़ा भी पता नहीं है कि वह है। इस परम मूर्छा में वह करीब-करीब | | लें, उतना अधिदैव के निकट होने लगते हैं। इसे जितना घटा लें, पदार्थ हो जाता है, जड़ हो जाता है। धुआं-धुआं हो जाए, अंधेरा छा जाए, उतना अधिभूत के निकट हो इन दोनों के बीच में कहीं हम डोलते रहते हैं। पदार्थ और | जाते हैं। शायद, जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह सोया हुआ अधिदैव परमात्मा के होने के बीच में हमारा डोलना चलता रहता है। हम | | है। और जिसे हम अधिदैव कहते हैं, वह जागा हुआ पदार्थ है। चौबीस घंटे में कई बार पदार्थ के करीब पहुंच जाते हैं और कई बार | लेकिन अर्जुन ने जो पूछा है, कृष्ण एक-एक की व्याख्या दे रहे हम परमात्मा के निकट पहुंच जाते हैं। लेकिन एक सूत्र खयाल रहे, तो आप पता रख सकते हैं कि | - हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं। आपकी चेतना का थर्मामीटर कब पदार्थ से परमात्मा की तरफ यह बहुत मजे की बात कृष्ण कहते हैं, हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! डोलता रहता है। जब आप होश से भरे होते हैं किसी भी क्षण में, अर्जुन को कृष्ण देहधारियों में श्रेष्ठ क्यों कहते होंगे? कोई Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* कारण सीधा समझ में नहीं आता। कोई कारण सीधा समझ में नहीं आता। और कृष्ण अकारण कहेंगे, यह तो बिलकुल समझ में नहीं आता। या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह सम्राट परिवार का है, सम्राट होने की पूरी संभावना है उसकी पुनः, इसलिए कहेंगे, यह भी समझ में नहीं आता। क्योंकि कृष्ण के लिए सम्राट और सड़क के भिखारी में क्या फर्क होगा ! और देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्या देहें भी श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ होती हैं? क्या कृष्ण इसलिए कहेंगे कि वह एक कुलीन वंश से आता है? क्या उसकी देह में मांस-मज्जा न होकर सोने और हीरे और जवाहरात जड़े हैं? और जड़े भी हों, तो भी हड्डी से उनका कोई ज्यादा मूल्य नहीं है। क्यों कहते होंगे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ? गीता पर हजारों वक्तव्य दिए गए हैं, लेकिन मेरे खयाल में कोई वक्तव्य नहीं है, जो ठीक से कह पाता हो कि अर्जुन को कृष्ण ने बार-बार कहा, देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! यह क्यों कहा है? उन सबकी मान्यता यही रही है कि क्षत्रिय कुल का है, बड़े कुलीन वंश का है, राज-परिवार का है, योद्धा है, फिर कृष्ण का मित्र है, इसलिए कहते होंगे। पुण्यात्मा है, नहीं तो कैसे इतने बड़े कुल में पैदा होगा, इसलिए कहते होंगे। नहीं; बिलकुल नहीं। एक ही क्षण में कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है, जिस दिन उसकी देह, वह जो जीवन का परम सत्य है, उसे सुनने के निकट होती है। वह जो जीवन का परम सत्य है, वह जो जीवन का गुह्य रहस्य है, जिस दिन किसी व्यक्ति की देह, किसी व्यक्ति का शरीर उस परम रहस्य को सुनने के, देखने के, स्पर्श करने के, जानने के निकट होता है, उसी क्षण...। कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन को । और निश्चित ही इस अर्थ में वह देहधारियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि कृष्ण के इतने निकट होना, और कृष्ण की वाणी के इतने निकट होना, और कृष्ण के गुह्य संदेश के इतने निकट होना, जस्ट बाइ दि कार्नर, जहां कोई चाहे तो छलांग लगा और कृष्ण हो जाए। सूर्य के इतने निकट होना कि जहां से स्वयं भी प्रकाश बन जाना आसान हो। बस, इस एक घड़ी में ही कोई व्यक्ति देहधारियों में श्रेष्ठ हो जाता है। कभी कोई अर्जुन कृष्ण के करीब, कभी कोई आनंद बुद्ध के करीब, कभी कोई ल्यूक क्राइस्ट के करीब, कभी कोई च्वांगत्से लाओत्से के करीब देहधारियों में अचानक श्रेष्ठ हो जाता है। अपनी देह के कारण नहीं, उस दूसरे की मौजूदगी के कारण, जिसकी मौजूदगी पारस की तरह लोहे को सोने में बदल सकती है। अर्जुन को यह याद दिलाने के लिए कि अर्जुन, यह क्षण मोमेनटस है, यह घड़ी अलौकिक है। ऐसी घड़ी बाद में पुनरुक्त होगी, नहीं कहा जा सकता है। 22 इतिहास दोहरता है सिर्फ सड़ी-गली चीजों के लिए। चंगेज दुबारा आ जाता है, हिटलर बार-बार लौट आते हैं। हत्याएं और युद्ध फिर-फिर हो जाते हैं। लेकिन गीता दुबारा कही जानी और दुबारा सुनी जानी मुश्किल है। जो सड़ा-गला है, वह रोज घूम-फिरकर लौट जाता है। लेकिन जो श्रेष्ठ है, उसकी पुनरुक्ति शायद ही कभी होती है। कृष्ण सिर्फ अर्जुन को बहुत परोक्ष रूप से याद दिलाते हैं कि अर्जुन यह क्षण बहुत कीमती है। इस समय तू सिर्फ अर्जुन नहीं है, देहधारियों में श्रेष्ठ हो गया है। इस समय तू उन वचनों को सुन रहा है, जो तेरे जीवन के लिए क्रांति बन सकते हैं। एक शब्द भी तेरे लिए छलांग हो सकता है। और तत्काल उसके पीछे ही कहते हैं इसीलिए कि हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं अधियज्ञ हूं। | और यह जो शरीर है, यह जो देह है, इस देह में तीन बातें हो गईं। एक, इसमें पदार्थ है, जो परिवर्तित होता है, विनाश को उपलब्ध होता है। जिसे हम देह समझते हैं, वह देह वही है, जिसे | कृष्ण पदार्थ कह रहे हैं, अधिभूत कह रहे हैं। इसे थोड़ा समझें। जिसे हम कहते हैं देह, उसे कृष्ण अधिभूत कहते हैं। यह एक पर्त है हमारी देह की, दि फर्स्ट सर्किल, पहला वृत्त। इसके भीतर चलें तो चैतन्य है, चेतना है । वह भी हमारी बड़ी धीमी-धीमी है, मूर्च्छित- मूर्च्छित है। उसे कृष्ण अधिदैव कहते हैं। और अगर इसके भी भीतर चलें, तो सेंटर है, केंद्र है। वही केंद्र कृष्ण कहते हैं, मैं हूं, अधियज्ञ हूं। बाहर है मूर्च्छित देह, पदार्थ । उसके भीतर है अर्ध-मूर्च्छित अर्ध- जाग्रत चेतना; धुआं-धुआं, अंधेरा-अंधेरा, कुछ साफ नहीं, धुंध - धुंध। उसके भीतर है जलती हुई प्रज्वलित अग्नि, पूर्ण चेतना । | इसलिए कृष्ण ने उसे कहा, अधियज्ञ । वही हूं मैं यज्ञ, पूर्ण जलती हुई ज्योति, अखंड, जहां धुआं भी नहीं, फ्लेम विदाउट स्मोक । अगर धुआं है ज्योति के आस-पास, तो वह नंबर दो की बात | है - अधिदैव । अगर धुआं ही धुआं है, ज्योति ही नहीं है, तो वह पहली बात है - अधिभूत । और अगर धुआं बिलकुल नहीं है, सिर्फ फ्लेम है, सिर्फ ज्योति है, जिससे धुआं पैदा ही नहीं होता...। और जिस ज्योति में धुआं पैदा होता है, वह यज्ञ की ज्योति नहीं । जिस ज्योति में धुआं पैदा नहीं होता, वही यज्ञ की ज्योति है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण * इसलिए बाहर के यज्ञों से कुछ भी न होगा। वहां तो धुआं रहेगा अलग, पदार्थ अलग। बीच से जैसे ही अर्ध-चेतना गिर जाती ही। और जो आग हमने जलाई है, वह बुझेगी ही। उस आग को | खोजना पड़ेगा, जो हमने जलाई ही नहीं, जो सदा से जल ही रही | यह अर्ध-चेतना दो तरह से गिर सकती है। या तो आप बिलकुल है। और जो आग हमने जलाई है, उसमें ईंधन का किया है उपयोग। | बेहोश हो जाएं पदार्थ में जाकर, तो ब्रह्म बिलकुल भूल जाता है; जहां होगा ईंधन, जहां होगा पदार्थ, वहां धुआं होगा ही। और जहां बेहोशी पूरी हो जाती है। या आप पूर्ण होश में आ जाएं, ब्रह्म के होगा ईंधन, वहां आग चुक ही जाएगी। हमें उस आग को खोजना भीतर आकर, उस पूर्ण होश में भी यह बीच की चेतना विलुप्त हो पड़ेगा, जहां कोई ईंधन नहीं है। बिना ईंधन के अगर कोई आग मिल | जाती है। जाए, तो फिर नहीं बुझेगी। बुझने का कोई कारण न रहा। मनुष्य को दो ही तरह के आनंद संभव हैं। एक आनंद—जो कि ध्यान रहे, आग नहीं बुझती, ईंधन बुझता है। ईंधन बुझ जाता है, | भ्रम ही है, आनंद नहीं-वह आनंद है पूर्ण मूर्छा का। इसलिए आग विलुप्त हो जाती है। ईंधनरहित अगर कोई आग हो, तो उसमें | नींद में सुख मिलता है। बड़ी हैरानी की बात है! जिन्हें जागने में धुआं पैदा नहीं होगा। क्योंकि धुआं भी आग से पैदा नहीं होता, | सुख का पता नहीं चलता, वे कहते हैं जागकर सुबह कि नींद में गीले ईंधन से पैदा होता है। सखा ईंधन हो, तो कम पैदा होता है। सख मिला। जिनको जागकर भी सख नहीं मिलता है. उन्हें नींद में ज्यादा सूखा हो, और कम होता है। ज्यादा गीला हो, और ज्यादा | | कैसे मिलता होगा? होता है। ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सोया है। और एक चोरों का गिरोह ईंधन से धुआं पैदा होता है, आग से नहीं। अगर बिना ईंधन के | उसके घर में घुस गया। वे बड़ी खोजबीन कर रहे हैं। आखिर मुल्ला कोई आग संभव है, तो कृष्ण कहते हैं, वही आग मैं हूं—दैट से न रहा गया, उसने कहा कि भाइयो, अगर कुछ मिल जाए, तो फायर—वही अधियज्ञ मैं हूं। इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूं। मुझे भी खबर कर देना! उन चोरों ने कहा, कुछ मिल जाए, खबर .. कृष्ण ने तीन पर्तों के अस्तित्व को पूरा कहा। एक पर्त है पदार्थ कर देना! मतलब? मुल्ला ने कहा, दिनभर वर्षों से खोज-खोजकर की। व्यक्ति की देह में भी ऐसा ही है, पदार्थ की एक पर्त। फिर हमें कुछ न मिला इस मकान में, तो रात के अंधेरे में तुम्हें कैसे क्या चेतना का एक धुआं-धुआं, अर्ध-जाग्रत, अर्ध-सोया हुआ | मिलेगा? कुछ मिल जाए तो खबर कर जाना। विस्तार। और फिर केंद्र पर वह ज्योति, जो अनिर्मित, ईंधनरहित, | जिन्हें दिन के जागरण में कोई सुख नहीं मिला, वे रात के बाद धुएं से मुक्त, शाश्वत और नित्य है। कृष्ण कहते हैं, वही मैं हूं। | सुबह उठकर कहते हैं, बड़ा सुख मिला! जरूर कहीं कोई भूल हो यह व्यक्ति के तल पर; और इसे ही विराट के तल पर भी समझ | रही है। सिर्फ दिनभर में जो दुख वे पैदा करते थे, वे भर पैदा नहीं लें। व्यक्ति जो है, वह विराट का ही बहुत छोटा प्रतिरूप है। इस कर पाए; और कुछ मामला नहीं है। वे जो दिनभर में दुख पैदा कर विराट ब्रह्म की इस विराट ब्रह्मांड को भी देह समझें। तो पहली पर्त | लेते थे, नींद की कृपा से, बेहोशी के कारण, वे दुख पैदा नहीं कर पदार्थ की; दूसरी पर्त चैतन्य की, अर्ध-चैतन्य की; और तीसरी पर्त पाए; एक। ज्योतिर्मय ब्रह्म की। व्यक्ति के तल पर या विराट के तल पर. ये __ दूसरा, नींद में दुख भी पैदा हुए हों, तो वे उन्हें पता नहीं चल तीन सर्किल, ये तीन वृत्त, ठीक से याद रख लें। पहला पदार्थ का, | | पाए। तीसरा, कल के जागने और आज के जागने के बीच में वह दूसरा अर्ध-चेतना का, और तीसरा शुद्ध अग्नि का, शुद्ध प्रकाश | | जो आठ-दस घंटे का अंधेरा गुजर गया, उससे श्रृंखला टूट गई। का, मात्र प्रकाश का, शुद्ध चैतन्य का। | सुबह उठकर वे कहते हैं, बड़ा सुखद मालूम हो रहा है! वस्तुतः वह जो शुद्ध चैतन्य है भीतर वह और बाहर वह जो शुद्ध | नींद में हमें सुख मिलता है। शराब पी लेते हैं, तो सुख मिलता पदार्थ है वह, ये दोनों जहां ओवरलैप करते हैं, जहां एक-दूसरे की | है। कामवासना में उतर जाते हैं, तो सुख मिलता है। वह सब सीमा पर छा जाते हैं, वहीं हमारी अर्ध-चेतना पैदा होती है। | बेहोशी है। फिल्म देखने तीन घंटे एक आदमी बैठ जाता है, तो जब कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से भीतर सरक जाता है, तो | अपने को भूल जाता है। वह बेहोशी है। फिल्म में उलझ जाता है अर्ध-चेतना विलुप्त हो जाती है। और बीच में वह अंतराल पैदा हो | | इतना कि अपनी याद रखने की सुविधा नहीं रहती। जाता है, जहां देखा जा सकता है कि मैं अलग, देह अलग; ब्रह्म ___ जहां-जहां हमें बेहोशी मिलती है, वहां-वहां थोड़ी देर को हमें Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* लगता है, सुख मिल रहा है। वह सब नींद का ही सुख है। इस सुख को धोखा कहना चाहिए। सुख नहीं है, आत्मवंचना है। एक और आनंद है। वह व्यक्ति, जो अपने को भूलता ही नहीं; इतना स्मरण करता है, इतना स्मरण करता है कि अंततः स्मरण उसके भीतर एक थिर बिंदु हो जाता है। वह नींद में भी जानता है कि मैं हूं। यह तीसरी, जो कृष्ण ने कहा, अधियज्ञ । चेतना की साधना यज्ञ की साधना है। और चैतन्य को उस जगह पर पहुंचा देना है, जहां एक क्षण को भी भीतर की चेतना न छूटती हो; एक क्षण को भी गैप, अंतराल न आता हो, रिक्तता न आती हो; अखंड धारा बहती हो चैतन्य की, वहां आनंद है। वहां जो आनंद है, वह नींद जैसा आनंद नहीं, बेहोशी जैसा आनंद नहीं। बेहोशी में केवल दुख भूल जाते हैं; वहां दुख मिट जाते हैं। (दुख भूलकर जो आनंद पैदा होता है, उसे हम सुख कहते हैं। दुख मिटकर जो आनंद पैदा होता है, वही आनंद है। व्यक्ति की पदार्थ से अर्ध-चैतन्य, अर्ध- चैतन्य से पूर्ण चैतन्य की तरफ जो यात्रा है, वही अध्यात्म है। कृष्ण ने कहा, स्वभाव अध्यात्म है। वही है स्वभाव हमारा, जो केंद्र पर जल रहा है सदा । वह जीवन की जो किरण वहां है, वही । और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है । और जो पुरुष अंतकाल में मुझे ही याद करता हुआ। यह मुझे से मतलब है, उसी निर्धूम ज्योति को याद करता हुआ। ध्यान रहे, मरते वक्त उसे याद करना बहुत ही कठिन है। जिन्होंने जीवनभर शरीर को ही स्वयं समझा हो, वे मरते वक्त कैसे उसे याद कर सकेंगे! जिन्होंने जीवनभर शरीर को ही स्मरण किया हो, वे मरते वक्त उस अशरीर को कैसे स्मरण कर सकेंगे? और किसी वक्त कर भी लें, मरते वक्त तो बहुत ही मुश्किल होगा, क्योंकि जो छूट रहा है, सब छूट रहा है। हालत ऐसी है कि जो आदमी, जिसके घर में तिजोड़ी बंद है, ताले पड़े हैं, पहरेदार लगे हैं, तिजोड़ी की चाभी अपने हाथ में है, सारा इंतजाम है; जो आदमी तब भी तिजोड़ी को नहीं भूल पाता, जब कि तिजोड़ी के छिनने का कोई भी डर नहीं है । जब डाका पड़ गया हो, और उसके ही सामने उसकी तिजोड़ी तोड़ी जा रही हो, और उसके सामने ही डाकू उसकी तिजोड़ी को घसीटकर बाहर ले जा रहे हों, सब सुरक्षा की व्यवस्था टूट गई हो, क्या आप सोच सकते हैं, उस समय वह तिजोड़ी को भूलने में समर्थ हो सकेगा ? जब सारी सुरक्षा है, तब नहीं भूल पाता; तो जब सारी सुरक्षा टूट जाएगी, तब तो सिवाय तिजोड़ी के और कुछ भी याद आने वाला नहीं है। आखिरी क्षण में तो हमारा शुद्धतम जो चेहरा है, वही प्रकट होता है, सम्हालने की भी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे रोज तो हम सम्हाले | रहते हैं। मरते वक्त तो हमारा असली चेहरा प्रकट हो जाता है, और हमारे असली भाव प्रकट हो जाते हैं, और हमारी असली स्मृति जाहिर हो जाती है। मरते वक्त आदमी को पहचाना जा सकता है कि असल में यह आदमी क्या था । | मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने कहा कि... पत्नी की हत्या उसने की; | मुकदमा चला और उसे सूली की सजा मिली। जिस दिन उसे सूली की सजा मिली, उसे खबर देने जेलर आया और उसने कहा मुल्ला, आने वाले सोमवार को सुबह तुम्हारी सूली हो जाने वाली है | मुल्ला ने कहा, सोमवार को ! क्या यह नहीं हो सकता कि आने वाले शनिवार को सूली दी जाए? जेलर ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हें ! तुम्हें क्या फर्क पड़ता है कि सोमवार लगी सूली कि शनिवार लगी! मुल्ला ने कहा, असल में इस बुरे मुहूर्त सप्ताह | का प्रारंभ नहीं करना चाहता हूं। सोमवार ! 24 वह अपनी दुकान की दुनिया में जी रहा है, जहां मुहूर्त चलते हैं। अब फांसी लग रही है, लेकिन वह सोच रहा है कि सोमवार को मुहूर्त करना कि नहीं! फिर फांसी हुई, तो जिस देश में वह रहता था, वहां नियम था कि बीच चौराहे पर नगर के फांसी लगती थी। हजारों लोग देखने आते थे। और फांसी जिसको दी जाती थी, उस आदमी से कहा जाता था कि उसे कुछ बोलना हो मरने के पहले, तो वह जनता के सामने बोल सकता था। ठीक फांसी के पहले नसरुद्दीन से कुछ लोग मिलने आए। और जेलर बहुत हैरान हुआ कि नसरुद्दीन और उनके बीच बड़ा मोलतोल हुआ। कुछ जेलर की समझ में भी न कि यह बात क्या हो रही है! लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि मैं आखिरी वक्तव्य | के संबंध में कुछ तैयारी कर रहा हूं, इसलिए आप बीच में बाधा न | दें। बड़ी देर तक चला। कुछ वे कहते, कुछ यह कहता। फिर हां, न । आखिर कुछ समझौता हुआ और उन लोगों ने कोई चीज नसरुद्दीन को दी और उसने जल्दी से खीसे में रख ली । जेलर ने भी मरते हुए आदमी को बाधा देनी ठीक न समझी। सोचा कि अभी फांसी हो जाएगी; पीछे देख लेंगे कि जेब में क्या है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण * जब फांसी लगाने का वक्त आया और नसरुद्दीन चढ़ा तख्ते पर, | गया, बाधा पड़ जाती है। कौन किससे क्या बोला, बाधा पड़ जाती तो जेलर ने कहा, तुम्हें कुछ कहना हो तो कह दो। तो उसने कहा, | है। कोई भगवान का भजन और नाम ले रहा हो, जरा उसके पास हां, मुझे कुछ कहना है। और उसने कहा कि भाइयो, याद रखना, थोड़ी दूर खड़े होकर किसी के कान में खुसफुस करके कुछ कहें। जूता छाप साबुन ही दुनिया में सबसे अच्छा साबुन है। वह नाम-वाम छोड़कर आप क्या कह रहे हैं, इसे सुनने को उत्सुक लोग भी चकित हुए। फिर उसको फांसी लग गई। उसने कांट्रैक्ट | हो जाता है। छोटी-छोटी चीजें बाधा डालती हैं। किया था सौ रुपए में। वे जो लोग आए थे, जूता छाप साबुन बनाने मौत इस जीवन की बड़ी से बड़ी घटना है। उससे बड़ी कोई वाले लोग थे। वह यही कर रहा था। वे कहते थे, बीस ले लो; घटना नहीं है। उस घटना के क्षण में आप स्मरण न कर सकेंगे। पच्चीस ले लो। बामुश्किल सौ पर तय हुआ था मामला। मरता और अगर घबड़ाकर स्मरण किया, डरकर स्मरण किया, तो ध्यान हुआ आदमी! वे सौ रुपए जेब में पड़े मिले। लेकिन वह आखिरी | रखना, वह स्मरण परमात्मा का नहीं, भय का होगा। क्षण भी धंधा कर गया! उस वक्त भी वह पचास पर राजी न हुआ; मेरे एक मित्र हैं। बहुत ज्ञानी हैं। वे सदा कहते थे कि ईश्वर के अस्सी पर राजी न हुआ। उसने कहा, सौ से कम में तो मैं मानूंगा स्मरण से क्या होगा? सच्चरित्रता चाहिए, सदाचार चाहिए। ईश्वर ही नहीं! के स्मरण से क्या होगा! अच्छा आचरण चाहिए। मैंने उनसे कहा कि जिंदगीभर की आदत आखिरी क्षण तक भी पीछा करती है। जो ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकता. वह सदाचारी हो सकेगा असल में जब वह तय कर रहा था कि सौ ही लंगा. तब फांसी इसकी जरा असंभावना है। और जो सदाचारी हो सकता है, वह वगैरह कुछ भी नहीं थी उसके चित्त में; सब खो गया था। धंधा ही | | ईश्वर के स्मरण से बच सकेगा, इसकी भी बहुत मुश्किल संभावना शेष था। अंत क्षण आपके जीवनभर का निचोड़ है। | है; यह भी नहीं हो सकता। आप कहीं किसी धोखे में हैं। उन्होंने कृष्ण के इस वक्तव्य से बड़ी भ्रांतियां पैदा हुईं। पहली भ्रांति तो | | कहा, नहीं, मुझे कोई ईश्वर-स्मरण का सवाल नहीं है। मैं तो जो यह हुई जिसने भारत के धार्मिक चित्त को भयंकर हानि पहुंचाई। ठीक है, वह करने की कोशिश करता हूं। न रिश्वत लेता हूं, न चोरी इस वक्तव्य से लोगों ने यह समझा कि ठीक है, तो आखिरी वक्त | | करता हूं, न मांसाहार करता हूं। ठीक नियम से रात को सोता हूं, में याद कर लेंगे। इस वक्तव्य से समझा लोगों ने और जो पुरुष नियम से उठता हूं। कोई दुराचरण मेरे जीवन में नहीं है। मैंने उनसे अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता कहा, यह सब तो ठीक है, लेकिन इस सबसे सिर्फ आपका अहंकार है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें जरा भी संशय नहीं | भर अकड़ा जा रहा है, और कुछ भी नहीं हो रहा है। है-लोगों ने कहा, बिलकुल ठीक है। पूरी जिंदगी याद करने की कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि सदाचरण भी सिर्फ अहंकार की कोई जरूरत न रही। अंत समय याद कर लेंगे। अगर अपने से न ही परिपूर्ति करता है। और ईश्वर-स्मरण के बिना सदाचार अहंकार भी बना, क्योंकि अंत समय बोलते ही न बने, तो पास में बैठा हुआ | की ही परिपूर्ति करता है। क्योंकि फिर समर्पण का तो कोई स्थान पंडित कान में सुना देगा। घर के लोग हरिनाम का जाप करने | | नहीं रह जाता; अकड़ की ही जगह रह जाती है कि मैं चरित्रवान हूं, लगेंगे, गीता सुनाई जाएगी। मैं नियम से रहता हूं, सत्य का पालन करता हूं, अहिंसा का पालन कष्ण ने यह नहीं कहा है कि अंत समय जो मेरा नाम सन लेगाः । | करता हूं, इतने व्रत लिए हुए हैं, इतना त्याग किया हुआ है। अहंकार यह नहीं कहा है। अंत समय जिसको नाम सुना दिया जाएगा, यह | तो मजबूत होता जाता है। लेकिन ऐसे कोई चरण नहीं मिलते, जहां नहीं कहा है। जो मेरा नाम लेगा! और अंत समय कौन लेगा नाम ? | इस अहंकार को रख दें। वही ले सकता है, जिसने जीवनभर उस नाम की संपदा को सम्हाला | ___ मैंने उनसे कहा कि ठीक है। जैसा आपको ठीक लगता है, किए हो, अन्यथा नहीं ले सकता है। जीवनभर जो उस नाम में ऐसा | चले जाएं। एक ही बात याद रखें कि जिस ठीक से अहंकार मजबूत रच-पच गया हो कि मौत भी उस नाम में बाधा न डाल पाए। | होता है, वह ठीक हो नहीं सकता। __आप भी नाम लेते हैं। मैं कई लोगों को नाम लेते देखता हूं। वे फिर अचानक एक दिन मुझे खबर मिली कि उन्हें हृदय का दौरा बैठे हैं, माला फेरते हैं, नाम लेते हैं, और छोटी-छोटी चीजें बाधा हो गया, हार्ट-अटैक हो गया। मैं गया। करीब-करीब अर्ध-मूर्छा डालती रहती हैं। बहुत छोटी चीजें बाधा डालती हैं। कौन घर में में पड़े थे, लेकिन जोर-जोर से कहते थे, राम-राम, राम-राम। मैंने 25 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 4 उन्हें हिलाया कि यह क्या कर रहे हो! मरते समय गलती कर रहे हो । जब हृदय की धड़कन धड़कन इसी स्मरण के माला के मनके हो! सदाचार काफी है; यह क्या कर रहे हो ? उन्होंने आंखें खोलीं। मुझे देखा तो कुछ होश आया। कहने लगे कि यह भी मैं भय के कारण ले रहा हूं कि पता । पता नहीं, तो हर्जा क्या है ले लेने में! ले लो। मौत सामने खड़ी है, पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आखिरी क्षण में सिर्फ राम नाम नहीं लिया, . इसीलिए चूक जाएं। तो ले रहे हैं। बदल गई हो। जब ऐसा हुआ हो कि श्वास- श्वास उसी का स्मरण करती हो, धड़कन भी उसी के स्मरण से धड़कती हो, उठना-बैठना - चलना भी उसी के स्मरण से होता हो, तभी मृत्यु उसके स्मरण से हो सकती है। अब यह बिलकुल व्यवसायी की बुद्धि है; धार्मिक की बुद्धि नहीं है। और भयभीत आदमी का लक्षण है यह । स्मरण भय से नहीं होता है, स्मरण तो परम आनंद की स्फुरणा है। तो मृत्यु के क्षण में जो आनंद से स्मरण कर सके, तो ही स्मरण है, अन्यथा स्मरण नहीं है। भयभीत, डर रहे हैं, और कंप रहे हैं कि बचाओ, हे भगवान! अगर तुम हो, तो बचाओ। इससे कुछ न होगा। जहां भय है, वहां प्रभु का स्मरण नहीं। जहां मृत्यु से बचने की आकांक्षा है, वहां प्रभु का कोई स्वाद नहीं। तो कृष्ण कहते हैं, अंत समय में जो मेरे स्मरण को उपलब्ध रहता है, वह मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें कोई भी संशय नहीं। निश्चय ही कोई संशय नहीं, क्योंकि उस क्षण में जिसने अंतर-ज्योति का स्मरण रखा, उसे तो साफ ही दिखाई पड़ता है कि मृत्यु हो नहीं रही है। सिर्फ शरीर छूटता है, जैसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र गिर जाएं, पुराना मकान कोई बदल ले, नए मकान में चला जाए। जो इतने चैतन्य से भरा हुआ भीतर की ज्योति को स्मरण रखता है, वह तो जानता है, यह मौत इस ज्योति जरा-सा, हल्का-सा झोंका भी नहीं दे रही है। कुछ कंपित भी नहीं होने वाला है। वह परम आनंद में प्रतिष्ठित अपने भीतर डूब जाता है। का भय ही उसे लगता है, जिसका शरीर से तादात्म्य हो । जो मानता है, मैं शरीर हूं, वही घबड़ाता है कि छूटा - छूटा — किनारा छूटा - अब मिटे | लेकिन जो मानता है, हम किनारा हैं ही नहीं, सागर हैं, उसे किनारा छूटने से क्या भय लगेगा ! वह तो सागर की खबर सुनकर प्रफुल्लित हो उठेगा। उसके पैर तो नाचने लगेंगे। उसके हृदय में तो घूंघर बंध जाएंगे। वह तो दौड़ उठेगा। वह तो कहेगा, आ गया वह क्षण ! वह तो पीछे लौटकर भी नहीं देखेगा कि किनारे का क्या हुआ। ऐसा व्यक्ति लेकिन तभी इस स्मरण को उपलब्ध हो सकता है, जब जीवनभर उसकी साधना सतत श्वास- श्वास में पिरो दी गई इसलिए इस सूत्र का जो बहुत ही गलत अर्थ हुआ है, घातक, उससे बचना जरूरी है। यद्यपि अर्जुन से भी यही डर कृष्ण को रहा होगा, इसीलिए दूसरे सूत्र में तत्काल उन्होंने कहा, कारण कि हे कुंतीपुत्र अर्जुन, यह मनुष्य अंतकाल में जिस भाव को भी स्मरण | करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस भाव को ही प्राप्त होता है । परंतु सदा उस भाव को ही चिंतन करता हुआ ! अर्जुन की आंख में शायद तत्काल कृष्ण को दिखाई पड़ा होगा कि वह शिथिल हुआ । अर्जुन ने सोचा होगा, तब तो ठीक है। आखिरी समय स्मरण ही करना है न, कर लेंगे। फिर शेष जीवन | को क्यों नष्ट करना इन बातों में शेष जीवन फिर जैसा जीना है, जी लें। तो सूत्र तो हाथ लग गया; मंत्र हाथ लग गया। अंत समय स्मरण कर लेंगे! लेकिन अंत समय पता है, कब है ? यही क्षण भी अंत समय हो सकता है। कोई भी क्षण अंत समय हो सकता है। इसलिए जिसने सोचा, अंत समय कर लेंगे, वह चूक जाएगा। क्योंकि अंत समय तो कोई भी क्षण हो सकता है; यह क्षण भी हो सकता है कि मैं दूसरा शब्द बोल ही न पाऊं, यह शब्द ही अंतिम हो । जिन लोगों ने अखंड नाम-जप की धारणा विकसित की, उसका कारण यही था । उसका कारण यह नहीं था कि आप कितने लाख परमात्मा का नाम लेते हैं। लाख वगैरह का हिसाब फिर दुकानदारी है। | एक से भी काम हो सकता है; करोड़ से भी न हो । यह धर्म का जगत कोई हिसाब - खाते का जगत नहीं है। यहां गणित नहीं चलता है कि कितना । कितना हृदयपूर्वक ! कितनी संख्या नहीं। कितने लाख, तो लोग अखंड कर रहे हैं कि चौबीस घंटे का अखंड जप कर रहे हैं ! 26 अखंड जप का केवल एक ही अर्थ और प्रयोजन है, क्योंकि अंत क्षण कौन-सा होगा, पता नहीं। कोई भी क्षण खाली न जाए जो स्मरण से रिक्त हो, क्योंकि कोई भी क्षण अंत क्षण हो सकता है। इसलिए कोई भी क्षण भीतर खाली न जाए। तो जो भी क्षण अंत क्षण होगा, वह स्मरणपूर्वक होगा। लेकिन कृष्ण को लगा होगा कि खतरा है। इसलिए उन्होंने Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण * तत्काल फर्क बता दिए। दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, अंत समय जो इसलिए कृष्ण कहते हैं, लेकिन सदा उस भाव को ही चिंतन भाव होता है, व्यक्ति उसी भाव को उपलब्ध हो जाता है। यह बड़ी | | करता हुआ, क्योंकि सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल वैज्ञानिक व्यवस्था है। इसे थोड़ा समझ लें। | में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है। वह भी कृष्ण कहते हैं, प्रायः। रात आप सोते हैं। क्या कभी आपने खयाल किया कि आपका पक्का वह भी नहीं है। रात का अंतिम विचार सुबह का पहला विचार होता है! न किया ___ ध्यान रहे, जिंदगीभर कुछ और, अंत समय स्मरण, उसकी तो हो, तो करें। रात का जो अंतिम विचार है, बिलकुल आखिरी, जब | फिक्र ही छोड़ें; जीवनभर स्मरण, तो भी कृष्ण कहते हैं-बहुत नींद उतरती होती है, तब जो आपके चित्त के द्वार पर खड़ा होता है | | गार्डेड स्टेटमेंट है—कि जिसने जीवनभर उस चिंतन को किया है, विचार, उसे ठीक से खयाल कर लें, क्या है। सुबह, जब नींद के अंत समय में प्रायः, आफन, वह उसी स्मरण को करता हुआ विदा द्वार फिर खुलेंगे, तो दरवाजे पर वही आपको सबसे पहले खड़ा होता है। क्यों? क्योंकि जीवनभर जो स्मरण किया है, वह अगर हुआ मिलेगा। वह रातभर खड़ा रहा है। सतह पर रहा हो, सुपरफीशियल रहा हो, सिर्फ यांत्रिक रहा हो, कि अंतिम विचार रात का, सुबह का पहला विचार होता है। | एक आदमी कछ भी कर रहा है और राम-राम. राम-राम भीतर अंतिम विचार मृत्यु का, अगले जन्म का पहला विचार बन जाता करता जा रहा है...। है। बीच का वक्त सिर्फ एक गहरी नींद का वक्त है; एक स्मृति के पास ऐसी व्यवस्था है कि आप साइकिल चलाते रहें सर्जिकल; जब कि प्रकृति आपसे एक शरीर को छुड़ाती है और और राम-राम करते रहें; कार चलाते रहें और राम-राम करते रहें। दूसरे शरीर को देती है; एक बड़े आपरेशन का। उस वक्त आप स्मृति का एक खंड अलग कर सकते हैं आप, जो आपके भीतर बिलकुल बेहोश रखे जाते हैं। राम-राम करता ही रहे। वह आटोनामस हो जाता है। • अगर आपने कभी क्लोरोफार्म लिया है—न लिया हो तो कभी अगर आप निरंतर दो-तीन महीने राम-राम, राम-राम, लेकर देखें तो क्लोरोफार्म में डूबते वक्त जो आखिरी विचार राम-राम भीतर कहते रहें, तो स्मृति का एक टुकड़ा आटोनामस हो होगा, वही क्लोरोफार्म से बाहर निकलते वक्त पहला विचार होगा। जाता है। वह फिर राम-राम, राम-राम, राम-राम कहता रहता है, अगर आप कभी बेहोश हुए हैं, तो बेहोशी का अंतिम विचार, होश आप अपना काम करते रहें। उससे कोई लेना-देना नहीं है, वह आने पर पहला विचार होता है। | अपना जारी रखता है। वह जैसे आपने एक तोता पाल लिया। वह ___ मृत्यु एकं गहरी बेहोशी है; एक रूपांतरण; एक पर्दे का अंत; एक अपना राम-राम कहता रहता है, आप अपना कुछ भी करते रहें। नाटक का समाप्त होना और दूसरे का शुरू होना है। ठीक, लेकिन ऐसा आपने भीतर स्मृति का एक टुकड़ा स्वायत्त बना लिया; अब दूसरा नाटक वहीं से शुरू होता है, जहां पहला समाप्त हुआ था। वह अपना राम-राम, राम-राम कहता रहता है। वह मैकेनिकल तो अंतिम भाव ही आपका निर्णायक हो जाता है। और अंतिम डिवाइस है। और आपके काम में कोई बाधा नहीं प हीं पड़ती। आप भाव हम इतने रद्दी करते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है, कि हम अपना जो भी करना हो, करते रहें। चोरी करनी हो, चोरी करें। वह अपने रद्दी होने की आगे की व्यवस्था कर लेते हैं। आदमी मरता है | कहता रहेगा, राम-राम, राम-राम, राम-राम। चोरी में भी बाधा भयभीत, चिंतातुर, तनाव से घिरा हुआ, दुखी, घबड़ाया हुआ। सब नहीं पड़ेगी। बल्कि और मजे से करेंगे कि देखो, राम-नाम भी चल लुटा जा रहा है! ऐसी बेचैनी में, नारकीय चित्त में मरता है। वह रहा है; अब तो कोई डर ही नहीं है। अपने नर्के का इंतजाम कर लिया। वह फिर उसी सिलसिले को इसलिए राम-नाम को लेने वाले कुशलता से चोर हो सकते हैं। शुरू कर देता है। उनकी कुशलता और महंगी हो जाती है, क्योंकि वे कहते हैं, हम आखिरी भाव बहुत कीमत का है, लेकिन आखिरी भाव को | तो राम-नाम ले रहे हैं! कोई डर नहीं है। सम्हालना हो, तो पूरा जीवन सम्हाल लें। क्योंकि वह भाव जो है, इस तरह का स्मरण करने वाला अगर कोई होगा, तो वह सिर्फ सारे जीवन का निचोड़ है। वह ट्रामैटिक है, वह बहुत डिसीसिव | यंत्रवत स्मरण कर रहा है। यंत्रवत और हार्दिक स्मरण का फर्क है, उससे निर्णय होता है। और वह निर्णय बहुत महंगा है। क्योंकि क्या है? वह एक पूरे जन्म को तय कर जाता है। कभी किसी के प्रेम में गिरे हैं आप! तब आपको यंत्रवत स्मरण 27 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 नहीं करना होता, याद बरबस आ जाती है बरबस। नहीं करना रहेगा। धीरे-धीरे अभ्यास मजबूत हो जाएगा। तो फिर साइकिल भी चाहते, तो भी आ जाती है। कोई भी बहाना खोज लेती है और आ चलेगी, राम-राम भी चलेगा। दो साइकिलें चलेंगी, एक पैडल जाती है। अगर कभी किसी के प्रेम में गिरे हैं, फूल खिलता हुआ आप मारते रहेंगे, एक पैडल आपकी स्मृति मारती रहेगी भीतर; दो दिखता है, फूल भूल जाता है, उसकी याद आ जाती है। चांद चक्र चलते रहेंगे। निकलता है आकाश में, चांद भूल जाता है, उसकी याद आ जाती लेकिन यू कैन नाट रिहर्सल डेथ; यह दिक्कत है। मौत का कोई है। कोई गीत गाता है, वह गीत गाने वाला भूल जाता है, गीत की | रिहर्सल आप नहीं कर सकते। इसलिए अभ्यास नहीं कर सकते। कड़ी भूल जाती है, उसकी याद आ जाती है। कोई भी बहाना काम | यह बड़ी खराबी है। पहली ही दफे नाटक में सीधे खड़ा हो जाना करने लगता है। | पड़ता है। यह भी पता नहीं होता कि कौन-सा डायलाग बोलना है। प्रेम में अगर गिरे हैं! यह शब्द बड़ा अच्छा है, टु फाल इन लव! | कौन हैं, यह भी पता नहीं होता है, कि राम हैं, कि लक्ष्मण हैं, कि एक और भी प्रेम है, जिसमें चढ़ना होता है; टु राइज इन लव। वह | सीता हैं, कि रावण हैं। बस, अचानक पर्दा उठता है और खड़े हैं ईश्वर का प्रेम है। यह बड़ा अच्छा है कि हम कहते हैं कि फलां | मंच पर! और पहली ही दफे बोलना पड़ता है। उसका कोई पता ही आदमी प्रेम में गिर गया। है ही गिरना वहां। नहीं होता। कुछ लोग कभी-कभी प्रेम में चढ़ते भी हैं। कोई मीरा कभी प्रेम ___ मौत आपको अभ्यास का अवसर नहीं देती है। नहीं तो हम ऐसे में चढ़ जाती है। कोई चैतन्य कभी प्रेम में चढ़ जाता है। इस प्रेम के कुशल लोग हैं कि मौत को भी चकमा दे जाएं। हम ऐसा पक्का चढ़ने में भी वैसा ही स्मरण होने लगता है, जैसा स्मरण प्रेम के | | मजबूत रिकार्ड रख लें अपने राम-राम का, अभ्यास ऐसा कर लें गिरने में होता है। जब प्रेम के गिरने तक में हो सकता है. तो प्रेम मजबती से कि मौत को भी चकमा दे दें। के चढ़ने में तो होगा ही। | मौत की चंकि पुनरुक्ति नहीं है: अचानक आती है. आकस्मिक यह स्मरण हार्दिक है। यहां फूल खिलता है, तो परमात्मा खिल है, उसकी पहले से कोई तैयारी नहीं हो सकती, इसलिए आपकी जाता है। यहां चांद उगता है, तो परमात्मा उग जाता है। यहां सागर | | तैयारी वाला काम काम नहीं आएगा। वह तैयारी की व्यवस्था मौत में लहर आती है, तो परमात्मा की खबर ले आती है। हवा का झोंका | तोड़ ही देगी। जिसे अभ्यास से पाया था, जिस स्मरण को, मौत के । आता है, तो उसी का हो जाता है। यहां आदमी की आंखें दिखाई | | वह काम नहीं पड़ेगा। जिसे हृदय से पाया हो, तो बात अलग है। पड़ती हैं, तो वही झांकने लगता है। यहां किसी चेहरे में सौंदर्य | । हृदय से पाना अभ्यास से पाना नहीं है। प्रकट होता है, तो वह उसी का होता है। यहां कोई गीत गाता है, तो ___ इसलिए अक्सर लोग कहते हैं कि प्रेम पहली ही नजर में हो कड़ी उसकी हो जाती है। जाता है। वे ठीक ही कहते हैं। और अगर पहली नजर में न हो, तो जब स्मरण हार्दिक हो, तो फिर प्रायः लगाने की जरूरत न रहेगी। | दूसरी नजर में तो सिर्फ अभ्यास से होता है। इसलिए पहले सूत्र में जब कृष्ण ने कहा है, इसमें कोई संशय नहीं ___ अभ्यास वाला प्रेम भी है। इसलिए जो कौमें कुशल हैं, जैसे है, तो यह एक हार्दिक स्मरण की बात है। लेकिन अर्जुन की आंखों हमारी कौम है, चालाकी में बहुत कुशल है। जितनी पुरानी कौम में जरूर दिखाई पडा होगा कि वह | होती है, चालाकियों में उतनी ही कुशल हो जाती है, क्योंकि उसके तो उन्होंने कहा कि चिंतन करता हुआ अंतकाल में भी प्रायः उसी अनुभव गहरे होते हैं। इसलिए हम प्रेम नहीं करने देते, विवाह सीधा का स्मरण करता होता है-प्रायः। क्योंकि वह जो आटोनामस, | करवा देते हैं। फिर कहते हैं, अब प्रेम करो। वह अभ्यास वाला प्रेम स्वायत्त मन का टुकड़ा है, वह छोटे-मोटे काम में साइकिल | | है। रोज-रोज देखते; साथ रहते; उपद्रव; लड़ते-झगड़ते, क्षमा चलाते, कार चलाते, दुकानदारी चलाते-राम-राम करता रहता | | मांगते; क्रोध करते; अभ्यास होता चला जाता है। आखिर में पहुंच है। मौत जैसी बड़ी दुर्घटना में मुश्किल पड़ेगा। | ही जाते हैं प्रेम पर। धक्का-धुक्की खाते, भीड़-भड़क्का करते, और एक कठिनाई है। साइकिल पर बैठकर आप अभ्यास कर आखिर पहुंच ही जाते हैं! फिर किसी तरह सब सेटल चीजें हो ही सकते हैं, रिहर्सल इज़ पासिबल। रोज साइकिल पर बैठे, राम-राम | जाती हैं। करें, राम-राम करें और बैठते जाएं। कभी भूल जाएंगे, कभी याद मगर वह सेटलमेंट वैसा ही है, जैसा कि पैसेंजर गाड़ी के थर्ड गर | 281 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण * क्लास के डिब्बे में होता है हर स्टेशन पर। हर स्टेशन पर ऐसा | न होती हों, तो बहुत ही अच्छा। किसी ऐसे प्रेम में उतरना। लगता है कि अब क्या होगा! इतनी भीड़, अब कहां बैठेगी? इतना इसलिए अक्सर यह होता है, अक्सर यह होता है कि जिनके प्रेम सामान लिए कहां अंदर चले आ रहे हो? लेकिन पांच मिनट गाड़ी विराट होते हैं, वे अक्सर परमात्मा के बहुत निकट हृदय की चली, एडजस्टेड! सब सामान रख गया, सब लोग बैठ गए। बड़े धड़कन को अनुभव करने लगते हैं। मजे का है। और ये ही फिर अगले स्टेशन पर चिल्ल-पों मचाना अब एक चित्रकार है, वह सौंदर्य को प्रेम करता है। सौंदर्य का शुरू कर देंगे। और हर स्टेशन पर यही होता रहा है। इसलिए हिंदी | | प्रेम जरा असीम है। वह जल्दी ही हार्दिक स्मरण को पा सकता है। में जो शब्द है रेलगाड़ी के कंपार्टमेंट के लिए डब्बा, वह बिलकुल | एक राजनीतिज्ञ उतनी आसानी से नहीं पा सकता। उसका प्रेम बहुत ठीक है। डब्बा! कुछ भी हिला-डुलाकर बिठाल दो, बैठ जाता है। सीमित और बहुत क्षुद्र है। मृत्यु के साथ यह नहीं चलेगा; अभ्यास नहीं चलेगा। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है उसके दो बेटों के संबंध में परमात्मा से अगर कोई हार्दिक प्रेम हो जाए, अनभ्यास का प्रेम हो कि क्या हालत है बेटों की? तो नसरुद्दीन ने कहा, पहला तो जाए; पुनरुक्ति से आया हुआ नहीं, हृदय की स्फुरणा से आया राजनीतिज्ञ हो गया, और दूसरे के भी आसार अच्छे नहीं हैं! एक हुआ। मगर यह कैसे होगा? तो शायद कृष्ण को प्रायः न लगाना राजनीतिज्ञ हो गया है और दूसरे के भी आसार अच्छे नहीं हैं! पड़े। तो फिर कहा जा सके, निस्संदेह रूप से। निःसंशय होकर क्षुद्र, कुर्सी, वह भी छोटी, जिससे हम ही बंध सकें अकेले, कहा जा सके कि हां, ठीक; हो ही जाएगा। इतनी छोटी! दूसरे को भी जगह उसमें नहीं रखनी पड़ती; दूसरा अभ्यास तो समझ में आता है; हम भी कर सकते हैं। यह हार्दिक | कहीं सरककर उसमें प्रवेश न कर जाए। तो फिर आदमी क्षुद्र होता समझ में नहीं आता, कैसे होगा! हृदय नाम की चीज वैसे ही न के चला जाता है। बराबर है हमारे पास। हम हृदय से कुछ किए ही नहीं हैं, तो | ___ जहां भी क्षुद्र का प्रेम हो, वहां सजग होना। और जहां भी विराट परमात्मा को कैसे पुकार पाएंगे। और अगर हार्दिक करना हो को मौका मिले, मौका देना। जहां भी लगे कि कोई विस्तार है, परमात्मा से लगाव, तो काफी बड़ा हृदय चाहिए पड़े। छोटे हृदय | | जिसको हम प्रेम कर सकते हैं...। सुबह सूरज निकला है, तो सिर्फ में, संकुचित हृदय में, उसको बुलाया भी नहीं जा सकता। और | | इतना कहकर अपने रास्ते पर मत चले जाना कि हां, ठीक है; सुंदर हमारे हृदय ऐसे संकुचित हैं कि आदमी भी एक-दूसरे के भीतर | है। यह कहना बहुत अपमानजनक है। असल में जिसे सुबह के प्रवेश नहीं कर पाते, तो परमात्मा का प्रवेश तो बहुत दूर है। | सौंदर्य का पता चलता है, शायद ही ऐसा कहता हो। यह बहुत क्षुद्र हमारे हृदय में सिर्फ वस्तुएं ही प्रवेश कर पाती हैं, व्यक्ति भी | है वक्तव्य। जिसे सुबह के सौंदर्य का पता चलता है, वह दो क्षण प्रवेश नहीं कर पाते। वस्तुएं! कोई हीरे के प्रेम में मरा जा रहा है! सूरज के निकट बैठ जाता है। वह अपने हृदय को खोल लेता है। कोई धन के प्रेम में मरा जा रहा है! कोई सोने के प्रेम में मरा जा रहा | | वह इन किरणों को अपने में समा जाने देता है, और अपने हृदय के है। कोई कुर्सी और पद के प्रेम में मरा जा रहा है। बस, वस्तुएं प्रवेश आंतरिक भाव को सूरज तक पहुंच जाने देता है। इसमें कहीं कर पाती हैं; व्यक्ति तक प्रवेश नहीं कर पाते। | बातचीत नहीं होती। तो जिसे परमात्मा की तरफ हार्दिकता को ले जाना हो, एक तो | जब आकाश सुंदर मालूम पड़े, तो नीचे लेट जाना थोड़ी देर को। उसे सबसे पहले वस्तुओं के प्रेम के प्रति सजग होना पड़े। फिर | छाती तक उस आकाश को उतर आने देना। कि वह आलिंगन कर व्यक्तियों के प्रेम को बढ़ाना पड़े। और जब वस्तुओं का प्रेम गिर | ले, और सब तरफ से घेर ले। भूल जाना अपनी क्षुद्रता को थोड़े जाए और व्यक्तियों का प्रेम गहरा हो जाए, तब व्यक्तियों के प्रेम | क्षणों में, उस विराट फैलाव को प्रेम कर लेना। को भी गिरा देना पड़े और निर्व्यक्ति के प्रेम में उठना पड़े। । लेकिन हम बड़े संकरे प्रेम करते हैं। उन संकरे प्रेमों में हम संकरे तो ध्यान रखना, जितना बड़ा आपका प्रेम-पात्र होगा, उतना ही | | होते चले जाते हैं। लेकिन यह मैं कह रहा हूं, यह अभ्यास की बात बड़ा आपका हृदय हो जाएगा। छोटे-मोटे के प्रेम में पड़ना ही मत। | नहीं है, यह अवसर को खोजने की बात है। अवसर रोज हैं। अगर प्रेम में ही पड़ना हो, तो क्षुद्र के क्या पड़ना! तो जरा खोजना कोई | नजर हो, तो अवसर रोज हैं। उन अवसरों का प्रयोग करते रहना विराट, कोई विस्तार, कोई जहां सीमाएं दूर कहीं समाप्त होती हों; | है। तो धीरे-धीरे उस परम ज्योति का स्मरण, उस परम विराट का Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 स्मरण आसान हो जाता है। और उसकी तरफ हृदय की लगन लग | - अभी जाने के पहले पांच-सात मिनट यहां भी हम कीर्तन करेंगे। जाए, तो फिर याद करना नहीं होता, वह याद बना रहता है। उसे | | अभी उठ नहीं जाएंगे आप। पांच-सात मिनट हमारे संन्यासी यहां भूलना ही मुश्किल हो जाता है। | कीर्तन करेंगे, उसमें आप भी सम्मिलित हों। आप भी सम्मिलित पूछा है किसी ने फकीर बायजीद से कि बायजीद, तुम्हें हम कभी | | हों। वहीं बैठे हुए कीर्तन को दोहराएं। ताली बजाएं। डोल तो सकते ईश्वर का स्मरण करते नहीं देखते! तुम कभी नमाज पढ़ने नहीं आते | हैं बैठे-बैठे। उस आनंद को, उस पुलक को थोड़ा स्पर्श करें। मस्जिद में? बायजीद ने कहा, हम उसे भूल ही नहीं पाते; याद कैसे | | शायद! कोई नहीं जानता, कब कोई बात छू जाए, और हृदय की करें! हम उसे भूल ही नहीं पाते हैं; याद कैसे करें? नमाज पढ़ने | वीणा बजने लगे। आएं क्या? नमाज चौबीस घंटे ही चल रही है। उठते हैं, तो वह है। सोते हैं, तो वह है। जागते हैं, तो वह है। खाते हैं, तो वह है। हम पागल हो गए हैं उसकी याद में। उसे हम भूल ही नहीं पाते हैं। याद करना अभ्यास से होता है, हृदय से भूलना मुश्किल हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सके, तो निस्संदेह, निःसंशय जो मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरे ही स्वरूप को उपलब्ध हो जाते हैं। आखिरी बात। ये सारी बातें हम सुन लेते हैं। और शायद लगता होगा कि कृष्ण ने ठीक ही कहा। या मैंने जो कहा, ठीक ही है। लेकिन इतना सोचने से कुछ भी हल नहीं है। इतना सोचना खतरनाक भी हो सकता है। इस सोचने से भ्रम भी पैदा होता है कि हम समझ गए, और समझे जरा भी नहीं। तो जिनको भी ऐसा लगता हो कि ठीक है, वे कल सुबह आ जाएं कुछ करने को, किसी अवसर को खोजने को। एक बात खयाल रख लें, अकेली समझ काफी नहीं है। क्योंकि अकेली समझ को टिकने के लिए कोई जड़ें नहीं होती हैं हमारे पास। समझ आती है और बादल की तरह सरक जाती है। उस बादल को गड़ाना पड़ेगा जमीन में, जड़ें देनी पड़ेंगी, ताकि वह वृक्ष बन जाए। उसके लिए कछ करना पडेगा। और वह करना हार्दिक है, अभ्यास नहीं है। तो सुबह जो हम ध्यान कर रहे हैं, वह एक हार्दिक अवसर की मौजूदगी भर है। आपके लिए अभ्यास महत्वपूर्ण नहीं है। यहां हम, हमारे संन्यासी हैं, इनमें से अनेक के हृदय में वह हृदय की भावना जगी है। वे यहां गाएंगे. नाचेंगे। शायद देखते-देखते उनकी धुन आपको भी पकड़ जाए। शायद खड़े-खड़े आपके पैर में भी कंपन आ जाए। शायद उनकी मौज इनफेक्शियस हो जाए, छूत की बीमारी हो जाए, आपको भी छू ले। और परमात्मा करे कि छू ले, तो आप भी नाच उठे और उस लहर में बह जाएं। तो सुबह सिर्फ एक अवसर है, जस्ट एन ऑपरचुनिटी। आ जाएं। शायद उस अवसर में कुछ बहाव मिल जाए, और कुछ हो जाए। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 तीसरा प्रवचन स्मरण की कला Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। यह ऐसे ही हुआ, जैसे कोई सोचे कि शेष समय दूसरे काम मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।। ७ ।। करें, घड़ी आधी घड़ी को श्वास ले लें! यह नहीं हो सकता। यह अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । असंभव है। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।। ८ ।। कृष्ण अर्जुन को इसलिए कहते हैं, इसलिए हे अर्जुन, तू सब कविं पुराणमनुशासितारम् समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। यह स्मरण तेरे अणोरणीयां समनुस्मरेद्यः । युद्ध में बाधा नहीं बनेगा। और तू अगर सोचता हो कि प्रभु को सर्वस्य धातास्मचिन्त्यरूपम् स्मरण करना है, तो जंगल में भाग जाना पड़ेगा, तो गलत सोचता आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। ९ ।। | है। तू युद्ध भी कर और स्मरण भी कर। इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर | इसका अर्थ हुआ, जो व्यक्ति जो कर रहा है, उसे करता रहे, और युद्ध भी कर । इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए और स्मरण भी करे। लेकिन कठिनाई मालम पडती है। क्योंकि जब मन-बुद्धि से युक्त हुआ निःसंदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। | भी हम स्मरण करेंगे, तब दूसरे काम के करने में बाधा पड़ेगी। और हे पार्थ, परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से चित्त की व्यवस्था ऐसी है कि चित्त की नोक पर एक चीज से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता ज्यादा एक साथ नहीं हो सकती। जब आप एक बात को स्मरण करते हुआ पुरुष परम दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही हैं, तब दूसरी बात से चित्त हट जाता है। दूसरी बात पर लगाते हैं, प्राप्त होता है। तो पहली बात से हट जाता है। चित्त का स्वभाव एकाग्र होना है। इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी __ तो युद्ध करते हुए प्रभु को कैसे स्मरण किया जा सकता है? अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिंत्यस्वरूप, | | अगर युद्ध करते समय भी कोई राम-राम की धुन लगाए रहे, तो सूर्य के सदृश प्रकाशरूप, अविद्या से अति परे, शुद्ध | या तो उसका मन राम-राम में उलझेगा, और तब युद्ध से छूट सच्चिदानंदघन परमात्मा को स्मरण करता है...। जाएगा; और या युद्ध में उलझेगा, तो राम-राम को भूल जाएगा। और कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू दोनों साथ ही साथ कर। तो निश्चित ही यह स्मरण किसी और तरह का होगा-उसे हम समझ 11 भु का स्मरण या तो थोड़ी देर को हो सकता है। लेकिन लें जिससे युद्ध में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। प्र थोड़ी देर को किया हुआ स्मरण प्राणों की गहराई तक परमात्मा का स्मरण या तो उसके नाम के दोहराने से जुड़ जाता प्रवेश नहीं कर पाता है। सतह ही छती है उससे. है. जो कि सच्चा स्मरण नहीं है। सच्चे स्मरण में नाम की भी अंतस्तल अछूता रह जाता है। श्वास की भांति सतत स्मरण | जरूरत नहीं रह जाती। असल में नाम तो बहाना है स्मरण को रखने चाहिए। श्वास जैसे बीच में बंद हो जाए, तो जीवन से संबंध छूट का। जैसे कोई आदमी बाजार जाता है और कोई चीज लाने की जाता है, ऐसे ही स्मरण का धागा भी क्षणभर को भी छूट जाए, तो | | तैयारी करके जाता है, और भूल न जाए, तो अपने कपड़े में एक परमात्मा से संबंध टूट जाता है। स्मरण श्वास है परमात्मा की तरफ गांठ लगा लेता है। भूल न जाए, इस डर से कपड़े में गांठ लगा व्यक्ति के जीवन से बहती हुई। शरीर से जुड़े रहना हो, तो श्वास | लेता है। भूल न जाए इस डर से, जिसे भूलने का डर है, उसे गांठ चाहिए; प्रभु से जुड़ा रहना हो, तो स्मरण चाहिए। लगानी पड़ती है। लेकिन जो भूल सकता है, वह बाजार जाकर यह लेकिन हम चौबीस घंटे यदि प्रभु का स्मरण करें, तो और शेष भी भूल सकता है कि गांठ किसलिए लगाई थी। सब काम कब कर पाएंगे? यदि चौबीस घंटे प्रभु का स्मरण ही | | मैंने सुना है कि रूजवेल्ट जब बोलते थे, तो अक्सर भूल जाते करना हो, तो कब करेंगे भोजन, कब सोएंगे, कब जागेंगे; कब | थे और काफी लंबा बोल जाते थे। बीस मिनट बोलना हो, तो साठ दुकान, कब बाजार, कब युद्ध-यह सब कब होगा? इसलिए एक | मिनट बोल जाते, अस्सी मिनट बोल जाते। बड़ी मुश्किल खड़ी हो समझौता आदमी ने खोजा, और वह यह कि और सब काम भी हम | | जाती थी। और जब वे प्रेसिडेंट हुए, तो उनके मित्रों ने कहा, अब करें, घड़ी आधी घड़ी को प्रभु का स्मरण कर लें। | ऐसी भूल-चूक नहीं चलेगी। तो पहले ही दिन बोलने खड़े हुए, तो 32 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरण की कला उन्होंने घड़ी हाथ से निकालकर टेबल पर रख ली और कहा कि मैं घड़ी सामने रखे लेता हूं, ताकि मुझे पता रहे कि मैं ज्यादा तो नहीं बोल गया। लेकिन शर्त एक ही है कि मुझे यह याद रह जाए कि मैंने कब बोलना शुरू किया था। घड़ी तो बता देगी कि अब दस बज गए, लेकिन यह भी याद रखना जरूरी है कि बोलना शुरू कब किया था! जो भूल सकता है, वह कुछ भी भूल सकता है। प्रभु को बिना नाम के स्मरण नहीं रखा जा सकता, तो नाम के साथ भी भूला जा सकता है। और यही हुआ है। नाम लोग दोहराते रहते हैं और प्रभु को बिलकुल स्मरण नहीं कर पाते। गांठ ही हाथ में रह जाती है; किसलिए लगाई थी, वह भूल जाता है। गांठ सहयोगी हो सकती है। लेकिन सहयोगी हो सकती है, अगर भीतर याद मौजूद हो। नाम भी सहयोगी हो सकता है। लेकिन सिर्फ सहयोगी है। नाम ही स्मरण नहीं है, सिर्फ गांठ है। कृष्ण जिस स्मरण को कह रहे हैं, वह और है। एक तो मैं भीतर याद रखूं, परमात्मा है, परमात्मा है। और एक मैं अनुभव करूं, ज्योति है चारों ओर । दिखाई पड़ता है जो, सुनाई पड़ता है जो, सामने जो खड़ा है दुश्मन की तरह प्रत्यंचा पर तीर को चढ़ाकर, छाती को बेध देने को, वह भी प्रभु है । यह जो चारों तरफ विस्तार है, यह उसका ही विस्तार है, इसका बोध, इसकी अवेयरनेस अगर बनी रहे, तो फिर आप कुछ भी काम कर सकते हैं, स्मरण बाधा नहीं बनेगा, क्योंकि कोई भी काम स्मरण के लिए ही गांठ सिद्ध होगा। ध्यान रखिए, एक तो नाम की गांठ लगानी पड़ती है, वह दूसरे कामों में बाधा बनेगी। लेकिन हम दूसरे समस्त कामों को ही परमात्मा को समर्पित हिस्सा समझ लेते हैं। तो: कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध कर और स्मरण कर । युद्ध करता हुआ स्मरण कर । इसका एक ही अर्थ है, युद्ध जो कर रहा है वह, दुश्मन जो खड़ा है वह, जो भी हो रहा है चारों ओर कोई भी जीते, और कोई भी हारे, और कोई भी परिणाम हो; इस सबके बीच परमात्मा ही सक्रिय है। यह बोध अंगर हो, तो आप दुकान पर बैठकर, दुकान का काम करते वक्त, ग्राहक से बात करते वक्त, प्रभु का स्मरण रख सकते हैं। क्या कठिनाई है कि ग्राहक में प्रभु को न देखा जा सके ? कौन-सी कठिनाई है कि जब आप कोई सामान हाथ में उठाते हों, तो उसमें प्रभु को अनुभव न किया जा सके ? स्नान करते हों, तो जल की धार सिर पर पड़ती हो, वह परमात्मा की धार न बन जाए, इसमें बाधा क्या है? भोजन जब करते हों, तब वह प्रभु का ही प्रसाद हो, प्रभु ही हो, इसमें अड़चन क्या है? अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन की समस्त धारा के कण-कण प्रभु को स्मरण कर पाए, तो ही स्मरण अलग काम नहीं बनता । समस्त कामों के बीच, इसे ऐसे पिरो दिया जाता है, जैसे कि माला के मनकों के बीच धागा पिरोया हो । दिखाई भी नहीं पड़ता, और सब मनकों को वही सम्हाले, भीतर पिरोया होता है। स्मरण का अर्थ है, धागे की तरह जीवन के सारे कामों के भीतर प्रवेश कर जाए और जीवन की एक माला बन जाए, और उस माला को हम प्रभु के चरणों में रखने में समर्थ हो जाएं। वह स्मरण आपके प्रत्येक काम को ही ध्यान बना दे । कबीर कपड़ा बुनते हैं, तो भी वे गा रहे हैं, झीनी झीनी बीनी री चदरिया ! वे कपड़ा बेचने जा रहे हैं, तो भी वे ऐसे भागे जा रहे हैं कि जैसे राम बाजार में कपड़ा खरीदने को आया होगा। ग्राहक सामने है, तो वे उसे चादर ऐसी फैलाकर बताते हैं। और बड़े मजे की बात है कि कबीर जब किसी ग्राहक को चादर बेचते थे, तो उससे कहते थे, राम ! बहुत सम्हालकर रखना । बहुत याददाश्त के साथ इसे बुना है। इसके रोएं - रोएं में तुम्हें ही बुना है। ग्राहक तो कभी चौंक भी जाता था कि यह किस पागल से हम चादर खरीदने आ गए! वह मुझे राम कह रहा है ! कबीर जब ज्ञानी हो गए, परम ज्ञानी हो गए, तो शिष्यों ने कहा कि अब यह कपड़े बुनने का काम बंद कर दो, यह शोभा नहीं देता । महाज्ञानी को यह शोभा नहीं देता कि वह कपड़े बुने और बाजार में | बेचे, और एक बुनकर का काम करे ! कबीर ने कहा, अगर ज्ञानी को कोई काम शोभा नहीं देता, तो फिर यह परमात्मा को इतना बड़ा काम विराट विश्व का कैसे शोभा देता होगा? और अगर परमात्मा इतने विराट के काम में लीन है और छोड़कर नहीं भाग जाता, तो मैं तो छोटे-मोटे काम में लगा हूं कपड़ा बुनने के, इसे छोड़कर भाग जाने की मैं कोई जरूरत नहीं मानता हूं। ज्ञानी छोड़कर भागे क्यों? ज्ञानी जहां है, वहीं क्यों न राम को पिरो दे? ज्ञानी जहां है, जो कर रहा है, उसी को ही क्यों न प्रभु का स्मरण बना ले ? काश, ज्ञानी कम भागे होते, तो जीवन ज्यादा सुंदर होता। ज्ञानियों के भागने से जीवन अज्ञानियों के हाथ में पड़ गया है। लेकिन कहा नहीं जा सकता। कभी किसी ज्ञानी को भागने का कर्म ही ऐसा पकड़ लेता है कि वही उसके लिए प्रभु का स्मरण बन जाता है। वह दूसरी बात है। 33 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* लेकिन अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध कर। अर्जुन की | नहीं होता है। तकलीफ, अर्जुन की चिंता यही है कि वह कहता है कि यह युद्ध | सवाल है स्मरण की कला का, दि आर्ट आफ रिमेंबरिंग। उसे और धर्म दो अलग चीजें हैं। अगर मुझे युद्ध करना है, तो मैं | | हम कैसे याद करें? और उसकी याद करते-करते ही हम बदल जाते अधार्मिक हो जाऊंगा। और अगर मुझे धार्मिक होना है, तो मुझे | | हैं। सच तो यह है, एक बार भी कोई हृदयपूर्वक प्रभु का स्मरण युद्ध छोड़कर भाग जाना चाहिए। यह अर्जुन की ही चिंता नहीं, हम | | करे, तो फिर वही आदमी नहीं रह जाता, जिसने स्मरण किया था। सभी की चिंता है। यह हो नहीं सकता। अगर स्मरण किया गया है. तो स्मरण इतनी आज ही कोई मित्र मेरे पास थे। वे कहते थे, आप कहते हैं | | बड़ी घटना है कि उस व्यक्ति का आमूल जीवन बदल जाता है। हां, संन्यास। यदि मुझे संन्यास लेना है, तो मुझे घर छोड़कर जाना ही | स्मरण नहीं किया गया है, तब बात और है। पड़ेगा। और अगर मुझे घर में रहना है, तो संन्यास मुझे नहीं लेना युद्ध करते हुए प्रभु का स्मरण कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए चाहिए। हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। क्यों? घर और संन्यास में ऐसा क्या विरोध है ? अगर युद्ध और और तू भय मत कर। और तू डर मत। युद्ध से भाग मत। परमात्मा के स्मरण में विरोध नहीं, तो घर और संन्यास में क्या | मन-बुद्धि से युक्त होकर मेरा स्मरण कर, तो तू निश्चय ही मुझे विरोध हो सकता है? उनसे मैंने कहा कि संन्यास भी लो और घर | प्राप्त होगा। मन-बुद्धि से युक्त हुआ, इस बात को ठीक से समझ में भी रहो। उन्होंने कहा, आप कैसी उलटी बातें कहते हैं! लेना चाहिए। अर्जुन के मन में भी ऐसा ही हुआ होगा कि कैसी उलटी बातें निरंतर ऐसा होता है। हृदय कुछ कहता है, बुद्धि कुछ कहती है, कहते हैं! अगर संन्यास लेना है, घर छोड़ दो। यह समझ में आता और दोनों में कभी योग नहीं हो पाता। दोनों में कभी योग नहीं हो है। घर में रहना है, संन्यास की बात छोड़ दो। यह भी समझ में पाता। बुद्धि कहती है, यह ठीक है; हृदय कहता है, कुछ और ठीक आता है। यह गणित बहत साफ है। है। और निरंतर भीतर एक कलह, एक काफ्लिक्ट निरंतर चलती लेकिन साफ गणित अक्सर ही जिंदगी के गणित नहीं होते। रहती है। जिंदगी बहुत बेबूझ है। और जिंदगी के मामले में जो बहुत सफाई | हृदय कहता है, डूब जाओ भजन में। बुद्धि कहती है, पागल हुए. करने की कोशिश करता है, उसके हाथ में मुर्दा चीजें हाथ लगती हो? हृदय कहता है, कब तक रुके रहोगे पदार्थों के साथ; खोजो हैं, जिंदगी हाथ नहीं लगती। काटते ही चीजें मर जाती हैं, बांटते ही प्रभु को! बुद्धि कहती है, अभी समय बहुत है; अभी समय कहां चीजें मर जाती हैं। अगर संश्लिष्ट, सिंथेटिक जीवन को समझना हुआ; अभी तो जीवन बहुत पड़ा है। पहले थोड़ा संसार का तो और हो, तो जीवन बड़ा बेबूझ है। वहां युद्ध करते हुए अगर कोई ध्यान | | अनुभव ले लो। और परमात्मा को तो फिर कभी भी पाया जा सकता कर सके, तो ही जीवन की गहन धारा में प्रवेश करता है। | है। वह प्रतीक्षा करता ही रहेगा। वह कोई चुक जाने वाला नहीं है। जीवन में चुनाव नहीं है। ध्यान के साथ युद्ध हो सकता है। | और इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हो जाएगा। लेकिन यह स्मरण के साथ युद्ध हो सकता है। और सच तो यह है, जब स्मरण | | संसार का तो भोग ठीक से कर ही लो। के साथ युद्ध होता है, तो युद्ध युद्ध नहीं रह जाता है। वही कृष्ण | बुद्धि और हृदय के बीच दरार है। और कोई व्यक्ति अगर इस अर्जुन से कह रहे हैं। तू स्मरण कर और युद्ध कर, क्योंकि स्मरण | | दरार के साथ स्मरण करेगा, तो वह स्मरण पूरा नहीं हो पाएगा। के साथ ही युद्ध युद्ध नहीं रह जाता। और अगर तू युद्ध से भी भाग | | कुछ लोग बुद्धि से ही स्मरण करते हैं। जो लोग बुद्धि से स्मरण गया और स्मरण की कला न जानी, तो तेरा संन्यास भी संन्यास नहीं | | करते हैं, उनका स्मरण एक तरह का इनवेस्टमेंट होता है। वे सोचते हो सकेगा। | हैं कि अगर प्रभु को स्मरण न किया, तो कहीं नर्क न जाना पड़े। वे __ अगर स्मरण की कला ज्ञात हो, तो कसाई का काम करने वाला | | सोचते हैं कि अगर प्रभु को स्मरण किया, तो स्वर्ग मिल जाएगा। भी मंदिर के पुजारी से बहुत पहले प्रभु के मंदिर में प्रवेश कर जा वे सोचते हैं कि प्रभु को स्मरण किया, तो जीवन में सफलता सकता है। और अगर स्मरण की कला ज्ञात न हो, तो जीवनभर मिलेगी; दुख कम आएगा, सुख ज्यादा होगा। वे सोचते हैं, अगर मंदिर के पूजागृह में बैठकर भी, सिर पटकने पर भी कोई परिणाम | कुछ भी न हुआ, तो भी स्मरण करने में हर्ज क्या है! अगर कहीं 34 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्मरण की कला कोई ईश्वर है और स्मरण न किया, तो नुकसान हो सकता है। अगर | __ हर आदमी इसी तरह देख रहा है। छोटे-मोटे दांव लगाकर नहीं है, और स्मरण कर भी लिया, तो हर्ज क्या है! कोई नुकसान कहता है कि अच्छा, इसको करके दिखा दो! तो नहीं है। ऐसा जो लोग सोचते हैं हिसाब-किताब की भाषा में, | दिदरो पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ। वह अक्सर इनके हृदय में, इनके मन की गहराइयों में कहीं भी प्रभु के लिए कोई सभाओं में खड़े होकर अपनी जेब से घड़ी निकाल लेता था और : प्यास नहीं है। यह बौद्धिक व्यापार है। कहता था, इस वक्त घड़ी में नौ बजे हैं। अगर कहीं कोई परमात्मा लेकिन हम सभी को प्रभु के संबंध में इसी तरह का बौद्धिक हो, आठ बजाकर बता दे, तो मैं मान लूं! घड़ी में नौ बजकर एक व्यापार सिखाया जाता है। बचपन से कहा जाता है, प्रभु का स्मरण मिनट बज जाता, नौ बजकर दो मिनट बज जाते। तो फिर वह करो, तो परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे। हमने हिसाब की बातें | कहता, देख लो। मिल गया काफी प्रमाण कि परमात्मा नहीं है। सिखानी शुरू कर दी। | यदि कोई असफल होता है. तो प्रमाण मिल जाता है कि परमात्मा हमें पता नहीं है कि हम आदमी को किस भांति अधार्मिक बनाते नहीं है। और अगर सफल होता है, तो प्रमाण मिल जाता है कि । हैं। अगर यह बच्चा, जिससे हमने कहा कि प्रभु का स्मरण करो, | परमात्मा को भी खुशामद से फुसलाया जा सकता है; वह भी स्तुति परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे, अगर उत्तीर्ण हो गया, तो समझेगा कि से प्रसन्न होता है। और लाभ अगर चाहिए हो, तो उसका भी स्मरण करने में लाभ है। तो भी यह आदमी अधार्मिक हो गया, | उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि लाभ के लिए जो स्मरण करता है, वह धार्मिक नहीं है। प्रेम उपयोग करना नहीं जानता। प्रार्थना भी उपयोग के लिए नहीं लाभ के लिए स्मरण करने में धर्म क्या है ? लाभ ही लक्ष्य है;| हो सकती। और जहां उपयोग है, वहां कोई संबंध नहीं है, वहां कोई स्मरण तो केवल साधन है। तो हमने प्रभु से भी थोड़ी नौकरी-चाकरी हार्दिक संबंध नहीं है। ले ली! बस, इतनी ही उस पर कृपा की। थोड़ी सेवा उससे भी ले | तो बुद्धि तो या तो नास्तिक बना देती है या नास्तिक से भी ली। या ज्यादा कहें तो ऐसा कि थोड़ी खुशामद की कि तेरा नाम | बदतर आस्तिक बना देती है। नास्तिक भी ठीक है फिर भी; कहता लेने से तू प्रसन्न होता है, तो चलो ठीक है। तेरा नाम लेने से तू प्रसन्न | है, नहीं है। आस्तिक से बेहतर है। आस्तिक, तथाकथित आस्तिक, हो ले, और हमें जो पाना है, वह देकर हमें प्रसन्न कर दे। तो एक तो परमात्मा का इस बुरी तरह अपमान किए चला जाता है, समझौता है, एक सौदा है। जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि लाभ! बीमारी है, . अगर उस बच्चे को सफलता मिल गई, तो भी वह अधार्मिक हो तो ठीक हो जाए; और नौकरी नहीं मिलती है, तो नौकरी मिल जाएगा। क्योंकि लाभ-केंद्रित हो जाएगा. प्राफिट-ओरिएंटेड हो जाए तो परमात्मा है. इसका प्रमाण मिलता है। नहीं तो सब जाएगा। और अगर असफल हो गया, तो वह सदा के लिए समझ प्रमाण खो जाते हैं। लेगा कि प्रभु वगैरह कुछ भी नहीं है, उसके नाम लेने से कुछ भी | | नहीं, बुद्धि काफी नहीं है। लेकिन हमारा सारा शिक्षण बुद्धि का नहीं होता। | है। और बुद्धि के नीचे छिपा हुआ जो गहन मन है, जो भाव जगत मुल्ला नसरुद्दीन के मकान में आग लगी है। और वह अपने है, वह जो अंतस्तल है हृदय का, वह बिलकुल अछूता रह जाता मकान के बाहर एक वृक्ष के नीचे आराम से टिका हुआ बैठा है। है। कभी-कभी उस अछूते हृदय से भी आवाज आती है। लेकिन आधी रात का सन्नाटा है। रास्ते पर कोई नहीं है। पड़ोसी सब सोए बुद्धि उसे दबाती रहती है। हुए हैं। एक अजनबी आदमी राह भटक गया है। उसने गांव में आग आज ही एक मित्र मेरे सामने ही खड़े थे। कई बार मैंने अनुभव लगी देखी, तो भागा हुआ सड़क से आया। दरवाजे के भीतर घुसा। किया कि उनके भीतर तरंग आती है कि वे डूब जाएं कीर्तन में, मुल्ला को बैठे देखा दरख्त के नीचे। उसने कहा, क्या कर रहे हो? | | लेकिन फिर आंख खोलकर अपने को सम्हालकर रोक लेते हैं। पागल हो गए हो? मकान में आग लगी है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा ___ यह कौन रोक रहा है भीतर? यह बुद्धि रोक रही है; वह कहती कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं। और देखना है आज कि परमात्मा है या | है कि आप सुशिक्षित हैं, सज्जन हैं। ऐसा नाचकर ग्रामीण जैसा नहीं। मैं प्रार्थना कर रहा हूं कि वर्षा हो जाए, और देखना है आज | | काम कैसे करेंगे? विश्वविद्यालय से उपाधि-प्राप्त हैं। कोई देख कि परमात्मा है या नहीं! | लेगा, क्या सोचेगा? पागल हो गए हैं ? हृदय में झनक आती है। 35 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 धुंधर बजते हैं भीतर कहीं। उनके पैर कंपते हैं। फिर वे आंख अंतरतम की बातें, तो हमारी नासमझी है। हम जिससे पूछ रहे हैं, खोलकर अपने को सम्हालकर खड़े हो जाते हैं! प्रतिपल आप उसे पता ही नहीं है। लेकिन जिसे कुछ भी पता नहीं है, वह भी अनुभव करेंगे, हृदय अंकुर भेजना चाहता है, लेकिन बुद्धि उसे जवाब तो देने में कुशल होता ही है। तत्काल दबा देती है। __ अक्सर तो ऐसा होता है, जिन्हें कुछ भी पता नहीं होता, वे जवाब इसलिए कृष्ण कहते हैं, मन-बुद्धि से युक्त हुआ। देने के लिए बड़े आतुर होते हैं। कभी-कभी जिन्हें पता होता है, वे मन भी कहे हां और बुद्धि भी कहे हां, तो ही दोनों के बीच | | जवाब देने से रुक भी जाते हैं; लेकिन जिनको पता नहीं होता, वे तालमेल निर्मित हो जाता है। दोनों के बीच सेतु बन जाता है। और | बहुत जल्दी जवाब दे देते हैं। शायद इसीलिए कि कहीं झिझकें, तो उस सेतु के बंधे हुए क्षण में ही व्यक्ति पूरा का पूरा प्रभु को स्मरण | पता न चल जाए कि पता नहीं है। जल्दी जवाब दे देते हैं। कर पाता है। बुद्धि बड़े जल्दी जवाब दे देती है। अगर आप बुद्धि से ही पूछते ___ कैसे यह होगा? अगर बुद्धि की ही सुनते रहे, तो यह कभी न | चले गए, तो परमात्मा की कोई सन्निधि, कोई सुगंध, कोई संगीत, होगा। क्योंकि बुद्धि बहुत ऊपरी बात है। कभी नहीं मिल सकेगा। जरा बुद्धि को हटाएं और भीतर के हृदय अगर कोई सागर अपनी लहरों की ही मानता चला जाए, तो | | से पूछे। हां, बुद्धि का उपयोग करें। हृदय की आवाज हो; बुद्धि उसके अंतरगर्भ में छिपे हुए मोतियों के ढेर का उसे कभी भी पता | | का उपयोग हो। हृदय से पूछे कि क्या करना है; और फिर बुद्धि से न चल सकेगा। क्योंकि लहरों को मोतियों की कोई भी खबर नहीं | पूछे कि कैसे करना है। तब, तब बुद्धि और हृदय में एक सुसंगति है। और लहरों से अगर पूछेगा कि क्या भीतर मोती हैं? तो लहरें बन जाती है। कहेंगी, पागल हो। भीतर कुछ भी नहीं है। क्योंकि लहरें! लहरें इसे ठीक से समझ लें। सदा ऊपर हैं। उन्हें भीतर का कुछ भी पता नहीं है। लहरें कहेंगी, हृदय से पूछे लक्ष्य, बुद्धि से पूछे साधन। हृदय से पूछे अंतिम मोती! नासमझ हो। कभी-कभी सूखे पत्ते बहते हुए जरूर आ जाते सिद्धि, बुद्धि से पूछे पहुंचने का मार्ग। हमेशा हृदय से पूछे कि क्या हैं। कचरा-कबाड़ जरूर कभी-कभी लहरों पर आ जाता है। उन्हीं | | चाहिए और बुद्धि से पूछे कि यह चाहिए, अब इसे पाने के लिए को लहरों ने जाना है; मोतियों की गहराइयों का उन्हें कुछ भी पता | क्या करना है। बुद्धि मैथडॉलाजी दे सकती है, विधि दे सकती है, ' नहीं। अगर सागर लहरों की माने, तो अपनी ही संपदा से वंचित मार्ग दे सकती है। लेकिन बुद्धि कभी लक्ष्य नहीं देती। और हम सब हो जाता है। | बुद्धि से लक्ष्य पूछकर भटक जाते हैं। हम भी अपनी बुद्धि की लहरों की-बुद्धि बहुत ऊपरी सतह है। ___ इसे ऐसा समझें तो बहुत आसान हो जाएगा। बुद्धि का जो चरम बुद्धि हमारी वह सतह है मन की, जिससे हम जगत के साथ संबंध | | विकास है, वह विज्ञान में हुआ है। हृदय का जो चरम विकास है, स्थापित करते हैं। बुद्धि ठीक वैसी है, जैसे किसी राजमहल के द्वार वह धर्म में हुआ है। पर कोई पहरेदार बैठा हो। वह पहरेदार बाहर के जगत और | अगर विज्ञान से पूछे कि हम किसलिए जीते हैं, तो विज्ञान राजमहल के बीच में है। | कहेगा, हमें पता नहीं। अगर विज्ञान से पूछे कि हम किस तरह जीएं लेकिन अगर हम, घर का मालिक भी, सम्राट भी पहरेदार से ही कि ज्यादा जी सकें, स्वस्थ जी सकें, तो विज्ञान रास्ता बता देगा। पूछने लगे कि इस महल के भीतर कुछ है? तो पहरेदार कहेगा, | | अगर विज्ञान से आपने पूछा कि जीवन का लक्ष्य क्या है, तो विज्ञान वहां क्या रखा है! जो कुछ है, यहां मेरे इस स्टूल पर बैठे रहने में | कहेगा, हमें कुछ पता नहीं है। है। यहीं; सारा जगत यहीं है। और मेरे पास आए बिना कभी कोई | | आइंस्टीन मरते वक्त पीड़ित था कि मैंने भी अणुबम के बनने में भीतर नहीं गया। इसलिए भीतर अगर कभी कुछ जाएगा भी, तो सहायता दी है। लेकिन मुझे यह पता ही नहीं था कि तुम क्या मेरे पास से गुजरकर ही जाएगा। अब तक तो मैंने कोई खजाना | | उपयोग करोगे। हम तो केवल इतना ही बता सकते थे कि अणुबम भीतर जाते नहीं देखा। कोई खजाना-वजाना भीतर नहीं है। कैसे बन सकता है। तुम क्या करोगे, यह हमने सोचा भी नहीं था! बुद्धि सिर्फ पहरा है, बाहर के जगत से हमारा संबंध है सुरक्षा विज्ञान बता नहीं सकता कि क्या करो। धर्म ही बता सकता है का, सिक्योरिटी मेजर है। लेकिन जब हम उसी से पूछने लगते हैं कि क्या करो। विज्ञान बता सकता है कि कैसे करो, दि हाउ, कैसे! 36 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरण की कला लेकिन किसलिए, फार व्हाट! विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर को कभी छोड़ते हैं। जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें भी अपने को नहीं है। बुद्धि के पास भी कोई उत्तर नहीं है। छोड़ते नहीं। कुछ न कुछ सदा ही पीछे बचा लिया जाता है। वही हृदय से पछे क्या पाना है। और फिर बद्धि को आज्ञा दे दें कि | बचा हआ कभी भी प्रेम के अनभव तक भी हमें नहीं पहंचने देता। यह पाना है। खोजो मार्ग, खोजो विधि, खोजो व्यवस्था। और तब अगर मैं किसी को प्रेम भी करता हूं, तो अपने को रोककर, बुद्धि और हृदय संयुक्त हो जाते हैं। बुद्धि और हृदय का संयोग | बहुत-सा हिस्सा पीछे छोड़ देता हूं, जरा-सा हिस्सा बाहर भेजता जहां है, वहीं योग फलित होता है। हूं फीलर्स की तरह, कि जरा देख तो लें कि कहां तक मामला है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से जब सुरक्षित हो जाएंगे पूरे, तब थोड़ा और हृदय का हिस्सा देंगे। युक्त हुआ निस्संदेह तू मुझे उपलब्ध होता है। अगर जरा ही डर लगा, तो जैसे कछुआ सिकुड़ जाता है अपने मेरे में अर्पण किए हुए! मजे की बात है। हृदय सदा ही अर्पण | भीतर, हम भी सिकुड़ जाएंगे। करना चाहता है। और बुद्धि सदा अर्पण करवाना चाहती है। बुद्धि प्रेम में भी हम अपने को बचा लेते हैं। और प्रार्थना में तो हम कहती है, करो समर्पण। बुद्धि सदा दूसरे से समर्पण करवाना | और भी बचा लेते हैं। क्योंकि प्रेम करने में तो सामने कोई दिखाई चाहती है। बुद्धि समर्पण करना जानती ही नहीं। बुद्धि अहंकार है। | पड़ता है, प्रार्थना में तो वह भी नहीं दिखाई पड़ता है। तो प्रेम में और हृदय! हृदय आक्रमण करना जानता ही नहीं। हृदय समर्पण | कभी-कभी थोड़ी सचाई की झलक भी आ जाती है, प्रार्थना तो है; हृदय अपूर्व विनम्रता है। बिलकुल ही झूठी हो जाती है। घुटने टेकते हैं। हाथ जोड़ते हैं। __ अगर कोई बुद्धि से ही खोजता रहा, तो परमात्मा के संबंध में | नमाज पढ़ते हैं। सिर झुकाते हैं। और सब करीब-करीब एक्सरसाइज सिर्फ तर्क कर-करके समाप्त हो जाएगा। उसे कोई भी उत्तर मिलने होकर रह जाता है. व्यायाम होकर रह जाता है। वाला नहीं है। अगर परमात्मा स्वयं भी सामने खड़ा हो और बुद्धि | | क्यों ऐसा होता है? क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम हृदयपूर्वक से अगर आपने पूछा कि तुम कौन हो? तो परमात्मा चुप रह | | कैसे करें। अर्पण का भाव ही हमें पता नहीं है। अर्पण के भाव को जाएगा। इसलिए नहीं कि आपका प्रश्न गलत था; सिर्फ इसलिए | | भी सीखना पड़ता है। कि बुद्धि से पूछा गया था। बुद्धि से पूछे गए इस तरह के प्रश्नों के | कुछ न करें, रोज सुबह जब उठे, तो कुछ भी न करें, खाली उत्तर देने का कोई भी अर्थ नहीं है। | जमीन पर लेट जाएं चारों हाथ-पैर फैलाकर। छाती को लगा लें हृदय से पूछो, तो परमात्मा को उत्तर देना भी नहीं पड़ता, वह | जमीन से। अगर नग्न लेट सकें, तो और भी प्रीतिकर है। जैसे कि हृदय के ऊपर सब भांति छा जाता है, जैसे कोई बादल किसी पहाड़ | पृथ्वी मां है और उसकी छाती पर पूरे लेट गए चारों हाथ-पैर को घेरकर छा ले, जैसे किसी फूल के आस-पास सब तरफ से | | छोड़कर। सिर रख दें जमीन में और थोड़ी देर को अनुभव करें कि सूरज की किरणें उसे घेर लें और छा लें। हृदय से पूछे, तो परमात्मा | अपने को सब का सब पृथ्वी में समा दिया, छोड़ दिया। मिट्टी है मौजूद भी न हो सामने, तो भी चारों तरफ से वह हृदय को घेर लेता | दोनों तरफ, इसलिए बहुत जल्दी संबंध बन जाता है; देर नहीं है और हृदय की कली खिल जाती है, जैसे सुबह फूल खिल जाता लगती। यह शरीर भी उसी पृथ्वी का टुकड़ा है। बहुत जल्दी इस है और सब तरफ से सूरज की रोशनी उसे घेर लेती है। लेकिन हृदय | | शरीर के कणों में और पृथ्वी के कणों में तालमेल शुरू हो जाता है, का सूत्र है, अर्पण। संगीत प्रतिध्वनित होने लगता है। और थोड़ी ही देर में आप अनुभव तो कृष्ण कहते हैं, मेरे को अर्पण हुआ, मन-बुद्धि से युक्त, | करेंगे कि आप पृथ्वी हो गए। और इतने आह्लाद का अनुभव होगा, निस्संदेह—फिर कोई संदेह नहीं-मुझको ही उपलब्ध हो जाता है। | ऐसी अपर्व प्रसन्नता का अनभव होगा, जैसा कभी भी नहीं हआ। समर्पण ही उपलब्धि है, समर्पण ही पहंच जाना है। जिसने रोका | | कभी सूरज की किरणों में ही लेट जाएं नग्न और सूरज की समर्पण से अपने को, वह वंचित रह जाएगा। जिसने छोड़ा अपने | | किरणों को छू लेने दें पूरे शरीर को। आंख बंद कर लें और किरणों को, साहस किया, वह पहुंच जाता है। में अपने को समर्पित कर दें। क्योंकि सूरज की किरण के बिना इस हम सब बहुत डरे-डरे होते हैं। हम कभी भी अपने को छोड़ते | | शरीर के भीतर जीवन नहीं है। इसलिए शरीर के भीतर जो भी ऊर्जा नहीं। हमें जीवन में ऐसा एक भी स्मरण नहीं आता, जब हम अपने | । है, जीवन है, वह सूरज की किरण से जुड़ा है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 जैसे ही समर्पण का भाव होगा कि हो गए एक, ले चल सूरज ___ आदमी की इस बेईमानी से बचाने के लिए, जो बहुत बुद्धिमान मुझे अपनी किरणों पर दूर की यात्रा पर; मैं राजी हूं, मैं छोड़ता हूं लोग थे, उन्होंने परमात्मा की मूर्तियां बनाईं। मूर्ति बीच की व्यवस्था अपने को। जहां तू मार्ग दिखाएगा, वहीं चल पडूंगा! थोड़ी ही देर थी। न तो व्यक्ति है वहां-बुद्ध और कृष्ण और महावीर और में पाएंगे कि किरणें अब सिर्फ चमड़ी को नहीं छतीं, कहीं भीतर | मोहम्मद नहीं हैं वहां मूर्ति पत्थर है, तो आप यह भी न कह हृदय को गुदगुदाना उन्होंने शुरू कर दिया है। कहीं कोई हृदय की | | सकेंगे कि इस पत्थर को कहीं क्रोध तो नहीं आता! और कुछ मौजूद पंखुड़ी पर भी उनकी चोट पड़ने लगी, और कहीं कोई प्राणों का | भी है, तो आप यह भी न कह सकेंगे कि जो मौजूद नहीं है, उसके पक्षी भी पंख खोलकर उड़ जाने को आतुर हो गया है। प्रति समर्पण कैसे करूं! ___ कहीं भी सीखें, किसी तरह भी सीखें। कहीं भी सीखें, किसी लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। उसने कहा, तरह भी सीखें। पत्नी को भी प्रेम देते हों, तो पूरा दे दें। मां की गोद इस पत्थर को! पत्थर के प्रति समर्पण करवा रहे हैं! इस पत्थर में में सिर रखते हों, तो पूरा रख दें। मित्र का हाथ भी लेते हों, तो फिर रखा ही क्या है। अभी चाहूं, तो दो टुकड़े करके इसके बता सकता पूरा ही हाथ हाथ में ले लें। किसी को गले भेटते हों, तो सिर्फ | | हूं। जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता, वह क्या खाक मेरी रक्षा हड्डियां ही न छुएं; छोड़ दें अपने को। एक क्षण को ले जाने दें। तो करेगा! धीरे-धीरे अर्पण का भाव खयाल में आएगा। | दयानंद की सारी क्रांति इसी नासमझी से पैदा हुई। इसी नासमझी और उस अर्पण के भाव को ही जब सर्व विराट परमात्मा के प्रति | से, कि परमात्मा की मूर्ति को एक चूहा परेशान करता रहा। तो कोई लगा देता है, क्योंकि बाकी सब अनुभव में कोई न कोई मौजूद दयानंद ने कहा कि चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर पाते, तो मेरी क्या है। परमात्मा गैर-मौजूदगी है। इसलिए मौजूद र-मौजूदगी है। इसलिए मौजूदगी से अनुभव लें | रक्षा करोगे और जगत की क्या रक्षा करोगे! सब बेकार है। चूहे की और जब अनुभव गहरा हो जाए, तो फिर गैर-मौजूदगी की तरफ, | | इस प्रतीति पर सारा आर्यसमाज खड़ा हुआ है! सारी दृष्टि इतनी अनुपस्थित की तरफ, जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी तरफ समर्पण | | छोटी-सी है। लेकिन मूर्ति के विरोधी हो गए दयानंद, क्योंकि मूर्ति कर दें। अपनी रक्षा न कर पाई। वह समर्पण इसीलिए कठिन है। कोई मौजूद हो, तो समर्पण | __ और पता नहीं, यह आदमी कैसा है! कुछ भी उसे कहो, वह . आसान मालूम पड़ता है। कोई मौजूद ही नहीं, तो समर्पण किसके | | तरकीब निकालेगा और अपनी बीमारी को बचा लेगा। जीवित प्रति? लोग पूछते हैं, किसके प्रति समर्पण? | आदमी हो, तो भूल-चूक मिलेगी। मूर्ति हो, तो पत्थर हो जाती है। लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। एक बहुत | | और परमात्मा अगर गैर-मौजूद है, तो कहां उसके चरण हैं? कहां अजीब अनुभव मुझे हुआ। वह यह हुआ कि अगर किसी को | | और किसके चरणों पर मैं सिर रखू? और आदमी अपने को बचाता बताओ कि इसके प्रति समर्पण करो, तो वह कहता है, इसके प्रति | चला जाता है। समर्पण? इसमें तो इतनी खामियां हैं! और कहो कि इसके प्रति | इसलिए मैंने कहा, अर्पण सीखें। पृथ्वी से सीखें। आकाश से समर्पण करो, तो अहंकार को चोट लगती है कि मैं और इसके प्रति | | सीखें। सूरज से सीखें। प्रेम में सीखें। कहीं भी सीखें। एक बात समर्पण करूं? यह भी तो मेरे जैसा आदमी है; हड्डी-मांस का बना | | खयाल रखें कि अर्पण का अनुभव आपका जितना सघन होता है। भूख इसे लगती है, तो क्रोध भी जरूर लगता ही होगा। नींद इसे | चला जाए, उतना ही किसी दिन समर्पण परमात्मा के प्रति आसान आती है, तो कामवासना भी सताती ही होगी। कहीं न कहीं छिपाए । हो सकेगा। होगा सब। और मैं इसके प्रति! मैं भी तो ऐसा ही आदमी हूं! | जब भी कोई आदमी मुझे आकर कहता है कि कैसे करूं __ अगर बताओ किसी को कि इसके प्रति करो-बुद्ध सामने खड़े। | समर्पण. तब मैं जानता है. इस आदमी ने कभी कोई प्रेम नहीं हों, तो भी वही कठिनाई आ जाती है। कृष्ण सामने खड़े हों, तो भी | | किया। इस आदमी ने कभी कोई सौंदर्य की प्रतीति नहीं की। इस वही कठिनाई आ जाती है। और अगर कोई सामने न हो, तो आदमी | | आदमी को कभी फूल खिलते दिखाई नहीं पड़े; सूरज उगता नहीं का चालाक मन कहता है, किसके प्रति समर्पण करूं? कोई दिखाई | | दिखाई पड़ा। इसने कभी नदी के तट पर जाकर नदी की शीतल रेत तो पड़ता नहीं! में अपने को लिटाया नहीं। यह कभी पानी की धार में आंख बंद Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *स्मरण की कला करके बैठा नहीं कि पानी की धार की सरसराहट में इसके भीतर भी | | के साथ ज्यादा देर रहने की क्षमता नहीं है। मन प्रतिपल नए को कोई तरंग पैदा हो जाए। खोजता है। नया मकान बना लें; दो-चार-आठ दिन में ही पुराना नहीं, इस आदमी ने कुछ भी नहीं जाना। इसने तिजोरी भरी | | पड़ जाता है। मन कहता है, अब कोई और दूसरा नया बनाओ। नए होगी। इसने कपड़े इकट्ठे किए होंगे। इसने मकान बनाया होगा। | कपड़े पहन लें; चार दिन बाद मन फिर दुकानों के सामने ठिठककर लेकिन इसकी संवेदना का कोई द्वार नहीं खुल पाया है। तो इसलिए रुकने लगता है, कि मालूम होता है, नए फैशन के कपड़े फिर अब यह पूछता है कि समर्पण कैसे? कैसे झुक जाऊं? कैसे सिर बाजार में आ गए। नवाऊं? गर्दन अकड़ गई है, पैरालाइज्ड हो गई है। अकड़े-अकड़े, ___ मन नए की तलाश करता है। क्यों? क्योंकि अगर एक ही चीज चौबीस घंटे अकड़े-अकड़े गर्दन बिलकुल अकड़ गई है। झुकती | | के साथ मन को रहना पड़े, तो मन के लिए गति नहीं मिलती, नहीं है; झुक नहीं सकती। | इसलिए मन ऊब जाता है। कहता है, नया लाओ। तो कृष्ण कहते हैं, मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त | लेकिन परमात्मा तो नया लाया नहीं जा सकता। इसलिए जो हुआ निस्संदेह मुझे पा लेता है। और हे पार्थ, ध्यान के अभ्यास | | नए की निरंतर खोज में लगा है, वह परमात्मा के साथ रुक न रूपी योग से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन | पाएगा। परमात्मा के साथ तो वही रुक सकता है, जो उस अभ्यास करता हुआ पुरुष परम दिव्य पुरुष को, परमेश्वर को प्राप्त होता है। | में आ गया, जहां ऊब पैदा ही नहीं होती है, जहां बोर्डम पैदा ही अभ्यास रूप योग से ध्यान को प्राप्त हुआ और अन्य की तरफ नहीं होती है। न जाता हुआ! __ आदमी को अधार्मिक बनाने वाली अगर कोई एक गहरी से कोई अन्य परमात्मा तो है नहीं, परमात्मा तो एक है। इस्लाम | | गहरी चीज है, तो वह बोर्डम है, वह ऊब है। हर चीज से ऊब जाता ठीक कहता है कि सिवाय अल्लाह के और कोई अल्लाह नहीं है। | है मन। एक पत्नी से ऊब जाता है, एक पति से ऊब जाता है। एक देयर इज़ नो गॉड एक्सेप्ट दि गॉड, ईश्वर के सिवाय और कोई | | घर से ऊब जाता है, एक मित्र से ऊब जाता है। एक धंधे से ऊब ईश्वर नहीं। ठीक कहता है। एक ही है वह। जाता है। हर चीज से ऊब जाता है। और कहता है, और कुछ तो अन्य तो कोई ईश्वर नहीं है। इसलिए जब कृष्ण कहते हैं कि | लाओ, और कुछ लाओ। वह कहता ही चला जाता है कि और कुछ जिसका ध्यान सतत मुझमें ही अभ्यासरत हुआ है और मेरे अतिरिक्त | लाओ। उसकी मांग है, और! और! और चीज में वह कहे चला अन्य की तरफ नहीं जाता, तो इसका आप यह मतलब मत समझना जाता है, और कुछ लाओ। दौड़ाता रहता है। अपने से ही ऊब जाता कि कृष्ण कहते हैं, बुद्ध की तरफ नहीं जाता, महावीर की तरफ नहीं | है। इसलिए कोई आदमी अपने साथ रहने को राजी नहीं है। अपने जाता, राम की तरफ नहीं जाता। भक्तों ने ऐसे-ऐसे गलत अर्थ | से ही घबड़ा जाता है! निकाले हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। कृष्ण-भक्त सोचता सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन जब छोटा-सा बच्चा था, तो है कि अगर राम की तरफ गया, तो अन्य की तरफ गया। अगर बुद्ध | उसके मां-बाप एक दिन उसे घर छोड़कर गए हैं किसी शादी में। की तरफ गया, तो अन्य की तरफ गया। कृष्ण ने तो साफ कहा है, | | ले जाना संभव न था; शैतान था लड़का। तो कहा उसे कि हम ताला अनन्य रूप से मेरी तरफ, अन्य की तरफ नहीं। लगा जाते हैं बाहर। अगर तू भली तरह व्यवहार किया, अगर घर लेकिन भूल है समझ की। परमात्मा तो एक ही है। उसे कोई राम | | में तू शांति से रहा और अच्छा साबित हुआ, तो लौटकर हम तुझे कहे, और कोई रहीम कहे, और कोई कृष्ण कहे, और कोई कुछ | पांच रुपए देने वाले हैं। और कहे। परमात्मा तो एक ही है। यहां अन्य से क्या अर्थ है? क्या | पांच रुपए के लोभ में नसरुद्दीन ने भले रहने की कोशिश की, और परमात्मा भी हैं, जिनकी तरफ से बचा लो अपने को? और | | जैसा कि हम सभी लोग किसी लोभ में भले रहने की कोशिश करते कोई परमात्मा नहीं है। फिर किससे बचाने को कहते होंगे? | हैं। और इसीलिए अगर ज्यादा बड़ा लोभ मिल जाए बुरा होने के कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि सवाल परमात्मा का नहीं है। लिए, तो तत्काल बुरे हो जाते हैं। यह सवाल सब लोभ का है। तो लेकिन आदमी के मन में हजार-हजार चीजों की तरफ दौड़ने की हर आदमी की भलाई की कीमत है। वृत्ति है। हजार-हजार चीजों की तरफ दौड़ने की वृत्ति है। और एक एक आदमी कहता है कि मैं रिश्वत बिलकुल नहीं लेता। उससे 39 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* पूछो, कितनी नहीं लेते-पांच? दस? पंद्रह? पचास? सौ? एक | भी चाहिए। और इतना सन्नाटा है वहां कि कभी कोई वाणी ही नहीं जगह लिमिट आ जाएगी। वह कहेगा, बस ठहरो। क्या देने का | | उठती, तो मैं तो घबड़ा जाऊंगा। और फिर वहां से लौटने का भी इरादा है! सीमा है। एक आदमी कहता है, मैं चोरी बिलकुल नहीं | कोई उपाय नहीं है। करता। फलां आदमी के घर गया; दस रुपए का नोट पड़ा था; | रसेल कहता था, वहां जो गया, सो गया। यह तो मौत हो मैंने नहीं उठाया। पूछो उससे, दस हजार का पड़ा होता? तो वह | | जाएगी, मोक्ष न होगा। लौट नहीं सकते। मोक्ष में एक ही दरवाजा कहेगा, एक दफे सोचने का फिर से मौका दें। सीमा है। वैसे कोई है एन्ट्रेस का, प्रवेश का। निकास का, एक्जिट का कोई दरवाजा फर्क नहीं पड़ता। नहीं है। तो जो गए, सो गए। तो रसेल कहता था, ये लोग कहते इसलिए भलाई अगर कीमत से मिलती हो, तो बुराई कभी भी | | हैं कि वह परम मुक्ति है, मुझे लगता है, वह तो परम बंधन हो ली जा सकती है। इसलिए जिन लोगों को भी भला होने के लिए | गया। वहां से निकलने का उपाय नहीं है। नरक से निकल सकते पुरस्कार दिए जाते हैं, उनके भले होने में सदा संदेह रहेगा। वे कभी हैं। और नरक में बड़ा परिवर्तन है। चौबीस घंटे उपद्रव चल रहे हैं। भी बुरे हो सकते हैं। भलाई तो वही है, जो बिना पुरस्कार के हो। | जितना उपद्रव वहां है, उतना तो यहां भी नहीं है। लेकिन उस भलाई को हम जानते नहीं। रसेल ठीक कह रहा है। लेकिन बात मुद्दे की है। नसरुद्दीन ने बड़ी कोशिश की भले रहने की। पांच रुपए का अगर आप परिवर्तन के बहुत आकांक्षी हैं, तो आप ध्यान में सवाल था। घड़ी-घंटे की बात थी। आखिर मां-बाप आ गए। प्रवेश नहीं कर सकते। आखिर जब आप ध्यान में बैठते हैं, तो देखे तो बड़े हैरान हुए कि वह घर के भीतर एक कमरे से दूसरे | आपका मन करता क्या है? एक विचार देता है, फिर दूसरा देता है, कमरे में गोल चक्कर लगा रहा है। पूछा उसके पिता ने कि फिर तीसरा देता है। वह दिए चला जाता है विचार। वह कहता है, नसरुद्दीन, यह तू क्या कर रहा है? और हमने कहा था कि भले घबड़ाओ मत, ऊबो मत। मैं तुम्हें नई-नई चीजें दे रहा हूं। रहने की कोशिश करना। और आप पूछते हैं कि ध्यान कैसे लगे? ध्यान उसी दिन लगेगा, तो नसरुद्दीन ने कहा कि मैंने कोशिश की, आई वाज़ गुडर दैन | | जिस दिन आप ऊबने के लिए तैयार हों, और ऊबें न। एक फूल गुड, बट देन आई कुडंट स्टैंड माइसेल्फ। मैं अच्छे से भी अच्छा को आप देख रहे हैं। देखे चले जा रहे हैं। बदलने की कोई इच्छा हो गया और तब अपने को ही सहना मश्किल हो गया। यह मैं सिर्फ नहीं है। तो ठीक है। देखे जा रहे हैं। देखे जा रहे हैं। देखे जा रहे अपने से भागने, अपने से बचने के लिए भाग रहा हूं एक कमरे से | हैं। पहले मन ऊबेगा। वह कहेगा, क्या एक ही फूल को देखे जा दूसरे कमरे में। जस्ट टु एस्केप फ्राम माइसेल्फ, अपने ही से बचने रहे हो, बदलो अब। अगर आपने फूल न बदला, तो मन कहेगा, के लिए भाग रहा हूं। इतना अच्छा हो गया मैं कि खुद को ही सहना न बदलो फूल, हम भीतर विचार बदलते हैं। लेकिन कुछ न कुछ मुश्किल हो गया! बदलो। लेकिन आपने कहा, कुछ न बदलेंगे। यह फूल है और मैं अच्छाई भी हो जाए बहुत, तो ऊब पैदा कर देती है। हर चीज से हूं, और बस काफी है। हम ऊब जाते हैं। और परमात्मा तो एकरस है। ध्यान का केवल अगर आप घड़ी दो घड़ी एक फूल के पास भी रोज इस तरह बैठ एक ही अर्थ है, एकरसता से न ऊबने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ | जाएं, एक दिन आप पाएंगे कि ध्यान की झलक आपको आनी शुरू है, एकरसता से न ऊबने का अभ्यास। हो गई। फिर ऊब नहीं आती। फिर आप एक चीज के साथ होने को बड रसेल ने मजाक में कहीं कहा कि मैं मरकर नरक भी जाने | | राजी हो गए। और जो व्यक्ति एक चीज के साथ चौबीस घंटे होने को तैयार है, लेकिन हिंदुओं और बौद्धों के मोक्ष में जाने को तैयार को राजी है, वही प्रभ का स्मरण कर सकता है। क्योंकि वह स्मरण नहीं हूं। क्यों? क्योंकि उसने कहा कि मोक्ष में तो बड़ी ऊब पैदा हो तो बदला नहीं जा सकता, वह तो प्रभु एक ही है; चारों तरफ जाएगी। वहां तो सब एकरस है। आनंद है, तो आनंद ही आनंद है।। एकरस है। उसका एक ही स्वाद है। वहां कभी दुख पैदा ही नहीं होता। तो आनंद से ऊब जाऊंगा। इतना बुद्ध कहते थे, जैसे नमक; सागर में कहीं भी चखो और नमकीन आनंद कैसे सहूंगा! आनंद ही आनंद! बीच में कोई कड़वा स्वाद | है स्वाद। ऐसा ही प्रभु को कहीं से चखो, वह बिलकुल एकरस है, ही न आता हो, तो मिठाई भी उबाने वाली हो जाती है। तो तिक्त एकस्वाद है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्मरण की कला * कृष्ण कहते हैं, अन्य की तरफ जरा भी चित्त गया, तो ध्यान नहीं | कुछ भी पता नहीं है, कम से कम इतना मुझे पता है। और कुछ भी है। और अगर अन्य की तरफ चित्त न जाता हो, अनन्य रूप से मेरी | मुझे पता नहीं है, यह बहुत एब्सोल्यूट बात है। जैसे कोई कहे, सब ही तरफ लग जाता हो, या परम दिव्य पुरुष की तरफ लग जाता हो, | कुछ मुझे पता है। ऐसा ही कोई कहे, कुछ भी मुझे पता नहीं है, यह तो परमेश्वर प्राप्त होता है। इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके | दूसरी सीमा पर पूर्ण घोषणा है। नियंता. सक्ष्म से भी सक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, क्या किया जाए ? क्या उनको कहा जाए, मुझे कुछ-कुछ पता है अचिंत्य स्वरूप, सूर्य के सदृश प्रकाश रूप, अविद्या से अति परे | और कुछ-कुछ पता नहीं है! अगर ऐसा कहा जाए, तो भी बड़ी परमात्मा को स्मरण करता है, वही परमात्मा को उपलब्ध होता है। लाजिकल फैलेसी हो जाती है। क्योंकि तब पूछा जा सकता है, इसमें कुछ बातें कहीं, जो हम समझें। कुछ-कुछ क्या पता है और कुछ-कछ क्या पता नहीं है? और एक, जो पुरुष सर्वज्ञ है। इस जगत में कोई कितना भी जानता | जिसका मुझे पता नहीं है, उसका भी इतना तो मुझे पता है ही कि हो, तो भी अल्पज्ञ ही होगा। कोई कितना ही जान ले, जानने को मुझे पता नहीं है। उनको क्या उत्तर दिया जाए? और वे कहते हैं, सदा शेष रह जाता है। कोई कितना ही जान ले, जानना चुक नहीं हां या न में सीधा जवाब दें! पाता है। देयर इज़ नो एंड टु नोइंग। हो भी नहीं सकता। इसलिए शायद परमात्मा आपके सामने आने से इसीलिए डरता है कि कोई भी कितना भी जान ले, वह जानना पूर्ण नहीं है। अगर जानना | | आपके सवालों का जवाब उसके पास नहीं होगा। कहीं भी पूर्ण होगा, तो वह परमात्मा के अंतस्तल में होगा। जैसे-जैसे कोई लीन होता है परम सत्ता में, वैसे-वैसे कुछ भी निश्चित ही, वह सभी कछ जानता होगा, जो जाना जा सकता पता नहीं रह जाता, न ज्ञान का और न अज्ञान का। है। लेकिन उसे यह बिलकुल पता नहीं हो सकता कि मैं सब कुछ यही मैं उन मित्र को कहा था, तो वे कहने लगे, लेकिन जब हम जानता हूं। क्योंकि जिसे यह पता है कि मैं सब कुछ जानता हूं, आपसे कुछ पूछते हैं और जब आपको कुछ भी पता नहीं-न ज्ञान उसके भी जानने की सीमा है। इसलिए परमात्मा सर्वज्ञ है, आल | का, न अज्ञान का-तो आप उत्तर कैसे देते हैं? क्योंकि हम सबको नोइंग है, फिर भी उसे कोई पता नहीं कि मैं सब कुछ जानता हूं। | खयाल है कि उत्तर बंधे-बंधाए पहले से ही मौजूद रहते होंगे। सब कुछ जानने का पता भी अज्ञानी का ही बोध है। आपने पूछा, उसके पहले उत्तर रेडीमेड रहते होंगे, जैसे दुकान में इसलिए अगर कभी कोई जमीन पर घोषणा करता है कि मैं सर्वज्ञ | पैकेट बंद रखे हुए हैं चीजों के। आप कहे कि मुझे फलां चीज है. तो वह इस बात की घोषणा करता है कि उसके भी जानने की चाहिए, दुकानदार ने पैकेट निकाला और आपको दे दिया। जिन्हें सीमा है। वह भी अल्पज्ञ है। वह भी अज्ञानी है। सिवाय अज्ञानी के हम पंडित कहते हैं, उनके पास ऐसे ही रेडीमेड पैकेट तैयार होते अतिरिक्त कोई सब कुछ जानने की घोषणा नहीं करता है। | हैं। आपने पूछा; उन्होंने दुकान से निकाला, आपको दे दिया। . लेकिन जो उस सब कुछ जानने वाले का स्मरण करता है, वह लेकिन जो व्यक्ति जैसे-जैसे प्रभु में लीन होगा, वैसे-वैसे उसे धीरे-धीरे उसके साथ एक होता चला जाता है। और एक घड़ी ऐसी कुछ भी पता नहीं होता और न कुछ भी न-पता होता है। आप पूछते आती है उस एक हो जाने की, जब खुद को भी पता नहीं रहता कि हैं; उत्तर आता है, दिया नहीं जाता है। ऐसे ही जैसे कोई जाकर मैं कुछ जानता हूं या नहीं जानता हूं। किसी निर्जन, वीरान-सी घाटी में जोर से आवाज करे और पर्वत एक मित्र मुझे पत्र लिखे हैं और पूछे हैं कि क्या आपको सब | उसकी आवाज को प्रतिध्वनित कर दे। ऐसे ही जैसे किसी दर्पण के कुछ पता है? सामने कोई जाकर खड़ा हो जाए और दर्पण उसकी आकृति को __ मैं उन्हें दो ही उत्तर दे सकता हूं। या तो कहूं, हां, सब कुछ पता | प्रतिछवित कर दे। है जो कि अज्ञानी का सिद्ध सूत्र है। या मैं उन्हें कहूं कि मुझे कुछ __ कृष्ण भी जो उत्तर दे रहे हैं अर्जुन को, वे कोई उत्तर नहीं हैं। उस भी पता नहीं है—जो कि ज्ञानी अक्सर कहते रहे हैं। लेकिन मुझे | अर्थ में उत्तर नहीं हैं, जैसे स्कूल के अध्यापक और बच्चों के बीच उसमें भी घोषणा दिखाई पड़ती है। होते हैं; वैसी कोई बंधी रेडीमेड बात नहीं है। यदि मैं कहूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है, तो भी मैं कुछ पता होने | मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा अपने देश की राजधानी में गया की घोषणा दे रहा हूं और बहुत सुनिश्चित घोषणा दे रहा हूं कि मुझे हुआ था। पहली दफा रास्ते से गुजर रहा था। अचानक जोर से कारों Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* के हार्न बजे, ब्रेक लगे, बसें रुक गईं, घबड़ाहट फैल गई, क्योंकि नसरुद्दीन अकड़कर बीच से चला जा रहा है, बीच रास्ते से। पुलिस वाले ने बहुत हाथ हिलाया रुकने के लिए, लेकिन वह नहीं रुका। पुलिस वाला पास आया और कहा कि महानुभाव, क्या आपको समझ में नहीं आता कि मैं हाथ हिला रहा हूं! नसरुद्दीन ने कहा, मुझे समझ में नहीं आएगा ! मैं तीस साल स्कूल में मास्टर रह चुका हूं। क्या पूछना है, पूछो? वह अपने स्कूल का अभ्यासी है। लड़के जब हाथ हिलाते हैं! बोला, क्या पूछना है, पूछो ! सड़क पर भी पीछा नहीं छोड़ते पूछने वाले लोग ! रेडीमेड है। उसे पक्का पता है कि जब कोई हाथ हिलाता है, उसका मतलब क्या होता है। कृष्ण कोई ऐसे उत्तर नहीं दे रहे हैं। कृष्ण जैसे व्यक्ति उत्तर देते ही नहीं । केवल प्रश्न को पी जाते हैं और उत्तर आता है। केवल प्रश्न को भीतर भेज देते हैं और परम शून्य से ध्वनि उठती है और लौट आती है। सर्वज्ञ है वह, इस अर्थ में कि वही है, सो जानता ही है। जानता ही है - क्या हुआ, क्या हो रहा है, क्या होगा। फिर भी इसका उसे कुछ भी पता नहीं है। क्योंकि पता केवल अज्ञानी को होता है। अनादि ! जो कभी प्रारंभ नहीं हुआ, जिसका कभी कोई जन्म नहीं हुआ, ,जो कभी शुरू नहीं हुआ, जो बस है, सदा से है। सबका नियंता । वह, सभी जिसके हाथ में है। सभी कुछ जिसके हाथ में है। चांद-तारे जिसकी अंगुलियों पर हैं। सभी कुछ। लेकिन नियंता शब्द से बड़ी भ्रांति हुई है। क्योंकि हम नियंता से एक ही अर्थ ले सकते हैं, सुप्रीम कंट्रोलर, जो सभी के ऊपर नियंत्रण कर रहा है। भूल हो जाएगी। क्योंकि नियंत्रण जब भी किया जाता है, तो दूसरे पर किया जाता है। लेकिन यहां तो उसके सिवाय कोई दूसरा है ही नहीं इसलिए नियंता का अर्थ कंट्रोलर नहीं है, नियंत्रण करने वाला नहीं है। नियंता का अर्थ है, नियम, दि ला । वही है। उसके अलावा तो कोई भी नहीं है। वही है । किसको नियंत्रण करेगा ? नियंत्रण उसे करना भी नहीं पड़ता। उसके जीवन की जो धारा है, जो नियम है, जिसे वेदों ने ऋत कहा, और जिसे लाओत्से ने ताओ कहा है, वही । वह अपने आप...। वही नियम है। उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए वह नियंता है। इसलिए नहीं कि वह हम सबकी गर्दन को पकड़े हुए चला रहा है कि चलो, तुम चोर बन जाओ। तुम बेईमान बन जाओ। तुम साधु बन जाओ। अब तुम्हारा काम खतम हुआ, चलो, लौटो वापस । अगर ऐसा वह कर रहा हो, तो कभी का पागल हो गया होता। हम जैसे इतने पागलों का नियंत्रण करते-करते कोई भी पागल हो सकता है। सुना मैंने कि इजिप्त का एक सम्राट पागल हो गया था। कोई उपाय न देखकर चिकित्सकों ने कहा, एक ही उपाय है। वह शतरंज का बड़ा खिलाड़ी था, तो कहा कि किसी बड़े खिलाड़ी को बुला लो और वह शतरंज खेलने में लगा रहे, तो शायद ध्यान लग जाए शतरंज में, तो पागलपन छूट जाए। सम्राट बड़ा खिलाड़ी था । तो बड़े से बड़े खिलाड़ी बुलाए गए। उसके साथ कोई खेलने को भी राजी नहीं होता था। पागल के साथ कौन खेलने को राजी हो ! लेकिन बहुत पुरस्कार था, बड़ा खिलाड़ी जो था, वह राजी हो गया। 42 सो सालभर, कहते हैं, खेल चलता रहा। थक जाता सम्राट, | जाता। उठता, फिर खेल शुरू हो जाता। सालभर बाद चिकित्सकों ने जो कहा था, वह सही निकला, सम्राट ठीक हो गया। लेकिन खिलाड़ी पागल गया। सालभर पागल के साथ खेलना पड़े शतरंज, तो आप समझते हैं क्या होगा ! इतने पागलों को अगर नियंत्रण कर रहा हो परमात्मा, तो कभी | का पागल हो चुका होगा। और उसके इलाज का भी उपाय नहीं है. फिर । नहीं, नियंत्रण, कोई कांशस कंट्रोल नहीं है कि एक-एक आदमी को चला रहा है पकड़-पकड़कर । नियंता का अर्थ है, वह नियम है। नियम का क्या अर्थ होता है, वह खयाल ले लें। आप रास्ते पर चल रहे हैं। आपने तिरछा पैर रख दिया, धड़ाम से जमीन पर गिरे और सिर टूट गया। वैज्ञानिक से पूछें, क्या हुआ ? वह कहेगा, ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश का फल है। इस | जमीन ने तुमको पटका। जमीन अगर ऐसा पटकती रहे, तो बड़ी कठिनाई होगी जमीन को भी। और कहां-कहां दौड़ना पड़े दिनभर, रातभर । कौन कहां गिर रहा है! तिरछा चल रहा है! नहीं। ग्रेविटेशन कोई आपको गिराने | नहीं आता। ग्रेविटेशन मौजूद है; नियम है वह। जमीन की कशिश | मौजूद है। आप तिरछा पैर रखते हैं, अपने आप गिर जाते हैं। जमीन | को पता भी नहीं चलता कि उसने किसी को गिराया। वह नियम है। पानी बहा जा रहा है सागर की तरफ। अब कोई परमात्मा एक-एक नदी को धकेल नहीं रहा है कि चलो, यह रहा रास्ता। चूक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्मरण की कला मत जाना। जगह-जगह संतरी नहीं खड़े किए हैं कि देखो, यह का उपाय नहीं। उसके नीचे और कोई जाने का उपाय नहीं है। दि भटक न जाए। नियम है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। बस। | एबिस, गहराई, आखिरी, अतल। जिसे हम स्थूल कहते हैं, उससे वह नियम खड़ा है। नदी सूख जाए, तब भी नियम उस सूखी रेत | | बिलकुल भी पकड़ में न आने वाला। में पड़ा है। नदी बिलकुल सूख मई है। पानी बिलकुल नहीं है। तब लेकिन हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि कल्पना परमात्मा को उठा लेना चाहिए वहां से अपना कैंप। हटो, उखाड़ो | | भी हम केवल स्थूल की कर सकते हैं। उसकी कल्पना भी नहीं हो तंबू, अब यहां कोई जरूरत नहीं। लेकिन उस सूखी नदी की धार | सकती। उसकी सिर्फ प्रतीति हो सकती है। उसका सिर्फ एहसास में भी नियम तैयार है। जब भी वर्षा होगी, पानी आएगा, नियम | | हो सकता है। अनुभव कहीं थोड़ा-सा स्पर्श ले सकता है। सक्रिय हो जाएगा। नदी नीचे की तरफ बहने लगेगी। सूर्य के सदृश प्रकाश रूप। नियंता का अर्थ है, नियम। परमात्मा नियम है। और इसीलिए कितनी कमजोर भाषा आदमी की है। सूर्य बेचारा क्या है! और सर्वनियंता है। इसका जो स्मरण करे...। सूर्य के सदृश बताकर हम क्या बता रहे हैं? जैसे कोई कहे कि सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म! हमारे घर में जो रात में हम चिमनी जलाते हैं, एक दीया जलाते हैं, आदमी की भाषा बड़ी कमजोर है। कृष्ण के पास भी वही | उस दीए के सदृश। तो आप कहेंगे, तू पागल है। दीए के सदृश कमजोर भाषा है, जो कमजोर से कमजोर आदमी के पास है। उनको | | बता रहा है परमात्मा को! एक फूंक मार दें, तेरा दीया बुझ जाए! भी कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म। फिर भी कोई हल तो लेकिन सूर्य हमें बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। लेकिन ज्योतिषियों होता नहीं। और भी आगे कह सकते हैं, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, | | से पूछे। वे कहते हैं, हमारा सूर्य, जस्ट ए मीडियाकर स्टार, एक अति सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, तो भी | | बहुत छोटा-सा तारा है, कुछ खास नहीं है। इससे हजार-हजार, कोई हल नहीं होता। दस-दस हजार, साठ-साठ हजार, लाख-लाख गुने बड़े सूर्य हैं। यह कृष्ण को ऐसा क्यों कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति | यह बेचारा क्या है! यह कुछ भी नहीं है। ऐसे बहुत बड़ा है। हमारी सूक्ष्म! इसीलिए कहना पड़ता है कि सूक्ष्म शब्द भी बहुत स्थूल है। जमीन से तो कोई साठ हजार गुना बड़ा है। इसलिए बहुत बड़ा है। हम किसी चीज को कहते हैं, बहुत सूक्ष्म, लेकिन फिर भी वह होती। और हमारे दीए से तो बहुत ही बड़ा है। लेकिन कहीं कोई महासूर्य तो है ही। हम कहते हैं, बाल बहुत सूक्ष्म है, लेकिन बाल है तो ही। हैं, जिनके सामने यह हमारे दीए से भी छोटा है। काफी मोटा है, अंगुली में पकड़ा जा सकता है; स्थूल है। लेकिन फिर भी आदमी की भाषा कमजोर है। कृष्ण जैसे आदमी अगर अणु के बाबत हम पूछे, तो वैज्ञानिक कहते हैं, एक लाख की भी भाषा कमजोर है। उसका कारण है कि भाषा ही कमजोर है, अणुओं को हम एक के ऊपर एक रखें, तो एक बाल की मोटाई के | आदमी क्या करे। वह जो भी भाषा उपयोग करे, वह कमजोर है। बराबर होते हैं। अति सूक्ष्म; लेकिन फिर भी होते तो हैं। और एक | सिर्फ एक इशारा कि सूर्य के सदृश प्रकाश रूप। लाखवां हिस्सा हुआ, तो भी क्या फर्क पड़ता है। बाल का लाखवा नहीं, यह इशारा भी बिलकुल ठीक नहीं पड़ता। लेकिन उपाय हिस्सा हुआ, तो भी स्थूल तो है। | नहीं, कमजोर ही है। यह सूर्य भी बुझ जाएगा। यह ज्यादा दिन इसलिए कृष्ण को कहना पड़ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म। | चलने वाला नहीं है। इसका ईंधन चुका जाता है। वैज्ञानिक कहते असल में उसे बताने के लिए हमारे पास कोई सूक्ष्म शब्द नहीं | हैं, चार हजार साल और ज्यादा से ज्यादा। इस सूरज के बुझने की है। हमारे सूक्ष्म का भी अर्थ केवल मात्रा का भेद होता है। हाथी के | घड़ी करीब आ रही है। और चार हजार साल कोई बहुत लंबा वक्त सामने चींटी को रखकर हम कहते हैं, बहुत सूक्ष्म। बस। लेकिन नहीं है सूर्यों के हिसाब से, क्षणभर का है। चींटी के सामने और सूक्ष्म चीजें रखी जा सकती हैं और चींटी बड़ी - इस जमीन को बने कोई चार अरब वर्ष हो गए। यह सूरज इससे हो जाएगी और चीजें छोटी हो जाएंगी। बहुत पुराना है। यह जमीन बहुत नई है। वैज्ञानिक कहते हैं, अगर लेकिन जब हम भगवान को, परमात्मा को कहते हैं, सूक्ष्मतम, | हम ऐसा समझें कि एक हजार पृष्ठ की कोई किताब हो, उसे हम तो उसका अर्थ यह है कि उससे ज्यादा सूक्ष्म फिर और कुछ भी नहीं | | सूरज की उम्र मान लें, तो जमीन की उम्र एक पृष्ठ के बराबर है। है। दि अल्टिमेट, आखिरी, अंतिम, उसके नीचे और कुछ गिरने और अगर जमीन की उम्र को हम एक पृष्ठ मान लें, तो उस पृष्ठ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 पर जो फुल प्वाइंट रखा जाता है, उतनी उम्र आदमीयत की है। और अविद्या से अति परे, अज्ञान से अति दूर, शुद्ध सच्चिदानंद आदमी की उम्र, मेरी या आपकी, इसका निशान नहीं बनाया जा | परमात्मा को जो स्मरण करता है, वह उसी को उपलब्ध हो जाता है। सकता। इसका निशान कैसे बनाइएगा? फुल प्वाइंट, जो आप अविद्या से अति परे! आखिरी बात। अपने बाल प्वाइंट पेन से लगा दें, उतनी उम्र आदमीयत की है। एक अज्ञान में गिरा जा सकता है। अज्ञान से उठा जा सकता है। पेज के बराबर जमीन की है। एक हजार पेज के बराबर इस सूरज | अविद्या से अति परे का अर्थ है कि जो अज्ञान में गिरने में असमर्थ की है। है, जो गिर ही नहीं सकता। अज्ञान में जो गिर ही नहीं सकता, तो जमीन को हुए चार अरब वर्ष हो गए और यह सूरज अब केवल | ही अविद्या से परे है। हम तो अज्ञान में गिरते हैं। थोड़ी जटिल चार हजार वर्ष और जीएगा। फिर क्या हिसाब! यह तो बुझ समस्या है। क्योंकि सभी के भीतर परमात्मा है, फिर भी हम अज्ञान जाएगा। लेकिन उदाहरण के लिए कृष्ण कहते हैं कि सूर्य की तरह में गिरते हैं। और परमात्मा अविद्या के परे है, जो अज्ञान में गिर ही जो प्रकाशवान है। पर उसमें फर्क जोड़ लेंगे, जो अनादि है, पहले नहीं सकता, फिर हम कैसे गिरते हैं? कह दिया है। उसका कभी अंत नहीं होगा, जो कभी चुकेगा नहीं, फिर उलझन बड़ी है। और शंकर से लेकर सारे तत्वज्ञ भारत के जो कभी समाप्त नहीं होगा। बड़ी पीड़ा में रहे कि कैसे सुलझाएं! बड़ी अड़चन की बात है। एक लेकिन हां, प्रकाशवान है। स्वप्रकाशी है। स्वयं ही प्रकाशित है। तरफ कहते हैं, सभी के भीतर परमात्मा है। स्वीकार! फिर दूसरी इसे थोड़ा खयाल में ले लें। तरफ कहते हैं, वह अविद्या से अति परे। वह अविद्या से पार है। जगत में दो तरह की चीजें हैं। दूसरों से प्रकाशित होने वाली; । वह कभी अज्ञान में गिर नहीं सकता। और हम सब अज्ञान में गिर और स्वयं प्रकाशित होने वाली। हम एक दीया जलाते हैं एक कमरे | रहे हैं! और हम सबके भीतर परमात्मा है। इस पहेली का क्या हो? में, तो कमरे की सारी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं। हम दीया बुझा यह पहेली हमारी बनाई हुई है; है नहीं। हममें से भी कोई भी देते हैं, कमरे की चीजें नहीं दिखाई पड़ती हैं। कमरे की चीजें दिखाई | कभी अज्ञान में गिरता नहीं। वस्तुतः गिरता नहीं। सिर्फ खयाल है, पड़ सकती हैं, अगर कोई दूसरा प्रकाश मौजूद हो। लेकिन क्या | सिर्फ खयाल। सिर्फ हमारी धारणा है। इसलिए जब कोई ज्ञान को आपको दीया जलाकर भी उस दीए को देखने के लिए दूसरा दीया उपलब्ध होता है, तो अज्ञान नहीं मिटता, सिर्फ अज्ञानी होने की लाना पड़ता है? नहीं, दीया स्व-प्रकाशित है। धारणा मिटती है। मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सोया है। सर्द रात है। बहुत सर्दी है।। __ अज्ञान धारणा है ही। लेकिन धारणा की क्षमता है। प्रत्येक के उठने की हिम्मत उसकी पड़ती नहीं। लेकिन जल्दी नींद खल गई पास यह क्षमता है कि वह अपने को धोखा दे ले। अपने को धोखा है, तो अपने नौकर से कहता है कि महमूद, जरा बाहर देखकर आ | | देने की क्षमता है। हम अपने को धोखा दे सकते हैं। हम कह सकते कि सूरज निकला कि नहीं। महमूद भी कुड़मुड़ाया कि खुद की तो | हैं, मैं अज्ञानी हूं। मानता रहूं, अज्ञानी हूं। तो यह मान्यता इतनी बड़ी हिम्मत नहीं पड़ रही है बाहर जाने की और मुझे भेज रहा है बाहर! | शक्ति है मेरे भीतर कि मैं इस मान्यता को भी सही कर लूंगा। जो लेकिन मजबूरी थी। उठकर जरा-सा सरका। जरा दरवाजे से | इम्पासिबल है, जो असंभव है, वह भी संभव होता हुआ मालूम झांककर देखा। अंदर आकर कहा कि बहुत घनघोर अंधेरा है! | पड़ता है। विराट शक्ति छिपी है भीतर। अगर मैं मान लूं कि मैं नसरुद्दीन ने कहा, मूर्ख, अगर अंधेरा है, तो दीया ले जाकर क्यों | अज्ञानी हूं, तो मैं अज्ञानी हो जाऊंगा।। नहीं देख लेता, सूरज निकला या नहीं! अगर मैं मान लूं कि मैं अंधा हूं, पूरी सामर्थ्य से, तो आंखें इसी सूरज देखने के लिए अगर दीया ले जाकर देखना पड़े, तो वक्त रोशनी खो दें। अगर मैं मान लूं कि मैं लंगड़ा हो गया, तो इसी फैसला है। दीया स्वयं प्रकाशित है। लेकिन फिर भी दीए में ईंधन | वक्त मेरा पैर लंगड़ा हो जाएगा। मानना! और विराट शक्ति है की जरूरत पड़ती है, तेल की जरूरत पड़ती है। दीया इंडिपेनडेंट | | भीतर, और मानने के लिए चेतना स्वतंत्र है। नहीं है, स्वतंत्र नहीं है; परतंत्र है। । यह हमारी मान्यता है कि हम अज्ञानी हैं। बडा मजेदार है। इधर परमात्मा ऐसा प्रकाश है, जो स्वयं प्रकाशित है, स्वतंत्र है, | | अज्ञानी की मान्यता कर लेते हैं, फिर ज्ञान की तलाश में निकलते किसी चीज पर निर्भर नहीं है; प्रकाश रूप है। हैं। फिर ज्ञान इकट्ठा करते हैं। फिर ज्ञान इकट्ठा करके अज्ञानी के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्मरण की कला * ऊपर एक नई मान्यता बिठाते हैं, कि नहीं, मैं ज्ञानी हूं। भटकाव लंबा हो जाता है। पर्त दर पर्त पागलपन हो जाता है। वस्तुतः ज्ञानी, मैं ज्ञानी हूं, इसकी खोज में नहीं जाता। इसी खोज में जाता है कि यह मेरी मान्यता जो है, वस्तुतः है? मैं अज्ञानी हूं? और जैसे-जैसे भीतर खोजता है, मान्यता उखड़ जाती है। और एक क्षण वह पाता है कि में न ज्ञानी, न अज्ञानी: अविद्या से परे हैं। दोनों, ज्ञानी और अज्ञानी, अविद्या के भीतर पड़े होते हैं। इसलिए उपनिषदों ने कहा है कि ज्ञानी भी भटक जाते हैं। अज्ञानी तो भटकते ही हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। अविद्या से परे-न ज्ञान, न अज्ञान-वैसा हमारा स्वभाव है। इस स्वभाव की जो परम अभिव्यक्ति है, वह परमात्मा है। और जिस दिन हमारे भीतर, किसी के भी भीतर वह अभिव्यक्ति हो जाती है, तो वह भी परम परमात्मा हो जाता है। कहीं भी वह अभिव्यक्ति हो जाए, वही। और जहां नहीं है अभिव्यक्ति, वहां भी परमात्मा मौजूद है, सिर्फ आपकी भ्रांत धारणा में दबा हुआ है। कोई आदमी अपने को मान ले कुछ, फिर वही धारणा उसे घेरती चली जाती है। यह आटो-हिप्नोसिस है। हमारी जो स्थिति है, यह आत्म-सम्मोहन है। इस आत्म-सम्मोहन को तोड़ना हो, तो प्रभु का सतत स्मरण मंत्र है। आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं, और जाएगा नहीं। पांच-सात मिनट प्रभु का स्मरणं हम यहां करेंगे। लेकिन दो बातें आपसे कह दूं। उठे नहीं। क्योंकि एक जन भी उठता है, तो पीछे के लोगों को उठना पड़ता है। और यहां कल कीर्तन में आपमें से कुछ लोग उठकर आगे आ गए। तो फिर दूसरे लोगों को उठना पड़ता है। बैठे रहें जहां हैं। वहीं से ताली बजाएं। वहीं से कीर्तन में साथ दें। गाएं। आनंदित हों। सात मिनट, इसे प्रसाद समझें और लेकर ही जाएं। उठेगा कोई भी नहीं। और बीच में कोई आगे नहीं आए। Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 चौथा प्रवचन भाव और भक्ति Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 प्रयाणकाले मनसाचलेन सकें, मोही नहीं, तो आप उस अशरीरी का अनुभव कर सकते हैं, भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। जिसे शरीर में रहते हुए अनुभव करना कठिन मालूम पड़ता है। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् नया जन्म प्रारंभ नहीं हुआ; पुराना समाप्त हो रहा है। बीच की सतं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। १० ।। उस संधिकाल घड़ी में यदि प्रभु का स्मरण हो, तो चेतना की यात्रा यदक्षरं वेदविदो वदन्ति संसार को छोड़कर ब्रह्म की ओर शुरू हो जाती है। विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। इसलिए कृष्ण यहां अर्जुन को उस अंतिम क्षण में क्या किया जा यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति सकता है और उस अंतिम क्षण में स्मरण करता हुआ पुरुष कैसी तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।। ११ ।। यात्रा पर निकल जाता है, उसकी बात कह रहे हैं। वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी ___ कृष्ण कहते हैं, वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम | निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप को ही प्राप्त पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। होता है। और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को इसमें बहुत-सी बातें समझने जैसी हैं। (अक्षर) ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित भक्तियुक्त पुरुष! भक्ति क्या है और भक्तियुक्तता क्या है? यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस | मनुष्य की चेतना में विचार की एक क्षमता है। एक और क्षमता है, परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं. उस | भाव की। विचार उपकरण है संसार में गति का; भाव उपकरण है परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा। संसार के पार गति का। ___ मनुष्य की चेतना की दो क्षमताएं हैं। एक, विचार की। विचार of तिम क्षण समस्त जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण | | की क्षमता संसार के लिए उपयोगी है। संसार में विचार के बिना 1 है। क्योंकि वही आगे की जीवन की यात्रा का बीज है। | एक कदम भी चलना असंभव है। लेकिन ठीक ऐसे ही एक और . __अंतिम क्षण में हम अपने जीवन का सब कुछ सिकोड़ | | क्षमता है, भाव की। उस भाव की क्षमता के बिना एक कदम भी कर पुनः इकट्ठा कर लेते हैं, नई यात्रा के लिए। अंतिम क्षण में वह परमात्मा की तरफ चलना मुश्किल है। सब संगृहीत हो जाता है, जिसके सहारे आगे की यात्रा होती है। लेकिन एक बड़ी भूल हो जाती है। चूंकि संसार में हम विचार ठीक से समझें, तो जब कोई जन्म लेता है, तो जन्म का क्षण | | के सहारे चलते हैं, जीवन का अनुभव अनेक जीवन का अनुभव, प्रारंभ नहीं है। क्योंकि जन्म में तो वही बीज अंकुरित होता है, जो | | विचार का ही अनुभव होता है। और हमारा यह भी अनुभव होता पिछली मृत्यु में संगृहीत हुआ था। ठीक प्रारंभ का क्षण मृत्यु का है कि जितना हम विचार करते हैं, उतनी ही सफलता मिलती है क्षण है। उस समय बीज बनता है। फिर वक्ष तो जन्म से शरू होता | संसार में। अनंत-अनंत जीवन का निचोड़ यह बन जाता है कि है, अंकुरित होता है और यात्रा पर जाता है। बिना विचार किए कोई सफलता ही नहीं है। और बिना विचार किए जो नहीं जानते, वे जन्म को प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे भटक जाने का डर है। तो फिर हम परमात्मा की तरफ भी अगर मृत्यु को ही प्रारंभ कहते हैं। एक अर्थ में मृत्यु दोनों है। पिछले जन्म | कभी चलते हैं, तो उसी विचार के उपकरण को लेकर चलते का अंत है और नए जन्म का प्रारंभ है। शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण | | हैं-भटक न जाएं इसलिए, असफल न हो जाएं इसलिए। क्षण है। क्योंकि इसी समय अगर हम छलांग ले सकें; संसार की | । और जिसे हम समझते हैं, सफलता का साधन, वही असफलता तीव्रता से घूमती हुई जो विक्षिप्त दशा है, जो वर्तुल है पागल; अगर | | का कारण बन जाता है। और जिसे हम समझते हैं कि भटकाव से मृत्यु के क्षण में हम छलांग ले सकें उसके बाहर, तो उससे ज्यादा बच जाएंगे, वही भटकाव है। क्योंकि जो उपकरण संसार में काम सरलता से छलांग और कभी नहीं ली जा सकती। क्योंकि मृत्यु के | करता है, वह परमात्मा की तरफ काम नहीं करता है। जैसे कोई क्षण में शरीर छूटता है। अगर आप शरीर के छूटने के साक्षी बन | रीर छटता है। अगर आप शरीर के छटने के साक्षी बन व्यक्ति कान से देखने की कोशिश करने लगे और आंख से सनने Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भाव और भक्ति के की कोशिश करने लगे और मुश्किल में पड़ जाए, वैसा ही वह आंख की जो स्थिति है, आंख को बाहर आपने निकाल लिया, तो व्यक्ति भी मुश्किल में पड़ जाता है, जो भाव से संसार में चलने आपको धोखा भला हो कि यह वही आंख है। यह वही आंख नहीं लगे, विचार से परमात्मा में चलने लगे। है, क्योंकि अब यह देख नहीं सकती। और जो देख नहीं सकती, लेकिन भाव से संसार में चलने की भूल कोई भी नहीं करता है। उसको आंख कौन कहेगा? सिर्फ दिखाई पड़ती है कि आंख है। और अगर कोई करता भी है, तो एक दो कदम पर ही समझ जाता अब यह एक मुर्दा चीज है। अब इस मुर्दा चीज की जांच होगी और है कि भूल हो गई, कदम वापस लौटा लेता है। लेकिन परमात्मा हम जांच करना चाहते थे जीवंत की; भूल हो जाएगी। की तरफ चलने में विचार के सहारे चलने की भूल सौ में निन्यानबे । हम जो भी विश्लेषण करके जांच पाते हैं, वह हमेशा मुर्दा होता लोग करते हैं। और कदम भी नहीं लौटाते। क्योंकि इतनी गहरी यह है। इसलिए चिकित्सक आत्मा को कभी भी नहीं खोज पाता। आत्मा धारणा है हमारी कि बिना विचार के तो एक कदम भी ठीक चला | को खोजने का कोई डायग्नोसिस का रास्ता भी नहीं है, कोई निदान नहीं जा सकता, गलती हो ही जाएगी। यह सच है, लेकिन आयाम, भी नहीं है। तो चिकित्सक जितनी ही खोज करता है, उतनी ही मुर्दा डायमेंशन संसार का और है और परमात्मा का और है। इन दोनों चीजें भीतर पाता है। आखिर में वह पाता है कि आदमी सिवाय पदार्थ के आयाम को ठीक से समझ लें, तो भक्तियुक्त पुरुष समझ में आ के जोड़ के और कुछ भी नहीं है। आत्मा चूक जाती है। जाएगा कि क्या है। विश्लेषण के द्वारा, काटने के द्वारा, खंडन के द्वारा, हम केवल विचार है तर्क की प्रतिक्रिया। विचार है चिंतना का मार्ग। विचार | मुर्दा, मृत पदार्थ को ही जान सकते हैं। इसीलिए विज्ञान पदार्थ से है विश्लेषण की विधि। यदि किसी चीज को नियम में लाना हो, तो | | संबंधित दिशाओं में बहुत सफल हुआ है, लेकिन चेतना से विचार और तर्क जरूरी है। बिना तर्क के कोई नियम निर्धारित नहीं संबंधित दिशाओं में बिलकल भी सफल नहीं हआ है। असल में होता। यदि किसी विचार को प्रबल बनाना हो, तो चिंतन, निरंतर | चेतना का कोई विज्ञान नहीं बन सका है अब तक। शायद बन भी चिंतन के द्वारा ही वह प्रबल होता है। यदि गलत विचार को अलग | | नहीं सकेगा। क्योंकि विचार उसका मार्ग नहीं है। अगर जीवन को करना हो, तो तर्क के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। अगर ठीक | जानना है, जीवंत, तो भाव उसका मार्ग है। विचार की खोज करनी हो, तो तर्क की ही छैनी से काट-काटकर विचार तोड़ता है, तब जांचता है। भाव जोड़ता है, तब जांचता ठीक विचार को बचाया जा सकता है, खोजा जा सकता है। यदि | है। विचार पहले चीजों को तोड़ता है, फिर उनके भीतर प्रवेश करता किसी चीज को तोड़कर उसका निरीक्षण करना हो, तो विश्लेषण | है। भाव पहले किसी से जुड़ जाता है और फिर भीतर प्रवेश करता के सिवाय कोई उपाय नहीं। तोड़ो, जांचो, परखो। | है। एक तो फिजियोलाजिस्ट की, शरीरशास्त्री की जानकारी है कि __ और इसीलिए विचार विज्ञान का जन्मदाता बन जाता है। और | वह आपके शरीर को काट-काटकर बता देगा कि भीतर क्या है, इसीलिए विचार जीवन के व्यवसाय का वाहन है। और इसीलिए क्या नहीं है। एक प्रेमी की भी जानकारी है, वह भी जिसे प्रेम करता विचार अंतर्यात्रा का मार्ग नहीं है। क्यों? क्योंकि भीतर के उस है, तो वह भी उसके संबंध में बहुत कुछ जान लेता है। लेकिन वह जगत में, उस परमात्मा की खोज में जो जा रहा है, वह किसी वस्तु जानना प्रेमी को काटकर नहीं होता, प्रेमी से जड़कर होता है।। का विश्लेषण करके नहीं जा सकेगा। क्योंकि विश्लेषण करते से • भाव प्रेम का ही मार्ग है। वहां हम, परमात्मा है या नहीं, इसे तर्क ही चीजें मर जाती हैं। से जानने नहीं जाते, इसे भाव से जुड़कर जानने की चेष्टा करते हैं। यदि हम एक व्यक्ति की जांच भी करते हैं शरीर की, तो | निश्चित ही, तोड़ने की जो विधि है, वह जोड़ने की विधि नहीं अभी-अभी विज्ञान को भी अनुभव होना शुरू हुआ है कि हम भूल | बन सकती। इसलिए विचार प्रभु की तरफ ले ही नहीं जाता। और कर रहे हैं। एक चिकित्सक है। अगर मेरा शरीर बीमार है, तो वह | | इसलिए दुनिया जितनी तथाकथित रूप से विचारवान होती जाती है, मेरे खून की जांच करता है शरीर से खन को निकालकर। लेकिन | उतनी परमात्मा से वंचित होती चली जाती है। शरीर से निकलते ही खून डेड हो गया, मुर्दा हो गया। मेरे शरीर के | - इधर पांच हजार वर्षों में हमने आदमी को विचार करने में बड़ा भीतर उसकी जो आर्गेनिक, जीवंत स्थिति थी, वह शरीर के बाहर कुशल बना लिया है, लेकिन भाव करने की कुशलता बिलकुल खो निकलते ही नहीं रह गई। मेरी आंख है; मेरे शरीर के भीतर जीवंत | गई है। मंदिर-मस्जिद सब मुर्दा हैं आज। पूजा-प्रार्थना सब सड़ गई 49 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 है। कारण है। क्योंकि भाव की जिस क्षमता से मंदिर जीवित होता अति प्रेम से डूबे हुए, अति प्रेम में लीन, किसी भाव-लोक में प्रवेश था, और भाव की जिस धारा से मस्जिद प्राणवान थी, और भाव के | करना होता है। जिस प्रवाह से प्रार्थना में गति आती थी, खून बहता था, और भाव और यह बड़े मजे की बात है। जब आप विचार से किसी चीज के जिस स्पंदन से पूजा के हृदय की धड़कन धड़कती थी, वह भाव | को सोचते हैं, तो जिसे आप सोचते हैं, वह नष्ट हो जाता है, आप ही खो गया है। और भाव का कोई प्रशिक्षण नहीं है। बचे रहते हैं। और जब भाव से आप किसी चीज को जोड़ते हैं, तो __भाव के प्रशिक्षण का नाम ही भक्ति की साधना है। और भाव | फूल तो बच जाता है, थोड़ी देर में आप खो जाते हैं। में जो प्रशिक्षित हो गया, वही भक्त है। जिसने विचार को छोड़ा विचार से जब किसी चीज की तरफ जाते हैं, तो, विचार और भाव को जीया। और जिसने कहा, हम सोचेंगे नहीं, भावेंगे। आक्रामक है, एग्रेसिव है, हिंसात्मक है, वह तोड़-फोड़कर रख हम प्रश्न न पूछेगे, हम प्रेम करेंगे। हम काटेंगे नहीं, हम जुड़ जाएंगे | देता है। आप तो बच जाते हैं, चीज टूट-फूट जाती है। वैज्ञानिक और जानना चाहेंगे कि क्या है। के आस-पास इसी तरह टूटी-फूटी मुर्दा चीजों का फैलाव है, एक फूल को तोड़कर भी देखा जा सकता है—विज्ञान वैसे ही | कबाड़खाना है। सब मरा हुआ है उसके आस-पास; सिर्फ देखता है, विचार वैसे ही देखता है-फूल को तोड़कर देखा जा | वैज्ञानिक जिंदा है। वह भर बैठा है बीच में, बाकी सब कबाड़खाना सकता है। तोड़ लें फूल को, तो पता चल जाता है, किन केमिकल्स है उसके आस-पास मुर्दा चीजों का। से, किन रासायनिक तत्वों से मिलकर फूल बना है। कितना खनिज | ___ एक कवि भी होता है कहीं किसी फूल के पास बैठा हुआ, एक है उसमें; कितनी मिट्टी है; कितना पानी है; कितनी सूरज की किरण | | प्रेमी भी होता है कहीं। तब एक दूसरी घटना घटती है। उसके पास है। सब बांट-छांटकर आपको पता चल जाता है। लेकिन जब तक | | चांद-तारे होते हैं-बहुत मुखर, बहुत जीवित-लेकिन कवि खो आप छांटकर, बांटकर पता लगाने तक पहुंचते हैं, तब तक आप गया होता है। वह नहीं होता वहां। एक बात भूल गए, फूल कभी का खो चुका है। फूल वहां नहीं है। रवींद्रनाथ से कोई पूछता था कि इतने अच्छे गीत तुमने लिखे! और फूल का जो सौंदर्य का अनुभव था, वह इस कटे-छंटे, | | रवींद्रनाथ, तुम कभी असफल भी हुए हो? तो रवींद्रनाथ ने कहा, एनालाइज्ड फूल के टुकड़ों से मिलने वाला नहीं है। | जब-जब मैं रहा, तभी-तभी असफल हुआ। जब-जब मैं मिटा,' अगर आप अब इस फूल की अलग-अलग टेस्ट-ट्यूब में, तभी-तभी सफलता थी। अगर गीत लिखते वक्त मैं मिट गया, तो परखनलियों में रखी हुई रासायनिक लाश को किसी कवि को दिखाएं सफल हुआ; और अगर गीत लिखते वक्त मैं बना रहा, तो कभी और कहें कि अब कविता करो फूल की, क्योंकि तुम जिस फूल को | सफल नहीं हुआ। देखते थे, उससे बहुत ज्यादा जानकारी अब इस परखनली में कैद | अब अगर वैज्ञानिक, विचार करने वाला अगर मिट जाए, टूट है! कोई कविता पैदा न होगी। क्योंकि वहां कोई फूल ही नहीं है। जाए, खो जाए, न रह जाए...। कभी-कभी कोई वैज्ञानिक भी अब कहें किसी सौंदर्य के प्रेमी को कि गाओ गीत। नाचो इस फूल | | प्रयोगशाला में खो जाता है। जब वह खो जाता है, तब वह वैज्ञानिक के आस-पास। क्योंकि तुम जिस फूल के पास नाच रहे थे, वह | | नहीं है, तब वह कवि हो जाता है। और अक्सर वैज्ञानिक भी कवि निपट अज्ञान से घिरा था। तुम्हें कुछ पता ही नहीं था। अब फूल के | | होकर ऐसे गहरे हीरे खोज लाता है, जो वैज्ञानिक होकर उसने कभी बाबत सब कुछ पता है। अब तुम ज्यादा अच्छा गीत गा सकोगे! | | भी नहीं खोजे। और कभी-कभी कवि भी नहीं खोता, फूल ही खो यह नहीं होगा; गीत का जन्म नहीं होगा। क्योंकि फूल को जानने | | जाता है, तब वह कवि नहीं होता, तब वह वैज्ञानिक ही हो जाता का जो ढंग है-फल को. फल की विषय-वस्त को नहीं: फल की | है। तब फल के संबंध में वह जो भी खोजकर लाता है. वह काव्य देह को नहीं, फूल के प्राण को जानने का जो मार्ग है। फूल की देह नहीं होता, मुर्दा तुकबंदी होती है। को जानने का तो यही मार्ग है, क्योंकि देह मृत है। लेकिन फूल के यह जो भाव है हमारे भीतर, इस भाव को परमात्मा की ओर प्राणवान, वह जो फूल के भीतर लपट है भागती हुई जीवन की, वह | | प्रवाहित करने का नाम भक्ति है। जो फूल के भीतर सौंदर्य का खिलाव है, वह जो इस फूल में | लेकिन हम परमात्मा के पास भी विचार को लेकर पहुंच जाते परमात्मा झलका है, अगर उसे जानना है, तो फूल के पास बैठकर हैं। हम अपना पूरा तर्कशास्त्र साथ लेकर पहुंच जाते हैं। हम अपनी 50 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भाव और भक्ति * सब पोथी विचार की साथ ही ढोते हैं। और हमें मौका मिले, तो हम परमात्मा को भी चीर-फाड़ करके, शल्यक्रिया करके, सर्जरी करके, ठीक से उसकी जांच करके, बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल की किताब में लिखना पसंद करें। लेकिन इस विचार को ढोने वाले आदमी को उससे कभी मिलना नहीं हो पाता, इसलिए उसकी शल्यक्रिया नहीं कर पाते। नहीं तो बहुत लोग परमात्मा का पोस्टमार्टम करने को इतने उत्सुक हैं! मिल भर जाए कहीं उसकी लाश, तो वे पोस्टमार्टम कर लें ! परमात्मा में उनकी उत्सुकता नहीं है; उनकी उत्सुकता अपने विचार और अपने सिद्धांतों में है। मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में बुजुर्ग आदमी था, तो कभी-कभी लोग उससे दवा भी पूछ ले जाते थे। गांव का बुजुर्ग था, कुछ दवाएं जानता था। एक संदेहशील आदमी उसके पास आया और उसने कहा कि मुल्ला, दवा तो तुम्हारी लेता हूं, लेकिन अब चिकित्सकों का कोई भरोसा नहीं रहा। मेरा एक मित्र था, चिकित्सक उसका निमोनिया इलाज करता रहा और आखिर में जब वह मरा, तो पोस्टमार्टम में पता चला कि वह टी.बी. का बीमार था ! मुल्ला ने कहा, बेफिक्र रहो, जब मैं निमोनिया का इलाज करता हूं, तो आदमी हमेशा निमोनिया से ही मरता है ! और अब तक हर पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में मैं सही सिद्ध हुआ हूं। तुम बेफिक्र रहो। अगर मेरी दवाई से मरोगे, तो निमोनिया से ही मरोगे। ऐसा कभी नहीं होता है कि कोई दूसरी बीमारी से मर जाता हो। विचारवादी उत्सुक है अपने विचार में। वह कहता है कि अगर . मैंने कहा कि निमोनिया है, तो निमोनिया से ही मरोगे। और अगर नहीं मानते, तो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट सिद्ध करेगी कि निमोनिया से ही मरे । न तुमसे उसे प्रयोजन है— विचार को अपने अहंकार से प्रयोजन है। इसलिए विचार के आस-पास जो लोग घूमते रहते हैं, वे अहंकार के आस-पास घूमते रहते हैं । और अहंकार से परमात्मा का क्या लेना-देना है। ध्यान रहे, भाव की दशा में अहंकार नहीं बचता । भाव का कोई अहंकार नहीं है। क्यों? क्योंकि अहंकार पैदा होता है दूसरों के संसर्ग में। इसलिए जब आदमी अपने से बाहर जाता है, तो अहंकार पैदा होता है। क्योंकि जहां तू है, वहां मैं के पैदा होने की जरूरत पड़ जाती है। लेकिन जब आदमी अपने भीतर जाता है, वहां कोई तू है ही नहीं, तो वहां मैं को पैदा होने की कोई जरूरत नहीं रह 51 जाती। मैं अकेला नहीं जी सकता; उसके लिए तू का छोर चाहिए। भाव अंतर्प्रवेश है, जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ लौटने लगे | वापस । भाव जो है, गोइंग बैक, वापस लौटना है। विचार जो है, | दौड़ना है बाहर की ओर। इसलिए विचार चांद पर ले जाएगा, मंगल पर ले जाएगा, महासूर्यों पर ले जाएगा। बस, एक जगह नहीं ले | जाएगा - आदमी के भीतर। विचार कहेगा, चलो और दूर, और दूर। जितनी दूर की यात्रा होगी, उतना विचार प्रसन्न होगा। सिर्फ एक यात्रा पर विचार इनकार कर देगा, भीतर की यात्रा पर । वह कहेगा, क्या बेकार के काम में लगे हो ? भीतर जाने की जरूरत | क्या है ? और भीतर कहीं कुछ है कि जा सकोगे? चांद पर चलो, आकर्षण तीव्र है। भीतर क्या रखा है ? और अगर कभी विचार थक भी गया बाहर से और भीतर जाने की कोशिश की, तो भी वह भीतर नहीं जा पाता । फिर भी वह बाहर - बाहर ही घूमता है। विचार भीतर जा ही नहीं सकता। वह है ही बाहर के लिए। वह आयाम ही उसका बाहर है। भाव भीतर जाता है। लेकिन भाव का हमें कोई खयाल नहीं है। कोई भी खयाल नहीं है। आमतौर से जिसे हम भाव कहते हैं, वह भी भाव नहीं है। एक मां अपने बेटे को प्रेम करती है। निश्चित ही, हम कहेंगे, यह विचार नहीं, भाव है। लेकिन उस मां को आज ही पता चल जाए कि यह बेटा उसका नहीं है। जब वह प्रसव पीड़ा में पड़ी थी, तब अस्पताल में किसी ने उसका बेटा बदल लिया। बीस साल से | वह प्रेम करती थी। यह आज पता चला, डाक्युमेंट हाथ में आ गए, सारे प्रमाणपत्र मिल गए कि बेटा उसका नहीं, किसी और का है। क्या आप सोचते हैं, प्रेम ठीक वैसी ही धारा में बहता रहेगा, जैसा बह रहा था एक क्षण पहले तक ? नहीं; धारा अवरुद्ध हो जाएगी, सब बिखर जाएगा। तो यह बेटे से भाव का संबंध था या यह भी विचार का ही संबंध था ? चूंकि यह मेरा बेटा है । मेरा बेटा है, तो संबंध था; और मेरा नहीं है, तो संबंध एकदम शिथिल होगा और खो जाएगा। → भाव मेरा-तेरा नहीं जानता। सिर्फ विचार ही मेरा और तेरा जानता है। इसलिए जिस मां ने मां होने का आनंद नहीं लिया और सिर्फ मेरे बेटे को प्रेम किया, अभी उसके भाव का जन्म नहीं हुआ | है। यह भी विचार है। भाव मेरा-तेरा जानता ही नहीं, भाव सिर्फ प्रेम जानता है। वह मेरा हो तो भी, और तेरा हो तो भी। और भाव जब गहन होता है, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 तो कोई भी मौजूद न हो, तब उस निर्जन में भी भाव की धारा प्रेम | विचार से अलग हैं। यही सबसे बड़ी कठिनाई है। की वर्षा करती रहती है। . आप जब भी विचार करते हैं, समझते हैं, मैं कर रहा हूं। और जब बुद्ध जैसा व्यक्ति जब कहीं बैठता है, या कृष्ण जैसा व्यक्ति जब भी भाव आता है, तो आप समझते हैं, कोई विजातीय चीज भीतर कहीं खड़ा होता है, कोई भी न हो वहां, तो भी प्रेम की किरणें वैसी आ रही है। हमारी आइडेंटिटी विचार से जुड़ गई है, हमारा तादात्म्य। ही फैलती रहती हैं, जैसे एकांत में जलते हुए दीए से प्रकाश झरता | तो आदमी जब विचार करता है, तो कहता है, मैं विचार कर रहा हूं। रहता है। वह किसी के लिए निवेदित नहीं है, वह किसी के लिए | जब भाव करता है, तो समझता है कि कोई फारेन, कोई विजातीय एड्रेस्ड नहीं है। वह सिर्फ भाव है। और उस भाव में रमने में परम चीज भीतर बाधा डाल रही है। भाव से हमारा कोई तादात्म्य नहीं है, आनंद है। जब कि भाव ही हमारी जड़ है, वही हमारा आधार है। जिस दिन भाव अनएड्रेस्ड होता है, उसी दिन परमात्मा के लिए तो पहला काम तो भक्ति-युक्त चित्त की तरफ यह है कि हम एड्रेस्ड हो जाता है। जिस दिन भाव बिना किसी पते के घूमने लगता | विचार को भीतर के मार्ग पर बाधा देने के लिए पाबंदी कर दें। कह है, भीतर से बहने लगता है, उसी दिन वह परमात्मा के चरणों पर | दें कि नहीं, तेरा वहां कोई काम नहीं है। पहुंचना शुरू हो जाता है। लेकिन यह भाव अंतर्गमन है, अपने पर कठिनाई पड़ेगी। लेकिन कठिनाई ज्यादा नहीं पड़ेगी, अगर वापस लौटना है। संकल्प है। और बहुत शीघ्र एक डिमार्केशन, एक सीमा-विभाजन तो जिसे भी भाव की तरफ चलना हो, उसे पहली शर्त तो यह है | हो जाएगा–विचार बाहर के लिए, भाव भीतर के लिए। जो व्यक्ति कि वह विचार से सावधान हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह | | ऐसा अपने भीतर स्पष्ट रेखा नहीं खींच पाता, वह विचार के द्वारा विचार छोड़ दे। इसका इतना अर्थ है कि वह विचार बाहर के लिए | सदा ही अपने भाव के जगत को नष्ट करने में लगा रहता है। करे और भीतर के संबंध में विचार को बाधा न देने दे। वैसे विचार जरा प्रेम उठेगा और विचार कहेगा, यह क्या गलती में पड़ रहे की आदत इंटरफिअर करने की है हर चीज में। और अगर आप | हो! इल्लाजिकल, तर्कहीन बातों में जा रहे हो! ध्यान करने गए। विचार से कहेंगे कि मत डालो बाधा, तो विचार ही आपसे कहेगा विचार कहेगा, यह क्या कर रहे हो? कीर्तन करने लगे। विचार कि तुम्ही उलटे मेरे काम में बाधा डाल रहे हो। कहेगा, यह क्या कर रहे हो? पागल हो रहे हो, मूढ़ हुए जा रहे मुल्ला नसरुद्दीन बैठा है अपने घर में। चिट्ठी डालने वाला | हो? भाव ने कहा, कूद पड़ो संन्यास में। विचार कहेगा, क्या होश वाजे के नीचे से चिट्टी डाल गया है। पत्नी उठी। मल्ला उठ ही खो रहे हो? क्या दिमाग खराब है? पहले सोचो। रहा था कि पत्नी उठ गई। उसने चिट्ठी उठाई। पता पढ़ा। मुल्ला ने आप भी कहेंगे कि सोचना तो जरूर चाहिए कुछ भी करने के पूछा, किसकी है? उसने कहा, मेरे मायके से है। किसके नाम है? | | पहले। लेकिन क्या आपको पता है, कुछ चीजें सोचकर की ही नहीं तो पत्नी ने कहा, मेरे नाम है। पत्नी ने चिट्ठी खोली, पढ़ने लगी। जा सकतीं। जैसे कोई प्रेम करने के पहले सोचे। निश्चित ही सोचना मुल्ला ने पूछा, क्या लिखा है? पत्नी ने कहा, चिट्ठी मेरे नाम है, चाहिए। मेरे मायके से है, आप इतनी उत्सुकता क्यों ले रहे हैं? मुल्ला ने | सुना है मैंने, एक आदमी ने सोचा है बहुत। वह आदमी था कहा. फिर वही नासमझी। हजार दफे कहा कि मेरे काम में बाधा जर्मनी का एक बहत बड़ा विचारक इमेनअल कांट। एक स्त्री ने मत डाला कर। उससे निवेदन किया कि मैं विवाह के लिए निवेदन करती हूं। चिट्ठी उसकी है, उसके मायके से है। वह पढ़ रही है। बाधा इमेनुअल ने नीचे से ऊपर तक उसे देखा, वैसे ही जैसे विचारक मुल्ला डाल रहा है। लेकिन वह कहता है, फिर वही नासमझी! मेरे किसी चीज को परख करते वक्त देखते हैं। उन्होंने ने कहा, ठीक। काम में बाधा मत डाला कर। | मुझे विचार का मौका दें। विचार पूरे समय भाव के लिए बाधा डालता है। और अगर स्त्री में थोड़ी भी प्रतीति रही होगी, तो उसी वक्त जान लेती कि आपने विचार से कहा कि बाधा मत डालो, तो विचार कहेगा, मेरे । | यह आदमी काम का नहीं है। फिर महीनों पर महीने निकल गए। काम में आप बाधा डाल रहे हैं। और विचार से आप इतने आब्सेस्ड | | वर्ष निकल गया। तीन वर्ष निकल गए। और तीन वर्ष बाद हैं, विचार से ऐसे रुग्ण हैं कि आप यह भूल ही गए हैं कि आप इमेनुअल उसके दरवाजे पर पहुंचा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भाव और भक्ति उसके पिता ने उसे बिठाया और पूछा कि आप कैसे आए? | | कान में कुछ-कुछ पूछता है। जब उसने बगल के आदमी से पूछा, ख्यातिलब्ध आदमी था! इमेनुअल ने कहा कि कुछ समय हुआ | तब राज खुला। बगल के आदमी से उसने पूछा, यह कब सिक्खड़ आपकी लड़की ने निवेदन किया था मुझसे विवाह का। तीन साल | हटेगा, शूवर्ट कब आएगा? वह शूवर्ट ही बजा रहा है। तो बगल मैंने सब तरह अध्ययन किया, चिंतन किया, मनन किया, विवाह के आदमी ने कहा, महानुभाव, यह शूवर्ट ही है! उसने कहा, अरे, के पक्ष में और विपक्ष में सारी युक्तियां, सब तर्क! यही कहने आया | वंडरफुल, आश्चर्य! क्या अदभुत संगीत है! वह शूवर्ट सुन रहा है हूं कि अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है। सामने ही बैठा! क्या हुआ! यह आदमी संगीत सुन रहा है? यह, लेकिन उसके पिता ने कहा, अब आप चिंता छोड़ें। लड़की के | शूवर्ट कौन है, तो प्रभावित होता है। नहीं तो नहीं प्रभावित होता है। विवाह हुए भी दो साल हो गए। एक बच्चा भी हो चुका है। वैसे विनसेंट वानगाग के चित्र अनेक लोगों के घरों में थे। विनसेंट भी काफी देर हो चुकी है। और अब तो आप चिंता ही छोड़ दें। | वानगाग गरीब चित्रकार था। किसी से कुछ सिगरेट उधार ले ली इमेनुअल कांट विचारक था। प्रेम को अगर विचार करने गए, | थीं, उसके पास पैसे चुकाने को नहीं थे, तो एक पेंटिंग उसको दे तो विचार हाथ लगेगा, प्रेम कभी का खोचका होगा। | आया। जो आदमी सिगरेट के पैसे नहीं चुका सकता, उसकी पेंटिंग लेकिन प्रेम के संबंध में हम यह नासमझी नहीं करते। लेकिन | कोई अपनी दूकान में टांगेगा? पान वाला भी नहीं टांगेगा। उसने प्रार्थना के संबंध में जरूर करते हैं। क्यों करें प्रार्थना? यह क्यों | उसको कबाड़खाने में डाल दिया। सवाल विचार का है; यह सवाल भाव का नहीं है। भाव क्यों पूछता .... विनसेंट वानगाग के मरने के बीस-पच्चीस वर्ष बाद उसकी ही नहीं। भाव पूछता है, कैसे करें प्रार्थना? भाव पूछता है, क्या है | तस्वीरों की खोज शुरू हुई, जैसा अक्सर होता है। विनसेंट वानगाग प्रार्थना? क्यों नहीं। क्या मिलेगा प्रार्थना से, यह भी भाव नहीं | | को खाने के पैसे नहीं थे और अब विनसेंट वानगाग की एक-एक पूछता। कभी प्रेम ने पूछा है कि क्या मिलेगा प्रेम से? प्रार्थना करने | तस्वीर चार और पांच लाख रुपए की होती है। खोजबीन मच गई वाले ने भी कभी नहीं पूछा है। लेकिन हम प्रार्थना करने वाले निरंतर कि कहां उसकी तस्वीरें हैं? क्योंकि उसकी एक तस्वीर जिंदगी में पूछते रहते हैं, क्या मिलेगा? क्या मिला है? कुछ मिल रहा है कि बिकी नहीं कभी; एक नहीं बिकी! तो वे तो मुफ्त उसने दे दी थीं। नहीं मिल रहा है? | मित्र उसका अनुग्रह करके तस्वीर टांग देते थे अपने बैठकखाने में, नहीं, भाव नहीं है वहां। विचार को हटाएं, अन्यथा भाव के | और जैसे ही वह जाता था, उतारकर पीछे हटा देते थे। और कभी जगत में कोई गति नहीं होगी। विचार को कहें कि तेरी सीमा है, वहां | फिर घर आने को है, तो जल्दी से उसकी तस्वीर टांग देते थे कि तू काम कर। बाहर, घर के बाहर; घर के भीतर नहीं। कुछ मेरे उसको बुरा न लगे। अंतस्तल का भी जगत है, जहां तू बाधा न डाल। तू पदार्थ से जूझ, लोगों ने खोजबीन की, तस्वीरें एकदम कीमती हो गईं। नकली, तू परमात्मा से जूझने मत चल, अन्यथा मुझे हराकर रहेगा। तू पदार्थ | लोगों ने विनसेंट वानगाग की तरह ही चित्र बना-बनाकर लाखों को काट, लेकिन प्रेम को काटने की तैयारी मत कर। तू पदार्थ की | रुपए कमा लिए। जो तस्वीर पीछे घर में पड़ी थी, जैसे ही घर के परीक्षा कर, लेकिन परमात्मा की परीक्षा लेने मत जा। | मालिक को पता लगा कि विनसेंट वानगाग की है। वानगाग है! तो फिर दूसरा कदम उठाया जा सकता है, भाव के विकास का। | तस्वीर बैठकखाने में आ गई! अभी तक कबाड़खाने में पड़ी थी। जहां भी चिंतन को गति न मिलती हो और प्रतीति को गति मिलती इस आदमी का तस्वीर से कोई भी संबंध बन पा रहा था? कोई हो, वहां-वहां ज्यादा से ज्यादा समय देना शुरू करें। | संबंध नहीं था। संगीत सुन रहे हैं, उसे भी हम संगीत की तरह नहीं सुनते।। __ आपके घर में भी हीरा पड़ा हो और पत्थर आपको पता हो, तो .. सुना है मैंने कि एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ, शूवर्ट, एक गांव में | | उससे कोई संबंध नहीं बनता। और पत्थर पड़ा हो और वहम आ संगीत बजाने गया है। जब वह अपना वायलिन बजा रहा है, तब | जाए कि हीरा है, तो संबंध बन जाता है। तो आपके सौंदर्य से कोई सामने बैठा एक बूढ़ा बार-बार कह रहा है, बेकार है; कुछ भी नहीं | | भाव का लेना-देना नहीं है। यह सब विचार का ही मामला है। है। शूवर्ट परेशान हो गया। वह सामने की कुर्सी पर बैठा हुआ है, | भाव जहां हो! संगीत बज रहा है। छोड़ें फिक्र, कौन बजा रहा और बार-बार कह रहा है। और वह अपनी बगल के आदमी से भी है। छोड़ें फिक्र, क्या बजा रहा है। इतनी ही फिक्र करें कि मन, जहां 53 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 बुद्धिहट जाती है और भाव — सिर्फ भाव - तरंगें होती हैं- क्या यह संगीत इन भाव की तरंगों को छू रहा है? अगर छू रहा है, तो बुद्धि एक तरफ रख दें उतारकर और इस भाव की धारा में बहें। चाहे फूल हो, और चाहे आकाश के तारे हों, चाहे संगीत हो, चाहे किन्हीं दो सुंदर आंखों में मिली कोई झलक हो, चाहे किसी चेहरे का सौंदर्य हो, चाहे किसी पत्थर का सौंदर्य हो, चाहे मंदिर हो, चाहे मस्जिद – जहां भी आपको लगता हो कि बुद्धि के गहरे में जाकर कोई चीज छू रही है, बुद्धि को हटा दें और अपने हृदय को खुला कर दें, ताकि वह आपके हृदय पर स्पर्श करके उसको जगा पाए । अगर कोई व्यक्ति इतनी ओपनिंग, इतना दरवाजा अपनें में बना , तो बहुत शीघ्र ही वह पाएगा कि भाव का एक अनूठा अंकुरण उसके भीतर हो जाता है। और इस भाव के अंकुरण के साथ आता प्रेम, निर्बाध प्रेम । इस भाव के अंकुरण के साथ आता है प्रार्थना का लोक - लोभरहित, बेशर्त । इस भाव के साथ आती है धीरे-धीरे भक्ति । भक्ति का अर्थ है, एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम । एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम। जब तक सुंदर में ही सुंदर दिखाई | पड़ता है, तब तक अभी पूर्ण सौंदर्य का अनुभव नहीं हुआ। और जब कुरूप में भी सौंदर्य के दर्शन शुरू हो जाते हैं, तो पूर्ण सौंदर्य का अनुभव होता है। जब तक मित्र से ही प्रेम बनता है, तब तक पूर्ण प्रेम का कोई पता नहीं; और जब शत्रु से भी प्रेम बन जाता है, तभी पूर्ण प्रेम का पता है। जिस दिन भाव की यह धारा समस्त के प्रति बिना किसी कारण के, बिना किसी निर्णय के, बिना किसी चुनाव के बहनी शुरू हो जाती है, भक्ति बन जाती है। कृष्ण कहते हैं, भक्तियुक्त पुरुष, ऐसे भाव से भरा हुआ व्यक्ति, अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके ... । ये जो दो आंखें हैं आपकी, ये जो दो भृकुटियां हैं, आई ब्रोज हैं, इनके बीच में जगह है एक, जो इस शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह थर्ड आई, तीसरी आंख की जगह है, शिव-नेत्र की जगह है । जिस व्यक्ति का समस्त के प्रति प्रेम भाव है, प्रार्थना भाव है, पूजा भाव है, जो इस जगत में सिवाय परमात्मा के और किसी को देखता नहीं, ऐसा व्यक्ति अंत समय में भृकुटी के मध्य में ध्यान को स्थिर कर लेता है। क्यों? क्योंकि जिसका ध्यान भृकुटी के मध्य 54 स्थिर हो, उसकी आगे की शरीर- यात्रा बंद हो जाती है। आगे की शरीर - यात्रा, आवागमन, तीसरी आंख पर अगर ध्यान न हो, तो जारी रहता है। इस तीसरी आंख पर अगर ध्यान हो, तो यह द्वार है संसार से छूट जाने का। यहां मार्ग है, जहां से एक संधि है छोटी, जहां से हम शरीर के पार हो जाते हैं। इस पर अगर ध्यान हो और प्रेम से भरा हुआ चित्त हो, भाव से भरा हुआ चित्त हो, विचार की कोई तरंग ही न हो, भाव की गहनता हो, बस | विचार की कोई लहर ही न हो, क्योंकि जैसे ही विचार की लहर आती है, भृकुटी से ध्यान हट जाता है। इसे समझ लें। विचार की जरा-सी तरंग, और भृकुटी से ध्यान हट जाता है। और विचार निस्तरंग, भाव परिपूर्ण, और भृकुटी पर ठहर जाता है। इस भृकुटी पर ठहरा हुआ चित्त, निश्चल मन से स्मरण करता हुआ | दिव्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। निश्चल विचार कभी होता ही नहीं, सिर्फ भाव होता है। अगर आप कहते हैं कि मेरा विचार बहुत दृढ़ है, तो आप बड़ी गलत बात कहते हैं | विचार दृढ़ होता ही नहीं। जैसे कोई कहे कि मेरी नदी में जो लहरें उठती हैं, वे बड़ी निश्चल हैं, वह पागलपन की बात कर रहा है। लहरें निश्चल होती ही नहीं। नदी निश्चल हो सकती है, लेकिन तभी, जब लहरें न हों। भाव निश्चल हो जाता है तभी, जब विचार की तरंगें नहीं होती हैं । विचार तो तरंग है, इसलिए निस्तरंग विचार का अर्थ होता है, न- विचार, निर्विचार | विचार ही कंपन है, इसलिए अकंप विचार नहीं होता। जब अकंप विचार होता है, तो विचार होता ही नहीं । और जब भी विचार होता है, तो कंपन जारी रहते हैं। अगर जरा-सा भी कंपन है, तो भृकुटी पर नहीं ठहराया जा सकता। आदमी चूक जाता है। और भृकुटी की जो संधि है, वह इतनी छोटी है कि अगर आप बालभर भी कंप गए, तो चूक गए। अगर बालभर भी कंपन हुआ, तो चूक गए। वह जगह बहुत एटामिक है, बहुत आणविक है; वह बहुत बड़ी जगह है; बहुत | सूक्ष्म संधि है । उसमें तो सिर्फ वे ही लोग प्रवेश करते हैं, जो कंपना जानते ही नहीं, जिन्हें कंपन का पता ही नहीं रहा है अब । और ध्यान रहे, भाव बड़ा निष्कंप है। कभी आपने किसी को अगर प्रेम किया हो, जैसा कि होता नहीं। मुश्किल से कभी कोई सौभाग्यशाली होता है कि किसी को प्रेम करता है। अगर कभी किसी को प्रेम किया हो, तो सब करते हुए - सब चलते, उठते, काम में लगे हुए - भीतर कोई एक अकंप भाव उस प्रेमी का बना Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और भक्ति हता है। कबीर से कोई पूछता है कि तुम ये सब काम में लगे हुए कैसे उसको स्मरण करते होओगे ? कबीर ने कहा, कभी समय आएगा, तो बताऊंगा | फिर एक दिन स्नान करके नदी से लौटते हैं कबीर । साथ में पूछने वाला भी है। वह फिर पूछता है, बताया नहीं ! तो कबीर ने कहा— पास में दो ग्राम-वधुएं अपने सिर पर घड़ा लिए पानी से भरा हुआ, दोनों हाथ छोड़े गपशप करती हुई रास्ते से गुजर रही हैं। कबीर ने कहा, देखते हो इन्हें, पानी से भरा हुआ घड़ा है, माथे पर रखा है, हाथ का सहारा नहीं, दोनों हाथ छोड़कर गपशप करती हुई वे मार्ग से चलती हैं। क्या तुम सोचते हो, इन्हें घड़े का स्मरण नहीं होगा ? रोका उन्हें पूछा। तो उन्होंने कहा, अगर घड़े का स्मरण सतत न बना रहे, तो हाथ हटाया नहीं जा सकता। हाथ हटा ही इसलिए सके हैं कि स्मरण तो घड़े का बना ही हुआ है। वह स्मरण ही सम्हाले हुए है। सारे काम में लगा हुआ व्यक्ति भी अगर भाव से भर जाए, तो फिर सब तरफ उलझा रहे, भीतर कहीं कोई चीज सम्हली ही चली जाती है। वह सम्हली ही बनी रहती है। उस भाव की दशा में यदि अंत क्षण आ जाए, तो समस्त भाव सिकुड़कर भृकुटी पर केंद्रित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, योगबल से ! क्योंकि भृकुटी पर ध्यान को केंद्रित करने का जिन्होंने अभ्यास किया हो, उन्हीं के लिए आसान होगा कि अंत क्षण में उनका भाव भृकुटी पर आ जाए, अन्यथा संभव नहीं होगा। क्योंकि शरीर के भीतर रास्ते हैं। और अगर रास्ते टूटे हुए न हों, तो आखिरी समय में रास्ते बनाना बहुत मुश्किल है। आप शायद ही कभी अपनी भृकुटी की तरफ ध्यान ले जाते हों। ध्यान जाता है सेक्स सेंटर की तरफ, ज्यादा से ज्यादा। ज्यादा से ज्यादा आदमी का ध्यान उसके काम-केंद्र की तरफ दौड़ता रहता है। काम-केंद्र बिलकुल उलटा है तृतीय नेत्र से, दूसरे छोर पर है। ये दो छोर हैं। ऐसा समझ लें, काम-केंद्र का चिंतन अगर ज्यादा चलता हो, तो हमारे भीतर चेतना को जाने के लिए एक ही रास्ता होता है बना हुआ; वह बिलकुल, कहें कि हाईवे है चेतना के लिए भीतर। बिलकुल सपाट रास्ता तैयार है। जरा खिसके कि काम-केंद्र पर पहुंच जाएंगे। बीमार पड़े हैं खाली, तो कामवासना पकड़ेगी। खाली बैठे हैं, कोई काम नहीं है दफ्तर में, तो कामवासना पकड़ेगी। कार में बैठे हैं खाली, तो कामवासना पकड़ेगी। या तो करते विचार कुछ न कुछ, उलझे रहो, और या फिर कामवासना पकड़ेगी। एक सपाट रास्ता भीतर बना है, चित्त जरा खाली हुआ, भागा। एक दूसरा केंद्र है भृकुटी के मध्य में, योगी उसे आज्ञा चक्र कहते हैं, या कोई और नाम देते हैं। यह जो केंद्र है, यह ठीक उलटा | है। भक्त का, जैसे ही समय मिला, ध्यान भागा और भृकुटी पर आया। लेकिन इस भृकुटी के कांशसनेस के लिए, इसके चैतन्य के लिए, इसके बोध के लिए योग का अभ्यास जरूरी है। धीरे-धीरे आपको शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा आज्ञा चक्र मालूम | पड़ने लगे, और जब भी सुविधा हो, समय हो, शक्ति हो, ध्यान तत्काल आज्ञा चक्र की तरफ भाग जाए। अगर यह रास्ता तैयार रहा, तो अंत समय में समस्त भाव आज्ञा चक्र पर इकट्ठा होकर शरीर के आवागमन के बाहर हो जाता है। लेकिन अगर यह न रहा, तो कठिनाई पड़ जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है। और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यनशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षिप्त में कहूंगा। वेद के जानने वाले ! सहज ही खयाल आता है कि वेद की जो चार संहिताएं हैं, उनको | जानने वाले, वेदपाठी पंडित, कृष्ण उनकी बात कर रहे होंगे ! कृष्ण जैसे व्यक्ति उनकी बात नहीं कर सकते। शास्त्र को जानने वाला, कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता। लेकिन वेद अनूठा शब्द है। वेद का अर्थ होता है केवल ज्ञान । वेद का अर्थ शास्त्र तो परोक्ष से होता है। सीधा-सीधा अर्थ होता है ज्ञान । जिसे हम वेद कहते रहे हैं, वह केवल उस ज्ञान की एक भनक है, एक प्रतिछवि । अनंत वेद पैदा हो सकते हैं, अगर हम उस परम | ज्ञान के सामने जितने दर्पण ले जाएंगे, उतने वेद पैदा हो सकते हैं। लेकिन वेद का इशारा उस परम ज्ञान की तरफ है। अगर वेद की चारों संहिताएं भी खो जाएं, तो भी वेद नहीं खो जाएगा। और वेद की अगर करोड़ों संहिताएं भी पैदा हो जाएं, तो भी वेद चुक नहीं जाएगा। 55 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 जिन चार संहिताओं को हम वेद कहते हैं—ऋग्वेद को, यजुर्वेद | तक न बोला जाता और न सुना जाता। जब आप बोलना बंद कर दें, को, अथर्व को, साम को–यह मनुष्य जाति के स्मरण में उस परम चुप हो जाएं, मौन हो जाएं, भीतर भी शब्द न रह जाएं, तब भी एक वेद की पहली प्रतिछवि है। कुरान भी वेद है, और बाइबिल भी वेद | गूंज, प्राणों के प्राण में एक आवाज, एक नाद उठना शुरू हो जाता है, और महावीर के वचन भी, और बुद्ध के वचन भी—ये बाद की है। उस नाद का नाम, जानने वाले, वेद को जानने वालों ने अक्षर प्रतिछवियां हैं। लेकिन जो लोग पहली प्रतिछवि से आग्रहग्रस्त हो | कहा है। उस नाद का जो प्रतीक है, वह ओम या ओंकार है। गए, उन्होंने कहा, अब इसके बाद और कोई वेद नहीं है। जब कोई परम मौन होता है, तब उसके भीतर भी एक ध्वनि वेद निरंतर जन्मता रहेगा। जब भी कोई व्यक्ति परमभाव को | गूंजती है। वह ध्वनि हमारी पैदा की हुई नहीं है, क्योंकि हम तो चुप उपलब्ध होता है, तब दर्पण बन जाता है। और वह जो परम वेद है, | हैं। वह ध्वनि हमारा अस्तित्व है। अस्तित्व की ध्वनि है; कहें कि जो शाश्वत ज्ञान है, जो परमात्मा के हृदय में विराजमान है, वह | अस्तित्व ही ध्वनित होता है; हमारा होना ही ध्वनित होता है। उस फिर अपनी प्रतिछवि बनाता है। ध्वनि का नाम अक्षर है। क्योंकि हम जब नहीं थे, तब भी वह ध्वनि निश्चित ही, वह छवि दर्पण के अनुसार अलग-अलग होती है। ध्वनित हो रही थी; और हम नहीं होंगे, तब भी वह ध्वनित होती ऋग्वेद एक छवि है। कुरान दूसरी, वह मोहम्मद का दर्पण है। | रहेगी। शायद हम उस ध्वनि की एक वेव लेंथ के अतिरिक्त और बाइबिल तीसरी, वह जीसस का दर्पण है। बुद्ध या महावीर, और | कुछ भी नहीं हैं। शायद उस परम ध्वनि का ही हम एक सघन रूप लाओत्से, हजार-हजार लोग प्रतिबिंब दिए हैं, वे सभी वेद हैं। | हैं, ए पर्टिकुलराइज्ड फार्म आफ दैट साउंड, दैट साउंडलेस साउंड; वेद किसी मुर्दा किताब का नाम नहीं। वेद उस परम ज्ञान का नाम | | उस ध्वनिरहित ध्वनि का एक सघन रूप हैं। उस ध्वनि का नाम है, जिसके समक्ष परिपूर्ण शून्य हुआ व्यक्ति खड़ा होता है। ओंकार है, ओम है। तो कृष्ण जब वेद की बात करते हैं, तो कोई इस भ्रांति में न रहे यह ओम कोई शब्द नहीं है, इसमें कोई अर्थ नहीं है। यह कि वे कोई हिंदुओं के वेद की बात कर रहे होंगे। नहीं, कृष्ण जैसे अस्तित्व बोधक मात्र है, इंगित मात्र है। इसलिए ओम को लिखने लोग विशेषण की भाषा में नहीं बोलते। हिंदू, और मुसलमान, और का जो पुराना ढंग है, वह पिक्टोरियल है; चित्र बनाकर है। ओम ईसाई, और जैन की भाषा में नहीं बोलते। उनकी भाषा तो परम | को हम अ, उ, म से भी लिख सकते हैं। अंग्रेजी में ओम लिखना भाषा है। वेद से उनका अर्थ है, वह वेद, जो दर्पण बन गए लोगों | हो, तो हम ओ और एम से लिख सकते हैं। लेकिन नहीं, वह में प्रतिबिंबित होता रहा है। वर्णाक्षरों में लिखना ठीक नहीं है। ओम को हम लिखते हैं ऐसे वेद को जानने वाले उस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम | पिक्टोरियल, एक चित्र में। शब्द नहीं देते उसे, चित्र देते हैं, से पुकारते हैं। अक्षर, जो कभी क्षरता नहीं, क्षीण नहीं होता, नष्ट आकृति देते हैं सिर्फ। और वह आकृति इसीलिए देते हैं, ताकि हमारे नहीं होता। और अक्षरों से वह एक न हो जाए, संयुक्त न हो जाए। हम तो सभी वर्णमाला को अक्षर कहते हैं। अ, ब, स, द, क, वस्तुतः वही अक्षर है, शेष सब जिन्हें हम अक्षर कहते हैं, उसकी ख, ए, बी, सी, डी-सभी अक्षर हैं। लेकिन सभी क्षर जाते हैं। | | ही पैदावार हैं। ओम में अ, उ और म तीन की ध्वनियों का तालमेल और सभी नष्ट हो जाते हैं। इनको अक्षर कहना ठीक नहीं है। अगर है। यह ओम तो अक्षर है, फिर अ, उ, म उसकी तीन उत्पत्तियां हैं। मैं न बोलूं, तो ये अक्षर पैदा भी नहीं हो सकते। अगर आप चुप और फिर हमारे सारे वर्णाक्षर उन तीन के और विस्तार हैं। रहें, तो ये अक्षर खो जाते हैं। इनको अक्षर कहा नहीं जा सकता। पूर्वीय मनीषा ने जाना है ऐसा कि सत्य है एक; और जब सत्य इसलिए कृष्ण कहते हैं, जानने वाले उस परम पद को अक्षर | संसार बनता है, तो होता है तीन; और फिर तीन से हो जाता है कहते हैं और वह अक्षर ओंकार है। एक ऐसा अक्षर भी है, ओम, | अनेक। ओम है एक। फिर अ, उ, म। और फिर सारे वर्णाक्षर पैदा जो आप न बोलें, तो ही बोला जाता है। होते हैं। लेकिन वे सब अक्षर नहीं हैं। अक्षर तो सिर्फ ओम ही है। इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। इस परम पद को जानने वालों ने ओंकार कहा है, अक्षर कहा और सब अक्षर आप बोलें, तो ही बोले जाते हैं; न बोलें, तो खो है। और आसक्तिरहित, यत्नशील महात्माजन इसमें प्रवेश करते जाते हैं। एक अक्षर ऐसा भी है, जो आप जब तक बोलते रहें, तब हैं-इस ओम में, इस अक्षर में। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भाव और भक्ति जैसे ही किसी का भाव भृकुटी के मध्य थिर हो जाता है, वैसे ही है, तो यत्न है। आसक्ति छूटी, तो लोग यत्न भी छोड़ देते हैं। उस थिरता में ओंकार का नाद शुरू होता है। उस नाद के साथ ही | लेकिन दोनों में ही खतरे हैं। व्यक्ति संसार से मोक्ष में प्रवेश करता है। कहें कि वह नाद वाहन | कृष्ण एक और ही बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, आसक्तिरहित है। भकटी के मध्य में जैसे-जैसे व्यक्ति करीब पहुंचने लगता है. यत्नशील। पाना कछ भी नहीं है. फिर भी प्रयास में रत्तीभर कमी नाद घनघोर होने लगता है, गहन होने लगता है। नहीं। यह बड़ी कठिन बात है। पाना कुछ भी नहीं है, फिर भी प्रयास कबीर कहते हैं, कैसी जोर की बिजली कड़कती है! कैसे घनघोर | | में रत्तीभर कमी नहीं। दौड़े ऐसे ही जा रहे हैं जैसे मंजिल पर पहुंचना बादल बरसते हैं! कैसे अमृत की बरसा हो रही है! और यह कैसा | | हो, और पहुंचना कहीं भी नहीं है। यह कैसे होगा? नाद, जो कहीं पैदा नहीं हो रहा है और सुनाई पड़ रहा है! | यह कभी-कभी होता है। अगर दौड़ने में ही आनंद आ रहा हो, जैसे-जैसे भृकुटी के मध्य आएंगे, वैसे-वैसे पूरे तन-प्राण में | तो होता है। एक नाद गूंजने लगेगा। उस क्षण में आप केवल ध्वनि का एक | एक तो दौड़ है, कहीं पहुंचने में आनंद छिपा है, कोई खजाना संग्रह मात्र रह जाएंगे-शरीर नहीं, नाद मात्र। और इस नाद पर | मिलने को है यात्रा के अंत पर, तो दौड़ रहे हैं। दौड़ने में कोई आनंद सवारी करके ही व्यक्ति भृकुटी के छिद्र से ऊपर उठता है और परम | नहीं है। आनंद तो छिपा है वहां, अंत में। मिलेगा, तो आनंद पद में प्रवेश करता है। | मिलेगा। दौड़ तो रहे हैं उसे पाने के लिए। . इसे जिसे ओंकार कहते हैं ज्ञानीजन, आसक्तिरहित—ये शब्द | अगर ऐसे व्यक्ति से कहो कि आसक्तिरहित दौड़ो, तो वह बैठ समझ लेने जैसे हैं—आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन उसमें | जाएगा वहीं। वह कहेगा, जब पहुंचना ही नहीं है कहीं, दौड़ना प्रवेश करते हैं। किसलिए? और कृष्ण कहते हैं, दौड़ो और पहुंचने का खयाल मत • आसक्तिरहित! जिनकी इतनी भी आसक्ति नहीं रही है कि हम करो। इसका अर्थ हुआ, दौड़ो दौड़ने के ही आनंद में। मोक्ष में प्रवेश करें। क्योंकि बाकी आसक्ति तो छोड़े कोई, तभी __ असल में जब कोई साधक गहरा उतरना शुरू होता है, तो वह भृकुटी तक पहुंचता है, लेकिन एक आसक्ति फिर भी रह जाती कि | यह नहीं कहता कि मैं ध्यान किसलिए कर रहा हूं। वह जानने लगता मैं मोक्ष में प्रवेश करूं। अगर इतनी आसक्ति भी भीतर शेष रह गई | | है कि ध्यान ही आनंद है, योग ही आनंद है। वह यह नहीं कहता कि मैं मुक्त हो जाऊं, मोक्ष में प्रवेश करूं, परम पद पा जाऊं, प्रभु | कि प्रार्थना मैं इसलिए कर रहा है कि परमात्मा मझे यह मिल जाए। को पा लूं, इतनी आसक्ति भी अगर रह गई, तो बाधा बन जाती है। वह कहता है. परमात्मा न भी हो. तो चलेगा: प्रार्थना के बिना नहीं पाने का जहां खयाल शेष रह गया, वहां संसार शुरू हो जाता है। चल सकता। वह कहता है, प्रार्थना आनंद है, इसलिए कर रहा हूं। जहां वासना आ गई कोई भी, वहीं हम फिर पुनः संसार की यात्रा । भक्तों ने बड़ी अदभुत बातें कही हैं। और भक्तों ने भगवान से पर वापस लौट जाते हैं। ऐसी शानदार टक्करें ली हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। यह बहुत समझ लेने जैसी बात है। एक भक्त कहता है कि मुझे तेरे मोक्ष-वोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं। प्रभु के खोजी को प्रभु के पाने के पहले, प्रभु को पाने की वासना | | मुझे तेरी वृंदावन की गली में ही जन्म ले लेना काफी है। मुझे तेरे भी छोड़ देनी पड़ती है। मोक्ष के खोजी को मोक्ष के द्वार पर मोक्ष | | मोक्ष-वोक्ष को नहीं चाहिए। इतना ही खयाल रखना कि वृंदावन में की वासना को भी उतारकर रख देना पड़ता है। उतनी-सी वासना | | जहां तू चला, वहीं मैं हो जाऊं, वहीं रह जाऊं, उसी धूल में पड़ा भी संसार में लौटा लाने के लिए पर्याप्त है। रहूं। मैं तेरे मोक्ष को छोड़ सकता हूं, तेरी वृंदावन की गली नहीं। आसक्तिरहित, लेकिन यत्नशील; यह बहुत अदभुत बात है। | अब यह आनंद किसी और बात की खबर है। मोक्ष को छोड़ने आसक्तिरहित और यत्नशील! आसक्त तो यत्नशील दिखाई पड़ते की हिम्मत की बात जो कह सकता है, उसने मोक्ष पा ही लिया। हैं। क्योंकि जहां आसक्ति है, वहां यत्न है, एफर्ट है, चेष्टा है। जहां | उसे अब पाने को कुछ शेष न रहा। वृंदावन की गली भी उसके लिए कुछ पाना है, वहां पाने की कोशिश होगी। लेकिन दूसरी घटना जो | मोक्ष हो जाएगी। धूल में पड़ा हुआ वह परम सिद्ध-शिला पर घटती है-घटना कहें या दुर्घटना-जब कोई व्यक्ति कहता है, | विराजमान हो जाएगा। अब कोई आसक्ति ही न रही, तो अब चेष्टा भी क्या? आसक्ति | __कृष्ण कहते हैं, आसक्तिरहित और यत्नशील। आसक्ति तो 5/ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* करना मत कुछ, लेकिन यत्न मत छोड़ देना । यत्न जारी रखना । निश्चित ही, अब यत्न तभी जारी रह सकता है, जब यत्न ही आनंद हो जाए। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास किसलिए ? वे संन्यास की बात ही चूक गए; बात ही खतम हो गई। संन्यास किसलिए! संसार किसलिए – सार्थक है। संन्यास किसलिए— सार्थक नहीं है यह प्रश्न। संन्यास संन्यास के लिए। और तो कोई अर्थ नहीं होता। अगर संन्यास ही आनंद है, तो ही संन्यासी हो सकते हैं। अगर आपने सोचा कि संन्यास इसलिए लेते हैं कि यह-यह मिलेगा, तो आप संन्यास को भी संसार की एक चीज बना रहे हैं। संन्यास अपने में ही आनंद है। प्रार्थना अपने में ही आनंद है। पूजा अपना ही फल है। यत्न जारी रखना, आसक्ति छोड़ देना, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसे महात्माजन उस ओंकार की अक्षर ध्वनि में प्रवेश करते हैं। तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं...। और यह वही परम पद है, जिसको चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। यह आखिरी सूत्र बहुत कीमती है। ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं जिसे चाहने वाले। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है, प्रभु जैसी चर्या । जिसे प्रभु को पाना हो, उसे प्रभु को पाने के पहले ही प्रभु जैसी चर्या शुरू कर देनी चाहिए। अन्यथा प्रभु सामने खड़ा होगा और हम उसके पात्र न होंगे। अन्यथा उसके द्वार पर भी पहुंच जाएंगे, तो द्वार की सांकल बजाने की हमारी हिम्मत न होगी। इसके पहले कि प्रभु-मिलन हो, हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए, जैसे कि वह मिल गया है। हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए, जैसे कि वह मिल गया है, जैसे कि वह घर में आकर बैठ गया है, जैसे कि वह मौजूद है। साथ चल रहा है; हृदय की धड़कन धड़कन में खड़ा है; पैर पैर में वही कंप रहा है। साधक को ऐसे जीना शुरू कर देना चाहिए कि परमात्मा साथ है, मिला हुआ है। तो उसकी चर्या धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस प्रभु के साथ होने के भाव से ब्रह्मचर्य बन जाती है, ब्रह्म जैसी बन जाती है । और जिस दिन चर्या ब्रह्म जैसी बन जाती है, उसी क्षण मिलन घटित हो जाता है। मुझसे लोग कहते हैं कि अभी तो मन बदला नहीं; यदि संन्यास ले लेंगे, तो क्या होगा? पहले मन पूरा बदल जाए, तो फिर हम संन्यास ले लेंगे। संन्यास की चर्या भी शुरू करने से संन्यास के आने का द्वार खुलता है। प्रार्थना के लिए होंठ हिलाने से भी परम नाद की तरफ का मार्ग खुलता है। मंदिर की तरफ चलने का खयाल भी भीतर के मंदिर के द्वार को खोलने के लिए कारण बन जाता है। चर्या शुरू करें। ऐसे जीना शुरू कर दें कि परमात्मा है। और एक दिन आप पाएंगे कि जिसे चर्या में शुरू किया था, वह अनुभूति में आ गया है। आज इतना ही । लेकिन पांच मिनट अभी कोई उठेगा नहीं। और आज कीर्तन सब बैठकर ही करने वाले हैं, इसलिए आपको उठकर देखने की | जरूरत न रहेगी। आप भी बैठकर सम्मिलित हों। एक धारा बहती है आनंद की, यहां मौजूद ही है; और गंगा किनारे से बहती हो, तो पागल न बनें, एक डुबकी आप भी लें । इतने लोग इकट्ठे हैं, अगर इतने लोग कीर्तन को पूरे भाव से करें, तो न मालूम कितनी शुद्ध किरणें चारों तरफ व्याप्त हो जाती हैं और | न मालूम कितने लोगों के लिए लाभ की हो सकती हैं । एक वर्षा ओंकार की हो सकती है अभी और यहीं । हम सारे लोग भाव से सम्मिलित हों। तालियां बजाएं। कीर्तन बोलें। बैठकर ही आनंदित हों । डोलें बैठकर ही । यह बैठकर ही कीर्तन होगा। 58 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 पांचवां प्रवचन योगयुक्त मरण के Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हदि निरुध्य च। | कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को मून्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।। १२ ।। | रोककर अर्थात इंद्रियों के संयम को उपलब्ध हो, जो भाव को, मन ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । | को, हृदय में स्थित करे और प्राण को मस्तक में, वह परम गति को यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। १३ ।। उपलब्ध होता है। ___ अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । इंद्रियों को अवरुद्ध करके, इंद्रियों के संयम से क्या अर्थ है ? तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः । । १४ ।। इंद्रियों को अवरुद्ध दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इंद्रियों को जबरदस्ती विषयों से इंद्रियों को हटाकर-झटके से, दमन से। विषयों से हटाकर तथा मन को उद्देश्य में स्थिर करके और | कोई चीज सुंदर लगती है आपको; मन खिंचता है, आकर्षित होता अपने प्राण को मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में | | है, दौड़ता है, चंचल होता है। एक उपाय तो यह है कि आंखें फोड़ स्थिर हुआ, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को | | लें, या आंखें हटा लें, या भाग खड़े हों उस जगह से। विषय से उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को चिंतन | भाग खड़े हों। जो आकर्षित करता है, उससे दूर हट जाएं। करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति | लेकिन जो आकर्षित करता है, वह गौण है; जो आकर्षित होता को प्राप्त होता है। | है, वही प्रमुख है। इसलिए जो आकर्षण के विषय से भाग जाएगा, और हे अर्जुन, जो पुरुष मेरे में अनन्य चित्त से स्थित हुआ | वह विषय से तो भाग जाएगा-वह गौण बात थी, निमित्त मात्र सदा ही निरंतर मेरे को स्मरण करता है, उस निरंतर मेरे में | था लेकिन जो आकर्षित हो रहा था, उससे कैसे भागेगा? वह युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूं। तो उसके साथ ही चला जाएगा। धन मुझे खींचता हो, धन मुझे दिखाई पड़ता हो और मेरे प्राण उस धन को उपलब्ध करने के लिए आतुर होते हों, तो धन से भाग नुष्य की चेतना दो प्रकार की यात्रा कर सकती है। एक | | जाना बहुत कठिन नहीं है। भागने के लिए बहुत बहादुरी की भी 1 तो अपने से दूर, इंद्रियों के मार्ग से होकर, बाहर की | जरूरत नहीं है। अक्सर तो कायर ही भागने में बहुत कुशल होते . ओर। और एक अपने पास, अपने भीतर की ओर, | हैं। भागा जा सकता है। लेकिन भागकर भी, वह जो मेरे भीतर प्राण इंद्रियों के द्वार को अवरुद्ध करके। इंद्रियां द्वार हैं। दोनों ओर खलते आतर होते थे धन को पाने के लिए वे मेरे साथ ही चले जाएंगे। हैं ये द्वार। जैसे आपके घर के द्वार खुलते हैं। चाहें तो उसी द्वार से ___ इस जगत में स्वयं से भागने का कोई भी उपाय नहीं है। हम बाहर जा सकते हैं, लेकिन तब द्वार खोलना पड़ता है। और चाहें तो | सबसे भाग सकते हैं, अपने को छोड़कर। हम सारे संसार को छोड़ उसी द्वार से भीतर आ सकते हैं, तब द्वार भीतर की ओर खोलना | सकते हैं, लेकिन अपने को नहीं छोड़ सकते हैं। वह हमारे साथ ही पड़ता है। एक ही द्वार बाहर ले जाता है, वही द्वार भीतर ले आता है। | होगा-जंगल में, पहाड़ में, कंदरा में, हिमालय पर। मैं कहीं भी इंद्रियां द्वार हैं चेतना के लिए, बहिर्गमन के या अंतर्गमन के। | | चला जाऊं, मैं तो अपने साथ ही रहूंगा। हां, विषयों से भाग सकता लेकिन हम जन्मों-जन्मों तक बाहर की यात्रा करते-करते यह हूं, लेकिन वृत्तियां ? वृत्तियां मेरे भीतर ही रहेंगी। भूल ही जाते हैं कि इन्हीं द्वारों से भीतर भी आया जा सकता है।। __ और एक धोखा भी हो सकता है। जब विषय नहीं होते, तो स्मरण ही नहीं रहता है कि जिस द्वार से हम घर के बाहर गए हैं, । | वृत्तियों को गतिमान होने का मौका नहीं मिलता। तो मैं इस भ्रांति में वही भीतर लाने वाला भी बन सकता है। भी पड़ सकता हूं कि चूंकि अब मेरी वृत्ति गतिमान होती नहीं मालूम यह भूल विचार की निरंतर होती है। यह हमें खयाल नहीं रहता । | पड़ती, इसलिए समाप्त हो गई है। लेकिन इस भ्रांति में पड़ने की कि जिन-मार्गों से हम नीचे गिरते हैं, वे ही मार्ग हमारे ऊपर उठने | | कोई भी जरूरत नहीं है। जैसे ही विषय फिर दिखाई पड़ेगा, वृत्ति के मार्ग भी बन जाते हैं। और जिन सीढ़ियों से कोई नर्क में उतरता पुनः सक्रिय हो जाएगी। है, उन्हीं सीढ़ियों से स्वर्ग में भी चढ़ा जाता है। सीढ़ियां अलग नहीं | यह वृत्ति का निष्क्रिय हो जाना वैसे ही है, जैसे बारूद रखी हो होती, केवल चलने की दिशा अलग होती है। और अंगारा पड़े और विस्फोट हो जाए। लेकिन अंगारा न पड़े 60 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * बरसों तक, तो बारूद भी सोच सकती है कि अब मैं बहुत शांत हो | आप अवरुद्ध हो जाती हैं। क्योंकि वत्ति के ऊपर ही चढ़कर चेतना गई हूं। क्योंकि अब कोई विस्फोट नहीं होता। और बारूद अगर | इंद्रियों के द्वार से निकलती है। वृत्ति के घोड़ों पर बैठकर ही चेतना यह सोचे कि यह अंगारे के कारण विस्फोट होता है, इसलिए मैं | | इंद्रियों के बाहर निकलती है और अनंत की बाह्य यात्रा पर भटकती अंगारे से बचती रहूं तो शांत बनी रहूंगी, तो भी भ्रांति है। क्योंकि है। वृत्ति के घोड़े ही अगर क्षीण हो जाएं, तो फिर इंद्रियां भागती अंगारा विस्फोट नहीं करता; अंगारा केवल विस्फोट के लिए नहीं, अवरुद्ध हो जाती हैं; उनके द्वार बंद हो जाते हैं। निमित्त बनता है। विस्फोट तो बारूद में ही होता है। ठीक समझें, तो इंद्रियों के द्वार बहुत आटोमैटिक हैं, बहुत वह हमारे भीतर वृत्तियों की बारूद मौजूद रहे, तो हम अंगारों से | | स्वचालित हैं। जब तक चेतना भीतर से धक्का देती है उन्हें बाहर कितने ही भागते रहें, कोई बचाव नहीं है। और जन्मों-जन्मों में | की तरफ, तभी तक वे खुले रहते हैं। और जब भीतर की चेतना वापस पुनः-पुनः वृत्तियां हमें उपलब्ध हो जाएंगी। धक्का नहीं देती बाहर की तरफ, वे द्वार अपने से बंद हो जाते हैं। जब कृष्ण कहते हैं कि सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर, तो पहली ऐसा समझें, आंख प्रतीक है, आंख से समझें तो सारी इंद्रियों का बात ठीक से समझ लें, इस तरह के निरोध के लिए कृष्ण नहीं कहते | खयाल आ जाए। और आंख सूक्ष्मतम और सबसे ज्यादा नाजुक, हैं। कृष्ण का जीवन भी नहीं कहता कि इस तरह का निरोध उन्होंने | | डेलिकेट, बारीक इंद्रिय है। और जो आंख पर होता है, वही सब किया होगा। फिर भी कृष्ण के साथ भी भूल हो जाती है। | इंद्रियों पर होता है। • बुद्ध के वक्तव्य में कोई खोज सकता है यह अर्थ, क्योंकि वे | जब तक आपके भीतर चेतना जागना चाहती है, तब तक पलकें छोड़कर गए हैं। महावीर के व्यक्तित्व में खोज सकता है कोई यह | खुली रहती हैं। और जब चेतना सोना चाहती है, पलकें झप जाती अर्थ, क्योंकि वे भी छोड़कर गए हैं। लेकिन कृष्ण के साथ तक हैं और बंद हो जाती हैं। चेतना का धक्का ही पलकों को खोले भ्रांति होती है और गलत अर्थ होते हैं। जब कि कृष्ण कुछ भी | | रखता है। इसलिए कितनी ही गहरी नींद आ रही हो, आपको लगता छोड़कर नहीं गए। निश्चित ही, कृष्ण का यह अर्थ नहीं हो सकता | हो कि अब क्षणभर नहीं जाग सकूँगा, उसी वक्त कोई खबर दे कि कि आब्जेक्ट से, विषयों से भाग जाओ। उनका अर्थ दूसरा है। वह घर में आग लग गई है, नींद नदारद हो जाती है। नींद का पता ही दूसरा अर्थ बहुत भिन्न है और बहुत क्रांतिकारी है। नहीं चलता; आप रातभर जाग सकते हैं। क्या हो गया? चेतना ने एक तो उपाय है कि मैं विषय से भाग जाऊं, अंगार से भाग वापस जागने का निर्णय लिया; पलकें खुल गईं। जाऊं, बारूद को बचाए हुए। दूसरा उपाय है कि बारूद को छोड़ करीब-करीब सभी इंद्रियां इसी तरह हैं। आंख पर तो पलकें हैं, दूं और अंगारों से खेलता रहूं। कृष्ण तो अंगारों से खेलने के लिए कान पर तो कोई पर्दे नहीं हैं बंद करने के। लेकिन विद्यार्थी कक्षा में संदेश दे रहे हैं अर्जुन को। वे कहते हैं, युद्ध कर, भाग मत। बैठा है और बाहर एक पक्षी गीत गा रहा है। पक्षी का गीत सुनाई __ और ध्यान रहे, जो युद्ध बाहर है, वह तो बहुत छोटा है। एक पड़ने लगता है, शिक्षक की आवाज बंद हो जाती है। शिक्षक ज्यादा और अंतयुद्ध है भीतर, जो सतत चल रहा है चेतना का विषयों के | करीब है, ज्यादा जोर से बोल रहा है। पक्षी बहुत दूर है, किसी साथ, कि विषयों के प्रति आकर्षित हों या न हों। कृष्ण उस युद्ध से | | अमराई में छिपा होगा; बहुत धीमी सी गूंजती उसकी आवाज आती भी भागने की सलाह नहीं दे सकते। भागना उनकी भाषा नहीं है। | है। लेकिन उस विद्यार्थी को आवाज सुनाई पड़ने लगी पक्षी की, एस्केपिज्म, पलायन उनके सोचने का ढंग नहीं है। कृष्ण का ढंग | शिक्षक का बोलना खो गया। बात क्या हो गई? तो सोचने का है, युद्ध की सघनता में खड़े होकर जीवन के चेतना जिस तरफ उन्मुख होती है, उस तरफ द्वार खुल जाते हैं; रूपांतरण का। | और जिस तरफ उन्मुख नहीं होती है, उस तरफ द्वार बंद हो जाते हैं। कृष्ण का अर्थ दूसरा ही हो सकता है। वह यह है, विषयों से | | काम के भी सूक्ष्म द्वार हैं, जो बंद होते और खलते हैं। चित्त में भागने की कोई भी जरूरत नहीं। और भागकर भी कोई भाग नहीं | | कामवासना भर जाती है, तो कामवासना का द्वार खुल जाता है। सकता। और जहां भी हम जाएंगे, वहीं विषय मौजूद हो जाएंगे। चेतना धक्के देती है, तो कामवासना का जो केंद्र है, उसका द्वार संसार जहां भी है, वहां विषय उपलब्ध हैं। वृत्ति को विसर्जित करना | खुल जाता है और काम ऊर्जा बाहर प्रवाहित होने लगती है। चेतना ही इंद्रियों का संयम है। और वृत्ति विसर्जित हो, तो इंद्रियां अपने | धक्के नहीं देती, तो काम ऊर्जा का द्वार बंद है। और कोई उपाय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* नहीं है कि वह बाहर प्रवाहित हो जाए। | शक्तिशाली होता चला जाएगा। रुके होने की वजह से शक्ति हमारे शरीर की सभी इंद्रियों के द्वार स्वचालित हैं। जब चेतना | बढ़ेगी, रोकने की वजह से शक्ति कम होगी । आज नहीं कल, भीतर से धक्का देती है, तो द्वार खुल जाते हैं। और जब चेतना धक्का देकर चेतना फिर इंद्रिय के द्वार को खोल देगी। और जो हम भीतर से धक्का नहीं देती, तो द्वार अपने आप बंद हो जाते हैं। करना चाहते हैं, उसके लिए तर्क खोज लेते हैं। जब कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के द्वारों को रोककर, तो वे ऐसा नहीं | सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन मक्का की यात्रा पर गया। वहां कहते हैं कि जबरदस्ती अपनी आंखों को बंद करके बैठ जाओ। उसने कसम ले ली; भाव में आ गया। कसम ले ली कि मछलियां क्योंकि जो जबरदस्ती अपनी आंखों को बंद करके बैठेगा, जिसके | खाना छोड़ देता हूं। कसम लेने का, मछलियां छोड़ने का असली खिलाफ उसने आंखें बंद की हैं, वह बंद आंखों में भी मौजूद हो| कारण यह नहीं था कि मछलियां छोड़ने से मुल्ला को लगता हो कि जाता है। उससे बचा नहीं जा सकता। | कोई बहुत बड़ा स्वर्ग मिल जाएगा। असली कारण यह था कि जबरदस्ती कान बंद कर लो, कुछ न सुनना हो, तो वह अनसुना | उसके गुरु ने कहा, कुछ तो छोड़ो! तो मछलियां मुल्ला को भी भीतर गूंजता है, बंद नहीं होता। जबरदस्ती कामवासना को रोक | बिलकुल पसंद नहीं थी, इसलिए उसने मछलियां छोड़ दीं। लो, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। काम ऊर्जा स्खलित होती ही चली लेकिन छोड़ने की रात ही मुल्ला हैरान हुआ कि मछलियों का जाती है। | स्वप्न आया। कभी नहीं आया था। और घर लौटते-लौटते जबरदस्ती कोई भी उपाय नहीं। क्योंकि जबरदस्ती एक बात की | तीर्थयात्रा से, बस एक ही बात याद रह गई कि मछलियां छूट गईं। खबर देती है कि भीतर से चेतना बाहर जाना चाहती है और उसी और एक ही बात गूंजने लगी मन में कि बड़ी गलती की। इतनी चेतना का एक हिस्सा उसे जबरदस्ती भीतर रोकना चाहता है। तो जल्दी क्या थी? ऐसा बातों में पड़ जाने का प्रयोजन क्या था? और अगर रोकने वाला हिस्सा सबल हुआ, तो दरवाजे पर थोड़ी देर | घर आते-आते एक ही वासना मन में सघन हो गई, मछलियां खाने कशमकश होती रहती है दरवाजे के पीछे, बाहर जाने वाला धक्का की, जो कि मन में कभी भी न थी। देना चाहता है, रोकने वाला खींचता है। अगर सबल हुआ रोकने | | कई बार ऐसा होता है। अगर किसी चीज में रस पैदा करना हो, वाला, तो थोड़ी देर तक यह कशमकश होती है। लेकिन एक बड़े तो छोड़ने की कसम खा लें, तो रस पैदा होना शुरू हो जाता है। मजे का नियम है कि जो रोकता है, वह थोड़ी देर में कमजोर हो जाता | क्योंकि जिसे हम छोड़ते हैं, उसके प्रति वासना पैदा होती है। पैदा है। जो हिस्सा रोकता है, उसकी ताकत रोकने में व्यय हो जाती है। | इसलिए होती है कि छोड़ने से लगता है कि अब कभी भी भोग न इसलिए आदमी आज कसम खाता है ब्रह्मचर्य की और कल सकेंगे। अब कभी भी भोग न सकेंगे। तो मन के किसी भी कोने में पाता है कि मुश्किल है। वह हैरान होता है कि जब कसम खाई थी, भोग की जरा-सी भी वृत्ति पड़ी हो, वह कहती है कि यह तो बड़ी तो बिलकुल सुलभ मालूम पड़ती थी, सरल मालूम पड़ती थी बात। गलती कर ली, एक बार तो भोग लेते! अगर भोग सकेंगे, तो वह कसम खाई ही इसलिए थी। चौबीस घंटे बाद क्या हो जाता है? | | वृत्ति विश्राम करती है, प्रतीक्षा करती है, कभी भी भोग लेंगे, कभी जिस मन के हिस्से ने कसम खाई थी, वह लड़ने में लग जाता है| भी भोग लेंगे। उस मन से, जो जाना चाहता था। ___घर आते ही मुल्ला बेचैन हुआ। पत्नी को भी उसके गुरु ने बता और ध्यान रहे, कसम जब भी कोई खाता है, तो पक्का मान दिया है आकर कि मुल्ला मछलियां छोड़ दिया है, उसे मछलियां लेना, उसके भीतर दूसरा हिस्सा भी मौजूद होगा। नहीं तो कसम मत देना। पत्नी का भी मन हुआ—जैसा कि सभी पत्नियों का होता किसके खिलाफ खाई जाएगी? जब मैं कहता हूं कि कसम लेता हूं । है-कि पति की परीक्षा ले लें। दूसरे दिन ही उसने मछलियों का कि अब झूठ नहीं बोलूंगा, वह मैं किसके खिलाफ कसम खा रहा | | शोरबा बना डाला। मुल्ला को बास आने लगी। वह बड़ी मुश्किल हूं! अपने ही उस मन के हिस्से के खिलाफ, जिसके बाबत मुझे में पड़ गया। पक्का पता है कि वह मुझे झूठ बोलने को मजबूर कर सकता है। आखिर जब खाने पर बैठा, सब चीजें दी गईं, शोरबा नहीं दिया लेकिन जिस हिस्से से मैं रोडूंगा, वह रोकने में उसकी ताकत गया। मुल्ला ने कहा कि मछली का शोरबा बना है, ऐसी सुगंध घर व्यय हो जाएगी; और जो हिस्सा रुका है, वह रोज-रोज में आती है। थोड़ा-सा दो। उसकी पत्नी ने कहा, लेकिन मैंने सुना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * है कि आप मछलियां छोड़कर आए हैं! मुल्ला ने कहा, मछलियां सौंदर्य की तरफ बह रही है। लड़ने की जरूरत नहीं है, गाली देने छोड़ी हैं, मछलियों का शोरबा नहीं। की जरूरत नहीं है, कि यह पाप है सौंदर्य को देखना। बिलकुल पाप बात ठीक ही थी। पत्नी झिझकी तो, लेकिन शोरबा छोड़ा ही नहीं नहीं है। था। तो पत्नी ने बर्तन उठाया और मुल्ला की थाली में शोरबा डालने सौंदर्य की प्रतीति में जरा भी पाप नहीं है। सौंदर्य के अनुभव में लगी। तो मछलियों के कतरे न चले जाएं, तो उसने हाथ की आड़ | जरा भी पाप नहीं है। सुंदर को जानकर अगर आदमी की चेतना लगा दी। मुल्ला ने कहा कि हाथ की आड़ क्यों लगा दी? मछलियां स्वयं में थिर हो, तो परमात्मा का ही स्मरण होगा, पाप का कोई छोड़ी हैं, लेकिन खुद जो आती हों, उन्हें रोकने का कहां नियम | स्मरण नहीं हो सकता है। कोई कंडेमनेशन, कोई निषेध, कोई निंदा लिया है। अपने आप जो आने को उत्सुक हों, उनको आने दो। नहीं। सिर्फ इतना कि मैं उसे जानूं जो आकर्षित हुआ है, क्योंकि . फिर आदमी तर्क खोजता है। उसी के लिए तर्क खोजता है, | वही मैं हूं। और मैं उसे जानूं जो चेतना आकर्षित होकर बह रही है। जिसके खिलाफ तर्क खोज लिए थे। नहीं, कोई भी इस भांति जीवन | __ और जैसे ही आप अपने ध्यान को स्वयं पर और अपनी बहती के रूपांतरण को नहीं पाता। और इंद्रियों के द्वार इस तरह कभी बंद | | हुई चेतना पर ले जाएंगे, आप अचानक पाएंगे कि इंद्रिय का द्वार नहीं होते। इंद्रियां बल्कि इस तरह और सतेज हो जाती हैं, उनकी | | बंद हो गया है। क्योंकि ध्यान भीतर जाए, तो चेतना भीतर की तरफ जंग भी झड़ जाती है। प्रवाहित होने लगती है, बाहर की तरफ नहीं। जहां ध्यान, वहां - कृष्ण का जो अर्थ हो सकता है, जो अर्थ है, जो सदा ही जानने चेतना बहती है। जैसे जहां गड्ढा, वहां पानी बहता है। गड्ढा खोद दें वालों का अर्थ रहा है, वह यह है कि जो वृत्ति भीतर से धक्का देती और पानी बह जाएगा। है, उस वृत्ति का विसर्जन हो। अब कुछ पागल हैं जो पानी को रोकने की कोशिश करते हैं। • कैसे हो? छोड़ने से नहीं होता, भोगने से नहीं होता। भोगने से पानी को रोकने से कुछ न होगा। कितना ही रोकिए, पानी गड्ढे की बढ़ता है, पुनरुक्ति से आदत मजबूत होती है। छोड़ने से निषेध का | तरफ ही बहेगा। और अगर बांध बनाया, तो जो झरना था, वह आकर्षण मिलता है, और निषेध से रस जगता है। न भोगने से महासागर हो जाएगा। और आज नहीं कल, अगर झरने को ही मिटता, न छोड़ने से मिटता। वह कैसे मिटे वृत्ति का रस? कैसे बहने देते तो बहुत खतरे होने वाले नहीं थे, लेकिन किसी दिन यह इंद्रिय...वह संयम कैसे उपलब्ध हो? झरना जब बांध बनकर महासागर बन जाएगा और बांध को तोड़कर उस संयम का एक ही उपाय रहा है सदा से, और वह है, जब बहेगा, तो महाविनाश होगा। भी कोई विषय आकर्षित करे, तो ध्यान विषय पर न रखकर वृत्ति चित्त के साथ यही हो रहा है। इसलिए आप जानकर हैरान होंगे, पर रखना। जब भी कोई विषय आकर्षित करे! राह से गुजर रहे हैं | जो लोग रोज छोटा-मोटा क्रोध कर लेते हैं, वे लोग कभी हत्या नहीं आप, एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़ता है, एक सुंदर देह दिखाई पड़ती करते। इसलिए अगर आपके घर में कोई ऐसा आदमी हो, जो क्रोधी है, स्त्री की, पुरुष की। दौड़ता है मन। उस समय आपका ध्यान उस | तो हो, लेकिन क्रोध न करता हो, तो उससे सावधान रहना। क्योंकि शरीर पर होता है, जो आपको आकर्षित कर रहा है। उस वृत्ति पर । | वह किसी दिन जब भी करेगा, तो हत्या से कम में निपटारा नहीं है! नहीं होता, जो दौड़ी जा रही है। और उस चेतना पर भी नहीं होता, | बांध बन जाएगा। जो आदमी रोज नाराज हो लेता है, वह रोज प्रसन्न जो आकर्षित हो रही है। भी हो जाता है। इसलिए बच्चे अभी नाराज हो रहे हैं, अभी मुस्कुरा और जहां ध्यान होता है, चेतना उसी तरफ दौड़ती है, यह नियम रहे हैं। क्योंकि बांध बिलकुल नहीं है। कोई बांध नहीं है। है। जहां ध्यान होता है, चेतना उसी तरफ दौड़ती है। जहां ध्यान, हम कितना ही क्रोध कर लेते हों, फिर भी बांध बांधकर चलना वहीं चेतना के लिए निशाना बन जाता है, और चेतना का तीर उसी ही पड़ता है। दफ्तर में मालिक है, नाराज नहीं हो सकते। समय है, तरफ चलने लगता है। परिस्थिति है, नाराज नहीं हो सकते। रोक लेना पड़ता है। वह बांध ध्यान को, जब कोई सुंदर व्यक्ति दिखाई पड़े, तो ध्यान को सुंदर | बन जाता है। फिर वह बांध टूटता है। और तब जोर से क्रोध व्यक्ति पर मत केंद्रित करें, तत्काल अपने पर केंद्रित करें; और देखें | निकलता है। कि मैं सौंदर्य से आकर्षित हुआ हूं और मेरी चेतना वृत्ति बनकर इसलिए हमारा क्रोध अक्सर ही अनजस्टीफाइड होता है। 63 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* क्योंकि जिस पर निकलता है, अकेला वही उसका कारण नहीं होता। | वापस भीतर लौट आए ध्यान के साथ, तो वही ब्रह्मचर्य बन जाती और पच्चीस लोगों का क्रोध भी उसमें जुड़ा होता है, जो उन पर | है। और जिसने कामवासना जानी, उसने फ्रस्ट्रेशन के अतिरिक्त, नहीं निकल पाया और इस पर निकलता है। इसलिए जिस पर विषाद के अतिरिक्त कभी कुछ नहीं जाना। और जिसने कामवासना निकलता है, वह सदा सोचता है कि इतनी छोटी-सी बात और का अपने पर लौटाना जाना, उसने वह जाना है जिसे ज्ञानी ब्रह्मचर्य इतना क्रोध! जस्टीफाइड नहीं मालूम पड़ता उसे। हमें भी मालूम कहते रहे हैं। अपूर्व है उसकी शांति, अपूर्व है उसकी शक्ति, अपूर्व नहीं पड़ेगा पीछे सोचने पर। इतनी-सी बात थी, इतने क्रोध की क्या | | है उसका आनंद। उसके आनंद को मापने का कोई उपाय नहीं है। जरूरत थी! लेकिन बहुत-सा क्रोध जो इकट्ठा था बांध बांधकर, लेकिन लौटती हुई ऊर्जा में गुणात्मक अंतर होता है। ऊर्जा की वह समय की तलाश में था कि जब भी गड्डा मिल जाएगा, बांध को | | दिशा सब कुछ है। क्योंकि जब ऊर्जा मुझ से बाहर जाती है, तो मुझे तोड़ देंगे और मुक्त हो जाएंगे। गरीब कर जाती है। मेरी ही ऊर्जा जब मुझ से बाहर जाती है, माई छोटे-छोटे पापी बड़े पाप कभी नहीं कर पाते। और बड़े पापी | | ओन एनर्जी, जब भी बाहर जाती है, तो मुझे दरिद्र कर जाती है। मैं अक्सर वे ही लोग होते हैं, जो छोटे-छोटे पाप करने से अपने को दीन हो जाता हूं। वह चुक जाती है, और मैं उतना गरीब हो जाता हूं। बचाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे पाप करने के अभ्यास जब मेरी ऊर्जा इंद्रियों के द्वार के पास आकर, वापस लौटकर वर्तुल से कोई बड़ा पापी होता है, खयाल रखना। छोटे-छोटे पाप करने बना लेती है, सर्किल पूरा कर लेती है, मुझ पर वापस लौट आती है, वाला कभी बड़ा पापी नहीं हो पाता। बड़ा पापी होने की आकांक्षा तो मैं अनंत गुना धनी हो जाता हूं। और जो अपनी ही ऊर्जा का वर्तुल हो, तो छोटे-छोटे पाप करना बंद कर दें। फिर एक दिन अपने आप बना लेता है, वही व्यक्ति संयम को उपलब्ध होता है। . विस्फोट हो जाएगा। और बड़ा पाप घटित हो जाएगा। संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बन गया वर्तुल। खुद की चेतना भी ध्यान की तरफ इसी तरह बहती है, जैसे गड्ढे की तरफ ऊर्जा एक वर्तुल में घूमने लगी, एक सर्किल में। अब बाहर जाने पानी बहता है। एक नेचुरल, एक निसर्ग का नियम है कि चेतना | का कोई उपाय न रहा। अब ऊर्जा कहीं भी डिसीपेट, कहीं भी बिखर ध्यान की तरफ बहती है। जहां ध्यान, वहीं चेतना का तीर सरकने नहीं सकती। अब ऊर्जा जितनी भी बढ़ती जाएगी, भीतर होती लगता है। अगर आप, कोई गाली दे, उस वक्त गाली देने वाले पर | जाएगी। और जैसे-जैसे यह वर्तुल बनता है, वैसे-वैसे ऊर्जा ऊपर । ध्यान न रखें, गाली सुनने वाले पर ध्यान रखें। आप अचानक | उठनी शुरू हो जाती है। और धीरे-धीरे जैसे हम मंदिर के ऊपर पाएंगे, इंद्रिय का द्वार बंद हो गया और चेतना वापस भीतर लौट || शिखर बनाते हैं वे इसी के प्रतीक में बनाए गए शिखर हैं। छोटा गई। जब कोई आपको चांटा मारे, तो चांटा मारने वाले के हाथ पर | | होता जाता है मंदिर का बुर्ज, ऊपर जाकर स्वर्ण-शिखर लग जाता रखें। चांटा जिसे मारा गया है, उस पर ध्यान रखें। और है। छोटा होता जाता है। जैसे-जैसे ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती है, आप अचानक पाएंगे कि वह आदमी भी खो गया, जिसने चांटा वैसे-वैसे वर्तुल छोटा होता जाता है, सघन होता जाता है, कंडेंस्ड मारा था, वह बाहर जाता क्रोध भी विलीन हो गया। और चेतना होता जाता है। और एक क्षण आता है, जब ऊर्जा स्वर्ण-शिखर बन अपने भीतर लौट गई। जाती है। फिर ऊर्जा ऊपर की तरफ ऊर्ध्वगति को उपलब्ध होती है। और एक बार अगर आपको यह अनुभव हो जाए कि जो ऊर्जा, संयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का बनाया गया वर्तुल। जो शक्ति क्रोध बनकर बाहर जा रही थी, वह बाहर नहीं गई, बल्कि असंयम का अर्थ है, स्वयं की ऊर्जा का टूटा हुआ वर्तुल। उस टूटी गई. तो आप हैरान हो जाएंगे। बाहर जाती हई जगह से ही लीकेज है। जहां वर्तल टटता है. वहीं से लीकेज है. क्रोध की ऊर्जा पीड़ा में ले जाती है, वही ऊर्जा जब भीतर की तरफ | वहीं से शक्ति बिखर जाती है और खो जाती है। जैसे शार्ट सर्किट लौटती है, तो क्वालिटेटिवली बदल जाती है, उसका गुणधर्म बदल | हो जाए बिजली का, वहां से ऊर्जा बिखरने लगती है। और हमारी जाता है; वही क्षमा बन जाती है। सारी इंद्रियों के द्वार से हम सिर्फ ऊर्जा को बिखेरते हैं, खोते हैं। और जिसने क्षमा जानी, उसके आनंद का कोई हिसाब नहीं। | कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए संयम का अर्थ है, इस ऊर्जा का स्वयं और जिसने क्रोध जाना, उसके पश्चात्ताप का कोई अंत नहीं। । | में ही रमण करना, स्वयं में ही थिर हो जाना। अगर कामवासना मन को पकड़ती हो और बाहर न जाकर | | तो इस सीक्रेट को, इस राज को, इस गुर को समझ लें। जब भी 64 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * कोई विषय आकर्षित करे, तब ध्यान विषय पर न दें, तत्काल स्वयं है। उसके घटने का कारण है। क्योंकि उनकी पूरी की पूरी सेक्स पर दें और स्वयं की चेतना पर दें। उसी क्षण एक क्रांति मालूम | | सेंटर की जो संभावना थी, वह हटकर मस्तिष्क में केंद्रित हो गई पड़ेगी। भीतर कोई चीज जा रही थी बाहर; लौट पड़ी; टर्न है। तो जब वे सोचते हैं, तब वे बड़े शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। अबाउट; बिना कुछ किए। अपने भीतर अनुभव होगा, कोई शक्ति लेकिन जब शक्ति को प्रकट करने का अवसर हो, तब वे एक दम बाहर जाती थी, वापस लौट गई। और वापस लौटकर जब वह | शक्तिहीन हो जाते हैं। स्वयं पर आती है, तो अपूर्व-अपूर्व साक्षात्कार होता है अपनी ही | हमारे सारे चक्रों के जो-जो विभाजन हैं, वे सबके सब ऊर्जा का। कनफ्यूज्ड हैं, एक-दूसरे में प्रवेश कर गए हैं। कोई किसी की इस संयम को जो उपलब्ध है; और भाव को, मन को जिसने | | सुनता नहीं मालूम पड़ता। और कोई चक्र किसी का काम करता है, हृदय में स्थिर कर लिया है। और ऐसी ऊर्जा होगी, तो भाव अपने | | कोई चक्र किसी का काम करता है। सब उधार हो गया है। तो हम आप हृदय में स्थिर हो जाता है। और प्राण जिसका मस्तिष्क में ठहर | मस्तिष्क से भावना तक करने पर उतर जाते हैं। मस्तिष्क भावना गया है। नहीं कर सकता है। हृदय विचार नहीं कर सकता है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें। जो जिस चक्र का काम है, अगर उस पर ही पहुंच जाए, तो भाव का अर्थ है, फीलिंग, संवेदना। वह जो हमारे भीतर व्यक्तित्व एकदम संतुलित हो जाता है। और जब ऊर्जा संयम को अनुभव करने की क्षमता है, वह। वह हृदय-क्षेत्र में स्थिर हो जाती उपलब्ध होती है, तो प्रत्येक चक्र सिर्फ अपने ही काम को करता है। है. जब कोई संयम को उपलब्ध होता है। क्यों ऐसा होता है? । अभी पश्चिम में एक बहत बड़ा साधक, महायोगी था, जार्ज हमारे शरीर के भीतर प्रत्येक अनुभूति, प्रत्येक अनुभव के लिए गुरजिएफ। तो वह कहता था, अगर तुम इतना ही कर लो कि अलग-अलग केंद्र हैं, सेंटर्स हैं, चक्र हैं। और जब भी किसी चक्र तुम्हारा प्रत्येक चाशुद्ध हो जाए, कि कामवासना का चक्र केवल की ऊर्जा किन्हीं दूसरे चक्रों में प्रवेश कर जाती है, तो हम | | कामवासना का ही काम करे, तो भी तुम महाजीवन को उपलब्ध करीब-करीब पागल की तरह जीते हैं। और अभी हमारी हालत | हो जाओगे। ऐसी ही है। और अभी हमारी हालत ऐसी ही है। लेकिन हमारे भीतर सब कनफ्यूज्ड है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे एक आदमी मुंह से भोजन करे, समझ में आता है। दांतों से जैसी किसी एक ऐसी मिलिटरी की टुकड़ी की, जिसमें पहरेदार चबाएं; गले से गटके; पेट से पचाए–समझ में आता है। लेकिन सेनापति बनकर बैठ गया हो; जिसमें सेनापति पहरेदार के पैरों के वह आदमी बैठकर केवल खाने का विचार करे, तो खाने का जो भी पास बैठा हो; जिसमें जिनको आज्ञा देनी चाहिए, वे आज्ञा ले रहे यंत्र है, वह बिलकुल उपयोग में नहीं आएगा; और मस्तिष्क, जहां हों; जिनको आज्ञा लेनी चाहिए, वे आज्ञा दे रहे हों; और किसी को से खाना खाया नहीं जा सकता, वह खाने के काम में लग जाएगा। पता न हो कि कौन कौन है। सब विक्षिप्त हो जाए। ऐसी हमारे चित्त तो भोजन करना सेरिब्रल हो जाएगा, मस्तिष्कीय हो जाएगा। की, चेतना की, हमारे व्यक्तित्व की दशा है। मस्तिष्क भोजन कर नहीं सकता, लेकिन भोजन करने के भ्रम में पड़ | कृष्ण कहते हैं, जब कोई संयम को उपलब्ध हो और भाव सकता है। और भ्रम अगर भारी हो जाए, तो व्यक्तित्व का सब हृदय-देश में स्थित हो जाए, मन हृदय-देश में ठहर जाए और प्राण विखंडित हो जाता है। और ऐसे भ्रम में हम जीते हैं। मस्तक में...। __ कामवासना का केंद्र है। लेकिन लोग मस्तिष्क में कामवासना । ये दो बातें हैं। भाव, अनुभव करने की जो प्रतीति है; क्या कभी को धीरे-धीरे, सोच-सोचकर, सोच-सोचकर, कामवासना के केंद्र | | आपने खयाल किया है कि आप अनुभव कहां से करते हैं? से हटाकर मस्तिष्क में प्रवेश कर देते हैं। तो मनोचिकित्सकों के | | आकाश में पूर्णिमा का चांद है, आप उसके नीचे खड़े हैं। आंख पास ऐसे लोग आते हैं, जो कहते हैं, स्वप्न में तो मैं बहुत पोटेंट | उठाकर आकाश को देखते हैं, तो क्या आपका मस्तिष्क कहता है मालूम पड़ता हूं, बहुत वीर्यवान मालूम पड़ता हूं। जब विचार करता | कि बहुत सुंदर या आपके हृदय के पास कोई स्फुरणा होती है ? यह हूं, तो इतनी काम ऊर्जा मालूम होती है! लेकिन जब स्त्री के निकट आपको जांचना पड़े। पहुंचता हूं, तो एकदम इंपोटेंट, निर्वीर्य हो जाता हूं। वह रोज घटता और आप हमेशा पाएंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर, कि यह 65 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 मस्तिष्क ही है, जो कह रहा है, बहुत सुंदर। और यह भी इसलिए स्टेटमेंट था। नहीं कह रहा है कि इसे बहुत सुंदर का अनुभव हो रहा है। यह सिर्फ | निश्चित ही, जब आपको कोई चीज सुंदर मालूम पड़ेगी, बुद्धि इसलिए कह रहा है कि इसने बार-बार पूर्णिमा के दिन लोगों को ठहर जाएगी, हृदय अनुभव करेगा। हो सकता है, हृदय की धड़कन कहते सुना है कि बहुत सुंदर। किताबों में पढ़ा है, कविताओं में पढ़ा | | बढ़ जाए। हो सकता है, रक्तचाप तेजी से हो जाए। हो सकता है, है, फिल्मों में देखा है, नाटकों में सुना है-बहुत सुंदर। यह भी रोएं खड़े हो जाएं। लेकिन यह प्रतीति हृदय की होगी; यह बुद्धि की दोहरा रहा है। यह ग्रामोफोन रिकार्ड की तरह इसके मस्तिष्क में भर नहीं होगी। गया है। इसको दोहरा रहा है। अगर इसे अनुभव हो, तो मस्तिष्क लेकिन हमने हृदय से कुछ भी अनुभव करना बंद कर दिया है। में नहीं होगा, हृदय में होगा। और जब अनुभव होगा, तो शायद हम सब बुद्धि से ही अनुभव किए जा रहे हैं। और बुद्धि अनुभव आदमी शब्द भी न देना चाहे। ! करने में असमर्थ है। वह उसका काम नहीं है। सुना है मैंने, लाओत्से के साथ एक मित्र रोज घूमने जाता था | संयमी व्यक्ति का भाव हृदय में स्थापित हो जाता है। कैसे सुबह। मित्र का एक अतिथि भी साथ आ गया और दोनों लाओत्से होगा स्थापित? या तो संयम को उपलब्ध हों, तो हो जाए; या के साथ घूमने गए। मित्र तो जानता है लाओत्से को कि वह चुप ही अगर भाव को भी हृदय में स्थापित कर लें, तो भी संयम का मार्ग रहना पसंद करता है, वर्षों में कभी बोलता है। लेकिन परदेशी सुगम हो जाएगा। अतिथि को कुछ पता नहीं है। दोनों को चुप देखकर वह भी काफी तो जब भी अनुभव करें, खयाल रखकर करें कि हृदय से चुप रहा। फिर एक भूल हो गई। अनुभव कर रहे हैं। जब किसी से कहें कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तो सुबह जब सूरज निकला और वक्षों के ऊपर उठने लगा. और | यह पहले मत कहें; पहले हृदय के पास किसी सनसनी को दौड़ पक्षी गीत गाने लगे, और फूल खिल गए, और सुगंध भर गई उस जाने दें, कोई लहर। और जब लहर हृदय को पकड़ ले, तभी अगर वन-पथ पर, तो उसने कहा, कितनी सुंदर सुबह है! किसी ने उत्तर जरूरी लगे, तो कहें। और अगर दूसरा बिना कहे समझ सकता हो, न दिया। लाओत्से ने जरूर गौर से उसे देखा, फिर चल पड़ा। मित्र | तो चुप ही रहें; उसे समझने का मौका दें। थोड़ा घबड़ाया; उसने जरा संकोच से अपने अतिथि की तरफ अक्सर हम शब्दों से बताते नहीं, छिपाते हैं। अक्सर जब प्रेम . देखा; वह भी चल पड़ा। वह अतिथि थोड़ा हैरान हुआ कि किसी चुक जाता है, तब हम कहते हैं कि मैं बहुत प्रेम करता हूं। यह ने इतना भी न कहा कि हां, ठीक कहते हो, बड़ी सुंदर सुबह है! | केवल सब्स्टीटयूट है। जब प्रेम होता है, तो उसे कहने की जरूरत टकर लाओत्से ने अपने मित्र को कहा, कल से इस आदमी नहीं होती। आंखें कह देती हैं। पलकें कह देती हैं। चेहरे का भाव को मत लाना; बहुत बातूनी मालूम पड़ता है। दो घंटे में उसने इतना | कह देता है। हाथ का इशारा कह देता है। उठना-बैठना कह देता ही कहा था, बड़ी सुंदर सुबह है। उसके मित्र ने, लाओत्से के मित्र | | है। प्रेमी के पास आकर बैठना कह देता है कि मैं प्रेम करता हूं। ने कहा, ज्यादा बातूनी तो नहीं है ऐसा। एक ही बात कही है। लेकिन जब यह सब चुक जाता है, तब सिर्फ शब्द रह जाते हैं, लाओत्से ने कहा, लेकिन अगर उसे सुबह सुंदर लगी थी, तो | कोरे और खाली, चले हुए कारतूस जैसे, जिनके भीतर कोई खयाल भी न आता। अगर सुबह सुंदर लगी थी, तो वह बारूद-वारूद नहीं है। तब हम कहते हैं, में बहुत प्रेम करता हूँ! लीन हो गया होता। वह भूल ही गया होता कि सुबह है। वह खो | यह सिर्फ समझाना है। सिर्फ समझाना है। गया होता। उसे कुछ लगा-वगा नहीं है। सिर्फ आदत, आदतन, (मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि जब मैं बूढ़ी हो सुबह सुंदर है! और फिर हमको भी तो पता था, हम भी वहीं मौजूद जोऊगी, तब भी तुम मुल्ला मुझे प्रेम करोगे या नहीं? मुल्ला ने थे। उसने कहकर सिर्फ सौंदर्य को बाधा पहुंचाई। उस सन्नाटे में, कहा, बिलकुल करूंगा। जरूर करूंगा। तेरे पैरों की धूल सिर पर जहां पक्षियों के गीत थे, और जहां सूरज की किरणें थीं, और सुबह रखूगा। फिर एकदम से कहा कि तू अपनी मां जैसी तो नहीं हो की सुगंधित हवाएं थीं, उसकी यह बात बड़ी कुरूप थी, और | जाएगी? इतना ही खयाल रखना, अपनी मां जैसी मत हो जाना! बेमानी थी, और सन्नाटे को तोड़ती थी, उस मौन को खंडित करती ___ यह जब उसकी पत्नी पूछ रही है, तब वह बहुत बीमार पड़ी थी। थी, कि सुबह बहुत सुंदर है। यह वक्तव्य बड़ा असुंदर था, अग्ली | वह सिर्फ खोज रही है। फिर वह पूछती है उससे कि मुल्ला, अगर 66 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * मर जाऊं, तो सच-सच कहो, दूसरा विवाह तो नहीं करोगे! मुल्ला ने कहा, ऐसी बातें नहीं पूछा करते। तेरी तबीयत ठीक नहीं है । ऐसी बातें नहीं पूछा करते। पर पत्नी पीछे पड़ गई, तो मुल्ला ने कहा, बड़ी मुश्किल है। अगर मैं कहूं कि करूंगा, तो कहना जंचेगा नहीं; और अगर कहूं कि नहीं करूंगा, तो वह सच न होगा। कहते हैं कि मुल्ला किसी स्त्री को प्रेम का निवेदन किया था। और उसकी उस प्रेयसी ने पूछा था कि मुल्ला, तुम ऐसे-ऐसे पत्र लिखते हो कि मैं मर जाऊंगा अगर तू मुझे न मिली; क्या सच ही तुम मर जाओगे अगर मैं तुम्हें न मिली? मुल्ला ने कहा, दिस हैज बीन माई यूजुअल हैबिट | यह तो मैं सदा करता रहा हूं। यह सदा की मेरी आदत है । जब भी किसी से मैंने प्रेम किया और अगर वह मुझे न मिला, तो मैं फौरन मर गया ! उस स्त्री ने प्रेम नहीं किया मुल्ला से, विवाह भी नहीं किया। और कहते हैं, मुल्ला ने अपना वचन निभाया, यद्यपि सत्तर साल बाद! मर गया सत्तर साल बाद लिख गया अपनी वसीयत में कि कोई यह न समझे कि मैं झूठा हूं। मैंने वचन दिया था अपनी प्रेयसी to अगर तूने मुझसे विवाह न किया, तो मैं मर जाऊंगा, और अब मैं मर रहा हूं। सत्तर साल बाद • हमारा सारा प्रेम, प्रेम के दावे, मर जाने के वचन, आश्वासन, कहीं भी हृदय आते नहीं मालूम पड़ते। सिर्फ बुद्धि का हिसाब-किताब है । और जितना कम होता है हृदय, बुद्धि से हमें उतना ज्यादा सब्स्टीट्यूट, परिपूरण करना पड़ता है। तो जितना कम प्रेमी, उतना ज्यादा गुहार मचाए रखता है कि मैं प्रेम करता हूं, मैं प्रेम करता हूं, मैं प्रेम करता हूं। सच में जो प्रेमी है, चुप होना भी काफी है। और अगर चुप्पी न कह सके प्रेम को, तो शब्द कभी भी न कह पाएंगे। भाव जब होता है, तो रोआं-रोआं कहता है; उपस्थिति कहती है । जब आप किसी के प्रेम में हों, तो भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं। जब आप प्रार्थना में हों, तो भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं। जब आप सौंदर्य को देख रहे हों-सूरज निकला है, फूल खिल गया है; कोई आंखें हैं, सुंदर हैं - तब भाव को मौका दें, बुद्धि को बीच में मत लाएं। भाव इतना ही कहेगा, आंखें सुंदर हैं। बुद्धि कहेगी, इन आंखों को घर में कैद करने का कोई उपाय है या नहीं ! भाव इतना ही कहेगा, प्यारा है फूल; अनुभव करेगा । बुद्धि कहेगी, तोड़ो । क्योंकि बुद्धि जहां भी प्यारा कुछ लगे, उसको तोड़ना चाहती है। 67 बुद्धि बहुत हिंसात्मक है। अगर सच में ही किसी ने फूल को प्रेम किया है, तो मुश्किल है सोच पाना कि उसे तोड़ेगा कैसे ? लेकिन आप जब भी फूल को प्रेम करते हैं, तो जो पहला काम आप करते हैं, वह फूल को तोड़ने का है। अजीब प्रेम है ! अगर यही प्रेम है, तो हत्या करना किसे कहते हैं ? जब भी फूल प्यारा लगता है, तो पहला काम कि तोड़ो झटके से; उसके जीवन को नष्ट करो। उसका जो जीवंत रूप था, हटाओ। और एक मुर्दे फूल को खीसे में लगाकर घूमो। शायद फूल से आपको बिलकुल प्रेम नहीं है। शायद इस फूल को भी आप अपने अहंकार की शोभा और आभूषण बनाना चाहते हैं। अगर कोई स्त्री मुझे सुंदर लगे, तो कैसे जल्दी इसे अपने घर में कैद करूं, यह बुद्धि का खयाल है। बुद्धि इसी भाषा में सोचती है। भाव नहीं सोचता । भाव को अगर कोई सुंदर लगता है, तो कारागृह में डालने का कोई सवाल ही नहीं है। अगर भाव को कोई सुंदर | लगता है, तो कारागृह में हो भी, तो उसे मुक्त कर देने की कामना पैदा होती है। अगर किसी को फूल सुंदर लगा है और जमीन पर पड़ा है, तो वह उसे उठाकर कहीं पानी में रख देना चाहेगा कि थोड़ी | देर और ज्यादा जिंदा रह जाए। भाव की प्रक्रिया अलग है। भाव आपको कठिनाई में नहीं डालता। लेकिन बुद्धि आपके ऊपर इतनी जोर से कसकर बैठी है कि भाव बोल भी नहीं पाता कि बुद्धि अपने वक्तव्य देने शुरू कर देती है। और भाव कह भी नहीं पाता कि क्या अनुभव हुआ, बुद्धि योजना बनाने लगती है कि क्या करना चाहिए। नहीं; सौंदर्य का अनुभव बुरा नहीं है, लेकिन सौंदर्य को कैद करने की जो बुद्धि है, वह पाप है। और अगर हम इस पृथ्वी पर किसी दिन भाव से जीना शुरू करें, और किसी के सौंदर्य को अगर आप सड़क पर खड़े होकर देखने लगें, तो वह बुरा अनुभव नहीं | करेगा; नहीं करना चाहिए। क्योंकि परमात्मा की इस देन को अगर कोई आनंद से देख रहा है, तो हर्ज कहीं भी, कुछ भी नहीं है । लेकिन अभी वह बुरा अनुभव करता है, क्योंकि सबको पता है कि देखना केवल प्रारंभ है, केवल शुरुआत है एक लंबे नर्क की । | इसलिए देखने के नियम हैं। अगर मैं सरसरी नजर से आपको देखूं, तो कोई एतराज नहीं । अगर जरा समय से ज्यादा रुक जाऊं, तो खतरा शुरू हो जाता है। क्योंकि उतनी देर रुकने का मतलब है, नजर उतनी देर रुकी, उसका Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 मतलब है कि अब मैं किसी कारागृह में डालने की योजना बना रहा गया, वह चलती-फिरती लाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हूं, या किसी वासना की तृप्ति पर उतर आया हूं। इसलिए हमारी वह एक कंप्यूटर हो सकता है कि गणित का हिसाब लगा देता हो. आंख को भी हमें हिसाब में रखना पड़ता है। किसको कितनी देर | दफ्तर का काम कर देता हो, दुकान चला लेता हो। इंजीनियर हो, देखो, हिसाब रखना पड़ता है। कि डाक्टर हो, कि वकील हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अगर भाव कह भी रहा हो कि दो क्षण रुक जाओ, शायद ऐसा सिर्फ एक कंप्यूटर है। यह जो उसकी खोपड़ी कर रही है, यह तो सौंदर्य फिर दिखाई न पड़े, शायद परमात्मा की ऐसी कुशलता फिर | अब कंप्यूटर बहुत बेहतर ढंग से कर देगा। दिखाई न पड़े, तो भी बुद्धि कहेगी कि इतनी ज्यादा देर रुके तो __ कंप्यूटर और आदमी में एक ही फर्क है कि कंप्यूटर अभी तक खतरा हो सकता है। दूसरा भी सचेत हो जाता है! दूसरा भी सचेत | | भाव नहीं कर सकता; बुद्धि का तो सब काम कर देता है। अगर हो जाता है। आप भी सिर्फ बुद्धि रह गए हैं, तो आप बहुत जल्दी रिप्लेस कर किसी को घूरकर देखिए। घूरकर देखना ही बुरी बात है। घूरकर | दिए जाएंगे; आप बहुत जल्दी गैर-जरूरी हो जाएंगे। और किसी देखने का मतलब ही बुरा हो जाता है। हम तो कहते ही उस आदमी कबाड़खाने में आपको उठाकर रख दिया जाएगा। क्योंकि आप को लुच्चा हैं, जो घूरकर देखता है। लुच्चा का मतलब सिर्फ होता महंगे भी हैं, खर्चीले भी हैं, नान-इकोनामिकल भी हैं। कंप्यूटर है, घूरकर देखने वाला। और कुछ मतलब नहीं होता इस शब्द का। बेहतर है। वह भोजन करता नहीं या बहुत कम भोजन करता है। लुच्चा, आंख से बना शब्द है, लोचन से। जो आंख गड़ाकर देखता | थोड़ी-सी बिजली लेता है। टूटता-फूटता नहीं। भूल-चूक कभी है, वह लुच्चा। वैसे आलोचक का भी यही मतलब होता है। वह | नहीं करता। और हजार आदमी जिस काम को कर सकें लाखों घंटों भी जरा आंख गड़ाकर चीजों को देखता है, कि आप क्या कह रहे | | में, वह क्षण में कर देता है। तो आदमी तो आउट आफ डेट है। हैं. वह जरा आंख गडाकर देखता है क्रिटिक, आलोचक। कंप्यटर उसकी जगह आ जाएगा। आलोचक और लुच्चे में बहुत फर्क नहीं है। लुच्चा जरा गलत | ___ आदमी के बचने की एक ही संभावना है कि आदमी अगर अपने जगह लगा देता है, आलोचक जरा ठीक जगह लगा देता है। भाव के केंद्र को पुनर्जाग्रत कर ले, तो ही कंप्यूटर से जीत सकता आंख को गड़ाकर देखना, बुद्धि आ गई। दूसरी तरफ भी आ है। अन्यथा जीतने का अब कोई उपाय नहीं है। गई, इस तरफ भी आ गई; और अड़चन शुरू हो गई। और ध्यान रहे, आदमी आदमी से लड़ता रहा, यह एक बात थी। भाव! एक बच्चा अगर किसी सुंदर स्त्री को खड़ा होकर देखता | अब पहली दफा आदमी मशीन से लड़ेगा। और मशीन से लड़कर रहे, तो उसे कुछ बेचैनी न होगी। क्योंकि अभी सिर्फ भाव है। भाव | आदमी जीतेगा नहीं, क्योंकि मशीन सब कुछ आपसे ज्यादा इनोसेंट है; भाव बहुत निर्दोष है, पवित्र है। लेकिन यही बच्चा कल कुशलता से कर सकती है। सिर्फ एक काम मशीन नहीं कर सकती, जवान हो जाएगा। और यही घूरकर देखेगा, तो कठिन हो जाएगा। वह भाव है। क्यों? अब सिर्फ भाव न रहा। अब बद्धि योजना बनाने लगेगी और लेकिन भाव हमारे पास नहीं है। भाव का हमें पता ही नहीं। हृदय वासना के उपयोग में आने लगेगी। | में हम सिर्फ एक ही बात जानते हैं कि वह जो धड़कन होती रहती हैरान होंगे जानकर आप, भाव वासना का जन्मदाता नहीं है। है। वह भी हम तभी जानते हैं, जब कोई बीमारी, कोई अड़चन आ अगर शुद्ध भाव में कोई ठहर सके, तो वासना तिरोहित हो जाती है। जाती है। लेकिन वह धड़कन तो सिर्फ फुफ्फुस है। वह धड़कन तो वासना का जन्म होता है बुद्धि और वृत्ति के सहयोग से। भाव और | सिर्फ पंपिंग स्टेशन की वजह से है। श्वास को, खून को पंप कर वत्ति के बीच कभी कोई सहयोग नहीं होता। बद्धि और वत्ति के बीच रही है. इसलिए धडकन है। वह हृदय नहीं है। उस धडकन के पास सहयोग हो जाता है। और बद्धि रास्ता बताती है कि यह है मार्गः। एक और धडकन भी है, जिसको नापा नहीं जा सकता। वह भाव जाओ बाहर। खोजो। पाने का उपाय करो। पा लोगे। ये-ये विधियां | की धड़कन है। हैं। ये-ये रीतियां हैं। इस तरह चलोगे, तो सफल हो जाओगे। लेकिन भाव को फैलाएं, मौका दें, अवसर दें, और धीरे-धीरे और जब भी कोई व्यक्ति बुद्धि की मानकर चलने लगता है, | | भाव को केंद्रित करें, तो वह संयम में सहयोगी बन जाता है। या धीरे-धीरे भाव का केंद्र सो जाता है। और जिसका भाव का केंद्र सो | संयम हो, तो वह भाव में सहयोगी बन जाता है। साधना के जगत Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * में सब चीजें अन्योन्याश्रित हैं, इंटरडिपेनडेंट हैं। कहीं से भी शुरू करें, दूसरी चीज सहयोगी हो जाती है। और प्राण को मस्तक में ! प्राण से अर्थ है, जिसे बर्गसन ने एलान वाइटल कहा है, जीवन शक्ति कहा है, भारत उसे सदा से प्राण कहता रहा है। प्राण है हमारे भीतर वह ऊर्जा, जिसके सहारे हम जीते हैं । और जब यह शरीर छूटता है तो शरीर से कुछ भी नहीं जाता, सिर्फ प्राण चला जाता है। लेकिन वह प्राण अगर मस्तक में स्थापित होकर जाए, तो परम गति को उपलब्ध होता है। और अगर मस्तक में स्थापित न हो पाए, तो जिस केंद्र पर स्थापित होता है, उसी गति को उपलब्ध होता है। परम गति, कृष्ण किसे कहते हैं, वह ' हम समझ लें। परम गति उसे ही कहा है, जिसके आगे फिर कोई गति नहीं । परम गति उसे ही कहा है, जो अंतिम गति है, दि अल्टिमेट है, जिसके आगे कुछ भी नहीं है। इसलिए मोक्ष ही परम गति है, या ब्रह्म-उपलब्धि ही परम गति है, या निर्वाण ही परम गति है। बाकी सब गतियां परम नहीं हैं। क्योंकि उनके बाद और गतियां होंगी, और गतियां होंगी, और यात्राएं, और यात्राएं। परम यात्रा तो वही है, जिसके आगे फिर कोई मंजिल शेष नहीं रह जाती। अगर प्राण इकट्ठा हो जाए भृकुटी मध्य में, तो फिर कोई दूसरी गति में मनुष्य को नहीं जाना पड़ता। और जिस जगह केंद्रित होता है, उस जगह से पता चलता है कि किस गति में आदमी जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति का प्राण शरीर के अलग-अलग बिंदुओं से निकलता है। सभी व्यक्ति एक ही बिंदु से नहीं मरते । जिन व्यक्तियों का प्राण भ्रू-मध्य में इकट्ठा हो जाता है, उनका प्राण सहस्रार से निकलता है। आज्ञा चक्र में जिनका प्राण स्थापित हो जाता है, तो जैसे ही आज्ञा चक्र में प्राण का प्रवेश होता है, यह जो अंतिम चक्र है हमारा सहस्रार, दि सेवेंथ, उसे तोड़कर निकल जाता है। इसलिए परम ज्ञानियों की अक्सर खोपड़ी भी टूट जाती है उस जगह से जरूरी नहीं है कि टूटे ही; अक्सर टूट जाती है। लेकिन हमने इसीलिए नियम बना रखा है कि जब किसी को, मुर्दे को हम जलाने जाते हैं, तो उसकी कपाल-क्रिया कर देते हैं, खोपड़ी फोड़ देते हैं। वह खुद तो नहीं फोड़ पाए, काफी देर पहले गए। अब हम फोड़ रहे हैं! मुर्दे की खोपड़ी फोड़ रहे हैं। उसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन सूचक है। इस मुल्क ने जाने हैं ऐसे लोग, जिनकी मरते वक्त अपने आप खोपड़ी टूट जाती है। वह सूचना है कि वे परम गति को उपलब्ध हो गए। अब हम दीन-हीन, गरीब लोग हैं। मैं मर जाऊं और खोपड़ी अपने से न टूटे, तो एक बेटे को अपने पीछे छोड़ जाता हूं कि तू मेरी खोपड़ी तोड़ देना मरने के बाद ! यह वैसे ही है, जैसे मरने के बाद कोई दवा दे, इंजेक्शन लगाए । इस खोपड़ी तोड़ने का कोई | भी अर्थ नहीं है। यह बड़ी दीनता की सूचक है। यह खबर दे रही है कि जो होना था, वह नहीं हुआ। अब वे मुर्दे के साथ एक खेल कर | रहे हैं। लेकिन जिन्होंने यह रिवाज जारी किया, उन्हें पता था कि कभी-कभी कोई व्यक्ति उस छिद्र से भी प्राण को छोड़ता है। उस छिद्र से तभी प्राण छूटता है, जब प्राण भ्रू-मध्य में स्थापित होता है, अन्यथा नहीं छूटता। यही प्राण हमारी जीवन ऊर्जा है, लाइफ एनर्जी है। हम इसी के द्वारा गति करते हैं। अगर भू-मध्य तक वह नहीं पहुंचा, तो फिर कहीं से भी छूटे, हमें दूसरे जन्म को ग्रहण करना पड़ेगा। और जितने नीचे केंद्र से छूटेगा, उतनी नीची गति में हमारी यात्रा होती है। उतने ही निम्न मन और निम्न प्राण को और निम्न देह को लेकर | हम फिर जीवन को चलाते हैं। अक्सर अधिक लोगों का प्राण काम-केंद्र से ही छूटता है । क्योंकि वही हमारा केंद्र है सर्वाधिक सक्रिय । और जब काम-केंद्र से हमारा प्राण छूटता है, तो हम कामवासना से भरे हुए फिर नए जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। कामवासना समस्त वासनाओं का आधार है, मूल है। फिर सब वासनाएं उसके साथ पुनः पैदा हो जाती हैं। और एक बार नहीं अनेक | बार मरकर भी हम वही भूल करते हैं कि हम ठीक से नहीं मरते । | ठीक से मरना एक कला है। ठीक से जीना तो एक कला है ही, लेकिन ठीक से मरना भी एक बड़ी कला है। हालांकि जो ठीक से जीते हैं, वही ठीक से मर पाते हैं। इसलिए हम ऐसा कह सकते हैं कि ठीक से जीना, ठीक से मरने की कला का प्राथमिक चरण है। | शिखर और सेतु तो ठीक से मरना है! हाउ टु डाइ राइटली ? सम्यक मृत्यु कैसे फलित हो ? कृष्ण उसी सम्यक मृत्यु की चर्चा कर रहे हैं। वे कहते हैं, प्राण स्थिर हो जाए भ्रू-मध्य में । और ध्यान की कोई भी विधि का उपयोग करें, प्राण भ्रू-मध्य में | स्थापित होने लगता है। कोई भी ध्यान की प्रक्रिया करें-भजन में लीन हों, कि प्रार्थना में, कि नमाज में, कि मौन बैठें, कि नाम स्मरण 69 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 करें—कोई भी उपाय करें, जब भी ध्यान फलित होता है, तो प्राण एक नाद और भी है इस जगत में जो अनाहत है, वही ओम, वही भ्रू-मध्य की तरफ दौड़ने लगते हैं। वही ध्यान की सफलता का | ओंकार है। लेकिन वह तब पैदा होता है, जब भीतर सब संघर्ष बंद सूचक है, लक्षण है, कि अब भ्रू-मध्य की तरफ ध्यान दौड़ना शुरू हो जाता है। हो गया, तो ध्यान सफल हो रहा है, स्वीकृत हो रहा है। प्रभु के मार्ग इसे ठीक से समझ लें। पर स्वीकृत होता जा रहा है। जब तक भीतर किसी तरह का संघर्ष और कांफ्लिक्ट है, तब जो पुरुष ऐसे क्षण में ब्रह्म को उच्चार करता हुआ, मुझे चिंतन तक आहत नाद ही होता है। अब एक आदमी बैठकर अगर भीतर करता हुआ, शरीर को त्याग जाता है, वह परम गति को उपलब्ध कहे, ओम-ओम, तो वह आहत नाद है। वह ओम नहीं है वह, जो होता है। अपने से उच्चरित होता है, जो गूंज उठता है प्राणों से और हम यह बात थोड़ी समझनी पड़ेगी। जो पुरुष ओम, ऐसे अक्षर रूप | केवल साक्षी होते हैं, कर्ता नहीं होते। ब्रह्म का उच्चार करता हुआ...। कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को इससे बहुत बड़ी भ्रांति होती है। क्योंकि हम एक ही तरह का | | उच्चार करता हुआ...। उच्चारण जानते हैं, जो हम करते हैं। हमें उस उच्चार का कोई भी यहां कर्ता की तरह करता हुआ नहीं, यहां समस्त अस्तित्व से पता नहीं, जो होता है, दैट व्हिच हैपेंस। ओम का उच्चार होता हुआ, ज्यादा ठीक होगा कहना। यहां सारी हम ओम का उच्चार कर सकते हैं, चेष्टा से। लेकिन जो ओम प्राण ऊर्जा ओम का उच्चार होती हुई, ओम का उच्चार बनकर जब का उच्चार चेष्टा से होगा, वह हृदय तक नहीं जाता। क्योंकि चेष्टा गतिमान होती है, तो परम गति उपलब्ध होती है। . कंठ से नीचे नहीं उतरती। कंठ से जो पैदा होता है, वह कंठ तक कभी अगर एक क्षण भी ऐसा अवसर मिल जाए, जब भीतर रहेगा। होंठ से जो पैदा होता है. वह होंठ तक रहेगा। इसलिए इस कोई संघर्षण न हो. परम मौन हो कोई शब्द न हो. कोई स्वर न तरह के उच्चार को आहत नाद कहा है। आहत नाद का अर्थ है, जो हो, तब भीतर ही आंखों और कानों को बंद करके सुनना, क्या दो चीजों के टकराने से पैदा होता है। दोनों होंठ टकराते हैं, आवाज | | गूंजता है भीतर? शीघ्र ही एक अनूठी ध्वनि सुनाई पड़नी शुरू हो पैदा होती है। जीभ तालू से टकराती है, उच्चार होता है। कंठ की | जाएगी, जो कभी नहीं सुनी। ओम तो सिर्फ उसकी कापी है समझाने । मांस-पेशियां सिकुड़ती हैं, टकराती हैं, उच्चार पैदा होता है। | को, प्रतिलिपि है; कार्बन कापी है। ओम से पता नहीं चलता; सिर्फ एक तरह की ध्वनि हम जानते हैं, जो आहत नाद है। आहत नाद | इशारा है। जो गूंज वहां अनुभव होती है, वह करीब-करीब ऐसी का अर्थ है, दो चीजों के संघर्षण से पैदा हुआ शब्द, ध्वनि।। | है, जैसा ओम के उच्चार से मालूम पड़े। पर वह ठीक ऐसी नहीं है। कृष्ण जिस उच्चार की बात कर रहे हैं, वह है अनाहत नाद। निकटतम, एप्रॉक्सिमेटली, ऐसी है। अनाहत नाद का अर्थ है, बिना दो चीजों के टक्कर के पैदा हुआ नाद।। इसलिए अनेक लोगों ने उसे अनेक तरह से समझा है। हिंदू ओम हम ऐसे किसी नाद को नहीं जानते। लोग कहते हैं, एक हाथ से | | के उच्चार से समझे हैं। हिब्रू, यहूदी, मुसलमान उसी को आमीन ताली नहीं बजती। ठीक कहते हैं। ताली बजे भी, तो दूसरा हाथ | की तरह समझे हैं। वह ओम, जो हमने ओम समझा, वह भीतर की जरूरी ही होगा। हाथ न हो, तो कोई दूसरी चीज जरूरी होगी। ध्वनि को सूफियों ने समझा, आमीन। वह आमीन जैसा भी सुनाई लेकिन दूसरा जरूरी होगा। एक हाथ से ताली बजाइएगा कैसे? | | पड़ सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। बजने के लिए दूसरा चाहिए, संघर्षण चाहिए। ये दो ही शब्द हैं इस समय जमीन पर, आमीन और ओम। जगत में जितना नाद है, सब आहत नाद है। चाहे वृक्षों से | आधे धर्म दुनिया के आमीन के खयाल में हैं, आधे धर्म दुनिया के दौड़ती हुई सरसराती हवा, या सागर की लहरों की टक्कर चट्टानों ओम के। भारत में जो धर्म पैदा हुए, वे सब ओम के खयाल में से. कि बांसों के झरमट में होती गंज, कि पक्षियों के गीत. कि हैं। और उस खयाल में कोई और कारण नहीं है। जब हमें पता है आकाश की गड़गड़ाहट, कि आदमी की वाणी, कि सितार पर | | कि ओम, जो जब पहली दफे हमें वह ध्वनि सुनाई पड़ेगी, तो गूंजता हुआ स्वर, कि पानी की कल-कल, जो कुछ भी है इस | ओम जैसी सुनाई पड़ेगी। जिनको पता है आमीन, उन्हें आमीन जगत में, सब आहत नाद है। जैसी सुनाई पड़ जाएगी। 70 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * लेकिन ये दोनों ही केवल फीकी प्रतिध्वनियां हैं उस ध्वनि की। नहीं किया, तो त्याग कैसे करें! तो पकड़ने की चेष्टा चलती है। स्मृति से, बुद्धि से समझा गया उच्चार है। वह इन दोनों से भिन्न ध्यान रहे, अगर कोई आदमी विवेकपूर्वक, बुद्धिमानीपूर्वक, और दोनों से मिलती-जलती है। उस ध्वनि को अनाहत कहा है. | होशपूर्वक भोग कर ले, तो त्याग करने में कठिनाई नहीं आनी क्योंकि वह बिना किसी चीज से टकराए पैदा होती है। वह अस्तित्व चाहिए। क्योंकि शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पकड़ने की की ध्वनि है। वह अस्तित्व के होने से ही पैदा हो रही है। आकांक्षा शेष रह जाए। सिर्फ अज्ञान ही पकड़ा सकता है। और इस ध्वनि को उच्चार करता हुआ जो पुरुष मेरे चिंतन में रमा, भोग न कर पाने के कारण त्याग की क्षमता नहीं हो पाती। शरीर को त्यागकर जाता है...। भोग करें। और ठीक से भोग कर लें। और होशपूर्वक भोग कर हम शरीर को त्याग नहीं करते, हमें शरीर त्याग करना पड़ता है। लें। और देख लें कि शरीर क्या दे सकता है। और जान लें कि शरीर बड़ी मजबूरी में, बड़ी विवशता में, बड़ी मुश्किल से छीना-झपटी | | से क्या मिल सकता है। जल्दी ही आप इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे होती है हमसे। आपने कथाएं पढ़ी होंगी, कहानियां कहती हैं, कि शरीर से कुछ भी मिलने वाला नहीं है। अगर कुछ खोजना है, धर्मगुरु समझाते हैं, वे कहते हैं कि जब मौत आती है, तो मौत के | तो किसी और दिशा में खोजना पड़ेगा। फिर शरीर को छोड़ने में यमदूत आते हैं और बड़ी जोर-जबरदस्ती करके आत्मा को छीनकर कठिनाई नहीं होती। ले जाते हैं। और जिसको यह प्रतीति हो जाए कि शरीर से कुछ मिलता नहीं, . उलटी है यह बात। कोई छीनकर आत्मा नहीं ले जाता। आप ही कुछ मिलेगा नहीं, वह तत्क्षण–तत्क्षण शरीर को त्यागने को तैयार शरीर को इतने जोर से पकड़ते हैं कि छीना-झपटी हो जाती है। प्राण हो सकता है। और मृत्यु तब जब आए, तो वह सहज स्वीकार कर जाना चाहते हैं। कोई उस तरफ से नहीं खींचता आपको। किसी को सकता है कि ठीक है, आ जाओ। मैं तो तैयार ही था। इस शरीर खींचने की जरूरत नहीं है। प्राण जाना चाहते हैं। वक्त आ गया। को मैं देख चुका। इसमें कहीं कुछ भी नहीं है, जो पाने योग्य है। समय चुक गया। शरीर व्यर्थ हो गया। और आपका मन छोड़ना | और कहीं भी कुछ भी नहीं है, जिसे खोने का कोई भय हो। मैं शरीर नहीं चाहता। आप पकड़े हैं। नाव छूट चुकी, उसका इंजन दौड़ने को देख और जान चुका हूं। ऐसे व्यक्ति को संयम भी आसान हो लगा; और आप किनारे को पकड़े हुए हैं। जो छीना-झपटी होती जाता है। और ऐसे व्यक्ति को अंतिम क्षण में शरीर का त्याग भी है, वह उस तरफ से नहीं, इसी तरफ से होती है, हमारे द्वारा होती सरल हो जाता है। है। हम शरीर को फिर भी पकड़े रहना चाहते हैं, हम फिर भी शरीर को त्यागकर जाता है ऐसा जो पुरुष, वह परम गति को चीखते-चिल्लाते हैं। और बच जाएं, एक क्षण और मिल जाए। | प्राप्त होता है। एक श्वास और ले लूं। हम त्याग नहीं कर पाते शरीर का। परम गति, यानी जिसके आगे फिर और कोई गति नहीं है। जहां __ अब यह बहुत मजे की बात है। न हम भोग कर पाते, न हम से लौटना नहीं है, जिसके आगे जाना नहीं। त्याग कर पाते। क्योंकि अगर भोग ही कर लिया हो, तो त्याग करने शब्द बड़ा अदभुत है। गति का तो मतलब होता है मूवमेंट। गति में कठिनाई नहीं आनी चाहिए। क्योंकि जिस चीज को हम भोग लेते | का अर्थ होता है मूवमेंट, चलना, बदलना, परिवर्तन। परम गति हैं, उसे छोड़ने की तैयारी हो जाती है। जब पेट भर जाता है, तो का क्या मतलब होगा? वहां तो कोई चलना नहीं होता, कोई आदमी थाली छोड़ देता है। लेकिन जिंदगीभर इस शरीर में रहकर मूवमेंट नहीं; कोई जाना नहीं, कोई आना नहीं। भोग भी नहीं कर पाते कि थाली छोड़ सकें। जब वक्त आए छोड़ने परम गति शब्द कंट्राडिक्टरी है, विरोधी है। असल में परम का, तो हम कह सकें, भर गया पेट। | कहना और गति कहना, दो विरोधी शब्दों का एक साथ प्रयोग न हम भोग कर पाते, न हम त्याग कर पाते। हम बड़े अजीब | | करना है। कहना कि अल्टिमेट मूवमेंट! मवमेंट कभी भी अल्टिमेट लोग हैं। जब भोग का समय होता है, तब हम भोग को पोस्टपोन | नहीं हो सकता। क्योंकि गति का अर्थ ही होता है कि वह अभी करते रहते हैं, कल कर लेंगे! इंतजाम पहले कर लें, फिर भोग कर | | किसी तरफ हो रही है। गति का अर्थ ही होता है कि अभी हो रही लेंगे। फिर इंतजाम में जिंदगी चुक जाती है, फिर मौत सामने आ | | है। तो जिस तरफ हो रही है, वहां होगा अंत। अभी अंत नहीं हो जाती है, त्याग का वक्त आ जाता है। लेकिन अभी हमने भोग ही | | गया। गति स्वयं में कभी अंत नहीं होती। अंत कहीं आगे होगा, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 जिसकी तरफ गति होती है। जितने पास हो जाए, दिखाई नहीं पड़ता। इस हाथ को पास पास परम गति विरोधी शब्द है। लेकिन जीवन में जितने गहरे सत्यों | | पास, आंख के जितने पास ले आओ, उतना ही दिखाई पड़ना का उदघाटन करना हो, उतने विरोधी शब्दों का प्रयोग करना पड़ता मुश्किल हो जाता है। फिर बिलकुल आंख से लगा लो, फिर कुछ है। और इसीलिए संतों की वाणी निरंतर कंट्राडिक्शंस से, विरोधों दिखाई नहीं पड़ता। और वह आंख के भी पीछे है, तो कठिन हो से, असंगतियों से भरी होती है। असल में संत बोल ही नहीं जाता है। सकता, बिना कंट्राडिक्ट किए संत बोल ही नहीं सकता। और अगर | ___ परम गति भी विरोधी शब्द है, कंट्राडिक्शन इन टर्स। गति परम कोई बोलता हो, तो उसे सत्य का कोई पता नहीं होगा। नहीं हो सकती; और जो परम है, वहां कोई गति नहीं हो सकती। सत्य को बोलने का मतलब ही यह है कि आपको विरोधी शब्दों | | लेकिन फिर भी सार्थक है, क्योंकि हम गति को ही पहचानते हैं। का एक साथ प्रयोग करना पड़ेगा। उपनिषद कहते हैं. दर से भी दर हमने बहुत गतियां की हैं। न मालूम कितनी योनियों में भ्रमण किया और निकट से भी निकट है वह। या तो कहो दूर से भी दूर; रुको। | है। न मालूम कहां-कहां गतिमान हुए हैं। हमें तो एक ही पता या कहो, निकट से भी निकट; और ठहरो! कृपा करके दोनों तो है-गति, और गति, और गति। एक साथ मत कहो कि दूर से भी दूर है वह और निकट से भी निकट | कृष्ण कहते हैं, वह परम गति को उपलब्ध हो जाता है। है! कंट्राडिक्शन का तो उपयोग मत करो। और परम गति अर्थात आखिरी गति को, जिसके आगे और लेकिन कोई उपाय नहीं। ऐसा ही है वह। पास भी इतने कि कोई गति नहीं, जहां सब ठहर जाता है। परम गति का अर्थ है, उससे ज्यादा पास कोई नहीं। और फिर भी अनंत-अनंत यात्रा जहां सब ठहर जाता है। जहां कंपन भी नहीं, लहर भी नहीं। जहां करके भी उस तक पहुंच कहां पाते हैं ! दूर से भी बहुत दूर। शायद कोई मूवमेंट नहीं। इसीलिए बहुत दूर है कि बहुत पास है। इतने पास है कि चलने का | - लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वहां मृत्यु है। यह जो ठहराव मौका ही नहीं मिलता कि कैसे चलकर उसके पास पहुंचे। जरा दूर है, यह जो थिरता है, परम जीवन है; लेकिन बिना गति के। और हो, तो आदमी चलकर भी पहुंच जाए। बहुत पास हो, तो चलकर | गति का जो जीवन है, वह तो घिस जाएगा। और गति में जो जीवन | है, वह आज नहीं कल गलेगा, सड़ेगा, टूटेगा, डिटेरिओरे होगा। ला नसरुद्दीन एक जगह काम करता है। दफ्तर उसके घर के लेकिन परम जीवन तो वही हो सकता है, शाश्वत, जहां कोई गति सामने है, लेकिन रोज ही वह देर पहुंचता है। लेट लतीफ। रोज ही। नहीं। क्योंकि गति में चीजें मिट जाती हैं। आखिर एक दिन मालिक के बरदाश्त के बाहर हुआ। उसने कहा, | हम सब गति में ही मिटते हैं। इसलिए सत्तर साल में शरीर घिस नसरुद्दीन, सीमा भी होती है किसी बात की। जो आदमी छः मील | | जाता है। घिस जाता है, इसका मतलब है कि सत्तर साल गति कर दूर रहता है, वह ठीक दस बजे आ जाता है। और तुम दफ्तर के ली सब तरह से। मन को दौड़ाया, इंद्रियों को दौड़ाया, पैरों को सामने हो और तुम कभी भी ठीक वक्त पर नहीं आ पाते! चलाया; सब चले। सत्तर साल में सब घिस जाता है। शरीर छूट नसरुद्दीन ने कहा, उसका कारण है। बिकाज आई एम सो नियर, | जाता है। फिर दूसरा शरीर पकड़ना पड़ता है। क्योंकि इतने निकट हूं। उसके मालिक ने कहा, यह कैसा कारण! __उस परम स्थिति में जहां कोई गति नहीं, शरीर की कोई जरूरत समझ में नहीं आया। तो नसरुद्दीन ने कहा कि इस आदमी को अगर नहीं, क्योंकि वहां कोई गति नहीं। शरीर गति का यंत्र है, वाहन है। देर हो जाए, तो जल्दी चलकर देर की कमी पूरी कर लेता है। मुझे | इसलिए वह स्थिति अशरीरी है। और परम है, क्योंकि उसके पार, देर हो जाए, तो कितनी ही जल्दी चलं, कोई फर्क नहीं! देर हो ही गई। | उसको ट्रांसेंड करने वाला और कुछ भी नहीं है। है! इस आदमी को मौका है, छः मील का फासला है। ही कैन मेक और हे अर्जुन, जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्त हुआ, सदा ही अप। आई कैन नाट मेक अप। घर से निकले कि दफ्तर! मेक अप | स्मरण करता है मुझे, उस निरंतर मेरे में युक्त हुए योगी के लिए मैं करने की थोड़ी जगह ही नहीं है। इसलिए हम रोज लेट हो जाते हैं! | सुलभ हूं। अंतिम बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसे व्यक्ति को मैं अति बहुत करीब हो, तो चूक सकता है, क्योंकि खयाल में ही न सुलभ हूं। आए। आंखें दूर देखती हैं। पास देखने में सभी आंखें अंधी हैं। | | यह भी विरोधाभास है। क्योंकि परमात्मा तो अति दुर्लभ है। कैसे पहुंचे! Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * योगयुक्त मरण के सूत्र * खड्ग की धार पर चलने जैसा है। बड़ा मुश्किल है। लाखों चलते | करुणा के सामने हम कितने ही पाप करें, सब क्षमा है। हैं, एकाध पहुंच पाता है। बड़ा कठिन है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह उमर खय्याम हम सब पर मजाक कर रहा है। हम सब ऐसे ऐसे चित्तवान व्यक्ति को, जो सतत मेरे स्मरण में डूबा हुआ, भाव ही हैं। जिसका हृदय में आ गया, प्राण जिसका भृकुटी में और इंद्रियां नहीं, वह सुलभ होगा तभी, जब हम उसकी ओर उन्मुख हों। वह जिसकी संयम को उपलब्ध हुईं और जिसके भीतर अनाहत के नाद दुर्लभ रहेगा तब तक, जब तक हम विमुख हैं। विमुखता ही उसकी की गूंज शुरू हो गई, ऐसे व्यक्ति को मैं अति सुलभ हूं। मुझसे दुर्लभता, और हमारी उन्मुखता ही उसकी सुलभता बन जाती है। ज्यादा सुलभ और ऐसे व्यक्ति को कोई और चीज नहीं है। आज इतना ही। परमात्मा दुर्लभ है, अगर आप उलझे हुए हैं। परमात्मा बहुत पर अभी कोई उठेगा नहीं। पांच-सात मिनट उन्मुख होने की सुलभ है, अगर आप सुलझे हुए हैं। सब निर्भर करता है आप पर, | कोशिश कर लें। कौन जाने इन्हीं पांच-सात क्षणों में कुछ घटित हो परमात्मा पर नहीं। जटिलता है आपकी, तो परमात्मा बहुत दुर्लभ | |जाए। कोई जाएगा नहीं; कोई उठेगा नहीं। कीर्तन भी बैठकर ही है। और आप पीठ किए खड़े हैं सूरज की तरफ, तो सूरज का कोई संन्यासी करेंगे। आप भी सम्मिलित हों। कसूर नहीं है। और आप कितने ही चलते रहें पीठ किए, आप कभी भी सूरज का दर्शन न कर पाएंगे। क्योंकि जो आंखें पीठ किए हैं, वे कितनी ही चलें, कितनी ही चलें, सूरज के दर्शन का कोई सवाल नहीं। और एक कदम वापस लौटें, लौटकर देखें, और एक कदम भी फिर चलने की जरूरत नहीं; सूरज आंख के सामने है। परमात्मा ऐसा ही सुलभ और दुर्लभ है। अगर पीठ किए रहें उसकी तरफ, तो अति दुर्लभ है। कितना ही दौड़ें जन्मों-जन्मों, नहीं मिलेगा। और लौटें, ऊर्जा को लौट आने दें भीतर, संयमित हों, ध्यान को उपलब्ध हों, समाधि को पाएं...। समाधि, ध्यान, कुछ और नहीं, जस्ट ए टर्निंग, लौटना, एन अबाउट टर्न, चित्त का लौट आना स्वयं पर; और आप इसी वक्त उपलब्ध हो जाते हैं। इसी क्षण भी उपलब्ध हो सकते हैं। बहुत सुलभ है। सब आप पर निर्भर है, इट डिपेंड्स आन यू। लेकिन हम बड़े होशियार हैं। हम मंदिर के सामने जाकर कहते हैं। कि मैं बहुत पापी हूं, मुझ से क्या होगा! तू ही कुछ करवा लेना! और अपने पाप में लौटकर बड़ी कुशलता से लग जाते हैं। अगर हम | परमात्मा को परम दयालु भी कहते हैं, तो इसलिए नहीं कि हम मानते हैं, वह परम दयालु है। सिर्फ इसीलिए कि इसमें हमें सुविधा है। उमर खय्याम ने मजाक में कहा है-मौलवी ने रोका है उसे कि शराब पीना बंद कर खय्याम—तो खय्याम कहता है कि हम तो पीते ही रहेंगे, क्योंकि हमें उस रहमान की रहमत पर भरोसा है; उस परम कारुणिक पर हमें पूरा भरोसा है। तू आस्तिक है? तू आस्तिक कैसा! नास्तिक है। मौलवी से खय्याम कहता है अपनी शराब की प्याली हाथ में लिए. त नास्तिक है। हमें तो उसका भरोसा है। उसकी करुणा अपार है। और हम क्या खाक पाप किए। महान Page #100 --------------------------------------------------------------------------  Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 छठवां प्रवचन वासना, समय और दुख Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । दुख आदमी के ऊपर टूट पड़ने वाला है। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। १५ ।। पृथ्वी पर ज्ञात पांच हजार वर्षों के इतिहास में पश्चिम ने आब्रह्मभुवनालोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। . . | सर्वाधिक समृद्धि, यंत्र-कौशल, वैज्ञानिक प्रगति और बाहर की मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते । । १६ ।। स्थिति को मनुष्य के अनुकूल रूपांतरित करने में जैसी सफलता पाई सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।। है, वैसी किसी सदी ने और किसी समाज ने कभी नहीं पाई थी। रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।१७।। लेकिन आज उस सफलता के शिखर पर बैठा हुआ अमेरिका दुख और वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त के महागर्त में गिर गया है। ऐसे दुख के गर्त में गरीब, दीन-हीन, होकर, दुख के स्थान आलयरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं | | पीड़ित और भिखारी समाजों को भी गिरते कभी नहीं देखा गया। प्राप्त होते हैं। | पश्चिम का तर्क बुरी तरह असफल हुआ है। क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती पूरब और तरह से सोचता है। पूरब ने जाना है कि परिस्थिति में स्वभाव वाले हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर | दुख नहीं, मनुष्य की चेतना में ही दुख है। मनुष्य की चेतना ही बदल __उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। जाए, तो ही दुख से छुटकारा हो सकता है। अन्यथा मनुष्य की और हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग चेतना को कैसी भी परिस्थिति मिले, दुख को पकड़ लेने वाली, तक अवधि वाला और रात्रि को भी हजार युग तक अवधि दुख को पैदा कर लेने वाली चेतना, पुनः-पुनः दुख पैदा कर लेती वाली, ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के | | है, हर स्थिति में दुख पैदा कर लेती है। दुखवादी हर जगह दुख को तत्व को जानने वाले हैं। खोज लेता है। यह मनुष्य की चेतना का रूपांतरण ही दुख से मुक्ति बन सकता है। कृष्ण अर्जुन से इसका पहला सूत्र कहते हैं। वे कहते हैं, परम 17 रब की मनीषा ने दुख का कारण, पश्चिम की मनीषा सिद्धि को जो प्राप्त हुए महात्माजन हैं, वे मुझे पाकर, दुख के प से बिलकुल ही भिन्न जाना है। शायद धर्म और विज्ञान | स्थान, आलयरूप, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। दुख on का वही भेद है। या ऊपर से जीवन की जो खोज करते | | के आलयरूप, दुख का जहां घर है, ऐसे क्षणभंगुर जीवन को वे हैं और भीतर जीवन के गहन तत्व में जो प्रवेश करते हैं, उनकी दृष्टि उपलब्ध नहीं होते हैं। का वह अंतर है। इसे समझना पड़े। यह पूरब का गहनतम तर्क है, अंतर्दृष्टि है। पश्चिम सदा से सोचता रहा है कि दुख का कारण परिस्थिति में | दुख का घर पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म का प्रारंभ जीवन की आकांक्षा है, है, स्थिति में है। और यदि हम परिस्थिति को बदल लें, तो दुख | जीते रहने की आकांक्षा, लस्ट फार लाइफ, जीवेषणा, और जीता विनष्ट हो जाएगा। यदि बाहर की सारी स्थिति ऐसी बनाई जा सके, | ही रहूं, और जीता ही चला जाऊं। एक वासना पूरी नहीं होती कि जहां दुख पैदा न हों, तो फिर दुख पैदा नहीं होगा। बाह्य को हम दस वासनाओं को जन्म दे जाती है। और किसी भी वासना को पूरा बदल लें, तो दुख की समाप्ति है। दुख है, तो इसलिए कि बाहर | करना हो, तो जीवन चाहिए, समय चाहिए, अन्यथा वासना पूरी की परिस्थिति भीतर की चेतना के अनुकूल नहीं है। नहीं होगी। इसलिए पश्चिम दो हजार वर्षों तक निरंतर विज्ञान की सतत | वासना के लिए भविष्य चाहिए। अगर भविष्य न हो, तो वासना साधना से बाहर की स्थिति को बदलने में लगा रहा है। और अब. क्या करेगी? अगर मैं इसी क्षण मर जाने वाला हूं, तो वासना करना पहला मौका है, जब पश्चिम कुछ सीमा तक सफल हुआ। और | व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि वासना के लिए जरूरी है कि कल हो, सफल होते ही उसकी सारी आशाओं का महल गिरकर ढेर हो गया। आने वाला दिन हो। आने वाला दिन हो, तो ही मैं वासना को है। सफलता इतनी असफल हो सकती है, यह कभी पश्चिम के फैलाऊं, श्रम करूं, भवन बनाऊं, पूर्ति की आकांक्षा करूं, दौडूं। चिंतकों ने सोचा भी नहीं था। सोचा भी नहीं था कि जिस दिन हम वासना पूरी हो सके, उस मंजिल तक जाने का यत्न करूं। लेकिन परिस्थिति से सारे दुख को अलग कर लेंगे, उस दिन और भी बड़ा समय की जरूरत है; टाइम इज़ नीडेड। 76 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना, समय और दुख * अगर वासना पूरी करनी है, तो समय के बिना पूरी नहीं हो समय की जरूरत इसलिए है कि वासना की दौड़ के लिए स्थान सकती। समय चाहिए। और अगर हर वासना दस वासनाओं को चाहिए। वासना दौड़ती है समय में। वासना स्थान में नहीं दौड़ती, जन्म दे जाती हो, तो हर वासना के बाद दस गुना समय चाहिए। स्पेस में नहीं दौड़ती, टाइम में दौड़ती है। अगर आपके शरीर को हर जीवन के बाद हमें दस और जीवन चाहिए, इतनी वासनाएं हम दौड़ाना है, तो स्थान की जरूरत पड़ेगी, स्पेस की। लेकिन अगर पैदा कर लेते हैं। आपके मन को दौड़ाना है, तो स्थान की कोई भी जरूरत नहीं; और मजा यह है कि पूरे जीवन हम वासनाओं को पूरा करने की समय काफी है। इसलिए आप सपने में भी दौड़ सकते हैं। सपने में कोशिश करते हैं और आखिर में पाते हैं, कोई वासना पूरी नहीं हुई, | कोई स्पेस नहीं होती, लेकिन टाइम होता है, समय होता है। सपने मरते क्षण हम और भी वासनाओं को जिंदा कर लिए हैं। जन्म के | में भी दौड़ सकते हैं। आरामकुर्सी पर लेटकर आंख बंद करके भी समय जितनी वासनाएं हमारे पास होती हैं, मृत्यु के समय तक उनमें अनंत-अनंत यात्राएं कर सकते हैं। वे यात्राएं वासना की यात्राएं हैं से एक भी कम नहीं होती, यद्यपि बहुत बढ़ जाती हैं। तब मरते क्षण और समय में घटित होती हैं। और जन्म की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि वासना है, तो और महावीर से कोई पूछता है कि जब समाधि उपलब्ध हो जाती है, जीवन चाहिए। और जीवन पुनर्जन्म बन जाता है; और जीवन को | तो हमारे भीतर से कौन-सी चीज गिर जाती है? तो महावीर कहते पाने की इच्छा पुनर्जन्म बन जाती है। हैं, समय, टाइम। समय गिर जाता है। क्योंकि जिस व्यक्ति के - और कृष्ण कहते हैं, पुनर्जन्म ही दुख का घर है। भीतर समाधि फलित होती है, उस व्यक्ति के भीतर वासना की दौड़ पुनर्जन्म होता है जीवन की आकांक्षा से; जीवन की आकांक्षा होती नहीं रह जाती। और उस दौड़ का जो मार्ग है, वह गैर-अनिवार्य हो है, वासना को तृप्त करने के लिए समय की मांग से। तो अगर ठीक जाता है, वह गिर जाता है। से समझें, तो पुनर्जन्म का सूत्र या दुख का सूत्र, वासना है, तृष्णा है, । इसलिए समाधि की परिभाषा जगत में कहीं भी की गई हो, तो डिजायर है। अगर कोई भी वासना नहीं है, तो आप कहेंगे कि कल | एक बात उस परिभाषा में अनिवार्य रूप से है। किसी देश में, किसी की अब मुझे कोई जरूरत न रही, देन टाइम इज़ नाट नीडेड। काल में, किसी महाजन ने परिभाषा की हो, परिभाषा में और बातें जीसस से कोई पूछता है कि तुम्हारे मोक्ष में सबसे खास बात अलग हों, लेकिन एक बात हमेशा अनिवार्यरूप से समान है और क्या होगी? शायद पूछने वाले ने सोचा होगा कि जीसस कहेंगे, | वह यह है कि समाधि समयातीत है, कालातीत है, बियांड टाइम है। प्रभु का दर्शनं होगा, परम आनंद होगा, मुक्ति होगी, शांति होगी। पुनर्जन्म हमारी मांग है। हम कहते हैं, और जीवन चाहिए; ऐसा कछ कहेंगे। लेकिन जीसस ने जो जवाब दिया है. वह बहत क्योंकि बहुत कुछ अधूरा रह गया है, अनफुलफिल्ड, उसे पूरा हैरानी का है। जीसस ने कहा, देयर शैल बी टाइम नो लांगर-वहां करना है। जो मकान बनाना चाहा था, उसकी मंजिलें पूरी नहीं हो समय नहीं होगा। पाईं। और जो नाव चलाई थी किसी गंतव्य के लिए, उसने अभी शायद ही सुनने वाले की समझ में आया हो! आपने भी अगर | किनारा ही छोड़ा है, दूसरा किनारा नहीं मिला। जो-जो सोचा था, पूछा हो कि मोक्ष में क्या होगा, और अगर जीसस या कृष्ण जैसा कर लेंगे, वह सब अधूरा है, इनकंप्लीट है। व्यक्ति कहे, वहां समय नहीं होगा, तो आपकी भी समझ में नहीं इस संबंध में एक बात आपको खयाल दिलाऊं, तो आसानी पड़ेगा। | होगी समझ लेना कि यह वासना समय की मांग कैसे बनती है, और समय नहीं होगा, इसका अर्थ यही है कि वहां कोई वासना नहीं | समय की मांग पुनर्जन्म कैसे बन जाता है, और पुनर्जन्म दुख का है, जिसके लिए समय की जरूरत पड़े। वासना नहीं होगी, समय घर क्यों है! नहीं होगा. तो वहां पनर्जन्म नहीं होगा। वहां कल होगा ही नहीं। वहां । दिनभर आप बहुत कुछ करते हैं; सांझ होते-होते सब कुछ सिर्फ आज ही होगा। शायद आज कहना भी ठीक नहीं है; अभी ही | | अधूरा ही होता है; कभी पूरा नहीं होता। अगर कोई आपसे इसी होगा; जस्ट दिस मोमेंट, बस यही क्षण होगा। और यह क्षण अनंत | समय पूछे कि मरने को तैयार हो? कोई काम करने की जरूरत तो होगा। इस क्षण का कोई ओर-छोर नहीं होगा। यह क्षण कहीं समाप्त | नहीं है? तो आप कहेंगे, थोड़ा रुको। बहुत से काम अधूरे हैं, जरा नहीं होगा, और कहीं प्रारंभ नहीं होगा। समय वहां नहीं होगा। | पूरे कर लूं। शायद ही वह आदमी मिले, जो कहे कि सब पूरा है, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 मैं मरने को तैयार हूं। सब काम पूरा है, मैं मरने को तैयार हूं। | दिखाई पड़ा था, वह धोखा सिद्ध होता है। एक मित्र कल ही आए थे; सालभर पहले भी आए थे। सालभर वे बोले, फिर भी एक वर्ष का मौका मुझे और दें। मैंने कहा, मैं पहले वे कहते थे कि मेरे बड़े लड़के की शादी मुझे करनी है; कम | मौका देने वाला कौन हूं! जब तुम्हीं मौका मांग रहे हो, तो परमात्मा से कम एक लड़के की शादी कर लूं, फिर संन्यास लूं। मैंने उनसे तम्हें मौका दिए चला जाएगा। उसने बहत-बहत जन्मों तक तम्हें कहा कि संन्यास से कोई बाधा नहीं पड़ती। लड़के की शादी मजे मौका दिया है। अधैर्य नहीं किया। आगे भी मौका देता रहेगा। और से करना। और संन्यासी पिता जितने आशीर्वाद दे सकेगा विवाह | हर बार तुम यही करते रहे हो। के क्षण में, संसारी पिता नहीं दे सकेगा। पर वे बोले, आप कहते ___ काम बाकी रह जाते हैं, कुछ न कुछ बाकी रह जाता है। और हैं ठीक, लेकिन विवाह में और गैरिक वस्त्र पहनकर खड़ा होऊंगा, मन कहता है, बस इसे पूरा कर लो। लेकिन उसे पूरा करने में हम थोड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। बस, सालभर रुक जाएं। एक लड़के | दस नई और वासनाएं पैदा कर लेते हैं। वे अधूरी रह जाती हैं। इस का विवाह कर दूं, फिर चिंता नहीं बाकी लड़कों की। कम से कम | अधूरेपन की कोई सीमा नहीं आती। तो फिर अगले जन्म की मांग एक का मुझसे निपट जाए। जरूरी हो जाती है। वह विवाह हो गया। वे कल फिर आए थे। अब वे कहते हैं, | ___ मरते क्षण में भी जो अधूरा रह जाता है, उसी के कारण हमें दूसरे पत्नी राजी नहीं है। जरा रुकें। मैं पत्नी को समझा-बझा लं। आखिर जन्म को स्वीकार करना पड़ता है। मरते क्षण में जो पूरा करके मर उसे दुख देने से भी क्या फायदा है! मैंने उनसे पूछा, कब तक | सकता है, उसका अगला जन्म नहीं होगा। क्योंकि उसे मांग ही नहीं समझा पाएंगे आप? कितना समय चाहिए? उन्होंने कहा, जैसे रह जाएगी। जन्म का करिएगा क्या? उसका कोई उपयोग नहीं है। आसार हैं, उसे देखकर कम से कम सालभर तो लग ही जाएगा। समय की मांग बंद हो जाए, तो अगला जन्म नहीं होता। लेकिन मैंने उनसे कहा, मुझे कोई अड़चन नहीं है। आप ही रुकने को राजी समय की मांग तो बनी रहती है। हैं, तो मुझे क्या अड़चन हो सकती है। लेकिन ध्यान रखें, इस मन और बहुत अजीब लोग हैं हम। एक तरफ कहते हैं कि समय से जन्मों-जन्मों तक समय की मांग रहेगी और घटना नहीं घट बहत कम है. और दसरी तरफ कहते रहते हैं दिन-रात कि समय सकेगी। क्योंकि सालभर पीछे आप कहते थे, बस, एक सवाल है। काटे नहीं कटता! एक तरफ कहते हैं कि समय बहुत थोड़ा है हाथ अब भी कहते हैं, एक सवाल है। लेकिन यह साल और सवाल | में, और दूसरी तरफ निरंतर रोते रहते हैं कि समय कैसे काटें ? जरूर पैदा कर देगी। कुछ कारण होगा इस दुविधा का। दुविधा का कारण है। सवालों का अंत नहीं है। कामों का अंत नहीं है। समय चुक समय तो निश्चित कम है, क्योंकि वासनाएं बहुत हैं। और सब जाता है, वासना तो नहीं चुकती। समय तो चुक ही जाता है, कामना | | चीजें तुलनात्मक होती हैं। जब हम कहते हैं कि समय कम है, तो नहीं चुकती है। समय छोटा पड़ जाता है, कामना अनंत है। | उसका मतलब है किससे? वासनाओं से। जिसकी वासनाएं नहीं बुद्ध ने कहा है, कामना दुष्पूर है। उसे तुम पूरा नहीं कर सकते। | हैं, उसके पास तो समय बहुत है, उसका कोई अंत नहीं। और बुद्ध कहते थे, वह ऐसे बर्तन की तरह है, जो दोनों तरफ से खुला | जिसके पास वासनाएं बहुत हैं, समय बहुत छोटा है। फिर भी हो और तुम उसमें कुएं से पानी भरो। वह कभी भरेगा नहीं। इसलिए | वासनाओं वाला आदमी भी कहता है, समय काटे नहीं कटता, नहीं कि कुएं में पानी नहीं है। और इसलिए भी नहीं कि तुम्हारे भरने | क्योंकि वासनाओं को पूरा करते-करते भी वह पाता है कि वासनाएं के प्रयास में कोई कमी है। और इसलिए भी नहीं कि जब कुएं में | | पूरी नहीं होतीं। वासनाएं पूरी नहीं होतीं। सब तरह कोशिश कर बर्तन डूबता है, तो पानी नहीं भरता है। सब हो जाता है। कुआं है, | | लेता है और कोई वासना पूरी होती नहीं दिखाई पड़ती। तब वह पानी है, बर्तन बिलकुल ठीक है। तुम्हारी ताकत है, कुएं में डालते | | समय को भुलाने की कोशिश करता है। उसी को वह समय नहीं हो, बर्तन पानी में डूबता है, भरा हुआ दिखाई पड़ता है। खींचते हो, | कटता कहता है। इतने मनोरंजन के साधन खोजने पड़ते हैं समय बर्तन निकल आता है, पानी पीछे रह जाता है। वह दोनों तरफ से | को भुलाने के लिए। खुला हुआ है। दुष्पूर का यही अर्थ है। वासना को डालते हैं, वासना इधर वासना है, वह समय को चुका देती है। थोड़ा-बहुत समय खाली लौट आती है। मेहनत व्यर्थ हो जाती है। जो पानी भरा हुआ बचता है, तो वासना से थका हुआ मन उसको भुलाने के लिए Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना, समय और दुख. सिनेमागृह में बैठता है, चायघर में बैठता है, काफी हाउस में बैठता करूंगा, तो आपको पुनर्जन्म लेना ही पड़ेगा। और अगर एक जन्म है, ताश खेलता है-हजार उपाय करता है। समय को हम इस | | में नहीं कर पाए, तो आने वाले जन्म में भी क्या करिएगा? उसी को भांति नष्ट करते हैं, और मरते वक्त फिर वही मांग कि हमें फिर | | फिर पुनरुक्त करिएगा-वही बचपन, वही जवानी, वही बुढ़ापा, समय चाहिए। वे ही बीमारियां, वे ही रोग-वही सब होगा। और अनंत है परमात्मा का विस्तार। हम जितना मांगते हैं, हमें ___ मुल्ला नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया है। कोई मित्र उसके घर ठहरा है मिलता चला जाता है। और हर जीवन में हम वही पुनरुक्त करते और पूछता है नसरुद्दीन से कि नसरुद्दीन, अगर तुम्हें फिर से जन्म हैं, जो हमने पीछे किया था। मिले, या ऐसा समझो कि तुम्हारी उम्र कोई जादूगर फिर से कम कर कृष्ण इसे दुख क्यों कहते हैं? दुख यही है कि जो हम पाना | | दे और तुम्हें बच्चा बना दे, तो क्या तुम वे ही भूलें फिर से करोगे चाहते हैं, वह मिलता नहीं और मेहनत बहुत होती है। दुख नहीं जो तुमने इस जन्म में की, इस जीवन में की? होगा, तो क्या होगा! दुख का एक ही अर्थ है, जो मैं पाना चाहता | नसरुद्दीन ने कहा, वही करूंगा। लेकिन थोड़ा जल्दी शुरू था, वह नहीं मिला; और जो मैं नहीं पाना चाहता था, वह मिल | करूंगा; अनुभव के कारण। वे ही भूलें करूंगा, लेकिन थोड़े जल्दी गया है। दुख का और कोई अर्थ नहीं है। शरू करूंगा। क्योंकि इस बार बडी देर हो गई। कछ भी परा नहीं बुद्ध कहते थे, दुख का अर्थ है, जिसे हम खोजते थे, उसे खोज | हो पाया। जरा जल्दी शुरू करूंगा, तो शायद पूरा हो जाए। न पाए; और जिसे बचाना चाहते थे, वह खो गया। जिसके लिए । आपको हंसी आ सकती है नसरुद्दीन पर, लेकिन वही आदमी हम चले थे, वह मिला नहीं; और जो साथ लेकर हाथ में चले थे, आपके भीतर बैठा हुआ है। अगर आपको भी अभी कोई कहे कि वह भी उलटा खो गया! वासनाएं कोई पूरी नहीं होती हैं और जीवन | | लौटा देते हैं वापस, तो आप समझते हैं, आप क्या करेंगे? आप पूरा चुक जाता है। हाथ में जो अवसर लेकर चले थे समय का, वह | | फिर यही करेंगे। फिर-फिर यही हम करते ही रहे हैं। शायद अनुभव रिक्त हो जाता है; और जिसे पाने चले थे, उसकी कोई गंध भी नहीं। के कारण थोड़ा जल्दी शुरू करें, ताकि अंत में पूरा हो जाए, समय मिलती कि वह कहां है। मृत्यु में यही दुख गहन हो जाता है। काफी मिल जाए। और कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ेगा। दुख बहुत आयामी है। नसरुद्दीन मर रहा है। फांसी पर लटकाने के पहले ही पुरोहित एक आयाम तो यह है, जो मैंने कहा। दूसरा आयाम यह है, सब उससे कहता है, माफी मांग ले परमात्मा से, पश्चात्ताप कर ले। करते, सब पाते, चलते-दौड़ते वासनाओं के पीछे, हारते-जीतते, | | रिपेंट! नसरुद्दीन कहता है, पश्चात्ताप जरूर मेरे मन में बहुत है, भीतर कहीं भी ऐसा नहीं लगता, कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि शांति | लेकिन मेरे और आपके विचार में जरा-सा भेद है। शायद आप का एक क्षण, विश्राम का एक पल, आनंद की एक छोटी-सी | सोच रहे हैं, मैं उन पापों के लिए पश्चात्ताप करूं, जो मैंने किए। किरण भी कहीं अंकुरित होती हो भीतर। कहीं ऐसा नहीं लगता। | | और मैं उन पापों का पश्चात्ताप कर रहा हूं, जो मैं नहीं कर पाया। सदा ऐसा लगता है कि कल मिलेगा आनंद। आज तो दुख है, | | पश्चात्ताप मेरे मन में भी है। लेकिन बड़ा दुख हो रहा है कि जब कल मिलेगा आनंद। यह कल बहुत खतरनाक है, यह सिर्फ आज | | फांसी ही लगनी थी, तो वे पाप भी और कर लेता, जो छोड़े। और को भुलाने का उपाय है। आज इतना दुख से भरा है कि कल की | | जब इतने पापों के लिए जो कुछ होगा, थोड़ा और दंड मिलता, और आशा में ही हम उसे भुला सकते हैं। और मजा यह है कि कल, | क्या होने वाला था! फांसी से ज्यादा और क्या हो सकता है? बीते कल मैं भी हमने ऐसा ही किया था। और जिसे हम आज कह | ऐसा ही है मन। मरते क्षण में भी आप उन पापों के लिए पछताते रहे हैं, वह बीते कल में कल था। और कल भी हमने यही कहा था | रहेंगे, जो आप नहीं कर पाए। फिर पुनर्जन्म की यात्रा शुरू होगी। कि आने वाले कल में आनंद मिलेगा, और आज भी वही कह रहे | | क्योंकि आप ही मांग रहे हैं। और ध्यान रहे, परमात्मा वही दे देता हैं, और आने वाले कल में भी हम वही कहेंगे। और हर जन्म में | है, जो आप मांगते हैं। हमने यही कहा, अगले जन्म में, अगले जन्म में, आगे। ___ सदा ही हम वही नहीं मांगते, जो हमारे हित में है। अक्सर तो जो भी व्यक्ति आज को पोस्टपोन कर रहा है कल के लिए, वह हम वही मांगते हैं, जो हमारे हित में नहीं है। क्योंकि हम जो भी अगले जन्म की तैयारी कर रहा है। अगर आप कहते हैं, कल सोचते-विचारते हैं, वह आत्मघाती है, सुसाइडल है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 मरते वक्त शायद ही कोई मांगता हो कि अब मुझे और कुछ नहीं | है? वह जा चुका। सब बह चुका है। जिस शरीर को लेकर तुम मांगना है। मांग जारी रहती है। आखिरी क्षण, डूबते हुए मौत में भी | | आए थे, वह भी एक बहाव है। मांग जारी रहती है। वही मांग बीज बन जाती है। दैट डिजायर प्रतिपल आदमी का शरीर बह रहा है नदी की तरह। मन बह रहा बिकम्स दि सीड। वही बीज बन जाती है और फिर नए जीवन का | है नदी की तरह। और जो नहीं बह रहा है, उसका हमें कोई भी पता अंकुर फूटना शुरू हो जाता है। नहीं है। जो बह रहा है, उसी में हम बह रहे हैं। और पकड़ रहे हैं इस बीज से दुख क्यों मिलता है? और यह नया जन्म क्यों दुख लहरों को, बबूलों को। लहर और बबूले हाथ में आते हैं और टूट ले आता है? क्षणभंगुर होने के कारण। | जाते हैं। क्षणभर को दिखाई पड़ता है कुछ, दौड़ते हैं, खो जाता है। कृष्ण कहते हैं, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को...। दुख हाथ में लगता है। इस जगत में जो भी हम पा सकते हैं, वह क्षणभंगुर है, क्षणभर क्षणभंगुरता अस्तित्व का स्वभाव है। यहां कोई भी चीज थिर हाथ में होगा। पानी में जैसे बबूला उठ आए हवा का, बस, वैसा नहीं है। यद्यपि हम कोशिश करते हैं निरंतर कि सब कुछ थिर हो होगा। जब देखेंगे उसे, तो सूरज की किरणें उस पर इंद्रधनुष फैला | जाए। अगर मैं आपसे प्रेम करूं, तो मैं कहूंगा कि यह मेरा प्रेम रही होंगी। और जब हाथ से छुएंगे, तो वह फूट जाएगा। सोचा | | शाश्वत है, सदा रहेगा। सभी प्रेमी कहते हैं। और कोई चीज इस होगा, इंद्रधनुष को पकड़ लें हाथ में। नहीं मन में आता कि इंद्रधनुष | | जगत में शाश्वत नहीं है। मजा तो यह है कि जितनी देर लगेगी यह को ले आएं और घर के बैठकखाने में लगा दें? | बात कहने में कि यह प्रेम शाश्वत है और सदा रहेगा, और लेकिन जब इंद्रधनुष के पास पहुंचेंगे, तो वहां कुछ भी न | | चांद-तारे मिट जाएं, लेकिन यह प्रेम नहीं मिटेगा-शायद इतना मिलेगा। वहां कुछ है ही नहीं। वह जो इतना सुंदर धनुष खिंचा हुआ कहने में जितनी देर लगी, उतने में ही मिट गया हो। दिखता है आकाश के ओर-छोर, अगर जाएं उसके पास, तो वहां लेकिन कोशिश चलती है कि प्रेम को हम थिर बना लें, इटरनल कुछ भी नहीं है। केवल पानी के बिंदु, पानी की बूंदें और बूंदों से | बना लें। फिर दुख लगता है। क्योंकि जो थिर नहीं है, वह थिर नहीं गुजरती हुई सूरज की किरणों का जाल है। पास पहुंचकर कुछ भी | | हो सकता। जो क्षणभंगुर है, वह क्षणभंगुर रहेगा। वह उसका नहीं है वहां। अंतर-स्वभाव है। ठीक पूरे जीवन यही इंद्रधनुष की खोज है। और जब पहुंचते हैं | __इस जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वभाव क्षणभंगुर है। जवान रहना पास, तो पाते हैं, कुछ हाथ नहीं लगा। और हाथ जो लगता है, वह चाहें सदा, न रह पाएंगे। प्रसन्न रहना चाहें सदा, न रह पाएंगे। मजा केवल टूटा हुआ इंद्रधनुष है, पानी की बूंदें हैं। न वहां रंग हैं, न तो यह है कि अगर दुखी भी रहना चाहें सदा, तो न रह पाएंगे। दुख वहां सौंदर्य है, न वहां कुछ और है। खाली हाथ रह जाता है। | | भी क्षणभंगुर है। वह भी बदलता रहेगा। वह भी बदलता रहेगा। क्षणभंगुर सब कुछ है इस जगत में। एक क्षण होना है उसका, || | यहां सभी कुछ बदलता हुआ है, फ्लक्स है। और उस क्षण में हम उसे पाने निकलते हैं। जब तक हम पाने के | | - हेराक्लतु यूनान का बहुत विचारशील मनीषी कहता था, यू कैन करीब पहुंचते हैं, वह क्षण बीत चुका होता है। दुख हाथ लगता है। नाट स्टेप ट्वाइस इन दि सेम रिवर–एक ही नदी में दुबारा नहीं असफलता, विषाद, फ्रस्ट्रेशन हाथ लगता है। और इस जगत में | उतर सकते। क्योंकि जब तक उतरे, नदी बह गई। दुबारा कैसे कोई भी चीज क्षणभंगर से ज्यादा नहीं हो सकती। उतरिएगा? सच तो यह है कि हेराक्लतु मुझे मिल जाए, तो उससे बुद्ध कहते थे—जब भी कोई उनके पास आता, तो बुद्ध कहते कहूं कि यू कैन नाट स्टेप इन दि सेम रिवर ईवेन वंस—एक बार थे जाते वक्त उससे–कि ध्यान रखना, तुम जो मुझसे मिलने आए भी नहीं उतर सकते हो एक ही नदी में। क्योंकि पैर जब नदी की थे, वही तुम वापस नहीं लौट रहे हो। वह आदमी चकित होता। वह | | ऊपर की सतह छूता है, तो नीचे की नदी भागी जा रही है। पैर जब कहता, मैं वही हूं। आप कैसी बात कर रहे हैं! मैं ही आया था | | नीचे जाता है, ऊपर की सतह भाग गई! घड़ीभर पहले। आपसे बात की। अब वापस लौट रहा हूं। । एक ही पर्त, एक फीट पानी की पर्त को भी एक साथ नहीं छुआ बुद्ध कहते, भ्रांति में हो तुम। इस जगत में सभी कुछ क्षणभंगुर जा सकता। सब भागा जा रहा है। और पूरा जीवन नदी की तरह है। है। क्षणभर पहले जिस मन को लेकर तुम आए थे, अब वह कहां इस भागने में हम स्थायी घर बनाने की कामना करते हैं। दुख 80 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना, समय और दुख * बनेगा, घर नहीं बनेगा; दुख का घर बनेगा। कसम नहीं खाता कि मैं कसम खाता हूं कि सच ही बोलूंगा। क्योंकि हमारा सारा दुख इस बात से पैदा होता है कि हम, थिर जो नहीं । | क्वेकर कहते हैं, जिसने कसम खाई, वह बचेगा क्षणभर बाद? है, उसको सब जगह थिर कर लेना चाहते हैं। कहते हैं, मेरा प्रेम सब बहा जा रहा है। इस बहाव में हम सब कोशिश में लगे हैं थिर रहेगा। मां कहती है कि मेरा बेटा है; यह प्रेम सदा रहेगा। | ठहर जाने की, ठहर जाएं! बस, दुख पैदा होगा। तंबू गाड़ रहे हैं लेकिन कल एक नई लड़की को लेकर बेटा घर लौट आता है और | | बहती हुई नदी की धार पर। फंसेंगे मुसीबत में। तंबू में डूबेंगे खुद पता चलता है, मां उस बेटे की आंखों में अब दिखाई ही नहीं पड़ती! | और। खूटियां नहीं गाड़ी जाती पानी पर और न तंबू खड़े किए जाते धक्का लगता है। दुख आता है। हैं। और स्थिर तंबू, शाश्वत तंबू खड़े करने की कोशिश चलती है, लेकिन दुख के लिए बेटा जिम्मेवार नहीं है। दुख के लिए मां की | वह कामना जिम्मेवार है, जो सोचती थी कि प्रेम थिर रहेगा। इस । दुख, क्षणभंगुर जीवन के स्वभाव में शाश्वत को बनाने की बेटे ने जब उसके आंचल में सिर रखकर मुस्कुराया था और प्रेम से चेष्टा का फल है। अनित्य है जो, उसमें नित्य को खड़ा करने की उसे देखा था, वह अभी भी उसी को थिर रखने की कोशिश में लगी जो वासना है, वही दुख बन जाती है। लेकिन जो क्षण को क्षण जैसा है। वह वासना अब दुख देगी। जान ले, उसके दुखी होने का फिर कोई कारण नहीं। क्योंकि वह आज जिस पत्नी को लेकर यह घर में चला आया है, उसकी | | आकांक्षा ही नहीं करता उसकी, जो विपरीत है। उमंग का कोई अंत नहीं है, उसके पैर जमीन से नहीं लगते हैं। कृष्ण कहते हैं, वे जो परम सिद्धि को प्राप्त होते महात्माजन, मुझे क्योंकि आज वह रानी हो गई है। और इस यवक ने उसे कहा है कि प्राप्त होकर क्षणभंगुर पुनर्जन्म को उपलब्ध नहीं होते। तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। और मैं मर जाऊं, लेकिन क्योंकि जिसने भी प्रभु को जाना—प्रभु को अर्थात शाश्वत को, सोच भी नहीं सकता कि कभी मेरे प्रेम में क्षणभर की भी, कणभर नित्य को, इटरनल को, वह जो सदा है वह फिर क्षणभंगुर की की भी कमी होगी। लेकिन कल वही पाएगी कि उसके साथ चलते कामना नहीं करता। जिसे ठोस लोहे के महल मिल गए हों, वह रास्ते पर किसी और स्त्री पर उसकी आंख गई है। और उस क्षण में | | ताश के पत्तों के घरों में रहने की कोशिश नहीं करता। वह उसे भूल ही गया है कि वह पास भी है। ___ मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। ऐसे तो लोहे के ठोस घर मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है अपनी पत्नी के साथ। भी ताश के ही घर हैं। समय का ही फासला है। ताश का घर, हवा अभी सात ही दिन हुए हैं विवाह हुए। और एक सुंदर युवती उसे का एक झोंका आता है, और गिर जाता है। लोहे के घर दिखाई पड़ती है, और उसकी आंखें टकटकी लगाकर रह जाती हैं। लाख-करोड़ झोंके आएंगे, तब गिरेगा। क्वांटिटी का फर्क है, उसकी पत्नी उसे बीच-बीच में हिलाती है, जैसा कि सभी पत्नियां क्वालिटी का कोई फर्क नहीं है। चाहे रेत का घर बनाएं और चाहे पतियों को हिलाती रहती हैं। क्या कर रहे हो? भूल गए क्या कि सीमेंट-कांक्रीट का; रेत का घर एकाध झोंके में गिर जाएगा, अब तुम विवाहित हो! नसरुद्दीन ने कहा, ऐसे वक्त में तो बहुत | सीमेंट-कांक्रीट का घर गिरने में जरा ज्यादा देर लेगा। बस, देर का ज्यादा याद आता है कि अब मैं विवाहित हूं! भूल नहीं गया हूं। ऐसे | ही फर्क है, टाइम का ही फर्क है। वह भी गिर जाएगा। क्योंकि क्षण में ही काफी याद आता है कि नाउ आई एम मैरिड! सीमेंट-कांक्रीट भी रेत से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। अभी सात दिन पहले इस आदमी ने क्या कहा था? नहीं, इसका | लेकिन जिसने एक कण भी अनुभव कर लिया हो उसका, जो कोई कसूर नहीं है। कुछ भी थिर नहीं है इस जगत में। कहे हुए शाश्वत है, उसके लिए सारा जगत उसी क्षण स्वप्नवत हो जाता है। वचन थिर नहीं, दिए गए वायदे थिर नहीं, क्योंकि देने वाला आदमी | | फिर उसमें उसकी कामना नहीं रह जाती है। ही थिर नहीं है। बुद्ध को जिस दिन अनुभव हुआ समाधि का, उनके मुंह से जो ईसाइयों का एक संप्रदाय है, क्वेकर। क्वेकर किसी को प्रामिस पहला वचन निकला, वह यह था कि हे मेरे मन, अब मैं तुझे विश्राम नहीं देते; वे किसी को वचन नहीं देते। क्योंकि वे कहते हैं, वचन | | देने को तैयार हूं, क्योंकि अब मुझे और जीवन के घर बनाने की देने वाला ही जब थिर नहीं है, तो वचन हम क्या दें! क्वेकर जरूरत नहीं पड़ेगी। नाउ आई कैन रिटायर यू। हे मेरे मन, अब तुम्हें अदालत में कसम नहीं खाते; ओथ नहीं लेते। अदालत में क्वेकर मैं छुट्टी दे सकता हूं, क्योंकि अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* मन तो राज है; बनाता है भवन। बुद्ध कहते हैं, अब कोई जरूरत | | ताकि वह अपनी जगह पर पहुंच जाए। नहीं रही और नए घर बनाने की जीवन के। अब मैंने उसे जान जब आप क्रोध में तन जाते हैं, तत्काल आपको पश्चात्ताप की लिया, जो शाश्वत घर है-दि इटरनल होम। अति पर जाना पड़ता है। यह सिर्फ अपनी जगह पर वापस लौटने के उसकी प्रतीति हो, उसी को कृष्ण कहते हैं, मुझे पाकर वे | | लिए है, दि स्टेटस-को। वह जो पहली स्थिति थी क्रोध के पहले महात्माजन फिर क्षणभंगुर पुनर्जन्म की वासना नहीं करते। और | आपके मन की, उस तक आने के लिए। क्रोध कर लिया, एक सीमा वासना नहीं, तो पुनर्जन्म की पुनरुक्ति नहीं। क्योंकि हे अर्जुन, | | में खिंच गए। अब पश्चात्ताप कर लिया, अब दूसरी तरफ चले गए। ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावृत्ति वाले हैं, रिपिटीटिव हैं। | फिर क्रोध-पश्चात्ताप दोनों के बीच डोलते-डोलते अपनी जगह यह बहुत मजे का वचन है। इसे हम अपनी तरफ से समझें, तो | वापस आ गए। नाउ यू कैन बी एंग्री अगेन-अब आप फिर से क्रोध आसानी हो जाएगी। क्या आपको पता है, सभी वासनाएं | कर सकते हैं। क्योंकि आपने पुरानी स्थिति पा ली, जहां आप क्रोध रिपिटीटिव हैं? आप बहुत-सी वासनाएं नहीं कर रहे हैं, एक-एक के पहले थे। उस स्थान पर आप पुनः पहुंच गए। वासना को हजार-हजार बार दोहरा रहे हैं। और बड़ा मजा यह है | आप शायद सोचते होंगे, पश्चात्ताप इसलिए करते हैं, ताकि कि हर बार दोहराकर कहते हैं, कुछ नहीं पाया। और चौबीस | दुबारा क्रोध न करें, तो आप गलती में हैं; आपको जीवन के सत्यों घंटेभर बाद फिर दोहराने को तैयार खड़े हैं। बड़े अजीब हैं! का कोई भी पता नहीं है। पश्चात्ताप आदमी इसीलिए करता है, अपनी भी याद नहीं रहती कि चौबीस घंटे पहले क्या कहा था! | ताकि फिर क्रोध कर सके। यह बहुत उलटा लगेगा। लेकिन कितनी बार आपने क्रोध किया है? और हर क्रोध के बाद कितनी | | आपका अनुभव भी यही कहेगा। बार आप पछताए हैं ? शायद क्रोध से ज्यादा पछताए होंगे। क्योंकि | तो मैं तो आपसे कहूंगा, अगर क्रोध से मुक्त होना हो, तो अब आदमी एक दफे क्रोध करता है, तो पीछे पांच-सात दफे पछताता | की बार क्रोध करना, पश्चात्ताप मत करना। फिर देखें, क्रोध दुबारा है। लेकिन यह पछताना क्रोध के आने में रुकावट नहीं बनती। | आता है कि नहीं! अगर पश्चात्ताप से बच गए, तो फिर क्रोध को बल्कि जो जानते हैं, वे कहते हैं, यह पछतावा फिर से क्रोध करने | | दोहरा न सकेंगे, क्योंकि क्रोध के लिए पुरानी स्थिति उपलब्ध नहीं की तैयारी है। होगी। यह ऐसे ही है, जैसे मैं वृक्ष की एक शाखा को अपने हाथ में | | लेकिन पश्चात्ताप से बचना उतना ही मुश्किल है, जितना क्रोध नींचकर छोड़ दं, तो वह ठीक से एकदम अपनी जगह पर नहीं से बचना मुश्किल है। दोनों अनकांशस हैं, दोनों अचेतन हैं। आप पहुंचेगी। जब मैं उसे छोडूंगा, तब वह अपनी जगह से आगे निकल कहते हैं, क्या करें, क्रोध आ ही गया! फिर ऐसे ही, क्या करें, जाएगी. दसरी एक्सटीम पर। अगर मैं वक्ष की शाखा को खींचकर | पश्चात्ताप आ ही गया! दोनों एक साथ चलते रहेंगे। छोडूं, तो वह ठीक उसी जगह नहीं पहुंच जाएगी, जहां से मैं उसे | लेकिन क्रोध करके आपने कुछ पाया है? कुछ मिला? कोई रत्न खींच लाया था। जब में उसे छोडूंगा, तो वह अपनी जगह से और | हाथ लगा? कहेंगे, कुछ भी नहीं पाया; सिर्फ राख हाथ लगती है; आगे निकल जाएगी उतनी ही दूर, जितनी दूर मैं इस तरफ खींच | | और अपना ही पतित मन हाथ लगता है। गड्ढे में गिर गए। अपने लाया था। क्यों? ही हाथ से कीचड़ से भर गए। ऐसा हो जाता है। वह अपनी जगह पर लौटने की तैयारी कर रही है। फिर वापस | | लेकिन दुबारा फिर क्रोध क्यों करते हैं? क्योंकि वासना आएगी। फिर थोड़ी दूर इस तरफ आएगी, फिर वापस जाएगी। फिर | रिपिटीटिव है। चौबीस घंटे में फिर भूल जाते हैं। फिर वासना मांग थोड़ी दूर उस तरफ जाएगी। इस तरह कंपते-कंपते, कंपते-कंपते | करती है। कामवासना से भरता है चित्त। वह वापस अपनी जगह पर पहुंच जाएगी। अगर वैज्ञानिक हिसाब से सोचें, तो एक आदमी साधारणतः यह जो कंपन है, यह कंपन मैंने उसे खींचकर जो ताकत अपने | अपने जीवन में चार हजार बार संभोग करता है। साधारणतः। यह हाथ की दे दी थी, उसको फेंकने के लिए है; अपने से बाहर फेंकने | साधारण आदमी की बात कर रहा हूं, असाधारण का हिसाब के लिए है—जस्ट ट्रेंबलिंग। यह उस ऊर्जा को बाहर फेंक रही है | लगाना मुश्किल है। बिलकुल कामन आदमी, साधारण आदमी वह शाखा, जो मेरे हाथ ने खींचकर तनाव के द्वारा उसे दे दी थी, | चार हजार बार अपने जीवन में संभोग करता है। और चार हजार 82 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना, समय और दुख * बार करने के बाद भी, नहीं करना चाहता, ऐसा नहीं है। नहीं कर मांगता है, जो वह पीछे अनेक दफे मांग चुका है। पाता, यह दूसरी बात है। करना तो चाहता ही है। महावीर के पास कोई भी साधक आता, तो वे उससे कहते थे, मुल्ला ने आखिरी-आखिरी उम्र में, सत्तर साल में फिर से शादी | इसके पहले कि मैं तुझे साधना में उतारूं, तेरे पिछले जन्मों की करने का विचार किया। बेटों ने समझाया, बेटों के बेटों ने समझाया | | याददाश्त में उतारना जरूरी है। वह साधक कहता, उससे क्या कि अब ऐसा मत करिए। और बड़ी कठिनाई यह थी कि जिससे | | लेना-देना? महावीर कहते, उसके बिना तू कभी समाधि को नहीं शादी करने का तय किया, वह केवल बीस बरस की लड़की थी। उपलब्ध हो सकेगा। तो सबने कहा, ऐसा मत करिए। पर वासना को रोको अगर, तो तो महावीर उसे पहले उसके पिछले जन्मों की याददाश्त में ले और क्रुद्ध होकर, और उफान खाकर उबलती है। मुल्ला कहने | | जाते। और याददाश्त करते-करते ही, पिछले जन्मों में लगा, मेरे घर के, इनको मैंने पैदा किया और ये मेरे दुश्मन हो गए! उतरते-उतरते ही वह आदमी ट्रांसफार्म हो जाता, रूपांतरित हो तुमसे में ज्यादा जानता हूं। जाता। महावीर उससे कहते कि बोल, क्या तूने देखा? तो वह आखिर कोई रास्ता नहीं था। बच्चे ही थे घर में। सभी उससे तो | कहता कि अब कुछ छोड़ने को बचा नहीं, क्योंकि सब मैं अनेक कम उम्र ही थे। उसके किसी मित्र को खोजा, बूढ़े आदमी को | | बार कर चुका हूं और फिर वही मांग कर रहा हूं। और इतनी बार खोजा। वह गांव का धर्मगुरु था। उसे लाए। उस धर्मगुरु ने करके जब नहीं पाया, तो अब भी करके पा नहीं सकंगा। नहीं, मन ीन से कहा, नसरुद्दीन, थोड़ा तो सोचो। अपना ही सोचो, अब मेरा खाली है। अब मैं ध्यान के लिए तत्पर हैं। दूसरे का मत सोचो। यह सत्तर साल की उम्र में बीस साल की | | तो महावीर ने अनिवार्य कर दिया था हर साधक के लिए, पहले लड़की से शादी करना खतरनाक हो सकता है। मृत्यु भी हो सकती | | जाति-स्मरण-रिमेंबरिंग आफ पास्ट लाइव्स-और फिर ध्यान। है। नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर दूसरी कर लेंगे! । महावीर की जगत को जो सबसे बड़ी देन है, वह जाति-स्मरण -- उसने समझा कि लड़की की मृत्यु! उसने कहा, फिर दूसरी कर है, अहिंसा नहीं। अहिंसा बहुत पुरानी बात है। सदा से लोग कहते लेंगे। इसमें इतनी चिंता की क्या बात है? वह बूढ़ा समझा रहा था रहे हैं। उसमें कुछ महावीर का नया नहीं है। पर महावीर की जो कि तुम मर सकते हो, इस उपद्रव में मत फंसो। नसरुद्दीन बोला, | मौलिक, ओरिजिनल कांट्रिब्यूशन है मनुष्य को, वह है तो दूसरी कर लेंगे। सत्तर साल में भी नहीं जाती वह बात। | जाति-स्मरण की प्रक्रिया, पिछले जन्म की याददाश्त। __ अमेरिका का, कुछ दिनों पहले, एक बहुत बड़ा, सुप्रीम कोर्ट | और एक बार पिछले जन्मों की याददाश्त आ जाए, तो आप खुद का प्रधान न्यायाधीश था, जज लिन्डसे। वह जब नब्बे साल का हो | ही कहेंगे, यह मैं क्या कर रहा हूं? एक जन्म में चार हजार दफे गया, तो निकल रहा था एक रास्ते से अपने मित्र के साथ। वह मित्र संभोग किया; और हजारों जन्म हो चुके, करोड़ों बार संभोग भी कोई अस्सी साल का था। एक सुंदर कुमारी रास्ते से निकली, | किया; और अब तक कुछ पाया नहीं। अब फिर आज संभोग करना लिन्डसे खड़ा हो गया। नब्बे साल का बूढ़ा आदमी। उसने लड़की | | है? फिर आज संभोग में उतरना है? क्या फिर भी उतर पाएंगे? को गौर से देखा और अपने साथी से कहा, मन होता है, काश मैं | __ कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद फिर से सत्तर साल का हो सकता! कहा, काश मैं फिर से सत्तर मन कहे कि पता नहीं, अब तक न हुआ हो अनुभव आनंद का, साल का हो सकता। एकाध बार और। कह सकता है मन कि क्या पता, अब तक न हुआ उसका मित्र थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि सत्तर साल के ? | | हो, एकाध बार और। लेकिन मुश्किल हो जाएगा कहना। अगर तो लिन्डसे ने कहा, सत्तर साल का जब तक मैं था. तब तक मेरे | इतना याद आ जाए, तो मुश्किल हो जाएगा। शरीर में वासना भलीभांति दौड़ रही थी। अब सब राख रह गई है। __जीवन पुनरुक्ति है। इसलिए पूरब ने जीवन को एक वर्तुल, चक्र नब्बे साल का आदमी भी सत्तर साल का होना चाहता है! नब्बे | | की तरह पाया है। वह जो भारत के ध्वज पर अशोक चक्र है, वह साल के आदमी के लिए सत्तर साल भी जवानी ही मालूम पड़ेगी। | पता नहीं नेहरूजी ने चुन तो लिया, उन्हें पता भी था कि नहीं कि यह जो हमारा चित्त है पुनरुक्ति की मांग करने वाला, यही चित्त | | वह संसार का चित्र है। संसार को हमने एक व्हील, एक गाड़ी के पुनर्जन्म को मांगता। और यही चित्त फिर पुनर्जन्म में फिर वही चक्के की तरह समझा है। और इसलिए समझा है कि गाड़ी के 83 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 चक्के में जो आरा अभी ऊपर दिखाई पड़ रहा है, जो स्पोक ऊपर | न हों। और यह भी हो सकता है कि हमने देखे भी हों, तो हम भूल दिखाई पड़ रहा है, वह थोड़ी देर में नीचे चला जाएगा, और फिर | | गए हों; हमारी स्मृति बड़ी कमजोर है। ऊपर आ जाएगा। वे ही आरे बार-बार घूमते रहेंगे। वे ही वासनाएं | | वोल्तेयर की किसी मामले में बहुत बदनामी हो गई थी फ्रांस में। बार-बार चक्के कि तरह घूमती रहेंगी। वे ही वृत्तियां बार-बार | तो वोल्तेयर के मित्रों ने कहा कि कुछ उपाय करो। इस बदनामी को पुनरुक्त होती रहेंगी। | मिटाने का कुछ इंतजाम करो। कोई वक्तव्य दो। वोल्तेयर ने कहा, जीवन एक चक्र है। संसार शब्द का अर्थ ही होता है, दि व्हील, | | पंद्रह दिन हो गए बदनामी हुए, लोग अब तक भूल भी चुके होंगे। चक्र, जो घूमता रहता है। उसमें कुछ भी नया नहीं है। इस संसार | मेरे वक्तव्य से नाहक फिर याद आ जाएगी! जाने दें। . में कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि इस संसार की पूरी व्यवस्था ही यही है सच। स्मृति ही कितनी है! पुनरुक्ति की है, रिपीटीशन की है। लेकिन हर बार ऐसा लगता है एक आदमी मेरे पास आए। बहुत विचारशील हैं, सुशिक्षित हैं। कि कुछ नया हो रहा है। | एक राज्य के शिक्षा मंत्री हैं। मुझसे उन्होंने कहा कि मुझे न परमात्मा जब कोई नया युवक प्रेम में पड़ता है, तो आपको पता है, वह की तलाश है, न किसी आत्मा की खोज, न मुझे मोक्ष चाहिए। मैं सोच सकता है कि पहले भी किसी ने प्रेम किया होगा जमीन पर? | | आपके पास सिर्फ इसलिए आया हूं कि मुझे नींद नहीं आती। अगर कभी नहीं। पहली दफा प्रेम घट रहा है! और जब पहली दफे कोई | मुझे नींद आ जाए, तो मैं आपका परम ऋणी रहूंगा। बस मुझे इतना कवि कोई कविता गुनगुनाता है, तो वह मान सकता है कि कोई और | ही कुछ ध्यान करवा दें कि मुझे नींद आने लगे। भी कवि हुआ होगा कभी? नहीं मान सकता। यही नहीं मानने के __ मैंने कहा, यह तो बहुत ही आसान है। नींद आने से ज्यादा लिए तो बेचारा कहता है कि पुराने काव्य में क्या रखा है! नए काव्य | | आसान और क्या बात हो सकती है! सब भांति सोए हुए आदमी की बात ही और है। यह काव्य ही और है। | को नींद लगवा देना कोई कठिन बात है। जगाना मुश्किल है! आप जब कोई नया विचारक एकाध सूझ की बात करता है, तो शायद | | तो ऐसे काम के लिए आए, जो हो जाएगा। पर मैंने कहा कि ठीक सोचता है, बड़ा मौलिक, बहुत ओरिजिनल बात कह रहा है। वही | कह रहे हैं, आपको कुछ और नहीं, सिर्फ नींद चाहिए? उन्होंने भूल; वही भूल। जब कोई क्रांतिकारी खड़े होकर कहता है कि | कहा, बस, इसी पर मेरे प्राण अटके हैं। ऐसा हो जाता है रात दुनिया को बदल देंगे; नई दुनिया चाहिए; तो उसे पता नहीं कि यह | जागते-जागते कई दफे कि सिर फोड़ लूं, मर जाऊं। यह क्या कर बात हजारों दफे आदमी कह चुका है। रहा हूं! सब सो रहे हैं और मैं जग रहा हूं! मैंने तो सुना है, अदम और ईव, जब पहली दफा इदन के बगीचे और बड़ा मजा यह है कि जगने वाले को तकलीफ इससे जरा से परमात्मा ने उनको निकाला, तो दरवाजे पर उन्होंने जो पहला कम होती है कि वह जग रहा है, इससे जरा ज्यादा होती है कि सब शब्द कहा, वह यह कहा कि नाउ वी आर पासिंग श्रू ए सो रहे हैं! अगर सब जग रहे हों...। रेवोल्यशन हम एक क्रांति से गजर रहे हैं। पहले आदमी ने जो मैंने उन्हें कहा. तो एक बहत छोटा-सा प्रयोग कर लें। इतना पहली बात कही अपनी पत्नी से, वह यह थी कि अब हम एक बड़ी छोटा-सा प्रयोग कर लें रात सोते वक्त। अब तक आपने सोने की क्रांति से...। और सच, इससे बड़ी क्रांति क्या हो सकती है, स्वर्ग कोशिश की है और नींद नहीं आई। आज से आप जगने की के दरवाजे से निकाला जाना! कोशिश करें, सोने की नहीं। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा! वैसे लेकिन क्रांतिकारी सोचता है कि मुझसे पहले कोई क्रांतिकारी | ही तो नींद नहीं आती, और जगने की कोशिश! मैंने कहा कि मैं नहीं हुआ। सभी क्रांतिकारी ऐसा ही सोचते रहे हैं। क्रांति से पुरानी || सिर्फ आपके गणित को उलटा कर रहा हूं। आप अब तक सोने की चीज दुनिया में खोजनी मुश्किल है, दि ओल्डेस्ट। और मौलिक कोशिश करते रहे और नींद नहीं आई। मैं कहता हूं, आप जगने की होने का दावा इतना सनातन है कि सिर्फ नासमझ कर सकते हैं। कोशिश करें। नींद न आ पाए, इसका खयाल रखें। जैसे ही नींद समझदार कोई मौलिक होने का दावा नहीं कर सकता। आए, पानी छिड़कें, उठकर खड़े हो जाएं, झटका मारें, व्यायाम कुछ भी नया नहीं है। लेकिन जब नया आरा ऊपर आता है, तो | | करें; लेकिन नींद न आने दें। बड़ा नया मालूम पड़ता है। हो सकता है, हमने दूसरे आरे देखे ही वे तीसरे-चौथे दिन मेरे पास आए। कहने लगे, क्या गजब कर 84 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ वासना, समय और दुख & दिया! ऐसी नींद आ रही है, कि घोड़े बेचकर सो रहे हैं। लेकिन | | आ जाता है। सिर्फ नींद आ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा! उन्होंने मुझसे कृष्ण कहते हैं, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक रिपिटीटिव हैं, कहा, सिर्फ नींद आ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा! मैंने उनसे | | | पुनरावर्ती हैं। वापस लौट-लौटकर वही-वही होता रहता है, कहा, चार दिन पहले आप कहते थे, न मुझे ईश्वर चाहिए, न मोक्ष, वही-वही होता रहता है। न आत्मा। सिर्फ नींद आ जाए, सब कुछ आ गया। और अब आप नीत्शे बहुत अदभुत बात कहता था इस संबंध में, किसी ने ही चार दिन बाद मुझसे कह रहे हैं कि सिर्फ नींद आ रही है और | | उसकी सुनी नहीं। मानने जैसी भी नहीं; थोड़ी घबड़ाने जैसी भी है। कुछ नहीं हो रहा है! लेकिन भारतीय प्रतिभा उसकी बात को समझ सकती है। नीत्शे __ आदमी की स्मृति इतनी कमजोर है। कुछ भरोसा नहीं कि आप कहता था, ऐसा भी नहीं है कि पहले कोई दूसरे लोग हुए हैं; हम जो अभी जान रहे हैं, क्षणभर बाद भी जान सकेंगे! भूल जाएंगे। ही लोग! और ठीक ऐसा ही जगत हम बार-बार दोहराते रहे हैं; इसलिए हमें नया मालूम पड़ता है कि देखो, यह कितनी नई बात है। हम ही लोग! अगर नीत्शे को समझना हो, तो ऐसा समझें। यह अगर कृष्णमूर्ति कहते हैं कि कोई गुरु नहीं, तो लगता है, बहुत | | सभा इस जमीन पर आज जो हो रही, आज ही नहीं हो रही। नीत्शे नई बात है। सभी गुरुओं ने सदा यही कहा है। असल में इस दुनिया | | कहता था, यह सभा बहुत बार इन्हीं लोगों को लेकर, इसी बोलने में कोई आदमी गरु हो ही नहीं सकता. जिसको इतना भी पता न हो | वाले को लेकर. इन्हीं सनने वालों को लेकर कि बिना गुरु के ज्ञान हो सकता है। गुरु को तो पता होता ही है।। | घबड़ाने वाली है यह बात, घबड़ाने वाली बात है। लेकिन जगत शिष्य को पता नहीं होता। उसकी बात अलग है। उसको कहने से इतना रिपिटीटिव है कि हो सकता है, नीत्शे भी सही हो। इसमें कोई भी पता नहीं होता। उसको कहे चले जाओ। शिष्य से अगर कहो | अड़चन नहीं है। चीजें इतनी दोहरती हैं बार-बार, तो यह हो सकता कि गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं। ज्यादा कहो, तो वह तुम्हीं को | | है कि हम बहुत बार यही लोग, इसी भांति, इसी जमीन के टुकड़े गुरु बना लेता है कि ठीक है, आप ही हमारे गुरु हुए और यही पर बहुत बार मिल चुके हों। याददाश्त कमजोर है। फिर दुबारा हमारा सिद्धांत हुआ कि गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं। | मिलते हैं, और लगता है, फिर सब नया हो रहा है। कृष्णमूर्ति के पीछे ऐसे ही लोग इकट्ठे हो गए हैं। वे कहते हैं कि बुद्ध ने कहा है कि मैं और भी पहले बहुत बार इन्हीं बातों को बिलकुल ठीक। चालीस साल से हम आपको ही सुनते हैं। आप | तुमसे कहा हूं। क्राइस्ट ने कहा है, मैं कोई पहला नहीं हूं, जो इन बिलकुल ठीक कहते हैं। गुरु की बिलकुल जरूरत नहीं। तो बातों को कहने आया हूं। मुझसे पहले और लोग भी यही कह चुके चालीस साल से इस बेचारे का पीछा क्यों कर रहे हो! | हैं। क्राइस्ट ने कहा है, मैं कोई नई बात कहने नहीं आया, आइ हैव इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। मौलिक का दावा निपट कम टु फुलफिल दि प्रोफेसीज आफ दि ओल्ड। वे जो पुराने अज्ञान है। लेकिन वक्त लग जाता है; वक्त लग जाता है। पक्षी हैं, | वक्तव्य हैं, घोषणाएं हैं, उन्हीं को पूरा करने आया हूं। मोहम्मद ने जो एक ही मौसम में मर जाते हैं। कुछ कीड़े हैं, पतंगे हैं, जो वसंत | | भी कहा है, मैं नया नहीं हूं। मुझसे पहले और लोग आए हैं। उसमें में पैदा होते हैं और दुबारा वसंत नहीं देखते, मर जाते हैं। लेकिन | | एक इशारा तो बुद्ध की तरफ है। क्योंकि कहा है कि वट वृक्ष के उनके अंडे पड़े रहते हैं। दुबारा वसंत आता है, उन अंडों में से फिर | नीचे बैठकर भी एक आदमी ने ऐसी कुछ बातें कही हैं, बोधि वृक्ष पतंगे निकलते हैं। उड़ते हैं फूलों के पास और सोचते हैं कि जगत | | के नीचे बैठकर ऐसी कुछ बातें कही हैं। में, जीवन में, अस्तित्व में, पहली दफा वसंत आया है। फिर मर | इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। लेकिन सब नया मालूम पड़ता जाते हैं, फिर अंडे छोड़ जाते हैं। फिर वसंत आता है, फिर उनके है, क्योंकि हमारे लिए पहली दफा दिखाई पड़ता है। यह हम भूल बच्चे उड़ते हैं, और फिर वही बात कहते हैं, जो सदा-सदा कही | गए होते हैं, और पहली दफे दिखाई पड़ता हुआ मालूम पड़ता है। गई है—वसंत पहली बार आया है; ऐसा वसंत कभी नहीं आया। ब्रह्मलोक तक, कृष्ण कहते हैं, सब लोक, ब्रह्मलोक तक...। आदमी की स्मृति कमजोर। समय का वर्तुल बड़ा। आदमी चुक असल में जहां तक लोक हैं, जहां तक जगत की पर्ते हैं, चाहे जाता है, आरे घूमते रहते हैं। यहां कुछ भी नया नहीं है, सब पुराना हम उसे ब्रह्मलोक ही क्यों न कहें, अंतिम लोक, वहां तक भी दोहर रहा है। सब पुराना दोहर रहा है। सब पुराना लौट-लौटकर पुनरुक्ति ही होती रहती है। फिर पुनरुक्ति कहां बंद होती है? उसे 85 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 कहा है ज्ञानियों ने अलोक, नान-वर्ल्ड, नो वर्ल्ड। जहां तक जगत हुए, और जवान हुए, और प्रेम में पड़े, और विवाह हुआ, और हैं, वहां तक लोक हैं, फिर अलोक है। वह अलोक में ही प्रवेश बच्चे हुए, और अब आप अपने बच्चे की शादी करके बारात लिए परमात्मा में प्रवेश है। वहां पुनरुक्ति नहीं है। जा रहे हैं, तभी बैंड-बाजे के शोर में नींद खुल गई। लेकिन घड़ी में ध्यान रखें, यहां सब कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां देखते हैं, तो लगता है, केवल मिनटभर सोए थे। तो मिनटभर में सब कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां सब कुछ बासा है; | यह चालीस साल का विस्तार कैसे देखा जा सका। वहां सब कुछ ताजा। यहां सब कुछ बूढ़ा है; वहां सब कुछ युवा, ___ एक मिनट है बाहर के लिए जो, सपने के लिए चालीस साल फ्रेश, ताजा। जैसे सुबह ओस की बूंद, सुबह-सुबह खिला हुआ | | हो सकता है। समय बड़ी अदभुत चीज है। बड़ी अदभुत चीज है। फूल-बस, खिला ही रह जाए और कभी सांझ न आए, और कभी | इसे छोड़ें। दोपहरी न हो, और फूल कभी मुरझाए न, और फूल कभी वापस | आइंस्टीन कहता था कि जगत में सभी कुछ सापेक्ष है, समय धूल में न गिरे। बस, वह ताजगी ताजी ही रह जाए, वैसी ही युवा, | भी। तो कई लोग उससे पूछ लेते थे कि सापेक्षता, रिलेटिविटी का वैसी ही युवा सदा-सदा के लिए। जैसे कोई गीत की कड़ी गूंजे, क्या अर्थ है? तो आइंस्टीन का सिद्धांत तो बहुत दुरूह है। कहते और गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे; फिर कभी समाप्त | हैं, जब वह जीवित था, तो दस-बारह लोग ही सारी जमीन पर न हो। | उसके सिद्धांत को समझते थे। और ये दस-बारह भी इस मामले में लेकिन यह तो वहीं हो सकता है, जहां कुछ भी कभी शुरू न राजी नहीं थे कि बाकी समझते हैं कि नहीं समझते! वह दुरूह है; हुआ हो। लोक में सभी कुछ पुनरुक्त होता है, पुराना है। लोक के | गणित की गहनतम पहेली है। पार परमात्मा में सभी कुछ नया है, कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता। लेकिन आम जन को भी समझाना पड़ता था आइंस्टीन को। तो वहां सभी कुछ नया है, सभी कुछ ताजा है। इस ताजगी की, इस | वह कहता था, ऐसा समझो कि तुम अगर एक गरम आग से तपे निर्दोष ताजगी की, इस कुंआरेपन की जो उपलब्धि है, वह आनंद हुए चूल्हे पर बिठा दिए जाओ, तो क्षणभर भी घंटों लंबा लगेगा। है। और इस पुराने की, बासे की, पुनरुक्ति की, बार-बार इसी में | | और अगर तुम्हारा बहत दिन का बिछड़ा हआ प्रियजन तम्हें मिल सड़ने और घूमने की जो प्रतीति है, वह दुख है। जाए और उसके हाथ में हाथ डालकर तुम बैठे रहो, तो घंटाभर भी परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता। क्षणभर जैसा लगेगा। परमात्मा को पा लेने के बाद पा लेने को बचता क्या है, जिसके समय की प्रतीति चित्त पर निर्भर है। कभी आपने शायद खयाल लिए जन्म की और जीवन की जरूरत पड़े, समय की जरूरत पड़े! | | न किया हो, दुख में समय बहुत लंबा मालूम पड़ता है। घर में कोई हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग तक मर रहा है। बिस्तर पर पड़ा है। चिकित्सक कहते हैं, बस आखिरी अवधि वाला और एक रात्रि जो है, वह भी हजार युग अवधि वाली, रात है। बहुत लंबी लगती है रात। ऐसा लगता है, कभी समाप्त न ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को । | होगी। लेकिन सुख की स्थिति हो, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, तो जानने वाले हैं। रात ऐसे बीत जाती है कि जैसे समय ने कुछ बेईमानी की और घड़ी यह आज के लिए अंतिम सूत्र। के कांटे को जल्दी घुमाया। मैंने समय के बाबत थोड़ी बात आपसे कही। यहां समय के नहीं, घड़ी के कांटों को आपमें कोई उत्सुकता नहीं है, वे अपनी बाबत और भी कछ बातें कृष्ण ने कहीं। और कहा कि इस काल ही चाल से चलते चले जाते हैं। लेकिन चित्त के अनुसार समय के रहस्य को जो जान लेता है, वही जानने वाला है। यह काल का | लंबा और छोटा हो जाता है। रहस्य क्या है ? व्हाट इज़ दिस मिस्ट्री आफ टाइम? क्या है समय __ अगर आपने दिनभर बहुत-से काम किए, तो बाद में सोचने पर का राज? तो दो-तीन बातें खयाल में लें। लगेगा कि दिन बहुत लंबा था, क्योंकि बहुत भरा हुआ मालूम एक, कभी आपने खयाल किया, कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी लग | पड़ेगा। इसलिए यात्रा के दिन बहुत लंबे मालूम पड़ते हैं। लेकिन गई और आपने एक लंबा सपना देखा। लंबा-कि चालीस साल | आप दिनभर खाली बैठे रहे, तो खाली बैठते समय तो लंबा मालूम लग जाएं उस सपने के पूरे होने में। कि आप बच्चे थे, और बड़े पड़ेगा, बाद में याद करने पर बहुत छोटा मालूम पड़ेगा। क्योंकि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना, समय और दुख * उसमें कोई घटनाएं नहीं हैं, जिनकी वजह से भरा हुआ मालूम पड़े। | पोप से मिलने गए। तो पोप ने उनसे पूछा, कितनी देर रुकिएगा? यात्रा का दिन, नई-नई घटनाओं का दिन जब गुजरता है, तब | | तो पहले यात्री ने कहा, कोई तीन महीने रुकने का इरादा है, ताकि तो छोटा लगता है; और जब पीछे याद करते हैं, तो लंबा लगता | | सब ठीक से अध्ययन कर सकूँ। पोप ने कहा, थोड़ा-बहुत जरूर है। खाली दिन, गर्मी का दिन, उदास बैठे हैं घर में, कुछ काम-धाम | कर लोगे। दूसरे ने कहा कि मैं तो-थोड़ा डरा वह, क्योंकि वह नहीं, बेकार; काटते वक्त बहुत लंबा लगता। पीछे लौटकर याद | बहुत कम रुकने वाला था-उसने कहा, मैं तो केवल तीन सप्ताह करें, तो लगता है, बहुत छोटा है, क्योंकि उसमें कुछ भरावट नहीं रुकने आया हूं। तो पोप ने कहा, काफी अध्ययन कर लोगे। बड़ी है। चित्त पर निर्भर करता है कि समय लंबा है या छोटा। बेचैनी हुई। तीसरे आदमी ने कहा कि मैं तो केवल तीन दिन ही कृष्ण यहां कह रहे हैं कि अगर तुझे अंदाज हो जाए, जैसा कि रुकने आया हूं। पोप ने कहा, तुम पूरा अध्ययन कर लोगे। ज्ञानियों को पता चल जाता है, ब्रह्मा का दिन...।। क्योंकि समय कम हो, तो आदमी जल्दी करता है, तेजी। समय ब्रह्मा का अर्थ है, इस सृष्टि और प्रलय के बीच जिस शक्ति के ज्यादा हो, धीमे-धीमे करता है। समय बहुत हो, तो जमीन पर हाथ में नियंत्रण है। एक सृष्टि और एक प्रलय के बीच में जो सरकने लगता है। अगर उसको पता चल जाए कि मरना ही नहीं नियंत्रण है जिस शक्ति के हाथ में, जो एक सृष्टि और एक प्रलय | है, तो बिस्तर से निकलना मुश्किल हो जाए! मरना ही नहीं है, तो के बीच में अध्यक्ष है इस अस्तित्व का, उसके लिए एक दिन और | | फिर न भी उठे; फिर ऐसी जल्दी भी क्या है उठने की! वह तो मरना एक रात का ही है मामला यह सिर्फ। उसके लिए ये चौबीस घंटे | | है, इसलिए इतनी दौड़ है। वह मरना है, इसलिए इतनी दौड़ है। हैं। हमारे लिए युग-युग, हजार-हजार युग, अनंत-अनंत जन्म। ___ इसलिए जो सोसाइटी, जो समाज जितना डेथ कांशस हो जाता एक पतिंगा आप देखते हैं, वर्षा में पैदा हो जाता है। सांझ को है, उतनी दौड़ बढ़ जाती है। अगर आज अमेरिका में सर्वाधिक दौड़ पैदा होता है, रात आधी होते-होते मरकर सड़कों पर गिर जाता है। है, तो उसका कारण है कि हाइड्रोजन बम की सर्वाधिक विभीषक उतनी देर में सब कुछ हो गया, जो आप सत्तर साल में करेंगे। | चिंता अमेरिका के युवक को है, और किसी को नहीं है। उसे सबसे आपको पता नहीं होगा। उतनी देर में सब कुछ कर डाला उसने, जो ज्यादा साफ हो गया है, क्योंकि उसके ही मुल्क ने हिरोशिमा और आप सत्तर साल में करेंगे। इसलिए वह कोई गरीब नहीं है; बेचारा नागासाकी पर एटम का पहला प्रयोग किया है। और उस युवक को नहीं है। आप सत्तर साल में करेंगे, वह सात घंटे में कर लेता है। भलीभांति पता हो गया है कि यह जिंदगी अब क्षणभर भी भरोसे एक अर्थ में आपसे ज्यादा कुशल, शक्तिशाली मालूम पड़ता है! | की नहीं है। किसी भी दिन सब समाप्त हो जाएगा! तो फिर दौड़ो, क्योंकि इस बीच वह प्रेम कर लेता है। रोमांस कर लेता है। गनगना और भोग लो. और जी लो. जितनी जल्दी में हो सके। तीन दिन लेता है गीत। कविताएं गा लेता है। विवाह कर लेता है। बच्चे पैदा | | हाथ में हैं; तीन सप्ताह भी नहीं, तीन महीने भी नहीं। कर जाता है। अंडे रख जाता है। बूढ़ा हो जाता है। मर जाता है। इसलिए अमेरिका में जो आज इतने जोर से हिप्पी आंदोलन खड़ा __ अगर उसकी जिंदगी की घटनाएं और आपकी जिंदगी की | हुआ है, उस आंदोलन के पीछे हिरोशिमा और नागासाकी की छाया घटनाएं देखी जाएं, तो सिर्फ फर्क इतना ही लगेगा कि जो काम | है। युवकों को पता है, हम किसी भी दिन झोंक दिए जाएंगे। पता उसने सात घंटे में किए, वे आपने सत्तर साल में किए। यह कोई | भी नहीं चलेगा, नष्ट हो जाएंगे। प्रेम करना हो, तो कर लो अभी। बड़ी गौरव की बात मालूम नहीं पड़ती। सिर्फ इतना ही मालूम पड़ता खाना हो, पीना हो, कर लो अभी। है कि इनइफिशिएंसी आपमें ज्यादा है, कुशलता जरा कम है; समय पश्चिम में जो दौड़ पैदा हुई है, उसका भी कारण सिर्फ एक है ज्यादा ले लेते हैं। कि ईसाइयत ने एक ही जन्म के सिद्धांत को माना। अगर एक ही और भी छोटे कीड़े हैं, जो क्षण में ही पैदा होते हैं, क्षण में ही मर | | जन्म है, तो यह मौत आखिरी मौत है। अगर यह आखिरी मौत है, जाते हैं। मगर सब काम पूरा कर जाते हैं। कोई काम अधूरा नहीं। | तो दौड़ो, और जल्दी करो, सब भोग लो। छोड़ जाते। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि समय कम हो, | अगर पूरब में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, और इतनी दौड़ पैदा नहीं तो काम आदमी जल्दी और कुशलता से कर लेता है। हुई, और जीवन शिथिल और शांत और धीमी गति से चला, तो सुना है मैंने कि तीन अमेरिकी यात्री रोम आए थे घूमने, तो वे | | उसका कारण पुनर्जन्म की धारणा है। हमें पता है कि यह मौत कोई Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 आखिरी मौत नहीं; यह जन्म कोई पहला जन्म नहीं। यह होता ही के लिए, एक पूरा जीवन का वर्तुल है। रहेगा। इतनी जल्दी क्या है! पर यह है क्या? और यह समय का इतना फैलाव और इसलिए आप जानकर हैरान होंगे, पूरब के पास टाइम | | सिकुड़ाव, यह है क्या? और अगर यही है, यही समय का घूमता कांशसनेस बिलकुल नहीं है। पश्चिम के पास टाइम कांशसनेस है। वर्तुल ही सब कुछ है, तो इसमें घूमते जाना समझदारी नहीं है। इस पश्चिम समय के प्रति बहुत सजग है; एक-एक सेकेंड की सजगता | वर्तुल के बाहर निकलना समझदारी है। इस चक्र के बाहर होना है। यहां! यहां अगर हम घड़ी हाथ पर बांध भी लेते हैं, तो वह समझदारी है। समय के बाहर होना बुद्धिमत्ता है। टु ट्रांसेंड टाइम, शृंगार ज्यादा है, वह समय का बोध कम है। और पुरुष को तो | समय के पार हो जाना बुद्धिमत्ता है। क्योंकि जो समय के पार हो थोड़ी-बहुत समय की जरूरत पड़ गई, ट्रेन पकड़नी है। स्त्रियां भी | | गया, वह सृष्टि और प्रलय के पार हो गया। जो समय के पार हो घड़ी बांधे हुए हैं चूड़ियों की भांति। अगर एकदम से उनसे पूछो कि | | गया, वह जन्म और मृत्यु के पार हो गया। जो समय के पार हो घड़ी में कितने बजे हैं, तो पता नहीं चलता। | गया, वह दुख और सुख के पार हो गया। जो समय के पार हो जाता मैं तो एक दिन ट्रेन में बैठा था; सामने एक महिला बहुत सजी है, वह उस अलोक को उपलब्ध हो जाता है, जहां से न कोई लौटना हुई, काफी सोना-वोना पहने बैठी थी। एयरकंडीशन में बैठी थी, | | है, जहां से न कोई वापसी है, न कोई पुनरागमन है। जहां परम तो धनपति के घर की ही होगी। बड़ी शानदार घड़ी उसने बांध रखी | | जीवन में प्रवेश, परम अस्तित्व में प्रवेश है; अनादि और अनंत। थी। मैंने उससे पूछा कि घड़ी में कितने बजे हैं? उसने कहा, आज काल के इस रहस्य को अगर जानना हो, तो ध्यान में थोड़ी गति ही आई है। और मुझे इसे देखने का ठीक अंदाज नहीं। आपकी घड़ी | | करें, क्योंकि ध्यान काल के विपरीत है। ध्यान में जितनी गति होगी, में बताइए कितने बजे हैं? वह बांधे हुए है बस! उतने समय के बाहर हो जाएंगे। समय का बोध पूरब को हो नहीं सकता, क्योंकि समय इतना | इसलिए कभी तो ध्यान में ऐसा हो जाता है कि घंटों बीत गए लंबा है हमारे पास कि ठीक है, कोई जल्दी नहीं है। पश्चिम को और जागकर वह व्यक्ति कहता है कि क्या हुआ, कितना समय समय की प्रतीति गहन हो गई. क्योंकि ईसाइयत ने कहा, बस एक बीत गया। मझे तो कछ पता ही नहीं। मैं था. होश था. बेहोश नहीं ही जन्म है, और मामला इसके पीछे सब समाप्त हो जाएगा। जो था, लेकिन समय का मुझे कुछ पता नहीं है। घड़ी जैसे रुक गई, भी करना है, अभी कर लो। त्वरा आ गई। जल्दी करो। फैसले का ठहर गई भीतर की। दिन निकट है! ध्यान समय के बाहर उतरने की विधि है। कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि अगर तू ब्रह्मा के हिसाब से सोचे, । ये बातें मैंने आपसे कहीं, लेकिन ये बातें आपको पूरी तभी समझ तो बस एक दिन और एक रात। सुबह होती है सृष्टि; सांझ होते | में आ पाएंगी, जब ध्यान की थोड़ी-सी झलक और स्वाद आपको आधी हो जाती; रात होती, सुबह होते, पूरी हो जाती; प्रलय आ | मिलना शुरू हो जाए। तो काल का रहस्य खयाल में आ जाता है, जाता। यह चौबीस घंटे का खेल है। एक चक्र है ब्रह्मा के लिए। | और काल के बाहर जाने की क्षमता भी आ जाती है। इसमें कुछ भी नया नहीं है अर्जुन। ब्रह्मा के लिए सब एक वर्तुल आज इतना ही। है। वही आरा नीचे आ जाएगा और सब समाप्त हो जाएगा। लेकिन अभी जाएंगे नहीं। पांच मिनट तक ये काल के बाहर लेकिन कृष्ण कहते हैं, समय के इस रहस्य को जो जान लेता है, | जाने के लिए संन्यासी कोशिश करेंगे कीर्तन में। आप भी साथी हो वह तत्वविद है और ऐसे योगीजन परम गति को पाते हैं। | जाएं। कौन जाने, किसी भी क्षण क्रांति घटित हो सकती है। समय के इस रहस्य को जो जान लेता है! यह समय का रहस्य कोई उठेगा नहीं। और मैंने इतनी बार कहा, लेकिन वे लोग आना क्या हुआ? यह समय का रहस्य यह हुआ कि जानने वाली चेतना | शुरू कर दिए आगे की तरफ। आप वहीं रुकें। वहीं रुकें। और बाद पर ही समय का फैलाव या सिकुड़ाव निर्भर है। में भी जब कीर्तन होता है, तब उठ आते हैं। आप जब उठ आते हैं, ब्रह्मा की चेतना के लिए इतना विराट आयोजन सिर्फ एक दिन तो बाकी लोगों को भी उठने की इच्छा पैदा हो जाती है। और रात है। हमारे लिए जो घड़ी में बीतता हुआ एक सेकेंड है, वह | वहीं खड़े रहें। वहीं से भागीदार बनें। ज्यादा फासला नहीं है। किसी छोटे मकोड़े के लिए, किसी पतिंगे के लिए, किसी अमीबा ज्यादा दूरी नहीं है। वहीं से तालियां बजाएं। गीत दोहराएं। बैठकर Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना, समय और दुख * आनंदित हों। यह पूरा वायुमंडल आनंद से भर जाए और समय के बाहर निकल जाए। पांच मिनट के लिए इस नृत्य में खोकर समय के बाहर निकल जाएं। अपनी जगह बैठे रहें । 89 Page #116 --------------------------------------------------------------------------  Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 सातवां प्रवचन सृष्टि और प्रलय का वर्तुल Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे । लेकिन जब तक हमें उस सत्य का पता न हो जो दर्पण के बाहर है, रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ।।१८।। तब तक हमें यह भी एहसास न हो सकेगा कि जो हम देख रहे हैं भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते । समय के भीतर, वह माया है। रात्र्यागमेश्वशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ।। १९ ।। सुना है मैंने, रमजान के उपवास के दिन हैं और मुल्ला नसरुद्दीन परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। | एक रास्ते के किनारे से निकलता है। प्यास लगी है, तो उसने कुएं यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।। २० ।। में झांककर देखा, देखा कि चांद कुएं में पड़ा है। सोचा उसने कि इसलिए काल के तत्व को जानने वाले यह भी जानते हैं कि | चांद यहां फंसा पड़ा है! उपवास के दिन हैं, और अगर चांद बाहर संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में न निकाला गया, तो लोग उपवास कर-करके मर जाएंगे, उपवास अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल | का अंत कैसे आएगा? में उस अव्यक्त में ही लय होते हैं। भागा हुआ पास के गांव में गया, रस्सी लेकर आया। रस्सी को और हे अर्जुन, वह ही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो-होकर डाला कुएं में चांद को फंसाने के लिए और निकालने के लिए। फंस प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेशकाल में लय होता है भी गया चांद। मुल्ला ने बड़ी ताकत लगाई। बड़ी मुश्किल में पड़ा; और दिन के प्रवेशकाल में फिर उत्पन्न होता है। क्योंकि रस्सी उसकी कुएं में जाकर एक पत्थर से फंस गई थी। बहुत परंतु उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण | खींचा, फिर सोचा भी कि चांद जैसी चीज है, मुश्किल तो होगी ही। जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब | लेकिन हजारों-लाखों लोगों का सवाल है, मुझे मेहनत करके भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं नष्ट होता है। | निकाल ही देना चाहिए। बहुत ताकत लगाई, तो रस्सी टूट गई। मुल्ला धड़ाम से कुएं के नीचे गिरा। घबराहट में आंखें बंद हो गईं। | सिर लहूलुहान हो गया। जब आंख खुली, तो चांद आकाश में 27 स्तित्व की व्याख्या, कैसे यह अस्तित्व पैदा होता है| दिखाई पड़ा। उसने कहा कि चलो, कोई हर्ज नहीं। थोड़ी हमें 1 और कैसे लीन होता है। इसके पहले कि हम कृष्ण के | मुश्किल भी हुई, तो कोई बात नहीं, लेकिन चांद मुक्त हो गया! . वचन पर विचार करें, कुछ और प्राथमिक बातें जान समय की झील में जो हमें दिखाई पड़ता है, वही संसार है। समय लेनी जरूरी हैं। में पकड़ा हुआ जो हमें दिखाई पड़ता है, वही संसार है। लेकिन एक तो कि काल के तत्व को जो जान लेते हैं, वे ही आने वाली समय के बाहर हम देख ही नहीं पाते हैं। हम बिलकुल कुएं पर झुके इस व्याख्या को समझ पाएंगे। काल के तत्व के संबंध में एक बहुत | खड़े हैं। और जो हमें कुएं में दिखाई पड़ता है, वही दिखाई पड़ता मौलिक बात स्मरण कर लेनी जरूरी है और वह यह है कि समय | है। समय के मीडियम में, समय के माध्यम में जो झलकता है, उसे के भीतर जो भी प्रकट होता है, वह स्वप्नवत है, ड्रीमलाइक है। ही हम जानते हैं। और हम किसी चीज को जानते नहीं। इसे हम ऐसा समझें कि जैसे कोई व्यक्ति दर्पण में अपनी तस्वीर | तो समय के तत्व को जो जान लेता है, वह यह भी जान लेता देखे, तो दर्पण में जो दिखाई पड़ता है, वह स्वप्नवत है। दर्पण में | है, यह जगत सिर्फ एक माया है, यह जगत सिर्फ एक प्रतिबिंब है, वस्तुतः होता नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। लेकिन दिखाई पूरा पड़ता | | यह जगत सिर्फ एक स्वप्न है। और जो समय से मुक्त हो जाता है, है। दिखाई पड़ने में कोई कमी नहीं है। या जैसे कोई रात चांद वह जगत से भी तत्क्षण मुक्त हो जाता है। या जो जगत से मुक्त हो निकला हो आकाश में और झील की शांत सतह में उसका | जाता है, वह समय से मुक्त हो जाता है। अगर इसे हम और भी प्रतिफलन बन जाए। कोई झील में झांककर देखे, तो चांद परा सक्षम में कहें. तो कह सकते हैं. समय ही संसार है। समय के बाहर दिखाई पड़ता है, वैसे वहां है नहीं। हो जाना संसार के बाहर हो जाना है। ठीक समय के भीतर भी प्रतिफलन ही उपलब्ध होते हैं। समय लेकिन यह समय का तत्व बहुत अदभुत है। हम सभी अपनी दर्पण है या पानी की झील है, उसमें जो हमें दिखाई पड़ता है, वह | कामना की गहनता के अनुसार अधिक या कम समय के भीतर हो वास्तविक नहीं है, स्वप्नवत है। यही अर्थ है माया का, इलूजन का। | सकते हैं। जितनी तीव्र वासना होती है, समय के भीतर उतना हमारा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल गहरा प्रवेश हो जाता है। जितनी क्षीण वासना होती है, उतना ही हम करीब होते हैं। और जो ज्यादा वासना में दौड़ते हैं, वे पानी की समय की परिधि पर आ जाते हैं। गहराइयों में होते हैं। कम वासना में दौड़ने वाला आदमी झटके से सुना है मैंने कि एक ईसाई फकीर मरकर स्वर्ग पहुंचा। द्वार पर | | छलांग ले सकता है समय के बाहर। ज्यादा वासना में दौड़ने वाले ही सेंट पीटर उसे मिले। तो उस फकीर ने कहा, मैंने बड़ी-बड़ी बातें | | को उतना ही कठिन हो जाता है। समय ही नहीं मिलता कि समय स्वर्ग के संबंध में सुनी हैं। मैं सदा फकीर रहा; कौड़ी-कौड़ी | के बाहर निकल सके। मांगकर जीया। मैंने सुना है कि स्वर्ग की एक कौड़ी भी, एक पाई। समय के तत्व को जो समझ लेता है, वह यह भी समझ लेता है भी पृथ्वी के अरबों-खरबों रुपयों के बराबर होती है। सेंट पीटर ने कि अगर मुझे समय के बाहर होना है, तो मुझे वासना के बाहर हो कहा, तुमने ठीक ही सुना है। तो उस फकीर ने कहा, क्या कृपा | | जाना पड़ेगा। और अगर मुझे वासना के बाहर होना है या समय के करके एक छोटी-सी पाई मुझे उधार न दे सकेंगे! बाहर होना है, तो क्या सूत्र होगा इसका? वे जो काल के तत्व को ___ फकीर ने सोचा कि एक पाई अगर अरबों-खरबों रुपयों के | | जान लेते हैं, किस सूत्र का प्रयोग करते हैं? बराबर होती है और एक पाई देने से सेंट पीटर जैसा भला आदमी | - एक छोटा-सा सूत्र आपसे कहता हूं। वे इसी का प्रयोग करते क्या इनकार करेगा। सेंट पीटर ने कहा, जरूर दूंगा। लेकिन एक | | हैं। वे क्षण में जीना शुरू करते हैं। समय में नहीं, क्षण में। नाट इन क्षण ठहर जाओ। टाइम, बट इन दि मोमेंट। एक क्षण है अभी मेरे पास; और एक दिन बीतने के करीब आ गया। फकीर द्वार पर बैठा रहा। सांझ क्षण से ज्यादा किसी आदमी के पास कभी होता नहीं। कितना ही होने लगी। उसने कहा, एक क्षण कितना लंबा होता है यहां? सेंट | बड़ा आदमी हो, कितना ही छोटा आदमी हो, दीन हो, दरिद्र हो, पीटर ने कहा, पृथ्वी के अरबों-खरबों बरसों के बराबर। क्योंकि | सम्राट हो, कमजोर हो कि शक्तिशाली हो, अज्ञानी हो कि ज्ञानी हो, जब पाई अरबों-खरबों के बराबर होगी, तो क्षण भी अरबों-खरबों | एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में कभी इकट्ठा नहीं होता। जब बरसों के बराबर होगा। अनुपात वही होता है। | | एक क्षण सरक जाता है, तब दूसरा क्षण हाथ में आता है। एक क्षण अनुपात वही होता है। एक आदमी के पास एक कौड़ी है और | से ज्यादा किसी के पास नहीं होता। एक आदमी के पास एक करोड़ रुपए हैं, तो आप यह मत समझना ___ अगर कोई इस एक क्षण में ही जीना शुरू कर दे, आने वाले क्षण कि करोड़ रुपए वाले की आसक्ति ज्यादा होगी और एक कौड़ी | | की वासना न करे, चिंता न करे, आकांक्षा न करे; बीते हुए क्षण को वाले की आसक्ति कम होगी। नहीं, इस भूल में मत पड़ना। भूल जाए, छोड़ दे, स्मृति के बाहर कर दे; इस क्षण में ही ठहर आसक्ति का अनुपात वही होगा। एक कौड़ी पर भी उतनी ही होगी, | | जाए तो ऐसे आदमी को वासना में जाने का उपाय नहीं होगा। करोड़ रुपए पर भी उतनी ही होगी। क्योंकि वासना इसी क्षण में नहीं हो सकती। इसे ऐसा समझें। एक आदमी एक घर से एक कौड़ी चुरा लाता | | इसी क्षण में तो केवल प्रार्थना ही हो सकती है। इसी क्षण में तो है, और एक आदमी एक लाख रुपए चुरा लाता है। क्या लाख रुपए केवल ध्यान ही हो सकता है। इसी क्षण में तृष्णा नहीं हो सकती। वाले की चोरी ज्यादा होगी? निश्चित ही जो रुपए गिनते हैं, वे तृष्णा के लिए एक क्षण से ज्यादा चाहिए। फैलाव के लिए, विस्तार कहेंगे, हो। लाख रुपए की चोरी लाख रुपए की चोरी है, और कौड़ी के लिए भविष्य चाहिए। और भविष्य के फैलाव के लिए अतीत में की चोरी कौड़ी की चोरी है। | जड़ें और स्मृति चाहिए। अगर अतीत भी नहीं, भविष्य भी नहीं, लेकिन चोरी तो बराबर है। चोरी में कोई भेद पड़ता नहीं। कौड़ी यही क्षण है, तो समय गिर गया और वासना भी गिर गई। की चोरी उतनी ही चोरी है, जितनी लाख की चोरी चोरी होती है। | इसलिए ज्ञानी क्षण में जीना शुरू कर देता है, अभी और यहीं। चोरी में कोई अंतर नहीं पड़ता। क्या चुराया, यह गौण है। चुराया, | | और जैसे ही कोई अभी और यहीं जीता है, समय के बाहर हो जाता यही महत्वपूर्ण है। अनुपात वही होता है। | है। क्षण जो है, समय के बाहर होने का द्वार है। वासना में जो बहुत दौड़ते हैं वे भी, वासना में जो कम दौड़ते हैं। इसे और तरह से भी समझ लें। वे भी. अनपात तो बराबर होता है। अनपात में फर्क नहीं पड़ता। | पिछले तीस वर्षों की वैज्ञानिक खोजों ने पदार्थ के अंतिम कण लेकिन फिर भी, जो कम वासना में दौड़ते हैं, वे पानी की सतह के पर मनुष्य को पहुंचा दिया, एटम पर, अणु पर पहुंचा दिया, परम 93 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* अणु पर पहुंचा दिया। फिर परम अणु का भी विभाजन हो गया और समय के रहस्य को जानने वाले के लिए कृष्ण कहते हैं, जो परम अणु का भी विभाजित हिस्सा इलेक्ट्रान हाथ में आ गया। समय के, काल के इस तत्व को जान लेता है, इस क्षण के द्वार को लेकिन एक बड़ी अदभुत घटना घटी, परमाणु के टूटते ही पदार्थ | पहचान लेता है और समय के बाहर होने की कला जिसे आ जाती खो जाता है। परमाणु के टूटते ही पदार्थ खो जाता है। और इधर | है, वह संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में बीस वर्षों में विज्ञान की जो बड़ी से बड़ी उपलब्धि है, वह यह है अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उसी कि अब पदार्थ जगत में नहीं है। अव्यक्त में लय होते हैं—इस तत्व का भी ज्ञाता हो जाता है। तीन सौ वर्ष पहले जो विज्ञान सोचकर चला था कि परमात्मा यहां दो-तीन बातें, जो कि मैंने आपसे अभी-अभी कहीं, वे जगत में नहीं है, कोई सोच भी नहीं सकता था...अगर आज पुराने | खयाल में ले लें। कृष्ण कहते हैं, वह व्यक्ति जो समय को जान वैज्ञानिकों को कब्रों से उखाड़ा जाए, न्यूटन को उखाड़ा जाए कब लेता है, वह इस सत्य को भी जान लेता है कि यह जगत कहां से से या गैलीलियो को, तो वे विश्वास न कर सकेंगे कि यह विज्ञान | | पैदा होता है और कहां लीन होता है। इस जगत के पैदा होने के लिए ने कौन-सी उपलब्धि कर ली। सोचते थे कि ईश्वर खो जाएगा, | कृष्ण ने कहा है, समस्त दृश्यमात्र भूत, सब मैटर, सब पदार्थ, आत्मा खो जाएगी। इस सदी के प्राथमिक समय में भी सभी | ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में, ब्रह्मा के प्रथम मुहूर्त क्षण में, जब वैज्ञानिक इस खयाल से भरे थे कि आत्मा-परमात्मा के बचने की | | ब्रह्मा का दिन शुरू होता है...। कोई जगह नहीं। पदार्थ ही सत्य है, मैटर इज़ दि ओनली रियलिटी। | हमने कल समझा कि चौबीस घंटे हमारे जैसे हैं, बारह घंटे का लेकिन इधर उन्नीस सौ पचास के करीब जो प्रतीति गहन होने दिन और बारह घंटे की रात भी मान लें, तो ब्रह्मा की जब सुबह लगी, वह यह है कि मैटर इज़ दि मोस्ट अनरियल थिंग, पदार्थ है | | होती है, ब्रह्ममुहूर्त! अभी भी हम सुबह के क्षण को ब्रह्ममुहूर्त कहते ही नहीं। जैसे ही परमाणु टूटता है, पदार्थ खो जाता है और परमाणु | हैं, सिर्फ इस याददाश्त में कि कभी हमें वास्तविक ब्रह्ममुहूर्त का भी के टूटते ही पदार्थ के बाहर प्रवेश हो जाता है, अपदार्थ में, पता चल जाएगा। जिसे हम ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं, वह ब्रह्ममुहूर्त नाम नान-मैटीरियल में प्रवेश हो जाता है। मात्र को है। ठीक ऐसे ही समय का जो आखिरी टुकड़ा है, उसका नाम क्षण ब्रह्ममुहूर्त का अर्थ है, ब्रह्मा का वह क्षण, जब जगत शुरू होता है, कहें कि वह समय का परमाणु है, क्षण। जो व्यक्ति क्षण में ठहर | | है, जीवन प्रारंभ होता है, पदार्थ आविर्भूत होते हैं, व्यक्त होते हैं जाता है, वह समय के बाहर हो जाता है। जैसे परमाणु में जो व्यक्ति | और लीला शुरू होती है। सुबह वह लीला शुरू होती है, सांझ प्रवेश करता है, वह पदार्थ के बाहर हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति | | होते-होते वह लीला अपने शिखर पर पहुंच जाती है। और जब भी क्षण में, समय के परमाणु में प्रवेश करता है, वह समय के बाहर | कोई चीज शिखर पर पहुंचती है, तो उतरना शुरू हो जाती है। फिर हो जाता है। | रात ब्रह्मा की, और सब चीजें बिखरती जाती हैं, उतरती चली जाती विज्ञान ने पदार्थ की खोज करके परमाणु पाया और परमाणु के हैं। और अंतिम क्षण में रात्रि के, जो जगत प्रकट हुआ था, वह पुनः बाहर द्वार पाया, जहां से अपदार्थ में, अव्यक्त में, अनमैनिफेस्टेड अप्रकट में लीन हो जाता है। और फिर सुबह, और फिर सांझ, और में प्रवेश हो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरब के धर्म ने, पूरब के धर्म फिर सुबह, ऐसा वर्तुलाकार ब्रह्मा का समय चलता रहता है। के खोजियों ने, मिस्टिक्स ने समय की खोज की ज्यादा। क्योंकि ये पदार्थ अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं। अव्यक्त का अर्थ है, दि उनके इरादे कुछ और थे; उनके इरादे उसको जानने के थे, जो अनमैनिफेस्टेड, जो प्रकट नहीं है। उससे प्रकट होता है सब। जो इटरनल है, शाश्वत है, सनातन है। उन्होंने समय की खोज की और छिपा है, उससे प्रकट होता है सब। जो गुप्त है, उससे प्रकट होता समय के आखिरी टुकड़े को खोजा, जिसका नाम उन्होंने क्षण दिया | | है सब। है। उसको कहें टाइम एटम, कहें समय का परमाणु। और जब वे अभी विज्ञान की खोज भी इसके करीब पहुंची है। शायद इस समय के इस परमाणु के भीतर प्रविष्ट हुए, खड़े हुए, उन्होंने पाया, वचन के समर्थन में शंकर जो नहीं कह सकते, रामानुज जो नहीं टाइम सिंपली डिसएपियर्स, समय खो जाता है। और फिर जो | | कह सकते, निंबार्क जो नहीं कह सकते, गीता के जो भी बड़े-बड़े बचता है, वही शाश्वत, सनातन, नित्य है। | चिंतक हुए वे नहीं कह सकते, वह शायद इस हमारी सदी का 94 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल * भौतिकविद, फिजिसिस्ट कह सकता है। आइंस्टीन कह सकता है आता कि यह क्या है! कि यह वक्तव्य न केवल धर्म का वक्तव्य है, यह वक्तव्य विज्ञान | | आपमें से बहुत-से लोगों ने शिक्षा के समय में ज्यामेट्री पढ़ी का भी वक्तव्य है। क्योंकि परमाणु के विभाजन के बाद विज्ञान ने होगी यूक्लिड की, लेकिन इधर निरंतर नान-यूक्लिडिअन ज्यामेट्री पाया कि वह जो प्रकट परमाणु था, अचानक अप्रकट में लीन हो | | महत्वपूर्ण होती जा रही है। यूक्लिड की सारी परिभाषाएं गलत हो जाता है। | गईं, क्योंकि अस्तित्व में उनसे कहीं मेल नहीं है। इसके पहले तक कभी विज्ञान को खयाल नहीं था और यह यूक्लिड कहता है, दो समानांतर रेखाएं कहीं नहीं मिलती। जो इल्लाजिकल भी है। यह वक्तव्य बहुत अतार्किक है, तर्कहीन है। | | गैर, यूक्लिड के विपरीत खड़ी हुई ज्यामेट्री है, वह कहती है, दो बुद्धिमत्ता इसका समर्थन न करेगी, बुद्धि इसके सहयोग में खड़ी न | समानांतर रेखाएं भी मिलती हैं। यूक्लिड कहता है, दो समानांतर होगी। क्यों? क्योंकि व्यक्त अगर प्रकट होता है अव्यक्त से, तो | रेखाएं कैसे मिल सकती हैं? वे बिलकुल समानांतर हैं, इसलिए इसका तो अर्थ हुआ कि शून्य से पूर्ण का जन्म होता है। इसका तो | | कहीं भी बढ़ जाएं, समानांतर ही रहेंगी। मिलेंगी कैसे? अर्थ हुआ कि जो नहीं है, उससे, जो है, वह निकल आता है। नान-यूक्लिडिअन ज्यामेट्री कहती है, हम परिभाषाएं नहीं इसका तो अर्थ हुआ, जो कहीं नहीं पाया जाता, उससे भी, सारा जो | मानते। हम कहते हैं, दो समानांतर रेखाएं खींचो और बढ़ाते चले सब जगह पाया जाता है, उसका फैलाव है। यह तो बहुत तर्क में | जाओ, अगर वे न मिलें, तो हम मान लेंगे। बात आती नहीं। विचार इसको पकड़ नहीं पाता। यह तो ऐसा ही | ___ अब बड़ी मुश्किल है, रेखाएं मिल जाती हैं। तो वे कहते हैं, हुआ कहना कि आउट आफ नथिंग, ना-कुछ से, सब कुछ का | हम यूक्लिड को मानें कि इन रेखाओं को मानें, जो मिल जाती हैं! जन्म है। इन रेखाओं को यूक्लिड का कोई भी पता नहीं है। या, • लेकिन परमाणु के विघटन ने इस गीता के वक्तव्य को वैज्ञानिक | नान-यूक्लिडिअन ज्यामेट्री कहती है, कि अगर तुम जिद्द ही करते प्रामाणिकता भी दे दी। क्योंकि परमाणु के विघटन के बाद कोई | हो, तो उसका मतलब यह हुआ कि दो समानांतर रेखाएं खींची ही उपाय न रहा। और जब किसी ने बहुत बड़े भौतिकविद प्लांक से | | नहीं जा सकतीं। एक ही बात है। जो भी खींची जा सकती हैं, वे पूछा कि यह तुम कैसी तर्कहीन बातें कर रहे हो! कि परमाणु के मिल जाती हैं। और जो खींची नहीं जा सकतीं, उनके मिलने न नीचे उतरते ही परमाणु का जो पदार्थ है, वह अपदार्थ हो जाता है, मिलने का पता कैसे चलेगा! मैटर इम्मैटर हो जाता है, यह तुम कैसी तर्कहीन और अवैज्ञानिक __ यूक्लिड कहता है कि हम सीधी रेखा उसे कहते हैं, जो दो बातें कर रहे हो! तो प्लांक का उत्तर बहुत अदभुत है। बिंदुओं के बीच सबसे कम जगह में प्रवेश करती है। और यूक्लिड प्लांक ने कहा, जब तक मुझे पता नहीं था, प्रयोग में जाना नहीं कहता है कि सीधी रेखा सीधी है। सीधी रेखा को किसी वर्तुल का था, तब तक मैं भी यही कहता। अब मैं तुमसे इतना ही कहूंगा, हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है। इट कैन नाट बी सेग्मेंट आफ ए हमारे वश के बाहर है। परमाणु का जो व्यवहार है, वह यही है कि सर्किल। नान-यूक्लिड की ज्यामेट्री कहती है, तुम कोई सीधी रेखा उसके टूटते ही वह नीचे अव्यक्त में खो जाता है। अब अगर वह खींचो; और हर सीधी रेखा को किसी बड़े वर्तुल का हिस्सा बनाया अतर्क है, तो हम अपने तर्क को बदल डालें, और कोई उपाय नहीं। जा सकता है। क्योंकि नान-यूक्लिडिअन ज्यामेट्री कहती है, जिस नाउ लेट अस चेंज अवर होल लाजिक! लेकिन हम अस्तित्व को | | जमीन पर बैठकर तुम रेखा खींचते हो, वह गोल है। उस पर खींची नहीं बदल सकते। अगर हमारे तर्क में बात नहीं बैठती है, तो भी गई कोई भी रेखा, अगर पूरी तरह दोनों तरफ बढ़ा दी जाए, तो अस्तित्व राजी नहीं होगा कि हमारे तर्क के अनुसार चले। हम अपने जमीन को घेरकर वर्तुल बन जाएगी। तर्क को ही बदल लें। और तो कोई उपाय नहीं है। | यूक्लिड का बिलकुल सफाया हो गया, उसको अब कोई जगह इसलिए पचास वर्षों में पिछले एक नए तर्क का जन्म हुआ है, | नहीं बची। पश्चिम में नए गणित का जन्म हुआ है, नई ज्यामिति का जन्म हुआ। पुराना गणित कहता है, दो और दो मिलकर चार होते हैं। नया है, जिनको कि सुनकर पुराने ज्यामिति के विद्यार्थी को, पुराने गणित गणित कहता है कि दो और दो मिलकर चार कभी नहीं होते, कभी के विद्यार्थी को, पुराने तर्क के विद्यार्थी को कुछ भी समझ में नहीं | | इंचभर इस तरफ होते हैं, कभी इंचभर उस तरफ होते हैं। क्योंकि 95 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-44 दो और दो कभी बराबर नहीं होते। दो और दो बराबर कभी नहीं | आंशिक मृत्यु है; मृत्यु पूर्ण निद्रा है। रोज आदमी को मरना पड़ता होते। आप कहेंगे, दो और दो तो बराबर होते हैं। नया गणित कहता है, इसीलिए सुबह वह पुनः जीवित हो पाता है। रात अंधेरे में डूब है कि सिर्फ परिभाषा में। सिर्फ परिभाषा में। जाते हैं, सुबह फिर पुनरुज्जीवित होते हैं, ताजे, प्रफुल्लित; फिर कोई दो चीजें बराबर नहीं होती। कोई दो पत्थर बराबर नहीं होते। | काम में लग जाते हैं। कोई दो पत्ते बराबर नहीं होते। अस्तित्व में दो चीजें एक्जेक्टली | ठीक ब्रह्मा की यह पूरी सृष्टि भी दिनभर में थक जाती है, सांझ अलाइक एंड ईक्वल होती ही नहीं। कोई उपाय नहीं है दो चीजों को | होने के करीब हो जाती है। फिर मृत्यु, फिर पुनर्जन्म। ठीक चौबीस बराबर, ठीक बराबर करने का। थोड़ा-सा अंतर शेष रह ही जाता | घंटे के दिन की भांति ब्रह्मा का भी बड़ा वर्तुलाकार दिन घूमता है। और वह अंतर जोड़ में फर्क करेगा। लेकिन दो और दो चार रहता है। होते हैं। दो और दो चीजें अगर जोड़ी जाएं, तो कभी चार नहीं होती; इसलिए एक बात और बहुत मजे की है और वह यह कि सिर्फ कुछ कम या कुछ ज्यादा। पूरब के मुल्कों में और विशेषतया भारत में समय की एक धारणा प्लांक ने कहा है कि हम अपने गणित को बदल लें, अपने तर्क | विकसित की, जो सरकुलर है, वर्तुलाकार है। हम समय को हमेशा को बदल लें; लेकिन अस्तित्व हमारे तर्क को मानकर चलने के वर्तुल में सोचते रहे। पश्चिम में समय की धारणा लीनियर है, एक लिए राजी नहीं है। | रेखा में, सीधी। पश्चिम को वर्तुल का खयाल ही अभी-अभी आना इधर बीस वर्षों ने खुद विज्ञान की आधारशिलाओं को बहुत ही | | शुरू हुआ। नहीं तो पश्चिम सोचता है, एक रेखा में इतिहास चलता हिला दिया है। एक नया शब्द विज्ञान में प्रवेश किया जो कभी भी | | है। हम सोचते हैं कि रेखा में नहीं, गोल वर्तुल में चलता है। नहीं था। हमेशा समझा जाता था, साइंस इज़ दि मोस्ट सर्टेन थिंग।। | इसलिए हम जानते हैं कि सब चीजें फिर लौटकर आ जाती हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि अनसटी, अनिश्चय विज्ञान का केंद्रीय | | अगर एक ही रेखा में चलता हो, तो चीजें लौटकर नहीं आ सकतीं। शब्द बन जाएगा। इधर बन गया है। अनसोटी, अनिश्चय ही इसलिए पश्चिम ने इतिहास लिखा, पूरब ने कभी इतिहास नहीं विज्ञान का केंद्रीय शब्द बन गया है। क्योंकि कुछ भी निश्चित नहीं लिखा। क्योंकि जब सभी चीजें बार-बार लौट आती हों, तो मालूम पड़ता, सब डांवाडोल हो गया है। इस डांवाडोल होने में जो | इतिहास की लिखने की व्यर्थ की झंझट में क्यों पड़ना? फिर-फिर · सबसे बड़ी घटना घटी है, यह वचन उसी घटना के लिए है। | यही होगा। फिर राम होंगे, फिर कृष्ण होंगे, फिर बुद्ध होंगे; चीजें कृष्ण कहते हैं, अव्यक्त से व्यक्त का जन्म होता है ब्रह्ममुहूर्त | | वर्तुलाकार लौटती रहेंगी; तो क्या प्रयोजन है बार-बार लिखने से में, ब्रह्मा के पहले क्षण में। और फिर पुनः यह व्यक्त जब थक | कि बुद्ध कब हुए, कैसे हुए, किस तिथि में हुए, किस समय में हुए। जाता, जीर्ण-शीर्ण हो जाता, जरा-जीर्ण हो जाता, वृद्ध हो जाता, | ईसाइयत ने समय का नान-सर्कुलर दृष्टिकोण पकड़ा है, तो पुनः लीन हो जाता है अव्यक्त में। गैर-वर्तुल, रेखाबद्ध। इसलिए ईसा का जन्मदिन इतिहास की इसे हम अपने से समझें तो शायद आसान हो जाए। | शुरुआत बन गया। वह ईवेंट बन गया, घटना बन गई। इसलिए सुबह आप उठते हैं ताजे, लेकिन कभी आपने खयाल किया, | | उचित ही है कि सारी दुनिया में हम ईसा के जन्मदिन के हिसाब से यह ताजगी कहां से आती है? निश्चित ही, रातभर आपने ताजगी | | समय को मापते हैं। हमारे पास ऐसा समय-माप नहीं है। और हमने के लिए कुछ भी नहीं किया; न कोई व्यायाम किया, न कोई भोजन | जो समय-माप गढ़े भी हैं, वे भी ईसा की नकल में गढ़े हैं। और लिया। रातभर अगर आपने कुछ भी किया, तो इतना ही किया कि हमने बहुत दफे बहुत-से समय-माप शुरू किए, लेकिन हमारी अपने को सब करने से रोका। रातभर आप सोए रहे। सोने में आप | चेतना से मेल नहीं पड़ा और वे छूट गए। पुनः अव्यक्त में गिर जाते हैं। व्यक्त से हट जाते हैं, अव्यक्त में | | हमने पुराण तो लिखा है, इतिहास नहीं लिखा। पुराण का अर्थ गिर जाते हैं। उसी अव्यक्त से ताजगी लेकर सुबह पुनः उठ आते है, वह जो सदा लौटता है, उसमें तिथियों के हिसाब की जरूरत हैं। सांझ होते-होते फिर थक जाते हैं; दिन ढल जाता है, रात शुरू नहीं, कथा का सार ही काफी है। इसलिए ईसाइयत कहती है कि हो जाती है। फिर...। जीसस इज़ दि फर्स्ट हिस्टारिक पर्सन। वे ठीक कहते हैं कि जीसस इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं, निद्रा छोटी मृत्यु है, निद्रा | पहले ऐतिहासिक पुरुष हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे सब पुरुष-कृष्ण Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल हों, कि ऋषभ हों, कि राम हों, कि परशुराम हों-ये सब भी नहीं देखी। उसका पिता अगर उससे कहे कि बहुत शीघ्र वर्षा नान-हिस्टारिक हैं, ये सब गैर-ऐतिहासिक हैं। आएगी, आषाढ़ का पहला दिन करीब आता है। आकाश में काले इससे भारतीय मन को बड़ी पीड़ा होती है; लेकिन उसी मन को, | | बादल घिरेंगे, सब मौसम गीला, धुंधला हो जाएगा। फिर बूंदें जिसे भारत के रहस्यों का कोई पता नहीं है। इससे खुश होना चाहिए, | गिरेंगी, जो पृथ्वी के लिए अमृत जैसी तृप्तिदायी होंगी। वृक्ष हरे हो यह पौराणिक है और पुराण इतिहास से ज्यादा गहन बात है। | उठेंगे, फूलों से लद जाएंगे। सारा जीवन हरा हो जाएगा। इतिहास लेखा-जोखा है ऊपरी घटनाओं का; पुराण लेखा-जोखा | । तो वह बच्चा प्रतीक्षा करे। फिर आषाढ़ का पहला दिन आए है अंतरतम का। उसमें तिथियों का कोई मूल्य नहीं। उसमें, अखबार | और बादल घिरने लगें, तो वह पिता को कहे कि तुम कैसे अदभुत में जो घटनाएं छपती हैं, उनका कोई मूल्य नहीं। उसमें तो जो | | हो! ठीक वैसा ही हुआ जा रहा है। घटनाएं जीवन के अंतस्तल में, अस्तित्व के प्राणों में घटित होती | __ इस पिता को सिर्फ इतना ही पता है कि वर्ष के वर्तुल में, चक्र हैं, केवल उनका लेखा-जोखा है। में वर्षा एक बार आती है। ठीक प्रत्येक ब्रह्मा के काल में कितने ___ इसलिए एक बहुत मजेदार घटना घट सकती है, वह सिर्फ भारत | लोग पैदा होते हैं! में घट सकती है। वह यह है कि वाल्मीकि ने राम के जन्मने के पहले ___ जैन अनुभवियों को पता है कि ब्रह्मा के एक दिन में चौबीस रामायण लिखी। यह दुनिया में कहीं भी नहीं घट सकती। यह कैसे | तीर्थंकर पैदा होते हैं। एक-एक घंटे पर, इसलिए चौबीस। चौबीस घट सकती है! क्योंकि इतिहास लिखने वाला तो इतिहास तभी | | घंटे में एक-एक घंटे पर एक-एक टीचर, एक-एक सदगुरु पैदा लिखेगा, जब इतिहास घट जाए। कोई अखबार खबर छाप सकता | होता है। इसलिए चौबीस तीर्थंकर पैदा होते हैं। है, जो अभी घटी न हो? अखबार तो खबर छाप सकता है, जो घट | ये हर वर्तुल में पैदा होते हैं। इनके नाम अलग होंगे, इनके गई हो। इसलिए इतिहास केवल सड़ा हुआ कचरा है, जो हो चुका, । इतिहास की रेखाएं थोड़ी-बहुत अलग होंगी। क्योंकि हर बार, हर जो बीत चुका। वह सिर्फ राख है मुर्दो की। इतिहास मरे का | | आषाढ़ के पहले दिन पर आकाश में घिरे बादलों की रूप-रेखा लेखा-जोखा है। एक-सी नहीं होती। कोई और होगा राम. कोई और होगा कृष्ण। सिर्फ एक अनूठी घटना इस मुल्क में घटी है और वह यह कि लेकिन ऊपर का लेखा-जोखा अलग होगा, इतिहास अलग होगां, वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले राम की कथा लिखी है। बड़ी | | भीतर का जो सारभूत तत्व है, वह एक ही होगा। कभी वह दशरथ अनूठी है और बड़ी बेबूझ है, एब्सर्ड है, तर्कसंगत नहीं है। कोई भी | का पुत्र होगा, और कभी दशरथ का पुत्र नहीं होगा। लेकिन राम कहेगा, क्या पागलपन है! पहले कथा कैसे लिखी जा सकती है? जब भी पैदा होगा, तो वह भीतर का जो रामपन है, दि एसेंशियल, लिखी जा सकती है, अगर पुराण का खयाल हो। वाल्मीकि को वह जो सारभूत है, वह वही होगा। अगर यह पता है कि राम जैसा व्यक्ति हर वर्तुलाकार अस्तित्व में वाल्मीकि उसी सारभूत राम की कथा लिखते थे। और बड़ी मधुर पैदा होता है, राम जैसा व्यक्ति ब्रह्मा के हर दिन में एक बार पैदा है यह बात कि राम फिर उस कथा के अनुसार जीवन का आचरण होता ही है, तो यह कथा लिखी जा सकती है। यह राम जैसा व्यक्ति करते हैं। क्योंकि वाल्मीकि को सत्य तो होना ही चाहिए। वाल्मीकि हजारों दफे पहले भी पैदा हो चुका है। के असत्य होने का कोई उपाय ही नहीं है। जो पुराण को जानते हैं, समझें ऐसा कि हमें पता है कि हर वर्ष, वर्ष के किसी काल में | वे कभी असत्य नहीं होते; और जो इतिहास को जानते हैं, वे कितना वर्षा आती है। एक बार जब वर्ष का वर्तुल घूमता है, तो वर्षा आती ही जान लें, वे सदा ही असत्य होते हैं। है। तो वर्षा आने के पहले जान लेने में कौन-सी कठिनाई है! जिसे __इतिहास कभी निर्णय नहीं कर पाता—यह बहुत मजे की बात पता हो कि आषाढ़ आएगा और आषाढ़ के पहले दिन आकाश में | | है-हम पीछे का भी निर्णय नहीं कर पाते कि क्या हुआ। हमला बादल घिरेंगे, भूखी-प्यासी पृथ्वी मांग करेगी और आकाश से | | पाकिस्तान ने किया हिंदुस्तान पर, कि हिंदुस्तान ने किया पाकिस्तान उसकी प्यास को तृप्त करने के लिए पानी गिरेगा। इसमें कौन-सी | पर, वह कभी निर्णीत नहीं होता। वह कभी निर्णीत नहीं होता, कि कठिनाई है, जिसे पता हो पिछले वर्षों का, वर्षा के होने का! | | चीन हमलावर था कि हम हमलावर थे। चीन के इतिहासविद लेकिन एक नया बच्चा पैदा हुआ है, जिसने अभी पहली वर्षा | लिखते रहेंगे कि हमने हमला किया और हमारे इतिहासज्ञ लिखते 97 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* रहेंगे कि चीन ने हमला किया। और सदियों तक ये दोनों इतिहास चलते रहेंगे । और कभी तय होने वाला नहीं कि हमला किसने किया। इतिहास, जो घट चुका, वह भी तय नहीं होता। और अभी पश्चिम का बहुत बड़ा विचारशील इतिहासविद टायनबी कहता है कि मैं इतना ही कह सकता हूं इतिहास के संबंध में कि ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही मान सकते हैं कि जिस पर भी हम सब सहमत हो जाते हैं, एक बात पर, वह सबसे कम असत्य होगी, बस। और सत्य होगी, इस पर नहीं हो सकते तय। कम से कम असत्य यह बात होगी, इस पर हम तय हो सकते हैं ज्यादा से ज्यादा। इस पर भी विवाद जारी रहेगा। इस पर भी निर्णय नहीं हो सकता। एक तो यह स्थिति है और एक स्थिति वह है कि पहले लिखी जाती है कथा और राम का आचरण उसके अनुसार हो जाता है। और राम के आचरण में अगर थोड़ा-बहुत भेद भी रहा होगा, तो उस भेद को हटा दिया गया। उस भेद का कोई मूल्य नहीं है। राम उतने निर्णायक नहीं हैं, जितने निर्णायक वाल्मीकि हैं। क्योंकि राम की जो ऊपरी घटनाएं हैं, नान - एसेंशियल हैं, कि वह किसके घर में पैदा हुए, कि उन्होंने कितनी रोटी एक दिन खाईं, कि किससे क्या बात की, यह बेमानी है। उनका रामपन कैसे प्रकट हुआ, वही महत्वपूर्ण है। पुराण का अर्थ यह है। अव्यक्त से व्यक्त का जो जन्म है, अगर वह वर्तुलाकार है, तो हम भविष्य के ज्ञाता हो सकते हैं। और अतीत के संबंध में भी हमारी निष्पत्ति सत्य हो सकती है। कम से कम असत्य नहीं, पूर्णतः सत्य हो सकती है। लेकिन समय की इस वर्तुलाकार दृष्टि का अगर खयाल हो, तो दो बातें स्मरण रख लेनी चाहिए। वह यह कि जो भी शुरू होता है, वह समाप्त होता है। पश्चिम को खयाल ही नहीं है प्रलय का । पश्चिम में खयाल है क्रिएशन का। ईश्वर ने जगत बनाया। लेकिन पश्चिम यह सोच ही नहीं सकता कि वही ईश्वर इस जगत को मिटाएगा भी। क्योंकि यह मिटाना, बनाने वाले के साथ संगत नहीं मालूम पड़ता, इनकंसिस्टेंट मालूम पड़ता है। पश्चिम सोच सकता है कि पिता है ईश्वर जगत का, लेकिन यह नहीं सोच सकता कि वही विध्वंसक और हत्यारा भी होगा। हम सोच सके। सच तो यह है कि हमसे ज्यादा हिम्मतवर सोचने वाले लोग जमीन पर फिर नहीं हुए। यह बड़ी हिम्मत की बात है यह सोचना कि जिसने बनाया है इस जगत को, वही इसे विनाश में ले जाएगा। क्योंकि हमें एक सत्य दिखाई पड़ गया कि जो भी चीज बनती है, वह मिटती है। और जो बनाने वाला है, वही मिटाने वाला भी है । और मिटने और बनने में हमने विरोध नहीं देखा, एक ही | प्रक्रिया के दो हिस्से देखे। सुबह और सांझ में हमने विरोध नहीं देखा। सुबह जिसे उगते देखा, सांझ उसे डूबते देखा । वही सूरज सांझ को डूबता है, जो सुबह उगा था। कभी आपने खयाल किया कि जिस सूरज के उगने से सुबह जन्मती है, उसी सूरज के डूबने से रात का अंधेरा उतरता है। वह एक ही सूरज दोनों काम करता है दो छोरों पर। 98 तो ब्रह्मा के मुहूर्त क्षण में तो सृजन होता है और ब्रह्मा के अंतिम | मुहूर्त में विनाश होता है, सब पुनः खो जाता है। और फिर सब ताजा और नया होकर फिर जन्मता है । और यह जन्म की प्रक्रिया अंतहीन चलती रहती है। अभी ज्योतिष की नवीनतम खोजों ने बताया कि जगत स्थिर नहीं है, ठहरा हुआ नहीं है, एक्सपैंडिंग है, फैलता हुआ है, विस्तार कर रहा है। यह आपके खयाल में एकदम से नहीं पकड़ेगा। जैसे कि कोई बच्चा अपने रबर के गुब्बारे में, फुग्गे में हवा भर रहा हो; और फुग्गा बड़ा होता जाए, और बड़ा होता जाए, और बड़ा होता जाए, | ऐसा ही यह अस्तित्व रोज बड़ा हो रहा है; रोज फैलता जा रहा है। और छोटी-मोटी गति से नहीं, बड़ी तीव्र गति से । एक सेकेंड में लाखों मील का फैलाव हो जाता है। हर तारा दूसरे तारे से दूर भागा जा रहा है। रात को जो आप तारे देखते हैं, जहां आप उन्हें आज | देखते हैं, कल आप उन्हें वहीं नहीं देखेंगे। वे दूर हटते जा रहे हैं। पुरानी कथाओं में यह बात है कि कभी जमाना था कि तारे बिलकुल आदमी के मकान के छप्परों के निकट थे। वह पहले तो | कथा थी, लेकिन अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वह कथा कभी सच रही होगी। चाहे आदमी न रहा हो, छप्पर न रहे हों, लेकिन कभी तारे इतने करीब जरूर रहे होंगे। कभी ऐसा जरूर रहा होगा कि हवा का जो गुब्बारा है, बिलकुल बंद था, हवा उसमें थी ही नहीं, सब सिकुड़ा हुआ पड़ा था। तो यह हो सकता है कि यह सारा विराट शून्य रहा हो और जरा-सी जगह में सब तारे इकट्ठे रहे हों। फिर वे फैलते चले गए हैं, बड़े होते चले गए हैं। र रोज बढ़ते जा रहे हैं। तो पश्चिम में एक सवाल रहा है ज्योतिष के सामने कि आखिर ये कहां तक फैलेंगे ? फैलने का आखिरी अंत एक्सप्लोजन ही हो सकता है। अंगर | बच्चा गुब्बारे को फुलाए ही चला जाए, तो एक सीमा आ जाएगी, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सृष्टि और प्रलय का वर्तुल * जिसके आगे रबर नहीं फूल सकेगी और गुब्बारा फूटेगा। उसी को | | किया और कहा, नालायक, बदतमीज! तूने मुझे पहले क्यों न हमने प्रलय कहा है। और हमने ब्रह्मांड कहा है अस्तित्व को। बताया? पांच दिन, न मालूम कितना भोजन छूट गया। यह तो मुझे ब्रह्मांड का अर्थ ही होता है, दैट व्हिच इज़ एक्सपैंडिंग कांसटेंटली। भी शक होता था कि जितना मैं खा रहा हूं, यह खाने की सीमा नहीं ब्रह्मांड शब्द का ही यही अर्थ होता है। ब्रह्म का अर्थ होता है, | | है। यह तो मुझे भी पता है कि खाने की आखिरी सीमा फूट जाना विस्तार। विस्तार और ब्रह्म एक ही चीज से बने हैं। हम कहते हैं, | है। लेकिन यह तरकीब मुझे पता न थी। वृहत, विस्तीर्ण, वे सब ब्रह्म से ही बने हैं। ब्रह्म का अर्थ होता है, खाने की आखिरी सीमा फूट जाना है, दि बर्ट! फैलने की जो फैलता ही चला जाता है, जो रुकता ही नहीं, फैलता ही चला| आखिरी सीमा फूट जाना है, दि बट। जो बहुत फैलेगा, जल्दी फूट जाता है। ब्रह्मांड का अर्थ है, जो सदा फैलता चला जाता है। | जाएगा। जो जल्दी फैलना चाहेगा, उतनी जल्दी फूट जाएगा। जो लेकिन जो भी चीज सदा फैलती रहेगी, एक दिन विस्फोट को बहुत जल्दी बढ़ना चाहेगा, वह जल्दी मर जाएगा। क्योंकि जल्दी उपलब्ध होगी। और वह घड़ी आ जाएगी, जहां सब टूटकर बिखर | | बढ़ने का और कोई मतलब नहीं होता, सिर्फ जल्दी मर जाना। जो जाएगा। वही प्रलय का दिन है। | जल्दी करेगा किसी चीज को पाने की, उतनी ही जल्दी खो देगा, बच्चा कब तक बढ़ता रहेगा? कभी आपने खयाल किया कि | क्योंकि पाने का अंत खोना है। बच्चा बढ़कर आखिर में करता क्या है? बच्चा बढ़-बढ़कर बस लेकिन ये दो विरोधी बातें हमें एक साथ दिखाई नहीं पड़तीं, बूढ़ा ही होता है। और क्या करेगा? बच्चा बढ़-बढ़कर बस बूढ़ा | कृष्ण को दिखाई पड़ती हैं। वे कहते हैं, वह अव्यक्त से जो पैदा ही होता है। और जब मां अपने बच्चे को बड़ा कर रही है, तो उसे | | होता है और फैलता है, वह ब्रह्मा का दिन। फिर अव्यक्त में कल्पना भी नहीं होती कि वह उसको बढ़ा कर रही है। बढ़ा ही कर सिकड़ने लगता है, वह रात। और फिर अव्यक्त में लीन हो जाता, रही है. कछ और उपाय नहीं है। हर मां अपने बच्चे को बढ़ा कर वह प्रलय है। और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में अव्यक्त में ही रही है। जो सहायता पहुंचा रही है, वह सब उसको बुढ़ापे की तरफ | सब कुछ लय हो जाता। ले जा रही है। और हर मां अपने बच्चे को बचाकर पहुंचाएगी| | और हे अर्जुन, वह ही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति कहां? मौत के सिवाय कोई जगह तो है नहीं, जहां पहुंच जाए। | के वश में हुआ, रात्रि के प्रवेशकाल में लय होता और दिन के बचाओ, सम्हालो और मौत की तरफ ले जाओ। प्रवेशकाल में फिर उत्पन्न होता है। लेकिन मृत्यु से हम बचकर चलते हैं। हम सोचते ही नहीं | __ जैसे एक व्यक्ति के लिए मैंने कहा कि वह अपनी ही वासना के उसको, हम सोचते नहीं कि जन्म मृत्यु की शुरुआत है। हम सोचते | कारण, अपनी वासना के वश में हुआ, या वासना के कारण अवश ही नहीं कि प्रारंभ अंत है। हम सोचते ही नहीं कि फैलना फटने की हआ. अपने वश के बाहर हआ. फिर मरते क्षण में कामना करता तैयारी है। . | है, फिर-फिर जन्म पाऊं। फिर जन्म जाता है। फिर दौड़ता है, सुबह ___ मुल्ला नसरुद्दीन यात्रा के लिए गया है, धर्मतीर्थ। साथ में एक और रात, और फिर मरता है। शिष्य को भी ले लिया है, शागिर्द को, वह उसकी रास्ते में सेवा भी ठीक ऐसे ही यह पूरा ब्रह्मांड भी कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, यह करता है। लेकिन मुल्ला बड़ा परेशान है उसकी एक हरकत से। जब पूरा ब्रह्मांड भी, यह समस्त भूत समुदाय, यह जो कुछ भी दिखाई भी वह खाना खाता है, तो बीच-बीच में शरीर को काफी हिलाता पड़ता है सब, इसको अगर हम इकट्ठा लें, तो यह भी वासना के है। फिर हिलाकर फिर खाना खाता है। फिर शरीर को हिलाता है, वश में हुआ, कामना से प्रेरित हुआ, अपने वश के बाहर हुआ, फिर खाना खाता है। दो-चार दिन मुल्ला ने बरदाश्त किया। फिर आकांक्षा में ग्रस्त हुआ, फिर-फिर पैदा होता है, फिर-फिर लय को मुल्ला ने कहा कि तू यह क्या करता है! यह करता क्या है | | उपलब्ध होता है। फिर होती है सृष्टि, फिर होता है प्रलय। और यह बार-बार? खेल इस भांति चलता रहता है। तो उस युवक ने कहा कि बात ऐसी है मुल्ला, कि हिलाकर मैं | । परंतु अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन खाने को जरा ठीक जगह बिठा देता हूं। जगह थोड़ी ज्यादा हो जाती | अव्यक्त है, वह पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी है, फिर मैं खा लेता हूं। मुल्ला ने उसको खींचकर एक चांटा रसीद नष्ट नहीं होता है। 99] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* कृष्ण उत्तर दे रहे हैं अर्जुन के प्रश्नों का। उस उत्तर में वे कह रहे में गाड़ो, तो वृक्ष निकल आता है। तो बीज अव्यक्त था जरूर, हैं कि यह तो नष्ट होता ही रहता है। यह बहुत विचार की बात है। लेकिन व्यक्त होने को आतुर था। बीज के भीतर भी आतुरता थी वे अर्जुन से कह रहे हैं कि तू इसकी फिक्र करता है कि सामने जो प्रकट होने की। छिपी थी, दिखाई नहीं पड़ती थी, लेकिन थी, आदमी खड़े हैं, मर जाएंगे? ये बहुत बार मर चुके, ये फिर जन्म | बिल्ट-इन थी कहीं। एक-एक पत्ता वृक्ष का छिपा था भीतर बीज लेंगे, ये फिर मरते रहेंगे। यह मरना और जन्म लेना प्रकृति का के और आतुर था कि प्रकट हो जाऊं। पानी गिरे, कोई खाद डाल हिस्सा है। और इन आदमियों की तो बात ही छोड़, यह पूरी प्रकृति के, कोई मिट्टी में दबा दे, टूट जाऊं, खिलं, बड़ा हो जाऊं। और भी न मालूम कितनी दफे बन चुकी है और न मालूम कितनी दफे फिर एक बीज करोड़ बीज बन जाए। वे करोड़ बीज भी कहीं भीतर मिट चुकी है। अनंत है यह प्रक्रिया। यह सब होता ही रहा है। बनता | छिपे हैं। ही रहता है, मिटता ही रहता है। वासना बनाती है, फिर वासना ही | तो बीज अव्यक्त है, अनमैनिफेस्ट है, लेकिन फिर व्यक्त तो हो मिटा देती है। तू इसकी चिंता में मत पड़। और तू इसकी चिंता को | | ही जाता है। इसलिए इसे पूर्ण अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। जो धर्म मत समझ। तू यह मत सोच कि मैं इनको मारने से बच | व्यक्त हो ही जाता है, वह कोई ज्यादा अव्यक्त नहीं है। जाऊंगा, तो ये मरेंगे नहीं। | एक सूफी फकीर हुआ है, बायजीद। एक धनपति उसके पीछे कृष्ण कहते हैं, तू सिर्फ निमित्त है, मृत्यु तो होकर ही रहेगी। तू पड़ा है। रोज उसके पैर दाबता है और कहता है, राज बता दो। टेल अपने को कर्ता मत मान। तू मारने वाला है, ऐसा भी मत मान। और | | मी दि सीक्रेट। तुम्हारे जीवन का राज बता दो। बायजीद उससे तू भाग जाएगा, तो तू बचाने वाला है, ऐसा भी मत मान। तू कर्ता कहता है, जो राज है, अगर वह बता दिया जाए, तो राज कैसे नहीं है। इनकी मृत्यु इनकी जन्म की घड़ी में ही लिखी है। ये जिस रहेगा? सीक्रेट का मतलब ही यह है कि जिसे मैं तुझे बताऊंगा दिन जन्मे, उसी दिन मृत्यु को साथ लेकर जन्मे हैं। मृत्यु इनके भीतर नहीं। जिसे मैंने कभी किसी को नहीं बताया। तभी तो वह राज है, ही बड़ी हो रही है। तू शायद निमित्त बनेगा इनकी मृत्यु के प्रकट अन्यथा फिर राज कैसे रहेगा? होने का। तू नहीं बनेगा, तो कोई और बनेगा। कोई भी नहीं बनेगा, | | लेकिन वह आदमी मानता ही नहीं। वर्ष बीतने को आ गया। वह तो भी मृत्यु घटित होगी। मृत्यु से बचने का उपाय नहीं, क्योंकि ये है कि रोज पैर दबाए जाता है। वह कहता है बायजीद को कि बता जन्म गए। जो जन्म गया, वह मरेगा ही। और इनकी तो बात ही | दो राज। तो बायजीद ने एक दिन कहा कि तो ठीक है, आज बताए छोड़ तू, यह जो पूरा ब्रह्मांड तुझे दिखाई पड़ता है, यह भी बनता देता हूं, लेकिन एक शर्त रहेगी। क्या तुम मेरे राज को राज रखोगे? और बिखरता रहता है। आदमी ही पैदा नहीं होता, तारे भी पैदा होते | | किसी को बताओगे नहीं? विल यू मेनटेन दि सीक्रेट ऐज सीक्रेट? रहते और बिखरते रहते हैं। तारे ही पैदा नहीं होते और बिखरते। कसम खाओ कि क्या तुम राज को राज रखोगे और किसी को रहते, यह पूरा अस्तित्व भी फैलता और सिकुड़ता है, बनता और बताओगे नहीं। मिटता है, व्यक्त होता और अव्यक्त होता रहता है। तू इस चिंता में ___ उस आदमी ने कहा, कसम परमात्मा की कि राज को राज रखूगा मत पड़। और किसी को बताऊंगा नहीं। बायजीद ने कहा, शाबाश, अगर तू लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे उसकी भी खबर देता हूं, उस | अपनी कसम रख सकता है, तो मैं भी अपनी कसम रखंगा और अव्यक्त से भी परे...जिस अव्यक्त से यह ब्रह्मांड पैदा होता है, राज को बताऊंगा नहीं। और अगर मैं ही तोड़ दूंगा, तो तेरा कैसे अदृश्य से, अगोचर से यह ब्रह्मांड पैदा होता है, वह भी अव्यक्त | भरोसा करूं कि त नहीं बताएगा। पूरा अव्यक्त नहीं है। तो जो प्रकट हो जाए, वह अप्रकट नाम मात्र को था, जस्ट फार यह बहुत सूक्ष्म दर्शन की बात है, बारीक है, नाजुक भी। | दि नेम्स सेक। बीज नाम मात्र को अप्रकट है। इतनी तो तैयारी दिखा कृष्ण कहते हैं, जिसे मैंने अभी अव्यक्त कहा एक क्षण पहले, | रहा है प्रकट होने की। ऐसा आतुर है। नाम मात्र को अव्यक्त है। अनमैनिफेस्टेड, वह भी पूर्ण अव्यक्त नहीं है, क्योंकि मैनिफेस्ट तो | तो अभी जिस अव्यक्त की बात कही, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, हो ही जाता है, प्रकट तो हो ही जाता है। वह अव्यक्त माना है। लेकिन नाम मात्र को, क्योंकि व्यक्त हो बीज है, बीज में वृक्ष अव्यक्त है, माना। लेकिन बीज को जमीन जाता है। माना कि अदृश्य है, लेकिन दृश्य हो जाता है। 100 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल * तो जिस अदृश्य में दृश्य छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं | | के अध्ययन से यह तय किया जा सकता है कि वह किस भांति सकता। हमें दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें अगला जन्म लेगा, कैसा उसका व्यक्तित्व होगा, क्या उसके कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह | व्यक्तित्व का ढंग होगा। यह भी जाना जा सकता है कि वह सुंदर बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस होगा, कुरूप होगा, बहुत अति वासना से ग्रस्त होगा, कि कम अव्यक्त के भी पार, बियांड दिस अनमैनिफेस्ट, वह ब्रह्म है। वह | | वासना से ग्रस्त होगा—यह सब जाना जा सकता है। मरते क्षण में अव्यक्त से भी अति परे। बियांड दि बियांड, अव्यक्त से भी अति | | मन सिकुड़कर बीज बन जाता है। उस बीज में बिल्ट-इन, भीतर परे। उसके भी पार, पार के भी पार, अतिक्रमण का भी अतिक्रमण | छिप जाती है पूरी प्रक्रिया नए शरीर को ग्रहण करने की। करता हुआ वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त है। जो सनातन इसलिए इस जगत में कुरूप अकारण ही कुरूप पैदा नहीं होते, अव्यक्त है, इटरनली अनमैनिफेस्ट। यह तो टेंपररी अनमैनिफेस्ट | और न सुंदर अकारण सुंदर पैदा होते हैं। इस जगत में हम जो कुछ है, अस्थायी रूप से अव्यक्त है, फिर व्यक्त हो जाता है, फिर | भी लेकर पैदा होते हैं, वह हमारे मन के साथ लाया हुआ बीज है। अव्यक्त हो जाता है। | उस बीज के अनुसार ही हम निर्मित होते हैं। उस बीज के अनुसार लेकिन एक ऐसा अव्यक्त भाव भी है, एक ऐसा अव्यक्त | | ही ब्लूप्रिंट, नक्शा हमारे मन में छिपा है। वह हमारे शरीर को अस्तित्व भी है, एक ऐसा अव्यक्त होना भी है, जो कभी व्यक्त न | निर्मित करता है, बनाता है। हुआ है, न होगा, न हो सकता है। वह अव्यक्त के भी परे है। वही | यह जो शरीर आज बनकर खड़ा होता है, योग की गहनता को ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा, वही मोक्ष-या जो भी नाम हम | | जानने वाले निरंतर जानते रहे हैं कि मरते क्षण में आदमी के बीज देना चाहें, दें-वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर | | को देखा जा सकता है, कि अब यह कहां यात्रा करेगा, कैसे यात्रा भी नष्ट नहीं होता है। क्यों? क्योंकि उसका कभी कोई सृजन नहीं | | करेगा, क्या इसका फल होगा। हुआ, वह नष्ट नहीं हो सकता। उसकी कभी सुबह नहीं हुई, उसकी | । अभी वैज्ञानिक भी कहते हैं उन्हें मरने का तो पता नहीं पीछे सांझ नहीं हो सकती। उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, तो उसकी कभी का-वे कहते हैं, जब मां के पेट में पहला अणु जन्मता है, तब प्रलय नहीं हो सकती है। उसका अध्ययन करके हम बता सकते हैं बहुत-सी बातें, कि इस अगर तू जानना ही चाहता है अमृत को और अगर तू जानना ही आदमी की आंखों का रंग क्या होगा, इसकी ऊंचाई क्या होगी, चाहता है कि कैसे मैं लोगों की मृत्यु से बचूं और कैसे मैं मृत्यु से इसके बाल कैसे होंगे, यह कितनी उम्र का हो सकेगा, इसकी बुद्धि बचूं, विनाश से बचूं, तो अर्जुन से कृष्ण ने कहा, तू उसे जान ले, | कैसी होगी, इसका स्वास्थ्य कैसा होगा। बहुत कुछ हम मां के पेट जो अव्यक्त के भी पार है। में, जन्म का जो पहला क्षण है, मुहूर्त का, जब पहला अंडा निर्मित हमारे भीतर भी तीन पर्ते हैं। एक व्यक्त, जो हमारा शरीर है। | होता है, तब उस अंडे के अध्ययन से बहुत कुछ कह सकते हैं कि एक अव्यक्त, जो हमारा मन है। और एक अव्यक्त के भी पार | | क्या-क्या होगा। अव्यक्त, जो हमारी आत्मा है। मन में कुछ भी हो, तो आज नहीं | ___ यह दूसरे छोर से बात को पकड़ा जाना है। लेकिन आज जो मां कल व्यक्त हो जाता है। शरीर तो व्यक्त है ही। उसमें कुछ अव्यक्त | | के पेट में पहला अणु बना है, वह सिर्फ मां और पिता के देह-कणों नहीं है, वह व्यक्त है ही। लेकिन मन में जो कुछ हो, वह आज नहीं से मिलकर नहीं बन गया है, उसमें एक नया तत्व भी प्रविष्ट हुआ कल व्यक्त हो जाता है, बीज की तरह। और मन के ही अव्यक्त | | है, वह अव्यक्त मन है। मां का अणु भी व्यक्त है, पिता का अणु से शरीर का व्यक्त पैदा होता है। इसलिए जब हम मरते हैं, तो शरीर भी व्यक्त है। वे तो व्यक्त हैं, उनसे तो देह बनेगी; लेकिन उन दोनों तो छूट जाता है, लेकिन मन नहीं छूटता। मन को हम साथ ले जाते के बीच एक तीसरा तत्व भी प्रवेश कर गया है। हैं, वह बीज है, कैप्सूल है, बंद है, हमारे साथ चला जाता है। फिर | | इसीलिए एक ही मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं और सभी बच्चे नए शरीर को बना लेता है। | भिन्न होते हैं। उसका और कोई कारण नहीं है। क्योंकि उनका व्यक्त यह आप जानकर हैरान होंगे कि आप अगर मरते हुए आदमी के | तो सबका एक है, लेकिन अव्यक्त जो मन प्रवेश करता है, वह मन को पहचानने की क्षमता रखते हों, तो मरते क्षण में उसके मन | | | सबका अलग-अलग है। वे सब अपनी-अपनी यात्राएं लेकर साथ 101 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 * आ रहे हैं। वे सब भिन्न हो जाते हैं। जो अव्यक्त से भी अव्यक्त है। लेकिन वह तो बहुत दूर, हमें अपने इस जगत की भिन्नता हमारे अव्यक्त मन की भिन्नता है। फिर वह | शरीर का ही पूरा पता नहीं है, जो व्यक्त है। वह तो बहुत दूर, जो रोज-रोज प्रकट होनी शुरू होगी। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, | | व्यक्त है, मैनिफेस्ट है, हमें उस शरीर का भी पूरा पता नहीं है। मन शरीर में फैलने लगता है और प्रकट होने लगता है। फिर जो __ आपको अपने शरीर का भी पूरा पता नहीं है, अगर मैं ऐसा कहूं, फूल लगते हैं या कांटे लगते हैं, जो कुछ भी लगता है, वह मन से | तो आप कहेंगे, कैसी अजीब बात कर रहे हैं। नहीं, आपको आता है और फैलता चला जाता है। लेकिन इन दोनों के | बिलकुल पता नहीं है। इस शरीर में भी इतने राज छिपे हैं, उनका पार–व्यक्त शरीर और अव्यक्त मन के पार अव्यक्त से भी हमें कोई पता नहीं। इन्हीं राजों की खोज योग और तंत्र और समस्त परे, अति परे आत्मा है। धर्म करते रहे हैं—इन्हीं राजों की खोज। इस शरीर में कुंडलिनी यह व्यक्ति के अणु को हम समझ लें, तो ठीक ऐसा ही विराट | | जैसी शक्ति छिपी है, लेकिन उसका हमें कभी कोई पता नहीं। अस्तित्व का अणु, महाअणु भी है। व्यक्ति को परमाणु कहें, | | उसकी झलक भी नहीं मिली। वह इसी शरीर में छिपी है। व्यक्त का अस्तित्व को महाअणु कहें। यह क्षुद्रतम है, वह विराटतम है, हिस्सा है, अव्यक्त का नहीं; बिलकुल व्यक्त है। लेकिन हम कभी लेकिन इन दोनों की व्यवस्था बिलकुल एक जैसी है। इसलिए पुराने | उस पर पहुंचे ही नहीं। शास्त्र कहते हैं, जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है, फैला हुआ है सिर्फ । जैसे हमारे ही घर में खजाना गड़ा हो और हमें कुछ पता न हो विराट बड़ा रूप होकर। | और हम दूसरों के घरों के सामने भीख मांग रहे हों। और हमारे घर कृष्ण ने कहा कि अगर तुझे सच में ही विनाश की संभावनाओं | में खजाना गड़ा हो और हम भीख मांगते-मांगते मर जाएं। लेकिन के पार हो जाना है, तो तू उस ब्रह्म की खोज कर, जो न कभी पैदा गड़े होने से खजाना खजाना नहीं होता। जब तक वह प्रकट न हो होता है और न कभी मरता है; जो न कभी प्रकट होता है और न | जाए, तब तक खजाने का कोई प्रयोजन नहीं है। कभी अप्रकट होता है; जो न बनता है, न बिगड़ता है; जो न हमारे शरीर में अदभुत शक्तियां छिपी हैं। उन शक्तियों का हमें संगृहीत होता है, न बिखरता है; जो बस है, जस्ट इज़। जो सिर्फ | | पता नहीं है। जिस व्यक्ति को इस विराट यात्रा पर निकलना है, है; जिसकी सुबह नहीं, सांझ नहीं; आना नहीं, जाना नहीं; जो बस | | पहले उसे अपने शरीर के भीतर छिपी हुई शक्तियों से परिचित होना है, उसकी तू खोज कर। पड़ता है। क्योंकि उन छिपी हुई शक्तियों के सहारे वह अपनी मन उसकी खोज कहां से हो सकती है? एक खोज तो यह है कि | | की छिपी हुई शक्तियों को खोजने में समर्थ हो जाता है। और मन हम गीता पढ़ लें और हमें पता चल जाए। काश, इतना सरल होता, | | में तो बहुत कुछ छिपा है, जिसका हमें बिलकुल भी पता नहीं। मन तो गीता इतने लोग पढ़ चुके हैं कि इस जगत में ज्ञानी ज्यादा होते की हम सतह पर ही जीते हैं। उसकी अनंत गहराइयां हैं, उनका हमें और अज्ञानी कम। अगर यह इतना सरल होता मामला कि हम पढ़ | कोई भी पता नहीं है। लें सिद्धांत को, समझ लें बिलकुल और इंटलेक्चुअल | आपका मन आपके समस्त जन्मों की स्मृति अपने साथ लिए अंडरस्टैंडिंग, बौद्धिक समझ बिलकुल पूरी हो जाए, तो भी कुछ | हुए अभी मौजूद है, यहीं। आपने जो कुछ भी किया है अनंत-अनंत नहीं होता। कभी-कभी समझ, कोरी समझ, बड़ी नासमझी की होती काल में, उस सबकी स्मृति एनग्रेव्ड है; आपके भीतर मन के कोने है। सब समझ लेते हैं शब्दों को, सिद्धांतों को, फिर भी हाथ के में सब दबी पड़ी है। उसे आज भी खोला जा सकता है। और पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता है। वह तो तभी पड़ेगा, जब इस समझ आपको जानना जरूरी नहीं है, कि आप किसी और से पूछने जाएं का अनुभव हो। | कि पुनर्जन्म होता है या नहीं, आपके भीतर ही आप उतर सकते हैं और इस विराट में उतरना तो बहुत कठिन है। इस विराट में उन सीढ़ियों को, जहां से आपको पिछले जन्मों की याददाश्त आनी उतरने वाले लोग हैं। और जब कोई इस विराट में उतर जाता है, शुरू हो जाए; जहां से आप लौट पड़ें यात्रा पर और टाइम ट्रैक में तब उसकी हैसियत कृष्ण, बुद्ध और महावीर जैसी हो जाती है। | वापस, समय की धारा में उलटे लौट जाएं और पीछे के सारे दृश्य लेकिन विराट में उतरना तो अति कठिन है, पहले तो अपने परमाणु | | फिर से देखें। वे सब के सब मौजूद हैं। वे सब के सब मौजूद हैं। में ही उतर जाएं, वही काफी है। अपने ही भीतर जरा उसे खोज लें, कोई भी स्मृति कभी खोती नहीं है मन में, लेकिन उसका हमें कोई 102 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सृष्टि और प्रलय का वर्तुल १ पता नहीं है। हूं कि अब मुझे दस घंटों के लिए भूख-प्यास की फिक्र न करनी इस मन के पास अनूठी-अनूठी–शक्तियां हैं, लेकिन हम | पड़ेगी। अब ये दस रुपए मेरे पास हैं, अब मुझे शरीर की दस घंटे क्षुद्र चमत्कारों से दीवाने हो जाते हैं। एक आदमी हाथ उठा दे और | तक चिंता नहीं करनी है; मैं दस घंटे तक शरीर को अब भूल सकता राख आपके हाथ में दे दे, तो हम पागल हो जाते हैं कि मिरेकल हो | | हूं। और इन दस रुपयों का सहारा लेकर कोई आदमी दस घंटे के गया. चमत्कार हो गया। यह ऐसे ही है कि जिसके घर में | ध्यान में चला जाए, तो ध्यान से जो मिलेगा, वह दस रुपयों से हीरे-जवाहरातों का ढेर लगा है, वह किसी के द्वार पर जाए, और | अनंतगुना ज्यादा है, उसका कोई हिसाब नहीं। और जो मिलेगा, एक आदमी उसे खीसे से निकालकर एक नया पैसा दे दे, और वह वह कभी खोता नहीं। कहे, चमत्कार! बस, ये सब चमत्कार ऐसे ही हैं। आपको अपने | __ अब दस रुपए का हम दोनों उपयोग कर सकते हैं। क्षुद्र वासना मन की शक्ति का कोई पता नहीं कि मन क्या कर सकता है। | में करेंगे, तो वासना पुनरुक्ति वाली है, वह कल फिर खड़ी हो पतंजलि ने जिसे सिद्धियां कहा है, वे सब मन की छिपी हुई | | जाएगी, दस रुपयों को खाकर फिर खड़ी हो जाएगी। शक्तियां हैं। वे आठ शक्तियां मन की शक्तियां हैं। और मन मैं कल ही एक कहानी कह रहा था। कहानी एक वास्तविक अनमैनिफेस्ट, अव्यक्त है, बीज की भांति। वे सब प्रकट हो सकती घटना है। स्विटजरलैंड में एक आदमी को, एक गरीब दर्जी को दस हैं। हम तो उनके धुएं में एकदम अंधे हो जाते हैं। कभी किसी आदमी | लाख रुपए की लाटरी मिल गई। दूसरे महायुद्ध के पहले की घटना में छोटी-मोटी कोई शक्ति प्रकट हो जाती है, तो हम बिलकुल अंधे | | है, बहुत अदभुत घटना बनी। दस लाख की लाटरी मिल गई। सांझ और पागल हो जाते हैं। कुछ मूल्य नहीं है उनका, क्योंकि मन से जो को वह अपनी दुकान पर कपड़े सी कर दुकान बंद करने की तैयारी शक्तियां प्रकट होती हैं, वह संसार का हिस्सा है। में था कि लाटरी की खबर देने वाले अधिकारी आए। उन्होंने इसलिए पतंजलि ने अपने सिद्धियों के विवरण में स्पष्ट कहा कि जांच-पड़ताल की और पक्का पाया कि यही आदमी है। उस दर्जी इनका मैं वर्णन सिर्फ इसलिए करता हूं योग-सूत्र में, ताकि तुम्हें | को उन्होंने कहा कि तुम्हें दस लाख की लाटरी मिल गई, भगवान पता हो कि तुम्हारे भीतर क्या छिपा है। लेकिन न तो ये पाने योग्य को धन्यवाद दो। हैं, न ये चाहने योग्य हैं; और जो इन्हें पाने और चाहने में लग जाता उसने कहा, धन्यवाद तो पीछे दूंगा! पहले उसने चाबी लगाकर है, उसकी परम यात्रा में बाधा पड़ती है।। दरवाजा बंद किया और चाबी सामने के कुएं में फेंक दी। उसने परम यात्रां तो अव्यक्त से भी अव्यक्त में जाना है, मन के भी कहा कि अब खत्म; यह दर्जी की दुकान बंद। अब इससे कोई पार। लेकिन मन की ये छिपी हुई शक्तियां अगर जगा ली जाएं और लेना-देना नहीं। आदमी समझदार हो और इन शक्तियों के मोह में ग्रस्त न हो | एक साल में उस आदमी को पहचान नहीं सकते थे कि वह क्या जाए-जो कि अति कठिन है तो इन शक्तियों के द्वारा वह उस | हो गया। वह बिलकुल करीब-करीब पागल, रुग्ण, सब कुछ हो अव्यक्त की, अव्यक्त से भी जो अव्यक्त है, उसकी खोज पर | | गया, जो हो सकता था। रुपया, जो नासमझ के हाथ में करता है, निकल सकता है। | वह सब कर दिया। शराब पी, वेश्याओं के पास भटका। शायद ही शक्तियों के दो उपयोग हो सकते हैं। या तो हम उस शक्ति से | सोया सालभर। सब तरह बर्बाद हो गया और दस लाख रुपए भी अपने क्षुद्र तल पर खड़े होकर कोई काम ले लें; और या उस शक्ति उसने सालभर में बर्बाद कर दिए। सालभर बाद एक पैसा उसके से कोई काम न लें, केवल जिस तल पर वह शक्ति है, उसके पार | पास नहीं था। वापस आकर अपनी दुकान का ताला तुड़वाकर फिर जाने के लिए धक्का ले लें। दुकान पर बैठा। एक साल में दस साल बूढ़ा हो गया। सब तरफ मुझे दस रुपए मिल जाएं, तो इन दस रुपयों से मैं अपनी किसी जीर्ण-जर्जर हो गया। वासना को भी तृप्त कर सकता हूं। और ये रुपए खो जाते हैं। और | लेकिन बड़ा मजा जो हुआ वह यह कि एक साल बाद फिर उसे मेरी वासना दो दिन बाद फिर वापस अपनी जगह लौट आएगी। | लाटरी मिल गई। फिर दस लाख रुपए की लाटरी, जो कि मुश्किल इसलिए रुपए मिले या न मिले, बराबर हो गए। मैं इन दस रुपयों से होता है कि एक आदमी को दो बार लाटरी मिल जाए। और से दस घंटे के लिए बाहर के जगत की चिंता से भी मुक्त हो सकता | | जब अधिकारी उसके सामने आया, तो उसने अपनी आंखें 103 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 उठाईं-चश्मा लग गया था सालभर में-चश्मे से गौर से देखा, हम सब के साथ ऐसा होता है। जरा-सा कुछ मिल जाए कि हम वही आदमी! दर्जी ने कहा कि फिर क्या वही झंझट लेकर आ गए? पागल हो जाते हैं। मन के अव्यक्त स्रोत से शक्ति जगती है, उस उसने कहा कि हम भी चकित हैं! झंझट कह रहे हो? दस लाख की | वक्त बहुत सावधान होने की जरूरत है। क्योंकि उस शक्ति का लाटरी फिर तुम्हें मिल गई! उस अधिकारी ने कहा, भगवान को | | उपयोग हो सकता है या तो शरीर की वासनाओं के लिए, तब आप धन्यवाद दो। वापस गिर पड़ेंगे; या उसका उपयोग हो सकता है उस परम अव्यक्त उसने कहा, धन्यवाद पीछे दूंगा, पहले लाटरी के कागजात कहां की यात्रा के लिए ईंधन की तरह, पेट्रोल की तरह। उस शक्ति पर हैं? कागजात लेकर उसने कुएं में फेंक दिए। उसने कहा कि अब | आप सवार हो जाएं, परम अव्यक्त की यात्रा पर निकल जाएं। दुबारा उस नर्क में जाने की बिलकुल इच्छा नहीं। सालभर में दस | वह अव्यक्त, परम अव्यक्त, दि अल्टिमेट अनमैनिफेस्ट लाख ने जो नर्क दिया, अब दुबारा नहीं! इस जन्म में तो बिलकुल आपके भीतर इस क्षण भी उतना ही मौजूद है, जितना कभी था और नहीं! अगले जन्म में भूल जाऊं, फिर दूसरी बात है। और अपनी कभी होगा। दुकान पर बेचारा फिर अपने कपड़े काटने में लग गया। वह और जब तक आप अपने शरीर में होते हैं, तब तक दूसरा अधिकारी अवाक खड़ा है! आदमी आपसे अलग है, सब शरीर आपसे अलग हैं। शरीर के क्या हुआ? लेकिन इतनी समझ बहुत कम लोगों में होती है। तल पर सब अलग हैं। जब आप मन के करीब आते हैं, तो शायद एक आदमी को दो दफे लाटरी मिलना इतना दुर्लभ नहीं है, | कभी-कभी मन के साथ दूसरे से तालमेल भी बैठ जाता है और लेकिन इतनी समझ आदमी में होनी बड़ी दुर्लभ है। एकता भी अनुभव होती है। कभी कोई किसी के प्रेम में गिर जाता शक्ति मिलती है, हम उसे और निर्बल होने के काम में लाते हैं। | है। प्रेम में गिरने का केवल एक अर्थ है कि दोनों के मन ने कहीं बड़े मजे की बात है! शक्ति मिलती है, तो हम दुर्बल होने के काम | एकता का सूत्र खोज लिया। में लाते हैं उसे। और जो समझदार हैं, वे दुर्बल भी होते हैं, तो | शरीर के तल पर कोई एकता कभी नहीं हो पाती। मन के तल दुर्बलता को भी शक्ति की खोज बना लेते हैं। | पर कभी-कभी एकता सध जाती है। लेकिन जो मन के भी पार उतर __ मन में अव्यक्त शक्तियां छिपी हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति ध्यान में | | जाते हैं, वहां अनेकता नहीं रह जाती; वहां एकता सधी ही हुई है। उतरना शुरू होता है, मन की अव्यक्त शक्तियां प्रकट होने लगती | इसे हम ऐसा समझें कि मैं एक सर्किल खींचूं, एक वर्तुल खींचू, हैं। और तभी खतरे शुरू हो जाते हैं। उसके बीच में सेंटर पर एक निशान बना दूं। फिर वर्तुल की परिधि एक महिला मेरे पास काम कर रही थी। एक छोटी-सी घटना | | से एक रेखा खींचं केंद्र की तरफ, फिर दूसरी रेखा खींचं, फिर एक ध्यान के शिविर में उसे घटी। ध्यान गहरा हुआ, थोड़ा ही गहरा | | तीसरी रेखा खींचूं। ये तीनों रेखाएं परिधि पर फासले पर होंगी और हुआ। ध्यान से लौटते वक्त साथ में किसी महिला के कंधे पर उसने जैसे-जैसे केंद्र की तरफ चलेंगी, पास होने लगेंगी। और जब केंद्र हाथ रख लिया चलते वक्त। उस महिला की कमर में दर्द था। पर पहुंचेंगी, तो एक हो जाएंगी। जो परिधि पर बिलकुल भिन्न-भिन्न उसके हाथ रखते ही दर्द विदा हो गया। बस उतनी-सी घटना, और | था, वही केंद्र पर एक हो जाता है। गल हो गई। पागल इस अर्थ में कि अब वह इसी काम जो लोग शरीर से बंधे हैं, वे इस जगत को अणुओं की तरह में लगी हुई है कि इसकी बीमारी ठीक कर देनी है, उसकी बीमारी देखेंगे अलग-अलग, आईलैंड की तरह। जो लोग थोड़ा मन में ठीक कर देनी है। ध्यान-व्यान समाप्त हो गया। उसने मेरे पास समर्थ हो जाते हैं—कवि हैं, चित्रकार हैं, संगीतज्ञ हैं—वे इस आना बंद कर दिया। उसने सोचा, मामला समाप्त हो गया, बात जगत में एकता का स्वर खोजने लगते हैं। लेकिन जो बिंदु पर, केंद्र खत्म हो गई; पा ली सिद्धि। पर आ जाते हैं, परम केंद्र पर आ जाते हैं, उनके लिए अनेकता ऐसे अभी आ रहा था. उसके आठ दिन पहले उस महिला ने एक ही तिरोहित हो जाती है. जैसे प्रकाश जल जाए और अंधेरा खो मित्र को भेजा और पुछवाया कि मैं तो बहुत परेशान हो गई हूं, कहीं जाए; सुबह का सूरज निकल आए और रात कहीं खोजे से न मिले। मेरी शक्ति तो नहीं खो रही है यह इलाज करने में? और अब मेरे | ___ उस परम अव्यक्त में सब एक है, अद्वैत है। अर्ध अव्यक्त में फिर से ध्यान का क्या हो? कभी-कभी एकता की झलक मिल जाती है। पूर्ण व्यक्त में एकता 104 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सृष्टि और प्रलय का वर्तुल का कोई उपाय नहीं, सभी कुछ अनेक है। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट उठेंगे नहीं। मैं रोज आपसे कहता हूं, फिर | भी बीच से लोग उठकर किनारे आ जाते हैं। आप वहीं बैठे रहें। बैठकर ही ताली बजाएं, कीर्तन में साथ दें, वाणी दोहराएं। प्रभु का स्मरण कर लें पांच मिनट। फिर हम विदा हों। यही प्रसाद है। 105 Page #132 --------------------------------------------------------------------------  Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 आठवां प्रवचन अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-42 अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । | आप उसके पार हाथ न डाल सकें, और इतनी भी बढ़ाई जा सकती यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। २१।। | है कि आप उसके ऊपर बैठे रहें और नीचे जो पंखा चल रहा है, पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। वह आपको थिर मालूम पड़े। इतनी तेजी से घूम सकता है कि दो यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ।। २२ ।। । | पंखुड़ियों के बीच की जो खाली जगह है, जब तक आपको उस और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उस ही अक्षर | | खाली जगह का पता चले, उसके पहले ही दूसरी पंखुड़ी आपके नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं, तथा जिस | नीचे आ जाए, तो आपको कभी भी पता नहीं चलेगा। पता चलने सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, | में समय चाहिए। और अगर तीव्रता से घूमती हो गति और हमारी वह मेरा परम धाम है। | पकड़ने की क्षमता कम पड़ती हो, तो गति का पता नहीं चलता। और हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस पत्थर भी चल रहे हैं, उनका अणु-अणु घूम रहा है। दीवालें भी परमात्मा से यह सब जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त चल रही हैं, उनका अणु-अणु घूम रहा है। उतनी ही तेज गति से परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। उनका अणु घूम रहा है, जितनी तेज गति से आकाश में चांद-तारे घूम रहे हैं। इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है। . एडिंग्टन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जीवनभर पदार्थों का ति संसार का स्वभाव है। ठहरना नहीं और चलते ही | की खोज करने के बाद एक शब्द मुझे ऐसा मिला है मनुष्य की भाषा ण रहना, ऐसा संसार का स्वरूप है। यहां कुछ भी ठहरा | | में, जो कि नितांत ही झूठ है, और वह शब्द है, रेस्ट, ठहराव। कोई हुआ नहीं है; जो ठहरा हुआ मालूम होता है, वह भी चीज ठहरी हुई नहीं है। इसलिए जब भी हम कहते हैं किसी चीज ठहरा हुआ नहीं है। जो चलता हुआ मालूम होता है, वह तो चलता | को एट रेस्ट, तो हम गलत ही कहते हैं। कोई चीज ठहरी हुई नहीं हुआ है ही; जो ठहरा हुआ मालूम होता है, वह भी चलता हुआ है। | है। कोई चीज ठहरी हुई हो नहीं सकती है। इस जगत में होने के पत्थर ठहरे हुए मालूम पड़ते हैं, मकानों की दीवालें ठहरी हुई मालूम | लिए चलना ही नियम है। पड़ती हैं, लेकिन अब विज्ञान कहता है, वे सब भी चलती हुई हैं। मैंने कहा, बहुआयामी है यह गति। आप यहां बैठे हुए मालूम और यह गति बहुआयामी है, मल्टी-डायमेंशनल है। इसे हम थोड़ा | पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप बिलकुल बैठे हुए हैं, चल नहीं रहे समझें, तो परम गति का हमें खयाल आ सके कि वह क्या है। । हैं। लेकिन जिस पृथ्वी पर आप बैठे हैं, वह बड़ी तेजी से भागी जा दीवाल दिखती है ठोस, जरा भी चलती हुई नहीं, लेकिन रही है। उस पृथ्वी की दोहरी गति है। आप बैठे हुए हैं जिस पृथ्वी वैज्ञानिक कहते हैं, दीवाल का अणु-अणु चल रहा है। अगर | | पर, वह पृथ्वी अपनी कील पर घूम रही है। और अपनी कील पर दीवाल के हम परमाणुओं को देखें, तो सब परमाणु गतिमान हैं। ही नहीं घूम रही, कील पर घूमती हुई वह सूर्य का चक्कर भी लगा और प्रत्येक परमाणु के भीतर जो और छोटे खंड हैं, इलेक्ट्रांस, वे रही है। दोहरी गति है उसकी। और जिस सूर्य का वह चक्कर लगा बड़ी तीव्र गति से चक्कर काट रहे हैं। हमें दीवाल थिर दिखाई पड़ती। रही है, वह सूर्य भी अपनी कील पर घूम रहा है इस पृथ्वी को लिए। है, क्योंकि हमारी आंखें उतनी सूक्ष्म गति को पकड़ने में असमर्थ और अपने सब ग्रहों को लेकर वह सूर्य भी किसी महासूर्य का हैं। गति जितनी तीव्र हो जाती है, उतनी ही हमारी आंख पकड़ने में | परिभ्रमण कर रहा है। मुश्किल हो जाती है। ऐसा मल्टी-डायमेंशनल, गति के भीतर गति है, और गति के जैसे एक बिजली का पंखा बहुत जोर से चलता है, तो आपको भीतर गति है। शायद जिस महासूर्य का यह सूर्य चक्कर लगा रहा पता नहीं चलता है कि उसमें तीन पंखुड़ियां हैं, चार पंखुड़ियां हैं या है, और अनेक सूर्य चक्कर लगाते होंगे, वह सूर्य भी अपनी कील दो पंखुड़ियां हैं। अगर पंखा और भी तेजी से चले, तो आपको यह पर घूमकर और किसी महान से महानं सूर्य के चक्कर पर निकला भी पता नहीं चलेगा कि पंखे में पंखुड़ियां हैं। ऐसा ही पता चलेगा होगा। परिभ्रमण, पौं-पों में, जीवन का स्वभाव है। कि गोल टीन का घेरा ही घूम रहा है। इस परिभ्रमणशील जीवन में शांति असंभव है। इस गति से भरे वैज्ञानिक कहते हैं कि पंखे की गति इतनी बढ़ाई जा सकती है कि हुए, भागते हुए जगत में कोई विश्राम संभव नहीं है। और जब आप 108 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा विश्राम भी कर रहे होते हैं अपने बिस्तर पर लेटकर, तब आपका | के मूल में कोई अगति चाहिए। और जहां सब चीजें चल रही हों, खुन पूरी गति लगा रहा है। आपके कण-कण शरीर के गति कर वहां उनके चलने के लिए भी कोई अचल चाहिए। इस गत्यात्मक रहे हैं। आपका हृदय धड़कन कर रहा है; आपकी श्वास गति कर जगत में गति-शून्य कोई कील चाहिए। रही है; आपका मन स्वप्नों में परिभ्रमण कर रहा है। जब आप उस कील को ही कृष्ण अक्षर कह रहे हैं। वे कहते हैं, वह जो बिस्तर पर विश्राम कर रहे हैं, तब भी कहीं कोई आपके भीतर अक्षर है, अव्यक्त है, वह भाव ही परम गति है। विश्राम की जगह नहीं है। इस जगत में होते हुए विश्राम नहीं है। लेकिन इस अक्षर तक पहुंचने के लिए हम कौन-सी यात्रा करें? कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसा कहा | इस अव्यक्त भाव को, जो गहन में छिपा है, निगूढ़ है, इस तक हम गया है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं। कैसे पहुंचें? क्योंकि हमारे पहुंचने का कोई भी उपाय अगर परिधि और अर्जुन, अगर तू उस परम गति को उपलब्ध होना चाहता है, | पर हुआ और चाक के सहारे हुआ, तो हम कभी भी इस कील तक जहां विश्राम स्वभाव है...। नहीं पहुंच पाएंगे। इस जगत में तो श्रम ही स्वभाव है, अशांति ही परिणाम है। इस ऐसा समझें कि एक बड़ा चाक है, उस पर आप बैठे हुए हैं। और जगत में रहते हुए, इस जगत की कील पर घूमते हुए, न कोई विश्राम आप चाक पर घूमते रहें, हजारों-हजारों चक्कर लगाएं, तो भी आप को उपलब्ध हो सकता है, न कोई विश्रांति को। यदि कोई विश्रांति | केंद्र पर नहीं पहुंचेंगे। यद्यपि चाक केंद्र पर ही घूमता है, कील पर की खोज में जाना ही चाहे, तो उसे अपनी चेतना का तल ही बदलना। | ही घूमता है, फिर भी आप कील पर नहीं पहुंचेंगे चाक पर घूमते पड़ेगा। परिधि से हटाकर केंद्र पर, संसार से हटाकर ब्रह्म पर, उसे | हुए। आपको चाक छोड़कर कील की तरफ सरकना होगा। आपको अपनी चेतना का पूरा रूपांतरण कर लेना होगा। धीरे-धीरे चाक से हट जाना होगा। परिधि से हटना होगा, केंद्र की वह जो अक्षर नाम से कहा है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव तरफ सरकना होगा। और जिस दिन आप चाक को बिलकुल छोड़ को ही परम गति कहते हैं। देंगे, उसी क्षण आप कील को, अक्षर को उपलब्ध हो जाएंगे। यहां दो बातें समझ लेनी चाहिए। अक्षर का अर्थ है, जो कभी संसार में हम कितनी ही यात्राएं करें, उस अक्षर को हम न खोज क्षीण नहीं होता, क्षरता नहीं। जैसा है, वैसा ही है। कणभर जिसमें पाएंगे। कोई चाहे तो जाए हिमालय, केदार और बद्री, और कोई कभी कोई रूपांतरण नहीं होता, जो अपने स्वभाव से जरा भी च्युत चाहे तो जाए कैलाश। कोई चाहे तो मक्का और मदीना, कोई नहीं होता। अंच्यत है. ठहरा हआ है। काशी, कोई गिरनार, जिसे जहां जाना हो, भटकता रहे। संसार में देखा है रास्ते पर चलती हुई बैलगाड़ी को। चाक चलता है, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां से आप कील पर पहुंच लेकिन कील ठहरी रहती है। और बड़ा मजा तो यह है-और इस | जाएंगे। संसार की कोई भी यात्रा तीर्थयात्रा होने वाली नहीं है। जहां मजे के राज को जान लेना, जीवन के बड़े राज को जान लेना पहुंचने के लिए पैरों की जरूरत पड़ती हो, वह परम धाम नहीं है। है कि जिस कील पर चाक घूमता है, वह कील जरा भी नहीं और जहां पहुंचने के लिए शरीर को साधन बनाना पड़ता हो, वह घूमती है, वह खड़ी ही रहती है। चाक हजारों मील की यात्रा कर | परिधि ही होगी, वह केंद्र नहीं होगा। जहां जाने के लिए बाहर ही लेता है, कील अपनी जगह को छोड़ती ही नहीं। और मजा इसलिए गति करनी पड़ती हो, वह अंतरतम नहीं है। बाहर चलकर हम बाहर कहता हूं कि अगर यह कील न हो, तो यह चाक जरा भी घूम नहीं | | ही पहुंचेंगे। संसार में यात्रा करके हम संसार में ही खड़े रहेंगे। पैरों सकता। इस ठहरी हुई कील के कारण ही, इसके आधार पर ही | से चलकर हम वहीं पहुंच सकते हैं, जहां पैर पहुंचा सकते हैं। चाक घूमता है। | उस परम गति अक्षर को पाने के लिए तो हमें अपने भीतर एक संसार का अस्तित्व असंभव है, अगर इस संसार के भीतर गहन ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें पैरों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। में, इसकी गहराइयों में, कहीं कोई अव्यक्त, कहीं कोई अक्षर कील | | एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें हमें बाहर नहीं, भीतर की मौजूद न हो। यह पूर्वीय मनीषा की खोजों में से एक गहनतम खोज | | तरफ जाना पड़ता है। एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें इंद्रियों है। क्योंकि पाया हमने कि जहां भी परिवर्तन है, वहां परिवर्तन के | | का उपयोग नहीं होता, इंद्रियों का अनुपयोग होता है। एक ऐसी आधार में कोई अपरिवर्तित चाहिए। और जहां भी गति है, वहां गति | | यात्रा करनी पड़ेगी, जहां मन का सहारा लेना नहीं पड़ता, मन का 109 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 * सहारा छोड़ना पड़ता है। एक ऐसी यात्रा, जिसमें हम चाक के घूमते । के एक विचार का खंडन कर दें, तो पीड़ा ज्यादा होती है। हुए रूप को छोड़कर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कील की तरफ सरकते। __ आदमी अपने विचार के लिए मरने को, कुर्बान होने को तैयार जाते हैं और एक दिन वहां पहुंच जाते हैं, जहां चाक नहीं है, कील | होता है। फांसी लग जाए, उसकी तैयारी है; लेकिन मेरा विचार नहीं ही है। छोड़ सकता हूं। क्यों? क्योंकि विचार के साथ हमने बहुत गहरा वह कील प्रत्येक के भीतर है, क्योंकि प्रत्येक भी एक छोटा घूमता तादात्म्य बनाया है। असल में हमें ऐसा लगता है कि शरीर बाहर हुआ चाक है। जैसा मैंने कहा कि मल्टी-डायमेंशनल है गति। पृथ्वी की पर्त है और विचार मेरे भीतर का केंद्र है। अपनी कील पर घूम रही है और साथ ही सूर्य का चक्कर भी लगा यह झूठ है। विचार भी मेरे भीतर का केंद्र नहीं है, विचार भी रही है। ठीक हममें से प्रत्येक व्यक्ति संसार के चारों तरफ घूम रहा बाहर की ही एक पर्त है। मेरे भीतर का केंद्र तो अक्षर है। विचार तो है और हमारे भीतर भी कील पर हमारे शरीर का चाक घूम रहा है। अक्षर नहीं है। विचार तो अभी है और क्षणभर बाद बदल जाता है। हमारी कील पर हमारे मन का चाक घूम रहा है। हमारी कील पर |सुबह जो था, दोपहर नहीं होता। दोपहर जो था, वह सांझ नहीं हमारी वासनाओं का चाक घूम रहा है। हमारी कील पर हमारी तृष्णा, | होता। इसलिए अगर आप विचार के लिए थोड़ी देर रुक जाएं, तो हमारी कामना, हमारा क्रोध, हमारा लोभ, उन सबके चाक पर्त दर । हो सकता है, वह काम करने की आपको कभी जरूरत ही न पड़े। पर्त घूमते चले जा रहे हैं। चाक के भीतर चाक हैं, वे घूमते चले जा बर्नार्ड शा कहता था कि जब मेरी टेबल पर बहुत चिट्ठी-पत्रियां रहे हैं। जिस व्यक्ति को अक्षर को पाना है, उसे धीरे-धीरे एक-एक इकट्ठी हो जाती हैं, पंद्रह-पंद्रह दिन बीत जाते हैं और सैकड़ों पत्र घमते चाक को छोड़कर भीतर सरकना है। इकट्ठे हो जाते हैं और जवाब देना मुश्किल होता है, तब मैं सबसे ज्यादा कठिनाई हमारे भीतर सरकने में विचार के चक्र की | थोड़ी-सी शराब पी लेता हूं और सब काम निपट जाता है। है। क्योंकि विचार इतनी तीव्रता से घूम रहा है और न मालूम अज्ञान तो एक मित्र ने उससे पूछा कि क्या शराब पीकर फिर तुममें इतनी के किस गहन क्षण में हमने मान रखा है कि हम विचार ही हैं, तो ताकत आ जाती है कि तुम सारे पत्रों के उत्तर दे देते हो? बर्नार्ड शा शरीर से अपनी भिन्नता को समझ लेने में तो बहुत कठिनाई नहीं ने कहा, नहीं। शराब पीकर मैं उस हालत में हो जाता हूं कि पत्रों होती. लेकिन विचार से अपनी भिन्नता को समझने में बहत कठिनाई की फिक्र ही छट जाती है. उत्तर देने की जरूरत ही नहीं रहती। और होती है। दो-चार दिन, आठ दिन, दस दिन, पंद्रह दिन, जब इतनी देर हो इसलिए अगर किसी आदमी का शरीर बीमार हो और हम कहें जाती है, तो फिर पत्र अपना जवाब खुद ही दे लेते हैं, फिर मुझे कि तुम्हारा शरीर बीमार है, तो वह नाराज नहीं होता। लेकिन किसी | | उनके देने की और जरूरत नहीं रह जाती। पंद्रह दिन तक जिस पत्र आदमी का दिमाग खराब हो और हम कहें कि तुम्हारा दिमाग खराब का जवाब न दिया हो, उसका जवाब लिखने वाले को मिल ही गया है, तो वह आदमी नाराज हो जाता है। क्योंकि शरीर से तो एक | होता है। फासला हमको लगता ही है। शरीर बीमार भी हो, तो भी मैं स्वस्थ बर्नार्ड शा को कोई अपना एक नाटक दिखाने ले गया था, कोई हो सकता हूं। लेकिन अगर मन बीमार हो, तो मैं ही बीमार हो गया। एक लेखक, जिसका नाटक प्रदर्शित हो रहा था। बर्नार्ड शा पूरे इसलिए बीमार तो मान लेता है कि आप ठीक कह रहे हैं; पागल नाटक में सोया रहा। लेखक बहुत परेशान था! बर्नार्ड शा की स्तुति कभी नहीं मानता कि आप ठीक कह रहे हैं। अगर पागल से कहो | का एक शब्द भी मिल जाए, तो वह धन्य हो जाता. लेकिन परे वक्त कि पागल हो, तो पागल सब तरह के उपाय करेगा कि मैं पागल | | बर्नार्ड शा सोता रहा। दो-चार दफा उसने जगाने की भी कोशिश की, नहीं हूं। बीमार ऐसे उपाय नहीं करता। क्योंकि बीमार समझता है | | फिर सोचा कि कहीं जगाने से वह और उलटा नाराज न हो जाए। कि शरीर बीमार है, मैं बीमार नहीं हूं। सिर्फ ज्ञानियों से अगर कोई | | जब नाटक पूरा हुआ, बर्नार्ड शा ने कहा कि बड़ा आनंद हुआ। कह दे कि पागल हो, तो वे परेशान नहीं होते, क्योंकि मन से भी | | उस लेखक ने कहा, लेकिन मैं आशा करके लाया था कि आप दो उनकी दूरी स्थापित हो जाती है। अन्यथा किसी के भी मन को शब्द मेरे नाटक के संबंध में कहेंगे, कोई मत व्यक्त करेंगे, आप जरा-सी चोट, शरीर को लगी चोट से ज्यादा गहरी मालूम पड़ती| पूरे समय सोए रहे! बर्नार्ड शा ने कहा, सोया रहना भी एक प्रकार है। किसी का पैर काट डालें, तो इतनी तकलीफ नहीं होती; किसी का मत व्यक्त करना है, ए सार्ट आफ ओपीनियन। और जो मैंने [110] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * कहा कि बड़ा आनंद आया, वह इसीलिए कहा कि दो-तीन रात से जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे वापस नहीं मैं बिलकुल सोया नहीं था। तुम्हारे नाटक ने ऐसी गहरी नींद ला दी | | आते! एक ऐसी जगह है चेतना के विकास की, जिसे हम प्वाइंट कि मन बड़ा तृप्त हो गया! | आफ नो रिटर्न कहें, जहां से कोई पीछे वापस नहीं लौटता। __पंद्रह दिन अगर पत्र का उत्तर न दें, तो उत्तर नकारात्मक है, ऐसा | हम पानी को गरम करते हैं, निन्यानबे डिग्री तक भी पानी गरम लिखने वाले को मिल ही जाता है। बर्नार्ड शा कहता था, पंद्रह दिन | | हो जाए, तो भी पीछे वापस लौट सकता है। लेकिन सौ डिग्री तक तक हिम्मत जुटानी पड़ती है न देने की, फिर विचार इतना पुराना | गरम होकर भाप बन जाए, तो फिर पीछे वापस नहीं लौट पाएगा पड़ जाता है और समय इतना व्यतीत हो जाता है कि कोई प्रेरणा भी | है। सौ डिग्री पार कर ले, तो भाप बनकर आकाश में उड़ जाएगा। नहीं रह जाती है भीतर। अब यह बड़े मजे की बात है! पानी की गति नीचे की तरफ है, इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है, अगर बुरा विचार उठे, तो थोड़ी देर | | भाप की गति ऊपर की तरफ है। अगर पानी को बहा दें, तो गड्डे की रुक जाना, क्योंकि उतनी देर रुकने में वह विचार ही जा चुका होगा। तलाश करेगा। अगर भाप को छोड़ दें, तो आकाश की खोज अगर हत्याएं करने वाले लोग दो क्षण भी रुक जाएं, तो हत्याएं नहीं | करेगी, जितने ऊपर जा सके। और एक बिंदु है सौ डिग्री का, सौ हो। आत्महत्याएं करने वाले लोग एक क्षण के लिए ठहर जाएं, तो डिग्री तापमान पर पानी भाप बन जाता है। उसके स्वभाव में एक आत्महत्या न हो। इसलिए ज्ञानियों ने यह भी कहा है कि जब अच्छा | मौलिक परिवर्तन होता है. गणात्मक. कि वह नीचे की तरफ जाना विचार उठे, तो तत्काल उसे पूरा कर लेना, एक क्षण मत रुकना, छोड़कर ऊपर की तरफ जाना शुरू कर देता है। लेकिन अगर क्योंकि एक क्षण रुकने पर वह भी बदल जाएगा। निन्यानबे डिग्री तक गरम किया हो और फिर पानी को वैसी ही विचार इतनी तेजी से बदल रहा है, फिर भी हम विचार को | गरमी पर छोड़ दें, तो पानी वापस लौट जाएगा—अट्ठानबे, अपना स्वभाव मान लेते हैं। स्वभाव का तो अर्थ ही होता है, जो सत्तानबे, नब्बे-नीचे गिर जाएगा और पानी पानी ही रहेगा। . बदले नहीं। क्या आपको पता है, बचपन के आपके विचारों का ___ अब यह भी मजे की बात है कि शून्य डिग्री पर ठंडा पानी भी क्या हुआ? क्या आपको पता है, आपके जवानी के विचारों का | नीचे की तरफ बहेगा, निन्यानबे डिग्री पर गरम पानी भी नीचे की क्या हुआ? कहां खो गए? किस रास्ते पर पड़े रह गए? आज | | ही तरफ बहेगा। लेकिन एक डिग्री और, सौ डिग्री, और पानी ऊपर उनका कोई भी पता नहीं है। और कल जो बात बहुत महत्वपूर्ण | की तरफ यात्रा शुरू कर देता है। पानी पानी ही नहीं रह जाता, भाप मालूम होती थी, क्या आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण मालूम होती है? | हो जाता है; विराट आकाश में खोने के लिए तैयार हो जाता है। कल जिसके लिए जान दे सकते थे, क्या आज भी उसके लिए जान __ मनुष्य की चेतना की भी ऐसी एक स्थिति है, एक सौ डिग्री का देना उचित मालूम पड़ेगा? बिंदु है, उस डिग्री के पहले आदमी कितना ही ऊंचा चेतना को ले सब बदल रहा है। विचार भी इतनी तेजी से घूम रहे हैं, जिसका जाए, बार-बार गिरता रहता है। आप भी कई बार स्वर्ग के इतने कोई हिसाब नहीं, लेकिन फिर भी हम विचारों से अपने को एक | करीब मालूम पड़ते हैं कि एक कदम और, और भीतर प्रवेश कर मान लेते हैं, क्योंकि हम कभी विचारों के भीतर और प्रवेश नहीं | | जाएंगे। लेकिन जब तक आप यह सोचते हैं, पाते हैं कि आप काफी किए। जो विचार के भी भीतर प्रवेश करेगा, निर्विचार को पाएगा, | दूर हट चुके, स्वर्ग काफी फासले पर है। वही उस अक्षर को अपने भीतर अनुभव कर पाता है, उस कील | हममें से सभी लोग कभी-कभी निन्यानबे डिग्री तक भी पहुंच को, जिस पर विचार का चाक घूमता है, शरीर का चाक घमता है, | जाते हैं। कभी किसी प्रार्थना के क्षण में, कभी किसी पूजा के भाव वासना का चाक घूमता है; और फिर बड़े संसार का चाक, और | | में, कभी किसी प्रेम की स्थिति में, कभी किसी संगीत को सुनकर, फिर और बृहत ब्रह्मांड का चाक। कभी किसी सुगंध के सहारे, कभी किसी सौंदर्य के निकट, कभी प्रत्येक व्यक्ति के भीतर वह कील है। उस कील को पा लेने से | | हम निन्यानबे डिग्री तक भी पहुंच जाते हैं और ऐसा लगता है कि कृष्ण कहते हैं, परम गति उपलब्ध होती है। अक्षर को, अव्यक्त | | बस...। लेकिन फिर वापस गिर जाते हैं। को पा लेना, परम गति को पा लेना है। तथा जिस सनातन अव्यक्त । आपने शायद अनुभव किया हो, कविता पढ़ते हैं किसी कवि की को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वही मेरा परम धाम है। और ऐसा लगता है कि यह आदमी कितना निकट नहीं पहुंच गया וור Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* होगा सत्य के! और फिर एक दिन वही आदमी चाय की दुकान में से बहुत बार महाकाव्य का जन्म होता है। चाय पीता और बीड़ी फूंकता मिल जाता है। और आप एकदम हैरान इसलिए हमने पुराने दिनों में एक और शब्द खोजा हुआ था, हो जाते हैं कि यही वह आदमी है, जिसने इतनी अदभुत कविता जिसका अर्थ कवि ही होता है, वह शब्द है, ऋषि। ऋषि का अर्थ लिखी! क्या यही वह आदमी है, जिससे ऐसी पंक्तियों का जन्म कवि ही होता है, लेकिन एक भिन्न गुण के साथ। ऋषि हम उस हुआ? क्या यही वह आदमी है, जिसके भाव ने इतनी गहराई और | कवि को कहते हैं, जो उस जगह से गा रहा है, जहां से वापस ऊंचाई को स्पर्श किया? यह आदमी कैसे हो सकता है! लौटना असंभव है, प्वाइंट आफ नो रिटर्न। वह भी गीत को ही जन्म नहीं, यह आदमी नहीं है। यह निन्यानबे डिग्री पर किसी क्षण में देता है। रहा होगा। इसने आकाश का खुला रूप देखा, तारों में झांककर उपनिषद महाकाव्य हैं। गीता स्वयं महाकाव्य है। लेकिन कृष्ण देखा, आंखें मिलाई इसने बड़ी ऊंचाइयों से, लेकिन अब यह वापस उस जगह से इस गीत को जन्म देते हैं इसलिए उसका नाम है, अपनी जगह लौट आया है। भगवत्गीता; गीत भगवान का, गीत भागवत चैतन्य का—उस कूलरिज ने, मरने के बाद पता चला, कि कोई चालीस हजार जगह से इस गीत को जन्म मिलता है, जहां से लौटना संभव नहीं है। कविताएं अधूरी छोड़ी हैं। मित्र तो जानते थे और कूलरिज से कहते | फिर भगवत्गीता के न मालूम कितनी भाषाओं में रूपांतरण हुए थे कि इन कविताओं को पूरा कर दो। इतनी कविताएं अधूरी क्यों | हैं, लेकिन अब तक एक भी ऋषि उपलब्ध नहीं हुआ उसके कर रखी हैं? किसी कविता में सात कड़ी हैं, तो आठवीं कड़ी नहीं | रूपांतरण के लिए। कवियों ने रूपांतरण किए हैं। फासला ज्यादा है। बस, एक कड़ी खाली है। एक कड़ी पूरी हो जाती, तो शायद | नहीं है। फासला ज्यादा नहीं है। कभी-कभी तो कोई कवि.बिलकुल एक महान कविता का जन्म होता! कृष्ण के करीब पहुंच जाता है। अगर कृष्ण एक सौ डिग्री के पार लेकिन कूलरिज कहता था, सात कड़ी होते-होते मैं तो वापस से बोल रहे हैं, तो कभी-कभी कोई कवि ठीक निन्यानबे डिग्री के लौट गया। वह आठवीं कड़ी आई ही नहीं और मैं वापस जमीन पर पास से बोलता है। एक डिग्री का फासला कोई बड़ा फासला नहीं लौट आया। अब अगर मैं चाहूं, तो आठवीं कड़ी जोड़ सकता हूं। है, लेकिन उससे बड़ा कोई फासला नहीं है। वहां एक डिग्री भी लेकिन वह कड़ी उस ऊंचाई की न होगी, जिस ऊंचाई की सात बहुत कीमती है। कड़ियां हैं। और मैं भलीभांति जानता हूं कि वही कड़ी इस कविता कितना ही बड़ा कवि, कितनी ही बड़ी कविता को जन्म दे, वह की नाव को डुबाने वाली सिद्ध होगी। इसलिए मैं प्रतीक्षा करूंगा, ऋषि नहीं हो पाता, क्योंकि वापस-वापस गिर जाता है। और जब किसी दिन फिर उस निन्यानबे डिग्री पर चित्त होगा, और अगर कोई | कविता को जन्म देने वाला ही वापस गिर जाता हो, तो कविता में कड़ी उतर आई, तो जोड़ दूंगा, अन्यथा मैं नहीं जोड़ पाऊंगा। डाले गए जो अर्थ हैं, वे ऊर्ध्वगामी नहीं हो सकते; वे नीचे की इसलिए जगत के समस्त महान चित्रकार, कवि और संगीतज्ञ तरफ ही बहने वाले होते हैं, चाहे कितनी ही ऊंचाई की डिग्री क्यों निरंतर ऐसा अनुभव करते हैं कि जब उनसे काव्य का, चित्र का न रही हो।। जन्म होता है, तो वे मौजूद नहीं होते; कोई और! कोई और ही उनके इसलिए बड़े से बड़ा काव्य भी नीचे की तरफ ही बहता हुआ भीतर से बोल जाता है, कोई और ही उनके भीतर से गा जाता है, | मालूम पड़ता है। चाहे कालिदास का हो, तो भी नीचे की तरफ ही . कोई और ही उनकी अंगुलियों में थिरकता है और उनके सितार को बहता हुआ मालूम पड़ता है। बड़े से बड़ा काव्य भी मनुष्य की बजा जाता है। यह कोई और नहीं है, यह उनका ही एक ऊंचा उठा कामवासना की तरफ ही बहता हुआ मालूम पड़ता है। हुआ रूप है, जिसकी उन्हें स्वयं भी खबर नहीं। लेकिन वापस गिर ऋषि हमने उसे कहा है, जो चेतना की उस जगह से गीत को जाते हैं। जन्म देता है या किसी भी चीज को जन्म देता है, जहां से लौटना काव्य और धर्म में यही अंतर है, आर्ट और रिलीजन में यही | संभव नहीं। अंतर है। काव्य निन्यानबे डिग्री के इस पार गिर जाता है। धर्म सिर्फ | | एक क्रिस्टलाइजेशन का, एक स्वयं के भीतर संगठित हो जाने एक डिग्री और ऊपर छलांग लेता है और सौ डिग्री के पार हो जाता | का एक क्षण है, जिसके पार गिरना नहीं होता। इस जिस सनातन है। इसलिए काव्य बहुत बार धर्म के निकट पहुंचता है, और धर्म | | अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते, वही मेरा परम धाम 112 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * है, वही मेरा घर है। बाकी सब रास्ते के पड़ाव हैं, जहां आदमी | | कुछ भी न कह सकूँगा, देन समथिंग हैज बीन सेड, तब कुछ कहा ठहरता है क्षणभर और आगे बढ़ जाता है, मंजिल नहीं है। परमात्मा | ही गया, तब कुछ कह ही दिया। और यह भी कहना ही है, प्रकट की मंजिल। और सबके भीतर परमात्मा छिपा है, उसी यात्रा पर, | | करना ही है। उसी परमात्मा की मंजिल के लिए। वह मंजिल कहां है? तो रहस्यवादी बड़ी मुश्किल में हैं कि वे क्या करें! या तो वे कृष्ण कहते हैं, सनातन अव्यक्त, तो जो सदा से अप्रकट है, जो | | कहना बंद कर दें; अगर वे सच में ही जानते हैं कि वह अव्यक्त सदा से ही छिपा है, इटरनली हिडेन, जिसे कभी कोई खोल नहीं। | है, प्रकट नहीं किया जा सकता, भाषा बोल नहीं सकती, वाणी के पाया, जिसे कभी कोई उघाड़ नहीं पाया, जिसके पर्दे कभी कोई गिरा पार है, तो चुप हो जाएं। नहीं पाया; उस सदा से, अनादि से, अनंत तक के लिए छिपे हुए लेकिन अगर वे चुप हो जाएं, तो इतना भी नहीं कह सकते कि को पा लेने वाला वापस नहीं लौटता। वही मेरा परम धाम है। | वह अव्यक्त है। और फिर चुप हो जाना भी तो एक तरह का कहना इसे जरा समझ लें। होगा, ए सार्ट आफ सेइंग। चुप होना भी एक तरह का कहना ही अगर हम ऐसा कहें कि परमात्मा सदा से ही छिपा हुआ है, तो | होगा। वह भी खबर होगी, सूचना ही होगी। अगर बर्नार्ड शा का जिन जानने वालों ने परमात्मा की बात कही है, उन्होंने जानी कैसे? | | सो जाना एक मत है, तो परमात्मा के संबंध में चुप हो जाना एक तर्कशास्त्री निरंतर ही ऋषियों के संबंध में, मिस्टिक्स के संबंध वक्तव्य है। मौन हो जाना, फिर भी वाणी का ही उपयोग है, में एक महत्वपूर्ण तर्क उठाते रहे हैं। तर्कशास्त्री सदा से ही कहते | | निषेधात्मक रूप से, निगेटिव ढंग से। रहे हैं कि ये मिस्टिक्स जो हैं, उनके वक्तव्य नानसेंस हैं; उनके । फिर ये रहस्यवादी क्या करें? चुप हों तो मुश्किल है, बोलें तो वक्तव्यों में अर्थ बिलकुल नहीं है। क्योंकि एक ओर वे कहते हैं, मुश्किल है। और साथ में उन्हें यह कहना ही है कि वह कभी भी हम उसके संबंध में कहने जा रहे हैं, जिसके संबंध में कुछ भी नहीं | | उघाड़ा नहीं गया। वह सदा से ढंका है, और सदा ढंका ही रहेगा। कहा जा सकता। और हम उसकी तुम्हें खबर देते हैं, जिसकी खबर | | ढंका होना ही उसका स्वभाव है। किसी को कभी नहीं मिली। और जो सदा से छिपा है, हम तुम्हारे __ अगर वह सदा से ढंका है, तो कृष्ण उसे कैसे उघाड़ते हैं? अगर सामने उसे प्रकट करते हैं। वह सदा से ढंका है, तो बुद्ध उसे कैसे जानते हैं? यह बड़े मजे की कृष्ण ने थोड़ी देर ही पहले अर्जुन को कहा है कि मैं संक्षिप्त में बात है, इसे थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिए। उसके संबंध में तुझसे कहूंगा! और अब वे कहते हैं, वह है अगर संसार में किसी ढंकी हुई चीज को उघाड़ना हो, तो उसी सनातन अव्यक्त! चीज को उघाडना पडता है। अगर एक वैज्ञानिक किसी वस्त के जो सनातन अव्यक्त है, सदा से ही छिपा हुआ, कभी प्रकट नहीं | संबंध में खोज करता है, तो उस वस्तु को तोड़ता है, फोड़ता है, हुआ, कृष्ण उसे प्रकट कैसे करेंगे? और कृष्ण उसके संबंध में उसके भीतर प्रवेश करता है, उसे उघाड़ता है। सब पर्दे निकालकर अगर कुछ भी कह रहे हैं, तो वह प्रकट करना हो जाता है। यह अलग कर देता है, भीतर प्रवेश करता है। अगर उसे आदमी के कहना भी कि वह सनातन से अव्यक्त है, व्यक्त करने की बात हो | शरीर में पता लगाना है कि क्या बीमारी है, तो एक्स-रे से भीतर गई। इतना कहना भी, उसके संबंध में कुछ कहना है। तर्क निरंतर प्रवेश करता है; सब पर्दे तोड़ देता है, चीर-फाड़ करता है; मशीनों रहस्यवादियों पर हंसता रहा है और कहता रहा है, तुम्हारे वक्तव्य को भीतर ले जाता है, भीतर के चित्र लाता है; भीतर के संबंध में पागलों के वक्तव्य हैं। सब जानकारी पकड़ता है; सब पर्दे उघाड़ता है और भीतर की खोज विगिंस्टीन ने अपनी बहुत अदभुत किताब टेक्टेटस में कहा है | करता है। यह पदार्थ की खोज का ढंग है। कि जिस संबंध में न कहा जा सके, उस संबंध में न कहना ही उचित ___परमात्मा की भी खोज होती है और वह कभी उघाड़ा नहीं जाता। है। जिस संबंध में न कहा जा सके, उस संबंध में न कहना ही उचित | उसकी खोज बड़ी उलटी है। जिसे परमात्मा को उघाड़ना हो, उसे है, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड मस्ट नाट बी सेड। न कहा जा सके, अपने सब पर्दे तोड़ देने पड़ते हैं। अपने! उसे अपने सब पर्दे तोड़ तो मत ही कहो। देने पड़ते हैं, अपने भीतर कोई भी छिपावट नहीं रखनी पड़ती, लेकिन अगर इतना भी कहा जा सकता है कि इस संबंध में मैं | | अपने भीतर कोई राज नहीं रखना पड़ता, अपने भीतर कुछ भी 1113 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 * रहे हो! अव्यक्त नहीं रखना पड़ता, सब भांति अपने को अभिव्यक्त कर | चले जा रहे हैं, दौड़ रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, वही है हमारे भीतर, देना पड़ता है, द्वार-दरवाजे खुले छोड़कर।। जिसे हम परेशान किए दे रहे हैं। जो व्यक्ति अपने को बिलकुल उघाड़ा कर लेता है...। जैसे मुल्ला नसरुद्दीन बहुत चिंतित है। उसका चिकित्सक उससे महावीर नग्न खड़े हो गए। वह नग्न खड़ा होना सिर्फ प्रतीक है इस कहता है, इतनी चिंता क्या? चिंता के कारण ही नसरुद्दीन तुम बूढ़े बात का कि जिसे भी परमात्मा को जानना हो, जिसे भी उस हुए जा रहे हो। नसरुद्दीन कहता है, यह मैं समझा। अब मैं आपको अनउघड़े हुए को उघाड़ना हो, उसे अपने को बिलकुल उघाड़कर अपनी चिंता बता दूं। कहीं मैं बूढ़ा न हो जाऊं, इसी की मैं चिंता में नग्न, वलनरेबल, सब तरह से खुला हुआ छोड़ देना चाहिए। जो लगा हूं। और तुम कहते हो कि चिंता के कारण ही तुम बूढ़े हुए जा व्यक्ति अपने को पूरी तरह उघाड़कर, सब द्वार-दरवाजे खोलकर, ओपन, खुला हुआ हो जाता है, आकाश की भांति, परमात्मा जो ऐसा ही विशियस सर्किल है, ऐसा ही दुष्चक्र है। चिंता के कारण सनातन अव्यक्त है, उसके समक्ष–वह तो बचता ही नहीं इतने आदमी बूढ़ा हुआ जा रहा है। बूढ़ा हुए जाने के कारण चिंता कर उघड़ेपन में प्रकट हो जाता है। यह प्रकटीकरण बहुत और तरह रहा है। अब इसे कहां से तोड़ना है! का प्रकटीकरण है। क्योंकि इसमें परमात्मा को हम उघाड़ते ही नहीं, किसे खोज रहे हैं आप? किसकी तलाश है? जो तलाश कर रहा सिर्फ अपने को उघाड़ते हैं। | है, वही उसी की तलाश है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को छोड़कर और इसे हम ऐसा भी समझ लें कि ढंके हुए हम मनुष्य हैं, उघड़कर कुछ भी नहीं खोज रहा है। लेकिन स्वयं को कैसे खोज सकेगा? हम परमात्मा हो जाते हैं। ढंके हुए हम मनुष्य हैं, उघड़कर हम । मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन गया है अपने शराबघर में और उसने परमात्मा हो जाते हैं। कोई हमारे सामने नहीं आता, अचानक हम जाकर पूछा कि मैं पूछने आया हूं कि क्या शेख रहमान इधर अभी पाते हैं उघड़ते ही कि जिसे हम खोजते थे, वह तो मैं स्वयं हूं। जिस | थोड़ी देर पहले आया था? शराबघर के मालिक ने कहा कि हां, अक्षर की तलाश थी, वह तो मेरे भीतर बैठा है। जिस कील के लिए | घड़ीभर हुई, शेख रहमान यहां आया था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा हमने बैलगाड़ी पर बैठकर इतनी यात्रा की, उसी कील पर बैलगाड़ी कि चलो इतना तो पता चला। अब मैं यह पछना चाहता है कि क्या का चाक चलता था। | मैं भी उसके साथ था? मुल्ला नसरुद्दीन भागा जा रहा है अपने गधे पर बैठा हुआ गांव | | काफी पी गए हैं। वे पता लगाने आए हैं कि कहीं शराब तो नहीं से, तेजी से। बड़ी तेजी में है, और कोड़े चला रहा है। बाजार में | पी ली! काफी पी गए हैं, अब पता लगाने आए हैं कि कहीं शराब लोग उससे पछते हैं कि नसरुद्दीन, कहां भागे जा रहे हो? वह तो नहीं पी ली। इतना खयाल है कि शेख रहमान के साथ थे। दूसरे कहता है, मेरा गधा खो गया। मैं जरा तेजी में हूं। मुझे रोको मत। का खयाल बेहोशी में बना रहता है, अपना भूल जाता है। शेख कोई आदमी चिल्लाता है कि नसरुद्दीन, लेकिन तुम गधे पर सवार रहमान साथ था, इतना खयाल है। तो शेख रहमान अगर यहां हो। नसरुद्दीन कहता है, तुमने अच्छा बता दिया। मैं इतनी तेजी में आया हो, तो मैं भी आया होऊंगा। और अगर वह पीकर गया है, था कि मुझे खयाल ही न आता। इतनी तेजी में था खोज की कि मुझे | तो मैं भी पीकर गया हूं। खयाल ही न आता! __ दूसरे से हम अपना हिसाब लगा रहे हैं। हम सब को अपना तो हम जिसे खोज रहे हैं, जानने वाले कहते हैं, हम उसे कभी न कोई खयाल नहीं है, दूसरे का हमें खयाल है। इसलिए हम दूसरे की खोज पाएंगे, क्योंकि उस पर ही हम सवार हैं। लेकिन तेजी इतनी | तरफ बड़ी नजर रखते हैं। अगर चार आदमी आपको अच्छा आदमी है कि हम अनंत-अनंत यात्रा कर लेंगे, और तेजी इतनी है कि हमें कहने लगें, तो आप अचानक पाते हैं कि आप बड़े अच्छे आदमी हो स्मरण भी न आएगा कि जिसके ऊपर सवार होकर हम खोज रहे | गए। और चार आदमी आपको बुरा कहने लगें, आप अचानक पाते हैं, वही हमारी खोज है, वही हमारा गंतव्य है। जिसे हम पाने चले हैं, सब मिट्टी में मिल गया: बरे आदमी हो गए! आप भी कछ हैं? हैं, उसे हम पाए ही हुए हैं। जिसके लिए हम हाथ फैला रहे हैं, वही या ये चार आदमी जो कहते हैं, वही सब कुछ है? हमारे हाथों में फैला हुआ है। और जिसके लिए हमने तृष्णा के जाल | इसलिए आदमी दूसरों से बहुत भयभीत रहता है कि कहीं कोई बोए, वही हमारी तृष्णाओं का तंतु है। और जिसके लिए हम भागे | निंदा न कर दे, कहीं कोई बुराई न कर दे, कहीं कोई कुछ कह न दे 114 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * कि सब बना-बनाया खेल मिट जाए। आदमी दूसरों की प्रशंसा है, यह मोक्ष प्रत्येक के भीतर है। और इसे परम धाम इसलिए कहा करता रहता है, ताकि दूसरे उसकी प्रशंसा करते रहें। सिर्फ एक है कृष्ण ने कि यह पड़ाव नहीं है। इस पर ठहरकर फिर आगे की वजह से कि दूसरे के मत के अतिरिक्त हमारे पास और कोई संपदा यात्रा के लिए तैयारी नहीं करनी है। इस पर आकर सारी यात्राएं नहीं है। दूसरे का ही हमें पता है। अपना हमें कोई भी पता नहीं है। समाप्त हो जाती हैं। मनुष्य जिस दिन भी अपने भीतर प्रवेश करता है, उस दिन ही सुना है मैंने, जापान में एक तीर्थयात्रा के बीच के पड़ाव पर, पाता है कि जिसे वह खोजता था, वह भीतर ही मौजूद है। पहाड़ पर एक मंदिर है। और हजारों लोग वर्ष में एक दिन वहां की मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक आदमी हाजी हो गया है, हज यात्रा करते हैं पैदल। वर्षों से एक फकीर बीच पहाड़ के रास्ते पर की यात्रा करके लौट आया है, तीर्थयात्रा करके लौट आया है। सारा | एक वृक्ष के नीचे पड़ा रहता था। हर वर्ष यात्री आते और जाते। गांव इकट्ठा है। सिर्फ नसरुद्दीन को छोड़कर सारा गांव हाजी को कभी कोई उस फकीर से पूछ लेता कि तुम इस वृक्ष के नीचे यात्रा देखने गया है। नसरुद्दीन की पत्नी कहती है कि नसरुद्दीन, तुम भी | | पर जाते हुए ठहरे हो या यात्रा से लौटते हुए ठहरे हो? तो वह फकीर अपना यह अधर्म कब छोड़ोगे? ऐसे गांवभर में घूमते-फिरते हो, हंसता और वह कहता कि न हम किसी यात्रा पर जाते हुए ठहरे हैं धूल खाते हो गली-गली की, और आज हाजी गांव में आया है, तो | और न किसी यात्रा से आते हुए ठहरे हैं। स्वभावतः, लोग रुक जाते तुम घर बैठे हो, जब कि सारा गांव जा रहा है! नसरुद्दीन ने कहा और पूछते कि तुम्हारा मतलब क्या है? क्योंकि तुम जहां बैठे हो, कि इसमें कौन-सी प्रशंसा की बात है कि कोई आदमी हज हो। यह तो केवल यात्रा का पडाव है. मंजिल तो आगे है। आया? हां, अगर किसी दिन किसी आदमी के पास हज आ जाए, | तो वह फकीर कहता कि निश्चित ही, बाहर की यात्रा, जिस पर तो मुझे खबर करना। | तुम निकले हो, उसके लिए यह एक पड़ाव है। लेकिन जहां मैं भीतर आदमी तीर्थयात्रा पर चला जाए, लौट आए, इसमें कौन-सी | बैठा हूं, वह वह जगह है, जहां से न आगे जाया जा सकता है, न बड़ी बात है! बहुत लोग आए और गए। किसी दिन तीर्थ किसी | जहां से पीछे लौटा जा सकता है। आया तो मैं भी इसी तीर्थ की यात्रा आदमी के पास आ जाए, मुझे खबर करना, मैं हाजिर हो जाऊंगा। | के लिए था, लेकिन इस वृक्ष के नीचे बड़ी तीर्थयात्रा घटित हो गई, वह ठीक कह रहा है। ऐसी घटना भी घटती है, जब तीर्थ आदमी फिर आगे नहीं जा सका। इस वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे वह घटित हो के भीतर आ जाता है। ऐसी भी घटना घटती है, जब भक्त भगवान गया, जिसने मुझे अपने ही भीतर पहुंचा दिया। अब मंजिल आ गई, को खोजने नहीं जाता और भगवान भक्त को खोजता आता है। । | अब कदम यहां रखने और कदम वहां रखने का भी कोई अर्थ नहीं असल में ऐसी ही घटना घटती है। भक्त के खोजे भगवान कभी रह गया है। अब मैं वहां हूं, जहां सदा था और जहां के लिए सदा. नहीं मिला और कभी मिल नहीं सकता है। भक्त को अगर पता ही से दौड़ता रहा। होता कि भगवान कहां है, तो वह कभी का भगवान को खोज लिया परम धाम का अर्थ है, जिसके आगे अब कोई और यात्रा की होता। उसे कुछ भी पता नहीं है। भक्त क्या कर सकता है? | तैयारी नहीं करनी है। और परम धाम का एक अर्थ और खयाल में भक्त कहीं जाता नहीं। भक्त सिर्फ अपने को खोलता, उघाड़ता | | ले लें, जो और भी जरूरी है। और नग्न करता है। भक्त सिर्फ अपने को उघाड़ता है। और जिस ___ परम धाम का यह अर्थ नहीं है कि जहां आप बहुत-सी यात्राएं दिन भक्त पूरा उघड़ा होता है, नग्न पूर्ण रूप से, कोई वस्त्र नहीं | | करके पहुंच गए। अगर आप बहुत-सी यात्रा करके वहां पहुंचे हैं, उसके चित्त पर, उसकी चेतना पर कोई आवरण नहीं, निरावरण, | तो वह परम धाम नहीं हो सकता, धाम ही हो सकता है। परम धाम उसी दिन भगवान उपलब्ध हो जाता है। भक्त कभी भी यात्रा करके | तो वह है, जहां पहुंचकर पता चला कि जहां हम सदा से थे ही! यह भगवान तक नहीं पहुंचे हैं। जब भी कोई भक्त हो सका है भक्त. | थोड़ी-सी कठिन बात है। परम धाम वह है, जहां पहुंचकर पता चले तब भगवान स्वयं यात्रा करके आ गया है। | कि हद हो गई, यहां तो हम सदा से थे ही! यह जो घटना है, यह जो सनातन अव्यक्त को प्राप्त कर लेना बुद्ध को जब निर्वाण हुआ, बुद्ध को जब समाधि फलित हुई, तो है, कृष्ण कहते हैं, यही मेरा परम धाम है। बुद्ध सात दिन तक तो चुप बैठे रहे। कुछ सूझा ही नहीं। हिले-डुले यह परम धाम प्रत्येक के भीतर है, यह वैकुंठ प्रत्येक के भीतर | | भी नहीं। फिर लोग इकट्ठे होने लगे। उनकी कांति, उनकी आंखों 1115] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 की रोशनी, उनकी सुगंध जल्दी ही फैलने लगी। जब कोई फूल तो मैं चकित हो गया, क्योंकि अचानक उस बुद्धपुरुष ने अपना सिर खिल जाए मनुष्य की चेतना में, तो फिर किसी को बलाने नहीं जाना मेरे चरणों में रख दिया। पड़ता, खबर पहुंचनी शुरू हो जाती है। लोग आने लगे। दूर-दूर | | मैं तो बहुत घबड़ा गया। और मैंने उन्हें उठाकर कहा कि मुझे तक खबर फैल गई कि कोई बुद्धत्व को प्राप्त हो गया। लोगों की | | क्षमा करें! मुझसे कुछ भूल हो गई? आप मेरे चरणों में सिर रखें, भीड़ लग गई और लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे कि हमें | यह तो उलटा मुझ पर पाप हो गया। मुझसे पाप हो गया। अगर मुझे बताओ कि तुमने क्या पा लिया है? गौतम, हमें कहो कि तुमने क्या | | पता होता, तो मैं आपको पहले ही रोक लेता। मैं तो अज्ञानी हूं। मैंने पा लिया है? आपके चरणों में सिर रखा, वह ठीक है। पर आपने मेरे चरणों में तो बुद्ध ने जो पहला वचन कहा, वह बहुत हैरानी का है। बुद्ध क्यों सिर रखा? ने कहा, अगर तुम पूछते हो कि मैंने क्या पा लिया, तो तुम मुझे | | तो उस बुद्धपुरुष ने बुद्ध को कहा, उस ज्ञानी ने बुद्ध को कहा मुश्किल में डालते हो। क्योंकि मैंने वही पा लिया है, जो सदा से कि मुझे पता है मंजिल का, वह मुझे मिल भी गई, मुझे पता भी है, पाया ही हुआ था। लोग पूछने लगे कि पहेलियों में मत कहो। हम | पर मुझ में और तुझ में ज्यादा फर्क नहीं है। मंजिल तो उतनी की सीधे-सादे लोग हैं, हमें ठीक से समझाओ। तुम्हारी उपलब्धि क्या उतनी तेरे भीतर भी मौजूद है, बस तुझे जरा पता नहीं। जो हीरा मेरे है? तो बद्ध ने कहा, उपलब्धि के नाम पर कोई भी उपलब्धि नहीं | पास है, वही हीरा तेरे पास है। मुझे पता है, तुझे पता नहीं। लेकिन है। मैने खोया तो जरूर कुछ, पाया कुछ भी नहीं। | हीरे के होने में जरा फर्क नहीं है। तो मैं तुझे इसलिए नमस्कार करता लोग बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि हमने तो सदा से सुना है | | हूं, ताकि तुझे याद रहे कि तेरे भीतर भी वह हीरा है कि बुद्धपुरुष कि जब ज्ञान होता है, तो कुछ मिलता है। आप कैसी बात करते हैं! | | तेरे चरणों में सिर रखे। और आज नहीं कल, जब तुझे पता चल तो बुद्ध ने कहा, मैंने अज्ञान तो खोया। अब मैं हैरान हूं कि मैंने उस | जाएगा, तब त मेरी बात समझ लेगा। अज्ञान को पा कैसे लिया था। उसे मैंने खोया। और जो ज्ञान मैंने | | और जब एक जन्म के बाद बुद्ध को ज्ञान हुआ, तब उन्होंने जो पाया है, अब मैं तुमसे कैसे कहूं कि उसे मैंने पाया है, क्योंकि अब | | पहले अपने हाथ जोड़कर किसी के चरणों में झुकाए, वे वे ही मैं जानता हूं कि वह सदा से ही मेरे पास था। अज्ञात चरण थे, जो अब तो खोजे से मिल नहीं सकते थे। वे अज्ञात' तो बुद्ध कहते कि ऐसा समझो कि किसी भिखारी के खीसे में चरण, वह अज्ञात व्यक्ति, जिसने उनके चरणों में सिर रख दिया हीरा पड़ा हो और वह भीख मांगता फिरे। फिर एक दिन अचानक था। जानते हुए ज्ञानी ने अज्ञानी के चरण में सिर रख दिया था, सिर्फ वह खीसे में हाथ डाले, हीरा सामने आ जाए। तो क्या वह कहेगा इस आशा में कि आज नहीं कल इस अज्ञानी को भी पता तो चल कि मैंने हीरा पाया? वह हीरा तो बहुत दिन से उसके साथ ही था, । | ही जाएगा कि उसके भीतर भी ज्ञान का उतना ही सागर है, रत्तीभर सदा से उसके साथ ही था, सिर्फ उसे पता नहीं था। भी कम नहीं। परम धाम वह है, जो अभी भी हमारे साथ है और हमें पता नहीं। परम धाम का अर्थ है, ऐसी मंजिल, जो हमें मिली ही है और परम मंजिल वह है, जिसे हम अपने हृदय के कोने में लिए हुए चल | फिर भी हमें पता नहीं। रहे हैं, खोज रहे हैं। निरंतर जो मौजूद है और हमें पता नहीं। बस, __ और हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस पता नहीं है। इतना ही फर्क पड़ेगा पहुंचकर, जानकर, पता हो | परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष जाएगा; और कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा। अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। बुद्ध ने अपने पिछले जन्म का स्मरण किया है और कहा है कि जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं! मेरे पिछले जन्म में, सुना मैंने—गौतम बुद्ध के जन्म के पहले जन्म निश्चित ही, भूतों के अंतर्गत परमात्मा नहीं है। पदार्थ के अंतर्गत में, जब वे बुद्ध नहीं हुए थे-तो बुद्ध ने कहा है कि मैंने सुना था | | परमात्मा नहीं है, लेकिन परमात्मा के अंतर्गत पदार्थ हैं। जैसे विराट अपने पिछले जन्म में कि कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, | | आकाश सब पदार्थों को घेरे हए है. ऐसा ही विराट परमात्म-चैतन्य तो मैं उसके दर्शन करने को गया था। जब मैं उसके चरणों में झुका | | समस्त आकाशों को भी घेरे हुए है। चेतना इस जगत में सर्वाधिक और मैंने सिर उसके पैरों में रखा, और जब मैं उठकर खड़ा हुआ, | विस्तार है, सबसे बड़ा विस्तार है। 116 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * इस समय पश्चिम में एक क्रांति चलती है - खास कर नई पीढ़ी में, यंगर जेनरेशन में — और हजारों तरह के प्रयोग पश्चिम में किए जा रहे हैं। रासायनिक द्रव्यों को लेकर, केमिकल ड्रग्स को लेकर - एल एस डी है, मारिजुआना है, मैस्कलीन है, हशीश है, गांजा है, भांग है— इन सब पर बहुत प्रयोग चलते हैं। और उस प्रयोग के पीछे एक आशा काम करती है, एक अभिलाषा है कि किसी भांति चेतना विस्तीर्ण कैसे जाए, एक्सपेंशन आफ कांशसनेस । चेतना फैल कैसे जाए, बड़ी कैसे हो जाए, विस्तार कैसे हो जाए। चाहे रासायनिक द्रव्यों से वह बात न हो सके, लेकिन आकांक्षा बड़ी प्राचीन है, बड़ी प्राचीन है। आदमी की आकांक्षा एक ही है कि चेतना इतनी विस्तीर्ण कैसे हो जाए कि चेतना में सब कुछ घिर जाए और समा जाए, चेतना के बाहर कुछ न रह जाए। जिस दिन चेतना के बाहर कुछ नहीं रह जाता और चेतना में सभी कुछ समा जाता है, कांशसनेस एक आकाश बन जाती है, एक स्पेस, और सभी कुछ उसमें समा जाता है। उस दिन पाने योग्य फिर कुछ नहीं बचता; उस दिन खोने का भी कोई डर नहीं रह जाता; उस दिन मृत्यु का भय नहीं होता; उस दिन अमृत के झरने स्वयं में ही फूट पड़ते हैं । उस दिन परिवर्तन का कोई कारण नहीं; उस दिन शाश्वत तो स्वयं का घर बन जाता है। इस परम चेतना के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं कि वह जो परमात्मा है, उसके अंतर्गत सर्वभूत हैं। एक जीसस का वचन इस संबंध में कहने जैसा है। जीसस के पास एक अंधेरी रात में निकोडेमस नाम का युवक आया और उस युवक से जीसस ने कहा कि तू मेरे पास किसलिए आया है? क्या तू चाहता है कि तुझे और धन मिल जाए मेरे शुभाशीषों से ? या तू चाहता है कि तेरे जीवन में सफलता आए मेरे संपर्क से? क्या तू इसीलिए मेरी प्रार्थना को आया है, ताकि मेरी शुभकामनाएं तेरे ऊपर बरस पड़ें और तू संसार में उपलब्धियों की दिशा पर गतिमान हो सके ? ' निकोडेमस ने कहा, हे प्रभु, आपने पहचाना कैसे ? आया मैं इसीलिए हूं कि और मेरा धन कैसे बढ़े ! और मेरा राज्य कैसे बड़ा हो ! और वस्तुओं का मैं मालिक कैसे हो जाऊं ! मुझे कोई एक ऐसा सूत्र दे दें, कोई एक राज बता दें, एक गुर ऐसा मुझे दे दें कि उसी के सहारे मैं जहां भी कदम रखूं, सफल हो जाऊं; जो भी मेरी महत्वाकांक्षा हो, पूरी हो। इधर मैं कामना करूं कि वहां पूर्ति हो | जाए। मुझे कुछ ऐसा राज बता दें, जो कल्पवृक्ष हो जाए । तो जीसस ने जो राज बताया, निकोडेमस की तो समझ में नहीं आया, लेकिन समस्त धर्मों का सार उस सूत्र में है। जीसस ने कहा, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू । तू पहले प्रभु को खोज ले, और शेष सब उसके पीछे चला आएगा। तू पहले प्रभु का राज्य खोज ले, और फिर शेष सब उसके पीछे अपने से चला आएगा। लेकिन उस निकोडेमस ने कहा कि पहले तो मुझे शेष सबको खोजने दें। अभी प्रभु को खोजने की मेरी उम्र नहीं हुई ! कल एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आए। सत्तर से कम तो उनकी उम्र न होगी। वे मुझसे पूछने आए कि आपने युवकों को संन्यास कैसे दे दिया है? शास्त्रों में कहा हुआ है कि संन्यास तो अं अवस्था में लेना चाहिए! अब अगर शास्त्रों को ही वे मानते हों, तो उनको संन्यासी होकर आना चाहिए था। सत्तर साल की उम्र है । शास्त्रों वगैरह को वे मानते नहीं हैं जरा भी। नहीं तो संन्यासी होकर आना चाहिए था। | अभी उन्होंने संन्यास नहीं लिया है। लेकिन किसी युवक को क्यों संन्यास दे दिया है, इसके लिए वे पूछने आए हैं, कि इससे तो बड़ी हानि हो जाएगी ! परमात्मा को खोजने के लिए उम्र की कोई शर्त नहीं है । और कभी तो बूढ़े भी नहीं खोज पाते, और कभी बच्चे भी खोज लेते हैं। और जिन्हें हम बूढ़े और बच्चे कहते हैं, उनमें भी कौन बूढ़ा है और कौन बच्चा है, यह इतना आसान है तय करना। क्योंकि अगर बुढ़ापे का कोई भी अर्थ होता हो, तो बुद्धिमत्ता होगी। तो बूढ़े भी | नासमझ हो सकते हैं, बच्चे भी समझदार हो सकते हैं। निकोडेमस ने कहा कि अभी तो मेरी उम्र भी कहां कि मैं परमात्मा को खोजूं। आप भी कैसी बात करते हैं ! यद्यपि उसकी उम्र जीसस से ज्यादा थी, जिससे वह पूछने आया था। जीसस की तो सूली ही तैंतीस वर्ष में लग गई। जीसस ने लेकिन उसे जो सूत्र दिया और कहा, सीक यू फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड एंड देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू, और तब सब तुझे अपने आप मिल जाएगा। अगर तू गुर की बात पूछता है, | राज की, तो बता देता हूं। पहले प्रभु को खोज ले। 117 लेकिन प्रभु को खोजने से शेष सब कैसे मिल जाएगा ? कृष्ण के इस सूत्र में है वह अर्थ । हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं... । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 अगर किसी ने परमात्मा को ही पा लिया, तो वह सर्वभूतों को एक अजनबी आदमी गांव में आया हुआ था, वह बड़ा हैरान तो पा ही लेगा। और जो भूतों को पाने में लगा रहा, पदार्थों को पाने | | हुआ कि जब गांव में इतने जोर की अफवाह है, फिर भी कोई में लगा रहा, वह पदार्थों को पा नहीं सकता। क्योंकि जब तक आदमी मानता क्यों नहीं! उसने सोचा कि हर्ज क्या है, चलकर मैं पदार्थों के मालिक को नहीं पाया, तब तक पदार्थों को कैसे पाया नसरुद्दीन से ही पूछ लूं। कुतूहलवश...। जा सकता है! हमारे जीवन की सारी पीड़ा यही है। गांव के लोगों ने बहुत समझाया कि तू बिलकुल पागल है। यह सुना है मैंने, एक सम्राट यात्रा पर गया है। और जब वह | नसरुद्दीन ने ही अफवाह उड़ाई होगी। बाकी यह हो नहीं सकता; अनेक-अनेक साम्राज्यों की विजय करके वापस लौटने लगा, तो यह इंपासिबल है, यह असंभव है। इस नगर में कुछ भी हो सकता उसने अपनी-सौ रानियां थीं-उन सबको खबर भेजी कि तुम है; नसरुद्दीन भोज दे दे पूरे नगर को, यह कभी नहीं हो सकता। क्या चाहती हो कि मैं उपहार में तुम्हारे लिए लाऊं? जाने की जरूरत नहीं है। किसी रानी ने कहा कि मेरे लिए कोहनूर लेते आना। किसी रानी लेकिन जितना लोगों ने रोका, उसकी उत्सुकता बढ़ी। उसने ने कहा कि मेरे लिए उस देश में जो इत्र बनता है श्रेष्ठतम, उसको ले कहा, हर्ज क्या है, चार कदम चलकर जरा मैं पूछ ही क्यों न आऊं। आना, जितना ला सको। किसी ने कुछ और, किसी ने कुछ और; अफवाह सच भी हो सकती है। बड़ी कीमती, बड़ी बहुमूल्य चीजें। सिर्फ एक रानी ने खबर भेजी कि वह आदमी गया। नसरुद्दीन तो भीतर बैठा था अपनी बैठक में, तुम सकुशल वापस लौट आना, और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। बाहर नौकर उसका महमूद था। उस आदमी ने पूछा कि सुना है मैंने सम्राट, जिस रानी ने जो बुलाया था उसके लिए तो उतना लाया कि तुम्हारा मालिक मुल्ला नसरुद्दीन गांवभर को भोज दे रहा है, ही, लेकिन इस रानी के लिए उतना सब लाया, जितना सब रानियों क्या तुम कुछ इस संबंध में मुझे जानकारी दे सकते हो? और अगर ने इकट्ठा बुलाया था। लौटकर उसने कहा कि रानी तो सिर्फ मेरी यह भोज होने वाला है, तो किस तारीख और किस दिन? एक कुशल और होशियार है, उसने मालिक को मांग लिया; चीजें मुल्ला का नौकर तो अच्छी तरह जानता था कि यह कभी होने तो पीछे चली आती हैं! वाला नहीं है। वह हंसा और इसलिए कि कभी होने वाला नहीं है, सच, धार्मिक व्यक्ति इस जगत में कुशलतम बुद्धिमान व्यक्ति उसने मजाक में उस आदमी से कहा कि अब तुम आ ही गए हो. वह पदार्थों को नहीं मांगता, वह पदार्थों के मालिक को ही मांग इतनी दूर चलकर, तो मैं तुम्हें दिन बताए देता हूं। कयामत के दिन, लेता है; पदार्थ तो पीछे चले आते हैं। प्रलय के दिन, यह भोज होगा। जिसे हम गृहस्थ कहते हैं, जिसे हम समझदार कहते हैं, वह वह आदमी तो चला गया, मुल्ला अंदर से आया और कहा कि सिर्फ नासमझों की आंखों में समझदार होगा; उससे ज्यादा नासमझ नालायक, अभी से दिन तय करने की क्या जरूरत! फंसा दिया कोई भी नहीं, क्योंकि वह जो भी मांगता है, वह क्षुद्र पदार्थ है। और | मुझे। दिन भी तय कर दिया! अफवाह उड़ने दे, दिन तय करने की मालिक को बिना मांगे हम वहम में ही होते हैं कि हमें कुछ मिल | कोई जरूरत नहीं। कयामत का दिन भी आखिर दिन ही है। तय तो गया, क्योंकि मौत हमसे फिर सब छीनकर मालिक को वापस लौटा हो ही गया! देती है। थोड़ी-बहुत देर हम पहरेदारी करते हैं। बड़े से बड़ा हमारे पहरे देते हैं लोग। अपने धन पर पहरा देते हैं, अपने यश पर बीच जो धनपति है, वह धन का पहरा देता है। जितना ज्यादा धन, | पहरा देते हैं और मर जाते हैं। और उनका धन, और उनका यश उन उतना ही खर्च करना मुश्किल हो जाता है। खर्च करना तो सिर्फ | पर हंसता हुआ यहीं पड़ा रह जाता है। सिर्फ एक धन है जिसे मृत्यु फकीर ही जानते हैं। नहीं छीन पाती, और वह परमात्मा है। सिर्फ एक ही यश है जिसे मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गांव में कभी किसी आदमी को चाय | | मृत्यु नहीं धूमिल कर पाती, और वह परमात्मा है। भी नहीं पिलाई। मरते समय तक बहुत पैसा उसके पास इकट्ठा हो | और मजा यह है कि जो परमात्मा को पा लेता है, वह सब पा गया। लेकिन एक दिन गांव में खबर उड़ गई कि मुल्ला नसरुद्दीन लेता है। और जो सबको पाने की कोशिश में रहता है, वह सबमें पूरे नगर को भोज दे रहा है। किसी ने भरोसा नहीं किया। लोगों ने से तो कुछ पाता ही नहीं; जिसे पा सकता था, परमात्मा को, उसे सुना, हंसे, और टाल दिया। भी पाने के अवसर चूकता चला जाता है। | 118 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * और जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है। और जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है ! लेकिन हमें तो कहीं परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और कृष्ण कहते हैं कि जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है। वह हमें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। हमें सब कुछ दिखाई पड़ता है परमात्मा को छोड़कर। हमें सब कुछ दिखाई पड़ता है, आदमी, वृक्ष, पत्थर, हीरे-जवाहरात, आकाश, चांद-तारे, सब दिखाई पड़ता है, सिर्फ परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और ये कृष्ण जैसे लोग निरंतर कहे जाते हैं कि और सब कुछ भी नहीं है, परमात्मा ही है। जरूर कहीं कोई बात है। पश्चिम में एक नई साइकोलाजी पिछले पचास वर्षों में विकसित हुई है । उस साइकोलाजी का नाम है, गेस्टाल्ट साइकोलाजी, गेस्टाल्ट मनोविज्ञान। यह गेस्टाल्ट शब्द ऐसा है कि इसका अनुवाद नहीं हो सकता है। इसलिए थोड़ा मैं आपको समझा दूं, तो खयाल में आ सके। .. गेस्टाल्ट जर्मन शब्द है । और गेस्टाल्ट का मतलब होता है, एक रूप-रेखा, जो मन को पकड़ ले, तो उससे विपरीत रूप-रेखा दिखाई नहीं पड़ती। इसे ऐसा समझें। कभी आपने बच्चों की किताबों में ऐसी तस्वीरें देखी होंगी। बच्चों की किताब में ऐसी तस्वीर अक्सर होती है कि दो चेहरे आदमियों के एक-दूसरे को देखते हुए बने हैं—नाक नाक के पास, होंठ होंठ के पास, दाढ़ी दाढ़ी के पास दो चेहरे बने हैं, काले। इस चित्र को आप दो तरह से देख सकते हैं। अगर बीच की सफेद जगह को देखें, तो मालूम पड़ेगा कि कोई फूलों का गमला रखा है। अगर आप काले चेहरों पर ध्यान दें, तो फूलों का गमला खो जाएगा और दो चेहरे दिखाई पड़ेंगे आमने-सामने। और मजा यह है कि जब आप काले चेहरों को देखेंगे, तो आपको गमला नहीं दिखाई पड़ेगा। और जब आप गमले पर ध्यान देंगे, तो चेहरे दिखाई नहीं पड़ेंगे। दोनों एक साथ दिखाई नहीं पड़ेंगे। या बच्चों की किताब में कभी इस तरह के चित्र भी होते हैं कि एक ही चित्र में, रेखाओं में जवान स्त्री का चित्र होता है एक, और उसी रेखाओं के बीच छिपा हुआ एक बूढ़ी स्त्री का चित्र होता है। जब आपको जवान स्त्री की रेखाएं दिखाई पड़ेंगी, तो बूढ़ी स्त्री दिखाई नहीं पड़ेगी। और जब बूढ़ी स्त्री की रेखाएं दिखाई पड़ेंगी, तो जवान स्त्री दिखाई नहीं पड़ेगी। और ऐसा नहीं है कि आपको | पता नहीं है इसलिए, आपने दोनों देख ली हैं। एक दफा जवान देख ली, फिर क्षणभर बाद आपको बूढ़ी स्त्री भी मिल गई। अब आप जानते हैं कि दोनों स्त्रियां उस चित्र में मौजूद हैं। लेकिन अभी भी | जब भी आप देखेंगे, एक ही दिखाई पड़ेगी, दूसरी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि एक ही रेखाओं से दोनों की बनावट है। जब आप एक रेखा का उपयोग जवान स्त्री के लिए कर लेते हैं, बूढ़ी स्त्री के लिए रेखा नहीं बचती । और जब आप उसी रेखा का उपयोग बूढ़ी स्त्री के लिए कर लेते हैं, तो जवान स्त्री नहीं बचती । इसको गेस्टाल्ट कहते हैं। एक चित्र में दो चित्रों की संभावना है, लेकिन एक चित्र देखें, तो दूसरा दिखाई नहीं पड़ता । यह जगत एक गेस्टाल्ट है। इस जगत में जब तक आपको पदार्थ दिखाई पड़ते हैं, तब तक परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता । क्योंकि जहां पदार्थ समाप्त होते हैं, उनकी जो समाप्त होने की रेखा है, वही परमात्मा के प्रारंभ होने की रेखा है। इसलिए जिस आदमी को पदार्थ दिखाई पड़ता है, वह कहता है, कहां है परमात्मा ? कहीं नहीं है। और जिसको परमात्मा दिखाई पड़ता है, वह पूछता है, कहां है संसार ? कहां है पदार्थ ? कहीं कोई नहीं है। इसलिए शंकर जैसा ज्ञानी कहता है कि संसार नहीं है। मार्क्स जैसा ज्ञानी कहता है कि संसार ही है, परमात्मा नहीं है। पदार्थवादी कहता है, पदार्थ है। परमात्मवादी कहता है, परमात्मा है। और मामला गेस्टाल्ट का है। उन्हीं रेखाओं का उपयोग हम कर रहे हैं। जब मैं आप पर ध्यान देता हूं, तो आप दिखाई पड़ते हैं; लेकिन आपके आस-पास का जो फैलाव है आकाश का, वह दिखाई नहीं पड़ता । परमात्मा का खोजी धीरे-धीरे दूसरे गेस्टाल्ट को देखना शुरू करता है। जब भी वह कोई चीज देखता है, तो दृष्टि चीज पर नहीं रखता, उस चीज के भीतर छिपे हुए प्राण पर रखता है। जब वह वृक्ष के पास खड़ा | होता है, तो वृक्ष की पदार्थ - रेखाओं को नहीं देखता, वृक्ष के भीतर | जो लपट की तरह उठता हुआ जीवन है आकाश की ओर, उसको | देखता है। विनसेंट वानगाग ने वृक्षों के शायद पृथ्वी पर सर्वाधिक सुंदर | चित्र चित्रित किए हैं। लेकिन उसके वृक्षों को समझना बहुत | मुश्किल है। क्योंकि उसके वृक्ष जमीन से उठते हैं और ठेठ आकाश को पार करते चले जाते हैं, चांद-तारे नीचे रह जाते हैं और वृक्ष ऊपर निकल जाते हैं! वानगाग को उसके मित्रों ने पूछा कि तुम पागल तो नहीं हो गए 119 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-44 हो! कभी वृक्ष देखे हैं? ये चांद-तारे नीचे पड़ गए और वृक्ष ऊपर से प्राप्त हो जाती है। ये दो शब्द आखिर में समझ लें। चले जा रहे हैं? ये जमीन से लेकर आकाश को छेद रहे हैं? कभी । अनन्य भक्ति, ऐसी भक्ति जो संपूर्ण रूप से, समग्र रूप से, वृक्ष देखे हैं? वानगाग ने कहा, तुमने जो वृक्ष देखे हैं, वे शायद | | एक निष्ठा से परमात्मा की तरफ हो। एक निष्ठा से परमात्मा की मैंने नहीं देखे होंगे। मैंने जो वृक्ष देखे हैं, वे शायद तुमने नहीं देखे | | तरफ हो। निष्ठा जरा भी यहां-वहां खंडित न होती हो, भागती न हैं। उन्होंने कहा, मतलब तुम्हारा! हो। बंटी हुई निष्ठा उस तक नहीं पहुंचा पाएगी। बंटी हुई निष्ठा तो वानगाग कहता था, जब भी मैं किसी वृक्ष को देखता हूं, तो संसार के गेस्टाल्ट में ले जाती है। एक निष्ठा संसार के गेस्टाल्ट थोड़ी ही देर में उसके पत्ते खो जाते, उसकी शाखाएं खो जाती, | से ऊपर उठाती है। उसके कारण हैं। उसकी जड़ें खो जातीं, उसकी देह खो जाती। फिर तो मुझे पीछे ऐसा - संसार का अर्थ है, बहुत वस्तुएं, अनेक। अगर अनेक के बीच ही लगता है कि वृक्ष पृथ्वी की फैली हुई आकांक्षाएं हैं आकाश को | जीना है, तो आपके भीतर अनेक आकांक्षाएं और अनेक निष्ठाएं छूने की। पृथ्वी की आकांक्षाएं, आकाश को छूने की। वृक्ष की | | होनी चाहिए। परमात्मा का अर्थ है, एक। अगर एक को पाना है, रूपरेखा मुझे खो जाती और पृथ्वी की आकांक्षाएं मुझे वृक्षों में लपट | | तो एक निष्ठा, एक आकांक्षा, एक अभीप्सा होनी चाहिए। एक को की तरह, हरी लपटों की तरह-ग्रीन फ्लेम्स-आकाश की तरफ | | पाना हो, तो आपको भी एक होना चाहिए। अनेक को पाना हो, तो भागती मालूम पड़ने लगती हैं। पृथ्वी कोशिश कर रही है आकाश | | आप अनेक में विभाजित होकर जी सकते हैं। से आलिंगन का. ऐसा ही मझे दिखाई पडा है। चंकि हम संसार को पाने में लगे हैं. इसलिए हमारे एक-एक लेकिन ऐसा जिसे दिखाई पड़ेगा, उसे फिर वृक्ष के पत्ते वगैरह आदमी के भीतर अनेक-अनेक आदमी होते हैं। सच तो यह है, दिखाई नहीं पड़ेंगे। और जिसे वृक्ष के पत्ते वगैरह दिखाई पड़ेंगे, उसे | | हममें से कोई भी एक नहीं होता। क्राउड, एक भीड़ होती है हर वृक्षों के भीतर यह जो प्राण की ऊर्जा है भागती हुई, यह दिखाई नहीं | | आदमी के भीतर। आप भी पहचान सकते हैं कि आपके भीतर बहुत पड़ेगी। जिसको फूल में केवल केमिकल्स दिखाई पड़ेंगे, उसे | चेहरे होते हैं, बहुत आदमी होते हैं आपके भीतर। मनोविज्ञान कहता सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ेगा; और जिसे सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, उसे | है, आदमी मल्टी-साइकिक है, बहु-चित्तवान है। उसके भीतर केमिकल्स का कोई पता नहीं होगा। गेस्टाल्ट का भेद है। बहुत चित्त हैं। और एक चेहरा दूसरे चेहरे से भी अपरिचित बना . कृष्ण कहते हैं, यह जगत, इसका सब कुछ परमात्मा से परिपूर्ण | रहता है। परिचय का मौका ही नहीं आता। है, उसी से भरा हुआ है। मुल्ला नसरुद्दीन एक नाव में यात्रा कर रहा है और नाव डूब हम चारों तरफ देखते हैं, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। हमारा | | जाती है। शिष्ट आदमी है, सज्जन आदमी है, नियम का पालन गेस्टाल्ट गलत है। या हमारा गेस्टाल्ट संसार को देखने वाला है। करता है। नाव डूब जाती है, अनेक यात्री मर जाते हैं, कुछ किनारों हमें अपना गेस्टाल्ट बदलना पड़ेगा। की तरफ तैरकर निकलने की कोशिश करते हैं। मुल्ला को एक इस गेस्टाल्ट की बदलाहट की प्रक्रिया का नाम योग है। इस | लकड़ी का पटिया मिल जाता है, एक और यात्री को भी मिल जाता गेस्टाल्ट की बदलाहट की प्रक्रिया का नाम धर्म है। इस गेस्टाल्ट | | है। एक दिनभर बीत गया, दोनों पटिए पर सहारा लिए चल रहे हैं, को बदलने की चेष्टा ही साधना है। लेकिन अभी कोई बातचीत नहीं हुई। बड़ी कठिनाई है, कठिनाई यह __तब जगत में पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता, परमात्मा ही दिखाई | है कि दोनों सज्जन आदमी हैं और उनका पहले किसी ने परिचय पड़ता है। एक क्षण ऐसा आता है कि जगत में उसके अतिरिक्त कुछ | कराया नहीं और अब कोई परिचय कराने वाला नहीं। वे दोनों ही भी दिखाई नहीं पड़ता, वही शेष रह जाता है। सब रेखाएं उसी में | | हैं। लकड़ी के पटिए को पकड़े हैं और किसी ने परिचय कराया लीन हो जाती हैं। और सब नदियां पदार्थ की उसी के सागर में डूब नहीं, तो बिना परिचय कराए किसी से बोलना! जाती हैं और मिल जाती हैं। आखिर दूसरे आदमी के बरदाश्त के बाहर हो जाती है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने सज्जनता। कभी-कभी सज्जनता बड़ी बरदाश्त के बाहर हो जाती योग्य है। है। आखिर वह कहता है कि महाशय, हद्द हो गई! औपचारिकता और यह जो परम सत्ता व्याप्त है सब जगह, यह अनन्य भक्ति | की भी हद्द हो गई। आप बोल क्यों नहीं रहे हैं? नसरुद्दीन ने कहा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा * कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि जो अशिष्ट हो, वह पहले बोले। अब | पानी छिड़को। एक लड़की चिल्लाए चली जा रही है कि इससे कुछ तुम बोल चुके, अब कोई अड़चन नहीं है। मैं कभी नहीं बोलता उस | | भी न होगा, एक पावभर दूध में आधा पाव जलेबी डालकर इसे आदमी से, जिससे मेरा पहले परिचय न करवाया गया हो। और | खिला दो। मेरा किसी ने तुमसे परिचय नहीं करवाया। ___ मुल्ला पहले तो थोड़ी देर तक यह सब आयोजन सुनता रहा। आपके भीतर इतने चेहरे हैं जिनके साथ ही आप तैर रहे हैं, | | फिर एक आदमी जूता निकालकर ही आ गया। तब उसने एक सागर में डूब रहे हैं, लेकिन आपका कोई परिचय नहीं है। क्योंकि | | आंख खोली, उसने कहा, हटाओ भी, सब अपनी बकवास में लगे आपके खुद के चेहरों से कोई दूसरा तो आपका परिचय करवाएगा | | हैं, कोई उस बेचारी लड़की की भी तो सुनो। हम इधर बेहोशी में नहीं, आपको ही परिचय करना पड़ेगा। आप शिष्ट आदमी हैं, कैसे मरे जा रहे हैं और तुम अपना जूता सुंघा रहे हो! एक आंख खोलकर परिचय करें! और आपके चेहरे को दूसरा परिचय करवाएगा कैसे? उसने कहा कि उस बेचारी लड़की की भी कोई सुनो! और अगर कोई करवाने की कोशिश करे, तो आप नाराज भी हो । बेहोश भी अगर हम होते हैं, तो आधा ही हिस्सा बेहोश है, जाते हैं। अगर कोई आपको बताए कि देखो, सुबह तुम्हारा दूसरा आधा उस वक्त भी हिसाब लगा रहा है कि कोई जूता तो नहीं सुंघा चेहरा था, अब तुम दूसरा चेहरा लिए हो, तो आप एकदम नाराज | रहा है! कोई क्या कर रहा है! नींद में भी हम बिलकुल सोए हुए हो जाते हैं। और आप कभी अपने आत्म-परिचय में लगते नहीं हैं, | नहीं हैं। नींद में भी कान हमारे सजग हैं। सुन रहे हैं, जान रहे हैं कि नहीं तो पाएंगे कि भीतर एक भीड़ है। | कहां क्या हो रहा है; आस-पास क्या चल रहा है! इस भीड़ का कारण क्या है? इस भीड़ का एक ही कारण है, __ खंडित है सब, बंटा हुआ है सब। इस बंटी हुई स्थिति को लेकर क्योंकि आप बहुत-सी चीजों को पाना चाहते हैं। बहुत-सी चीजों | कोई प्रभु की तरफ नहीं जा सकता। इसलिए शर्त है, अनन्य। और को पाने के लिए आपको बहुत-से हिस्से, अपने खंड-खंड करने | | भक्ति का अर्थ है, प्रेम। और प्रेम अनन्य ही हो सकता है। उसकी पड़ते हैं। आप उस आदमी की तरह हैं. जो चौराहे पर खड़ा है और धारा एक ही हो सकती है। प्रेम में बंटाव नहीं है. प्रेम में कटाव भी चारों रास्तों पर एक साथ जाना चाहता है! तो थोड़ा हिस्सा इस नहीं है। प्रेम खंड-खंड चित्त से हो भी नहीं सकता; अखंड चित्त रास्ते पर चला जाता है, थोड़ा हिस्सा उस रास्ते पर चला जाता है, हो, तो ही हो सकता है। अखंड प्रेम के द्वारा यह परम सत्ता पाने थोड़ा हिस्सा और रास्ते पर चला जाता है। आपके सब हिस्से | | योग्य है। अलग-अलम यात्राओं पर निकल जाते हैं। फिर शायद मुश्किल ही | ___पाने योग्य है दो अर्थों में। एक तो इस अर्थ में कि इतनी मेहनत हो जाता है उनको इकट्ठा करना और एक जगह लाना। उठानी पड़े-कितनी ही मेहनत उठानी पड़े स्वयं को एक करने की, परमात्मा को पाना हो, तो अनन्य भक्ति से ही वह प्राप्त करने | | तो भी वह कोई मूल्य नहीं है। वह चुका देने जैसा है। और मुफ्त है, योग्य है। अनन्य का अर्थ है, इंटीग्रेटेड; आपके भीतर आप इतने | | क्योंकि जो मिलता है, उसका कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता है। एक हो जाएं कि आप जिस तरफ आंख उठाएं, आपके पूरे प्राणों इसलिए अनन्य भक्ति से पाने योग्य है। एक। की आंख उस तरफ उठ जाए। ___ और दूसरा कि यही पाने योग्य है, और कुछ इस जीवन में, अभी ऐसा नहीं होता। अभी आदमी मंदिर में पूजा के लिए भी अस्तित्व में पाने योग्य नहीं है। यह परम धाम ही पाने योग्य है। और सिर नीचे रखता है, तो एक आंख परमात्मा की तरफ लगी रहती है। इस परम धाम को जब तक हम न पा लें, तब तक हम ऐसी चीजों कि प्रार्थना सुनी या नहीं! दूसरी आंख पीछे देखती रहती है कि लोग | को पाते चले जाएंगे, जिन्हें न पाया होता तो कुछ हर्ज न था, और पा कोई देख रहे हैं कि नहीं कि मैं कितनी प्रार्थना कर रहा हूं, कैसा लिया तो कुछ पाया नहीं। धार्मिक आदमी हूं! लेकिन आदमी खाली नहीं बैठ सकता। आदमी कुछ तो पाता ही मुल्ला नसरुद्दीन गिर पड़ा है। एक धूप से भरी हुई दोपहर है। रहेगा। कुछ तो करता ही रहेगा। यह मकान बनाएगा, और बड़ा सड़क पर गिर पड़ा है। बड़ी भीड़ लग गई। दोनों आंखें उसकी बंद | | मकान बनाएगा। यह दुकान खोलेगा, और बड़ी दुकान खोलेगा। हैं। बेहोश हालत है। कोई कहता है, इसको जूता संघा दो, इसे होश कुछ न कुछ करता ही रहेगा। और सब कुछ करके भी पाएगा कि आ जाएगा। कोई कहता है, सिर पर मालिश करो। कोई कहता है, कुछ पाया नहीं, तो फिर कुछ और करने में लग जाएगा। 121] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 हमारी जिंदगी का तर्क ऐसा है कि अगर एक मकान मैं बना लूं बैठे रहें। अगर आप अपनी जगह पर बैठे रहें, तो मैं संन्यासियों को और सुख न मिले, तो मैं सोचता हूं, इतने छोटे-से मकान से कहां | खड़े होकर कीर्तन करने की आज्ञा दूं। आप बैठे रहें, उनको खड़े सुख मिलेगा! थोड़ा बड़ा मकान बनाना चाहिए। वह उतना बड़ा | होकर कीर्तन कर लेने दें। आप वहीं अपनी जगह पर बैठे रहें। बना लूं, फिर भी मेरा तर्क कहेगा, इतने से नहीं मिला, साफ जाहिर होता है कि थोड़ा और बड़ा मकान चाहिए। इसी तरह मैं दौड़ता रहूंगा। कभी भी यह खयाल नहीं आता कि जब छोटे मकान में कम से कम थोड़ा तो सुख मिलना चाहिए था, तो बड़े में थोड़ा और ज्यादा मिल जाता! थोड़े में थोड़ा भी नहीं मिला, छोटे में छोटा सुख भी नहीं मिला, तो बड़े में भी नहीं मिल सकता है। मैं कहीं कुछ गलत काम में लगा हूं। मैं सिर्फ आकुपाइड हूं, मैं सिर्फ व्यस्त होने की कोशिश में लगा हूं। खालीपन घबड़ाता है, तो भरता रहता हूं-कभी धन से, कभी यश से, कभी पद से—कुछ न कुछ, कुछ न कुछ काम से अपने को भरता रहता हूं। लेकिन कितना भी भरूं अपने को, कितने ही कामों से, खाली ही रह जाऊंगा। सिवाय परमात्मा के और कोई चीज वस्तुतः किसी को भर नहीं सकती। उस भराव के साथ ही फुलफिलमेंट है, उस भराव के साथ ही भराव है। उसके पहले हर आदमी खाली है। इसलिए पश्चिम में इधर पचास वर्षों में और पश्चिम का प्रभाव तो सारे पूरब पर भी छा गया है—पचास वर्षों में जितने | जीवन-दर्शन पैदा हुए हैं, वे सभी जीवन-दर्शन एक बात पर खड़े हैं कि आदमी की जिंदगी में भराव नहीं है. खाली है. एंप्टी है. रिक्त है। इनकी रिक्तता का कारण है, क्योंकि पिछले पचास वर्षों में पश्चिम और पश्चिमी विचारधारा के प्रभावी लोगों ने परमात्मा को इस तरह इनकार किया है, जैसा इनकार इसके पहले मनुष्य के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ। जितना हम परमात्मा को इनकार करेंगे. उतना ही हम एंप्टी और खाली अपने को अनुभव करेंगे। और फिर उस खालीपन को न एटम से भर सकते हो, न हाइड्रोजन बम से भर सकते हो। उस खालीपन को, बड़ी से बड़ी युनिवर्सिटियां खड़ी करो, नहीं भर पाओगे। उस खालीपन को, बड़े महल खड़े करो, सौ डेढ़ सौ मंजिल ऊंचे, आकाश को छूने लगें, वह खालीपन बिलकुल नहीं छुआ जाएगा। वह खालीपन किसी और चीज से कभी भरता ही नहीं। वह सिर्फ एक से ही भरता है, जिससे वह पहले से ही भरा हुआ है। उसको ही जान लेने से भरापन उपलब्ध होता है। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट जाएंगे नहीं। पांच मिनट अपनी जगह पर ही | 122 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 नौवां प्रवचन जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन उत्तरायण पथ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । जिसे हम अपना शरीर कहें, वह हमारे लिए एक कब्र से ज्यादा प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।। २३ ।। | नहीं है, एक चलती-फिरती कब्र! और यह लंबा विस्तार जन्म से अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । | लेकर मृत्यु तक, बस आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाने का ही काम तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।। २४ ।। करता है। ऐसे हम गुजरते हैं रोज-रोज और मौत के करीब पहुंचते और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए | हैं। हमारी सारी यात्रा मरघट पर पूरी हो जाती है। योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली | लेकिन बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को | और उनकी मृत्यु के लिए हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। उनके कहूंगा। | जीवन के लिए भी हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। वे कुछ और उन दो प्रकार के मागों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति | ढंग से जीते हैं और वे कुछ और ढंग से मरते हैं। जीने का सब कुछ है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः | निर्भर है जीने के ढंग पर, और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने माह है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को प्राप्त होते हैं। मरने का ढंग भी आता है। कृष्ण अर्जुन से उस क्षण, उस मार्ग, मृत्यु की उस कला की बात इन सत्रों में करेंगे, जिस कला को जानने वाला. जिस मार्ग को + ई ऐसे भी जी सकता है जैसे मरा हुआ रहा हो, और पहचानने वाला, मरकर मरता नहीं, अमृत को उपलब्ध हो जाता है। कोई ऐसे भी मर सकता है कि उसकी मृत्यु को हम कृष्ण ने कहा है, और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए जीवंत कहें। जीवन भी मृतवत हो सकता है, और मृत्यु हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति भी अति जीवंत। को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा। जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाम-मात्र को ही कहा जा | इसमें दो-तीन बातें ठीक से समझ लेनी चाहिए। .. सकता है। न तो जीवन का हमें कोई पता है; न जीवन के रहस्य का जिस काल में, जिस क्षण में! द्वार खुलता है; न जीवन के आनंद की वर्षा होती है; न हम यही बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का, जिस क्षण में कोई जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं, किसलिए जी रहे हैं। हमारा | व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है। निश्चित ही, क्षण से अर्थ, बाहर होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। कहना उचित नहीं की घड़ी में घूमते हुए कांटे से जो नापा जाता है, उस क्षण से नहीं कि हम जीते हैं, यही कहना काफी है कि हम किसी भांति बने रहते है। लेकिन भीतर भी एक घड़ी है, और भीतर भी क्षणों का एक हैं, किसी भांति अस्तित्व को ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए भी मुर्दे | | हिसाब है। एक तो बाहर नापने की हमने यांत्रिक व्यवस्था की है की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई इतना | समय को। वह बाहर के कामों के लिए जरूरी है, भीतर के कामों जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते। । | के लिए नहीं। भीतर एक और भी माप है। और उस माप में, जिस बुद्ध की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते हैं और हमारे जीवन | | क्षण में व्यक्ति की मृत्यु होती है-भीतरी माप के जिस क्षण में, को हम जीवन नहीं कह पाते हैं। कृष्ण की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल | भीतरी घड़ी के जिस क्षण में बहुत कुछ निर्भर होता है। होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को निर्वाण क्योंकि इस जगत में आकस्मिक कछ भी नहीं है. मत्य भी कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश | | आकस्मिक नहीं है। मृत्यु भी बहुत सुव्यवस्थित है। और मृत्यु भी कहते हैं। बहुत कारणों से सुनिश्चित है। और हर आदमी हर कभी नहीं मरता; उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी क्रांति घटित होती है, जो हमारे हर आदमी अपनी मृत्यु चुनता है; दैट इज़ ए च्वाइस; जिसे हम जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती! किस मार्ग से वे मरते हैं | जिंदगीभर निर्मित करते हैं। और मृत्यु को देखकर कहा जा सकता है कि परम जीवन को पाते हैं! और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवित कि व्यक्ति कैसे जीया। भीतर, मृत्यु का क्षण निर्णायक है। रहते हुए भी हमें कोई जीवन की सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है। | | यदि भीतर की घड़ी, भीतर का समय विचार से भरा हो, वासना 12A Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन - उत्तरायण पथ से भरा हो, कामना से भरा हो, तो व्यक्ति मरकर वापस लौट आता है। लेकिन भीतर का समय यदि बिलकुल शुद्ध हो, सिर्फ समय हो, कोई विचार नहीं, कोई कामना नहीं, कोई तृष्णा का सूत्र नहीं, शुद्ध क्षण हो समय का, जैसे निश्छल पानी हो, जरा भी कुछ और अशुद्धि उसमें न हो, सिर्फ समय हो, तो उस क्षण में मरा हुआ व्यक्ति संसार में लौटकर नहीं आता । इस संबंध में कहना चाहूंगा, महावीर ने ध्यान के लिए जो नाम दिया है, वह है सामायिक। यह शब्द बहुत अदभुत है। यह समय से बना हुआ शब्द है। महावीर ने कहा है कि ध्यान मैं उसी को कहता हूं, जब तुम्हारे भीतर का समय बिलकुल शुद्ध हो। इसलिए उन्होंने ध्यान का उपयोग ही नहीं किया। ध्यान की जगह उन्होंने सामायिक शब्द का उपयोग किया है। शुद्ध समय में ठहर जाना ध्यान है। हमारा समय, भीतर जो हमारा समय है, वह सदा ही वासना से भरा है। थोड़ा भीतर का स्मरण करें, तो खयाल में आ जाएगा। आपने अपने भीतर वर्तमान के क्षण को कभी भी नहीं जाना होगा। भीतर या तो आप अतीत को जानते हैं, बीत गए को, जिसकी स्मृति आपका पीछा करती है छाया की भांति । जो हो चुका, उसकी जुगाली करते रहते हैं, जैसे जानवर जुगाली करते हैं। भैंस रख लेती है भोजन बहुत-सा अपने पेट में और फिर उसे निकालकर चबाती रहती है। जो बीत गया, उसकी जुगाली चलती है मन के भीतर । सोचते रहते हैं बार-बार उसको, जो हो चुका। चुका, उसे सोचना नासमझी है। उससे अपने वर्तमान क्षण को व्यर्थ ही आप नष्ट किए दे रहे हैं। जो जा चुका वह जा चुका, अब वह कहीं भी नहीं है, लेकिन आपकी स्मृति में है। और आपकी स्मृति जुगाली करती है और वर्तमान में जो क्षण है अभी, समय जो भीतर, उसे भर देती है। वह जो प्रेजेंट मोमेंट है, अभी इसी समय मौजूद क्षण है, उसे अतीत ढांक लेता है। और जब कोई वर्तमान का क्षण अतीत से ढंक जाता है, तो नष्ट हो जाता है। आप उससे अपरिचित ही गुजर जाते हैं। या तो यह होता है और या फिर यह होता है कि वर्तमान का क्षण भविष्य की वासना से आच्छादित होता है । सोचते हैं उसके संबंध में, जो अभी नहीं है, होगा। आने वाला कल, भविष्य | क्या करना है, क्या नहीं करना है। क्या पाना है, क्या नहीं पाना है। कौन-सी दौड़ लेनी है, कौन-सी मंजिल बनानी है। या तो अतीत डुबा देता है क्षण को, वर्तमान को, या भविष्य डुबा देता है। दोनों हालत में भीतर का समय खो जाता है। दोनों हालत में वह काल-क्षण खो जाता है, जो कि वस्तुतः था और वे चीजें आच्छादित हो जाती हैं। दोनों नहीं हैं; बीता हुआ कल भी नहीं है, आने वाला कल भी नहीं है। जो नहीं है, वह उसे घेर लेता है, जो है। यही मरे हुए जिंदा आदमी का लक्षण है। इसीलिए हम जीते हैं बुझे-बुझे, मरे मरे। क्योंकि जो नहीं है, वह हमारे ऊपर भारी है; और जो है, उसका कहीं पता भी नहीं चलता। क्या कभी आपने मन में ऐसा टाइम मोमेंट, ऐसा काल-क्षण | जाना है, जब अतीत भी न हो, भविष्य भी न हो, और आप अभी हों, यहीं, अभी और यहीं, जस्ट हियर एंड नाउ । उस क्षण में यदि मृत्यु हो जाए, तो लौटकर आना नहीं होता। लेकिन जो उस क्षण में जीया ही नहीं, वह मरेगा कैसे ? जिसने जीवन में कभी उस क्षण को जाना ही नहीं, वह मरते वक्त नहीं जान | लेगा अचानक । अचानक उसका अवतरण नहीं होता। जिसका जीवनभर भरा हुआ रहा है कचरे से, मरते क्षण में वह सारा कचरा इकट्ठा होकर उसके चित्त को घेर लेता है। 125 ध्यान रहे, जीते जी तो कुछ अतीत याद आता है, कुछ भविष्य । मरते क्षण पूरा अतीत और पूरे भविष्य की कल्पनाएं इकट्ठी खड़ी हो जाती हैं। जिन लोगों को कभी पानी में डूबने का खयाल हो, कि ऐसी घड़ी आ गई हो कि मरने के करीब पहुंच गए, तो शायद उन्हें पता हो । बहुत-से डूबने वाले लोगों ने, जो बच गए, वक्तव्य दिए हैं। और वे वक्तव्य ये हैं कि डूबते क्षण में पानी में, जब कि लगता है कि मौत आ गई, तो एक क्षण में सारा जीवन फिल्म की भांति आंख के सामने से गुजर जाता है। एक क्षण में जैसे पूरी की पूरी जीवन की फिल्म एकबारगी आंख के सामने गुजर जाती है। मरते वक्त सभी को ऐसा होता है । सारा अतीत आंख के सामने गिर जाता है; और सारे भविष्य के भय, वासनाएं, स्वप्न, वे भी सब इकट्ठे हो जाते हैं । मृत्यु का क्षण बड़ी भीड़ का क्षण है; टू मच क्राउडेड । इसलिए मृत्यु में आपको अपना तो पता ही नहीं चलता। भीड़ | इतनी ज्यादा होती है कि पता लगाना ही मुश्किल होता है कि मैं कौन हूं। जो मर रहा है, उसका तो पता ही नहीं चलता। लेकिन पीछे और आगे हम डोलते रहते हैं। सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन की शादी को तीस वर्ष हो गए हैं। और उसकी पत्नी ने एक दिन सुबह उठकर कहा कि मुल्ला याद Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 है, आज तीस वर्ष पूरे होते हैं, आज हमारी विवाह की वर्षगांठ है, नहीं है। समय तो केवल अतीत और भविष्य है। वर्तमान समय के कैसे मनाएं? क्या इरादा है तुम्हारा? क्या अच्छा न हो, जो मुर्गा बाहर है। जहां अतीत समाप्त होता है और जहां अभी भविष्य शुरू हम छः महीने से पाल रहे हैं, आज उसे काट लिया जाए? नसरुद्दीन नहीं होता, उस बीच की संधि-रेखा में वर्तमान है। वर्तमान समय ने कहा, तीस साल पहले घटी हुई दुर्घटना के लिए मुर्गे को दंड देना का हिस्सा नहीं है। कामचलाऊ है बातचीत कि वर्तमान समय का कहां तक उचित है! फिर मुर्गे का उसमें कोई हाथ भी नहीं है। हिस्सा है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। वर्तमान अस्तित्व है। लेकिन तीस वर्ष क्या, तीस जन्म पहले घटी हुई घटना और और जो समय का हिस्सा नहीं है, वह मन का भी हिस्सा नहीं दुर्घटना भी हमें घेरे रहती है। हम उसी के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। है। अगर ठीक से समझें, तो जिसे हम बाहर के जगत में समय और जितना हम पीछे घूमते रहते हैं, उतना ही हम आगे की कहते हैं, टाइम कहते हैं, वही भीतर के जगत में मन, माइंड है। इसे योजनाओं में डूबे रहते हैं। जितना होगा अनुपात अतीत का, उतना ऐसा समझ लें कि जिस घटना को हम बाहर के जगत में समय ही अनुपात सदा होता है भविष्य का। जितनी जड़ें आदमी की अतीत | | कहते हैं, उसी घटना का भीतरी नाम मन है। टाइम एंड माइंड आर स्मृति में होती हैं, उतनी ही शाखाएं उसी अनुपात में, ठीक उसी | | रियली सिनानिम्स, वे बिलकुल पर्याय हैं; उनमें कोई भेद नहीं है। अनुपात में भविष्य में फैल जाती हैं। और बीच का जो क्षण ___ इसलिए जिसे मन के बाहर जाना हो, वह समय के बाहर चला है-बहुत छोटा, बहुत छोटा, अति अल्प, आणविक—वह खो | जाए, तो मन के बाहर पहुंच जाता है। जिसे समय के बाहर जाना जाता है इस बीच। हो, वह मन के पार चला जाए, तो समय के बाहर पहुंच जाता है। जिस काल-क्षण की कृष्ण बात कर रहे हैं, उस काल-क्षण को | ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। बाहर समय की तरह पहचाना ठीक से समझ लें। उस समय न अतीत हो, न भविष्य; रह जाए जाता है जो, भीतर वही मन है। शुद्ध वर्तमान परिपूर्ण निश्छल, परिपूर्ण निर्दोष, इनोसेंट, | । वर्तमान न तो समय का हिस्सा है और न मन का। वर्तमान अनबर्डन, निर्बोझ, निर्भार—तो उस क्षण में जो मृत्यु होती है, | अस्तित्व है। उसका रूप मृत्यु का नहीं, परम जीवन के अनुभव का है। वह मोक्ष, | ___ इसे ऐसा समझें कि अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न कुछ मुक्ति बन जाती है। भविष्य, अस्तित्व सदा है। अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न मृत्यु हम तब तक कहते हैं अंत को, जब तक वापस लौटना | कुछ भविष्य, अस्तित्व तो सदा है। ऐसा समझें कि आदमी चला जारी रहता है। मृत्यु उस क्षण मुक्ति बन जाती है, मोक्ष, जिस क्षण | जाए जमीन से, तो क्या जमीन पर कोई पास्ट, कोई अतीत होगा? वापस लौटने का उपाय नहीं रह जाता। | आदमी न हो जमीन पर, अर्थात मन न हो जमीन पर, तो क्या कोई वापस लौटता है आदमी मन से। मन ही धागा है जिससे हम | | भविष्य होगा? वापस लौटते हैं। और मन है अतीत और भविष्य का जोड़। चांद तो फिर भी निकलेगा, लेकिन चांद कल भी निकला था, अतीत+भविष्य = मन। इसकी स्मृति चांद को नहीं है। फूल फिर भी खिलेंगे, लेकिन फूल वर्तमान का क्षण मन का हिस्सा नहीं है, नाट ए पार्ट आफ दि | | पहले भी खिले थे, इसका कोई हिसाब फूल नहीं रखते। पक्षी फिर माइंड, वर्तमान मन का हिस्सा नहीं है। इसलिए जो वर्तमान में भी गीत गाएंगे, लेकिन यह गीत कल भी गाया गया था, इसका प्रवेश कर जाता है, वह मन के बाहर हो जाता है। जो अतीत और पक्षियों के पास कोई लेखा-जोखा नहीं है। और चांद कल भी भविष्य में रहता है, वह मन में रहता है। | निकलेगा, इसकी कोई योजना चांद के पास नहीं है। और फूल कल अब एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जो कि आपको भी खिलेंगे, उस कल का, उस खिलने का, फूलों को कोई स्वप्न एकदम से समझ में शायद न भी पड़े, लेकिन थोड़ा समझेंगे, तो भी नहीं आता है। समझ में पड़ सकती है। मन हट जाए...ध्यान रहे, इसीलिए हमने आदमी को-शायद हम सदा कहते हैं कि समय के तीन हिस्से हैं, अतीत, वर्तमान, | | जमीन पर अकेला भारत है, जिसने ठीक-ठीक नाम दिया भविष्य; पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर। इसमें भूल है। प्रेजेंट जो है, प्रेजेंट है—मनुष्य। मनुष्य का मतलब है, जिसके पास मन है। और मन इज़ नाट ए पार्ट आफ टाइम एट आल। वर्तमान समय का हिस्सा का अर्थ है कि जिसके पास अतीत का लेखा-जोखा और भविष्य Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन – उत्तरायण पथ * की योजना और कल्पना है। मनुष्य न हो, मन न हो, तो सब कुछ होगा, समय नहीं होगा। देअर शैल बी टाइम नो लांगर; आदमी भर न हो, तो समय नहीं होगा। समय आदमी के मन के साथ पैदा हुई वस्तु है। आदमी के हटते ही समय खो जाता है। यदि भीतर आप किसी ऐसी स्थिति को खोज लें, जब न अतीत है, न भविष्य, तो वहां कोई विचार भी नहीं हो सकता। क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं, या भविष्य के । वहां कोई तृष्णा नहीं हो सकती, क्योंकि तृष्णा अतीत से जन्मती है और भविष्य की तरफ दौड़ती है। वहां कोई वासना नहीं हो सकती। वहां होंगे सिर्फ आप, सिर्फ आपका अस्तित्व, सिर्फ होना मात्र, जस्ट बीइंग। उस क्षण में जो मृत्यु घटित हो, तो लौटकर आना नहीं है। मृत्यु मुक्ति बन जाती है। और जिन लोगों ने मृत्यु को परम मित्र कहा है, तो आपकी मृत्यु नहीं कहा है। जिन्होंने कहा है कि मृत्यु परम सौभाग्य है, तो आपकी मृत्यु को उन्होंने परम सौभाग्य नहीं कहा है। उस भूल में मत पड़ना। उन्होंने इस मृत्यु की बात कही है। जो मृत्यु मित्र है, वह ऐसी मृत्यु है, जो मुक्ति बन जाती है। लेकिन काल-क्षण बहुमूल्य है। यदि भीतर ऐसा न हो, तो फिर आप नई यात्रा पर प्रारंभ कर देते हैं। अतीत को समेटे हुए, भविष्य का स्वप्न देखते हुए ही पुनर्जन्म होता है । अतीत को समेटे हुए, भविष्य की कामना करते हुए ही फिर नया गर्भ धारण हो जाता है। लौटकर आना हो, तो भरा हुआ मन चाहिए। लौटकर न आना हो, तो रिक्त, खाली, शून्य मन चाहिए। शून्य मन का अर्थ है, अ-मन | जिसको कबीर ने अ-मनी अवस्था कहा है और जापान के झेन फकीर जिसे स्टेट आफ नो-मांइड कहते हैं, उसी की चर्चा कृष्ण कर रहे हैं। लेकिन मृत्यु के समय–आकस्मिक, अचानक द्वार पर आ गई मृत्यु – उस क्षण आप कैसे सम्हाल पाएंगे अपने को, यदि जीवन में प्रतिपल न सम्हाला हो! तो जो ठीक से नहीं जीया, वह ठीक से मर नहीं सकेगा। गलत जीने का अंतिम परिणाम गलत मृत्यु होगी। और गलत मृत्यु का अर्थ होता है कि फिर गलत जीवन का प्रारंभ । आपने फिर बीज बो दिए । जीवन में ही सम्हालना पड़े। जीते-जी ही सम्हालना पड़े। और यह आप तभी सम्हाल सकते हैं, जब आपको खयाल हो कि जीवन किसी भी क्षण में मृत्यु घटित हो सकती है; अभी और यहीं घटित हो सकती है। इसलिए जो कहता है, कल सम्हाल लेंगे, वह कभी भी नहीं सम्हाल पाता है। जो कहता है, अभी और यहीं, वही सम्हाल पाता है। एक झेन फकीर हुआ लिंची। अपने गुरु के पास जब वह गया था, तो उसके गुरु ने कहा, किसलिए आया है? तो लिंची ने कहा कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं। उसके गुरु ने कहा, होना चाहता है या अभी होने को तैयार है? उसके गुरु ने कहा, संन्यास का भविष्य से कोई भी संबंध नहीं है; संसार का भविष्य से संबंध है। कोई आदमी कहे, एक दुकान चलाना चाहता हूं, तो भविष्य की जरूरत पड़ेगी। दुकान एक फैलाव है, समय में। कोई आदमी कहे, धन कमाना चाहता हूं, तो आज इसी क्षण नहीं कमा सकता है। धन के लिए आयोजना करनी पड़ेगी, पंचवर्षीय, पचास वर्षीय योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्लानिंग करनी पड़ेगी। फिर भी मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धन पर मेरा वश नहीं है। और बहुतों का वश भी है। और मैं अकेला ही धन कमाने नहीं चल पड़ा हूं। यह सारी पृथ्वी धन कमाने चल पड़ी है। भारी प्रतिस्पर्धा | है। सिर्फ धर्म को छोड़कर सभी चीजों में भारी प्रतिस्पर्धा है। धन | कमाना हो, यश कमाना हो, पदों की सीढ़ियां चढ़नी हों, तो भविष्य के बिना कोई उपाय नहीं। टाइम विल बी नीडेड । भविष्य चाहिए, नहीं तो कुछ भी न हो सकेगा। | लेकिन यदि संन्यास लेना हो, तो भविष्य की कोई भी जरूरत नहीं है। इसी क्षण घट सकता है, क्योंकि संन्यास निपट निजी है। उसका इस जगत में किसी से कोई संबंध नहीं है। और अगर धन मैं कमाना चाहूं, तो मेरे पास जितना धन बढ़ेगा, किसी के पास कम होगा । या किसी के पास ज्यादा हो सकता था, तो मैं छीनूंगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई वंचित होगा। लेकिन अगर मैं संन्यास लेता हूं, दुनिया में कहीं भी कोई वंचित नहीं होता । शायद मेरे संन्यास लेने से दुनिया में बहुत कुछ समृद्धि भला आ जाए, लेकिन कहीं | कोई वंचित नहीं होता है। क्योंकि संन्यास कोई कमोडिटी नहीं है, कोई वस्तु नहीं है कि कम हो जाएगी। फिर संन्यास कोई संसार का हिस्सा नहीं है कि मैं उसकी योजना करूं और कल और परसों, और वर्ष और दो वर्ष, और प्रतीक्षा करूं। संन्यास एक घटना है, जो उस काल-क्षण में घटती है, जो अभी और यहीं है। ठीक से समझें, तो संन्यास का अर्थ है, जो समय के बाहर घटित | होता है। संसार का अर्थ है, जो समय के भीतर घटित होता है। | संसार का अर्थ है, विदिन दि टाइम प्रोसेस । और संन्यास का अर्थ 127 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 है, जंपिंग आउट आफ दि टाइम प्रोसेस। होगा। मैं हो गया। आज्ञा दें संन्यासी को अब, अब उस आदमी को इसलिए जब कोई आदमी कहता है कि कल सोचकर मैं संन्यास | | भूल जाएं, जो आया था। लूंगा, तो मैं जानता हूं कि उसे पता ही नहीं कि संन्यास का अर्थ | कहते हैं कि उसके गुरु ने अपनी पगड़ी उसके सिर पर रख दी क्या है। सोचकर जो लिया जा सकता है, वह संसार होगा। क्योंकि | और कहा कि मैं उस आदमी की तलाश में था, जो उस काल-क्षण सोचेंगे क्या? सोचने का अर्थ है, अतीत के अनुभव से पूछंगा, | | में छलांग लगा ले, जिसका नाम वर्तमान है, क्योंकि मेरी मृत्यु स्मृति से पूछूगा। सोचने का क्या अर्थ है। भविष्य का हिसाब करीब है। अब मैं विदा लेता हूं। अब मेरा काम तू सम्हाल लेना। लगाऊंगा कि फायदा होगा कि नुकसान होगा। सोचने का अर्थ है, उस लिंची ने कहा कि लेकिन मैं अभी-अभी संन्यासी हुआ, अतीत और भविष्य से पूछंगा। और तो सोचने का कोई भी अर्थ | अभी मुझे कुछ भी पता नहीं है! उसके गुरु ने कहा, सब तुझे पता नहीं होता। लोग क्या कहेंगे, यह भविष्य है। और अतीत में मैं कैसा | हो जाएगा। जिसे वर्तमान के क्षण में खड़े होने की जरा-सी भी आदमी रहा हूं, उसके साथ तालमेल खाएगा संन्यास, नहीं खाएगा, | क्षमता है, उसे सब ज्ञान के, रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। अब तुझे यह अतीत है। मुर्यों से पूछ रहे हैं, अतीत से; भविष्य से पूछने का | कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है। अर्थ है, अनजन्मे से पूछ रहे हैं। __ और गुरु ऐसा बिना उपदेश दिए-ऐसी घटना बहुत कम घटती लेकिन संन्यास का सोचने से कोई संबंध नहीं। धर्म का ही है—बिना उपदेश दिए गुरु तिरोहित हो गया। और लिंची ने दूसरे सोचने से कोई संबंध नहीं है। इसी क्षण उस संधि-रेखा में, जहां | | दिन सुबह से गुरु के मंच पर बैठकर बोलना शुरू कर दिया। जितने अतीत नहीं और भविष्य नहीं, जो घटना घट जाती है, बिना विचारे | | ज्ञानी उसके गुरु के द्वारा पैदा हुए थे, उससे हजारों गुना ज्ञानी लिंची जो छलांग है, कूद जाना है अपने से बाहर, वह संन्यास है। के द्वारा पैदा हुए। लिंची के गुरु का नाम भी पता नहीं है, क्योंकि उसके गुरु ने कहा, तू लेना चाहता है, या तैयार है अभी? उस लिंची पूछ ही नहीं पाया और वह डिसएपियर हो गया। और जब भी युवक ने, लिंची ने आंखें बंद कर लीं, सोचने लगा। उसके गुरु ने | | कोई लिंची से पूछता था कि तुझे यह ज्ञान कैसे मिला? तो वह कहता उसे हिलाया और कहा, जरा-सा विचार, और तू चूक जाएगा। | था, गुरु ने तो मुझे कोई ज्ञान नहीं दिया, सिर्फ एक धक्का दिया था। जरा-सा सोचा, कि तू गया, खोया। युवक ने कहा, मुझे सोच तो | | लेकिन जिस दिन से मुझे यह राज मिल गया, अभी और यहीं होने लेने दें। थोड़ा-सा तो सोच लेने दें! इतनी भी जल्दी क्या है ? उसके का, उस दिन से कोई अज्ञान न रहा। अज्ञान के सब बादल छंट गए। गुरु ने कहा, काश, तुझे पता होता कि मौत किसी भी क्षण घटित जीवन में जो वर्तमान के क्षण को पकड़ने की कला आ जाए, तो हो सकती है, तो तू इस तरह की बात न कहता कि इतनी भी जल्दी | | कृष्ण जिस मृत्यु-क्षण की बात कर रहे हैं, जिस काल-क्षण की, क्या है! और तू सोचेगा क्या? तू ही सोचेगा न! अगर तू सोच | वह घटित हो सकता है। सकता होता, तो बहुत पहले कभी का संन्यासी हो चुका होता। जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है एक दिन कि जो | | वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान लोग हैं, वे शादी करके भी सुखी रह सकते हैं। मुल्ला | क्योंकि योगीजन भी दो प्रकार के हैं। इसमें कठिनाई होगी वाक्य नसरुद्दीन ने कहा, जो बुद्धिमान हैं, वे बिना शादी किए ही सुखी रह | को सुनकर। क्योंकि दोनों के लिए कृष्ण योगीजन का प्रयोग करते सकते हैं। | हैं। योगीजन दो प्रकार के हैं; योग भी दो प्रकार का है। उसके गुरु ने, लिंची के गुरु ने कहा कि तू सोच रहा है। अगर एक तो, जिसे हम परम योग कहें, दि सुप्रीम योग। वह परम तू सोच ही सकता, तो संन्यास कभी का फलित हो गया होता। | योग अभ्यास, क्रिया, साधना, इसमें भरोसा नहीं करता। उस परम सोचकर, अगर सच में तू सोच सकता, तो कोई संसार में रह | | योग का ही पुराना नाम सांख्य है। सांख्य, जैसी यह लिंची को सकता है? और अगर अब तक तू नहीं सोच पाया, तो उसी मन | | घटना घटी, इस तरह की घटना में भरोसा करता है, सडेन को लेकर तू आगे भी कैसे सोचेगा? तू सोच मत। एनलाइटेनमेंट। अगर कोई आदमी राजी है अभी और यहीं, वर्तमान लिंची ने अपने गुरु की तरफ देखा और कहा कि मैं संन्यासी हो | | के क्षण में खड़े होने को, तो बिना किसी योगाभ्यास के, बिना किसी गया। क्योंकि अब यह भी कहना कि हो जाऊंगा, फिर भविष्य ध्यान के वह घटना घट जाएगी, जिसमें परम से मिलन हो जाता है। 128 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ * क्योंकि उससे हम कभी छूटे नहीं हैं, इसलिए पाने के लिए कोई भी अगर होने की ही वासना है, तो परम योग आपका मार्ग नहीं है, रास्ता तय करने की जरूरत नहीं है। जिससे हम कभी अलग नहीं | सांख्य आपका मार्ग नहीं है। और होने की वासना सभी में है। मजा हुए, उस तक पहुंचने के लिए किसी भी विधि और विधान की | | तो यह है कि सांख्य में भी लोग इसीलिए उत्सुक होते हैं कि अच्छा, आवश्यकता नहीं है। जिसमें हम खड़े ही हैं, अभी और सदा से, | चलो! होना तो चाहते हैं, अगर आप कहते हो कि होने की वासना . क्या उसे पाने को भी कोई यात्रा करनी पड़ेगी? छोड़ोगे तभी हो पाओगे, तो हम होने की वासना भी छोड़ने को लेकिन यह बात समझ में आती नहीं। और समझ में भी आ तैयार हैं। लेकिन उस वासना के पीछे भी कुछ होने की कामना सदा जाए, तो कोई परिणाम नहीं होता। ही मौजद है। इसलिए बहत जाल है भीतर। इस जाल को तोडना ___ कृष्णमूर्ति इस सांख्य की ही चर्चा चालीस-पचास वर्षों से कर हो, तो दूसरी विधि है। रहे हैं। इन पचास वर्षों में एक सुनिश्चित वर्ग उन्हें निरंतर सुनता है, | उन दूसरे योगीजन को कृष्ण ने कहा है कि और पीछे आने वाली निरंतर पढ़ता है, फिर भी कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। गति को भी प्राप्त होते हैं, ऐसे योगी भी हैं। जो योगी योग की चालीस-चालीस वर्ष उन्हें सुनने वाले लोग मेरे पास आकर कहते साधना किसी भी वासना से कर रहे हों, चाहे वह वासना परमात्मा हैं, सब समझ में आता है, फिर कुछ होता क्यों नहीं? सब समझ | को पाने की वासना ही क्यों न हो, चाहे वह वासना सब वासनाओं में आ गया है, फिर कुछ होता क्यों नहीं? से मुक्त हो जाने की ही वासना क्यों न हो! लेकिन जहां भी किसी - असल में उनको इतना ही समझ में नहीं आया कि अगर कुछ तरह की डिजायरिंग, वहीं भविष्य आ गया। जहां किसी तरह की होने की आकांक्षा है, तो सांख्य आपका सूत्र नहीं बन सकता। अगर कामना, वहीं भविष्य निर्मित हो गया। और जहां भविष्य है, वहां यह भी आप पछ रहे हैं कि सब समझ में आ गया, कुछ होता क्यों अतीत से सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि भविष्य के अनजान लोक में नहीं है! यह होता क्यों नहीं है, यह तो भविष्य है। यह होता क्यों | आप प्रवेश कैसे करेंगे! अतीत का अनुभव ही आपका आधार नहीं है, यह तो वासना है। अगर समझ में आ गया, तो होना बंद | बनेगा, अतीत का ज्ञान ही आपका सहारा होगा। अतीत का ज्ञान करो अब। अब भविष्य को छोड़ दो। अब यह कामना भी छोड़ दो और भविष्य की कामना-वह क्षण चूक गया, जिस क्षण में मरता कि कुछ हो। मोक्ष हो, आनंद हो, परमात्मा हो, यह कामना भी | है कोई तो फिर वापस नहीं आता। सांख्य के मार्ग में बाधा है, परम योग के मार्ग में बाधा है। इसलिए अगर मरते क्षण में इतनी भी कामना मन में रही कि हे लेकिन कभी करोड़, दो करोड़ में कोई एकाध व्यक्ति कभी | | प्रभु, अब तो उठा लो, अब पुनर्जन्म न हो, तो पुनर्जन्म होगा, सदियों में घटित होता है, जो परम सांख्य को सीधा पा लेता है। क्योंकि यह भी वासना है। लेकिन उसका सीधा पाना भी हजारों जन्मों की लंबी भटकन का ही | आज एक बयासी वर्ष के बूढ़े मित्र ने संन्यास लिया है, लेकिन परिणाम होता है। परम सांख्य को भी सीधा पाया नहीं जा सकता। बड़ी संसारी भावना से। वे आकर बोले कि मैं बयासी साल का हो यदि कृष्णमूर्ति जैसा व्यक्ति भी पाता हो, तो वह भी अनंत-अनंत | गया, और कम से कम साठ साल से महात्माओं के दरवाजों पर जन्मों की प्रक्रिया का फल है। चक्कर काट रहा है, लेकिन अब तक कोई लाभ नहीं हुआ। लाभ! लेकिन जब कोई वैसा पा लेता है, तो वह दूसरों से कहता है कि | | मैंने उनसे पूछा, क्या लाभ चाहते थे? कहे, न मन को शांति मिली, कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस हो जाओ, अभी और यहीं। वह न आनंद मिला, न प्रभु का कोई दर्शन हुआ। और धन-संपत्ति की दूसरा सुन लेता है, शब्द समझ में भी आ जाते हैं। बार-बार सुनने भी सदा तकलीफ रही। शरीर से भी दुखी रहा। और अब तो थोड़े से और जल्दी समझ में आ जाते हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति जैसे लोगों दिन बचे हैं। कहने लगे कि अब आपकी शरण में आया हूं। और को वे ही लोग रोज पढ़ते रहते हैं, वे ही लोग हर वर्ष सुनते रहते | अब तो कुछ ऐसा कर दें कि बस, दुबारा आगमन न हो। और अगर ह; व हा शक्ल! क्योंकि बार-बार पुनरुक्ति से उनको यह वहम इतना भी न हो पाए, तो इतना ही कर दें कि कम से कम जब तक होने लगता है कि अब सब समझ में आने लगा। क्योंकि सब शब्द | | जिंदा हूं, किसी तरह का दुख न हो। समझ में आ जाते हैं। लेकिन फिर भी वे पूछते फिरते हैं कि कुछ मैंने पूछा, कितना समय मुझे दे सकते हैं? क्योंकि जब वासना हुआ नहीं। | हो, तो समय की पहले पूछ लेना चाहिए। कितना समय, मेरे लिए 129 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 कितना समय दे सकते हैं? उन्होंने कहा, ज्यादा समय तो मेरे पास है | लेकिन अगर आखिरी क्षण में धर्म की वासना, मोक्ष की वासना, नहीं। बयासी साल का हूं। सालभर में हो जाए, छः महीने में हो जाए! पुनर्जन्म न हो, ऐसी वासना भी बनी रही, तो चाहे कितना ही योग मैंने कहा, दो-चार दिन में हो जाए, तो क्या खयाल है? चित्त साधा हो, कितने ही आसन किए हों, कितना ही शीर्षासन लगाया उनका बड़ा प्रफुल्लित हो गया। कहने लगे, फिर तो कहना ही क्या! | हो, कितने ही घंटे सिद्धासन में बैठे हों, चाहे कुछ भी किया हो, और मैंने कहा, अगर अभी इसी क्षण हो जाए? तब उन्हें थोड़ा शक कितने ही लाख दफे राम-राम लिखा हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। हुआ। तब थोड़ा शक हुआ, क्योंकि इसी क्षण का भरोसा तो किसी फिर वापस लौट आएंगे। को भी नहीं है। नहीं, उन्होंने कहा, इतनी जल्दी क्या! दो-चार दिन - हां, इतना अंतर पड़ेगा कि शायद यह जो शुभ वासना है मोक्ष में भी हो जाए। की, प्रभु-मिलन की, वासना तो वासना ही है, शुभ है। कम से कम इस क्षण का भरोसा तो किसी को नहीं है। और मैं आपसे कहता | धन पाने की नहीं; मोक्ष में ही जाने की है, कम से कम वेश्यागृह में हं, हो सकता है तो इस क्षण में; नहीं तो, न चार दिन, न चार वर्ष, जाने की नहीं है; शुभ है, शुक्ल है वासना, तो शायद अगले जन्म न चार जन्म, कुछ भी काफी नहीं है। अगर यही क्षण काफी नहीं में यह भी संभावना बन जाए कि यह शुक्ल और शुभ वासना को है, तो फिर सारा समय का विस्तार भी नाकाफी है। भी छोड़ने की क्षमता आ जाए। अब ये मित्र हैं, ये अगर संन्यास भी लेना चाहते हैं, तो बड़ी लेकिन ऐसा योगी वापस लौट आएगा। जिसने योग साधा हो वासना से प्रेरित होकर। बड़ी गहन वासना है। पर मैं कहता हूं, कोई | | किसी वासना से, वह वापस लौट आएगा। क्योंकि वह उस हर्ज नहीं। वासना से ही सही, कूदो। शायद कूदने में ही खयाल आ काल-क्षण को उपलब्ध नहीं होता, जहां से वापसी नहीं है। जाए, कि कूदे जिस जगह, वह जगह अगर मंदिर भी थी, तो हम | उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, सारी गंदगी को साथ लेकर कूद पड़े। शायद उस मंदिर की पवित्रता | | दिन है तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग के कारण इस गंदगी को बाहर फेंक आने की मंशा हो जाए। या | में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। शायद छलांग में स्मरण आए कि छलांग भी ली, तो बड़ी अधूरी। | दो मार्ग, उत्तरायण और दक्षिणायण, दो मार्गों की चर्चा कृष्ण एक टांग बंधी हुई है पीछे; वासना के जगत से पूरी की पूरी बंधी है। | करेंगे। इस पहले सूत्र में पहले मार्ग की चर्चा है। यह चर्चा अति. इन मित्र को कोई पूछे, वृद्धजन को, कि पक्का किए देते हैं, | सूक्ष्म है और इसमें जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, उन प्रतीकों के अगले जन्म में धन की भी कोई तकलीफ न होगी और शरीर का कोई | कारण इस सूत्र को गीता के, करीब-करीब नहीं समझा जा सका है। कष्ट न आएगा, फिर क्या इरादा है? तो मेरी अपनी समझ यह है कि | इस सूत्र पर प्रवेश करने के पहले दो-तीन बातें खयाल में ले लें। ये कहेंगे, तो फिर एक दफा और कोशिश कर ली जाए; रहने दें! ___ एक तो जितने ही अंतर्जगत की गहन बात हो, उतने ही हमें अगर जन्म से भी आप बचना चाहते हैं, तो किसलिए बचना | | प्रतीक चुनने पड़ते हैं। बात सीधी नहीं कही जा सकती। बात सीधे चाहते हैं? इसीलिए कि दुख न हो। तो आप जन्म से नहीं बचना | | कहने का उपाय नहीं है, क्योंकि बात कुछ ऐसी है, और ऐसी चाहते हैं, सिर्फ दुख से बचना चाहते हैं। और अगर कोई भरोसा | | मिठास की तरह भीतरी है, और इतनी गहन अनुभव की है कि शब्द दिला दे कि हम बिना दुख का जन्म दे देते हैं, तो आप पहले होंगे | में रखते ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। सीधा कहने का उपाय नहीं कतार में। और भीड़ में बड़ी जल्दी मचाएंगे कि क्यू में मुझे आगे | है। जैसे आपके भीतर जब पहली बार आनंद घटित होगा और आने दो। आपसे कोई पूछे कि वह आनंद कैसा था, तो आपको कुछ न कुछ नहीं, मुक्त तो वही होता है, जिसे अगर कोई वायदा करता हो | | प्रतीक खोजने पड़ेंगे, जो बिलकुल अधूरे होंगे, छूते भी नहीं होंगे कि जीवन सुख ही सुख की शय्या होगी, फूल ही फूल होंगे जीवन | सत्य को। लेकिन फिर कोई उपाय नहीं है। में, फिर भी वह कहता है, होंगे, लेकिन सुख भी नहीं चाहिए। ध्यान में जो लोग गहरे उतरते हैं, यदि उन्हें संभोग का अनुभव असल में चाह ही नहीं चाहिए। ऐसे काल-क्षण में, जब कोई भी है, जो कि बहुत कम लोगों को है। और जब मैं कहता हूं, बहुत चाह नहीं है, जो शरीर से छूटता है, उसकी यात्रा परमधाम की तरफ कम लोगों को है, तो मेरा अर्थ यह है कि अधिक लोगों को केवल हो जाती है। | वीर्य-स्खलन का अनुभव है, संभोग का अनुभव नहीं है। लेकिन Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ * अगर किसी को कभी संभोग का कोई क्षणभर का भी अनुभव है, पश्चिम में जीवशास्त्री बायो-एनर्जी कहते हैं, जीव-ऊर्जा कहते हैं, तो ध्यान में जब वह पहली दफे जाता है...। तो निरंतर मुझे लोग उस जीव-ऊर्जा को भारत ने सदा सूर्य के प्रतीक में समझा है। आकर कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, आज ध्यान में भीतर गया, क्योंकि समस्त जीव-ऊर्जा सूर्य से ही प्राप्त होती है। अगर फूल तो ऐसा लगा जैसे भीतर कोई गहन-गहन संभोग घटित हो रहा खिलता है, पौधे बड़े होते हैं, आदमी के गर्भ का विकास होता है, है-आरगाज्म। आदमी बढ़ता है, तो सब सूर्य के कारण। हमारे भीतर जो अभी एक अंग्रेज युवती मेरे पास ध्यान में प्रयोग कर रही थी। जीव-ऊर्जा है, वह सूर्य से ही हमें उपलब्ध होती है। इसलिए बहुत उसे जिस दिन पहली दफा ध्यान की घटना घटी, उसने मुझे आकर उचित है कि उस भीतर की ऊर्जा के लिए भी सूर्य का ही प्रयोग कहा, मैं हैरान हूं, क्योंकि मैं जीवनभर से एक ही तलाश में थी कि किया जाए, ठीक वैसे ही जैसे तारे के झलकने को हम पानी के डबरे मुझे कोई तृप्तिदायी संभोग का क्षण मिल जाए...। में देखें और दोनों में संबंध जोड़ लें। उसने न मालूम कितने पति बदले हैं, और न मालूम कितने साथी | ___ आदमी की चेतना में जो भी घटनाएं घटती हैं, वे बहुत गहन रूप बदले हैं, और न मालूम कितने पुरुषों के साथ रही है, सिर्फ इस | | से सूर्य से संबंधित हैं। तो मनुष्य को भी हम दो हिस्सों में तोड़ लें; आशा में कि किसी दिन संभोग का ऐसा क्षण मिल जाए। इस | भूमध्य रेखा बना लें, मनुष्य के कामवासना के केंद्र से एक रेखा आदमी से नहीं मिलता, दूसरे से मिल जाए, तीसरे से मिल जाए। | खींच दें; तो नीचे का हिस्सा दक्षिणपथ होगा, ऊपर का हिस्सा ध्यान के पहले अनुभव में उसने मुझे आकर कहा कि मैं हैरान | उत्तरपथ होगा। हूं। जिसकी खोज मैं संभोग में कर रही थी, वह तो मुझे कभी नहीं ___ जब जीव-ऊर्जा दक्षिण की तरफ उतरती रहती है, यानी पैरों की मिला। लेकिन ध्यान में मुझे पहली दफे वह मिला है, जिसकी कोई तरफ उतरती रहती है, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह एक तरह धुंधली-सी आकांक्षा मेरे भीतर थी। मैं गहन संभोग में उतर गई। की मृत्यु है। और जब जीव-ऊर्जा काम-केंद्र से ऊपर की तरफ स्वभावतः, संभोग और ध्यान के उस अनुभव में कोई ऐसा | उठती है और सिर की तरफ प्रवाहित होती है, उत्तरपथ की तरफ, फासला है-इतना फासला—जैसे आकाश में कोई तारा निकले | उत्तरायण, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह और ही तरह की मृत्यु और उस तारे की छाया आपके घर में भरे हुए गंदे डबरे में बन जाए। | है। और इन दोनों की यात्राएं अलग हो जाती हैं। जब जीव-ऊर्जा उस तारे की छाया में और उस तारे में जितना फासला है, इतना ही | नीचे की तरफ उतरती है, जो कि हमारी समस्त वासनाओं में उतरती फासला है। लेकिन फिर भी छाया तो है ही, रिफ्लेक्शन तो है ही। | है...। इसलिए कामवासना हमारी सबसे केंद्रीय वासना है, क्योंकि तो जब भी कोई अंतर-अनुभव में उतरता है, तो उसे प्रतीक | | सर्वाधिक जीव-ऊर्जा को हमारी कामवासना का केंद्र ही नीचे की चुनने पड़ते हैं, जो प्रतीक बाहर के जगत से लिए गए हों। उन | तरफ, अधोगमन की तरफ भेजता है। प्रतीकों के कारण बड़ी कठिनाई होती है। जैसे समस्त योग-शास्त्रों एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जब तक आपका चित्त ने, योग-विधियों ने दो तरह के पथ, विशेषकर वैदिक युग ने दो | कामवासना से भरा रहता है, तब तक आपके पैर के तलवे सदा . तरह के पथ विभाजित किए हैं, जिनसे मनुष्य की चेतना यात्रा करती गरम रहेंगे। लेकिन जैसे ही आपकी काम ऊर्जा काम-केंद्र से नीचे है। तो पहले तो हम उन दो पथों का विभाजन समझ लें। की तरफ न बहकर, ऊपर की तरफ बहने लगेगी, ऊर्ध्वमुखी होगी, सूर्य जब भूमध्य रेखा के उत्तर में होता है बढ़ता हुआ, तो एक | वैसे ही आपके पैर ठंडे होने शुरू हो जाएंगे। और आपका सिर उत्तर का पथ है; और जब सूर्य भूमध्य रेखा से दक्षिण की तरफ नीचे | गरम होना शुरू हो जाएगा। बुद्ध जैसे योगी के पैर बिलकुल ही उतरता होता है, तो दूसरा दक्षिण का पथ है। शीतल, आइस कूल, बिलकुल शीतल, बर्फीले शीतल होते हैं। __ अगर हम आदमी को भी ठीक पृथ्वी की तरह दो हिस्सों में बांट बहुत पुराने दिनों से गुरु के चरणों में सिर रखने का बहुत लें, तो सेक्स सेंटर जो है आदमी का, जो कामवासना का केंद्र है, | | महत्वपूर्ण उपयोग था। वह डायग्नोसिस थी, जैसे कि चिकित्सक उसके नीचे का हिस्सा दक्षिण मान लें, और उस केंद्र के ऊपर का | नाड़ी पर किसी के हाथ रख ले। गुरु के चरणों में सिर रखकर शिष्य हिस्सा उत्तर मान लें, तो मनुष्य के भीतर एक अग्नि है-उसकी मैं | | पहचान लेता था कि अभी उत्तरायण यह व्यक्ति हुआ या नहीं! और बात करूंगा-वही मनुष्य की ऊर्जा है, बायो-एनर्जी, जिसको अब गुरु अपना हाथ उसके सिर पर रखकर पहचान लेता था कि 131 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 दक्षिणायण कहां तक हो! यह बहुत चुपचाप हो गया निदान था। मूल्य नहीं है। इसलिए जो बहुत कामातुर हैं, अगर वे शीर्षासन करें, इसके लिए बातचीत भी नहीं करनी पड़ती थी, यह चुपचाप हो जाता तो उन्हें थोड़ा लाभ होगा, क्योंकि उनकी थोड़ी-सी ऊर्जा सिर की था। और मन ही मन बात समझ ली जाती थी और हिसाब हो जाते तरफ बहनी शुरू हो जाती है। इसलिए कामवासना से पीड़ित थे कि क्या करना है, क्या नहीं करना है। व्यक्ति को शीर्षासन लाभ पहुंचा सकता है। लेकिन क्षणिक ही, और एक दफा शिष्य ठीक से पहचान लेता था गुरु के चरणों में क्योंकि कितनी देर सिर के बल खड़े रहिएगा! आखिर पैर के बल सिर रखकर, तो फिर वह पता नहीं लगाता फिरता था कि गुरु का खड़े होंगे, ऊर्जा फिर बहनी शुरू हो जाएगी। चरित्र कैसा है, कैसा नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं था। वह | पहला तो विभाजन यह समझ लें कि काम-केंद्र से नीचे की पैरों ने सब उसे कह दिया। और एक दफा गुरु पहचान लेता था सिर | | तरफ बहती ऊर्जा, दक्षिणपथ है आपके भीतर के सूर्य का। और पर हाथ रखकर, तो फिर वह नहीं पूछता था कि तुम क्या कर रहे अगर मरते क्षण में भी आपकी ऊर्जा पैरों की तरफ बह रही हो हो, क्या नहीं कर रहे हो; क्योंकि वह जानता था कि तुम क्या कर काम-केंद्र से, तो फिर आप पुनर्जन्म से मुक्त नहीं हो सकते। रहे हो, क्या हो रहा है भीतर। लेकिन अगर ऊर्जा आपकी ऊपर बह रही हो, ऊर्ध्वमुखी हो, तो साइकोएनालिसिस करते वक्त फ्रायड, जुंग और एडलर जो वर्षों आप मुक्त हो सकते हैं। में नहीं पहचान पाते, वह भारतीय गुरु सिर्फ सिर पर हाथ रखकर इसलिए उत्तरायण के छः माह, इसका प्रतीक अर्थ आप समझ पहचान लेता था। जैसे मरीज नाड़ी से पहचान लिए जाते, वैसे इस लेना। उत्तरायण के छः माह अर्थात आपके जीवन का जो आधा उत्तरायण और दक्षिणायण की व्यवस्था को भी बड़ी सरलता से हिस्सा है आपकी देह का, उसकी ओर इशारा है। इसका इशारा एक पहचाना जा सकता है, क्योंकि ऊर्जा फौरन खबर देती है कि कहीं और भी है कि आदमी अगर सत्तर साल जीता है या सौ साल जीता है। जहां भी ऊर्जा प्रवाहित होती है, वहां उष्ण हो जाता है; और जहां | है, अगर सौ साल जीता है, तो पचास साल समय में हम रेखा खींच से ऊर्जा हट जाती है, वहां शीतल हो जाता है। | लें। तो पचास साल तक माना जा सकता है कि उसकी ऊर्जा नीचे इसीलिए चिकित्सक तो कहेंगे कि यह आदमी बीमार है। अगर | की तरफ बहती रहे। लेकिन आने वाले पचास साल में भी अगर नीचे पैर ठंडा हो, तो चिकित्सक तो कहेगा कि यह आदमी बीमार है। | की तरफ बहे, तो वह आदमी आत्मघाती है, वह अपने जीवन को खतरा तो है ही! खतरा इसलिए है कि इसकी जीव-ऊर्जा अब शरीर | | व्यर्थ कर रहा है; उत्तरायण उसके जीवन का शुरू हो जाना चाहिए। के बाहर निकलने के करीब है, यह मर सकता है। इसलिए हमने जो आश्रम बांटे थे चार, पचास के साथ उत्तरायण बायोलाजिकली, जीवशास्त्र के हिसाब से पेरों का ठंडा होना शुरू होता था। पचासवें वर्ष में व्यक्ति को वानप्रस्थ हो जाना स्वास्थ्यप्रद नहीं है। वह स्वास्थ्य में खराबी का सूचक है। ठीक भी | चाहिए। पच्चीस साल घर में ही रहे, लेकिन ऊर्जा को अब ऊपर ले है, क्योंकि अगर शरीर को जिलाना है, तो शरीर तभी तक ठीक से | जाने में संलग्न हो। और जिस दिन पचहत्तर साल की उम्र में वह पाए जीता है, जब तक शरीर की वासना नीचे की तरफ बहती हो। जैसे | कि अब ऊर्जा ऊपर जाने में समर्थ हो गई, तब वह घर छोड़ दे और ही वासना ऊपर की तरफ बहने लगती है, वैसे ही शरीर का कोई | अब समग्र रूप से ऊर्ध्वगामी हो जाए, वह संन्यस्त हो जाए। प्रयोजन नहीं रह गया। __ अगर आज हम ऐसा समझें कि सत्तर साल उम्र है, तो पैंतीस लेकिन इससे आप यह मत समझ लेना कि अगर आपके पैर ठंडे | साल के बाद काम ऊर्जा, जीवन ऊर्जा को उत्तरायण पर जाना हों, तो आपकी ऊर्जा ऊपर बह रही है। पहले तो चिकित्सक से चाहिए। अगर पैंतीस साल में आपकी काम ऊर्जा का उत्तरायण पूछना। सौ में निन्यानबे मौके तो यह होंगे कि आप सिर्फ बीमार हैं। | शुरू नहीं होता, तो मरते वक्त तक आप उत्तरायण में पहुंच नहीं तो जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के पैर ठंडे हो जाते हैं, तो मैं यह नहीं पाएंगे, दक्षिणायण में ही मृत्यु होगी। कह रहा हूं कि जिनके ठंडे हो जाते हैं, वे ज्ञानी हैं। दि वाइस वरसा | | यह दूसरा विभाजन समझ लें। और इसके बाद एक-एक प्रतीक इज़ नाट राइट; विपरीत ठीक नहीं है। को समझ लें। उन प्रतीकों से भी बड़ी भूल हुई। और सिर्फ इस ऊर्जा को सिर की तरफ प्रवाहित करने के लिए | उन दो प्रकार के मार्गों में, जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, दिन शीर्षासन का इतना गहरा प्रयोग किया गया, और कोई प्रयोग का है. तथा शक्ल पक्ष है और उत्तरायण का अर्ध वर्ष है. उस मार्ग में 1132| Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन - उत्तरायण पथ * मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन और शुक्ल पक्ष चार शब्दों का प्रयोग किया है । न अग्नि से मतलब है, न ज्योति से, न दिन से, न शुक्ल पक्ष से, फिर भी मतलब है, क्योंकि वे प्रतीक आपको क्रमशः कुछ समझाने में सहयोगी होंगे। 1 अग्नि में ईंधन भी होगा, अग्नि भी होगी, लेकिन उत्ताप भी होगा । ज्योति में ईंधन नहीं - यह प्रतीक है — ईंधन नहीं, धुआं नहीं, उत्ताप भी कम हो जाएगा। अग्नि के आटिक होती है, उसकी लपटें कहीं भी दौड़ती रहती हैं। ज्योति में लपट थिर हो जाएगी और एक बन जाएगी। अग्नि अनेक लपटों वाली होगी, ज्योति एक लपट वाली होगी और एक यात्रा पर संलग्न हो जाएगी। दिन! दिन और भी उदार हो गया। अब लपट भी नहीं है, केवल प्रकाश है। अगर दिन को ठीक पहचानना हो, तो उस समय को दिन समझें, जब सुबह रात जा चुकी होती है और सूरज नहीं निकला होता है, तब जो आलोक फैला होता है चारों ओर, वही दिन है। फिर तो सूरज आ जाता सूरज के आने से गहन अग्नि का प्रभाव शुरू हो जाता है, उत्ताप शुरू हो जाता है। सुबह जब भोर के समय में जब रात जा चुकी और दिन, सूर्य वाला दिन अभी नहीं आया, तो बीच में जो एक संध्या का क्षण है, जब सिर्फ प्रकाश होता है, जिस प्रकाश में उत्ताप नहीं होता, वही दिवस है, वही दिन है। ज्योति में ताप तो होगा दिन में ताप भी खो जाता है। वह भी प्रकाश का ही एक रूप है, लेकिन क्रमशः प्रकाश जो है नान-वायलेंट होता चला जाता है, अहिंसक होता चला जाता है। लेकिन उसमें भी पूरी शीतलता नहीं होती, क्योंकि सूरज कहीं निकट ही छिपा होता है और जल्दी ही आने के करीब होता है। सच तो यह है कि वह होता ही इसलिए है कि सूरज आ चुका होता है क्षितिज के बिलकुल निकट; प्रकट नहीं हुआ होता, लेकिन उसकी मौजूदगी इतने निकट होती है, इसलिए प्रकाश फैल जाता है। तो कहीं थोड़ा-सा ताप तो उसमें छिपा ही होगा। वह ताप भी चला जाए, तो फिर शुक्ल पक्ष, जैसी कि चांद की रात होती है। सूरज बहुत दूर है, गर्मी का कोई सवाल नहीं। अब प्रकाश भी है और परम शीतल भी। जो व्यक्ति अपनी ऊर्जा को काम-केंद्र से ऊपर की तरफ यात्रा पर ले जाता है, तो पहला अनुभव उसे अग्नि का होता है। जो व्यक्ति अपनी सेक्स एनर्जी को बायो-एनर्जी को ऊपर की तरफ ले जाता है, पहला अनुभव अग्नि का होता है। वह अनुभव, जस्ट लाइक फायर, बहुत उत्ताप का होता है। काम-केंद्र बिलकुल जल उठता है, लपटें भर जाती हैं। लेकिन अगर वह साहस रखे और जल्दी न करे, और इन लपटों से मुक्त न होना चाहे, क्योंकि मुक्त होने का वह एक ही रास्ता जानता है कि इनको बहिर्गमन कर दे, इनको नीचे की यात्रा पर चला जाने दे। तो पश्चिम में जहां कामवासना के संबंध में कम से कम समझ है और ज्यादा से ज्यादा आकर्षण है, वहां वे समझते हैं कि कामवासना का उपयोग वैसा ही है, जैसे कि कोई आदमी छींक का उपयोग करता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। समथिंग लाइक ए रिलीफ। कुछ भीतर बेचैनी है, उसको फेंक देना है बाहर, छुटकारा हो । काम ऊर्जा का कोई विधायक अर्थ भी हो सकता है, काम ऊर्जा रूपांतरित हो सकती है, या काम ऊर्जा परम अनुभव की तरफ ले जा सकती है, इसकी पश्चिम में कोई दृष्टि नहीं है। पूरब में भी वह बात फैलती चली जाती है। लोग कामवासना को भी ऐसा ही समझते हैं कि जैसे शरीर से और मल फेंक देने हैं, वैसे ही कामवासना भी शरीर की शुद्धि का एक उपाय है। शरीर के हल्के | कर लेने का, तनाव को विसर्जित कर देने का; एक रिलीफ, छींक जैसे आ जाए, बस ऐसे। अगर जल्दी न की और काम-केंद्र पर जब शक्ति ज्यादा इकट्ठी होती है, तो अग्नि बढ़नी शुरू होती है, क्योंकि ऊर्जा जो काम-केंद्र पर इकट्ठी होती है, वह बहुत संक्षिप्त रूप में सूर्य से ही उपलब्ध हुई है। और एक छोटा-सा सूर्य सेक्स सेंटर पर निर्मित हो जाता है, एक बहुत छोटा बिंदु गहन अग्नि का। अगर जल्दी की, तो वह नीचे बिखर जाता है । अगर जल्दी न की, उसे सहने की हिम्मत रखी, | और राजी रहे कि जो कुछ भी हो, लेकिन यात्रा ऊपर की ही करनी है और इस ऊर्जा को ऊपर ही ले जाना है, और ऊपर, और ऊपर, तो बहुत शीघ्र वह जो सूर्य की तरह गोल बिंदु था, एक लपट बन जाता है। वह जो अग्नि थी, वह एक लपट बन जाती है, एक ज्योति, जैसे दीए की ज्योति ऊपर की तरफ भागती हो, वैसी ज्योति बन जाती है। इस ज्योति के बनते ही परम आनंद अनुभव होता है, क्योंकि ताप कम हो जाता है। दहकता अंगारा पिघल जाता है और ज्योति बन जाता है। लेकिन इस ज्योति में भी ताप तो है ही, इस ज्योति में भी हलन चलन तो है ही, मूवमेंट तो है ही, चंचलता तो है ही । और | कोई भी हवा का झोंका, वासना का तीव्र झोंका हो, तो इस ज्योति को भी नीचे ले जा सकता है। अगर और संयम रखा और धैर्य रखा, 133 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 तो यह ज्योति दिन की तरह हो जाती है। जैसे सुबह सूरज नहीं | | में भरा होता है, तो ऑन हीट, तप्त होता है। निकला, रात जा चुकी, तारे छिप गए और आकाश में भी सूरज का तो जब आप कामवासना से भरते हैं, तो पूरा शरीर तप्त हो जाता कोई पता नहीं, और दिग-दिगंत सिर्फ सुबह के प्रकाश से भर गए है। सारा शरीर ईंधन बन जाता है। पसीना आ जाता है, हृदय की हों, बहुत आलोक से। जरा भी उत्ताप नहीं। यह लपट बहुत शीघ्र | धड़कनें बढ़ जाती हैं। श्वास गरम हो जाती है, शरीर से बदबू ही जैसे और ऊपर उठती है. आलोक बन जाती है। निकलनी शुरू हो जाती है। सब भीतर आग पर जाता है। लेकिन अभी फिर भी इसमें लपट का थोड़ा-सा हिस्सा है। अभी भी, दिन से भी वापस गिरा जा सकता है, क्योंकि ताप ज्योति ही बिखरकर बनती है आलोक, तो ज्योति के कण इसमें अभी भी बिखर गया है, लेकिन मौजूद है; डिफ्यूज्ड है, लेकिन है; मौजूद होते हैं। इसमें थोड़ा उत्ताप अभी भी है। बहुत न्यून, लेकिन | अभी फिर से इकट्ठा होकर वापस लौट सकता है। अगर अभी भी अभी भी। हम इतना ही कह सकते हैं कि इसमें उत्ताप नहीं है, | | धैर्य रखा, शांति रखी और साधना ऊर्ध्वगमन की जारी रखी, तो निगेटिवली। अभी यह नहीं कह सकते कि यह शीतल हो गया है। अंतिम घटना घटती है। वह ऐसा हो जाता है भीतर प्रकाश, जैसा अभी रूपांतरण पूरा नहीं हुआ। रूपांतरण तो तब पूरा होता है, जब शुक्ल पक्ष में होता है। हम और धैर्य रखते हैं। लेकिन शुक्ल पक्ष क्यों कहा? पूर्णिमा ही कह देते। पूरे पक्ष को और ध्यान रहे, इस तीसरे क्षण में धैर्य की सर्वाधिक जरूरत कहने की क्या जरूरत पड़ी? पड़ती है साधक को। अग्नि को सह लेना उतना कठिन नहीं है। पड़ी, क्योंकि पहले दिन एकम के चांद जैसी ही घटना घटती है। इसलिए कठिन नहीं है कि पीड़ा तो बहुत होती है अग्नि में, लेकिन और जैसे चांद पंद्रह दिनों में पूरा होता है, ऐसे ही पंद्रह स्टेजेज में अग्नि से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें बड़ी उत्तेजना है। उत्तेजना के | | यह चौथी घटना पूरी होती है। और जिस दिन पूर्णिमा हो जाती है साथ हम जी सकते हैं ज्यादा। लपट के साथ, ज्योति के साथ भी | भीतर, पूरे चांद की रात जैसी शीतलता हो जाती है। उस क्षण में जी लेना बहुत कठिन नहीं है। उसमें भी चंचलता होगी। और | अगर मृत्यु हो जाए, तो बुद्धत्व प्राप्त होता है, तो ब्रह्म की उपलब्धि चंचलता में मन ज्यादा जी लेता है, क्योंकि बदलाहट बनी रहती है। | | होती है। लेकिन जब दिवस होता है, तीसरी घड़ी आती है और दिन के जैसा बुद्ध के संबंध में कथा है कि उनका जन्म भी पूर्णिमा के दिन प्रकाश रह जाता है, तो बहुत बोर्डम पैदा होती है। इसलिए इस | हुआ। उनको पहली महासमाधि, पहली संबोधि, पहला बुद्धत्व भी तीसरी अवस्था में अक्सर साधक एकदम उदास हो जाता है, पूर्णिमा के दिन मिला। और उनका महापरिनिर्वाण, उनकी मृत्यु भी उदासीन हो जाता है, सब तेजस्विता खो जाती है। पूर्णिमा के दिन हुई। जरूरी नहीं है कि हिस्टारिकली सही हो, अग्नि के क्षण में साधक बहुत तेजस्वी मालूम पड़ता है, अंगार | ऐतिहासिक रूप से जरूरी नहीं है कि सही हो। हो भी सकता है जैसा मालूम पड़ता है। ज्योति के समय वह तेजस्विता कम होती, | संयोग से, लेकिन इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। इसका मूल्य लेकिन फिर भी उत्तप्ता होती है, ज्योति होती है। लेकिन तीसरे क्षण | तो इस भीतर के शुक्ल पक्ष के लिए है। इस भीतर के शुक्ल पक्ष में ज्योति भी खो जाती है और एक गहन उदासी भी पकड़ ले सकती के लिए है। है। ऊब भी पकड़ती है, क्योंकि कुछ बदलाहट नहीं होती, कहीं | इस चौथी अवस्था के ठीक वैसे ही पंद्रह टुकड़े किए जा सकते कोई कंपन भी नहीं होता, सिर्फ खाली प्रकाश रह जाता है। इस | हैं, जैसे बढ़ते हुए चांद के होते हैं। और जब कोई व्यक्ति पूर्णिमा समय धैर्य की बहुत जरूरत है। की स्थिति में गुजरता है, पूर्णिमा की स्थिति में विदा होता है इस धैर्य की जरूरत सदा ही अंतिम क्षणों में ज्यादा होती है, क्योंकि | पृथ्वी से, तो उसके लौटने का कोई उपाय नहीं होता। और उत्तरायण मन उसी वक्त ज्यादा बेचैन करता है। अभी भी वापस लौटा जा | के छः माह, वे ही उत्तरायण के छः माह हैं। सकता है, क्योंकि ताप अभी भी मौजूद है, जो फिर से सेंक्स एनर्जी | | इसे एक तरफ से और खयाल में ले लें, क्योंकि ये प्रतीक जटिल बन सकता है। जब तक ताप है, जब तक हीट है...। | हैं, और बहुसूची हैं, और बहुअर्थी हैं। __इसलिए हम जानवरों को तो कहते हैं जब वे कामवासना से भरे मनुष्य के सात चक्र हैं। अगर हम काम-केंद्र को, सेक्स सेंटर होते हैं, तो हम कहते हैं, ऑन हीट। आदमी भी जब कामवासना को एक पहला चक्र मान लें, तो बाकी फिर छः चक्र और रह जाते 134 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन-उत्तरायण पथ * हैं। सेक्स सेंटर को, मैंने कहा, हम भूमध्य रेखा मान लें, तो उसको | जो दिखाई पड़ता था, वह छाया मात्र था। उसमें मेरा होना, न होना, चक्र गिनने की जरूरत नहीं। फिर छः चक्र रह जाते हैं, वे छः माह | बराबर था। मैं मर चुका हूं उसी दिन। जिस दिन मैंने जाना स्वयं हैं। ठीक वैसे ही छ: चक्र काम सेंटर के नीचे भी होते हैं. लेकिन | को, उसी दिन मर चुका हूं। महाकाश्यप ने पूछा, फिर आप इतने उनकी चर्चा ज्ञानियों ने नहीं की. क्योंकि उनका कोई प्रयोजन नहीं दिन जीए कैसे? अगर वासना नहीं रही. तष्णा नहीं रही. और आप है। तो अगर हम इन छः की संख्या को ध्यान में रखें, तो भी | कहते हैं, मैं मर चुका हूं, तो इतने दिन आप जीए कैसे? खाते थे, उत्तरायण के छः माह हमारे खयाल में आ जाएगा। पीते थे, चलते थे। हमने अपनी आंखों देखा है! बुद्ध ने कहा, यदि ऐसी घटना घटे-और ऐसी घटना घटती है-जब भीतर | | बाहर; लेकिन भीतर न मैंने खाया, न मैं चला। भीतर मैंने कुछ भी पूर्णिमा की स्थिति आ जाती है चार अग्नि की यात्राओं को पार | नहीं किया। महाकाश्यप पूछता है, लेकिन बाहर तो किया? बाहर करके, ठीक उसी समय छः माह को पार करके सहस्रार पर, छः | | भी क्यों किया अगर सब समाप्त हो गया है? तो बुद्ध कहते हैं, चक्रों को पार करके सहस्रार पर भी चेतना पहुंच जाती है। बाहर करने का कारण है। पिछले जन्मों में इस शरीर की जितनी उम्र सहस्रार पर हो चेतना और पूर्णिमा जैसा प्रकाश हो, तो ब्रह्म की | मैंने लगाई थी, उस उम्र के पूर्व ही भीतर की घटना घट गई, उतनी उपलब्धि होती है। उस क्षण में मर जाने से ज्यादा बड़ा सौभाग्य और | | उम्र पूरी होगी। यह शरीर तो अपनी विधि को पूरा करेगा।। कोई भी नहीं है। उस क्षण में जीना भी सौभाग्य है, उस क्षण में मरना । यह करीब-करीब वैसे ही है, जैसे एक आदमी साइकिल चला भी सौभाग्य है। उस क्षण में कुछ भी घटित हो, तो सौभाग्य है। यह रहा है और पैडल मारता चला जाता है। जब तक पैडल चलता है, भी जान लें कि वहां से वापसी नहीं है। ब्रह्म से नहीं, ब्रह्म से तो | | साइकिल चलती है। पैडल रोक देता है, तब भी साइकिल एकदम वापसी नहीं है; इस अवस्था से भी वापसी नहीं है। नहीं रुक जाती। दस, पचास, सौ, दो सौ कदम चलती चली जाती बुद्ध को ज्ञान तो हुआ मृत्यु के चालीस साल पहले, महावीर को | | है-मोमेंटम, त्वरा के कारण। इतनी देर तक पैरों से जो पैडल मारा भी कोई बयालीस साल पहले हुआ। है. तो हर पैडल साइकिल को चलाता ही नहीं. हर पैडल की कछ लेकिन जिस दिन ज्ञान हुआ, उसी दिन शुक्ल पक्ष पूरा हो गया, | | शक्ति बच जाती है, इकट्ठी हो जाती है; और जब आप पैडल रोकते उसी दिन उत्तरायण का सूर्य अपनी पूरी स्थिति पर पहुंच गया। उस | हैं, तो वह अर्जित, रिजर्वायर शक्ति, जो कुछ इकट्ठी हो गई है, वह दिन से नीचे लौटना बंद हो गया, लेकिन मृत्यु तो चालीस साल थोड़ी दूर तक चला देती है। बाद घटित हुईं। एक बहुत मजे की घटना इस संबंध में आपसे कहूं। इसलिए बौद्धों ने अच्छा शब्द चुना है। जिस दिन बुद्ध को बुद्धत्व बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो वे पैंतीस साल पार कर चुके थे। मिला, मरने के चालीस साल पहले, उसे वे कहते हैं, निर्वाण। उस जिन लोगों को पैंतीस साल के बाद, जीवन की मध्य रेखा के बाद दिन एक अर्थ में तो मृत्यु हो गई, क्योंकि अब कोई वापसी नहीं है। ज्ञान होता है, वे काफी देर तक जिंदा रह जाते हैं। क्यों? इसे ऐसा फिर जिस दिन वस्तुतः मृत्यु हुई, शरीर छूटा, उसे वे कहते हैं, समझें कि आप साइकिल पर पैडल मार रहे हैं। अगर आप चढ़ाव महापरिनिर्वाण। जहां तक भीतर का संबंध है, शरीर उसी दिन छूट पर पैडल मार रहे हैं, तो आपके पैडल रोकते ही साइकिल दो-चार गया, जहां तक बाहर का संबंध है, जगत के जानने का, वह चालीस | कदम चल जाए, तो बहुत है, क्योंकि चढ़ाव है। अगर उतार पर साल बाद छूटा। लेकिन इन चालीस सालों में भीतर समय ने एक | पैडल मार रहे हैं, तो आपके पैडल रोक लेने पर भी साइकिल काफी क्षण भी गति नहीं की। इन चालीस सालों में बाहर की घड़ी समय | चल सकती है। बताती रही। दिन आए, रातें आईं। समय बीता, वर्ष बीते, माह बीते। । इसलिए अक्सर ऐसा हुआ कि जिन लोगों को पैंतीस साल के चालीस वर्ष बीते। लेकिन भीतर की घड़ी उस दिन के बाद फिर नहीं | | बाद ज्ञान हुआ, वे तीस-चालीस साल और जी सके-बुद्ध या चली। भीतर फिर एक क्षण भी नहीं बीता। महावीर। लेकिन जिन लोगों को पैंतीस साल के पहले ज्ञान हो गया, बुद्ध से मरने के दिन ही कोई पूछता है—महाकाश्यप पूछता है | | वे ज्यादा नहीं जी सके-शंकर या क्राइस्ट या और इस तरह के बुद्ध से-कि आज आप खो जाएंगे मृत्यु में, हम सब का क्या | | लोग। जिनको भी पहले ज्ञान हो जाएगा, तो फिर साइकिल चलानी होगा? बुद्ध ने कहा, मुझे खोए काफी समय हो चुका है। मैं तुम्हें बड़ी मुश्किल बात है। चढ़ाव पर अति कठिन है। और अगर [135] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 चलानी हो, तो बहुत उपाय करने पड़ेंगे। रामकृष्ण को भी ज्ञान पैंतीस के पहले ही हो गया और बड़ी मुश्किल थी उनको । जितने दिन वे जिंदा रहे, वह बहुत मुश्किल काम था। और शायद बहुत कम लोगों ने उस तरह की चेष्टा की है । रामकृष्ण कुछ चीजों में अपना लगाव बनाए रखते थे । लगाव - जानकर, कोशिश करके । भोजन में उनका बहुत लगाव था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि उस हैसियत का व्यक्ति, और दो-चार बार चौके में न पहुंच जाता हो और पूछता हो कि क्या बना है! शारदा, उनकी पत्नी उन्हें कहती थी कि परमहंसदेव, तुम्हारा चौके में बीच-बीच में उठकर आकर पूछना बड़ा अशोभन मालूम पड़ता है। लोग क्या सोचते होंगे! सत्संग चलता है, ब्रह्मचर्चा चलती है; अचानक रोककर कि मैं अभी आया, आप चौके में चले आते हैं! जो बैठे हैं, वे क्या नहीं सोचते होंगे ? रामकृष्ण हंसते थे और टाल देते थे, क्योंकि कुछ बातें हैं, जिनके जवाब नहीं दिए जा सकते हैं। नहीं दिए जा सकते हैं इसलिए नहीं कि नहीं दिए जा सकते। नहीं दिए जा सकते इसलिए कि जिसको दिए जाने हैं, वह उनको बिलकुल ही न समझ पाएगा। लेकिन शारदा पीछे ही पड़ी रही। एक दिन रामकृष्ण ने कहा कि तू नहीं मानती है, तो मैं तुझे कहता हूं। मेरी नाव ने किनारे से सब तरह की रस्सियां खोल ली हैं अपनी, लेकिन एक खूंटी से मैं अपने को बांधे रखना चाहता हूं, उन लोगों के लिए जिनकी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। मैं उनसे कह दूं, जो मैं कहना चाहता हूं; और फिर मैं अपनी नाव को खोल दूं पूरा, ताकि मैं अपनी यात्रा, मैं अपनी महायात्रा पर निकल जाऊं। तो मैं इस भोजन में इतना लगाव रखता हूं, सिर्फ इसलिए कि एक खूंटी गड़ी रहे शरीर के साथ, अन्यथा यह इसी वक्त गिर सकता है। तो शारदा से रामकृष्ण ने कहा कि अब मैं तुझे बता देता हूं-तू नहीं मानती, इसलिए तुझे बता देता हूं - जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं, समझ लेना कि मेरी मृत्यु निकट है और उसके तीन दिन बाद मैं मर जाऊंगा ; ठीक तीन दिन बाद। शारदा ने उस दिन तो गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन एक दिन वह घड़ी आ गई। रामकृष्ण बिस्तर पर लेटे थे और उस दिन उठकर चौके में नहीं आए थे। शारदा थोड़ी बेचैन भी हुई; क्योंकि कितना ही समझाओ, वे नहीं मानते थे। बीमार भी हों, तो उठकर आते थे। आज नहीं आए पता लगाने कि क्या बना है। शारदा थाली लेकर कमरे में आई, तो रामकृष्ण ने थाली देखकर करवट बदल ली। शारदा के हाथ से थाली छूट पड़ी। उसे याद आया कि उन्होंने कहा था कि जिस दिन मैं भोजन में अरुचि दिखाऊं, उस दिन समझना कि बस, अब आखिरी दिन करीब है; तीन दिन और बाकी रहे । ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हुई। | तो अगर चढ़ाव पर हो, तो बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन बुद्ध और महावीर दोनों उतार पर थे, इसलिए चालीस- बयालीस साल दोनों जीए, अनुभव के बाद। लेकिन वह पुराना मोमेंटम है, जन्मों-जन्मों के कदमों की ताकत है। और जब भी किसी व्यक्ति | को पैंतीस साल के पहले अनुभव हो जाता है, तो बड़ी अड़चन हो | जाती है। और जिनके लिए वह रुकता है, वे ही हजार अड़चनें खड़ी करते हैं कि आपने ऐसा क्यों किया, आप ऐसा क्यों करते हैं! वह कहीं किनारे पर अपनी खूंटियां गाड़कर रखना चाहता है, शायद किसी प्रतीक्षा में। इस क्षण में दक्षिणायण उत्तरायण; और अग्नि बन गई हो पूर्णिमा का प्रकाश, जब इन दोनों का मिलन होता है, उसी क्षण. पीछे लौटना असंभव है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है। वह जगह आ गई जहां से वापस नहीं हुआ जा सकता, जिसके आगे नहीं जाया जा सकता | और आगे ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। 136 1 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 दसवां प्रवचन दक्षिणायण के जटिल भटकाव Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । | संभावनाएं हैं। एक संभावना है कि पुरुष के शरीर की काम ऊर्जा तत्र चान्द्रमसं ज्योतियोंगी प्राप्य निवर्तते । । २५।। स्त्री के शरीर की ओर, बाहर की तरफ बहे। या स्त्री की काम ऊर्जा शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। पुरुष शरीर की ओर, बाहर की ओर बहे। यह बहिर्गमन है। एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः । । २६ ।। फिर दो स्थितियां और हैं। काम ऊर्जा काम-केंद्र पर इकट्ठी हो तथा जिस मार्ग में धूम है और रात्रि है, तथा कृष्णपक्ष है और ऊर्ध्वगामी हो, ऊपर की तरफ बहे, सहस्रार तक पहुंच जाए। और दक्षिणायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गया | उस संबंध में हमने कल बात की। एक और संभावना है कि काम हुआ योगी, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने ऊर्जा ऊपर की ओर भी न बहे. बाहर की ओर भी न बहे. तो स्वयं शुभ कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है। के शरीर में ही नीचे के केंद्रों की ओर बहे। इस स्वयं के ही शरीर क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात में काम-केंद्र से नीचे की ओर ऊर्जा का जो बहना है, वही देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक दक्षिणायण है। अर्चिमार्ग के द्वारा गया हुआ पीछे न आने वाली परम गति निश्चित ही, ऐसा पुरुष स्त्री से मुक्त मालूम पड़ेगा। ठीक वैसा को प्राप्त होता है। और दूसरा धूममार्ग द्वारा गया हुआ पीछे | ही मुक्त मालूम पड़ेगा जैसा ऊर्ध्वगमन की ओर बहती हुई चेतना __आता है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। मालूम पड़ेगी। लेकिन दोनों में एक बुनियादी फर्क होगा। और वह फर्क यह होगा कि बाहर का गमन तो दोनों का बंद होगा, लेकिन जिसने दमन किया है अपने भीतर, उसकी ऊर्जा नीचे की ओर ना व्यक्ति प्रभु की साधना में लीन उत्तरायण के मार्ग से बहेगी और जिसने अपने भीतर ऊर्ध्वगमन की यात्रा पर प्रयोग किए II मृत्यु को उपलब्ध होता है, उसकी पुनःवापसी नहीं | । हैं, उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर बहेगी। होती है। इस संबंध में कल हमने बात की। काम-केंद्र से नीचे भी ठीक वैसे ही छः सेंटर हैं, जैसे छः सेंटर लेकिन दक्षिणायण के मार्ग पर जी रहा व्यक्ति भी साधना में | | काम-केंद्र के ऊपर हैं। इन छः पर अगर ऊर्जा बहे, तो भी कुछ संलग्न हो सकता है, साधना की कुछ अनुभूतियां और गहराइयां | अनुभूतियां उपलब्ध हो सकती हैं। हठयोग की अधिक क्रियाएं. भी उपलब्ध कर सकता है, लेकिन वैसे व्यक्ति की मृत्यु ज्यादा से | | काम ऊर्जा को बाहर से रोक लेती हैं, लेकिन ऊपर की तरफ ज्यादा स्वर्ग तक ले जाने वाली होती है, मोक्ष तक नहीं। और स्वर्ग प्रवाहित नहीं कर पातीं। शरीर में ही अंतप्रवाह शुरू हो जाता है नीचे में उसके कर्मफल के क्षय हो जाने पर वह पुनः वापस पृथ्वी पर लौट की ओर, पैरों की तरफ। आता है। इस संबंध में पहले कुछ प्राथमिक बातें समझ लेनी । ऐसा साधक भी अनेक उपलब्धियों को पा सकता है। लेकिन चाहिए, फिर हम दक्षिणायण की स्थिति को समझें। ऐसे साधक की जो उपलब्धियां हैं, पश्चिम में जिसे ब्लैक मैजिक एक, जिस व्यक्ति की काम ऊर्जा बहिर्मुखी है, बाहर की तरफ | कहते हैं और पूरब में जिसे मैली विद्या कहते हैं, उस तरह की होंगी। बह रही है, और जिस व्यक्ति की कामवासना नीचे की ओर | फिर भी इस साधक की एक क्षमता तो तय ही है कि इसने काम प्रवाहित है, वैसा व्यक्ति, कामवासना नीचे की ओर बहती रहे, तो | ऊर्जा को बाहर जाने से अवरुद्ध किया है। तो जीवन के प्रवाह में भी अनेक प्रकार की साधनाओं में संलग्न हो सकता है, योगी भी | बायोलाजिकल जो श्रृंखला है, जीवन के उस प्रवाह से तो यह बन सकता है। | आदमी बाहर हो गया। और यह जो बाहर हो जाना है, यही इसका और अधिकतर जो योग-प्रक्रियाएं दमन, सप्रेशन पर खड़ी हैं, वे | पुण्य है। इस पुण्य के बल पर यह व्यक्ति गहनतम सुखों को पा काम ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी नहीं करती हैं, केवल काम ऊर्जा के | | सकेगा; आनंद को नहीं। अधोगमन को अवरुद्ध कर देती हैं, रोक देती हैं। तो ऊर्जा काम-केंद्र | | गहनतम सुखों को पाने की अवस्था का नाम ही स्वर्ग है। यह पर ही इकट्ठी हो जाती है, उसका बहिर्गमन बंद हो जाता है। | ऐसे सुख पा सकेगा, जो बाहर ऊर्जा बहती हो, वैसे व्यक्ति ने कभी इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। | भी नहीं जाने होंगे। लेकिन यह वैसा आनंद कभी न पा सकेगा, काम-केंद्र पर, सेक्स सेंटर पर ऊर्जा इकट्ठी हो, तो तीन जैसा आनंद ऊपर की ओर बहती हुई ऊर्जा के मार्ग में उपलब्ध होता 238 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दक्षिणायण के जटिल भटकाव * है। लेकिन बाहर बहने वाली ऊर्जा से तो बहुत गहन आनंद इसे दुख ही नहीं उबाता, सुख की भी अपनी बोर्डम है, अपनी ऊब उपलब्ध होंगे। है। और वही सुख, वही सुख रोज मिले, तो उससे भी हम इतने ही ___ तंत्र ने भी इस आंतरिक प्रवाह में बहुत-से प्रयोग किए हैं। और | ऊब जाते हैं जैसे दुख से ऊब जाते हैं। बल्कि सचाई तो यह है कि जो लोग सुखाकांक्षी हैं, जिन्हें आनंद का न कोई स्मरण है, न कोई हम दुख से इतने जल्दी कभी नहीं ऊबते, जितने जल्दी हम सुख से खयाल; और जिन्हें मुक्त होने की भी कोई भावना नहीं है, क्योंकि ऊब जाते हैं। दुख से हम इसलिए नहीं ऊबते कि दुख से हम छूटने स्वतंत्रता की कामना, परम स्वतंत्रता की कामना अति कठिन बात | की खुद ही चेष्टा में रत रहते हैं। सुख से हम इसलिए ऊब जाते हैं है। यदि हम चाहते भी हैं ज्यादा से ज्यादा, तो यही चाहते हैं कि कि सुख से हम छूटना भी नहीं चाहते और सुख भी रोज-रोज दुख मिट जाएं और सुख उपलब्ध हों। धर्म की खोज में जाने वाले दोहरकर बेरस, बेस्वाद और नीरस हो जाता है। लोग भी सौ में निन्यानबे मौकों पर दुख से बचने के लिए सुख की| इसलिए एक बहुत अदभुत घटना मनुष्य के इतिहास में दिखाई खोज में जाते हैं। | पड़ती है कि दुखी समाज इतने ऊबे हुए नहीं होते, क्योंकि उनको __इसलिए बढ़ेंड रसेल जैसे लोग कहते हैं कि जिस दिन विज्ञान एक आशा होती है कि आज नहीं कल दुख मिटेगा और सुख जमीन पर सुख की सारी व्यवस्था जुटा देगा, उस दिन धर्म का | | मिलेगा। उस आशा के भरोसे वे जी लेते हैं। इसलिए दुखी समाज विनाश हो जाएगा। बहुत संतापग्रस्त नहीं होते। दुखी समाज, दीन-दरिद्र, भिखारी उनकी बात निन्यानबे मौकों पर सही है। वह रसेल का वक्तव्य समाज बहुत चिंतित, बहुत परेशान नहीं होते। दुखी समाज में निन्यानबे मौकों पर सही है। यह बात सच है, अगर विज्ञान उन सारे आत्महत्याएं कम होती हैं, लोग कम पागल होते हैं। दुखी समाज सुखों को आपको दे दे, उन सारे दुखों को मिटा दे जो आपको | में मानसिक बीमारी कम होती है। उसका कारण कि एक आशा, पीड़ित करते हैं, तो मंदिर और मस्जिद और चर्च में इकट्ठे होने वाले | एक भविष्य तो आगे होता ही है। आज दुख है, कल सुख हो सौ लोगों में से निन्यानबे लोग तो तत्काल विदा हो जाएंगे। क्योंकि | सकेगा। लेकिन सुखी समाज में यह आशा भी नष्ट हो जाती है। जिन सुखों के लिए वे मंदिर में आए थे और प्रभु की प्रार्थना के लिए | आज अमेरिका की पीड़ा यही है कि जिन-जिन सुखों को आए थे, वे सुख अब विज्ञान ही उन्हें दे सकता है। आदमियों ने सदा चाहा है, आज दुर्भाग्य से वे उसे पाने में सफल लेकिन एक आदमी फिर भी मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों में | | हो गए हैं और अब आगे कोई भविष्य दिखाई नहीं पड़ता है। सब बच जाएगा। या हो सकता है, एक आदमी गिरजाघरों और मंदिरों सुख मिल गए हैं—अब? अब भविष्य बिलकुल अंधकारपूर्ण है, को न बचा सके, तो जहां भी होगा, वहीं मंदिर में होगा, वहीं आशा का दीया बिलकुल बुझ गया। और जब आशा का दीया बुझ मस्जिद में होगा। वह एक आदमी सुख की तलाश में नहीं है, वह जाए, तो सुख इतना दुख देता है, जितना कोई दुख कभी नहीं दे आनंद की तलाश में है। थोड़ा-सा फर्क खयाल में ले लें, तो आगे सकता है। की बात समझ में आ जाएगी और प्रतीक भी समझ में आ सकेंगे। इसलिए आज अमेरिका की नई पीढ़ी के लड़के और लड़कियां दुख से जो मुक्त होना चाहता है, वह सुख चाहता है। लेकिन दुखों की तलाश में घूम रहे हैं। वे जो कार पर बैठ सकते हैं, पैदल दख और सख दोनों से जो मक्त होना चाहता है, वह आनंद चाहता चलना चाहते हैं। वे जो हवाई जहाज में उड़ सकते हैं, वे दीन-दरिद्र है। आनंद का अर्थ है, मैं सुख-दुख दोनों से मुक्त होना चाहता हूं। | वेष में, गंदे, गांव-गांव, सड़कों-सड़कों पर, सारी दुनिया के ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो सुख-दुख दोनों से मुक्त होना | कोने-कोने में छा गए हैं। आज दुख को वरण करना जैसे स्वाद को चाहे। यद्यपि जिस आदमी ने भी जीवन का अनुभव लिया है, वह | बदलना हो गया है। और एक चेंज, एक बदलाहट फिर सुखद जानता है कि सुख भी दुख का ही एक रूप है। और सुख भी थोड़ी | मालूम पड़ती है। ही देर में दुखदायी हो जाते हैं। और वह यह भी जानता है कि सुख | । सुख भी उबा देता है। का भी एक तनाव है, सुख की भी एक विक्षिप्तता है और सुख की जीवन का अनुभव कहता है कि सुख और दुख जब दोनों से ही भी एक उत्तेजना है और सुख भी उसी तरह थका डालता है जैसे दुख छुटकारे की कामना पैदा होती है, तो मनुष्य उत्तरायण की तरफ थका डालता है। चलता है। उत्तरायण की तरफ चलने का अर्थ है कि मनुष्य अब 139 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 मुक्ति चाहता है, कोई अनुभव नहीं, क्योंकि सभी अनुभव बंधन | | उसके घर की। लेकिन अब मैं उसके घर के रास्ते से बचकर ही उसे हैं। सभी अनुभव बंधन हैं, चाहे वे दुख के हों और चाहे सुख के, | | खोजता हूं कि कहीं वह मिल न जाए। कहीं वह मिल न जाए! और चाहे अशांति के और चाहे शांति के। सभी अनुभव बंधन हैं, | __ हम जो चाहते हैं जब वह मिल जाता है, तब जितना दुख उपलब्ध चाहे संसार का और चाहे परमात्मा का। सभी अनुभव बंधन हैं, होता है, उतना चाहते क्षण में कभी भी नहीं हआ था। असल में क्योंकि प्रत्येक अनुभव से अंततः छूटने का मन हो जाएगा। | चाहत कभी दुख नहीं देती, उपलब्धि दुख देती है। जिसे हमने अगर आपको ईश्वर भी मिल जाए और आप उसके आलिंगन चाहा, अभागे हैं हम, अगर उसे पा लें। भाग्यवान हैं, अगर पाने में हों, तो कितनी देर लगेगी जब आपका मन करने लगेगा कि अब से बच जाएं। क्योंकि जिसे हम नहीं पा पाते, उसकी आकांक्षा का छुटकारा कब हो? अब हम हटें कैसे? रस जारी ही रहता है—इंतजार में, प्रतीक्षा में, सपने में, आशा में। रवींद्रनाथ ने एक छोटा-सा गीत लिखा है। लिखा है कि खोजता | फूल मुरझाते नहीं, पौधा सूखता नहीं; वासना हरी ही बनी रहती है। हूं प्रभु को जन्मों-जन्मों से। कभी उसकी झलक दिखती है। कभी | उसमें नए-नए पत्ते निकलते ही चले जाते हैं। लेकिन मिल जाए दूर किसी तारे के पास उसकी आकृति दिखती है। कभी उसकी | जिसे हमने चाहा, जो हमने चाहा वह हम पा लें, तब अचानक सब छाया दिखाई पड़ती है। लेकिन जब तक उस जगह पहुंचता हूं जहां | गिर जाता है, सब स्वप्न भंग हो जाते हैं। उसकी छाया थी, तब तक वह और दूर जा चुका होता। जब तक अमेरिका में जो आज डिसइलूजनमेंट है, एक भ्रम का टूट जाना, वहां पहुंचता हूं जहां उसकी झलक दिखी, तब तक वह न मालूम | | स्वप्नभंग, वह उन सारी उपलब्धियों को पा लेने का परिणाम है, जो कहां खो चुका होता। ऐसे जन्म-जन्म भटककर, लेकिन एक दिन | | आदमी ने हजारों-हजारों साल तक चाही थीं और आज मिल गई मेरी यात्रा पूरी हो गई है, और मैं उस द्वार पर पहुंच गया जो प्रभु का | हैं। आगे अब कोई भविष्य नहीं है। सुख बड़े गहन दुख में उतार धाम है। देता है। ___ मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया और मैंने उसके द्वार की सांकल | सुख भी दुख है, ऐसी जिस दिन प्रतीति होती है, उस दिन आदमी अपने हाथ में ले ली, और मैं सांकल बजाने को ही था, तभी मेरे | | का उत्तरायण, उसके भीतर का सूर्य ऊपर की ओर उठना शुरू होता मन में सवाल उठा कि यदि आज प्रभु मिल गया, तो फिर आगे क्या | है। मुक्ति की दिशा! ध्यान रहे, मैं नहीं कह रहा हूं, मुक्ति की होगा? आगे फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो उसी की खोज में आकांक्षा। क्योंकि जब तक आकांक्षा है, तब तक आशा है, तब ये जन्म-जन्म मैंने बिताए। मैं व्यस्त था। मैं दौड़ रहा था। मैं कुछ तक सुख है, तब तक भविष्य है। मुक्ति का आयाम, डायमेंशन कर रहा था और कुछ पा रहा था। होने की, बिकमिंग की एक लंबी आफ फ्रीडम, डिजायर फॉर फ्रीडम नहीं। मुक्ति के आयाम में भीतर यात्रा थी, उसमें में रसलीन था। मंजिल थी आगे, उसे पाने में का सूर्य उठना शुरू होता है। अहंकार को तृप्ति थी। लेकिन अगर आज प्रभु मिल ही गया, तो लेकिन मुक्ति की आकांक्षा तो बड़ी दुर्लभ है। मुक्त कोई होना कल, फिर कल नहीं होगा! फिर कोई भविष्य नहीं। फिर कोई आशा | | नहीं चाहता। जो कहते भी हैं कि हम मुक्त होना चाहते हैं, वे भी नहीं। फिर आगे कोई मंजिल नहीं। मुक्त होना नहीं चाहते। तो रवींद्रनाथ ने लिखा है, मैंने वह सांकल आहिस्ता छोड़ दी, . और इसलिए एक बहुत मजे की घटना घटती है। जिनसे हम कि कहीं कोई आवाज न हो जाए और कहीं द्वार खुल ही न जाए। मुक्त होना चाहते हैं, जब उनसे मुक्त हो जाते हैं, तो हम पाते हैं कि मैं अपने जूते हाथ में उठा लिया, कि कहीं सीढ़ियों से लौटते वक्त | उनसे मुक्त होकर हमारा जीवन बिलकुल बेस्वाद हो गया, तिक्त पैरों की ध्वनि न हो जाए और कहीं द्वार खुल ही न जाए। और मैं | हो गया, एकदम रूखा हो गया। एकदम हम पाते हैं कि हम वहां जो भागा हूं उस घर से, तो मैंने फिर लौटकर नहीं देखा। | खड़े हो गए, जहां अब करने को फिर पुनः कुछ भी नहीं बचा है। अब भी मैं ईश्वर को खोजता हूं। अब भी मैं ईश्वर को खोजता | | वोल्तेयर का एक शत्रु मर गया था, तो वोल्तेयर उसकी कब्र पर हूं। अब भी मैं गुरुओं से पूछता हूं कि कहां है उसका मार्ग? और जाकर रोया। मित्रों ने पूछा कि जिस शत्रु को तुम देखना पसंद नहीं भलीभांति हृदय के अंतस्तल में जानता हूं उसका मार्ग। अब भी मैं | करते थे, और जो रास्ते से आता दिख जाए तो तुम गली में मुड़ पूछता हूं कि कहां है उसका घर? और भलीभांति मुझे पहचान है| जाते थे कि उसकी छाया तुम्हें न छू जाए, जिसका नाम तुमने कभी Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ दक्षिणायण के जटिल भटकाव * अपने मुंह से नहीं लिया, उसकी कब्र पर जाकर रोने का प्रयोजन? कि जब भी मोक्ष की बात करो, जब भी ईश्वर की बात करो, तो वोल्तेयर ने कहा, जब से शत्रु मर गया, तब से मेरे भीतर भी | लोग ईश्वर को पाने के लिए, मोक्ष को पाने के लिए आतुर हो जाते बहुत कुछ मर गया, क्योंकि उससे लड़कर ही मैं जीता था। मेरी हैं। वासना पुनः निर्मित हो जाती है। ताकत ही दीन-हीन हो गई। मुझे पहली दफा उसके मरने पर पता इसलिए बुद्ध को हम समझ भी नहीं सके। हमारे मुल्क में जो चला कि उसके बिना मैं नहीं हूं। वह था, लड़ाई थी, तो रस था, मैं | सर्वाधिक, मनुष्यों में जो कोहनूर पैदा हुआ, उसे हमने अपने ही था। उसके मरते ही मैं मर गया हूं। मेरा बहुत कुछ तो ढह गया। । | हाथों मुल्क के बाहर हटा दिया। हम बुद्ध को नहीं समझ सके, हम अपने मित्रों को खोकर इतना कभी नहीं खोते, जितना अपने क्योंकि हम यह समझ ही न पाए कि बस स्वतंत्रता भी कोई बात हो शत्रुओं को खोकर खो देते हैं। क्योंकि मित्र कभी हमारे जीवन के | सकती है। इतने अनिवार्य अंग नहीं होते। और मित्र जो हैं, वे रिप्लेस किए जा | हमने पूछा, किसलिए साधना? तो बुद्ध ने कहा, बस साधना सकते हैं; उन्हें बदलना बहुत कठिन नहीं है। शत्रु बहुत आसानी से | | काफी है। किसलिए मत पूछो। क्योंकि किसलिए के साथ वासना रिप्लेस नहीं होते। शत्रु बड़ी स्थायी घटना है। और आदमी शत्रुओं | | आ जाती है। हमने पूछा कि तुम्हारे निर्वाण में क्या होगा? क्या में जीता है। और शत्रुओं के बीच उनसे ही मुक्त होने को, उन्हें ही | मिलेगा हमें? बुद्ध ने कहा, जहां तक मिलता है कुछ, वहां तक समाप्त करने को जीता है, और उनको समाप्त करके पाता है कि | संसार है। हमने पूछा कि आनंद होगा वहां? बुद्ध ने कहा, शब्दों वह बिलकुल निर्वीर्य हो गया। की बात ही मत उठाओ। क्योंकि आनंद यदि मैं कहूं, तो तुम जो भी जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं, अगर हम मुक्त हो जाएं उससे, समझोगे, वह सुख से ज्यादा नहीं हो सकता। तुम्हारी समझ केवल तो हम शायद पुनः चाहें कि फिर से वह बंधन मिल जाए तो बेहतर सुख की है। आनंद को तुम न समझ पाओगे। और मैं कहूं हां, तो है। क्योंकि मुक्त होने का रस उस व्यक्ति से, उस स्थिति से भिन्न | तुम समझोगे कि कोई सुख होगा। अगर मैं कहूं कि दुख नहीं होगा, नहीं है, जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं। तो भी तुम समझोगे कि जो दुख तुम्हें है, वे वहां नहीं होंगे। जैसे इसलिए मुक्त होने की कामना, फ्रीडम फ्राम समवन, फ्राम यहां किसी को नौकरी नहीं मिलने का दुख है, तो वहां नौकरी मिल समथिंग-फ्रीडम फ्राम-किसी से मुक्त होने की जो वासना है, जाएगी। या यहां किसी की टांग टूट गई है, तो वहां टांग नहीं वह मोक्ष की वासना नहीं है। संसार से मुक्त होने की जो वासना टूटेगी। या यहां कोई बीमार है, तो वहां बीमार नहीं होगा। तो बुद्ध है, वह मोक्ष की वासना नहीं है। मोक्ष का आयाम बिलकुल | ने कहा, तुम चुप ही रहो। उस संबंध में पूछो ही मत। और मुझे निर्वासना का आयाम है। वहां किसी से मुक्त नहीं होना है। वहां गलत सवाल के गलत जवाब देने को मजबूर मत करो। बस मुक्त होना है। जस्ट फ्रीडम, नाट फ्राम समथिंग। हम नहीं समझ पाए; हमने बुद्ध को बहिष्कृत कर दिया। हमने . इसे और एक तरफ से समझ लें। कहा, यह आदमी महानास्तिक मालूम होता है। ईश्वर की बात नहीं __तीन तरह की मुक्तताएं होती हैं, तीन तरह की फ्रीडम होती हैं।। | करता, मोक्ष की बात नहीं करता! किसी से स्वतंत्रता; किसी के लिए स्वतंत्रता; और बस स्वतंत्रता। हम थे महानास्तिक। हम असल में मोक्ष को भी संसार की भाषा किसी से स्वतंत्रता का अर्थ होता है, अतीत से मुक्ति, पीछे से | में ही समझ सकते हैं। हमें अगर ईश्वर से भी मिलना हो, तो हम मुक्ति। और किसी के लिए स्वतंत्रता का अर्थ होता है, भविष्य की दुकान की ही भाषा में मिलने की तैयारी करते हैं। हमारी सारी खोज वासना। दोनों ही स्थितियों में मन मौजूद होता है, और उत्तरायण | सशर्त है, क्या दोगे? क्या पाओगे? क्या मिलेगा? वही हमारी की पूरी यात्रा नहीं हो सकती है। आकांक्षा का केंद्र बना रहता है। लेकिन बस स्वतंत्रता-नाट फ्राम, नाट फॉर–जस्ट। न ही | ___ उत्तरायण तो तब शुरू होता है, जब कोई व्यक्ति सुख-दुख दोनों किसी से स्वतंत्र होने की वासना: न ही किसी के लिए स्वतंत्र होने से छूटता है। छूटता है अर्थात दोनों के अनुभव ने उसे बता दिया, की वासना; बस स्वतंत्र होने का आयाम, बस स्वतंत्र होना। । | व्यर्थ हैं दोनों, निरर्थक हैं दोनों, असार हैं दोनों; और अब दोनों में ___ इसलिए बुद्ध, जब कोई पूछता कि ईश्वर है ? चुप रह जाते। जब कोई चुनाव नहीं करना है, दोनों को एक साथ ही छोड़ देना है। कोई पूछता, मोक्ष है? हंसते, मौन रह जाते। क्योंकि बुद्ध ने कहा और चुनाव संभव भी नहीं है। जैसे कोई एक ही सिक्के के एक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* पहलू को बचाना चाहे और दूसरे को छोड़ना चाहे, उसे हम पागल | ऊर्जा का नियम है कि ऊर्जा गत्यात्मक है, डायनैमिक है। ऊर्जा कहेंगे। क्योंकि जब एक सिक्के का एक पहलू बचाया जाता है, तो | स्टैटिक नहीं है। ऊर्जा थिर नहीं रह सकती; ऊर्जा दौड़ती है। अगर दूसरा अनिवार्य रूप से बच जाता है। सिक्के का एक पहलू बच | | आपने नदी का एक द्वार बंद कर दिया, तो नदी दूसरे द्वार से दौड़ना नहीं सकता; दो ही बचते हैं, या दोनों ही फेंक देने पड़ते हैं। शुरू कर देगी। अगर आपने दूसरा द्वार भी बंद कर दिया, नदी जिसने सुख को बचाना चाहा, दुख को हटाना चाहा, वह दुख तीसरा द्वार खोज लेगी और तीसरे मार्ग से दौड़ना शुरू कर देगी। को भी पीछे बचा लेगा। जिसने दोनों फेंक दिए, वही केवल दुख तीन पथ हैं। एक, मनुष्य की ऊर्जा का बहिर्गमन, जो कि से मुक्त हो पाएगा। जिसने सुख को फेंकने की भी तैयारी कर ली। | प्राकृतिक, नेचरल मार्ग है; जिससे सब पशु-पक्षी, पौधे जीते हैं इस सुख-दुख को फेंकते ही ऊर्ध्वगमन शुरू होता है। और जिससे अधिक मनुष्य भी जीते हैं। वह प्राकृतिक है। लेकिन अगर आप दुख को हटाना चाहते हैं, सुख को बचाना | | दूसरा मार्ग है, ऊर्ध्वगमन का। वह अति प्राकृतिक है, वह प्रकृति चाहते हैं, तो दक्षिणायण का पथ, तो नीचे की यात्रा है। यदि आप | के पार जाने का है, वह परमात्मा तक जाने का है। सुख को बचाना चाहते हैं, दुख को हटाना चाहते हैं, तो बाहर जाना एक तीसरा मार्ग भी है, नीचे की ओर जाने का। वह भी अति बंद कर दें, दुख कम से कम हो जाएंगे; क्योंकि दुख सदा किसी प्राकृतिक है, वह भी प्रकृति के पार है। लेकिन ऊपर जाने वाला के कारण और किसी के द्वारा मिलते हुए मालूम पड़ते हैं। मार्ग है बियांड नेचर; नीचे जाने वाला मार्ग है बिलो नेचर। एक इसलिए आदमी जब बहुत दुखी होता है, तो शराब पी लेता है, ऊपर की तरफ जाने वाली अति है, दूसरी नीचे की तरफ जाने वाली बेहोश हो जाता है। शराब कोई सुख नहीं देती। शराब एक काम | अति है। करती है, सिर्फ बाहर से संबंध टूट जाता है। आदमी एनक्लोज्ड, इस नीचे जाने वाली अति का कृष्ण ने जो ब्यौरा दिया है वह ऐसा अपने में बंद हो जाता है। और जब बाहर से संबंध टूट जाते हैं, तो है, तथा जिस मार्ग में धुआं है...। जिस पत्नी के कारण दुख मिलता था, जिस पति के कारण चिंता | | अग्नि की जगह धुआं। पहले मार्ग में अग्नि थी, इस मार्ग में होती थी, जिस बेटे के कारण मन में व्यथा आती थी, जिस परिवार | | अग्नि की जगह धुआं है। के कारण विक्षिप्तता पैदा होती थी, जिस समाज को नष्ट कर डालने जिस मार्ग में धुआं है, रात्रि है, कृष्ण पक्ष है और दक्षिणायण के का मन होता था या स्वयं मर जाने की वृत्ति पैदा होती थी, वह फिर छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चंद्रमा की ज्योति कुछ भी पैदा नहीं होता। | को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर पीछे वापस शराब संबंधों के जगत को तोड़ डालती है। इतना बेहोश कर देती | लौट आता है। है आपको कि बाहर का आपको स्मरण नहीं रह जाता; अपने में इन प्रतीकों को समझें। बंद। जब आप होश में आते हैं, तो कहते हैं, बड़ा सुख अनुभव उत्तरायण के मार्ग पर अग्नि पहला प्रतीक थी। ऊपर की तरफ किया। सुख अनुभव नहीं किया, केवल दुख के जगत से थोड़ी देर | | अग्नि बढ़ती, तो ज्योति बन जाती। ज्योति और ऊपर बढ़ती, तो के लिए विस्मरण में डूब गए; तंद्रा में, निद्रा में, बेहोशी में, मूर्छा | | दिन बन जाती। दिन और ऊपर बढ़ता, तो शुक्ल पक्ष बन जाता। में खो गए। जब भी हम कहते हैं, हमें सुख मिला, तो आमतौर से और पूर्णिमा पर अंत होता। नीचे के मार्ग पर—अग्नि अब बीच में यही होता है कि हम उन संबंधों से टूट गए होते हैं, जिनसे हमें दुख है। ऊपर की तरफ जाती, तो ज्योति बनती; नीचे की तरफ जाती है, मिलता है। | तो धुआं बन जाती है। क्योंकि जितना ही हम नीचे उतरते हैं वासना दक्षिणायण का पथ समस्त संबंधों को बिना बेहोश हुए तोड़ने में, उतना ही गीला ईंधन अग्नि को उपलब्ध होता है। वासना गीला का पथ है। बिना बेहोश हुए तोड़ने का पथ है। बेहोश नहीं होना है, ईंधन है। लेकिन समस्त वासना को काम-केंद्र पर इकट्ठा करके काम-केंद्र ___ फकीर हसन ने कहा है, एक सूखी लकड़ी को जलाओ, तो धुआं का द्वार बंद कर लेना है। दमन का जो ब्रह्मचर्य है, वह यही है। नहीं पैदा होता या कम पैदा होता है। गीली लकड़ी को जलाओ, तो काम-केंद्र को अवरुद्ध कर लेना है। ऊर्जा इकट्ठी होगी और मुक्तिधुआं ज्यादा पैदा होता है और बहुत पैदा होता है। जितनी गीली हो की कोई दिशा नहीं है, तो ऊर्जा गति करेगी। | उतना ही धुआं पैदा होता है। बहुत गीली हो, तो लपट तो निकलती 142 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दक्षिणायण के जटिल भटकाव * ही नहीं, धुआं ही धुआं पैदा होता है। की स्वच्छता का खो जाना। गीली और सूखी लकड़ी में फर्क क्या है ? गीली लकड़ी अभी भी | | इसलिए आपने देखा होगा अनेक हठयोगियों को, कि वे बड़ी जीवन के प्रति आतुर है, रस से भरी है। अभी भी जीवन का | | साधना में रत होते हैं, लेकिन बुद्धिमान नहीं मालूम होते, जल-स्रोत उसमें बहता है। अभी भी जीव-ऊर्जा उसमें प्रवाहित है। ईडियाटिक मालूम होते हैं। सूखी लकड़ी मृतवत है, मुर्दा है। जीवन का सब रस-स्रोत सूख गया। एक व्यक्ति को अभी मुझे किसी ने मिलाया था। वे दस वर्ष से है। अब कोई धारा रस की उसमें नहीं बहती, इसलिए सूखी है। । | खड़े हुए हैं। बैठे नहीं, सोए नहीं। सोते भी हैं, तो खड़े हुए ही सहारा जितना वासना भरा मन हो, उतना गीला है, उतनी लकड़ी गीली | लेकर। लेकिन पैर उन्होंने दस वर्ष से नहीं मोड़े। पैर करीब-करीब है अभी। अभी बहुत रस बहता है। जम गए हैं, मोटे हो गए हैं, जैसे हाथी-पैर की बीमारी में पैर हो तो जिसने अपनी कामवासना को रोक लिया बाहर जाने से, | | जाएं, वैसे हो गए हैं। अब शायद मुड़ भी नहीं सकते। दस वर्षों में वासना तो रुक जाएगी, रस नहीं रुकता है। ऊर्जा रुक जाएगी, एनर्जी | | सब जाम हो गया होगा। मसल्स ठहर गए होंगे, खून भर गया रुक जाएगी, लेकिन वह जो वृत्ति का रस था भीतर, वह नहीं रुकता | होगा, हड्डियां सख्त हो गई होंगी, मोड़ों ने मुड़ना छोड़ दिया होगा। है। वह रस अभी भी भीतर बहा जा रहा है। वह रस गीलापन है। । । दस वर्ष से वे यह कर रहे हैं। टम वर्ष __इसलिए प्रतीक कृष्ण ने चुना है, धूम का, धुएं का। अब नीचे निश्चित ही, बड़े संकल्प की जरूरत है। बड़े संकल्प की जरूरत की तरफ बढ़ने पर जो पहली घटना घटती है, वह गहन धुएं का है! दस घंटे भी खड़ा रहना मुश्किल पड़ेगा। संकल्प है, इसमें कोई अनुभव है। शक नहीं। लेकिन अगर उन व्यक्ति की आंखों में देखें, तो परम अगर कभी आपने जबरदस्ती किसी वासना को रोका हो, तो मूढ़ता दिखाई पड़ती है, ईडियाटिक; इम्बेसाइल। आंख में कहीं भी आपको सफोकेशन, बड़ी भीतर रुकावट और भीतर सब कोई बुद्धिमत्ता की किरण दिखाई नहीं पड़ती। संकल्प महान है। धुआं-धुआं हो गया, ऐसी प्रतीति भी हो सकती है। ज्योति की जो काश, इतना ही संकल्प ऊर्ध्वगमन में होता, तो शायद वह प्रकटता है, स्पष्टता है—निर्धूम ज्योति की—वह कभी दबी हुई, | | सहस्रार को छेद कर जाता। लेकिन यह संकल्प ऊर्जा का दबाई गई वासनाओं में अनुभव नहीं होती। ऊर्ध्वगमन नहीं बन पा रहा है, यह संकल्प भी किसी सुख को पाने इसलिए दबे हुए व्यक्ति बहुत धुआं-धुआं हो जाते हैं। उनके का संकल्प है। यह संकल्प भी सुख प्रेरित है। तो सब तरह से अपने भीतर सब धुंधियारा हो जाता है। और सब तरफ से उनके भीतर | को रोक लिया है। स्पष्टता खो जाती है, क्लैरिटी खो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी | ___ अब जो आदमी दस वर्षों से सीधा खड़ा है, उसकी कामवासना वासना को रोका तीव्रता से, उसके भीतर जो स्पष्टता होनी चाहिए | बिलकुल थिर हो जाएगी। क्योंकि सारी मसल्स, जो कामवासना चित्त की, वह खो जाती है। और दर्पण पर जैसे धुआं जम जाए, | के काम में आती हैं, वे सब जड़ हो जाएंगी, उनकी फ्लेक्सिबिलिटी ऐसा उसके चित्त पर भी धुआं जम जाता है। फिर उसमें कुछ | खो जाएगी। उसकी जननेंद्रिय का पूरा का पूरा यंत्र जो है, विकृत ठीक-ठीक प्रतिफलित नहीं होता। फिर साफ-साफ कुछ भी दिखाई | हो जाएगा, अवरुद्ध हो जाएगा और ऊर्जा इकट्ठी हो जाएगी। नहीं पड़ता। फिर वह अंधेरे में अंधे जैसा टटोलने लगता है। | लेकिन वह ऊर्जा नीचे की तरफ बहेगी। सभी वासनाएं अंधी हैं और सभी वासनाएं अंधेरे में टटोलती हैं। | अब इस व्यक्ति के पैरों में खून ही ज्यादा है, ऐसा नहीं, इस और अगर एक बार किसी ने ऊर्जा को रोक लिया, तो बहुत गहन | | व्यक्ति के पैरों में बायो-एनर्जी भी ज्यादा है। समस्त कामवासना, धुआं भीतर पैदा होता है। यह धुआं अगर बढ़ता ही चला जाए नीचे समस्त वासना इसके पैरों में प्रविष्ट हो गई है। इसका सारा जीवन की ओर, तो शीघ्र ही रात्रि में परिवर्तित हो जाता है। गहन हो गया | | ही पैरों में चला गया है। अगर ठीक से समझें, तो इसका सिर अब धुआं, सघन हो गया धुआं, रात्रि का अंधकार बन जाता है। | खोपड़ी में नहीं है, इसका सिर अब पैरों के तलुओं में है। इसकी जैसे दिवस बन जाती है ज्योति, ऐसे ही धुआं बन जाता है रात्रि। आंखों में से तेजस्विता चली जाएगी। धुंधियारी हो गईं आंखें, उन अग्नि है बीच में, ऊपर बढ़े तो ज्योति, नीचे बढ़े तो धुआं। और पर धुएं की जाली आपको स्पष्ट दिखाई पड़ सकती है। आंखों के ऊपर बढ़ें तो दिन, और नीचे आएं तो रात्रि। धुएं का अर्थ है, चित्त भीतर कोई ज्योति नहीं दिखाई पड़ती, कुछ जलता हुआ दिखाई नहीं 143 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 पड़ता। आंखों के भीतर कोई प्रकाशित चित्त और चेतना है, यह भी कहते हैं, कोई विचार भी नहीं चलते। लेकिन वे निर्विचार स्थिति में दिखाई नहीं पड़ता। आंखों के भीतर गहन अंधकार हो गया है। जड़ नहीं हैं; अविचार की स्थिति में हैं। हो गई हैं, जिसको हम कहते हैं पथरीली आंखें, वैसी हो गई हैं। यह फर्क समझ लेना चाहिए। चेहरे पर किसी तरह की बुद्धिमत्ता की कोई झलक नहीं है। चेहरा निर्विचार स्थिति में वह व्यक्ति है, जो चाहे तो विचार कर सकता आदमी का कम और पशु का ज्यादा मालूम पड़ता है। पड़ेगा ही! | | है, लेकिन विचार नहीं करता। और अविचार की स्थिति में वह पड़ेगा ही, क्योंकि जो भी किया है, उस करने में और मनुष्यता की | | व्यक्ति है, जो चाहे भी तो विचार नहीं कर सकता है। नपुंसकता ऊंचाइयों को छूने का उपाय नहीं हुआ है, बल्कि प्रकृति से भी नीचे, | और ब्रह्मचर्य में जो फर्क है, वैसा ही फर्क निर्विचार और अविचार बिलो नेचर, प्रकृति से नीचे गिर जाने की व्यवस्था हुई है। लेकिन एक बात पक्की है, इस आदमी को दुख मिलने बंद हो नपुंसक भी एक अर्थ में ब्रह्मचारी है। लेकिन वह ब्रह्मचारी गए हैं। यह आदमी अब दुखी नहीं है। यह आप ध्यान रखना, यह | | इसलिए नहीं है, कि ब्रह्मचारी न होना चाहे, तो स्वतंत्र नहीं है। ऊर्जा आदमी दुखी बिलकुल नहीं है। और जितने इसके दुख गिर गए हैं, | ही नहीं है, पुंसत्व ही नहीं है। वह चाहे तो भी ब्रह्मचर्य को नहीं तोड़ उसी मात्रा में इसे हम सुखी भी कह सकते हैं। और जो काम ऊर्जा | सकता। और जो ब्रह्मचर्य चाहकर तोड़ा न जा सके, उस ब्रह्मचर्य बाहर जाकर क्षणिक सुख लाती थी, वही काम ऊर्जा, इसके नीचे | का क्या मूल्य हो सकता है! ब्रह्मचर्य तो वही है—जीवंत, के हिस्से के शरीर में वर्तुल बनाकर भी इसे सुख दे रही है। वह | | पोटेंशियल, शक्तिवान-जो चाहा जाए, तो तोड़ा जा सके। बहुत भीतरी सुख है। | लेकिन नहीं चाहते, नहीं तोड़ते, यह अलग बात है, यह.भिन्न बात इसलिए अब यह आदमी अपने पैरों को मोड़कर कभी बैठेगा भी है। ऊर्जा भीतर है, उसके प्रवाह की मालकियत हमारे हाथ है। नहीं। क्योंकि अब इसे जो एक बहुत ही अंधकारपूर्ण सुख मिलना | लेकिन ऊर्जा ही भीतर नहीं है! जो धन आपके पास नहीं है, उसको शुरू हुआ है, एक बहुत तामसिक सुख मिलना शुरू हुआ है, उसे अगर आप खर्च नहीं करते, तो आप किस स्थिति में धनी हैं! छोड़ना कठिन है। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन मरा, तो उसने अपनी वसीयत . एक व्यक्ति को मैंने देखा है, जो वर्षों से कांटों पर लेटे रहते हैं। | लिखी। और वसीयत में उसने लिखा कि मेरी समस्त संपत्ति का उनकी आंखों की भी यही हालत है, धुआं-धुआं। शरीर को उन्होंने आधा हिस्सा मेरी पत्नी को मिले, शेष आधे में लड़कों को, सख्त पत्थर जैसा कर लिया है। लेकिन शरीर को पत्थर जैसा करते लड़कियों को सबको बांटा जाए। और सब बांट देने के बाद, जब साथ ही मन भी पत्थर जैसा हो जाता है। असल में शरीर और मन वह सब बांट चुका, तो उसके वकील ने पूछा, लेकिन आप की लोच, सेंसिटिविटी साथ-साथ चलती है। जितना शरीर | परसेंटेज तो लिखा रहे हैं कि पचास प्रतिशत इसको, दस प्रतिशत लोचपूर्ण होता है, उतना ही मन लोचपूर्ण होता है। | इसको, संपत्ति कितनी है ? मुल्ला ने कहा, संपत्ति तो बिलकुल नहीं मन से मुक्त होना है जरूर, लेकिन मन को पत्थर जैसा करके। | है। लेकिन नियमानुसार वसीयत लिखनी चाहिए, इसलिए वसीयत जो मुक्त होने की कोशिश करेगा, वह मुक्त नहीं हो रहा है, केवल । | लिखता हूं। और मुल्ला ने कहा, आपने बीच में टोक दिया, अभी जड़ हुआ जा रहा है। मन से मुक्त होने का अर्थ जड़ता को पा लेना | मुझे कुछ और लिखवाना है! पर उस वकील ने कहा कि सौ परसेंट नहीं है। लेकिन जड़ता भी अगर कोई पा ले, तो एक अर्थ में मन तो पूरा हो गया! जो नहीं है, उसका सौ प्रतिशत बंट चुका! मुल्ला से मुक्त हो जाता है, क्योंकि मन की चंचलता मिट जाती है, नष्ट | | ने कहा, नीचे इतना और लिखो कि जो शेष बचा हो, वह मस्जिद हो जाती है। को दे दिया जाए। जो नहीं था, वह सौ प्रतिशत बांटा जा चुका। अब तो उनके मन में कोई चंचलता नहीं है अब। अगर उनसे आप | भी अगर कुछ शेष बचा हो, तो वह मैं मस्जिद को दान करता हूं! पूछे कि आपको कोई स्वप्न आते हैं? तो वे कहते हैं, कोई स्वप्न । इस तरह की मनोदशाएं भी हैं। जब जो हम नहीं कर सकते हैं, मुझे वर्षों से नहीं आए। वे कांटे पर लेटे रहते हैं, उन्हें कोई स्वप्न हम सोचते हैं, हमने उसका त्याग कर दिया है। इस कांटों पर लेटे नहीं आएंगे। क्योंकि स्वप्न आने के लिए मन में सक्रियता चाहिए;। हुए साधक को देखकर मैंने उनसे पूछा था कि विचार उठते हैं? वह सक्रियता खो गई है। उनसे पूछिए, कोई विचार चलते हैं? वे| उन्होंने कहा, विचार! नहीं। 144 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *दक्षिणायण के जटिल भटकाव * लेकिन वह निर्विचार अवस्था नहीं है, क्योंकि निर्विचार के साथ | अनुभव होगा अहंकार का। लेकिन जैसे ही अग्नि ज्योति बनेगी, तो आंखें ऐसी स्वच्छ हो जाती हैं, जैसी कोई झील कभी नहीं होती।। | वैसे ही अहंकार विरल हो जाएगा। और जैसे ही ज्योति दिन बनेगी, निर्विचार के साथ तो आंखें इतनी गहरी हो जाती हैं, अतल, जैसे | | | वैसे ही अहंकार बिलकुल बिखरा-बिखरा हो जाएगा। और जब किसी खाई में हम गिरते चले जाएं और कोई तल ही न मिले। । | दिन भी शीतल शुक्ल पक्ष बनने लगेगा, तो उधर चांद बड़ा होने लेकिन नहीं; उनकी आंख तो बिलकुल ऐसी दिखाई पड़ती है, लगेगा और इधर अहंकार क्रमशः क्षीण होने लगेगा। जिस दिन जैसे ऊपर की पर्त भर ही हो, भीतर कुछ भी न हो। सब पूर्णिमा का चांद होगा, उस दिन अहंकार शून्य हो जाएगा। संवेदनशील तंतु सिकुड़कर सख्त हो गए हैं। लेकिन फिर भी यह | लेकिन नीचे की यात्रा पर, दक्षिणायण के पथ पर अहंकार आदमी संकल्पवान है। और जो आदमी वर्षों से कांटों पर लेटा | | महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ेगा; महत्वपूर्ण मालूम पड़ेगा, पर का हुआ है, उसकी काम ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है। बोध कम होता चला जाएगा। जितना अंधेरा बढ़ेगा, धुआं आएगा असल में कोई भी संकल्पवान व्यक्ति अगर संकल्प ही कर ले, | बीच में, तो दूसरे धुंधले दिखाई पड़ने लगेंगे। पत्नी धुंधली हो किसी भी भांति का संकल्प कर ले, तो सबसे पहला परिणाम यह | जाएगी, पुत्र धुंधले हो जाएंगे, धन-संपत्ति धुंधली हो जाएगी। छूट होता है कि उसकी काम ऊर्जा बहनी बंद हो जाती है। क्योंकि जो | नहीं जाएगी, धुंधली हो जाएगी। बीच में धुएं की एक पर्त आ व्यक्ति वर्षों खड़ा रह सकता है, जो व्यक्ति वर्षों कांटों पर लेटा रह | जाएगी। और आदमी अपने भीतर सिकुड़ने लगेगा। और जितना सकता है, जो वर्षों नग्न बर्फ पर बैठा रह सकता है, ऐसे व्यक्ति | भीतर सिकुड़ेगा, उतना ही अहंकार सख्त और ठोस और को कामवासना हिला नहीं सकती। कामवासना इकट्ठी हो जाएगी, | | क्रिस्टलाइज्ड होने लगेगा। लेकिन नष्ट नहीं हो जाएगी, तिरोहित नहीं हो जाएगी। इकट्ठी होकर | रात्रि जब गहन हो जाएगी, अंधकार काफी हो जाएगा, धुआं नीचे की तरफ भीतर ही प्रवाह शुरू हो जाएगा। सघन हो जाएगा, तो दूसरे दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे। उनसे सिर्फ इस भीतर के प्रवाह पर पहला अनुभव धुएं का होगा। धुएं का | | टकराहट होगी, दिखाई नहीं पड़ेंगे। कभी-कभी टकराहट होगी, तो अर्थ है, भीतर एक क्लैरिटी का, स्वच्छता का खो जाना। दूसरा | | मालूम पड़ेगा, दूसरा है। लेकिन दूसरे का बोध क्रमशः कम होने अनुभव अंधकार का होगा। भीतर गहन, निबिड़ रात्रि का छा जाना, | लगेगा, जड़ता घनी होने लगेगी। आदमी चारों तरफ एक परकोटे जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। कोई परवस्तु दिखाई नहीं पड़ती।। | से घिर जाएगा अंधकार के। लेकिन अभी भी दूसरे की टकराहट स्वयं का थोड़ा-सा बोध शेष रह जाता है। का पता चलेगा। जैसे आप गहरे से गहरे अंधेरे में भी हों, तो कुछ और दिखाई और फिर आता है कृष्ण पक्ष, अंधेरी रातों का बढ़ता हुआ क्रम, नहीं पड़ता, लेकिन इतना तो पता चलता ही रहता है कि मैं हूं। | अमावस की तरफ यात्रा। फिर रोज-रोज रात भी और अंधेरी होने अंधेरी से अंधेरी रात में, अमावस में भी इतना तो पता चलता ही लगती है। और चांद की रोशनी रोज-रोज कम, और चांद रोज-रोज रहता है ता है कि मैं हूं। सब दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। घर नहीं घटने लगता है। अंधेरी रात रोज-रोज बढ़ने लगेगी। दिखाई पड़ता, मित्र-प्रियजन नहीं दिखाई पड़ते, वस्तुएं नहीं दिखाई | __जिस मात्रा में, जैसा मैंने कहा, शुक्ल पक्ष के पंद्रह क्रम होंगे, पड़तीं, पर मैं हूं इतना स्मरण बना रहता है। रात्रि जितनी गहन हो | | वैसे ही कृष्ण पक्ष के भी पंद्रह खंड होंगे और रोज-रोज अंधकार जाएगी, उतना ही पर का बोध खोता चला जाएगा। गहन होगा। जिस मात्रा में अंधकार गहन होगा, उसी मात्रा में पर, अब यह बहुत मजे का, यह समानांतर विचार ठीक से समझ | संसार भूलने लगेगा। मिटने नहीं लगेगा, भूलने लगेगा। और इसी लें। जितने आप ऊपर बढ़ेंगे, उतना स्व का बोध कम होता चला | | से भ्रम पैदा होता है कि जो अब भूलने लगा, वह शायद मिट गया। जाएगा। और जितने आप नीचे उतरेंगे, उतना पर का बोध कम होता | ___ इसलिए शुक्ल पक्ष के यात्री की तरह से कृष्ण पक्ष का यात्री चला जाएगा। जितना उत्तरायण के मार्ग पर आगे जाएंगे, स्व का सोच सकता है कि मैं भी उसी मार्ग पर चल रहा हूं। वह अर्थ ले बोध विसर्जित होता चला जाएगा। सकता है कि अब मुझे संसार नहीं दिखाई पड़ता, तो मैं मुक्त हो अग्नि जब तक है, तब तक स्व का सघन बोध होगा, जलन से | गया हूं! भरा हुआ बोध होगा। दि ईगो विल बी फेल्ट टू मच। बहुत गहन | __ लेकिन जब तक अहंकार भीतर है, संसार से कोई मुक्त नहीं 145 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-44 होता। कितने ही दूर हो जाए, कितने ही दूर और कितने ही गहन ने मंसूर को सूली दी। सूली देने का कारण सिर्फ इतना था कि मंसूर अपने अंधेरे में खो जाए, संसार से उसके संबंध विसर्जित नहीं होते | | कह रहा था, अनलहक। मैं ब्रह्म हूं। आई एम दि डिवाइन। अहं और वह कभी भी वापस लौट आता है। जब तक अहंकार शेष है, | | ब्रह्मास्मि का अनुवाद है, अनलहक, मैं ब्रह्म हूं। जब तक वापसी शेष है। तब तक आदमी वापस लौट आएगा। बड़ा मुश्किल है तय करना कि यह फकीर मंसूर, शुक्ल पक्ष की ___ एक-एक दिन, जैसे कृष्ण पक्ष बढ़ता है, अमावस करीब आती। | पूर्णिमा को पहुंचकर कह रहा है या अमावस की अंधेरी रात में है, वैसे-वैसे जगत खोता चला जाता है। और अमावस के दिन, पहुंचकर कह रहा है। कौन तय करे? कैसे तय करे? जो मंसूर को अमावस की रात, जैसे पूर्णिमा की रात्रि अहंकार शून्य हो जाता है | प्रेम करते हैं, वे कहते हैं कि यह पूर्णिमा की घोषणा है। और जो और परमात्मा पूर्ण हो जाता है, ठीक वैसे ही अमावस की रात्रि | | मंसूर के विरोधी थे, उन्होंने कहा, यह अमावस की घोषणा है। अहंकार पूर्ण हो जाता है और पर बिलकुल शून्य हो जाता है। और अमावस की घोषणा मानकर मुसलमानों ने मंसूर की हत्या कर दी। पर के साथ परमात्मा भी शून्य हो जाता है, लेकिन अहंकार पूर्ण हो लेकिन वह घोषणा अमावस की न थी। और जिन्होंने हत्या की, जाता है। उनसे भूल हो गई। क्योंकि अगर वह अमावस की घोषणा होती, मजे की बात है और शब्द इसीलिए धोखा दे सकते हैं- तो मरते वक्त पता चल जाता। क्योंकि मरते वक्त सब कुछ पता पूर्णिमा की रात को उपलब्ध हुआ व्यक्ति भी कह सकता है, अहं चल जाता है। अंतिम क्षण में, काल-क्षण में मंसूर ने जाहिर कर ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका अर्थ होता है कि मैं अब नहीं | | दिया कि जिन्होंने सूली दी, वे भूल में थे। ह, ब्रह्म ही है। अमावस की स्थिति में पहंचा हआ व्यक्ति भी कह जब मंसर के हाथ काटे जा रहे थे. तब भी वह हंस रहा था। जब सकता है, अहं ब्रह्मास्मि। लेकिन उसका मतलब बिलकुल भिन्न | उसके पैर काटे जा रहे थे, तब भी वह हंस रहा था। जब उसकी होता है। वह भी कहता है, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका मतलब यह आंखें फोड़ी जा रही थीं, तब भी वह परमात्मा से दुआ मांग रहा था होता है, अब और कोई ब्रह्म नहीं, मैं ही ब्रह्म हूं! उन सबके लिए, जो उसकी हत्या कर रहे थे। जब उसके हाथ काटे पूर्णिमा की रात्रि को पहुंचा हुआ व्यक्ति कहता है, अहं | गए और उसके हाथ से खून गिरने लगा, तो उसने दूसरे हाथ से ब्रह्मास्मि! क्योंकि वह कहता है, जो कुछ भी है, सभी ब्रह्म है। मैं | खून को हाथ में लेकर वजू की, जैसा कि मुसलमान नमाज के पहले भी ब्रह्म है, क्योंकि सभी कुछ ब्रह्म है। उसके इस अहं ब्रह्मास्मि में, | करते हैं। उसके इस अहं में, उसके इस मैं में, मैं बिलकुल नहीं है और सब एक आदमी ने चिल्लाकर पूछा कि मंसूर, यह तुम क्या कर रहे समा गया है। कहें, उसका यह अहं पूर्णरूपेण अहं-शून्य है, | हो? वजू पानी से की जाती है! ईगोलेस ईगो। शब्द भर मैं है, लेकिन उसमें मैं-पन जरा भी नहीं | मंसूर ने कहा, पानी की वजू भी कोई वजू है! प्रार्थना करने जिन्हें है। क्योंकि वह पूरे ब्रह्म के साथ अपने को एक अनुभव करता है। जाना है, उन्हें अपने खून से ही अपने को शुद्ध करना पड़ता है। और जैसे बूंद सागर में गिर जाए और कहे कि मैं सागर हूं। लेकिन तुमने मुझे मौका दिया, तुम्हारा मैं अनुगृहीत हूं, शुक्रगुजार हूं कि गिरते ही बूंद तो खो जाती है। और अब मैं सागर हूं, इसका मतलब तुमने मुझे खून से, अपने ही खून से वजू करने की सुविधा जुटा दी। ही यह होता है कि अब सागर ही है, और मैं नहीं हूं। एक ही अर्थ और मरते वक्त जब सारे लोगों ने उससे चिल्लाकर पूछा कि होता है। मंसूर, तुम नाराज भी नहीं हो, और तुम्हारी आंखें अभी भी प्रेम से अमावस की रात को पहंचा हआ व्यक्ति भी यही कह सकता भरी हैं, और तम्हारे होंठों से अभी भी प्रेम की वर्षा हो रही है। बात है, अहं ब्रह्मास्मि! जैसे बूंद सागर को बिलकुल भूल जाए और क्या है? सागर का उसे पता ही न रहे और तब अकड़कर बूंद कह सके कि | तो मंसूर ने कहा, ताकि तुम जान सको कि तुमने जो किया, वह मैं ही सागर है, क्योंकि मुझसे बड़ा और कौन है! तब मैं ही सब | भूल भरा था; और तुमने जिस आदमी को मारा, वह आदमी वही कुछ रह जाता है और सब पर आरोपित हो जाता है। नहीं था, जैसा तुमने उसे समझा था। .. अहं ब्रह्मास्मि की दक्षिणायण की भी अनुभूति है, उत्तरायण की । ईसा के साथ भी वही भूल हुई। जब ईसा ने कहा कि मैं ईश्वर भी। इसलिए बहुत बार भूल भी हो जाती है, जैसे कि मुसलमानों का पुत्र हूं, तो उनके विरोधियों ने समझा कि यह अमावस की रात 1461 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ दक्षिणायण के जटिल भटकाव में कही गई बात है। और तय करना सदा मुश्किल है। सदा मुश्किल मित्र बिलकुल निर्णीत होकर आए और कहा कि वह आदमी बहुत है कि यह घोषणा जो की जा रही है, कहां से की जा रही है? घोषणा बड़ा महात्मा है! बिलकुल एक जैसी है। और निर्भर करता है इस बात पर कि | मैंने कहा, तुम्हें कैसे पता चला? उन्होंने कहा कि जब मैं गया, आस-पास जो लोग इकट्ठे हैं, वे किस तरह के हैं, उनका | तो उन महात्मा ने कहा, मैं तो आपके पैरों की धूल हूं। इससे पता इंटरप्रिटेशन! चला तुम्हें! अगर तुम इतने समझदार हो, तो वह महात्मा भी तुमसे अधिक लोग तो अमावस की रात की तरफ चलते हुए लोग हैं। | तो थोड़ा-बहुत ज्यादा समझदार होगा ही। अगर वह महात्मा कहता अधिक लोग तो अंधेरे पक्ष की तरफ बढ़ते हुए लोग हैं। अधिक | है कि हां, मैं बहुत बड़ा महात्मा हूं, तो तुम क्या खयाल लेकर लोग तो नीचे गिरते हुए लोग हैं, ऊपर उठते हुए नहीं। इसलिए यह | लौटते? उन्होंने कहा, तब मैं पक्का मानकर लौटता कि यह आदमी स्वाभाविक है कि उनकी व्याख्या नीचे ही गिरने की व्याख्या हो। बेईमान है। और जब वे जीसस या मंसूर के मुंह से सुनें कि मैं ही ब्रह्म हूं, तो तो मैंने कहा, जब तुम जानते हो ट्रिक, तो वह भी जानता होगा। वे समझें कि यह आदमी अहंकारी है। हम अहंकारी कुछ और | इतनी-सी ट्रिक है कि तुम्हारे सामने अगर महात्मा सिद्ध होना हो, समझ भी कैसे सकते हैं! हम अहंकारी हैं, इसलिए हम अहंकार | | तो कहना चाहिए कि मैं तुम्हारे चरणों की धूल हूं। और अगर की ही भाषा समझ पाते हैं। | महात्मा सिद्ध न होना हो, तो घोषणा कर देनी चाहिए कि मैं महात्मा और अगर कोई निरहंकारी भी बोले-और बोले तो अहंकार | | हूं। इतनी सरल-सी बात तुम्हें पता है, उसे पता न होगी! तुम फिर की भाषा बोलनी पड़ती है, क्योंकि और कोई भाषा नहीं है तो से जाओ। हम समझते हैं कि वही बात फिर हुई जा रही है। यह आदमी कह मुश्किल है। क्योंकि भाषा जो हम समझते हैं, हम समझते हैं। रहा है कि मैं ब्रह्म हूं। यह आदमी अहंकार की भाषा बोल रहा है, | | और हमारी समझ, समझ ही कहां है! और अहंकार तो बड़ा पाप है। और मजा यह है कि हम सब | | जैसे-जैसे अंधेरे की तरफ, नीचे की तरफ बढ़ेगी चेतना, ऊर्जा, अहंकारी हैं और हम कभी भी नहीं सोचते कि कहीं भूल तो नहीं हुई | | वैसे-वैसे पर का बोध खोता जाएगा। दि कांशसनेस आफ दि जा रही। हमारे अहंकार तो कहीं व्याख्या में बाधा नहीं डाल रहे? अदर, दूसरे का जो होश है हमें, वह विलीन हो जाएगा। एक घड़ी अगर कृष्ण भी आकर हमारे बीच खड़े होकर कहें कि मैं ब्रह्म | आएगी, जब मुझे सिर्फ मेरा ही होश रह जाएगा। एक घड़ी आएगी, हूं, तो हम कहेंगे, यह आदमी अहंकारी है। क्राइस्ट भी कहें कि मैं | जब मुझे मेरा ही होश रह जाएगा, मैं ही रह जाऊंगा। सारा जगत ईश्वर का पुत्र हूं, तो हम कहेंगे, यह अहंकारी है। हमने ही कहा है | बंद और मैं एक अलग जगत, अपने भीतर हो जाऊंगा। युग-युग में, और हमने ही इन सारे लोगों को सूलियां और फांसियां लीबनिज ने मोनोड की बात की है। लीबनिज ने कहा है कि दे दी हैं। | प्रत्येक आदमी एक मोनोड है। मोनोड का अर्थ होता है, ऐसा हम तो उस महात्मा को मानते हैं, जो हमारे पैरों पर सिर रख दे | | मकान, जिसमें द्वार-दरवाजे नहीं हैं। और कहे कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं। तब हमारा चित्त बड़ा प्रसन्न पता नहीं, हर आदमी मोनोड है या नहीं, लेकिन जब कोई होता है कि यह है महात्मा! लेकिन इसके महात्मा होने का कारण | अमावस की स्थिति में पहुंचता है, तो आदमी मोनोड हो जाता है। क्या है? इसके महात्मा होने का कारण यह है कि आपके चरणों पर | मोनोड, विंडोलेस, डोरलेस हाउस, कोई द्वार-दरवाजा नहीं। सब इसने सिर रखा और आपके अहंकार की गहरी खुशामद की। | बंद हो गए द्वार-दरवाजे; मैं अपनी गुहा में भीतर कैद हो गया। मैं एक मेरे मित्र मुझसे कहते थे कि एक बहुत बड़े महात्मा के वे | ही जगत हूं वहां, मैं ही परमात्मा हूं वहां। मैं ही हूं, और कुछ भी पास गए। उन महात्मा के शिष्य उनको बड़ा महात्मा बताते हैं। तो नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं जरा परीक्षा करूं। वे गए महात्मा के पास, उन्होंने लेकिन इस यात्रा में भी बड़ी साधना करनी पड़ती है संकल्प की। जाकर उनसे पूछा कि आपके शिष्य आपको बहुत बड़ा महात्मा | अब इसे और ठीक से समझ लें। बताते हैं, क्या आप भी अपने को बहुत बड़ा महात्मा मानते हैं? उन | | जो उत्तरायण में जाते हैं, उनकी साधना है समर्पण की, सरेंडर महात्मा ने कहा, मैं तो तुच्छ आदमी हूं, आपके पैरों की धूल हूं। वे की। जो दक्षिणायण में जाते हैं, उनकी साधना है संकल्प की, विल Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* hi और ये साधनाएं बड़ी उलटी हैं। संकल्प का अर्थ ही है, स्वयं को, मैं को साधना । समर्पण का अर्थ है, स्वयं को, मैं को विसर्जित करना, खोना । दोनों की अलग-अलग साधनाएं हैं। हठयोग संकल्प की साधना है, राजयोग समर्पण की साधना है। और जगत में दो ही तरह के योग हैं। उन्हें नाम कुछ भी दे दें। एक संकल्प के योग हैं, जिनमें अपने संकल्प को मजबूत करना है। इतना मजबूत करना है कि कोई जगत की ताकत मेरे संकल्प को न तोड़ पाए। तब मैं एक किले की दीवाल बनाकर उसके भीतर छिप जाऊंगा। फिर मैं सुरक्षित हूं। और एक साधना है समर्पण की, कि अपने सब द्वार- दरवाजे खुले छोड़ देने हैं, कि कमजोर से कमजोर ताकत भी आए, कमजोर से कमजोर हवा का झोंका भी आए, तो भीतर चला आए, कोई बाधा न हो। मुझे मिटाने के लिए कोई ताकत आए, तो उसे जरा भी अड़चन न हो। मुझे मार डालने को कोई शक्ति निकले, तो मैं उसे द्वार पर ही स्वागत करता मिलूं। उसे दरवाजा खोलने की भी असुविधा न पड़े। समर्पण का अर्थ है, टु बी वलनरेबल, सब तरह से खुले हो जाना, जो हो उसके लिए राजी हो जाना। ये दो साधनाएं हैं। एक साधना उस जगह पहुंचा देती है, जहां से कोई लौटना नहीं। दूसरी साधना भी कहीं पहुंचाती है, लेकिन वहां से लौटना है। कृष्ण कहते हैं, इस दूसरे मार्ग से मरकर गया हुआ योगी-योगी कहते हैं उसे भी; वह भी संकल्प का योग साध रहा है— स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है। लेकिन एक बात और कही है, जो थोड़ी दुविधा में डालेगी, और वह यह है, धूम है, रात्रि है तथा कृष्ण पक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं। उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने कर्मों को भोगकर पीछे आता है। यह चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, क्योंकि इस अंधेरे के रास्ते पर चंद्रमा की ज्योति कहां ? इस दक्षिणायण के मार्ग पर अमावस मिलेगी। यहां चंद्रमा की ज्योति कहां? यहां चंद्रमा कहां? इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, यह थोड़ा दुरूह है, लेकिन समझेंगे तो खयाल में आ जाएगा। जैसा मैंने कहा कि आकाश में चांद हो, तो झील में उसका प्रतिबिंब बन जाता है। जब कोई व्यक्ति अंधकार की झील हो जाता है, जस्ट ए डार्कनेस, गहन अंधकार की झील हो जाता है, तो अंधकार इतना सघन हो जाता है कि झील बन जाता है। तो भी, | उसकी ही ऊर्ध्व यात्रा का जो अंतिम बिंदु है, उसकी झलक इस गहन अंधकार में दिखाई पड़ने लगती है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा। जब नीचे का हिस्सा व्यक्ति का पूर्ण अंधकार से भर जाता है, इस अंधकार की गहराई में ही, इस गहनता में ही अंधकार की, वह जो ऊपर का शीर्ष बिंदु है व्यक्ति का, वह झलक उसकी दिखाई पड़ने लगती है। यह झलक अंधकार के अति पारदर्शी होने से घटित होती है; अंधकार के भी ट्रांसपैरेंट हो जाने से घटित होती है । संकल्प जब अंधकार से जुड़ता है और अंधकार को संवारता है, साधता है, तो अंधकार भी झलक देने लगता है। सच तो यह है, अंधकार में, अंधकार की पृष्ठभूमि में, कंट्रास्ट में, जब स्वयं का शीर्ष बिंदु दिखाई पड़ता है, तो बड़ी भ्रांति पैदा होती है। ठीक ऐसी ही भ्रांति पैदा हो जाती है, जैसे झील में चांद | को देखकर कोई समझ ले कि चांद यह रहा । और जितना गहरा उतरता जाता है, उतनी ही यह झलक साफ दिखाई पड़ती है। इसे आप एक छोटा-सा प्रयोग करें, तो समझ में आ जाए। रात आकाश में तारे होते हैं। अभी भी तारे हैं। सुबह सूरज निकलता है, तारे खो जाते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा कि तारे' खोकर जाएंगे कहां? क्या अचानक सब तारे छिप जाते हैं कहीं ! ये तारे सूरज के निकलने से जाएंगे कहां? ये तो अपनी ही जगह होंगे। सिर्फ सूरज की रोशनी के आ जाने से हमारी आंखों पर रोशनी इतनी तेज होती है कि हम इन तारों को देख नहीं पाते। ये तारे सब अपनी ही जगह होते हैं। जब रात सांझ होने लगती है, तो आप कहते हैं कि यह तारा उगा, यह दूसरा तारा उगा । आप गलत भाषा बोल रहे हैं। ये तारे दिनभर यहीं थे। सिर्फ इस | तारे पर से सूरज की रोशनी हट गई और आपकी आंख देखने लगी। दूसरे तारे पर से रोशनी हट गई, आपकी आंख देखने लगी। सूरज | डूब रहा है, तारे वापस दिखाई पड़ने शुरू हो रहे हैं । उग नहीं रहे हैं। तारे अपनी जगह मौजूद थे, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह | से, एक लंबा प्रकाश का पर्दा बीच में आ गया था, उसकी वजह से दिखाई नहीं पड़ते थे। ध्यान रखें, अंधेरे का ही पर्दा नहीं होता, प्रकाश का भी पर्दा होता है। तेज प्रकाश आ जाए, तो कई चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जाती । सूरज की चकाचौंध थी, उसमें ये तारे दिखाई नहीं पड़ते थे। 148 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दक्षिणायण के जटिल भटकाव आप एक काम करें; दिन में किसी गहरे कुएं में उतर जाएं। कुआं इतना गहरा होना चाहिए कि नीचे अंधेरा हो । कुएं में खड़े हो जाएं और आकाश को देखें। आप चकित हो जाएंगे। कुएं के भीतर से जो आकाश दिखाई पड़ेगा, उसमें आपको तारे दिन की दोपहरी में भी दिखाई पड़ेंगे। कुएं के अंधेरे में उतरकर जब आप देखते हैं। , तो जो तारे रोशनी में नहीं दिखाई पड़ रहे थे, वे अंधेरे से दिखाई पड़ने लगते हैं। अंधेरा कंट्रास्ट बन जाता है। ऊपर, ठीक ऐसी ही घटना भीतर भी घटित होती है। जब कोई अपने ही अंधेरे के गर्त में उतर जाता है, अंधेरे के कुएं में नीचे और नीचे, और ऊपर उठकर देखता है, तो अपने ही शीर्ष पर जो चांद सदा से छिपा है, उसकी झलक उसे इतनी साफ दिखाई पड़ती है, जितनी साफ इस अंधेरे के कुएं के बाहर रहकर कभी दिखाई नहीं पड़ी थी, पता ही नहीं चला था। विपरीत की पृष्ठभूमि में चीजें बहुत साफ होकर दिखाई पड़ती हैं। इस अंधेरे से झलक मिलती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर ! चंद्रमा की एक ज्योति उसे उपलब्ध होती है, चंद्रमा उपलब्ध नहीं होता। चंद्रमा त उपलब्ध होता है उत्तरायण के व्यक्ति को । इस व्यक्ति को तो चंद्रमा की ज्योति दिखाई पड़ती है, बड़ी प्रकट, बड़ी स्पष्ट । उसे यह उपलब्ध होती है। और स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर वापस लौट आता है। स्वर्ग के संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक, स्वर्ग दोहरा अर्थवाची है । एक तो स्वर्ग उस अवस्था का नाम है, जहां दुख का हमने सब भांति निषेध कर दिया और केवल सुख का एक छोटा-सा कोना बचा लिया। सब दुख बंद कर दिए और केवल सुख को बचा लिया। पीछे छिपे रहेंगे दुख, जा नहीं सकते, क्योंकि वे सुख केही हिस्से हैं । हमने एक ऐसा घर बना लिया, जिसमें हमने सिक्के चांदी के लगाकर उनका मुख अपनी तरफ कर लिया और पीठ पीछे की तरफ कर दी। हम उस घर के भीतर छिपकर खड़े हो गए। अब हम कह सकते हमारे सभी सिक्कों में एक ही पहलू है। शक्ल वाला हिस्सा हमें दिखाई पड़ता है, पीठ पीछे है। लेकिन पीठ पीछे मौजूद है, बहुत जल्द वह पीठ हमें अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी। वही लौटना है वापस । स्वर्ग का एक अनुभव है, दुख को छिपाकर सुख को पूरी तरह बचा लेने की स्थिति। यह मानसिक अवस्था भी है, भौतिक अवस्था भी है। ऐसे स्थान हैं इस विश्व में, जिन स्थानों पर ऐसे सुख की अधिकतम संभावना है। ऐसे स्थान हैं इस विश्व में, जहां इससे विपरीत दुख ही दुख हैं, उनकी संभावना है। लेकिन जो व्यक्ति भी ऐसी अवस्था को, या ऐसी स्थिति को, या ऐसे स्थान को उपलब्ध होता है, उसके पास संचित पूंजी है, वह उसे खर्च करके वापस लौट आता है। नर्क से भी लौट आता है आदमी, पाप की सारी पूंजी खर्च करके । स्वर्ग से भी लौट आता है आदमी, पुण्य की सारी पूंजी खर्च करके। अब एक बात यहां खयाल ले लें। जब भी आप पाप करते हैं, तो संकल्प की कमी के कारण करते हैं । आपने तय किया है चोरी नहीं करूंगा, लेकिन हीरा पड़ा हुआ मिल जाता है। संकल्प | कहता है, मत करो, लेकिन वासना कहती है, यह मौका चूकने जैसा नहीं । कसम फिर खा लेना, व्रत फिर ले लेना; यह हीरा फिर दुबारा मिले न मिले। व्रत तो कभी भी लिया जा सकता है। तोड़ भी दिया, तो पश्चात्ताप की व्यवस्था हो सकती है। प्रायश्चित्त कर | लेना; कुछ दान-पुण्य कर देना। जो चाहो, कर देना, लेकिन इसे मत छोड़ो। पाप सदा ही संकल्प की कमी से होते हैं, ध्यान रखना; संकल्प की कमी से । 149 मुल्ला नसरुद्दीन का बाप उसे समझा रहा है कोई दवा लेने को । अभी लड़का ही है वह। और बाप उससे कह रहा है कि यह दवा तुझे पीनी ही पड़ेगी। और देख, ध्यान रख, माना कि यह कड़वी है, लेकिन आदमी को संकल्पवान होना चाहिए। विल पावर होनी चाहिए आदमी में । जब मैं तेरी उम्र का था, तो कितनी ही कड़वी दवा हो, जब मैं एक दफा तय कर लेता था कि पीऊंगा, तो पीकर ही रहता था। नसरुद्दीन ने कहा, मैं भी संकल्प में आपसे पीछे नहीं हूं। जब मैं एक दफा तय कर लेता हूं कि नहीं पीऊंगा, तो नहीं ही पीता हूं ! संकल्प का अर्थ है, जो तय कर लिया, वह कर लिया। सब पाप - क्योंकि पापी से पापी व्यक्ति भी पाप करने का तय कभी नहीं करता, हालांकि पाप कर लेता है। यह खयाल में रखना आप । पापी से पापी व्यक्ति भी पाप करने का तय नहीं करता, तय | तो सदा पुण्य करने का ही करता है, लेकिन पाप कर लेता है। सब पाप संकल्प की कमी से पैदा होते हैं। संकल्प की कमी नर्क का द्वार है। सब पुण्य संकल्प की सामर्थ्य से पैदा होते हैं, इसलिए संकल्प स्वर्ग की कुंजी है। लेकिन मोक्ष न संकल्प से मिलता और न संकल्प की कमी से मिलता। संकल्प की कमी भी संकल्प की ही कमी है। वहां भी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 संकल्प मौजूद है, कमजोर, दीन-हीन, कुटा-पिटा, लेकिन मौजूद | | इटरनल है, शाश्वत है; वहां से कोई छूट नहीं सकता। है। मोक्ष मिलता है संकल्प के विसर्जन से, संकल्प के पूर्ण विसर्जन | ___बड रसेल ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि ईसाइयों की यह से, संकल्प के समर्पण से, सरेंडर से। | बात मुझे बहुत अनजस्टीफाइड मालूम होती है, बहुत न्यायपूर्ण नहीं तीन बातें। संकल्प हो पूरा, तो आदमी दक्षिणायण के पथ पर मालूम होती, अन्यायपूर्ण मालूम होती है। क्योंकि मैंने कितने ही विकसित हो जाता है। संकल्प न हो पूरा, तो आदमी प्रकृति के मार्ग | | पाप किए हों, लेकिन मेरे कितने ही पापों की कितनी ही बड़ी संख्या पर ही भटकता रहता है। अगर संकल्प बहुत कमजोर हो, तो हो, तो भी मुझे सदा के लिए नरक में डालना न्यायपूर्ण नहीं हो भटकता है, भटकता है, नर्क बना लेता है। संकल्प मजबूत हो, तो सकता। मैंने जितने पाप किए हैं, उस अनुपात में मुझे नरक में डाला स्वर्ग निर्मित कर लेता है। लेकिन स्वर्ग से भी वापसी है, नर्क से | जाना चाहिए। भी वापसी है। और रसेल ने कहा है कि मैंने जितने पाप किए, अगर उनको इसलिए कृष्ण कहते हैं, इस मार्ग को गया हुआ व्यक्ति भी अपने जोड़ लूं; और जो मैंने नहीं किए और सिर्फ सोचे, करना चाहता कर्मों के फल को भोगकर वापस लौट आता है। क्योंकि जगत के था, नहीं कर पाया, उनको भी जोड़ लूं और सबको प्रकट कर दूं, ये दो प्रकार, शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान की तो इस जमीन पर सख्त से सख्त कानून की व्यवस्था भी मुझे गति अर्थात मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक के द्वारा गया हुआ चार-पांच साल से ज्यादा की कैद नहीं दे सकती। पीछे न आने वाली गति को प्राप्त होता है; और दूसरे के द्वारा गया | | आदमी भला था। और वह ठीक कह रहा है। चार-पांच साल हुआ पीछे आता है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। | भी ज्यादा कह रहा है; इतनी भी सजा उसको नहीं दी जा सकती। संक्षिप्त में, एक है हमारे कर्मों की उपलब्धि, हमारे किए हुए का | | तो रसेल का कहना ठीक है कि जब मैं कहता हूं कि मेरे सारे पापों फल। बुरा होगा तो बुरा मिल जाएगा, भला होगा तो भला मिल | | का हिसाब लगा लिया जाए, जो मैंने किए; और जो मैंने सोचे, वे जाएगा, लेकिन है हमारे कर्मों का किया हुआ। जो हम कर्म से करते | | भी जोड़ लिए जाएं; तो भी सख्त से सख्त कानून मुझे पांच साल का हैं, वह चुक जाएगा। कठोर दंड दे सकता है। तो मुझे शाश्वत, सदा के लिए, इटरनली हमारा किया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता। कितनी ही बड़ी नरक में डालने वाली ईसाइयत अन्यायपूर्ण मालूम पड़ती है। . संपदा हो, चुक जाएगी। कितने ही बड़े पुण्य हों, खर्च हो जाएंगे, बर्टेड रसेल को कोई ईसाई जवाब नहीं दे सका, क्योंकि रसेल भोग लिए जाएंगे। कितना ही बड़ा सुख हो, रिक्त हो जाएगा। आदमी बहुत पुण्यात्मा था। अच्छे से अच्छे, भले से भले लोगों सागर भी बूंद-बूंद गिरकर रिक्त हो सकता है। क्योंकि सागर भी में एक था। जिनको हम शुभ और नैतिक से नैतिक व्यक्ति कहें, बूंद-बूंद गिरकर ही भरता है। कितना ही महापुण्य हो, कितना ही परम नैतिक, वैसा व्यक्ति था। तो ऐसे व्यक्ति को ईसाइयत जवाब दूर-दूर, वर्षों-वर्षों, जन्मों-जन्मों तक चलने वाला सुख हो, चुक न दे पाई। ही जाता है। और चुककर हम वापस रिक्त, दीन-हीन, वहीं खड़े। बात तो साफ दिखाई पड़ती है। हिटलर को भी अगर नर्क में हो जाते हैं, जहां से हमने एक दिन संकल्प करके उसे कमाया था। डालना हो, तो भी सदा के लिए डालना अन्यायपूर्ण मालूम पड़ेगा। कर्म शाश्वत को नहीं देते, कर्म नित्य को नहीं देते। कर्म जो भी देते | कितना ही पाप हो, आखिर एक अनुपात है, उस अनुपात में दंड हैं, वह क्षणिक है। वह क्षण कितना ही लंबा हो सकता है। | मिलना चाहिए। लेकिन ईसाइयत जवाब नहीं दे पाई, क्योंकि और एक मजे की बात है कि स्वर्ग कितना ही लंबा हो, क्षणिक | ईसाइयत को काल का जो रहस्य है, उसका स्पष्टीकरण नहीं है। से ज्यादा कभी नहीं होता। यह थोड़ा कठिन लगेगा। वही काल का । जब मैंने रसेल का यह वक्तव्य पढ़ा, तो रसेल मर चुका था। रहस्य फिर थोड़ा खयाल में लेना पड़ेगा। स्वर्ग कितना ही लंबा हो, | | जिंदा होता, तो मैं उससे कहना चाहता कि नर्क चाहे क्षणभर के लिए क्षण से ज्यादा नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि जितना ज्यादा सुख हो, | | मिले, इटरनल मालूम पड़ता है। चाहे क्षणभर के लिए कोई नर्क में उतना ही समय छोटा मालूम पड़ता है। जाए, तो ऐसा लगता है, अब इसका अंत कभी नहीं होगा। मैंने पीछे कहा आपको कि सुख ज्यादा हो, समय छोटा हो जाता। नरक शाश्वत नहीं है, लेकिन नरक की प्रतीति सभी को शाश्वत है। दुख ज्यादा हो, समय लंबा हो जाता है। ईसाई कहते हैं कि नर्क | जैसी मालूम पड़ती है। और स्वर्ग भी क्षणिक नहीं, लेकिन स्वर्ग की 150 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दक्षिणायण के जटिल भटकाव * प्रतीति सभी को क्षणिक जैसी मालूम पड़ती है। क्योंकि सुख समय को छोटा कर देता है, दुख समय को लंबा कर देता है। और नर्क का अर्थ है, परम दुख, तो समय बहुत लंबा हो जाएगा, ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ेंगे। और स्वर्ग का अर्थ है, परम सुख, समय | बिलकुल सिकुड़ जाएगा और क्षण में स्वर्ग बीत जाएगा। पर आदमी के किए हुए कर्म सभी चुक जाते हैं। क्या ऐसा भी कुछ है आदमी के जीवन में, जो उसके कर्म से नहीं मिलता? जो उसका किया हुआ नहीं है? अगर ऐसा कुछ है, तो आदमी उससे कभी वापस नहीं लौटेगा। इसलिए संकल्प के मार्ग से गया हुआ व्यक्ति वापस लौट आएगा, क्योंकि संकल्प है आदमी का कर्म। समर्पण के मार्ग से गया हुआ व्यक्ति कभी वापस नहीं लौटेगा, क्योंकि समर्पण के मार्ग पर जो घटना घटती है, वह व्यक्ति के कर्म का फल नहीं, व्यक्ति के समर्पण का फल है। और समर्पण कर्म नहीं है, समस्त कर्मों का विसर्जन है। असल में समर्पण से जो उपलब्ध होता है, वह प्रभु-प्रसाद है, वह ग्रेस है, वह अनुकंपा है। संकल्प से जो मिलता है, वह मेरी उपलब्धि है। समर्पण से जो मिलता है, वह मैं मिट जाता हूं, तब मिलता है; वह मेरी उपलब्धि नहीं है, वह मेरे खो जाने की उपलब्धि है। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएंगे, वे खो देंगे; और जो अपने को खो देते हैं, वे सदा के लिए अपने को बचा लेते हैं। आज इतना ही। लेकिन जाएंगे नहीं। इस चांद की रात में पांच मिनट हम कीर्तन करेंगे। और फिर जाएंगे। अपनी जगह पर बैठे रहें। उठकर आगे आने की कोशिश न करें। अब तो चांद में हम सब दिखाई भी पड़ने लगे हैं। थोड़ा उत्तरायण शुरू हुआ। थोड़े अपनी जगह बैठे रहें। हमारे संन्यासी तो खड़े होंगे, वे कीर्तन करेंगे। आप भी साथ दें। और फिर हम विदा होंगे। 151 Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 ग्यारहवां प्रवचन तत्वज्ञकर्मकांड के पार Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 * नैते सूती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।। २७ ।। वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् । अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।। २८ । । और हे पार्थ, इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआ, कोई भी योगी मोहित नहीं होता है। इस कारण है अर्जुन, तू सब काल में योग से युक्त हो अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो । क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकर, वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है, उस सब को निस्संदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है। Я भु की खोज में, परम सत्य की खोज में दो मार्गों की बात हमने समझी। उस संबंध में दो-तीन बातें और भी खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। और तब आसान होगा आज के इस अक्षर ब्रह्म योग अध्याय के अंतिम दो सूत्रों को समझने में इधर सिग्मंड फ्रायड ने विगत आधी सदी में शायद गहनतम प्रभाव आदमी के मस्तिष्क पर छोड़ा है। सिग्मंड फ्रायड इधर तीन सौ वर्षों में तीन बड़े नामों में से एक है। एक व्यक्ति है गैलीलियो, दूसरा व्यक्ति है चार्ल्स डार्विन और तीसरा व्यक्ति है सिग्मंड फ्रायड । इन तीन व्यक्तियों ने मनुष्य की चेतना और मनुष्य के जीवन को आमूल बदलने की दृष्टि दी है। सिग्मंड फ्रायड की जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज है, वह खोज है, डिस्कवरी आफ दि अनकांशस, आदमी के भीतर जो अचेतन है, उसकी खोज । आदमी का मन, जैसा हम जानते हैं उसे, वह केवल ऊपर की पर्त है, चेतन मन, कांशस माइंड है। उससे गहरी पर्त, उससे नीचे दबा हुआ मन, जो कि ज्यादा महत्वपूर्ण, ज्यादा प्रभावशाली और जड़ों में छिपा है, और जिससे हम चालित होते हैं। जीवनभर, जिससे हम चलते, उठते बैठते और काम करते हैं, वह गहरा मन अनकांशस है, अचेतन है । फ्रायड ने उस अचेतन के महाद्वीप को खोजा है। यह खोज बड़ी आकस्मिक थी । फ्रायड ऐसे तो खोज कर रहा था काम - विकारों के संबंध में, सेक्स परवरशंस के संबंध में आदमी के चित्त में जितनी विक्षिप्तताएं पैदा होती हैं, उनमें से कोई नब्बे प्रतिशत उसकी कामवासना की विकृतियां हैं। तो फ्रायड तो चिकित्सक की भांति, आदमी के काम-विकार क्यों पैदा होते हैं, | इसकी खोज में लगा था। इस खोज में उतरते-उतरते अचानक ही उसे मनुष्य के मन के नीचे छिपे हुए मन का पता चला। वह मन इस मन से बहुत बड़ा है, जिसे हम समझते हैं, मैं हूं। जैसे कि हम एक बर्फ की चट्टान पानी में डाल दें, तो नौ हिस्सा चट्टान नीचे डूब जाती है, एक हिस्सा ऊपर रहती है। फ्रायड ने अनुभव किया कि जिस मन को हम अपना सब कुछ समझकर बैठे हुए हैं, वह एक हिस्सा है, और नौ हिस्सा हमारा असली मन नीचे अंधेरे में डूबा हुआ है। फ्रायड के शिष्य और बाद में फ्रायड से अलग और विरोध में हो गए कार्ल गुस्ताव जुंग ने इस अनकांशस, इस अचेतन मन की और भी गहरी खोज की। और उसे पता चला कि अचेतन के नीचे और भी गहरा अचेतन छिपा है, जिसे उसने कलेक्टिव अनकांशस, | समूह - अचेतन का नाम दिया। उसने कहा कि व्यक्ति के मन के नीचे एक मन है, जो अचेतन है । अचेतन के नीचे भी और गहरा मन मालूम पड़ता है, जो कि समूह अचेतन है । सबका अचेतन जुड़ा हुआ है। 154 यह मैं इसलिए कह रहा हूं, ताकि आपको दक्षिणायण की पूरी की पूरी धारणा वैज्ञानिक रूप से समझ में आ जाए। फ्रायड और जुंग जो काम किए हैं, वह दक्षिणायण के पथ पर है। अगर हम मनुष्य के अचेतन में प्रवेश करेंगे, तो हम नीचे उतरते जाते हैं। लेकिन मनुष्य के अचेतन की भांति ही मनुष्य का अति-चेतन, सुपर-कांशस माइंड भी है। यदि हम ऊपर की तरफ यात्रा करें, तो सुपर-कांशस, अति- चेतन मन की यात्रा शुरू होती है। अब हम ऐसा समझ लें कि जिस मन से हम परिचित हैं, वह मन है चेतन; उससे नीचे उतरें, तो अचेतन; और भी नीचे उतरें, तो समूह - अचेतन। ऊपर बढ़ें, तो अति- चेतन; और ऊपर बढ़ें, तो ब्रह्म-चेतन । उत्तरायण का पथ अभी भी वैज्ञानिक रूप से आविष्कृत नहीं हुआ है। दक्षिणायण का पथ वैज्ञानिक रूप से भी आविष्कृत हो गया है । और अगर दक्षिणायण का पथ ही आविष्कृत रहा, तो " Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार पश्चिम अपना आत्मघात कर लेगा। क्योंकि नीचे उतरने का पता | | परिणाम नहीं है। पश्चिम की नैतिक गिरावट का मूल कारण है, चल जाए और ऊपर चढ़ने का पता न हो और ऐसा अनुभव में आने | | पश्चिम ने दक्षिणायण, नीचे की तरफ उतरने वाली पद्धति और मार्ग लगे कि नीचे उतरना ही स्वाभाविक है, तो मनुष्य जाति की सारी | | को तो खोज लिया है; और ऊपर की तरफ जाने वाली पद्धति को संभावनाएं विलुप्त हो जाएंगी। खोजने की पहली किरण भी पश्चिम में अभी नहीं उतरी है। पश्चिम में आज जो हमें नैतिक ह्रास और आध्यात्मिक पतन लेकिन पश्चिम के विचारशील मनुष्यों को संदेह पैदा हो गया दिखाई पड़ता है, उसका वास्तविक कारण पश्चिम का भौतिकवाद है। यदि मन के नीचे पर्ते हो सकती हैं, तो मन के ऊपर भी पर्ते हो नहीं है, मैटीरियलिज्म नहीं है। वस्तुतः तो जब कोई समाज बहुत | सकती हैं। कल तक, केवल साठ-सत्तर वर्ष पहले तक पश्चिम का भौतिक हो जाता है, तो वहां आध्यात्मिक जागृति शुरू होती है। | कोई विचारक मानने को राजी नहीं था कि जो मन हम जानते हैं; क्योंकि जैसे ही भौतिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, उन सुविधाओं | इसके अलावा भी कोई मन हो सकता है। लेकिन नीचे उतरकर की व्यर्थता भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। जैसे ही धन मिलता | पश्चिम को अनुभव में आया है कि बहुत अंधेरी पर्ते मनुष्य की हैं, है, धन की सार्थकता खो जाती है। और जैसे ही हम सब कुछ पा | वे भी हैं। और वे ज्यादा शक्तिशाली हैं और मनुष्य की गर्दन उनके लेते हैं वस्तुओं के जगत में, वैसे ही पता चलता है कि आत्मा | हाथों में है। अगर इतना ही अनुभव हमारा रहा...। वस्तुओं से घिर गई है, लेकिन आत्मा बिलकुल खाली, रिक्त और __ और पश्चिम का विचार पूरब पर भी छाता चला जा रहा है। अर्थहीन हो गई है। भौतिकवाद तो अध्यात्म के लिए बड़ी गहरी | | आज पूरब का विचारशील, शिक्षित, सुसंस्कृत व्यक्ति भी पूरब का स्फुरणा बन जाती है। मनुष्य नहीं है। वह भी पश्चिम की पैदावार है, वह भी पश्चिम की इसलिए जब भी कोई समाज भौतिक रूप से समृद्ध होता है, तो | | ही बाइप्रोडक्ट है। पूरब के विश्वविद्यालय, पूरब के शिक्षाशास्त्री उसका अंतिम शिखर आध्यात्मिक होता है। गरीब समाज | | पूरब के संबंध में शायद ही कुछ जानते हैं। वे जो भी जानते हैं, सब आध्यात्मिक होने में बड़ी कठिनाई अनुभव करता है। क्योंकि गरीब | पश्चिम से आया हुआ, निर्यात किया हुआ है। और वह भी सेकेंड को अनासक्त होना अति कठिन मालूम पड़ता है। जिसके पास हैंड, वह भी बासा। क्योंकि पश्चिम में जो बीस-तीस साल पुराना छोड़ने को कुछ नहीं है, निश्चित ही उसे छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है—उसके पूरब में आते-आते इतना वक्त लग जाता मालूम पड़ता है। और जिसके पास है ही नहीं, उसकी अनासक्ति है-जब वह वहां आउट आफ डेट हो जाता है, फिंक जाता है का कोई बहुतं मूल्य भी नहीं मालूम होता। और जिसके पास कुछ कचरे में, तब यहां के विश्वविद्यालय उसे अपनी टेक्स्ट बुक्स में भी नहीं है, उसकी अनासक्ति बहुत गहरे में संतोष होती है, रखना शुरू करते हैं। कंसोलेशन होती है। लेकिन जिसके पास है, उसकी अनासक्ति | यह स्वाभाविक है। जो भी लोग उधार जीते हैं, उन्हें इतना पीछे केवल संतोष और कंसोलेशन, सांत्वना नहीं होती; उसकी | | जीना ही पड़ेगा। पश्चिम की टेबल से जो भोजन नीचे गिरा दिए अनासक्ति एक आंतरिक उपलब्धि होती है। जाते हैं, वे पूरब के भिक्षापात्र में गिर जाते हैं। पश्चिम जिन बातों इसका यह अर्थ नहीं है कि गरीब आदमी अध्यात्म को उपलब्ध को व्यर्थ मानकर छोड़ देता है, जब तक वह व्यर्थ मान पाता है, तब नहीं हो सकता। गरीब व्यक्ति तो उपलब्ध हो सकता है, गरीब तक हम उनको समझकर सार्थक मानने की स्थिति में आ पाते हैं। समाज उपलब्ध नहीं हो पाता। गरीब व्यक्ति, व्यक्तिगत बात है। । पश्चिम के फ्रायड और जुंग की खोजों ने मनुष्य के नीचे उतरने लेकिन यह गरीब व्यक्ति भी अपने अन्य जन्मों में धन को जाना हो, की सीढियां तो बहत साफ कर दी. लेकिन बहत खतरनाक स्थिति तो ही इस जन्म में धन से मुक्त हो सकता है। हम जो जान लेते हैं, हो गई है। इस नीचे के मन को जानकर ऐसा लगना शरू हआ उसी से मुक्त होते हैं। ज्ञान के अतिरिक्त मुक्ति का कोई भी उपाय | पश्चिम के मनसविद को कि आदमी का नीचे उतरना बिलकुल ही नहीं है। | स्वाभाविक है और आदमी के चेतन मन की कोई भी सामर्थ्य नहीं लेकिन धनी समाज पूरा का पूरा धन से, वस्तुओं से, पदार्थ से | | है। अचेतन शक्तिशाली है और अचेतन के हाथों में जीना ही स्वस्थ गहरी विरक्ति से भर जाता है। | होने का उपाय है। और जो व्यक्ति अपने अचेतन से लड़ेगा, वह पश्चिम का पतन, पश्चिम की नैतिक गिरावट, भौतिकवाद का विक्षिप्त होगा, परवर्ट होगा, विकृत होगा, रुग्ण हो जाएगा। | 155] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 जाती है। मैंने सुना है कि एक मानसिक बीमार था। उसे एक आदत थी, का-स्वाभाविक रूप से हुआ घातक फल है। अधूरी खोज सदा एक आब्सेशन था कि जब भी वह किसी शराबघर में या चायघर ही घातक होती है। आधा ज्ञान सदा ही खतरनाक सिद्ध होता है। में या काफीघर में जाता, तो आधा गिलास तो पी लेता, और आधा | आधा ज्ञान कभी-कभी तो आत्मघाती होता है। गिलास दुकान के मालिक के ऊपर उंडेल देता। अनेक लोगों ने उसे कृष्ण ने दोनों मार्गों की सीधी बात की है। ऊपर का मार्ग साफ सलाह दी। और फिर वह क्षमा मांगता और कहता कि मेरी मजबूरी न हो, तो अच्छा है कि नीचे के मार्ग से हम परिचित ही न हों। ऊपर है; मैं कर नहीं पाता कुछ और। यह मुझे करना ही पड़ता है। यह | का मार्ग स्पष्ट हो जाए, तो नीचे के मार्ग की कठिनाई समाप्त हो मेरे भीतर से कोई करवा लेता है। • एक दुकान में उसने यही किया, शराबघर में, आधा गिलास तो कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ, इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्व मालिक के ऊपर उंडेला। तो मालिक नाराज हुआ और उस मालिक | से जानता हुआ, कोई भी योगी मोहित नहीं होता है। ने कहा, अच्छा हो कि तुम किसी मनसविद की सलाह लो, किसी | इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआ, कोई भी योगी मोहित साइकोएनालिस्ट, किसी मनोविश्लेषक के पास जाओ। यह तो नहीं होता है। जिस व्यक्ति ने, जिस साधक ने इन दोनों तत्वों को, बड़ी खतरनाक बात है! इन दोनों मार्गों को उनकी आंतरिक गहनता में स्पष्ट रूप से जान छः महीने बाद वह आदमी दुबारा आया। बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ | लिया, पहचान लिया, अनुभव कर लिया, वह मोहित नहीं होता है। रहा था। आकर उसने फिर एक गिलास में शराब ली। आधी पी यह मोहित होने की बात को थोड़ा खयाल में ले लें। इस मोहित और आधी बड़े आनंद से फिर मालिक के ऊपर उंडेली। मालिक ने | होने का क्या अर्थ होगा? जिसने इन दोनों मार्गों को जान लिया, वह कहा, हद्द हो गई। मैंने तो सुना था कि तुमने मनोविश्लेषक के पास | मोहित नहीं होता है। जो एक को जानेगा, वह मोहित हो सकता है। जाना शुरू कर दिया। और छः महीने से तुम इलाज करवा रहे हो! | मोह का मैकेनिज्म, मोह की जो यांत्रिक प्रक्रिया है, वह खयाल __ उस आदमी ने कहा कि निश्चित ही छः महीने से मैं इलाज करवा में ले लें। रहा हूं और मुझे बड़ा फायदा हुआ है। उस दुकानदार ने कहा, मोहित हम सदा विपरीत से होते हैं। मोहित हम सदा विपरीत से फायदा कोई दिखाई नहीं पड़ता। फिर तुमने वही काम किया। उसने होते हैं—दि अपोजिट इज़ आलवेज दि अट्रैक्शन। और हर आदमी कहा, वही काम किया, लेकिन अब मैं पश्चात्ताप जरा भी नहीं जिससे मोहित होता है, वह उसके विपरीत होता है। यह विपरीत करता हूं। नाउ आई डोंट फील गिल्टी। क्योंकि मनसविद ने मुझे | का नियम जीवन के समस्त पहलुओं पर लागू होता है। पुरुष स्त्रियों समझा दिया है कि यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह होगा ही। इसे | में आकर्षित होते हैं, उनकी विपरीतता के कारण। स्त्रियां पुरुषों में तुम नार्मल समझो। इसमें कुछ एबनार्मल नहीं है। अब मुझे आकर्षित होती हैं, उनकी विपरीतता के कारण। पश्चात्ताप नहीं होता है। आप हैरान होंगे यह जानकर कि आप जो कुछ भी जीवन में पश्चिम की पूरी की पूरी विकृति का कारण यह है कि पश्चिम में | पसंद करते हैं; जिसको आप कहते हैं, मैं बहुत पसंद करता मनसविद ने यह समझा दिया है लोगों को कि तुम जो भी कर रहे हूं-आपको खयाल में ही न होगा-वह आपसे विपरीत चीज है। हो-अगर तुम होमोसेक्सुअल हो, अगर तुम समलिंगी-काम से इसलिए जिसको आप पसंद करते हैं, अगर उससे दूर रहें, तो पीड़ित हो, अगर तुम हर रोज अपनी पत्नी को बदलना चाहते हो, पसंदगी जारी रह सकती है। जिसे आप पसंद करते हैं, अगर उसके अगर तुम पत्नी के साथ उलटे-सीधे कामवासना के प्रयोग करना ही साथ रहने लगें, तो कलह अनिवार्य है। क्योंकि जो विपरीत है, चाहते हो तो यह सब स्वाभाविक है, क्योंकि यह मनुष्य के | उससे आप आकर्षित हो सकते हैं, लेकिन साथ नहीं रह सकते। अचेतन में छिपा पड़ा है। यह होगा ही। और अगर तमने यह नहीं क्योंकि साथ रहने पर विपरीत से कलह होनी शुरू हो जाएगी। जो किया, तो तुम रुग्ण हो जाओगे। यह तुम्हें करना ही चाहिए, तो ही विपरीत है, उससे संघर्ष होगा ही। तुम सामान्य, स्वस्थ रह पाओगे। ___ यह बड़े मजे की बात है। यह आदमी के मन का बहुत पश्चिम में जो सारा उपद्रव का जाल फैला है, वह भौतिकवाद | पैराडाक्सिकल हिसाब है कि विपरीत से आकर्षित होते हैं, लेकिन का परिणाम नहीं, पश्चिम में फ्रायड की खोज का-अधूरी खोज | विपरीत के साथ रह नहीं सकते। आकर्षण दूर पर होता है, पास 156| Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वज्ञ - कर्मकांड के पार * आने पर संघर्ष शुरू हो जाता है। वस्तुतः हमें जो आकर्षित करता | है, बहुत गहरे में हम उससे भयभीत हो जाते हैं। और जो हमें आकर्षित करता है, बहुत गहरे में हमें वह शत्रु भी मालूम पड़ता है। क्योंकि हम उसके गुलाम हो जाते हैं, और उसका आकर्षण हमारे ऊपर पजेशन, मालकियत बन जाता है। लेकिन सभी मोह, सभी अटैचमेंट, विपरीत से, अपोजिट से होता है। ठीक अपने समान व्यक्ति को आप प्रेम नहीं कर सकते। समान एक-दूसरे को रिपेल करते हैं। जैसे कि चुंबक, ऋण और धन एक-दूसरे को खींचते हैं। धन और धन को अगर पास लाएं, तो एक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। ऋण और ऋण, एक-दूसरे को खींचते नहीं हैं। खिंचावट के लिए ऋण और धन चाहिए । निगेटिव और पाजिटिव पोल एक-दूसरे को खींचते हैं। समानजातीय, समानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे को खींचते नहीं । इसलिए बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही समय में हों, लेकिन एक-दूसरे के पास बिलकुल नहीं आते। पोलेरिटी नहीं है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है कि समानधर्मा व्यक्ति एक-दूसरे से फासले पर ही बने रहते हैं। विपरीत आकर्षित हो जाते हैं और निकट आ जाते हैं। विपरीत ही आकर्षण का सूत्र है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता है! तत्व से जानने का अर्थ है, वन हू हैज एक्सपीरिएंस्ड; जिसने अनुभव से जाना, वही तत्व से जानता है । और जिसने अनुभव से नहीं जाना, वह केवल सिद्धांत से जानता है, तत्व से नहीं। तो सिद्धांत से तो कोई भी पढ़कर जान सकता है। लेकिन वह ज्ञान तत्व-ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान नालेज नहीं है, एक्वेनटेंस है। । बट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो विभाजन किए हैं। एक को कहा है। नालेज, ज्ञान; और एक को कहा है एक्वेनटेंस, परिचय। तो जो हम सिद्धांत से जानते हैं, वह परिचय मात्र है, मियर एक्वेनटेंस । वह ज्ञान नहीं है। जिसको रसेल ने ज्ञान कहा है, उसी को कृष्ण तत्व से जानना कहते हैं। ए थिंग इन इट्स एलिमेंट, उसकी जो गहरी से गहरी तात्विकता है, उसकी जो गहरी से गहरी बुनियाद है, उसमें ही जानना । अनुभव के अतिरिक्त बुनियाद में जानने का कोई उपाय नहीं है। जो व्यक्ति इन दोनों मार्गों को अनुभव से जानता है, वह मोहित नहीं होता। क्योंकि जो दोनों को जान लेता है, उसके लिए विपरीत का आकर्षण विलीन हो जाता है। इसे ऐसा समझें, जो व्यक्ति दक्षिणायण के मार्ग पर चलेगा, वह चलता रहे दक्षिणायण के मार्ग पर, लेकिन उसके चित्त में निरंतर ही आकर्षण उत्तरायण की तरफ बना रहेगा; विपरीत खींचता रहेगा। जो व्यक्ति उत्तरायण की तरफ चलेगा सीधा, बिना दक्षिणायण के अनुभव के, उस व्यक्ति को दक्षिणायण का मार्ग निरंतर ही आकर्षित करता रहेगा, बुलाता रहेगा, पुकारता रहेगा, बाधा बन रहेगा। और सदा मार्ग में ऐसी अड़चनें आ जाएंगी, जब वह आदमी कभी उत्तरायण की तरफ, कभी दक्षिणायण की तरफ डोलने लगेगा। और जो व्यक्ति विपरीत की तरफ डांवाडोल होता रहे, वह अग्रसर नहीं हो पाता है। 157 इन दोनों मार्गों को जो उनके तत्व में जान लेता है, वह फिर मोहित नहीं होता है। वह इन दोनों मार्गों में ही मोहित नहीं होता है, ऐसा नहीं, वह समस्त विपरीतता के चक्कर से मुक्त हो जाता है। संसार से मुक्त होने का गहनतम जो अर्थ है, वह है, मुक्त हो जाना संसार की विपरीतता के नियम से, दि ला आफ दि अपोजिट । वह जो विपरीत खींचता है... । इसलिए योगी स्त्री को छोड़कर इसलिए नहीं जाता कि वह स्त्री है। या योगी स्त्री के साथ रहकर भी स्त्री को इसलिए नहीं छोड़ देता है कि वह स्त्री है। या अगर योगिनी है, तो पुरुष को छोड़कर इसलिए नहीं जाती, या पुरुष के साथ रहकर भी पुरुष का आकर्षण इसलिए नहीं छोड़ देती कि वह पुरुष है, बल्कि इसलिए कि वह अपोजिट है, वह विपरीत है। | और विपरीत से मुक्त हुए बिना कोई भी व्यक्ति शांत नहीं हो | सकता। मोह से मुक्त हुए बिना, निर्मोह हुए बिना कोई भी व्यक्ति शांत नहीं हो सकता। क्योंकि वह दूसरा खींचता ही रहेगा। और जब आप एक तरफ होते हैं, तब दूसरा आपको खींचता है; जब आप दूसरी तरफ जाते हैं, तब जिससे आप हट गए हैं, वह आपको पुनः खींचने लगता है। पूरा जीवन इसी तरह घड़ी के पेंडुलम की तरह दो अतियों के बीच में डांवाडोल होता है। जिसे छोड़ देते हैं, वह फिर आकर्षक हो जाता है, फिर पुकारने लगता है, फिर बुलाने लगता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक दंपतियों को सलाह देते हैं कि अगर पत्नी से न बन रही हो ठीक, या पति से ठीक न बन रही हो, तो थोड़ी देर के लिए दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ प्रेम के अस्थायी संबंध निर्मित कर लेने चाहिए। बड़ी हैरानी की बात है। क्योंकि कोई स्त्री यह नहीं सोच सकती कि उसका पति, जब उससे नहीं बन रही है, अगर किसी और स्त्री Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 के थोड़े-बहुत दिन के प्रेम में पड़ जाए, तो इससे कुछ लाभ होगा। इससे तो बात बिलकुल टूट जाएगी। लेकिन पश्चिम का मनोवैज्ञानिक ठीक कहता है। वह कहता है, दूसरी स्त्री से थोड़े दिन संबंध बनाकर वह फिर अपनी स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाता है; अतियों में डोल जाता है। इसलिए पश्चिम में एक बहुत ही अजीब-सी घटना चल रही है, और वह यह है कि स्त्रियों की बदलाहट करनी - स्वोपिंग क्लब्स, जहां मित्र अपनी पत्नियों को बदलने का गुप्त प्रयोग करते रहते हैं। और हैरानी की बात है कि जिन पति-पत्नी के बीच नहीं बनता था, उनके बीच फिर से बनाव आ सकता है। असल में जिससे हम दूर हटते हैं, उसके प्रति हम फिर आकर्षित होने लगते हैं। दूर हटना, पास आने की तरकीब है; पास आना, दूर जाने की व्यवस्था है। हर चीज ऐसे ही खींचती रहती है। आज अमेरिका में करोड़पति परिवारों के बच्चे भिखमंगों की भांति सड़कों पर घूमने सारी दुनिया में निकल पड़े हैं। गरीबी भी अब आकर्षण बन गई है। अमीरी बहुत है, तो गरीबी पुकारती है। विपरीत फिर खींचने लगता है। तो जिसे परम मुक्ति चाहिए, उसे विपरीत से मुक्त होना पड़ेगा। ये दो विपरीत मार्ग मनुष्य के भीतर हैं। यदि इनको तत्व से कोई जान ले, तो इन दोनों का आकर्षण खो जाता है। और जब दोनों का ही आकर्षण खो जाता है, जब दोनों ही नहीं पुकारते, जब दोनों ही नहीं बुलाते, जब दोनों की विपरीतता मिट जाती है, और दोनों ही एक सिक्के के पहलू मालूम पड़ने लगते हैं— उसी क्षण व्यक्ति परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है; उसी क्षण। उस क्षण के बाद उसके लिए संसार में कोई भी अर्थ नहीं है। उसके बाद उसके लिए मोह, वासना और तृष्णा का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, तत्व से जानता हुआ कोई भी योगी फिर मोहित नहीं होता है। इस कारण हे अर्जुन, तू सब काल में योग-युक्त हो । सब काल में, सब समय में, हर स्थिति में योग-युक्त हो। यहां योग-युक्त का अर्थ दोनों अतियों के बीच मध्य में थिर हो जाना है; दो अतियों के बीच मध्य में थिर हो जाना है, निर्मोह हो जाना है। जो करते हैं आकर्षण के बिंदु बहुत आसान है एक से दूसरे पर हट जाना। एक आदमी बहुत भोजन करता है, उसे उपवास आकर्षित करने लगता है । इसलिए उपवास जहां-जहां करवाया जाता है, वहां अक्सर ज्यादा भोजन करने वाले पेटू लोग चिकित्सा के लिए इकट्ठे होते हैं। आपके उरली कांचन में आप सदा पाएंगे, वे ही लोग वहां चिकित्सा के लिए आएंगे, जो ज्यादा खा गए हैं, ओवर फेड ! यह बड़े मजे की बात है कि जो भी समाज धनी होता है, वह | ज्यादा खाने लगता है, तो उस समाज में उपवास सहज बन जाता है। हिंदुस्तान में जैनों के समाज में उपवास भारी चीज है। और | उसका कुल कारण यह नहीं कि उपवास भारी चीज है; उसका कुल कारण यह है कि हिंदुस्तान में ओवर फेड, ज्यादा खाने वाला समाज जैनों का है। जहां भी ज्यादा भोजन होगा, वहां उपवास आकर्षित करने लगेगा। यह बड़े मजे की बात है कि गरीब समाज का जब धार्मिक दिन आएगा, तो उस दिन वे अच्छा भोजन बनाएंगे। और अमीर समाज | का जब धार्मिक दिन आएगा, तो उस दिन वे उपवास करेंगे, दि | अपोजिट ! अगर गरीब आदमी का धार्मिक दिन आएगा, मुसलमान का अगर धार्मिक दिन आएगा, तो वह नए, ताजे और रंगीन कपड़े | पहनकर सड़क पर निकलेगा। और अगर अमीर धार्मिक का धर्म का दिन आ जाए, तो वह सादगी वरण करेगा, उस दिन वह सादा होगा। वह जो विपरीत है, वह हमारे मन में जगह बना लेता है। वह जो | विपरीत है, वह हमें खींचता रहता है। इसलिए ज्यादा खाने वाला उपवास में उत्सुक हो जाएगा। ज्यादा पहनने वाला नग्न होने की भी तैयारी दिखा सकता है। लेकिन विपरीत पर चले जाने से अंत नहीं होता। विपरीत पर जो गया है, वह मोह के ही बंधन में गया है। इसलिए उलटे को मत चुनना । उलटे का चुनाव खतरनाक है। अगर चुनना ही हो, तो दोनों के मध्य को चुनना । दि एग्जेक्ट मिडिल इज़ दि प्वाइंट आफ फ्रीडम | दो अतियों के बीच जो बिलकुल ठीक मध्य है, वही मुक्त होने की जगह है। अगर बहुत भोजन करते हों, तो उपवास को मत चुनना, सम्यक भोजन को चुनना; बीच में रुक जाना। वह कठिन होगा। उपवास आसान पड़ेगा, क्योंकि अति आसान है सदा। अगर क्रोधी आदमी है, तो क्षमावान बनना आसान है, अक्रोधी होना मुश्किल है। दूसरी तरफ जाना सदा आसान है। क्योंकि हम एक तरफ अति पर आकर मोमेंटम इकट्ठा कर लेते हैं। फिर पेंडुलम को छोड़ दो, वह अपने आप दूसरी तरफ चला जाता है। बीच में रुकना बहुत कठिन है। योग-युक्त होने का अर्थ है, जो व्यक्ति सदा अतियों के बीच में | खड़ा हो जाता है, वही योगी है। उसने ही जाना वह बिंदु, जहां से 158 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार ४ मुक्ति का आयाम शुरू होता है। बेबूझ हैं, बहुत रहस्यमय हैं। गणित की तरह साफ-सुथरे नहीं हैं, कृष्ण कहते हैं, इस कारण हे अर्जुन, तू सब काल में योग-युक्त | | काव्य की तरह रहस्यमय हैं। तर्क की तरह कटे-बंटे नहीं हैं, प्रेम हो और सदा ही मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो। की तरह बहुत रहस्यपूर्ण हैं। दोनों हैं एक साथ। और दोनों नहीं हैं। यह बिंदु भी थोड़ा-सा कठिन है। हम सदा ही परमात्मा को योग-युक्त होने का यही अर्थ है। संसार के विपरीत रखते हैं। हम सदा ही मोक्ष को संसार के विपरीत इसलिए हम कृष्ण को महायोगी कह सके। महायोगी कहने का रखते हैं। हम सदा यही सोचते हैं कि संसार को छोड़ना है और | कारण है, और वह कारण यह है कि कृष्ण शायद पहले व्यक्ति हैं, परमात्मा को पाना है। हमारे मन में परमात्मा भी एक अपोजिट है, | | जिन्होंने दोनों अतियों के बीच में-ठीक बीच में खड़े होने की एक विपरीतता है, संसार के विपरीत। जो संसार से ऊब गया, वह | | व्यवस्था दी है। अगर हम ठीक बीच में भी खड़े हों, तो थोड़ा-सा हता है, अब तो मुझे परमात्मा को पाना है। संसार के विपरीत हम मन डांवाडोल होता है। अगर हम बीच में भी खड़े हों, तो हम परमात्मा के वैपरीत्य को खडा करते हैं. एक पोलर अपोजिट की इसीलिए खड़े होना चाहते हैं कि संसार से कैसे मुक्त हो जाएं। तरह। एक आदमी कहता है, अब धन तो बहुत कर लिया, अब | अगर संसार से कैसे मुक्त हो जाएं, यही भीतर लगा हुआ है, तो धर्म करना है। आप थोड़े-से झुके हुए खड़े होंगे, बीच में खड़े नहीं हो सकते हैं। लेकिन परमात्मा विपरीत नहीं है। और जिसका परमात्मा संसार | 1/ मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की दो पत्नियां थीं। और निश्चित के विपरीत है, उसका परमात्मा सांसारिक ही होगा। और जिसका | | ही, दो पत्नियां जिसकी होती हैं, वह जानता है कि उसकी क्या परमात्मा संसार से उलटा है, उसका परमात्मा संसार के बाहर नहीं | मुसीबत हो सकती है! एक पत्नी में आप हजार का गुणा कर लें, है, विदिन दि पोलर अपोजिट; वह जो विपरीत है, उसके भीतर ही | | दो का नहीं। क्योंकि जब दो पत्नियां होती हैं, तो जोड़ नहीं होता, है। वह भी संसार की एक अति है। | गुणनफल होता है। बड़ी मुसीबत में था और निरंतर यह विवाद था; - इसलिए कृष्ण का जीवन बहुत अदभुत है। कृष्ण का जीवन उन दोनों पत्नियां आमने-सामने पूछ लेती थीं उससे, कि बोलो, हम थोड़े-से जीवन में से एक है, जो संसार के विरोध में नहीं हैं। कृष्ण दोनों में सुंदर कौन है? मुल्ला नसरुद्दीन कहता था, तुम दोनों का जीवन विरागी का जीवन नहीं है, और कृष्ण का जीवन रागी का एक-दूसरे से ज्यादा सुंदर हो! जीवन भी नहीं है। और कृष्ण वहीं खड़े हैं, जहां सब रागी खड़े रहते लेकिन पत्नियों को शक था कि वह किसी की तरफ ज्यादा झुका । हैं। और कृष्ण ऐसे खड़े हैं, जैसे विरागी खड़े रहते हैं। कृष्ण का हुआ होगा ही। दो स्त्रियां मान ही नहीं सकतीं कि उनके बीच में कोई जीवन, दो विपरीत के बीच मध्य की खोज है। इतना मध्यस्थ | | पुरुष खड़ा हो, तो वह जरा-सा कहीं ज्यादा झुका हुआ नहीं होगा। व्यक्ति पृथ्वी पर शायद ठीक दूसरा नहीं हुआ। और ऐसे सौ में निन्यानबे मौके पर यह बात सच भी है। उनका शक हम तो आमतौर से कहेंगे कि अगर कृष्ण शांतिवादी हैं, तो युद्ध काफी दूर तक सही है। हम बीच में खड़े हो ही नहीं सकते। में कदम नहीं रखना चाहिए। और अगर युद्धवादी हैं, तो फिर | । पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तो उसने कहा कि जिंदगी में जो हुआ परमात्मा और दिव्यता और ब्रह्म, इनकी बात नहीं करनी चाहिए। | हुआ, लेकिन एक बात का वायदा कर दो कि मरने के बाद दोनों दो में से कुछ एक साफ चुन लो। पलियों की तम कब बनाना और अपनी कब बिलकल ठीक बीच हम तो कहते हैं, अगर कृष्ण कहते हैं, अनासक्ति ही जीवन का | | में बनाना, जस्ट राइट इन दि मिडिल। क्योंकि जिंदगी में जो हुआ सूत्र है, तो यह गोपियों के बीच नृत्य इनकंसिस्टेंट है, असंगत है। हुआ; लेकिन मरने के बाद कयामत तक मैं कब्र में परेशान नहीं यह नहीं चलना चाहिए। यह बंद होना चाहिए। और अगर यह | | होना चाहती कि तुम जरा उस तरफ झुके हुए हो। बिलकुल ठीक गोपियों के बीच नृत्य ही चलना है और यह बांसुरी ही बजनी है, ज्यामिति के हिसाब से, गणित के हिसाब से साफ कर लेना। और यह मोर-मुकुट बांधकर नाचना ही है, तो फिर अनासक्ति और | नसरुद्दीन ने वायदा किया। योग और समाधि और ब्रह्म, इसकी चर्चा बंद कर देनी चाहिए। दो दूसरी पत्नी का भी आग्रह यही था। कभी नसरुद्दीन ने बताया में से कुछ साफ चुन लो। | नहीं। पहली पत्नी का नाम था फातिमा, दूसरी पत्नी का नाम था और कृष्ण कहते हैं, हम चुनेंगे ही नहीं। इसलिए कृष्ण बहुत | सुल्ताना। उसका मन सदा दूसरी की तरफ थोड़ा झुका हुआ था, 159 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 लेकिन यह कहने की हिम्मत उसे कभी जुटी नहीं। विरोध नहीं है। मोक्ष केवल चुनाव का विरोध है। चुनाव ही मत दोनों मर गईं, तो नसरुद्दीन ने अपने कब्र बनाने वाले को कहा | | करें। और जिस क्षण भी आप चुनाव-शून्य हैं, च्वाइसलेस हैं, उसी कि बिलकुल ठीक बीच में बनाना मेरी कब्र, लेकिन जरा-सी झुकी क्षण वह परम घटना घट जाती है, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। हुई सुल्ताना की तरफ; जरा-सी, जस्ट ए बिट लीनिंग टुवर्ड्स ___ क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जानकर, वेदों के पढ़ने सुल्ताना। बनाना बीच में, लेकिन जरा तिरछी बनाना, झुकी हुई! | में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्य फल कहा है, लेकिन कब्र बनाने वाले ने कहा कि तुम्हारी दोनों पत्नियों की | | उस सबको निस्संदेह उल्लंघन कर जाते हैं और सनातन परम पद वसीयत में लिखा हआ है. ठीक बीच में होनी चाहिए। और दो मत को प्राप्त होते हैं। आत्माओं को मैं कष्ट नहीं देना चाहूंगा। और फिर कौन झंझट में यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है। और गीता में होगा, इसका खयाल पड़े तुम्हारी। तो मैं किसी झंझट में पीछे नहीं पड़ना चाहता हूं। मैं | | भी एकदम से नहीं आता। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो तो ठीक बीच में बना दूंगा। मैं झुकी हुई नहीं बना सकता। पुरुष, जो योगी पुरुष इस तत्व के रहस्य को जान लेते हैं, उनके तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर ऐसा करना कि मुझे करवट | | लिए वेद का ज्ञान, यज्ञ के फल, दान का पुण्य, सब व्यर्थ हो जाते लेकर भीतर लिटा देना, सुल्ताना की तरफ करवट लेकर; सीधा | हैं। वे सब का उल्लंघन कर जाते हैं। मत लिटाना! वेद के ज्ञान का फिर कोई मूल्य नहीं है उसे, जिसने तत्व से जान बीच में होना बड़ा कठिन है। रस हमारा चुनाव करना चाहता है। लिया। तब वेद सिर्फ तोतारटंत रह जाते हैं। तब वेदपाठी केवल अगर हम परमात्मा को भी चुनते हैं, तो संसार के खिलाफ। लेकिन शब्दों का जानकार रह जाता है, मात्र कोरा पंडित। और कोरे पंडित जो आदमी संसार के खिलाफ परमात्मा को चुनता है, वह परमात्मा | से ज्यादा दयनीय अवस्था इस जगत में किसी की भी नहीं है; को चुनता ही नहीं। क्योंकि परमात्मा को केवल वही चुन सकता है, अज्ञानी की भी नहीं है। जिसने सब चुनाव छोड़ दिए, च्वाइसलेस हो गया, जिसका कोई | | अज्ञानी के लिए भी उपाय है, पंडित के लिए उपाय भी नहीं चुनाव नहीं है। जो कहता है, संसार भी मेरे लिए परमात्मा है; जो | बचता। क्योंकि अज्ञानी को एक तो विनम्रता होती ही है कि मैं नहीं कहता है, परमात्मा भी मेरे लिए संसार है; अब मुझे कुछ फर्क न | जानता हूं। पंडित को वह विनम्रता भी खो जाती है। पंडित को रहा। जो कहता है, जीवन मुझे मृत्यु है, मृत्यु मुझे जीवन है। जो | | लगता है, मैं जानता तो हूं ही, और जानता बिलकुल नहीं है। कहता है. धन भी मेरे लिए निर्धनता है. और निर्धनता भी मेरे लिए पंडित का अज्ञान और भी अहंकारी अज्ञान हो जाता है। जानता धन है। ऐसा व्यक्ति ही ठीक मध्य में खड़ा होता है। और ऐसे मध्य हुआ, झूठा ही जानता हुआ...। क्योंकि शब्द को जानकर सत्य में खड़े व्यक्ति का नाम ही योग-युक्त है। कभी जाना नहीं गया है। हां, सत्य को जानकर शब्द में कोई सत्य योग-युक्त का अर्थ है, पूर्ण रूप से संतुलित हो गया जो। जैसे | को खोज लेता है, वह दूसरी बात है। लेकिन सत्य, शब्द को कि तराजू का कांटा बीच में खड़ा हो जाए और दोनों पलड़े बराबर | | जानकर कभी नहीं जाना गया है। सत्य को जानकर शब्द जान लिए हों, जरा भी यहां-वहां झुके हुए नहीं। जब तराजू का कांटा ठीक | जाते हैं। जो तत्व से जान लेता है, अनुभूति से, उसके लिए वेद बीच में होता है, तो योग-युक्त होता है। ऐसे ही जब आपका चित्त परम ज्ञान के आधार हो जाते हैं। लेकिन जो वेद को ही जानता है, ठीक बीच में होता है, तो योग-युक्त होता है। जो वेद को ही जानता है, वह वैसी स्थिति में होता है। जीवन के समस्त विरोधों में मध्य में खड़े हो जाने का नाम योग मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजरता था और है। जीवन की समस्त विपरीतताओं में अचुनाव का नाम योग-युक्त पानी भरने को कुएं पर झुका। भूल-चूक हो गई और कुएं में गिर होना है। और ऐसा जो योग-युक्त है, वही, कृष्ण कहते हैं, मेरी गया। बड़ी देर तक हाथ-पैर मारे, बड़ी देर तक चिल्लाया। और प्राप्ति का अधिकारी है। तब राह से कोई ग्रामीण, कोई बुद्ध, बिलकुल गंवार निकला। इसे ठीक से खयाल में ले लें। झांककर उसने नीचे देखा। उसने कहा, अच्छा! अरे! तो तुम हो! परमात्मा को कभी भी संसार के विपरीत लक्ष्य न बनाएं। मोक्ष तो मैं तुम्हें अभी निकाले देता हूं। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि को कभी भी संसार के विरोध में खड़ा न करें। मोक्ष किसी का भी तुम्हारा बोलना बिलकुल असंस्कृत है। मैं-तू करके अजनबियों से 160 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार * बात की जाती है? तो उस आदमी ने कहा, रुको। मैं महीने, पंद्रह। के लिए गुरु सिद्ध होते हैं, जो गुरु से भी मुक्त होने की क्षमता, दिन में वापस लौटंगा सुसंस्कृत होकर! नसरुद्दीन ने कहा कि में साहस से भरे हैं। रुक सकता हूं महीने, पंद्रह दिन। लेकिन जिस आदमी को शब्दों नहीं तो गुरु भी बंधन बन जाते हैं। नहीं तो शास्त्र भी बंधन बन का भी ठीक-ठीक बोध नहीं, बोलचाल की भाषा भी ठीक नहीं। | जाते हैं। नहीं तो वे शब्द भी, जो सत्यों के लिए प्रयुक्त किए हैं, वे आती, उसके हाथ से निकाला जाना पसंद नहीं कर सकता हूं। । भी केवल कारागृह ही सिद्ध होते हैं और हम उनमें कैद हो जाते हैं। शब्द से घिरे हुए लोग, संसार में नसरुद्दीन जैसा कुएं में पड़ा है, कृष्ण कहते हैं, जो तत्व से जान लेता है योगी, वह सबसे मुक्त ऐसे पड़ जाते हैं। अगर कबीर जैसा आदमी आकर उनका द्वार हो जाता है। खटखटाए, तो उन्हें बिलकुल न जंचेगा। क्योंकि कबीर वेद को __लेकिन वेद से ही नहीं। उन्होंने और बातें भी कही हैं। उन्होंने बिलकुल नहीं जानते। अगर नानक उनका हाथ पकड़कर कहें कि | | कहा, यज्ञ से भी मुक्त हो जाता है। क्योंकि यज्ञ से अर्थ है, समस्त आओ, मैं तुम्हें कुएं के बाहर निकाल लं; तो वे कहेंगे कि संस्कृत | क्रिया-कांड, रिचुअल, धर्मों का समस्त क्रिया-कांड। धर्मों के कहां तक पढ़ी है? काशी में कितने दिन रहे हो? कितने वेदों के | | समस्त शास्त्र-ज्ञान से अर्थ है, वेद। धर्मों के समस्त रिचुअल, जानकार हो? नानक को किसी वेद का कोई भी पता नहीं है। और | | क्रिया-कांड, उससे अर्थ है, यज्ञ। उससे भी मुक्त हो जाता है। फिर भी वेदों में जो कहा है, वह सब पता है। और कबीर ने कोई | | क्योंकि जिसने अपने भीतर परमात्मा को जाना, अब कोई भी वेद पढ़ा नहीं है, फिर भी वेदों में जो कहा है, कबीर जितना जानते | | क्रिया, अब कोई भी कर्म, अब कोई भी रिचुअल, कोई भी हैं, वेदपाठी नहीं जानते। उपासना-पद्धति व्यर्थ हो गई। अब बाहर दौड़ने का कोई प्रयोजन ___ जानने का एक और द्वार भी है सीधा, इमीजिएट, माध्यम से न रहा। मुक्त, शब्द से मुक्त, उसको ही तत्व-ज्ञान कहा है; वही है| | | जिसने भीतर की ही अग्नि को जान लिया, अब बाहर अग्नियां तत्व-ज्ञान। उस तत्व-ज्ञान को जो उपलब्ध होता है, तब फिर वेदों । | जलाकर वह उनकी पूजा करने बैठेगा, तो पागल है। और अगर का पढना और यज्ञ करना. और तप और दान इन सभी का कभी बैठ भी जाता हो. तो सिर्फ इसीलिए कि जिन्होंने भी भीतर की उल्लंघन कर जाता है। इन सब का फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता। अग्नि नहीं जलाई है, शायद उनके लिए सहयोगी हो सके। और ये सब उनके लिए हैं, जिन्होंने अभी जानने की वास्तविक यात्रा | अगर खंडन भी नहीं करता है कि यह व्यर्थ है, तो सिर्फ इसीलिए शुरू ही नहीं की है, जिन्होंने अभी खोज के ऊपर पहला कदम ही | कि जिनको अभी भीतर का कोई पता नहीं, शायद बाहर की अग्नि नहीं रखा है। भी उनके लिए प्रतीक बने, सहयोगी बने, यात्रा में साथी हो जाए। बहुत हैं लेकिन ऐसे लोग, जो शब्दों के संग्रह को सोच लेते हैं लेकिन जब भी ऐसा व्यक्ति देखेगा कि बाहर की अग्नि भीतर ज्ञान की उपलब्धि। जो इकट्ठा करते जाते हैं शब्दों को, शास्त्रों को, की अग्नि तक पहुंचने में सहयोगी न रही, बाधा बन गई, तो विरोध और सोचते हैं कि मुक्ति करीब आ रही है। उन्हें पता नहीं कि वे भी करता है, खंडन भी करता है। और इसीलिए निरंतर धार्मिक केवल शब्दों के बोझ से और भी दबे जा रहे हैं। मुक्ति शायद और व्यक्ति पुराने रिचुअल्स, पुराने क्रिया-कांड के विपरीत पड़ जाते भी दूर हुई जा रही है। शायद शब्दों का, शास्त्रों का बोझ उन्हें और दिखाई पड़ते हैं। लेकिन तय करना मुश्किल है कि वह क्या करेगा। भी संसार की गहरी पर्तों में डुबाने वाला सिद्ध होगा। क्योंकि शास्त्र | | अगर आप यज्ञ कर रहे हों, तो वैसा योगी जिसने तत्व से जाना बोझ ही बन जाते हैं, सत्य ही मुक्ति बनता है। है, क्या करेगा, कहना मुश्किल है। अगर उसको आपके भीतर भी लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वेदों का कोई उपयोग नहीं है। | बाहर जलती अग्नि की थोड़ी-सी भी झलक दिखाई पड़े, तो वह इसका यह भी अर्थ नहीं कि वेदों में रहस्य नहीं छिपा है। इसका यह बराबर आपके यज्ञ का सहयोग करेगा। लेकिन अगर आपके भीतर भी अर्थ नहीं कि शब्द की सामर्थ्य नहीं है। लेकिन शब्द की सामर्थ्य | धुआं ही धुआं, अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़े और बाहर की भी उसी के लिए है, जो शब्द पर रुकने के लिए तैयार नहीं है, शब्द | | अग्नि उस अंधकार को और भी बढ़ाती हो, तो वह निश्चित ही के पार जाना चाहता है। और वेद भी उसके लिए सहयोगी हो जाता विरोध करेगा। है, जो वेद को पार करने की क्षमता रखता है। और गुरु केवल उन्हीं । इसलिए ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य निरंतर असंगत होंगे, 161 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 इनकंसिस्टेंट होंगे। कभी वह कहेगा कि ठीक है मंदिर; और कभी | मरा। यह भूखा मरने वाला है, इसने अपने को सताकर मजा लिया। कहेगा, व्यर्थ है। और कभी कहेगा कि इस मूर्ति में परमात्मा है; | ये इसके सताए जाने में मजा ले रहे हैं। इनको बड़ा रस आ रहा है। और कभी कहेगा, इस मूर्ति को तोड़ डालो, इसी के कारण परमात्मा तप के नाम से सौ में निन्यानबे मौकों पर मानसिक बीमार संलग्न दिखाई नहीं पड़ता है। निर्भर करेगा इस बात पर कि वह किससे कह होते हैं। लेकिन एक व्यक्ति सौ में ऐसा भी होता है, जो तप में रहा है। मानसिक बीमारी की तरह नहीं जाता। वस्तुतः सत्य की खोज में जो लेकिन यज्ञ की ही बात नहीं करते छोड़ने की, वे कहते हैं, तप भी कष्ट आ जाएं, उन्हें सहने की तैयारी दिखाता है, उसी का नाम भी, तप भी व्यर्थ हो जाता है। क्योंकि जिसे भीतर का स्रोत दिखाई तप है। सत्य की खोज में जो भी कष्ट आ जाएं! कष्टों को निर्मित पड़ गया, अब वह व्यर्थ अपने को कष्ट देने की चेष्टा में संलग्न नहीं करता। अगर वह ध्यान करने खड़ा है और धूप आ जाए, तो नहीं होता है। वह धूप को सहने को तैयार होता है। लेकिन वह ध्यान करने के __ और अक्सर तो ऐसा होता है कि जो लोग अपने को कष्ट देते। | लिए धूप की खोज नहीं करता, कि छाया में बैठा हो, तो ध्यान न हैं, वे कष्ट देने में रस पाते हैं—सैडिस्ट हैं। अपने को सताने में या कर सके। अगर उसे लगे कि ध्यान करते वक्त अगर भोजन नहीं दूसरे को सताने में। या सैडिस्ट हैं या मैसोचिस्ट हैं। जो लोग तप | लिया जाए तो ध्यान गहरा हो जाता है, तो वह उपवास भी करता को बहुत आदर देते हैं, वे अक्सर मैसोचिस्ट होते हैं, खुद को | | है। लेकिन वह ऐसा नहीं कहता कि उपवास करो, तो ही ध्यान हो सताने में रस पाते हैं। सकेगा। सहज जो भी कष्ट उसे झेलने पड़ें परम सत्य की खोज में, मैसोच एक लेखक हुआ है, जो अपने को कोड़े मारता, तभी वह उनके लिए तैयार होता है, सहर्ष! प्रफुल्लित हो सकता। अपने को कांटे चुभाता, अपने को सताता, लेकिन तब उनकी प्रशंसा की वह चिंता नहीं करता। अगर आप भूखा मारता, अपनी नसों को काट लेता, तभी उसे थोड़ी-सी सुख | उससे कहें कि तुमने धूप में रहकर बड़ा काम किया है, हम तुम्हारी की रसानुभूति होती। | पूजा करेंगे। तो वह कहेगा कि तुम पागल हो। धूप में खड़े रहकर और एक दसरा लेखक हआ. मारकस सादे। वह जब तक दसरे मैंने कोई काम नहीं किया है। काम तो मैं भीतर कर रहा था. धप को सता न ले! तो वह अपने प्रेमियों को मारने के लिए हंटर रखता; आ गई, तो मैंने उसकी बाधा को अस्वीकार नहीं किया। मैंने उसे अपनी प्रेयसियों को सताने के लिए पूरा इंतजाम अपने साथ रखता। स्वीकार कर लिया। ध्यान तो मैं भीतर कर रहा था। भूख लग गई, एक झोला रखता। क्योंकि नाखून ज्यादा नहीं सता सकते, तो वह अगर भोजन के लिए जाऊं तो बाधा पड़ेगी, इसलिए भोजन के लिए छुरी-कांटे अपने साथ रखता। ताला बंद कर देता, और तब प्रेयसी नहीं गया; भूख के लिए राजी हो गया। काम तो मैं भीतर कर रहा को प्रेम करना शुरू करता, और प्रेम का अंत अक्सर होता कि वह | था। मैं भूखा नहीं रहा हूं। मैं धूप में नहीं खड़ा हूं। यह परिस्थिति लहूलुहान कर देता। लेकिन जब तक वह दूसरे को लहूलुहान न | थी, उसे मैंने शांति से सह लिया है। कर ले, तब तक उसे रस की अनुभूति न होती। तप का वास्तविक अर्थ है, सत्य की खोज में जो भी दुख आ ये विकृतियां हैं। अध्यात्म में भी ये विकृतियां खूब प्रवेश कर जाएं, उन्हें सहज स्वीकार करने की तैयारी। लेकिन सत्य की खोज जाती हैं। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में ही मजा लेने लगते | से विचलित न होना, सत्य की खोज से रंचमात्र भी यहां-वहां न हैं। और इन लोगों के आस-पास, जो अपने को सताने में मजा लेते | जाना, चाहे कितने ही कांटे हों पथ पर। हैं, मैसोच जैसे लोग, इनके आस-पास सैडिस्ट इकट्ठे हो जाते हैं, ___ लेकिन बीमार आदमी उस पथ पर चलेंगे ही नहीं, जहां कांटे न जो दूसरे को सताने में मजा लेते हैं। हों। वे कहेंगे, कांटे कहां हैं! पहले कांटे बिछाओ, तब हम चलेंगे। __ अगर एक आदमी ने बीस दिन का उपवास किया है, तो उसके | | यह फर्क समझ लेना। सत्य का खोजी अगर कांटे रास्ते पर हों, तो जुलूस में पचासों लोग इकट्ठे होकर सम्मिलित होंगे। आप देख | | उन कांटों को भी झेलने को तैयार रहेगा। लेकिन रुग्ण, परवर्टेड लेना, जो उपवास किया है, वह मैसोचिस्ट है; और जो जलस में | माइंड, सैडिस्ट हो या मैसोचिस्ट, वह कहेगा, यह सत्य का रास्ता सम्मिलित हुए हैं, वे सैडिस्ट हैं। इनको मजा आ रहा है कि इसने हो ही नहीं सकता। इस पर कांटे कहां हैं? पहले कांटे बिछाओ, उपवास किया, इनको बड़ा मजा आ रहा है कि यह आदमी भूखा | तब हम चलेंगे! अगर उसको फूलों वाला रास्ता मिल जाए, तो वह धूप 162| Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तत्वज्ञ-कर्मकांड के पार * मुकर जाएगा कि इस पर हम नहीं जाते। इस पर तो फूल बिछे हैं! का गहरा अर्थ है, अपरिग्रह। हम, जो जरूरी हो, उतना काफी; शेष और सत्य के रास्ते पर तो सूली ही लगती है; फूल कहां! सब उन्हें दे दें, जिन्हें उसकी जरूरत है। और कभी ऐसा क्षण भी आ यह आदमी सूली में उत्सुक है, सत्य में नहीं। यह कांटों में जाए कि हमसे ज्यादा जरूरत किसी को हो, तो भी हम दे दें। उत्सक है, सत्य में नहीं। तो यह अपने लिए कांटे निर्मित करता | लेकिन कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति दान से भी मक्त हो जाता रहेगा। ऐसा तप रुग्ण है। है। यह और भी कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि इसका अर्थ हुआ लेकिन वह एक प्रतिशत तप भी, कृष्ण कहते हैं, छूट जाता है। कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता है। निश्चित ही! जब तत्व का बोध हो जाए, तो तप करने की क्या नहीं, इसका यह अर्थ नहीं कि वैसा व्यक्ति दान नहीं करता। जरूरत रही? जब मंजिल मिल जाए, तो रास्ते पर दौड़ने का फिर | इसका यह अर्थ हुआ कि वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि कोई क्या प्रयोजन है? फिर कोई भी प्रयोजन नहीं है। अगर कभी सत्य | पराया है। वैसा व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि मैं अलग हूं। वैसा को पा लेने वाला भी तप करता है, तो उसका एक ही कारण होता | व्यक्ति अब पाता ही नहीं कि यह जगत और मेरे बीच कोई फासला है, ताकि दूसरे तप को सहने की सामर्थ्य को पैदा कर लें। और कोई | है। वैसा व्यक्ति दान नहीं करता, उसका इतना ही अर्थ है कि वैसे प्रयोजन नहीं होता। व्यक्ति के पास अब दान करने को कुछ बचा नहीं; उसने स्वयं को अगर महावीर ने ज्ञान के बाद भी उपवास किए, तो इसलिए नहीं | ही दान कर दिया है। अब सब समर्पित हो गया है; सब विसर्जित हो कि अब उन्हें उपवास की कोई भी जरूरत थी। और अगर महावीर गया है। एक छोटी-सी घटना कहूं, शायद उससे खयाल में आए। ज्ञान के बाद भी नग्न ही बने रहे, उन्होंने वस्त्र न पहने, तो इसका कबीर के घर बहुत लोग इकट्ठे होते हैं रोज। वे रोज उन्हें भोजन यह कारण नहीं कि वस्त्रों से उन्हें अब कोई भय था, और नग्न रहने करा देते हैं। कबीर का बेटा मुश्किल में पड़ गया है। और उसने की कोई जरूरत थी। लेकिन जो पीछे लोग आ रहे हैं, अगर महावीर कहा, हम पर कर्ज होता चला जाता है। रोज लोग आते हैं, आप उपवास छोड़ दें, नग्नता छोड़ दें, महावीर वापस महल में आकर | रोज उनसे जाते वक्त कहते हैं, भोजन कर जाओ। वे भजन-कीर्तन रहने लगें, तो वे जो पीछे आने वाले लोग हैं, वे बीच की यात्रा कभी करने आते हैं, उनको जाने दें; भोजन के लिए मत रोकें। कबीर रोज कर ही न पाएंगे। शायद वे यही समझेंगे कि महावीर को अपनी भूल | कहते कि कल खयाल रखूगा। कल फिर वही भूल होती। लोग पता चल गई, लौट आए अपने घर! हम पहले से ही अपने घर हैं। | भजन-कीर्तन करने सुबह आते, और जब जाने लगते, तो कबीर अच्छा हुआ, झंझट में न पड़े! कहते, भोजन तो कर जाओ! __ महावीर को महल का अब कोई भय नहीं है। महावीर के लिए | आखिर एक दिन उसके बेटे ने कहा कि अब यह असंभव है महल और जंगल बराबर हो गए। लेकिन फिर भी महावीर जंगल | और आगे खींचना। क्या मैं चोरी करने लगू? कर्ज बढ़ता चला में रहे चले जाते हैं, केवल उन लोगों के प्रति करुणावश, जिनको | जाता है! अभी महल के कारागृह से ऊपर उठना है। तो कबीर एकदम आनंदित हो गए और उन्होंने कहा, पागल, वैसा व्यक्ति अगर तप जारी भी रखे, तो सिर्फ इसलिए; अगर | | अगर चोरी से यह हल हो सकता था, तो तूने पहले क्यों न सोचा? वैसा व्यक्ति वेद की चर्चा भी जारी रखे, तो सिर्फ इसलिए कि किसी | | कमाल तो थोड़ा दिक्कत में पड़ा; उनका बेटा तो दिक्कत में पड़ा। के काम पड़ जाए। वैसा व्यक्ति अगर यज्ञ में भी सहयोगी हो, तो | | समझा उसने कि शायद कबीर समझ नहीं पाए कि मैंने क्या कहा, इसीलिए कि जो अभी तत्व तक नहीं उठ सकते, वे शायद रिचुअल | | चोरी! उसने कहा, आप समझे भी! सुना भी! मैं कह रहा हूं, क्या के माध्यम से, उपासना से, कोई क्रिया-कांड से सहारा पा लें और | | मैं चोरी करने लगू? कबीर ने कहा, बिलकुल समझा। लेकिन इतने ऊपर उठ जाएं। दिन से तेरी बुद्धि कहां गई थी? कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति दान से भी मुक्त हो जाता है। कमाल ने कहा, अब बात को आखिर तक ही खींचना पड़ेगा। दान भी सत्य की खोज में एक सहयोगी मार्ग है। दान का अर्थ है, | कमाल था बेटा, और कमाल का ही बेटा था। कबीर ने उसे नाम जो भी हम दे सकें, वह दे दें; और जिसको जरूरत हो, उसे दे दें। दिया था और अदभुत बेटा था। उसने कहा, तो फिर ठीक है। तो दान का मौलिक अर्थ है, हम, जो व्यर्थ है, उसे संगृहीत न करें। दान | आज मैं चोरी को जाता हूं। 163 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-44 रात उठा, आधी रात, और उसने कहा, मैं जा रहा हूं। आज्ञा है? जहां दान दान नहीं रह जाता; जहां नीति-अनीति की सब सीमाएं आशीर्वाद है? कबीर ने कहा कि प्रभ तेरी सब भांति सहायता करें। अतिक्रमित हो जाती हैं। जहां सब, जिसे हम धर्म कहते हैं, वह कमाल केवल कबीर की परीक्षा ले रहा है कि बात कहां तक जाती कचरे की भांति नीचे गिर जाता है और व्यक्ति उस परम चैतन्य के है! हद्द इसकी कहां है! कमाल ने कहा, लेकिन अकेला शायद साथ इतना एकरस, एकभूत हो जाता है कि जो करवा रहा है, वही। सामान ज्यादा चुरा लूं, तो लाने में दिक्कत हो। क्या आप भी साथ जो कर रहा है, वही। जिस पर हो रहा है, वही। भेद जहां नहीं, वहां चलने को तैयार हैं? कबीर ने कहा, अब तो नींद टूट ही गई। चलो, नीति कहां? भेद जहां नहीं, वहां दान, धर्म, पुण्य कहां! चला चलता हूं। भेद जहां नहीं, वही कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि अगर तू तब कमाल की बेचैनी बहुत बढ़ने लगी। यह क्या हो रहा है! | तत्वविद हो जाए, तो कौन मारता है और कौन मरता है! पागलों की कबीर! और चोरी को जा रहा है! पर कमाल ही था, उसका बेटा बातें हैं। न कोई मरता, और न कोई मारता है। और ये जो सामने ही था, उसने कहा, इतनी जल्दी छुटकारा ठीक नहीं। बात पूरे | तेरे खड़े हैं, इनमें भी वही है, जो कभी मरता नहीं। और तू जो लड़ने लाजिकल एंड, तर्क के अंत तक ले जानी जरूरी है, तभी शायद | खड़ा है, तुझमें भी वही है, जो कभी मरता नहीं। और जो ये देहें पहचान हो पाए कि यह मजाक है या गंभीरता है। खड़ी हैं, ये देहें तो मर ही जाती हैं। जाकर उसने सेंध लगाई। कबीर पास खड़ा रहा। सेंध लगाते ___ कृष्ण का यह जो संदेश है, बहुत एमारल है, बहुत अतिनैतिक वक्त उसका हाथ कंपता था। कभी चोरी की नहीं। कभी चोरी का है। इसलिए जिन लोगों ने—ड्यूसन ने, या शापेनहार ने जब पहली सोचा नहीं। लेकिन कबीर ने उससे कहा, तेरा हाथ क्यों कंपता है? दफा गीता पढ़ी, तो बहुत घबड़ा गए। घबड़ा गए, क्योंकि इसका चोरी ही कर रहे हैं न, कुछ बुरा तो नहीं कर रहे! कबीर के बेटे ने मतलब क्या हुआ? इतनी अतिनैतिक बात, तो हमारी नीति का क्या अपने सिर पर हाथ ठोंक लिया। उसने कहा, हद्द हो गई। चोरी ही होगा? हमारी नीतिमत्ता का क्या होगा? हमारी मारैलिटी का क्या कर रहे हैं, कछ बरा तो नहीं कर रहे हैं। अब बरा और क्या होता होगा? अगर दान भी व्यर्थ हो जाता है. तप भी व्यर्थ हो जाता है. है? कबीर ने कहा, यह हाथ का कंपना बहुत बुरा है। जब चोरी कर यज्ञ भी व्यर्थ हो जाता है, वेद भी व्यर्थ हो जाते हैं, तो सभी कुछ रहे हैं, तो पूरी कुशलता से करनी चाहिए। व्यर्थ हो जाता है, जिसे हमने आधार समझा है। . . योग कर्म की कुशलता है; हाथ न कंपे। निश्चित ही, जो परम आधार की तरफ चलता है, उसके लिए फिर कमाल भीतर गया, और एक बोरा गेहूं खींचकर बाहर . हमारे समाज के द्वारा दिए गए सभी आधार व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन लाया। कबीर ने उसे खींचने में सहायता दी। और जब कमाल उसे | वह अनैतिक नहीं हो जाता; वह अतिनैतिक हो जाता है। वह अपने कंधे पर रखने लगा, उठाने लगा, तो कबीर ने कहा, रुक। | इम्मारल नहीं होता, एमारल हो जाता है या सुपर मारल हो जाता है। घर के लोगों को बता आया कि नहीं? घर के लोगों को जाकर कम शायद वही परम नैतिकता है, सुप्रीम मारैलिटी है। समस्त नीति के से कम कह दे कि हम एक बोरा चुराकर लिए जा रहे हैं! कमाल ने | पार हो जाना ही शायद परम नीति है। और समस्त धर्मों के ऊपर कहा, यह चोरी हो रही है या क्या हो रहा है! उठ जाना ही शायद परम धर्म है। और जब कमाल ने कबीर से पूछा कि इस सबका मतलब क्या कृष्ण ने यह उल्लंघन की बात कही है कि इन सबका उल्लंघन है? तो कबीर ने कहा कि जब से हम न रहे, वही रह गया, तो अब करके, वह सनातन पद को, परम पद को प्राप्त होता है। वह फिर किसकी चोरी, और कौन करे! और कौन दान दे और कौन ले? ब्रह्म जैसा हो जाता है। वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसी का माल है। वही वहां सोते सोच रहा है कि मेरा है। मैं भी आज इतना ही। उसी का। वही मेरे भीतर कह रहा है कि ले चलो। वही सुबह कीर्तन लेकिन अभी उठेंगे नहीं। एक पांच मिनट और। पांच मिनट करने आएगा। उससे कैसे कहूं कि बिना भोजन किए जाओ? सभी | अपनी जगह ही आप बैठे रहेंगे। हमारे संन्यासी कीर्तन करेंगे। उसका है। अंतिम दिन का उनका प्रसाद लेकर जाएं। अपनी जगह पर ही इस तल पर उठ जाने की भी संभावना है तत्वविद की। तत्वविद कीर्तन में सम्मिलित हों। निश्चित ही इस तल पर उठ जाता है, जहां चोरी चोरी नहीं रह जाती; 11641 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 पहला प्रवचन श्रद्धा का अंकुरण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अथ नवमोऽध्यायः गीता दर्शन भाग-4 श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। १ ।। राजविद्याराजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।। २ ।। अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्त्मनि ।। ३ ।। श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, तुझ दोष-दृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगा, कि जिसको जानकर तू दुखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा। यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। और हे परंतप इस तत्व - ज्ञान - रूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त न होकर, मृत्युरूप संसार-चक्र में भ्रमण करते हैं। जी वन देखने की एक दृष्टि नकारात्मक भी है और एक दृष्टि विधायक भी। जीवन को ऐसे भी देखा जा सकता है कि उसमें पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई न पड़े, और ऐसे भी कि परमात्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ शेष न रहे। जो कहते हैं कि जीवन मात्र पदार्थ है, वे केवल इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि नकारात्मक, निगेटिव है। जो कहते हैं कि जीवन पदार्थ नहीं, परमात्मा है, वे भी इतना ही कहते हैं कि उनकी देखने की दृष्टि विधायक, पाजिटिव है। इस सूत्र में उतरने के पहले इन दो दृष्टियों को ठीक से समझ लेना जरूरी है; क्योंकि जगत वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसी हमारी दृष्टि होती है। जो हम देखते हैं, वह हमारी आंख की खबर है। जो हम पाते हैं, वह हमारा ही रखा हुआ है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारा ही भाव है, और हमारे ही भाव का प्रत्यक्षीकरण है। विज्ञान सोचता था कि मनुष्य तटस्थ होकर भी देख सकता है। और विज्ञान की आधारशिला यही थी कि व्यक्ति तटस्थ होकर निरीक्षण करे- कोई भाव न हो उसका, कोई दृष्टि न हो उसकी – तभी, सत्य क्या है, वह जाना जा सकेगा। लेकिन विगत तीन सौ वर्षों की वैज्ञानिक खोज ने विज्ञान की अपनी ही आधारशिला को डगमगा दिया है। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई उपाय ही नहीं है कि व्यक्ति दृष्टि को छोड़कर और तथ्य को | देख सके। एक बहुत कीमती विचारक पोल्यानी ने इस सदी की महत्वपूर्ण किताब लिखी है । उस किताब को नाम दिया है, पर्सनल नालेज । और पोल्यानी का कहना है कि कोई भी ज्ञान व्यक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। जानने में जानने वाला समाविष्ट हो जाता है। जो हम देखते हैं, उसमें हमारी आंख की छाप पड़ जाती है। जो हम छूते हैं, छूने से हमें जो अनुभव होता है, वह वस्तु का ही नहीं, अपने हाथ की क्षमता का भी है। जो मैं सुनता हूं, उस सुनने में मेरे कान पर पड़ी हुई ध्वनियों की चोट ही नहीं, मेरे कान की व्याख्या भी सम्मिलित हो जाती है। व्याख्यारहित देखना असंभव है। कोई उपाय नहीं है। हम कितनी ही चेष्टा करें, जो निरीक्षण कर रहा है, वह बाहर नहीं रह जाता; वह भीतर प्रविष्ट हो जाता है। अगर आप एक वृक्ष के पास से गुजरते हैं और वह वृक्ष आपको सुंदर दिखाई पड़ता है, तो इसमें वृक्ष का सौंदर्य तो है ही; आपकी देखने की क्षमता, आपकी व्याख्या, आपके मनोभाव, आपकी मनःस्थिति, आप भी सम्मिलित हो गए। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि जब आप दुखी हों, तब यह वृक्ष सुंदर दिखाई न पड़े। और ऐसा भी होगा कि जब आप | आनंदित हों, तो यह वृक्ष भी नाचता हुआ दिखाई पड़ने लगे। और जब एक चित्रकार वृक्ष के पास से निकलता है, तो उसे जो रंग दिखाई देते हैं, वे गैर - चित्रकार को कभी भी दिखाई नहीं दे सकते। और जब एक कवि उस वृक्ष के पास से निकलता है, तो उस वृक्ष के फूलों में काव्य लग जाता है - वह, जिसके पास | कवि का हृदय नहीं है, उसे कभी भी अनुभव में नहीं आ सकता है। और उसी वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति दुकानदार की तरह बैठा हो, तो उसे वृक्ष में यह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। तो जब हम वृक्ष को देखते हैं, तो वृक्ष को ही देखते हैं या हम भी उसमें समाविष्ट हो जाते हैं? या कि कोई ऐसा उपाय भी है कि वृक्ष को हम वैसा देख सकें, जैसा वृक्ष अपने में है – स्वयं को उसके साथ संयुक्त किए बिना ? कुछ लोग सोचते रहे हैं कि यह संभव है। यह संभव नहीं है। 166 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रद्धा का अंकुरण * यह बस अप्राकृतिक है। देखने में, देखने वाला प्रविष्ट हो जाएगा। | जब आप खिड़की को देखेंगे, तो चांद पृष्ठभूमि में छूट जाएगा। जैसा स्वरूप है जगत का, उसका ही यह हिस्सा है। और अब | और अगर आप ध्यानपूर्वक खिड़की को देखेंगे, तो चांद विलीन हो वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि हमने जो विज्ञान विकसित किया | जाएगा; आकाश के बादल खो जाएंगे; बाहर के वृक्ष नहीं हो है, वह भी तथ्य कम है, व्याख्या ज्यादा है। जो हम देखते हैं, उसे | जाएंगे। खिड़की का चौखटा आपको दिखाई पड़ने लगेगा। हम शुद्ध नहीं देखते; वह हमसे सम्मिश्रित हो जाता है। पश्चिम के मनसविद इसे गेस्टाल्ट कहते हैं। वे कहते हैं कि जब ___ मनुष्य का कोई भी ज्ञान मनुष्य से मिश्रित हुए बिना नहीं बच | | भी हम कुछ देखते हैं, तो हम जिस बात पर ध्यान देते हैं, वही हमें सकता है। अगर यह ठीक है, अगर यह सत्य है, तो फिर हम | | दिखाई पड़ता है; और जिस पर हम ध्यान नहीं देते, वह हमें दिखाई नास्तिक के साथ भी विरोध करने का कोई कारण नहीं पाते। अगर नहीं पड़ता। ध्यान ही हमारा अनभव है। वह कहता है, जगत में ईश्वर नहीं है, तो वह केवल इतना ही कहता | | तो जब मैं एक व्यक्ति को दुश्मन की तरह देखता हूं, तो मुझे है कि मेरी जो दृष्टि है, उससे जगत में ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता है। कुछ और दिखाई पड़ता है, क्योंकि मेरा ध्यान किन्हीं और चीजों की तब आस्तिक से भी कोई कठिनाई नहीं है किसी को। अगर वह तलाश करता है; और जब मैं मित्र की तरह देखता हूं, तब उसी कहता है, मुझे जगत में ईश्वर दिखाई पड़ता है, तो वह असल में | व्यक्ति में मुझे कुछ और दिखाई पड़ता है, मेरा ध्यान कुछ और भाषा गलत उपयोग कर रहा है। उसे इतना ही कहना चाहिए कि | | तलाश करता है। वह जो व्यक्ति बाहर है, उसे तो मैं जानता नहीं। जैसी मेरी दृष्टि है, उसमें मुझे जगत में ईश्वर दिखाई पड़ता है। | | जब भी मैं उस व्यक्ति के संबंध में कुछ भी निष्कर्ष निकालता हूं, __ कृष्ण ने इस सूत्र की शुरुआत की है, अर्जुन को उन्होंने कहा है, तब वह मेरी ही व्याख्या है। हे अर्जुन! तुझ दोष-दृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय | | जगत को जो दोष-दृष्टि से देखेगा, जगत में उसे कुछ भी श्रेष्ठ ज्ञान के रहस्य को अब मैं कहूंगा। | दिखाई नहीं पड़ेगा; सत्य की कोई प्रतीति होती नहीं मालूम पड़ेगी; ... दोष-दृष्टि रहित! भक्त की वह व्याख्या है। जब आप किसी सौंदर्य का कोई अनुभव नहीं; काव्य की कोई प्रतीति नहीं; कोई व्यक्ति को दुश्मन की तरह देखते हैं, तब आप उसमें जो खोजते हैं, | | पुलक नहीं; नृत्य का उसे कोई भी आभास नहीं होगा। जगत एक वह दोष के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता। ऐसा नहीं कि उसमें | | उत्सव है, यह उसकी प्रतीति नहीं बनेगी। जगत उसे एक उदास दोष ही दोष हैं; क्योंकि कल वही आपका मित्र था और आपको | | व्यवस्था मालूम पड़ेगी। आंसू उसे दिखाई पड़ सकते हैं, मुस्कुराहटें दोष दिखाई नहीं पड़े थे। और कल आपने उसे प्रेम की आंख से | उसकी आंख से खो जाएंगी, ओझल हो जाएंगी। उसे कांटे दिखाई देखा था, और उसमें आपको जो श्रेष्ठ है, उसका दर्शन हुआ था। | पड़ सकते हैं; फूल ? फूल बस तिरोहित हो जाएंगे। और इन सबका और आज घृणा की आंख से उसी व्यक्ति में जो निकृष्ट है, वह जो जोड़ होगा, वही नास्तिक का जगत है। दिखाई पड़ता है। कल आपको उस व्यक्ति में उज्ज्वल शिखर __दोष-दृष्टि से जगत को देखा जाए, तो नास्तिक के दर्शन का दिखाई पड़े थे, आज उसी व्यक्ति में अंधेरी खाई दिखाई पड़ती है। | जन्म होता है। लेकिन भक्त जगत को और तरह से देखता है। कल आपने उसकी ऊंचाई को चुना था, आज आप उसकी नीचाई | | कृष्ण कहते हैं कि अब मैं तुझ दोष-दृष्टि रहित भक्त के लिए. को चुन रहे हैं। और आप जो चुनना चाहते हैं, वही आपको दिखाई। रहस्य की बात कहूंगा। पड़ना शुरू हो जाता है। वह रहस्य की बात कही ही तब जा सकती है, जब दोष-दृष्टि इसे ऐसा समझें कि मैं अगर अपने मकान की खिड़की के पास मौजूद न हो। अन्यथा उसे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि कहना खड़ा हूं। बाहर आकाश में चांद निकला है। मैं चांद को देखू, तो | | व्यर्थ है। क्योंकि कहा भी जाए, तो सुना नहीं जा सकता। अगर खिड़की मुझे दिखाई नहीं पड़ेगी; खिड़की भूल जाएगी। चांद दिखाई | | अर्जुन अभी दोष देखने की मनोदशा में हो, तो कृष्ण रहस्य की पड़ेगा; आकाश में घूमते हुए बादल दिखाई पड़ेंगे; खिड़की विस्मृत | परम गोपनीय बात को कहने में समर्थ नहीं हो सकते। अर्जुन सुन हो जाएगी, खिड़की मौजूद ही नहीं होगी। मेरी दृष्टि से, मेरे दर्शन ही न पाएगा। से खिड़की का विलोप हो जाएगा। लेकिन आप चाहें तो अपनी जीसस ने बार-बार बाइबिल में कहा है, जिनके पास आंखें हों, दृष्टि बदल ले सकते हैं; भूल जाएं चांद को, देखें खिड़की को। वे देखें; और जिनके पास कान हों, वे सुन लें; मैं कहे जा रहा हूं, 167 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं गीता दर्शन भाग-4 प्रकट किए जा रहा हूं। जिनसे वे बोल रहे थे, वे अंधे भी नहीं थे और बहरे भी नहीं थे। उनके पास ठीक आपके जैसी ही आंखें थीं, और आपके जैसे ही कान थे। लेकिन जीसस को यह बार-बार कहना पड़ा है कि जिनके पास आंख हो, वे देख लें, क्योंकि मैं मौजूद हूं; और जिनके पास कान हो, वे सुन लें, क्योंकि मैं बोल रहा हूं; जिनके पास हृदय हो, अनुभव कर लें, क्योंकि अनुभव सामने साकार है। कृष्ण कहते हैं, अब मैं गोपनीय बात कह सकूंगा । आठ लंबे अध्यायों की चर्चा के बाद कृष्ण श्रद्धा सूत्र पर विचार करना शुरू करते हैं। अब तक वे तर्क की बात कर रहे थे। अब तक वे अर्जुन को समझाने की कोशिश कर रहे थे; क्योंकि अर्जुन नासमझ बने रहने की जिद्द पर अड़ा था। अब तक वे अर्जुन के संदेह काटने में लगे थे; क्योंकि अर्जुन संदेह पर संदेह खड़े किए था। अब तक वे अर्जुन के नास्तिक से संघर्ष कर रहे थे। अब वे कहते हैं, तेरा नास्तिक विसर्जित हुआ । अब तेरी दोष -दृष्टि खो गई। अब तू संदेह से भरा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। अब तेरे मन में दुविधा नहीं है । अब तू किसी जिद्द पर अड़ा हुआ नहीं है। अब तू विपरीत अपेक्षा से सोचेगा नहीं। अब तेरे हृदय का द्वार खुला। अब तू दोष- दृष्टि को छोड़कर देख सकेगा। तो मैं अब तुझसे परम गोपनीय रहस्य की बात कहता हूं। जब चित्त संदेह से भरा हो, तो क्षुद्र बातें ही कही जा सकती हैं। उन्हें भी कहना मुश्किल है, क्योंकि क्षुद्र बातों पर भी संदेह खड़ा हो जाता है। जब गहन बातें कहनी हों, तो एक आत्मीयता चाहिए, एक इंटिमेसी, एक ऐसा नैकटय, एक ऐसा अपनापन, जहां संदेह भेद खड़ा नहीं करता है, जहां शंकाएं उठकर बीच में जो नैकटय की शांत झील बनी है, उस पर लहरें नहीं उठातीं, कोई कंपन नहीं है संदेह का—तभी जो रहस्यपूर्ण है, वह कहा जा सकता है। जरा-सा भी संदेह का कंपन हो, तो रहस्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कहना व्यर्थ है, क्योंकि सुना नहीं जा सकेगा। बताना फिजूल है, क्योंकि देखा नहीं जा सकेगा। कृष्ण प्रसन्न होकर इस सूत्र को कहते हैं। इन आठ अध्यायों में उन्होंने निरंतर अर्जुन की बुद्धि से संघर्ष किया है, बुद्धि को काटा है। ताकि बुद्धि हट जाए, तो हृदय उभर आए। और बुद्धि जब तक काम करती है, तब तक हृदय विश्राम करता है । और जब बुद्धि विश्राम पर चली जाती है, तो हृदय सक्रिय हो जाता है। और कुछ रहस्य हैं, जो केवल हृदय से ही समझे जा सकते हैं। ऐसा समझें कि जो भी रहस्य हैं, वे हृदय से ही समझे जा सकते हैं। क्योंकि हृदय जरा-सी भी भेद की रेखा नहीं खींचता । हृदय निकट आ सकता है, बुद्धि दूर ले जाती है। अगर दो व्यक्ति बैठे हों और उनके बीच बुद्धि का संबंध हो, तो उनके बीच इतना फासला है, जितना किन्हीं दो आकाश के तारों के | बीच है। वे कितने ही निकट बैठे हों, वे एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर बैठे हों; लेकिन अगर उनके बीच बुद्धि का आवागमन है, अगर उन दोनों के बीच विचार का लेन-देन है, अगर उनका संबंध बौद्धिक है, इंटलेक्चुअल है, तो वे इतने फासले पर हैं, जितने फासले पर दो बिंदु हो सकते हैं। लेकिन अगर दो दूर के ताराओं पर भी दो व्यक्ति बैठे हों, और उनके बीच विचार का आवागमन नहीं है, और हृदय के द्वार खुल गए हैं, तो वे इतने निकट हैं, जितने निकट कभी भी दो प्रेमी नहीं हुए। नैकटय, निस्तरंग आत्मीयता का नाम है। जब दोनों के बीच कोई तरंग न उठती हो । जब अर्जुन अर्जुन न रहे और अपनी बुद्धि को तिलांजलि दे दे, तो ही कृष्ण जो रहस्य उसे कहना चाहते हैं, उसके कहने की भूमिका निर्मित होती है; अर्जुन पात्र बनता है। | हैं। अब तक उसने उठाए हैं सवाल। सवाल दो तरह से उठाए जाते | एक तो इसलिए कि जो कहा गया है, उसे और गहरे में समझना है; तब सवाल हृदय से आते हैं। और एक इसलिए कि जो कहा गया है, उसे गलत सिद्ध करना है; तब सवाल बुद्धि से उठाए जाते हैं। एक तो तब, जब मैं जानता हूं पहले से ही कि सही क्या है, और उसके आधार पर सवाल उठाए चला जाता हूं। तब वे बुद्धि से उठाए जाते हैं । और एक तब, जब मुझे तो पता नहीं कि सही क्या है, लेकिन मैं सही को जानना चाहता हूं; तब हृदय से सवाल उठाए जाते हैं। जो सवाल हृदय से आते हैं, वे संदेह नहीं हैं। वे प्रश्न सत्संग बन जाते हैं। और जो सवाल बुद्धि से आते हैं, वे सवाल दो के बीच खाई को और गहरा कर देते हैं। बुद्धि और बुद्धि के बीच की खाई को पाटना असंभव है। बुद्धि और बुद्धि के बीच किसी तरह का सेतु निर्मित नहीं होता है। बुद्धि और बुद्धि के बीच सिर्फ टूट हो सकती है, मेल नहीं हो सकता। | हृदय और हृदय के बीच टूट का कोई उपाय नहीं, मेल स्वाभाविक है। इसलिए कृष्ण ने पूरी कोशिश की है कि अर्जुन की बुद्धि को | काटकर गिरा दें। बुद्धि हट जाए, बुद्धि का पर्दा हट जाए, तो हृदय उन्मुख हो जाता है, सामने आ जाता है। 168 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा का अंकुरण * अब अर्जुन का हृदय कृष्ण को सामने मालूम पड़ रहा है। अब वे देख पा रहे हैं कि अब उसकी दोष- दृष्टि खो गई है। और जब दोष -दृष्टि खोती है, तो आंख से, चेहरे से, एक-एक भाव-भंगिमा से, एक - एक गेस्वर से वह प्रकट होने लगती है। जब आपके भीतर संदेह होता है, तो आपकी आंख भी संदेह से भर जाती है, आपके होंठ भी, आपकी भाव-भंगिमा भी। आपका प्राण ही संदेह से नहीं भरता, आपका रोआं- रोआं शरीर का संदेह से भर जाता है। किसी दिन अगर विज्ञान समर्थ हो सका, तो संदेह से भरे हुए आदमी के खून में और श्रद्धा से भरे हुए आदमी के खून में अगर रासायनिक फर्क खोज ले, तो कोई आश्चर्य न होगा। अगर केमिकल फर्क मिल जाए, तो कोई आश्चर्य न होगा। क्योंकि विज्ञान यह तो अनुभव करने लगा है कि जब एक आदमी प्रेम से भरता है, तो उसके खून की केमिकल, उसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। और जब एक आदमी क्रोध से भरता है, तब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था रूपांतरित हो जाती है। उसके खून में जहर फैल जाता है। जब एक आदमी उदास होता है, तब उसके खून का रासायनिक रूप और होता है; और जब एक आदमी प्रफुल्लित होता है, आशा से, उमंग से भरा होता है, जब उसकी हृदय की धड़कनें आशा के गीत गाती होती हैं, तब उसके खून की रासायनिक व्यवस्था बदल जाती है। शरीर का कण-कण भी बदल जाता है, जब भीतर का मन बदलता है; क्योंकि शरीर मन की छाया मात्र है। क्योंकि शरीर जो भी है, वह मन का ही प्रतिफलन है। कृष्ण कहते हैं कि अब यह संभव है अर्जुन, तू दोष देखने वाली दृष्टि से मुक्त हुआ, रिक्त हुआ, खाली हुआ, तो अब मैं तुझसे रहस्य की बात कह सकूंगा । दोष की दृष्टि क्या है? यह नकारात्मक देखने का ढंग क्या है ? अगर मैं आपसे कहूं कि ईश्वर है, तो जो दोष की दृष्टि है, वह पूछेगी, कहां है? इसलिए नहीं कि उसे खोजना है; बल्कि सिर्फ इसलिए कि जो कहा गया है, वह सही नहीं है। भक्तों ने भी पूछा है कि कहां है? लेकिन इसलिए नहीं कि जो कहा गया है, वह गलत है; बल्कि इसलिए कि उसे कहां खोजें? कहां पाएं उसे? किस तरफ देखें? किस मार्ग पर चलें ? भक्त ने जब भी पूछा है, उसने पूछा है कि समझा, है । कैसे उसे पाएं? उसने जब भी प्रश्न उठाए हैं, तो वे प्रश्न हैं, कैसे? उनका | रूप कुछ भी रहा हो। उसने यह पूछा है कि ठीक है; वह है । कहां है? कैसे उसे खोजें? क्या है मार्ग ? क्या है विधि ? कहां तक, कैसे मैं अपने को रूपांतरित करूं कि वह मुझे मिल जाए? उसने भी प्रश्न पूछे हैं, लेकिन उसके प्रश्न किसी अनुभूति की पिपासा से उठे हैं। और जब एक नकारात्मक दृष्टि पूछती है, तब वह यह पूछती है कि गलत है यह बात । कहां है? प्रत्यक्ष मेरे सामने लाकर रखो। यहां मेरे सामने हो, तो मैं मानूं। वह असल में यह कह रहा है कि अगर परमात्मा एक पदार्थ हो, तो मैं स्वीकार करूं । परमात्मा अगर एक वस्तु हो, तो मैं स्वीकार करूं । प्रयोगशाला में अगर परीक्षण हो सके, तो मैं स्वीकार करूं। मैं उसे डिसेक्ट कर सकूं, काट-पीट सकूं। जैसे कि चिकित्साशास्त्र का विद्यार्थी अपनी टेबल पर रखकर मेंढक को काट-पीट रहा है, जांच-पड़ताल कर रहा है, आदमी के अस्थिपंजर में खोज कर रहा है। ऐसा अगर तुम्हारा ईश्वर कहीं हो, तो लाओ, उसे रखो प्रयोगशाला की टेबल पर, सर्जरी की टेबल पर, हम उसे काटें- पीटें, उसे खोजें, क्या है उसके भीतर ? कुछ है भी या धोखा है ! नकारात्मक दृष्टि विश्लेषण मांगती है; एनालिसिस, तोड़ो, खंड-खंड करो, तभी हम स्वीकार करेंगे कि है। अगर हमने तोड़कर भी पाया कि है, तो ही हम मानेंगे कि है। नकारात्मक दृष्टि खंड-खंड करने में भरोसा रखती है। अगर हम एक फूल दें, तो नकारात्मक दृष्टि तोड़कर सौंदर्य की खोज करेगी। | पंखुड़ियों को काट डालेगी। एक-एक रस को पृथक कर लेगी। | एक-एक खनिज को तोड़ डालेगी । और तब अलग-अलग शीशियों में बंद करके फूल के सौंदर्य की खोज करेगी। 169 स्वभावतः, फूल का सौंदर्य नहीं मिलेगा; क्योंकि फूल का सौंदर्य फूल की पूर्णता में है, उसकी समग्रता में है, उसकी टोटेलिटी में है। तोड़ते ही खो जाता है। फूल का सौंदर्य उसके खंडों में नहीं, उसकी अखंडता में है। और जो भी अखंडता में है, नकारात्मक दृष्टि उसे कभी भी नहीं पा पाएगी। परमात्मा परिपूर्ण अखंडता है। अगर फूल अपनी अखंडता में है, तो फूल की समग्रता । परमात्मा का अर्थ है, सारे अस्तित्व की समग्रता । पूरा अस्तित्व अगर एक फूल है, तो परमात्मा उसकी समग्रता का सौंदर्य है। नकार की दृष्टि इंद्रियों पर भरोसा करती है। जो इंद्रियों को प्रतीत हो, वही सत्य है; जिसे इंद्रियां इनकार कर दें, वह सत्य नहीं है। | लेकिन इस दृष्टि को भी धीरे-धीरे जैसे-जैसे गहरे उतरने का मौका Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ गीता दर्शन भाग-4 मिला, उसे ऐसी बातों को स्वीकार करना पड़ा है, जिनकी इंद्रियां | भक्त से हमारे मन में जो तस्वीर उठती है, वह बहुत बचकानी कोई भी खबर नहीं देतीं। | है। भक्त से हमारे मन में खयाल उठता है कि मंदिर में पूजा का __ आज का सारा विज्ञान परमाणु की खोज पर खड़ा है, इंद्रियां | | थाल लिए जो खड़ा है! भक्त से हमारे मन में खयाल उठता है कि उसकी कोई खबर नहीं देती। ज्यादा से ज्यादा हम परमाणु के जो जो रोज नियम से, विधि से प्रार्थना कर रहा है! भक्त से हमें खयाल परिणाम हो सकते हैं, इफेक्ट्स हो सकते हैं, उन्हें जान सकते हैं, उठता है-जनेऊधारी, टोपी लगाए हुए, टीका लगाए हुए! भक्त लेकिन स्वयं परमाणु को नहीं। लेकिन इसी बुद्धि ने कल यह मानने | से हमें कुछ खयाल उठते हैं; कुछ तस्वीरें मन में घूम जाती हैं। से इनकार कर दिया था कि आदमी के भीतर प्रेम है। प्रेम के परिणाम लेकिन भक्त का जो अर्थ है, वह है, जिसकी दोष-दृष्टि नष्ट तो दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि एक मां अपने जीवन के न मालूम | हुई; जो अब जीवन को नकारात्मक ढंग से नहीं देखता; जिसने अब कितने कीमती समय को प्रेम के लिए विलीन कर देती है! कि कोई | जीवन को उसकी विधायकता में देखने की तैयारी जुटा ली। प्रेमी अपने प्रेमी के लिए मर जाता है! जीवन को भी छोड़ देता है | इसे हम ऐसा भी समझें, तो ठीक होगा, मैंने कहा कि प्रेम के लिए! नकारात्मक जो जीवन-दृष्टि है, वह चीजों को तोड़कर देखती है। तो प्रेम के परिणाम तो भारी हैं, लेकिन प्रेम को काटकर जानने | | तोड़ने के लिए हमारे पास एक शब्द है, विभक्त। चीजों को बांटती का कोई भी उपाय नहीं है। तो फिर प्रेम एक कल्पना होगी। फिर | है, विभक्त करती है। भक्त का अर्थ इससे उलटा है, जो तोड़ता प्रेम एक खयाल है, फिर उसकी कोई वस्तुगत सत्ता नहीं है, ऐसा | नहीं, जोड़ता है। भक्त का अर्थ है, जो जोड़ता है। विभक्त का जो मानते थे, वे भी परमाणु को स्वीकार करेंगे। और वे भी परमाणु अर्थ है, जो तोड़ता है। के नीचे उतरेंगे, तो इलेक्ट्रांस को स्वीकार करेंगे। इंद्रियां उनकी कोई | अंग्रेजी में भक्त के लिए हम डिवोटी शब्द का उपयोग करते हैं। भी गवाही नहीं देतीं। वह एकदम ही गलत है। उस डिवोटी से हमारी वही तस्वीर खयाल विज्ञान भी तोड़-तोड़कर इस नतीजे पर पहुंचा है कि वे जो अंतिम | में आती है, मंदिर में पूजा का थाल लिए। ठीक भक्त का अगर खंड हाथ में आते हैं, वे हाथ में आते ही नहीं। अंतिम खंड भी हाथ अंग्रेजी में कोई शब्द हो सके पर्यायवाची, तो वह इंडिविजुअल है। से चूक जाते हैं। इंद्रियों की पकड़ उन पर भी नहीं बैठ पाती। लेकिन | लेकिन खयाल में नहीं आएगा। इंडिविजुअल शब्द का भी अर्थ एक और दृष्टि भी है, जिसे विधायक, पाजिटिव दृष्टि कहें। जो | होता है, दैट व्हिच कैन नाट बी डिवाइडेड, इनडिविजिबल। जो जीवन को तोड़कर नहीं, जोड़कर देखती है। जो पूछती है, तो इसलिए | तोड़ा न जा सके। जो टूटा हुआ न हो। जिसका भरोसा तोड़ने पर कि पहुंचे कैसे। जो सवाल भी उठाती है, तो इसलिए ताकि जवाब | न हो। जोड़ा जा सके, जोड़ने की तैयारी हो, जुड़ा हुआ हो। मिल सके। जवाब गलत है, इसलिए नहीं; ताकि जवाब किसी और कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने मनोविज्ञान को ए थियरी आफ का है अभी, कल मेरा भी कैसे हो जाए इसलिए। | इंडिविजुएशन कहा है—एक होने का विज्ञान। भक्त का अर्थ भी आज जो कृष्ण कहते हैं, कल वह अर्जुन का भी हो जाए, | | वही है। भक्त का अर्थ है, जो जीवन को जोड़ने वाली दृष्टि से इसलिए अगर सवाल पूछा जाए, तो उस सवाल की गरिमा और देखने में समर्थ हआ है। यह सामर्थ्य तभी आती है. जब हम तोडने गौरव अलग है। उस सवाल की गणवत्ता. उसकी क्वालिटी और वाली दृष्टि को छोड़ देते हैं, त्याग कर देते हैं। और जल्दी में कोई है। कृष्ण को लगता है कि अर्जुन अब उस जगह आकर खड़ा हुआ छलांग नहीं लगा सकता। है, जहां उसकी दोष की दृष्टि खो गई है। अब उससे परम रहस्य | | कृष्ण यह सूत्र गीता के प्रारंभ में भी कह सकते थे, लेकिन तब की बात कही जा सकती है। वह व्यर्थ हुआ होता। हममें से बहुत लोग ऐसे ही हैं, जो गीता के वे कहते हैं, तुझ दोष-दृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम | | आठ अध्यायों की यात्रा न करते, सीधे इस सूत्र से शुरू करते। वे गोपनीय ज्ञान के रहस्य को कहूंगा। | कृष्ण से भी ज्यादा समझदार अपने को सोच लेते होंगे! दोष-दृष्टि से जैसे ही कोई व्यक्ति रहित हुआ, वह भक्त हो | | कोई भी व्यक्ति सीधा भक्ति में उतरने में बहुत असफलता गया। भक्त की इस परिभाषा को ठीक से हृदय में ले लें। क्योंकि | पाएगा। क्योंकि जब तक बुद्धि अपनी दौड़-धूप को शांत न कर ले, भक्त से हम कुछ न मालूम क्या समझते हैं! तब तक भक्त का भाव उदय ही नहीं होता। जब तक बुद्धि थककर | 1701 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा का अंकुरण * हार न जाए, पराजित होकर गिर न जाए, अपने ही हाथों अपनी आत्महत्या न कर ले-दौड़ ले, कोशिश कर ले, संघर्ष कर ले, विजय की चेष्टा कर ले, और सब विफल हो जाए तब तक हृदय का आविर्भाव नहीं होता । इसलिए हृदय का अर्थ, अज्ञान मत समझ लेना। इसलिए हृदय का अर्थ एक तरह का भोला-भाला बुद्धूपन मत समझ लेना । इसलिए हृदय का अर्थ बुद्धि की कमजोरी मत समझ लेना। इसलिए यह मत समझ लेना कि जिनकी बुद्धि कमजोर है, वे बड़े धन्यभागी हैं। यह भी मत समझ लेना कि जो सोच-विचार नहीं सकते, उनका तो भक्ति का द्वार खुला ही हुआ है ! नहीं। भक्त तभी कोई हो पाता है, जब बुद्धि की सारी चेष्टाएं असफल हो जाएं। इसलिए भक्ति बुद्धि के पार ले जाती है, नीचे नहीं। और जो बुद्धि तक भी नहीं पहुंच पाते, ध्यान रखें, वे भक्ति तक नहीं पहुंच पाएंगे। यह मेरी बात कठोर मालूम पड़ेगी, क्योंकि भक्त ऐसा सोचते हैं कि ठीक है, बुद्धि का तो बहुत कठिन काम है । हमारे में तो बुद्धि है नहीं, तो हम तो मंदिर में घंटी बजाकर, फूल चढ़ाकर काम चला लेंगे! इस धोखे में कोई भी न पड़े। जीवन के सत्य की प्रतीति श्रम मांगती है । और कोई भी क्षमा नहीं किया जा सकता। और जीवन के मंदिर के प्रवेश में सभी को संघर्ष के रास्ते से गुजरना ही पड़ता है । वह अनिवार्यता है । और पीछे का कोई भी दरवाजा नहीं है कि आप कोई रिश्वत देकर, कि भगवान की स्तुति करके पीछे के किसी द्वार से प्रवेश कर जाएं। इसलिए कोई यह न सोचे कि भक्ति का मार्ग बड़ा सुगम है। . कृष्ण खुद कहेंगे कि सुगम है। लेकिन ध्यान रखें कि यह आठ अध्यायों के बाद वे अर्जुन से कह रहे हैं। आठ अध्याय को मत भूल जाएं। अगर ऐसा ही सुगम था, तो कृष्ण बिलकुल पागल हैं! यह आधी गीता व्यर्थ! जब ऐसी सुगम ही बात थी, तो इसे शुरू: ही कह देना चाहिए था । इतनी देर तक अर्जुन का समय गंवाने की क्या है जरूरत ? कठिन मार्ग पहले बताए, अब सुगम बताते हैं ! सीधा गणित तो यही है कि सुगम पहले बता दिया जाए। अगर सुगम न हो सके, तो फिर कठिन बताया जाए। नहीं, कारण कुछ और है। भक्ति सुगम है, अगर गीता के आठ अध्याय आप पार कर गए हों; निश्चित सुगम है। लेकिन अगर वे आठ आप सिर्फ उलट ही गए हों, छोड़ ही गए हों, तो भक्ति अति कठिन है। भक्ति की सुगमता बेशर्त नहीं है। उसमें एक शर्त है। और शर्त में ही सारा दांव है। इसलिए लोग कहते सुने जाते हैं कि हमारा मार्ग तो भक्ति है। उनका मतलब यह होता है कि बुद्धि की झंझट में हम नहीं पड़ते। उनका मतलब यह होता है कि कौन उस उपद्रव में पड़े। और अगर कोई बुद्धि की झंझट में पड़ा है, तो वे उसकी तरफ ऐसे देखते हैं, कि बेचारा ! 171 अज्ञानी अपने अज्ञान में भी मजा लेते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, पढ़ने-लिखने से क्या होगा? उनका मतलब यह होता है कि पढ़ा-लिखा जो आदमी है, बेकार गया। ऐसे वे अपने मन में संतोष कमाते हैं। मैं भी जानता हूं, पढ़ने-लिखने से क्या होगा! लेकिन पढ़ने-लिखने से क्या होगा, यह बहुत पढ़े-लिखे आदमी की बात है। किताबें बेकार हैं, यह उसकी बात नहीं है, जिसे काला अक्षर भैंस बराबर है। यह उसकी बात है, जिसने किताबों में से गुजरकर देखा है और पाया है कि वे बेकार हैं। लेकिन किताबें बेकार हैं, यह किताबों से गुजरे बिना कभी किसी को अनुभव नहीं होता है। और बुद्धि बेकार है, यह बुद्धि के मार्ग से गुजरे बिना कभी भी पता नहीं चलता है। इतनी उपादेयता है। बुद्धि से गुजरकर फिर आदमी बुद्धि का भरोसा खो देता है। लेकिन ध्यान रहे, इस भरोसे के खोने के लिए बुद्धि की बड़ी | जरूरत है। इसलिए कृष्ण ने पूरी मेहनत की अर्जुन की बुद्धि के साथ। ऐसा नहीं कहा कि क्या जरूरत है? तू भक्ति भाव को | ग्रहण कर ले; तू भक्त हो जा, समर्पित हो जा। मान ले मेरी, जो मैं कहता हूं। कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि दुनिया में कोई भी आदमी तब तक मान नहीं सकता, जब तक उसकी जानने की क्षमता पूरी तरह पराजित न हो जाए। जब तक प्रश्न गिर ही न जाएं, तब तक निष्प्रश्न चित्त पैदा नहीं होता। और जब तक संदेह अपनी पूरी चेष्टा और पूरा यत्न न कर लें, तब तक मरते नहीं हैं; दबाए जा सकते हैं। हमारे पास जो तथाकथित भक्तों का समाज है, वह दबाया हुआ समाज है। वे दबाए हुए संदेह उसके भीतर भी हैं। उसने कभी संदेहों को पार नहीं किया है। वह उनको दबाकर बैठ गया है उनके ऊपर । इसलिए उसकी भक्ति कमजोर और नपुंसक भी है। क्षणभर में डांवाडोल हो जाती है। इसलिए भक्त होकर भी वह डरता है । नास्तिक की बात सुनने में घबड़ाता है। कोई अगर ईश्वर के विपरीत बोलता हो, तो कान में हाथ डाल लेता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 4. इतनी घबड़ाहट भक्त को? इतना कमजोर भक्त ? कि अगर वह राम का भक्त है—यह तो दूर की बात है कि नास्तिक की बात वह सुने - अगर वह राम का भक्त है, तो कृष्ण की बात नहीं सुनेगा ! इतनी नपुंसक भक्ति ? इतनी कमजोर ? इतनी दीन ? भक्ति तो परम शक्ति है। जब उसका आविर्भाव होता है, तो उससे ज्यादा बलशाली कोई व्यक्ति ही नहीं होता। वह तो परम ऊर्जा का जागरण है । तो इस कमजोर भक्त और परम ऊर्जा के जागरण का क्या संबंध है? एक महिला चार दिन पहले रे पास आई। और वह कहने लगी कि मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि मेरे गुरु तो मर गए हैं, लेकिन कह गए हैं कि किसी और की बात सुनने कभी मत जाना, अन्यथा मार्ग से च्युत हो जाएगी। तो गुरु तो मर चुके हैं, मैं आपसे पूछने आई हूं कि अगर आपकी बात सुनने आऊं, तो कोई हानि तो हो जाएगी ? सत्य इतने कमजोर ? और गुरु इतने दीन ? कहीं कोई दूसरी बात सुनकर डांवाडोल तो न हो जाएगा मन? तो जानना कि डांवाडोल है ही। अपने को कब तक धोखा दोगे ? ऐसे धोखे से नहीं चलेगा। जरा-सा हवा का झोंका और सब प्राण कंप जाएंगे; और सब मुर्दा पत्ते उड़ जाएंगे; और भीतर वे जो छिपे हुए संदेह हैं, ऊपर उघड़ आएंगे। हम ऐसे भक्त हैं, जैसे अंगारे के ऊपर राख छा गई हो बस । थोड़ा अंगारा बुझ गया है, ऊपर-ऊपर राख हो गई है, भीतर अंगार जलती है। भीतर संदेह मौजूद हैं। इसलिए हम विपरीत बात से भयभीत होते हैं। भीतर संदेह मौजूद है, वही हमारा भय है। हम भलीभांति जानते हैं कि कोई भी राख को जरा-सी फूंक मार देगा, तो अंगारा भीतर से प्रकट हो जाएगा। ऐसी भक्ति का कोई भी मूल्य नहीं है, आत्मवंचना है। कृष्ण ऐसी भक्ति की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण तो उन मनीषियों में हैं, जो पलायन में भरोसा नहीं करते, भागने में भरोसा नहीं करते, लड़ने में भरोसा करते हैं - बाहर के युद्ध में ही नहीं, भीतर के युद्ध में भी । अर्जुन से उन्होंने पूरी टक्कर ली। अगर बुद्धि के खेल में अर्जुन रस आ रहा है, तो कृष्ण ने भी उस रस में पूरा भाग लिया। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह क्या तू बुद्धि की बातें करता है, बेकार ! क्योंकि किसी के बेकार कहने से कुछ भी बेकार नहीं होता है । बल्कि अक्सर तो यह होता है, बेकार कहने से और भी ज्यादा रसपूर्ण हो जाता है। उन्होंने यह नहीं कहा कि बंद कर। श्रद्धा जन्मा ! श्रद्धा कोई जन्माई नहीं जाती। उन्होंने यह नहीं कहा कि भरोसा रख! क्योंकि किसी के कहने से अगर भरोसा आता होता, तो सारी दुनिया कभी की भरोसे से भर गई होती। कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि भरोसा कहने से पैदा नहीं होता, भरोसा तो बुद्धि की असमर्थता से जन्मता है। ध्यान रखें, जब बुद्धि असहाय हो जाती है, तभी श्रद्धा का जन्म | होता है। जब बुद्धि थककर गिर जाती है, और पाती है कि अब एक | इंच भी गति का उपाय नहीं है... बुद्धि के मरघट पर ही श्रद्धा का बीज अंकुरित होता है। इसलिए कमजोर बुद्धि की नहीं, बड़ी संघर्षशील बुद्धि की | जरूरत है, बड़ी जीवंत बुद्धि की जरूरत है । और भक्ति को ऐसा मत समझ लें कि वह उनका काम है, जिनके पास बुद्धि नाम मात्र नहीं है। भक्ति उनका काम है, जिनके पास बुद्धि की यात्रा के पार जाने का समय आ गया है; जो बुद्धि के भी ऊपर उठने के करीब पहुंच गए हैं; जो उस सीमा रेखा पर सीमांत पर खड़े हो गए, जहां बुद्धि समाप्त होती है, और भक्ति और हृदय की यात्रा शुरू होती है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि तुझ भक्त के लिए। अब तक अर्जुन एक जिज्ञासु था। एक खोज थी उसकी। समझना चाहता था; लेकिन बुद्धि से। अब वह भक्त हुआ। अब वह समझना चाहता है; लेकिन अब खोज पिपासा बन गई है। अब खोज केवल एक इंटलेक्चुअल इंक्वायरी नहीं है, अब हृदय की अभीप्सा है। अब | तक जो था, वह शब्दों का जाल था। अब अपने को दांव पर लगाने की भी हिम्मत उसमें आ गई है। इसलिए वे कहते हैं कि इस परम | गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूंगा। यह ज्ञान परम गोपनीय है; गुप्त रखने योग्य है; न कहा जाने योग्य है। बड़ी उलटी बात कृष्ण कहते हैं, कि जो गोपनीय है, उसे कहूंगा ! | उसे कहूंगा, जिसे नहीं कहना चाहिए। उसे कहूंगा, जो नहीं कहा जा सकता है ! उसे कहूंगा, जो कि कहकर भी कभी नहीं कहा गया है! गोपनीय का यह अर्थ होता है, जो गुप्त है स्वभाव से । और उसको रहस्य सहित कहूंगा ! उस गोपनीय की जो भी रहस्यमयता है, उसके आस-पास जो रहस्य का आभामंडल है, उसे भी | उघाड़कर कहूंगा। जिसे नहीं उघाड़ना है, उसे निर्वस्त्र करूंगा ! जिसे छिपाए रखना ही उचित है, उसे भी अब नहीं छिपाऊंगा ! क्यों ? कुछ बातें खयाल में ले लें। पहली बात, जब तक हृदय में भक्त का भाव न हो, तब तक 172 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रद्धा का अंकुरण * कोई भी ज्ञान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। विज्ञान का ज्ञान ऐसे | इसे रोके कौन? यह रुकेगा कैसे? इसे छिपाओगे कैसे? ही खतरनाक सिद्ध हो रहा है। ज्ञान खतरनाक नहीं होता, लेकिन | बहुत आश्चर्य न होगा, अगर आने वाले पंद्रह वर्षों में सारी ज्ञान जिसके हाथ में जाएगा, अगर उसके पास भक्त का भाव न | | दुनिया के वैज्ञानिकों को इकट्ठा होकर यह तय करना पड़े कि सिर्फ हो, तो ज्ञान का खतरा निश्चित है। वैज्ञानिक ही वैज्ञानिक अनुसंधान से हुई उपलब्धियों को जान विज्ञान ने बड़े ज्ञान की खोज की और पदार्थ के गुह्यतम रहस्यों | सकेंगे, बाकी कोई नहीं। और शायद उन्हें ऐसी भाषा विकसित को बाहर ले आया। लेकिन उसका परिणाम हिरोशिमा और करनी पड़े–जो विकसित हो रही है कि जिस भाषा को नागासाकी हुआ। और उसका परिणाम अब यह है कि खुद | | गैर-वैज्ञानिक समझ ही न सके। आज भी नहीं समझ सकता। आज वैज्ञानिक चिंतित हैं कि हमने पाप किया। ओपेनहेमर ने, या | भी वैज्ञानिक की भाषा धीरे-धीरे स्पष्ट रूप से गोपनीय होती चली आइंस्टीन ने, जिन्होंने अणु की ऊर्जा के विस्फोट में सर्वाधिक काम जा रही है। किया, उनके भी अंतिम क्षण बड़े दुख और पश्चात्तापपूर्ण थे; | ठीक ऐसा ही एक अनुभव आत्मज्ञान का भारत को भी हुआ है। अपराधपूर्ण थे, एक भारी गिल्ट, छाती पर एक बोझ था। लीनियस | | उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। भारत ने भी मनुष्य के पालिंग या और दूसरे वैज्ञानिक भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में | | अंतर्भेदन में उस जगह को उपलब्ध कर लिया, जहां परम शक्ति एक ही चीज से परेशान हैं। और वह परेशानी यह है कि हमने जो | | का स्रोत था। उन सूत्रों को छिपाने का सवाल उठ गया, क्योंकि उन ज्ञान मनुष्य को दे दिया है, कहीं वह ज्ञान ही तो मनुष्य का आत्मघात | सूत्रों का बताया जाना खतरनाक हो सकता था। सिद्ध न होगा? कहीं उसके कारण ही तो जगत विनष्ट नहीं हो | इसलिए एक गोपनीय गुह्य-ज्ञान, एक इसोटेरिक नालेज निर्मित जाएगा? हमने तो सोचा था कि ज्ञान सदा ही हितकारी है, लेकिन | हुई। और उसे यहां तक गुह्य करना पड़ा कि उसे शास्त्र में भी न अब ऐसा मालूम नहीं पड़ता। | लिखा जाए; क्योंकि शास्त्र भी पढ़े जा सकते हैं। या इस ढंग से ज्ञान सदा हितकारी नहीं है। कभी-कभी तो अज्ञान भी हितकारी | लिखा जाए कि पढ़ने वाला कुछ और समझे, वह नहीं, जो कहा है। गलत आदमी के हाथ में अज्ञान ही ठीक है। सही आदमी के | गया है। या इस ढंग से लिखा जाए कि उसके अनेक अर्थ हो सकें; हाथ में ज्ञान ठीक हो सकता है, क्योंकि ज्ञान शक्ति है। बेकन ने और पढ़ने वाला जब तक जानता ही न हो, तब तक अनेक अर्थों कहा है, नालेज इज़ पावर-ज्ञान शक्ति है। और शक्ति अगर | में खो जाए। या इस ढंग से लिखा जाए कि उसके दो अर्थ हो सकें। गलत हा है, तो खतरा निश्चित है। एक, जो सामान्य आदमी समझ ले, और पाए कि बिलकुल ठीक भक्त का अर्थ है, अब जो गलत नहीं कर सकता। भक्त का है; और एक वह आदमी समझे, जिसके हाथ में कुंजियां हैं। अर्थ है, जिसके भीतर से गलत करने वाली बुद्धि विलीन हो गई। फिर बहुत वर्षों तक, किताबें न लिखी जाएं, इसका आग्रह रहा। भक्त का अर्थ है, जिसने जीवन में अब परम को देखने की क्षमता हजारों वर्षों तक हमने ज्ञान को मुखाग्र रखा; नहीं लिखने की चेष्टा जुटा ली। अब वह निकृष्ट के लिए प्रयासशील नहीं होगा। उसके | की। मजबूरी में वह लिखा गया। इसलिए नहीं, जैसा कि पश्चिम हाथ में शक्ति भी दे दी जाए, तो अब कोई खतरा नहीं है। के विचारक समझते हैं कि ज्ञान तब लिखा गया, जब लिखने का विज्ञान को जो भूल आज समझ में रही है, भारत को पांच | | आविष्कार हुआ। नहीं; क्योंकि जो ज्ञान का आविष्कार कर सकते हजार साल पहले किसी दूसरे संदर्भ में समझ में आ गई है। जिसे | थे, वे निश्चित ही लिखने का आविष्कार कर सकते थे। लिखना आज विज्ञान पदार्थ में गहरे उतरकर समझ रहा है, और पश्चिम के बड़ी छोटी बात है। जो ज्ञान का आविष्कार कर सकते थे, वे लिखने सारे वैज्ञानिकों के सारे सम्मेलन एक ही बात पर चिंता कर रहे हैं, का आविष्कार न कर सकते हों, यह बात समझ में आने जैसी नहीं कि क्या अब जो ज्ञान हमें मिल रहा है, वह सर्व-सामान्य के लिए | है। असंगत है। सुलभ किया जाना चाहिए या नहीं? जो ज्ञान हमें मिल रहा है, वह । नहीं, जानने का आविष्कार रोका गया लिखने से हजारों वर्षों राजनीतिज्ञों तक पहुंचना चाहिए या नहीं? जो हम जान लेंगे, हम तक, ताकि वह जनसामान्य तक न पहुंच जाए; वह गोपनीय रखा कैसे समझें कि अगर हमने उसे प्रकट किया, तो वह अहितकर | | जा सके। लिखने की मजबूरी तो तब आई, जब इतनी शाखाएं हो सिद्ध नहीं होगा? फिर कौन रोके? यह जो ज्ञान हाथ में आ जाए, | गईं उस ज्ञान की, और गुप्त मार्गों से यात्रा कर-करके वह इतने 1173| Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 लोगों के हाथ में और इतने ढंगों से पहुंच गया कि अब जरूरी हो गया कि सुस्पष्ट हो सके, कि जो-जो बातें लोगों ने बीच में मिला ली होंगी, वे ठीक नहीं हैं। इसलिए स्मृति से उसे कागज तक उतारने की चेष्टा करनी पड़ी। फिर भी उसे सूत्रों में लिखा गया। सूत्र का मतलब होता है, उसे वही समझ सकेगा, जो सूत्र की भाषा में निष्णात है। अगर आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत के फार्मूले को हम लिखें, तो तीन छोटे-छोटे शब्दों में पूरा हो जाता है; तीन वर्णों में पूरा हो जाता है। पूरा का पूरा उसका जीवन-दर्शन, जिस पर आधुनिक विज्ञान की सारी आधारशिला खड़ी है, आपके नाखून पर लिखा जा सकता है। बस, उतनी ही उसकी खोज है, शेष सब विस्तार है। लेकिन उस नाखून पर लिखे हुए सूत्र को आप समझ नहीं पाएंगे। वह भाषा सूत्र का मतलब होता है, संक्षिप्त, सार । इतना सार कि उसे वही जान सके, जिसे पूरे विस्तार का पता हो। सूत्र से विस्तार नहीं जाना जा सकता; विस्तार पता हो, तो सूत्र खोला जा सकता है। सूत्र है, वह स्मरण रखने के लिए है; ताकि पूरे विस्तार को याद न रखना पड़े। तो शास्त्र सूत्रों में लिखे गए। फिर उन सूत्रों को भी जहां तक बन सके ओरल ट्रेडीशन से- गुरु शिष्य को कहता रहे, और शिष्य अपने शिष्यों को कहता रहे। सीधा मुंह से ही कहे, ताकि कहने में उसका जीवन भी समाविष्ट हो जाए। ताकि जब वह कहे, तो उसकी आत्मा भी उसमें प्रवेश कर जाए। जब वह कहे, तो उसका अनुभव भी उस कहे हुए को रंग और रूप दे जाए। अन्यथा खाली शब्द चली हुई कारतूस जैसे होते हैं | अनुभव से सिक्त, अनुभव से भरे, अनुभव के रस डूबे हुए और पके हुए शब्द भरी हुई कारतूस की तरह होते हैं। तो सूत्र गुरु अपने शिष्य को कह दे । वह भी कान में कह दे । अभी भी कान में कहे जा रहे हैं सूत्र ! लेकिन बड़े अजीब सूत्र । कान में गुरु किसी से कह देता है कि राम राम जपना, यह मंत्र दे दिया । कान में वही बातें कही जाती थीं, जो सुनने वाले ने पहले कभी सुनी ही न हों। राम नाम का आप सूत्र दे रहे हैं उसको, वह भलीभांति सुना हुआ है। और फिर भी उसको कह रहे हैं कि किसी को बताना मत, गुप्त रखना! कभी-कभी चीजें बेहूदगी की सीमा को भी पार कर जाती हैं ! सूत्र थेवे, जो सुनने वाले ने कभी सुने ही नहीं थे। जो उसकी चेतना में पहली दफे अवतरित किए जा रहे थे। और इसलिए गुरु ही कहे उनको, क्योंकि उसके पास उसके पूरे जीवन से निकला हुआ, | अनुभव से आया हुआ सूत्र है । वह दूसरे की चेतना पर ट्रांसफर करे। वह हस्तांतरण था एक अनुभव का, सूत्रबद्ध । और साधना | से फिर उस सूत्र के अर्थ को खोज लेने के उपाय थे। कृष्ण कहते हैं, मैं उन गोपनीय बातों को तुझसे कहूंगा, और रहस्य के सहित कहूंगा। क्योंकि सिर्फ गोपनीय बातें कह देने से कुछ भी न होगा। उनका अर्थ भी बताना होगा। उनका रहस्य भी समझाना होगा। कि जिसको जानकर तू दुखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा। ज्ञान मुक्ति है। जो जान लेता है, वह दुख के बाहर हो जाता है। | इसलिए नहीं कि जानना कोई नाव है और दुख कोई सागर है; कि जानने की नाव मिल गई, तो आप पार हो जाएंगे। नहीं। बात थोड़ी और ही है। असल में अज्ञान ही दुख है। जान लिया, तो सागर विलीन हो जाता है; नाव की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अज्ञान और दुख पर्यायवाची हैं। अज्ञान के कारण ही दुख है। ऐसा नहीं कि दुख है, और मैं अज्ञानी हूं। मैं अज्ञानी हूं, इसलिए दुख है । मेरा अज्ञान ही मेरा दुख है । तो जिस दिन मैं जान लूंगा, उस दिन दुख तिरोहित हो जाएगा। ऐसा नहीं कि जानने के बाद फिर ज्ञान की नौका बनाकर और दुख के भवसागर को पार करूंगा। दुख का कोई भवसागर नहीं है। मेरा अज्ञान ही मेरा दुख है। मेरा अज्ञान ही मेरी पीड़ाओं का जन्मदाता है। मेरे अज्ञान के कारण ही मैं उलझ गया हूं। मेरे अज्ञान के कारण ही मैं अपने ही पैरों पर अपने ही हाथों कुल्हाड़ी मारे चला जाता हूं। मैं अपने अज्ञान के कारण ही अपने कोही जहर से भर लेता हूं और अमृत से वंचित हो जाता हूं। यह | मेरी ही भूल है । यह सिर्फ भूल है। इसे थोड़ा समझ लें; क्योंकि यह बहुत कीमती है। | पश्चिम में जो धर्म पैदा हुए, उन्होंने आदमी के पाप पर जोर दिया है | यह बुनियादी फर्क है । इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी, ये तीनों के तीनों यहूदी परंपरा के हिस्से हैं। और दुनिया में दो ही तरह के धर्म की परंपराएं हैं। एक यहूदी धर्म परंपरा और एक हिंदू धर्म परंपरा; बस दो। जो भी धर्म दुनिया | में पैदा हुए हैं या तो वे यहूदी धर्म परंपरा से जन्मे हैं, उसकी ही | शाखाएं हैं; या जो धर्म पैदा हुए हैं— जैसे जैन, बौद्ध या और वें हिंदू धर्म परंपरा की शाखाएं - प्रशाखाएं हैं। ये दो तरह की धर्म 174 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रद्धा का अंकुरण * परंपराएं हैं। और इन दोनों धर्म परंपराओं की बुनियादी बात समझने मैंने सुना है, एक आदमी पर मुकदमा चला और अदालत ने जैसी है। उससे कहा कि तुम कैसे आदमी हो? इस आदमी ने तुम्हारा इतना पश्चिम के जो भी धर्म हैं, यहूदी धर्म से संबंधित जो भी धर्म हैं, | भरोसा किया और तुमने इसे ही धोखा दिया! तो उस आदमी ने कहा, वे सभी धर्म पाप को मनुष्य का मूल कारण मानते हैं दुख का। भारत अगर इसको मैं धोखा न देता, तो किसको धोखा देता! इसने मुझ पर के सभी धर्म अज्ञान को दुख का मूल कारण मानते हैं, पाप को | इतना भरोसा किया, इसीलिए तो मैं धोखा दे पाया। अगर यह भरोसा नहीं। इसलिए क्रिश्चिएनिटी कहती है, दि ओरिजिनल सिन, वह | पहले से ही न करता, तो धोखा असंभव था। सजा आप सिर्फ मुझे जो मूल पाप है, वही सब दुखों का आधार है। भारत कहता है, वह | | ही मत दें, इसे भी दें। हम दोनों भागीदार हैं। इसने भरोसा किया; जो मूल अज्ञान है, वही सब दुखों का आधार है। मैंने धोखा दिया। यह घटना हम दोनों के सहयोग से घटी है। और यह जरा सोचने जैसा है। क्योंकि भारत का यह कहना है | और यह बात ठीक है। यह बात बिलकुल ही ठीक है। शायद कि पाप भी अगर हो सकते हैं, तो तभी, जब अज्ञान हो। इसलिए धोखा देने वाला उतना जिम्मेवार नहीं है, जितना धोखा खाने वाला पाप मूल नहीं हो सकता, अज्ञान उससे भी पहले चाहिए। पापी होने | जिम्मेवार है; क्योंकि उसके बिना धोखा नहीं दिया जा सकता। के लिए भी अज्ञानी होना जरूरी है। आदमी अगर गलत भी करता | आप जानते हैं कि सच बोलना ठीक है. दसरों के लिए, समझाने है, तो इसीलिए कि उसके जानने में कहीं भूल है। यह बहुत मजे | के लिए; चेहरे बनाने के लिए; प्रदर्शन के लिए। लेकिन जब मौका की बात है कि कोई आदमी जानकर गलत नहीं कर सकता है! | आए, तो कुशलता से झूठ बोलना ही उचित है, वह आप भीतर लेकिन आप कहते हैं कि नहीं, मुझे पता है कि सच बोलना | | जानते हैं। आपके भीतर झूठ ही आपका भरोसा है, सच नहीं। चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, फिर भी मैं झूठ बोलता हूं! | आप कहते हैं, मैं जानता हूं, क्रोध करना बुरा है। लेकिन यह आप आपको पता नहीं है। सुन लिया होगा आपने। किसी ने कहा तभी जानते हैं, जब कोई दूसरा क्रोध कर रहा होता है; या आप यह होगा। कहीं पढ़ा होगा। लेकिन भीतर गहरे में आप यही जानते हैं तब जानते हैं, जब आपका क्रोध आकर जा चका होता है। लेकिन कि झूठ बोलने में ही फायदा है। भीतर आप यही जानते हैं। जानना जब क्रोध होता है, तब आपका रो-रोआं जानता है कि क्रोध ही आपका झूठ के ही पक्ष में है। आपने कितना ही सना हो कि सच | | उचित है; आपका रो-रोआं कहता है कि क्रोध ही उचित है। बोलना ठीक है, लेकिन आप भीतर जानते हैं कि वह दूसरों के लिए भारत कहता है, अज्ञान के अतिरिक्त न कोई पाप है और न कोई ठीक है। और इसलिए भी ठीक है दूसरों के लिए कि अगर दूसरे दुख; और ज्ञान के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। सच न बोलें, तो मैं झूठ कैसे बोल पाऊंगा? अगर मेरे झूठ को भी | स्वभावतः, पश्चिम अगर मानता है कि पाप आधार है दुख का, सफल होना है, तो वह तभी सफल हो सकता है, जब बाकी लोग | तो पुण्य आधार होगा मुक्ति का। इसलिए ईसाई फकीर या ईसाई सच बोल रहे हों।. | मिशनरी सेवा में लगा है। सेवा का प्रयोजन यह है कि पाप कट इसलिए झूठ बोलने वाला भी लोगों को समझाता रहता है, सच | | जाए; बुरा काम है, अच्छे काम से कट जाए। बोलो। क्योंकि अगर सारी दुनिया झूठ बोलने लगे, तो झूठ | इसलिए पश्चिम के विचारक को समझ में नहीं आता कि बिलकुल व्यर्थ हो जाएगा। आखिर बेईमानी के सफल होने के लिए | भारतीय साधु ध्यान करके क्या करता है? सेवा करनी चाहिए! और भी कुछ तो ईमानदार चाहिए; चोरी के सफल होने के लिए भी कुछ | विवेकानंद और गांधी के प्रभाव में ईसाइयत का यह भाव, नासमझी तो ऐसे लोग चाहिए, जो चोरी नहीं करते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल | से, हिंदू मन में भी प्रविष्ट हो गया है। हिंदू मन भी डरता है। वह हो जाएगी। भी कहता है, क्या फायदा? ध्यान से क्या होगा? अस्पताल अगर यहां हम सारे लोग बैठे हैं, और सभी जेबकट हैं; तो जेब | खोलो। ध्यान से क्या होगा? जाकर गरीबों के झोपड़े में सेवा करो। नहीं कटेगी। फिर जेब किसकी काटिएगा? और क्या फायदा? कोई । रवींद्रनाथ ने गाया है कि मैं तो भगवान वहीं देखता हूं, जहां मतलब नहीं; बात बेकार है। जेब कट सकती है, इसलिए कि कोई मजदूर गिट्टी फोड़ रहा है। रवींद्रनाथ को पता नहीं है कि अगर जेबकट नहीं भी है। इसलिए जेबकट भी समझाता है कि जेब | मजदूर कभी ऐसा वक्त आ गया और उसने गिट्टी न फोड़ी, तो काटना बहुत बुरा है! समझाना चाहिए। रवींद्रनाथ भगवान को कहां देखेंगे। वे कहते हैं, मैं तो भगवान वहीं [175 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 देखता हूं, जहां भिखारी भिक्षा मांग रहा है। उसकी सेवा करो। यह हैं, यह भला है, और भला नहीं निकलता। सोचते हैं, यह फूल है; ठीक है; बुरा नहीं है; बहुत अच्छा है। उचित है कि सेवा की जाए। | और जब मुट्ठी बांधते हैं, तो कांटा छिद जाता है और लहूलुहान हो लेकिन इसमें मौलिक भेद हैं। जाते हैं। लेकिन फिर भी कुछ नहीं सीखते। फिर कल एक फूल भारतीय साधु ध्यान पर जोर देता रहा है, क्योंकि ध्यान से ज्ञान | दिखाई पड़ता है, फिर जोर से मुट्ठी बांधते हैं, फिर कांटा चुभता है, जन्मेगा। और ईसाइयत जोर दे रही है सेवा पर, पुण्य पर, क्योंकि | फिर रोते हैं। परसों फिर एक फूल दिखाई पड़ता है, फिर हाथ मुट्ठी पुण्य से पाप कटेगा। मौलिक आधारों का भेद है। अगर ज्ञान | बांधते हैं, फिर वही दुख। चाहिए, तो ध्यान मार्ग होगा। और अगर पाप काटना है, तो पुण्य | लेकिन यह खयाल नहीं आता कि जरा फूल को अब गौर से देख उपाय है। लें. कहीं हर फल कांटा तो नहीं है? या मेरे यह मट्टी बांधने में ही लेकिन भारतीय मनीषा कहती है कि अगर बिना ज्ञान के तुम | तो कांटे के चुभने की पैदाइश नहीं है? यह मेरा मट्टी बांधने का जो पुण्य भी करने लगे, तो पुण्य भी तुम्हें बहुत गहरे नहीं ले जाएगा। | आग्रह है, यही तो मेरा दुख नहीं है? और मैं यह फूल से जो क्योंकि अज्ञानी के पुण्य का मूल्य कितना है? और अज्ञानी की सेवा | आकर्षित हो जाता हूं, यह क्यों हो जाता हूं? यह मेरी जो आत्मा किसी भी क्षण खतरनाक हो सकती है। और अज्ञानी की सेवा के | | फूल की तरफ बहने लगती है, यह जो आसक्ति और यह जो राग पीछे भी अज्ञान तो खड़ा ही रहेगा। पैदा हो जाता है, यह क्यों हो जाता है? इस सबके मूल को जो जान तो मूल रोग तो हटता ही नहीं है। मैं आपकी गर्दन नहीं काटता; लेता है, वह मुक्त हो जाता है। आपके पैर दबाने लगता हूं। लेकिन मैं तो मैं ही हूं, वही का वही। तो कृष्ण कहते हैं, इस ज्ञान को जानकर तू इस दुखरूप संसार मेरे भीतर जो चेतना है, वह वही की वही है। उसमें कोई भेद नहीं से मुक्त हो जाएगा। पड़ गया है। मेरे लोभ अपनी जगह खड़े हैं; लेकिन उनका रूप लेकिन ध्यान रखें, जानकर, सुनकर नहीं। कृष्ण को कहना बदल गया, मिट नहीं गए। मेरा क्रोध अपनी जगह खड़ा है। लेकिन चाहिए था, हे अर्जुन, इस ज्ञान को सुनकर तू मुक्त हो जाएगा! उसका मार्गांतीकरण हो गया, सब्लिमेशन हो गया। लेकिन वह अर्जुन बहुत प्रफुल्लित हुआ होता। आप भी प्रफुल्लित होते रहे हैं। अपनी जगह खड़ा है। और नए-नए रूपों में प्रकट होता रहेगा। | ___ लोग सोचते हैं, शास्त्रों को सुनकर धर्म हो जाएगा। लोग सोचते . भारत कहता है, जानने के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। और हैं, गीता को सुनकर ज्ञान हो जाएगा। इतना सस्ता अगर ज्ञान होता, इसलिए कहता है कि जो जान लेता है, वह उससे विपरीत नहीं जा तो अज्ञानी किसी को होने की जरूरत ही न थी। सुनकर नहीं सकता। अगर मझे पता है कि यह आग है. तो मैं हाथ नहीं डालता। इसलिए इंफेटिकली. जोर देकर कष्ण कहते हैं. जिसको जानकर। हूं। और अगर कभी डालता भी हूं, तो भलीभांति जानकर डालता लेकिन हम सुनने को भी जानना समझ लेते हैं। जो-जो आप हूं कि यह आग है और मैं जलूंगा। फिर मैं जलने के लिए पछताता सुनते हैं, वह आपका ज्ञान हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है। नहीं हूं। फिर जलने के लिए रोता नहीं फिरता हूं। फिर जलने के अखबार पढ़ लिया, आप ज्ञानी हो गए। गीता पढ़ ली, आप ज्ञानी लिए शिकायत नहीं करता हूं। फिर बात ही शिकायत की नहीं है। हो गए! जो भी पढ़कर आपकी स्मृति में चला गया, आप ज्ञानी मैंने जानकर जो किया है, तो फिर इस जगत में कोई शिकायत का | हो गए! उपाय नहीं है। मैं जिम्मेवार हूं। स्मृति ज्ञान नहीं है। लेकिन हमारा स्कूल, हमारा विश्वविद्यालय लेकिन जानकर कोई आग में हाथ नहीं डालता है। डालने का स्मृति को ही ज्ञान बताता है। सारा संसार स्मृति को ज्ञान मानकर कोई कारण नहीं है। अज्ञान में हाथ चला जाता है आग में, और दुख चलता है। हम कहते हैं, एक आदमी बहुत जानता है, क्योंकि पैदा होता है। अज्ञान दुख है। हम सब तरह की आग में हाथ डालते | | उसकी बहुत स्मृति है। हम कहते हैं, फलां आदमी को गीता कंठस्थ हैं। हालांकि यह हो सकता है कि जब हम हाथ डालते हैं, तब है। उनका कंठ पागल हो गया, और तो कोई सार नहीं है। कंठस्थ हमको आग दिखाई ही न पड़ती हो। से क्या होगा? फलां आदमी को वेद कंठस्थ है, तो भारी गरिमा है। अज्ञान में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; आदमी अंधे की तरह कंठस्थ से क्या होगा? कंठ का क्या कसूर है? कंठ को क्यों चलता है। सोचते हैं कि यह अच्छा है, और बुरा होता है। सोचते परेशान कर रहे हैं? 176 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रद्धा का अंकुरण * कंठ बड़ा ऊपर है, उससे कुछ हृदय बदलता नहीं। और कंठ में | मैं बहुत खोजा, कोई एकाध अज्ञानी मिल जाए। वह मिलता ही नहीं। जिनके ज्ञान अटक जाता है, उनकी फांसी लग जाती है। फांसी में | | सब ज्ञानी हैं! और छोटे-मोटे ज्ञानी नहीं हैं; सब ब्रह्मज्ञानी हैं! लटके रहते हैं वे। उनको वहम भी होता है कि ज्ञान है, और ज्ञान | एक मित्र आए थे कुछ दिन हुए। मैंने उनसे पूछा कि बहुत दिन होता नहीं। बोलने के लिए हो सकता है। दूसरे को बताने के लिए | से दिखाई नहीं पड़ते हैं। क्या करते रहे? हो सकता है। खुद के जीवन के लिए उसका कोई संबंध नहीं होता। उन्होंने कहा, कुछ नहीं। नौकरी-चाकरी मैंने सब छोड़ दी है। जानने का अर्थ स्मृति नहीं है। जानने का अर्थ है, अनुभव। तो | अब तो लोगों को ब्रह्मज्ञान समझाने में लगा रहता हूं। कृष्ण कहते हैं, जो मैं तुझे रहस्य बताऊंगा, काश! तू उसे जान ले, मैंने कहा, तुम्हें हो गया? अनुभव कर ले, तो दुख के सागर से मुक्त हो जा सकता है। उन्होंने कहा, होगा क्यों नहीं? आज तीस साल से सत्संग के पर जानना और जानने में फर्क है। एक जानना है, वह हम सब | सिवाय कुछ किया ही नहीं है। ऐसा एक गुरु नहीं है भारत में, जानते हैं। एक आदमी कहता है, ईश्वर है। जाना उसने बिलकुल जिसके चरणों में मैं नहीं बैठा हूं। सब मुझे हो गया है। अब तो नहीं है। इससे तो बेहतर वह नास्तिक है, जो कहता है, मुझे कुछ | दूसरों को मेरे द्वारा हो रहा है। कई लोग आने लगे हैं, और उनको पता नहीं चलता ईश्वर का। मैं कैसे मानूं? यह नास्तिक शायद | ज्ञान वितरित कर रहा हूं। किसी दिन आस्तिक भी हो जाए! लेकिन वह जो पहला आस्तिक | जिनके पास नहीं है, वे भी वितरित कर सकते हैं। वितरित करने है, जो कहता है, ईश्वर है। क्योंकि उसने सुना है; क्योंकि उसके में कोई कठिनाई नहीं है। खोपड़ी पर बोझ हो जाता है सुन-सुनकर, घर में कहा गया है; क्योंकि परंपरा से बात चली आई है। क्योंकि उसको बांटकर हल्कापन आ जाता है। लेकिन वह ज्ञान नहीं है; वह . उसके पिता ने, उसके गुरु ने कहा है। क्योंकि शास्त्र में पढ़ा है। या जानना नहीं है। भय की वजह से, या मौत के डर से, या सहारे के लिए, वह माने | कृष्ण कहते हैं, जान लेगा अगर तू, तो दुख से मुक्त हो जाएगा। चला जा रहा है। लेकिन वह कहता है, मैं जानता हूं, ईश्वर है। यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा और सब गोपनीयों का भी राजा एवं जानने शब्द का प्रयोग जरा सोचकर करना, ईमानदारी से करना। | अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त है, साधन और जो आदमी जानने का ईमानदार अर्थ सीख जाए, उसकी जिंदगी करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। में क्रांति हो जाती है। लेकिन हम सब बेईमान हैं। जानने के संबंध दो बातें। कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठतम है यह ज्ञान। इससे श्रेष्ठ और में हम बिलकुल बेईमान हैं। कुछ भी नहीं है। यह राजविद्या है; समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ। आप जरा एक बार अपनी खोपडी में वापस खोज-बीन करना। क्योंकि और विद्याओं से आदमी अपने अलावा कछ भी जान ले. कितना है, जो आप जानते हैं? तब आपको पता चलेगा कि खुद को नहीं जान पाता। और विद्याओं से आदमी अपने को संभावना जीरो हाथ लगने की है। जीरो भी लग जाए, तो बहुत है। | छोड़कर सब कुछ पा ले, अपने को नहीं उपलब्ध हो पाता। और पाएंगे कि सब सुना हुआ है। जोर से पकड़े बैठे हैं, और डरते भी जब मैं अपने को ही न जान पाऊं, सब भी जान लं: और अपने को हैं कि जांच-पड़ताल की और अगर पता चल गया कि अपना जाना न उपलब्ध हो सकू, और सब पा लूं; तो भी उस पाने और जानने हुआ नहीं है। तो डरते भी हैं। तो जांच-पड़ताल भी नहीं करते। और का अर्थ क्या है? ऐसे लोगों के पास जाते रहते हैं, जो आपकी इस नासमझी को इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह परम ज्ञान है, राजविद्या है; दि मजबूत करते रहते हैं। वे कहते हैं, सुनते रहो। सुनते-सुनते हो सुप्रीम नालेज, आर दि सुप्रीम साइंस, परम विज्ञान है। इससे तू जाएगा। स्वयं को जान लेगा। और जो स्वयं को जान लेता है, वह सब जान सुनते-सुनते सिर्फ बहरे हो जाएंगे। और सुनते-सुनते सुनना भी लेता है। बंद हो जाएगा। और सुनते-सुनते आपको वहम पैदा होगा, इलूजन | | साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। पैदा होगा कि सब जान लिया। और यह जो ज्ञान है, यह सनातन है। यह न कभी पैदा हुआ है हमारा मुल्क ऐसे ही ज्ञान से पीड़ित और परेशान है! हम अज्ञान | और न कभी इसका अंत होगा। इसलिए इस ज्ञान से जो संयुक्त हो से इतने पीड़ित नहीं हैं। हमारे मुल्क में अज्ञानी तो कोई है ही नहीं। जाता है, वह भी अविनाशी हो जाता है। और एक बड़ी कीमती बात 177 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-48 कहते हैं कि साधन करने को सुगम है। पड़ेगा। आपकी पात्रता हो, उस पात्रता के लिए बहुत कुछ करना उसके लिए सुगम है, जो इसका अभ्यास करेगा। जो सुनेगा, पड़ेगा। जैसे मैं कह सकता हूं कि पानी तो एक क्षण में भाप बन उसे बड़ा दुर्गम है। जो सिर्फ सुनेगा, चलेगा नहीं, उसे बड़ा कठिन | | जाता है, लेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना कि पानी को है। जो चलेगा भी, उसे बड़ा सरल है। गरम नहीं करना पड़ता। सौ डिग्री तक तो पानी को गरम होना ही इस सरलता में दो बातें छिपी हैं। एक तो मैंने कहा, यह आठ | | पड़ता है। सौ डिग्री पर एक क्षण में भाप बन जाता है। लेकिन सौ अध्याय के बाद कही गई सुगमता है। अर्जुन तैयार है, पात्र है। | डिग्री की गर्मी एक क्षण में नहीं आती। सौ डिग्री की गर्मी के लिए अगर आप पात्र हैं, तो सुगम होगा। अगर आप पात्र नहीं हैं, तो वक्त लगता है। ये दोनों बातें सच हैं। अगर कोई पूछे कि पानी सुगम नहीं होगा। आप पर सब कुछ निर्भर करता है। इस अध्याय | क्षणभर में भाप बनता है कि समय लेता है, तो क्या कहिएगा? को पढ़कर कई लोग समझते हैं कि बस, बात ही सुगम है। खत्म दो तरह के चिंतन दुनिया में रहे हैं। एक जो कहते हैं, सडेन हो गया, कुछ करने को भी नहीं है। | एनलाइटेनमेंट, तत्काल निर्वाण हो सकता है, उपलब्धि हो सकती इस अध्याय को सीधा मत पढ़ना! आपकी पात्रता निर्मित होनी | है। और एक जो कहते हैं, ग्रेजुअल एनलाइटेनमेंट, क्रमशः, चाहिए। आपकी दोष-दृष्टि खो गई है, तो यह सुगम है; यह शर्त | सीढ़ी-सीढ़ी उपलब्धि होती है। उन दोनों में बड़ा संघर्ष रहा है; है। यह बेशर्त नहीं है। महात्मागण समझाते रहते हैं लोगों को कि | लेकिन एकदम नासमझी से भरा हुआ। क्योंकि उनकी बातचीत कलियुग में तो भक्ति का साधन ही एकमात्र सुगम साधन है। ठीक वैसी ही है, जैसे कोई पानी के संबंध में तय करे कि पानी क्षण सतयुग में कहते, तो थोड़ा ठीक भी होता। क्योंकि भक्ति जितना | | में भाप बनता है कि समय लगता है! क्या कहिएगा? . शुद्ध हृदय चाहती है, उतना सतयुग में भी मुश्किल है। ___पानी दोनों करता है। और पानी को बांटा नहीं जा सकता। सौ महात्मागण समझाते हैं कि भक्ति सुगम साधन है कलियुग में। डिग्री तक गरम होने में उसे वक्त लगता है। और मजे की बात यह अजीब-सी और नासमझी की बात है। भक्त का हृदय जितना शुद्ध है कि निन्यानबे डिग्री से भी पानी अगर गर्म होना बंद हो जाए, तो हो, उतना तो सतयुग में भी पाना मुश्किल होता है, तो कलियुग में वापस लौट जाएगा, भाप नहीं बनेगा। साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी कैसे आसान हो जाएगा? वे कहते हैं, राम-राम का नाम ले लिया, वापस लौट जाएगा। रत्तीभर कमी रह जाए सौ डिग्री में, तो पानी पानी तो कलियुग में बड़ा सुगम साधन है। लेकिन नाम लेने के लिए जो | ही रहेगा। और अगर गर्मी देनी बंद हो जाए, तो वापस लौट जाएगा। पात्रता चाहिए, वह कहां से लाइएगा? नाम तो कोई भी ले लेता है। सौ डिग्री पर आकर छलांग घटित होती है, और तत्काल पानी लेकिन जो शुद्ध हृदय चाहिए, जिसमें वह राम के नाम का फूल | भाप हो जाता है। यह घटना तो क्षण में घटती है। कहना चाहिए, लगे, वह शुद्ध हृदय कहां है? क्षण के भी हजारवें हिस्से में घटती है। कहना चाहिए, समय के लेकिन लोगों को, आसान है कोई बात, ऐसा समझकर भी बड़ी बाहर घटती है। जरा भी समय नहीं लगता पानी को भाप बनने में, राहत मिलती है। इसलिए कई बार तो यह हो जाता है कि कठिनाई लेकिन पानी को सौ डिग्री तक पहुंचने में बहुत समय लगता है। से डरे हुए लोग, कोई भी बात कोई कह दे कि आसान है, तो उसके __भक्त बनने में बहुत समय लगता है। भक्त को उपलब्धि तो क्षण पीछे लग जाते हैं। इसलिए नहीं कि वह आसान है, बल्कि इसलिए | में हो जाती है। भक्त सौ डिग्री में उबलता हुआ व्यक्तित्व है। कि वे कठिनाई से बहुत डरे हुए हैं। तो आप यह मत सोचना कि आप उठे और भक्त हो गए! आप और ध्यान रहे, जो कठिनाई से डरा है, वह परमात्मा से कभी | | बिलकुल ठंडे पानी हैं। डर तो यह है कि बर्फ न जमा हो, फ्रोजन; भी न मिल सकेगा। क्योंकि वह परम कठिनाई है। वहां तो अपने जिसको पहले पिघलाना पड़े, तब वह पानी बने। फिर गरमाना पड़े, को खोने की और मिटाने की हिम्मत चाहिए। वहां तो आखिरी दांव | तब कहीं वह सौ डिग्री तक पहुंचे! और सौ डिग्री तक पहुंचने में का साहस चाहिए। वह तो आखिरी एडवेंचर, दुस्साहस है। जैसे | | पचास बार वह कहे कि कोई शार्टकट नहीं है? कहां इतना समय कोई छलांग लगाता हो किसी अनंत गड्ड में, जिसके नीचे की | लगा रहे हैं! तलहटी दिखाई ही न पड़ती हो। वह तो ऐसा है। इसलिए महेश योगी जैसे व्यक्तियों की बातें लोगों को थोड़े दिन तो सरल का मतलब यह नहीं होता कि आपको कुछ करना नहीं के लिए बहुत प्रभावी हो जाती हैं; क्योंकि शार्टकट! वे कहते हैं, 178 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रद्धा का अंकुरण * बस, यह मिनटभर का काम है। ऐसा कर लो, और सब हो जाएगा। | बिलकुल नहीं आती। वह भाषा बिलकुल ही कठिन है। कोई भी धोखे में पड़ जाता है। क्योंकि हमारे मन लोभी हैं। लगता इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सुनने में तो नहीं है सुगम, लेकिन है, जल्दी कुछ होता हो, तो ठीक है। इससे हमारा शोषण चलता है। अगर तू करे, तो सुगम है। नहीं, कोई शार्टकट नहीं है। यात्रा पूरी ही करनी पड़ेगी। क्योंकि अगर कोई अंधा मुझसे कहे कि प्रकाश मुझे समझा दो, तो उस परम यात्रा में कोई धोखा नहीं चलेगा। और जीवन के शाश्वत | समझाना बहुत कठिन है। लेकिन अगर वह कहे कि मेरी आंग नियम हैं। | इलाज करवा दो. या मेरी आंख का कोई अभ्यास करवाओ. जिससे तो सुगम है बहुत, अगर आपका हृदय भक्त होने की परिभाषा | मेरी आंखें खुल जाएं, तो मैं कहता हूं, वह सुगम है। अंधे की आंख को पूरा करता हो। लेकिन दूसरी बात भी कही है कि इतने से ही खुल सकती है किसी दिन और वह प्रकाश को देख सकता है। कोई सुगम हो जाएगा, ऐसा नहीं है। भक्त का भी हृदय हो। और सुन | मुझसे कहे कि प्रेम समझा दो मुझे, तो कठिन है बहुत। लेकिन अगर लें सिर्फ, तो कुछ भी न होगा। फिर वापस गिर जाएंगे। सौ डिग्री | वह तैयार हो प्रेम में कूद पड़ने को, प्रेम करने को, तो सुगम है। तक पहुंचकर भी वापस गिरने का डर है, जब तक कि भाप बन ही जीवन में अनुभव के अतिरिक्त और कोई सुगमता नहीं है। शब्द न जाएं। इसलिए चलना भी पड़ेगा। सुगम मालूम पड़ते हैं, बिलकुल दुर्बोध हैं। शब्दों से कुछ भी समझ कृष्ण कहते हैं, साधन करने को बड़ा सुगम है। में न कभी आया है, न आ सकता है। सिर्फ अनुभव, सिर्फ अपनी बड़ा सरल है, अगर साधन करना हो। अगर सुनना ही हो, तो | ही प्रतीति, अपना ही साक्षात्कार प्रकट करता है सत्य को। बहुत कठिन है। लेकिन हमें उलटी बात समझ में आती है। हमें | इसलिए कृष्ण कहते हैं, सुगम है, साधन करने को बड़ा सुगम है। लगता है, सुनना हो, तो बड़ा सुगम है; करना हो, तो बड़ा कठिन | | और हे परंतप, इस ज्ञानरूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को प्राप्त है। सुनना हमें सरल मालूम पड़ता है। लेकिन मैं भी आपसे कहता | न होकर मृत्युरूप चक्र में परिभ्रमण करते हैं। हूं, सुनना कठिन है। क्योंकि जिसे आप जानते ही नहीं हैं, उसे सुन ___ जो श्रद्धारहित हैं, वे सुन लें, समझ लें, चलने की भी कोशिश कैसे सकिएगा? और जिसका आपको पता ही नहीं है, वह आपकी | करें, तो भी मुझ तक नहीं पहुंचते। मुझ तक तो वे ही पहुंचते हैं, जो समझ में कैसे आएगा? और जिसे आपने जाना ही नहीं है, किसी श्रद्धायुक्त हैं। कारण? के भी शब्द-वे कृष्ण के क्यों न हों—वे शब्द आपको कुछ भी कारण, परमात्मा तक पहुंचने का द्वार हृदय है। कारण, परमात्मा न बता पाएंगे। वह भाषा ही अनजानी, अपरिचित है। | तक पहुंचने का भाव प्रेम है। कारण, उस तक पहुंचने की जो तैयारी एक आदमी अरबी में आपके पास बोल रहा हो. आपको वहम है, वह केवल श्रद्धायक्त हृदय में होती है। यह श्रद्धायक्त हृदय का होता है कि सुन रहे हैं, क्या खाक सुन रहे हैं! एक आदमी चीनी में | अर्थ है, ट्रस्टिंग हार्ट, भरोसा करने वाला हृदय।। बोले चला जा रहा है, आपको लगता है कि सुन रहे हैं, लेकिन क्या ___ छोटा बच्चा है; वह कहता है कि मुझे, सूरज उगता है सुबह, सुन रहे हैं? लेकिन चीनी और अरबी के मामले में झंझट नहीं है। वह देखने चलना है। या कहता है कि बगीचे में सुना है कि फूल आप समझते हैं, यह भाषा हमें आती ही नहीं! खिले हैं, मुझे देखने चलना है। या कहता है कि सागर में बड़ी तरंगें आप भूल में मत पड़ना; यह कृष्ण की भाषा आपको और भी | आई हैं, मुझे देखने चलना है। या कुछ और कहता है। उसका पिता बड़ी अरबी है, और भी बड़ी चीनी है। यह बिलकुल नहीं आ कहता है, मेरा हाथ पकड़ और चल! सकती। अरबी में थोड़ा-बहुत समझ में भी आ जाए, उस आदमी | | बेटा कह सकता है कि तुम्हारा हाथ पकड़कर चलूं? रास्ते में तुम के होंठ की गति खयाल में आ जाए, उस आदमी की आंख का | | छोड़ तो न दोगे? तुम्हें अपने हाथ का पक्का भरोसा है कि मैं भटक इशारा समझ में आ जाए, उसकी भाव-भंगिमा कुछ कह दे। यह | | तो न जाऊंगा? क्या तुम्हें पक्का खयाल है कि तुम जहां ले जा रहे कृष्ण तो भाव-भंगिमा रहित हैं। इनके होंठों से कुछ पता नहीं | हो, वह जगह है? और पहले तुम मुझे सब तर्कयुक्त रूप से समझा चलेगा। इनकी आंखें कुछ न कहेंगी। क्योंकि ऐसे व्यक्ति ऐसे शून्य | | दो कि सूरज है, कि सागर है, कि फूल खिले हैं, कि पक्षी गीत गाते हो गए होते हैं, कठिन है इनसे कुछ पता लगा लेना। और जो ये | | हैं। जब मैं सब समझ लूं, तब मुझे यह भी समझाओ कि तुम कह रहे हैं, वह भाषा समझ में आती हुई मालूम पड़ती है, समझ में | धोखेबाज तो नहीं हो? तब तुम मुझे यह भी बताओ कि तुम्हारे हाथ 179 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 से तुमने कभी किसी को पहुंचाया भी है कि मुझको ही पहुंचाते हो? | | खिलता है, तो उससे अनंत के द्वार खुल जाते हैं। और मैं कैसे मानूं कि तुमने किसी को पहुंचाया है? इसकी कोई तो कृष्ण कहते हैं, श्रद्धारहित होकर, तो फिर मुझ तक कोई नहीं गवाहियां हैं? और फिर मैं कैसे मानूं कि वे गवाहियां तैयार की हुई | | पहुंच पाता है। क्योंकि मुझ तक पहुंचने का द्वार और सेतु ही श्रद्धा नहीं हैं? | है। और जो मुझ तक नहीं पहुंचता, वह मृत्यु और जन्म, जन्म और यह सब वह पूछने लगे, तो असंभव है यात्रा। लेकिन बेटा | मृत्यु, मृत्यु और जन्म के पहिए में घूमता रहता है, भटकता रहता है। उठकर खड़ा हो जाता है; और पिता का हाथ पकड़ लेता है और आज इतना ही। चल पड़ता है। यह पिता का हाथ पकड़ने में जो भाव बेटे का है, लेकिन उठेंगे नहीं। एक पांच-सात मिनट श्रद्धा रखकर कीर्तन उसका नाम श्रद्धा है। संन्यासी करेंगे, उसमें सम्मिलित हों। सुनें मत, सम्मिलित हों। श्रद्धा का अर्थ है, एक गहरा अपनापन, एक भरोसा। श्रद्धा का | जिन मित्रों को भी नाचने का भाव हो, वे भी यहां सामने आ अर्थ है, एक आत्मीयता; अज्ञात के प्रति, अनजान के प्रति भी | सकते हैं। शेष सब अपनी जगह बैठे रहेंगे। कोई उठेगा नहीं। ताली भरोसे का भाव। बजाएं। कीर्तन में सम्मिलित हों पांच-सात मिनट। इसे हमारे ध्यान रहे, श्रद्धा करके भूल भी हो जाए, तो हानि नहीं है; और | संन्यासियों का प्रसाद.समझें। अश्रद्धा करके लाभ भी हो जाए, तो हानि है। अश्रद्धा करके लाभ भी हो जाए, तो हानि है। क्योंकि अश्रद्धा से जो मिलेगा, वह दो कौड़ी का होगा; लेकिन अश्रद्धा मजबूत हो जाएगी, जो कि बहुत बड़ी हानि है। श्रद्धा करके हानि भी हो जाए, तो हानि नहीं है, लाभ ही है। क्योंकि श्रद्धा की, यह बड़ी घटना है। इस जगत में जो सबसे बड़ी घटना है, वह श्रद्धा है। यह बड़ी हैरानी की बात है। खयाल में न आएगा। क्योंकि श्रद्धा एक असंभव बात है, इंपासिबिलिटी। किसी पर श्रद्धा करना एक असंभव बात है। क्योंकि हमारी पूरी की पूरी बुद्धि सब तरह के अड़ेंगे खड़े करेगी। वह कहेगी अर्जुन से कि यह कृष्ण! यह मेरे साथ खेला है और मुझसे कहता है, श्रद्धा! यह कृष्ण! इसके गले में मैं हाथ डालकर नाचा हूं, कूदा हूं, यह मुझसे कहता है, श्रद्धा! यह कृष्ण! जिससे मौका पड़ा है, तो कुश्ती भी की है, यह कहता है, श्रद्धा! यह कृष्ण जो कि मेरा सारथी होकर खड़ा है इस युद्ध में, मुझसे कहता है, श्रद्धा! यह कृष्ण! इसको भी चोट लग जाती है, तो हाथ से खून निकल आता है। इसको भी भूख लगती है। रात नींद नहीं आती है, तो सुबह थका-मांदा होता है। यह मुझसे कहता है, श्रद्धा! यह कृष्ण भी मरेगा। यह कृष्ण भी एक दिन पैदा हुआ। यह कृष्ण भी प्रेम में पड़ता है; यह गोपियों के साथ नाचता है। यह कृष्ण भी लेन-देन करता है, राजनीति चलाता है। मुझसे कहता है, श्रद्धा! अर्जुन को हजार सवाल आने स्वाभाविक हैं। और बिलकुल प्राकृतिक हैं। श्रद्धा बड़ी असंभव घटना है। श्रद्धा ऐसा फूल है, जो कभी-कभी करोड़ों में कभी एक बार खिलता है। लेकिन जब 180 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 दूसरा प्रवचन अतयं रहस्य में प्रवेश Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। | तो द्वार तो है प्रभु में प्रवेश का, लेकिन वापस निकलने के लिए मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।। | कोई द्वार नहीं है। इसलिए अगम है पहेली। और कृष्ण ने इसीलिए न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । | श्रद्धा की बात अर्जुन से पहले कही कि अब तू श्रद्धायुक्त है, तो मैं भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।। | तुझे उन गोपनीय रहस्यों की बात कहूंगा, जो कि श्रद्धायुक्त मन न यथाकाशस्थितोनित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । हो, तो कहे नहीं जा सकते। इस सूत्र को समझने के पहले श्रद्धा के तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।।६।। संबंध में थोड़ी बात और समझ लेनी जरूरी है, तभी यह सूत्र स्पष्ट और हे अर्जुन, मेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत | हो सकेगा। परिपूर्ण है और सब भूत मेरे में स्थित हैं। इसलिए वास्तव | अस्तित्व में चार प्रकार के आकर्षण हैं। या तो कहें चार प्रकार में मैं उनमें स्थित नहीं हूं। के आकर्षण या कहें कि एक ही प्रकार का आकर्षण है, चार उसकी और वे सब भूत मेरे में स्थित नहीं है, किंतु मेरे । | अभिव्यक्तियां हैं। या कहें कि एक ही है राज, लेकिन चार उसकी योग-सामर्थ्य को देख कि भूतों को धारण-पोषण करने | सीढ़ियां हैं। या कहें कि एक ही है सत्य, चार उसके आयाम हैं! वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा अगर बहुत स्थूल से शुरू करें, तो समझना आसान होगा। वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, इस जगत के संगठन में, आर्गनाइजेशन में क्योंकि जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने वाला जो तत्व काम कर रहा है, उस तत्व को हम मैग्नेटिज्म कहें, उस महान वा सदाही आकाश में स्थित वैये संपर्ण भत | | तत्व को हम कहें एक चंबकीय ऊर्जा. एक चंबकीय शक्ति जिससे मेरे में स्थित है, ऐसे जान। पदार्थ एक-दूसरे से सटा है और एक-दूसरे से आकर्षित है। अगर विद्यत की भाषा में कहें, तो वह निगेटिव और पाजिटिव, ऋण और धन विद्युत है, जो जगत के अस्तित्व को बांधे हुए है। पदार्थ भी OT द्धा की बात कहकर कृष्ण ऐसी ही कुछ बात शुरू संगठित नहीं हो सकता, अगर कोई ऊर्जा आकर्षण की न हो।। M करेंगे. यह सोचा जा सकता था, जिसे कि तर्क मानने एक पत्थर का टुकड़ा आप देखते हैं, अरबों अणुओं का जाल को राजी न हो। यह सूत्र अतयं है, इल्लाजिकल है। है। वे अणु बिखर नहीं जाते, भाग नहीं जाते, छिटक नहीं जाते; इस सूत्र को कोई गणित से समझने चलेगा, तो या तो सूत्र गलत किसी केंद्र पर, किसी आकर्षण पर बंधे हैं। वैज्ञानिक खोज करता होगा या गणित की व्यवस्था गलत होगी। यह सूत्र तर्क की संगति | है, आकर्षण दिखाई पड़ने वाला नहीं है। लेकिन बंधे हैं, तो खबर में नहीं बैठेगा। यह सूत्र रहस्यपूर्ण है और पहेली जैसा है। मिलती है कि आकर्षण है। एक तो पहेली ऐसी होती है, जिसका हल छिपा होता है, लेकिन हम एक पत्थर को आकाश की तरफ फेंकें, तो वापस जमीन पर खोजा जा सकता है। एक पहेली ऐसी भी होती है, जिसका कोई गिर जाता है। हजारों-हजारों साल तक आदमी के पास कोई उत्तर हल होता ही नहीं; खोजने से भी नहीं खोजा जा सकता है। नहीं था कि क्यों गिर जाता है। लेकिन न्यूटन को सूझा कि जरूर यह सूत्र दूसरी पहेली जैसा है। जापान में झेन फकीर जिसे | | जमीन खींच लेती होगी। वह जो खिंचाव है, न्यूटन को भी दिखाई कोआन कहते हैं। ऐसी पहेली, जो हल न हो सके। ऐसा रहस्य, नहीं पड़ा है। वह खिंचाव किसी ने कभी नहीं देखा है। केवल पत्थरों जिसे हम जितना ही खोजें, उतना ही रहस्यपूर्ण होता चला जाए। | को हमने नीचे गिरते देखा है; परिणाम देखा है। वृक्ष से पत्ता गिरता ऐसा सत्य, जिसे हम जितना जानें, उतना ही पता चले कि हम नहीं | है और नीचे आ जाता है। आप छलांग लगाएं पहाड से और जमीन जानते हैं। जितना हो परिचय प्रगाढ़, उतना ही रहस्य की और पर आ जाएंगे। हर चीज जमीन की तरफ गिर जाती है, खिंच जाती गहराई बढ़ जाए। जितना लें उसे पास, उतना ही पता चले कि वह | है। कोई प्रबल आकर्षण, कोई कशिश, कोई ग्रेविटेशन जरूर पीछे बहुत दूर है। छलांग तो लग सकती है ऐसे रहस्य में, लेकिन ऐसे | | काम कर रहा है जो दिखाई नहीं पड़ता। . रहस्य का कोई पार नहीं मिलता है। सागर में जैसे कोई कूद तो जाए, | | न्यूटन की खोज कीमती सिद्ध हुई, क्योंकि जीवन का बहुत-सा लेकिन फिर सागर के पार होने का उपाय न हो। | उलझाव उसकी खोज के कारण साफ हो गया। जमीन में कशिश 182 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतळ रहस्य में प्रवेश है, कोई मैग्नेटिज्म है, कोई आकर्षण है, कोई खिंचाव है। पदार्थ | | वैज्ञानिक न राजी हों, मनसविद न राजी हों, लेकिन कवि, के तल पर खिंचाव को विज्ञान स्वीकार करता है, यद्यपि खिंचाव साहित्यकार, कलाकार, चित्रकार–वे सब, जिनका सौंदर्य से को कभी किसी ने देखा नहीं है। हमने केवल खिंचाव का परिणाम | | संबंध है-वे राजी हैं। वे मानते हैं कि प्रेम भी एक प्रगाढ़ ऊर्जा है देखा है। हमने देखा है कि एक मैग्नेट को रख दें, तो लोहे के टुकड़े | और उसके परिणाम भी प्रत्यक्ष होते हैं। खिंचे चले आते हैं। खिंचाव नहीं दिखाई पड़ता, लोहे के टुकड़े | लेकिन न तो हम जमीन के आकर्षण को देख सकते हैं, और न खिंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। चुंबक दिखाई पड़ता है, लोहे के टुकड़े | | हम यौन के आकर्षण को देख सकते हैं; अनुभव कर सकते हैं। दिखाई पड़ते हैं, वह जो शक्ति खींचती है, वह दिखाई नहीं पड़ती वैसे ही हम प्रेम के आकर्षण को भी नहीं देख सकते हैं। उसे भी है; वह अदृश्य है। शक्ति मात्र अदृश्य है। अनुभव ही कर सकते हैं। लेकिन जब चुंबक खींच लेता है, तो वैज्ञानिक कहता है, | ये तीन सामान्य आकर्षण हैं; एक और चौथा आकर्षण है। मैंने खिंचाव का काम जारी है। जब जमीन खींच लेती है, तो वैज्ञानिक | कहा, दो पदार्थों के बीच, निर्जीव पदार्थों के बीच जो आकर्षण है, कहता है, खिंचाव का काम जारी है। जब एक पत्थर के अणु बिखर | वह विद्युत है; या चुंबकीय ऊर्जा है। दो शरीरों के बीच जो जैविक, नहीं जाते, तो उसका अर्थ है, वे कहीं न कहीं सेंटर्ड हैं, कोई न कोई | | बायोलाजिकल ग्रेविटेशन है, वह यौन है। दो मनों के बीच जो केंद्र उन्हें बांधे हुए है। वह केंद्र दिखाई नहीं पड़ता। वह केंद्र | | आकर्षण है, वह प्रेम है। लेकिन दो आत्माओं के बीच जो आकर्षण अनुमानित है। लेकिन एक बात विज्ञान को साफ हो गई है कि उस | है, उसका नाम श्रद्धा है। वह चौथा आकर्षण है, और परम केंद्र के दो बिंदु हैं; एक जिसे धन बिंदु कहें, एक जिसे ऋण बिंदु | आकर्षण है। कहें, पाजिटिव और निगेटिव कहें। उन दोनों के बीच आकर्षण है। | जब दो मन एक-दूसरे में आकर्षित होते हैं, तो प्रेम बनता है। अगर पदार्थ के तल पर हम मनुष्य की भाषा का उपयोग करें, जब दो शरीर एक-दूसरे में आकर्षित होते हैं, तो यौन निर्मित होता तो कहें कि पदार्थ में भी स्त्रैण और पुरुष जैसे बिंदु हैं। पदार्थ भी है। जब दो पदार्थ एक-दूसरे में आकर्षित होते हैं, तो भौतिक स्त्री और पुरुष में विभाजित है, और उन दोनों के आकर्षण से ही । | कशिश निर्मित होती है। लेकिन जब दो आत्माएं एक-दूसरे में सारे अस्तित्व का खेल है। आकर्षित होती हैं, तो श्रद्धा निर्मित होती है। पदार्थ से ऊपर उठे, तो इसी आकर्षण की दूसरी अभिव्यक्ति हमें | | श्रद्धा इस जगत में श्रेष्ठतम आकर्षण है, और चुंबकीय आकर्षण स्त्री और पुरुष में दिखाई पड़ती है। पदार्थ से ऊपर उठे, तो जीवन | | इस जगत में निम्नतम आकर्षण है। लेकिन न तो चुंबकीय आकर्षण भी इसी ऊर्जा से बंधा हुआ चलता हुआ मालूम पड़ता है। स्त्री और | देखा जा सकता है और न दो आत्माओं के बीच का आकर्षण देखा पुरुष के भीतर भी जीवन की ऊर्जा एक-दूसरे को आकर्षित करती | जा सकता है। जब चुंबकीय आकर्षण जैसी स्थूल बात भी नहीं देखी है। वही आकर्षण जीवन का प्रवाह है। जा सकती, तो श्रद्धा जैसी बात तो कतई नहीं देखी जा सकती। अगर पदार्थ बंधा है किसी आकर्षण से, तो जीवन भी किसी | लेकिन श्रद्धा के भी परिणाम देखे जा सकते हैं। आकर्षण से बंधा है। स्त्री-पुरुष के जगत में वह आकर्षण सेक्स बुद्ध के पास एक युवक आया है। वह उनके चरणों में झुका है। या यौन के नाम से प्रकट होता है। यौन, विद्युत-आकर्षण का ही | उसने आंख उठाकर बुद्ध को देखा है; वापस चरणों में झुक गया दूसरा रूप है, जीवंत। जब चुंबकीय ऊर्जा जीवन को उपलब्ध हो | | है! बुद्ध ने पूछा, किसलिए आए हो? उस युवक ने कहा कि जिस जाती है, तो यौन निर्मित होता है। | लिए आया था, वह बात घट गई, हो गई। अब मुझे कुछ पूछना उससे और ऊपर चलें, तो मनुष्य यौन से ही प्रभावित नहीं होता; नहीं, कुछ कहना नहीं। बुद्ध ने कहा, लेकिन और लोगों को बता कुछ ऐसे प्रभाव भी हैं जिनसे यौन का कोई भी संबंध नहीं है। उन | दो, क्योंकि इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा है। प्रभावों को हम प्रेम कहते हैं। __वहां कोई दस हजार भिक्षुओं की भीड़ थी। किसी को कुछ भी पदार्थ के बीच जो आकर्षण है, वह है विद्युत। दो शरीरों के बीच दिखाई नहीं पड़ा था। वह युवक आया था, यह दिखाई पड़ा था। जो आकर्षण है, वह है यौन। दो मनों के बीच जो आकर्षण है, वह | वह बुद्ध के चरणों में झुका था, यह भी दिखाई पड़ा था। बुद्ध का है प्रेम। यौन से भी मनसविद राजी हैं। और प्रेम के संबंध में भी | हाथ उस युवक के सिर पर गया था, यह भी दिखाई पड़ा था। उस 183 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4% युवक ने उठकर, खड़े होकर बुद्ध की आंखों में देखा था, यह भी वह आपके चरणों में मर चुका है। और जिसे पीड़ा नहीं हो सकती, दिखाई पड़ा था। वह वापस चरणों में झुका था कोई धन्यवाद देने, वही अब बाकी बचा है। यह भी देखा। उसने जो कहा, वह भी सुना। लेकिन बुद्ध ने कहा, | बुद्ध ने कहा, लेकिन तुम मर रहे हो! अब तू वह बात भी इन सबको बता दे, जो किसी को दिखाई नहीं उस युवक ने कहा, जो मर सकता था, वह आपके चरणों में मर पड़ी है। तुझे क्या हो गया है? चुका है। और अब जो नहीं मर सकता, वही केवल शेष है। उस युवक ने चारों तरफ देखा और उसने कहा कि उसे मैं कैसे बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा कि देखो! जिसका तुम्हें भरोसा नहीं कहूं? मैं बदलने के लिए आया था और मैं बदल गया हूं। मैं आया था, उसका परिणाम देखो। रूपांतरित होने आया था और मैं रूपांतरित हो गया हूं। मैं किसी श्रद्धा के परिणाम देखे जा सकते हैं। जीवन में शक्तियां दिखाई क्रांति के लिए आया था कि मेरी आत्मा किसी और जगत में प्रवेश नहीं पड़ती हैं, केवल उनके परिणाम दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कर जाए, वह प्रवेश कर गई है। आपसे मैं कहता हूं, आप अगर सोचते हों कि श्रद्धालु हैं, तो इतना लोगों ने पूछा, लेकिन यह कैसे हुआ? क्योंकि न कोई साधना, काफी नहीं है। आपकी श्रद्धा का एक ही प्रमाण है कि आपका न कोई प्रयत्न! यह हुआ कैसे? जीवन रूपांतरित होता हो। तो जो आस्तिक कहता है, मैं श्रद्धालु उस युवक ने कहा, मैं नहीं जानता। इतना ही मैं जानता हूं, कोई | हूं, और नास्तिक और उसकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं है, तो वह अलौकिक प्रेम मेरे और बुद्ध के बीच घटित हो गया है, कोई श्रद्धा अपने को धोखा दे रहा है। क्योंकि श्रद्धा तो कशिश है, श्रद्धा तो जन्म गई है, कोई भरोसा पैदा हो गया है। बुद्ध को देखकर मुझे | क्रांति है। भरोसा आ गया। उस भरोसे के साथ ही मैं बदल गया। शायद | | तो जो कहता है, मैं श्रद्धालु हूं, उसका सबूत एक ही है कि भरोसे की कमी ही मेरी क्रांति में बाधा थी। बुद्ध को देखकर मुझे | उसका जीवन गवाही दे, उसका अस्तित्व गवाही दे, वह एक यह भरोसा आ गया कि जो बुद्ध में हो सकता है, वह मुझ में भी | विटनेस हो जाए, वह एक साक्षी बन जाए परमात्मा के होने का। हो सकता है। जो बुद्ध को हुआ है, वह मुझे भी हो सकता है। बुद्ध लेकिन अगर वह कहता है कि नहीं, मैं श्रद्धा तो करता हूं, मेरा भविष्य हैं। जो मैं कल हो सकता हूं, वह बुद्ध आज हैं। इस लेकिन मुझ में और नास्तिक में कोई ऐसे फर्क नहीं है, तो जानना भरोसे के साथ ही जब मैं चरणों में झुका और वापस उठा, तो मैं | कि श्रद्धा झूठी है। और झूठी श्रद्धा से सच्चा संदेह भी बेहतर है। दूसरा आदमी हो गया हूं। क्योंकि सच्चा संदेह कभी श्रद्धा तक पहुंच सकता है, लेकिन झूठी लोगों को भरोसा नहीं आया, लेकिन देखा कि वह आदमी बदल श्रद्धा कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंच सकती है। गया है। और वह आदमी साधारण आदमी नहीं था. हत्यारा था. डाक | | यह जो श्रद्धा है. जैसा मैंने कहा दो पदार्थों के बीच जो कशिश था, लुटेरा था। और दूसरे दिन वह आदमी गांव में भिक्षा मांगने गया | | है, आकर्षण है भौतिक; दो शरीरों के बीच जीवंत यौन बन जाता है। और लोगों ने अपनी छतों पर खड़े होकर उसे पत्थर मारे हैं, | है; दो मनों के बीच सचेतन प्रेम बन जाता है; दो आत्माओं के बीच क्योंकि लोग तो उसे लुटेरा ही देख रहे थे। वह जो घटना घटी थी, श्रद्धा हो जाती है। अगर दो पदार्थ आपस में न मिलें, तो अस्तित्व वह तो उन्हें दिखाई नहीं पड़ सकती थी कि वह आदमी अब बुद्ध बिखर जाए। और अगर दो शरीर आपस में न मिलें, तो जीवन जैसा हो गया था। वह घटना तो आंख के बाहर थी; अगोचर थी। बिखर जाए। और अगर दो मन आपस में न मिलें, तो जगत से सब उन्होंने पत्थर मारे हैं, क्योंकि वह हत्यारा था, चोर था, लुटेरा सौंदर्य बिखर जाए। और अगर दो आत्माएं आपस में न मिलें, तो था। गांव उससे पीड़ित रहा है। उसे कौन भिक्षा देगा? पत्थरों के परमात्मा के होने का फिर कोई उपाय नहीं है। अतिरिक्त उसे भिक्षा में कुछ भी नहीं मिला। वह पत्थरों में दबकर ___ पदार्थ एक-दूसरे को खींचते हैं, इसलिए अस्तित्व संगठित है, सड़क के किनारे पड़ा हुआ है। बुद्ध भिक्षा मांगने निकले हैं। उन्होंने | आर्गनाइज्ड है। चाहे चांद-तारे घूमते हों; और चाहे सूरज के आकर उसके सिर पर हाथ रखा। उसने आंख खोली और बुद्ध ने | | आस-पास पृथ्वी चक्कर मारती हो; और चाहे परमाणु घूमते हों; कहा, कोई पीड़ा तो नहीं हो रही? जहां भी पदार्थ है, उसका कारण पदार्थ को आपस में बांधने वाली उस मरणासन्न व्यक्ति ने कहा, पीड़ा! पीड़ा जिसे हो सकती थी, | ऊर्जा है। 184 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतर्क्स रहस्य में प्रवेश* हमारी सदी पूछती है, ईश्वर कहां है? असल में हमें पूछना | इसलिए कि पत्नी से भी नीचे गिरा; कुर्सी ज्यादा मूल्यवान है। पत्नी चाहिए, श्रद्धा कहां है? क्योंकि श्रद्धा न हो, तो ईश्वर का कोई | कुर्सी पर चढ़ाई जा सकती है। बच्चे कुर्सी पर चढ़ाए जा सकते हैं। अनुभव नहीं होगा। श्रद्धा न हो, तो ईश्वर न होने जैसा हो जाएगा। वह पहला स्थूल आकर्षण है। ईश्वर के प्रकट होने के लिए जिस आकर्षण की जरूरत है, वह धन, पद, बहुत स्थूल आकर्षण हैं। वे आकर्षण वैसे ही हैं, जैसे श्रद्धा है। चुंबक के पास लोहा खिंचता है। ऐसे ही हम खिंचे चले जाते हैं। और हर आकर्षण सृजनात्मक है। पदार्थ खिंचता है, तो जगत ध्यान रखना, आप चुंबक नहीं हैं। जब आप धन की तरफ खिंचते निर्मित हो जाता है। अभी तक वैज्ञानिक नहीं समझा पाए कि पृथ्वी हैं, तो ध्यान रखना, धन आपकी तरफ कभी नहीं खिंचता है। आप कैसे बन गई। अब तक वे नहीं समझा पाए कि चांद-तारे कैसे बन | ही धन की तरफ खिंचते हैं। धन चंबक होता है। ध्यान रखना, धन गए! अनुमान हैं बहुत, लेकिन सारे अनुमानों के बीच एक आधार पुरुष हो जाता है, आप स्त्रैण हो जाते हैं। है, और वह आधार यह है कि जरूर किसी ऊर्जा के कारण यह सारा इसलिए धन को प्रेम करने वाला रुपए को ऐसे देखता है, जैसे संगठन फलित हुआ है, किसी शक्ति के कारण। उसके नाम कुछ | अपने प्रेमी को। वह उसका परमात्मा है। रुपए को छूता है ऐसे, भी दिए जा सकते हैं। जैसे किसी जीवित चीज को भी उसने कभी नहीं छुआ है। रुपए को अगर दो शरीर संयुक्त न हों, तो जीवन की धारा बिखर जाती उलट-पलटकर देखता है! है। इसलिए यौन का, सेक्स का प्रबल आकर्षण है। लेकिन आदमी और हम सबको पता है। स्त्रियों को पता है। इसलिए स्त्रियां आदमी होकर भी पहले आकर्षण से भी ऊपर नहीं उठ पाता, तो | अपने शरीर की उतनी फिक्र नहीं करती हैं, जितनी अपने गहनों की आखिरी आकर्षण तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। हममें से अधिक | | फिक्र करती हैं। क्योंकि आस-पास जो लोग हैं, वे पदार्थ से लोग यौन से भी नीचे जीते हैं। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। | आकर्षित होते हैं। अभी शरीर का भी आकर्षण दूर है। हममें से बहुत-से लोग हैं, जिनको यौन का आकर्षण भी ऊपर है। ___ इसलिए स्त्री अपने शरीर को गंवा सकती है, लेकिन अपने हीरे अभी। जो पदार्थ के आकर्षण पर जीते हैं। को नहीं खो सकती। उसके हाथ में उतना आकर्षण नहीं मालूम अब एक आदमी रुपए इकट्ठे करने के लिए जी रहा है; वह अभी | पड़ता उसे, जितना हीरे की अंगूठी में मालूम पड़ता है। और उसकी यौन के आकर्षण तक भी ऊपर नहीं उठा है। अभी वह पदार्थ के समझ एक लिहाज से सही है। क्योंकि जब भी कोई उसके हाथ को आकर्षण से बंधा है। अभी जब वह रुपए हाथ में रखता है, तो जो देखता है, तो सौ में से नब्बे मौके पर हाथ को देखने वाले बहुत आनंद उसे अनुभव होता है, वह दो पदार्थों के बीच जो आकर्षण कम लोग हैं, हीरे की अंगूठी को देखने वाले ज्यादा लोग हैं। है, उसका ही आनंद है। इसलिए अगर कुरूप हाथ भी हो और हीरे की अंगूठी हो, तो इसलिए धन के पीछे जो पागल है, वह पहले आकर्षण में जी आपको हाथ का कुरूप होना दिखाई नहीं पड़ता। हीरे की अंगूठी रहा है। इसलिए लोभ काम से भी नीची अवस्था है। लोभ, ग्रीड | का सौंदर्य हाथ पर छा जाता है। इसलिए कुरूप व्यक्ति आभूषणों सेक्स से भी नीचे की अवस्था है, ध्यान रखना। और बहुत-से लोग से अपने को लादता चला जाता है। असल में कुरूपता ही केवल हैं ऐसे, जो धन के लिए सेक्स को कुर्बान कर सकते हैं। और शायद आभूषण के प्रति आकर्षित होती है; क्योंकि वह और नीचे के तल मन में यह भी सोचते हों कि बड़ी ऊंचाई की तरफ जा रहे हैं। धन का आकर्षण है। कमाने के लिए बहुत-से लोग अपने यौन की बलि चढ़ा देते हैं। पुरुष भी भलीभांति जानते हैं कि उनका बड़ा मकान एक स्त्री को शायद सोचते हों कि बड़ा ऊंचा काम कर रहे हैं। वे यौन से भी नीचे | आकर्षित कर सकता है। उनका बैंक बैलेंस एक स्त्री को आकर्षित गिर रहे हैं। वे बिलकुल ही स्थूल आकर्षण में पड़ रहे हैं। कर सकता है। उनकी बड़ी कार एक स्त्री को आकर्षित कर सकती एक आदमी है, जिसको कुर्सी का मोह है, पद का मोह है, | है। इसलिए पुरुषों को भी अपने शरीर की भी उतनी चिंता नहीं है, सिंहासन का मोह है, वह पहले आकर्षण पर जी रहा है। इसलिए जितनी अपनी कार की है, जितनी अपने मकान की है, जितनी राजनीतिज्ञ अक्सर अपनी पत्नी की फिक्र छोड़ सकता है। इसलिए अपनी तिजोड़ी की है। क्योंकि आदमी के जिस समाज में हम जी नहीं कि वह भी बुद्ध जैसा हो गया है कि पत्नी को छोड़ सकता है; रहे हैं, वह पदार्थ के तल पर आकर्षित हो रहा है; और श्रद्धा बहुत 185 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 लंबी यात्रा है फिर। पदार्थ के तल पर निगेटिव और पाजिटिव मिलते हैं, वे भी पदार्थ से ऊपर उठें; बड़ी कृपा होगी, लोभ से ऊपर उठे। कम स्त्री-पुरुष हैं। शरीर के तल पर यौन संयुक्त होता है, वे भी से कम जीवित व्यक्ति में आकर्षित हों, मृत पदार्थों में नहीं। यह भी | स्त्री-पुरुष हैं। यह आपको जानकर कठिनाई होगी कि जब दो मनों बड़ी क्रांति है। कुछ लोग जीवित व्यक्तियों में आकर्षित होते हैं, | का भी मेल होता है, तो उसमें एक मन स्त्रैण और एक मन पुरुष लेकिन यौन के बाहर उनका आकर्षण नहीं जाता। एक-दूसरे के जैसा होता है। असल में जहां भी मेल घटित होता है, जहां भी शरीर तो मिलते हैं, लेकिन एक-दूसरे के मन कभी भी नहीं मिल | | मिलन होता है, वहां स्त्री और पुरुष का अंश मौजूद होता है। और पाते हैं। जब श्रद्धा जन्मती है, तब भी-आत्मा के तल पर भी स्त्री और ___ इसलिए जिन मुल्कों में तलाक की सुविधा हो गई है, उन मुल्कों | पुरुष का अंश मौजूद रहता है। में विवाह अब बच नहीं सकता। क्योंकि मन तो कहीं मिलते ही | स्त्री और पुरुष का विभाजन शारीरिक ही नहीं है, जैविक ही नहीं नहीं, तन ही मिलते हैं। और तन जल्दी ही बासे, और जल्दी ही है, सारा अस्तित्व बंटा हुआ है। इसलिए कृष्ण को प्रेम करने वाले उबाने वाले हो जाते हैं। | भक्तों ने अगर कहा है कि एक ही पुरुष है जगत में, कृष्ण, तो __एक ही शरीर कितनी बार भोगा जा सकता है? और एक ही | | उसका कारण है। शरीर कितनी देर तक आकर्षक हो सकता है? और एक ही शरीर | अगर मीरा ने वृंदावन के मंदिर में पुजारी को कहा है, क्योंकि कितनी देर तक खींचेगा? फिर वह खिंचाव भी एक ऊब और | उस पुजारी ने नियम ले रखा था कि किसी स्त्री को मंदिर में प्रवेश बोर्डम हो जाती है। और मन तो मिलते नहीं। नहीं करने देगा। और मीरा जब नाचती हुई उस मंदिर के द्वार पर इसलिए पश्चिम में, जहां तलाक सुविधापूर्ण होता चला जा रहा पहुंच गई, तो द्वार बंद कर दिए गए। और लोगों ने खबर दी कि है, विवाह बिखरता चला जा रहा है। उन्नीस सौ में अमेरिका में चार | | मंदिर के पुजारी जो हैं, गोस्वामी जो हैं, वे स्त्री को भीतर प्रवेश नहीं शादियों में एक तलाक होते थे, अब चार शादियों में तीन तलाक करने देते हैं; आप लौट जाएं। मीरा ने कहा, इतनी खबर पुजारी की नौबत है। सिर्फ पचास साल में। और पचास साल. मैं आपको तक पहंचा दो, मैं तो सोचती थी कि जगत में केवल एक ही पुरुष भरोसा दिलाता हूं, तलाक समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि विवाह है, कृष्ण। गोस्वामी भी पुरुष हैं? उनसे इतना पूछ आएं। . समाप्त हो जाएगा। तलाक बच नहीं सकते ज्यादा दिन तक, क्योंकि द्वार खुल गए। गोस्वामी मीरा के चरणों में गिर पड़ा। क्योंकि तलाक को बचाने के लिए विवाह जरूरी है। और विवाह ही बचने गोस्वामी को संदेश मिल गया। गोस्वामी को खयाल आ गया कि वाला नहीं है। क्या कारण है ? शरीर का आकर्षण यौन है, और मन भक्त होकर कृष्ण का, वह पुरुष कैसे हो सकता है? एक आत्मिक का तो आकर्षण पैदा ही नहीं हो पाता। तल पर कृष्ण पुरुष हो गए और गोस्वामी उनका भक्त है, तो स्त्रैण हमारे पास मन जैसी कोई चीज भी है, और हम कभी किसी के | हो गया। मन से भी आकर्षित होते हैं, तो ही हमें प्रेम का अनुभव शुरू होगा। स्त्रैण और पुरुष शब्द का मैं सांकेतिक प्रयोग कर रहा हूं। पुरुष प्रेम, शरीर-मुक्त दो मन के बीच आकर्षण है। प्रेम मैत्री है। | वह है, जो खींचता है; स्त्री वह है, जो समर्पित होती है। गुरु और लेकिन हमें प्रेम का का अनभव नहीं है। मित्रता दर्लभ होती चली शिष्य के बीच समर्पण का यही संबंध है। इस समर्पण के बाद वैसी गई है। और प्रेम का ही पता न हो, तो श्रद्धा बहुत कठिन हो | | बातें हो सकती हैं, जो अन्यथा नहीं हो सकतीं। जाएगी। मन का प्रेम मित्रता को जन्म देता है। तो कृष्ण अब एक बहुत गुरु-गंभीर बात अर्जुन से कह रहे हैं; चौथा जो आकर्षण है, श्रद्धा, वह गुरु और शिष्य के बीच का सुनकर सिर चकराता मालूम पड़ेगा। इस बात को कृष्ण भी इसके संबंध है। किसी की आत्मा इतनी आकर्षक हो जाती-उसका मन | पहले नहीं कह सकते थे। जब पक्की हो गई बात कि अर्जुन श्रद्धा भी मूल्य का नहीं, उसका शरीर भी मूल्य का नहीं, उसके पास जो | से भर गया है, समर्पित है; उसके हृदय के द्वार खुले हैं; संदेह की पदार्थगत कुछ भी हो, वह भी किसी मूल्य का नहीं-बस उस | दीवालें गिर गई हैं; शंकाएं-कुशंकाएं निःशेष हो गई हैं; अब आतुर व्यक्ति का अस्तित्व, उसका होना ही मूल्यवान हो जाता है। इस | है। ठीक वैसे ही, जैसे कभी कोई स्त्री प्रेम के किसी क्षण में पुरुष मूल्य का भी एक जोड़ और एक संबंध है। | को अपने भीतर लेने को आतुर होती है। प्रेम के किसी गहन क्षण | 1861 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतयं रहस्य में प्रवेश ४ में जैसे स्त्री पुरुष को अपने द्वारा पुनः जन्माने को आतुर होती है। | हो गया है तुम्हें? कोई चमत्कार! तुम और गीत गुनगुनाओगे! और प्रेम के किसी क्षण में जैसे स्त्री अपने भीतर नए जीवन के लिए, नए | तुमने क्या स्नान भी किया है ? और क्या तुमने ताजे कपड़े भी पहन जीवन को जन्म देने के लिए, गर्भाधान के लिए, पुरुष के प्रति | लिए हैं? समग्ररूपेण समर्पित होती है। ऐसे ही श्रद्धा से भरा हुआ चित्त गुरु ___ वानगाग ने कहा कि हां, किसी ने मुझे आज प्रेम से देख लिया के प्रति अपने सब द्वार खोल देता है, ताकि गुरु की ऊर्जा उसमें | है! किसी के प्रेम का मैं पात्र हो गया हूं! प्रविष्ट हो जाए और जीवन रूपांतरित हो, और एक नए जीवन का ___ अब यह आदमी दूसरा है। प्रेम से गुजरकर दोनों व्यक्तियों का जन्म हो सके। पुनर्जन्म हो जाता है। ___ मैंने कहा कि जब दो पदार्थ मिलते हैं, तब भी नई चीज निर्मित | | श्रद्धा से गुजरकर जो होता है, वह आत्यंतिक क्रांति है। श्रद्धा से हो जाती है। अगर आक्सीजन और हाइडोजन मिल जाते हैं, तो गजरकर पराना तो मर ही जाता है, नए का ही आविर्भाव हो जाता पानी निर्मित हो जाता है। जब एक स्त्री और पुरुष का मिलन होता है। प्रेम में तो पुराना बदलता है, श्रद्धा में पुराना मरता है और नया है, तो एक तीसरे जीवन का जन्म हो जाता है। जब दो प्रेम से भरे आता है। प्रेम में एक कंटिन्युटी है, सातत्य है। श्रद्धा में हुए मन मिलते हैं, तो इस जगत में सौंदर्य के, आनंद के बड़े फूल डिसकंटिन्युटी है; सातत्य टूट जाता है। श्रद्धा के बाद आप वही खिलते हैं। और जब प्रेम से दो व्यक्तियों का मिलन होता है, तब | नहीं होते, जो पहले थे। आप दूसरे ही होते हैं। दोनों के बीच कोई भी वे दो व्यक्ति भी रूपांतरित हो जाते हैं। अगर आपने कभी प्रेम | संबंध भी नहीं होता; दोनों के बीच कोई रेखा भी नहीं होती। पुराना की पुलक अनुभव की है, तो आपने तत्काल पाया होगा, आप दूसरे | बस समाप्त हो जाता है, और नया आविर्भूत हो जाता है। आदमी हो गए हैं। श्रद्धा इस जगत में सबसे बड़ी छलांग है। छलांग का मतलब विनसेंट वानगाग के संबंध में मैंने पढ़ा है। वह एक बड़ा डच | | होता है, पुराने से कोई संबंध न रह जाए। इसलिए श्रद्धा जब भी चित्रकार था। उसे किसी स्त्री ने कभी कोई प्रेम नहीं किया। कुरूप किसी जीवन में घटित होती है, तो इस जगत में सबसे बड़ी क्रांति था। और मन को प्रेम करने वाले तो खोजने कठिन हैं। गरीब था। | घटित होती है। और सब क्रांतियां बचकानी हैं, सिर्फ आत्मक्रांति और धन को प्रेम करने वाले तो चारों तरफ हैं। उसे किसी ने कोई | ही आधारभूत क्रांति है। प्रेम नहीं दिया। वह जवान हो गया, उसकी जवानी भी उतरने के | | इस क्रांति के द्वार पर खड़ा देखकर कृष्ण ने अर्जुन से कहा, हे करीब आने लंगी। उसे कभी किसी ने प्रेम की नजर से नहीं देखा। | अर्जुन, मेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है। वह चलता था तो ऐसे, जैसे मुर्दा चल रहा हो; अपना बोझ खुद | अब ये सब बातें उलटी हैं। कबीर की उलटबांसी के संबंध में खींचता हो। अपने ही पैर उठाने पड़ते, तो लगता कि किसी और आपने सुना होगा। कबीर बहुत उलटी बातें कहते हैं, जो नहीं हो के पैर उठा रहा है। आंख उठाकर देखता तो ऐसे, जैसे आंखों की सकतीं। कहते हैं कि नदी में आग लग गई, जो नहीं हो सकता। कहते पलकों पर पत्थर बंधे हों। हैं कि मछलियां घबड़ाकर दरख्तों पर चढ़ गईं, जो नहीं हो सकता। वह जहां नौकरी करता था, वह मालिक भी परेशान हो गया था लेकिन कबीर इसलिए कहते हैं कि इस जगत में जो नहीं हो उसके आलस्य को देखकर, उसके तमस को देखकर। मालिक | सकता, वह हो रहा है-यहीं, आंखों के सामने। जो हो सकता है, सोचता था. इतने तमस की क्या जरूरत है? इतने आलस्य की. वह तो हो ही रहा है। वह महत्वपर्ण नहीं है। और जो उसको ही देख इतने प्रमाद की? बैठा, तो बैठा रह जाता। उठने की भी कोई प्रेरणा पाता है, जो हो रहा है, वह अंधा है। जो नहीं हो सकता है, वह भी नहीं थी। सोता, तो सोया रह जाता। सुबह किसलिए उडूं, इसका | हो रहा है। जिसको कोई तर्क नहीं कहेगा कि हो सकता है, वह भी भी कोई कारण नहीं था। हो रहा है। कोई गणित जिस निष्पत्ति को नहीं देगा, वह भी हो रहा लेकिन एक दिन मालिक देखकर चकित हुआ कि वानगाग, न | है। इस जगत में अनहोना भी हो रहा है। वही इस जगत में ईश्वर मालूम कितने वर्षों के बाद स्नान करके, न मालूम कितने महीनों के | का सबूत है। वही चमत्कार है। वही मिरेकल है। बाद कपड़े बदलकर, और शायद जीवन में पहली दफा गीत | तो बड़ी अनहोनी बात कृष्ण कहते हैं। वे कहते हैं, मेरे अव्यक्त गुनगुनाता हुआ दुकान में प्रविष्ट हुआ है! उसने पूछा, आज क्या स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है। 187 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-48 अब यह जगत है व्यक्त, दि मैनिफेस्ट। और कृष्ण कहते हैं, थू | ही चीज के दो छोर हैं। जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा छोर दिस मैनिफेस्ट, माई अनमैनिफेस्ट इज़ मैनिफेस्टेड। यह जो प्रकट | है-उसका, जिसे हम जीवन कहते हैं। है जगत, यह जो व्यक्त है, यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह जो लेकिन सोचने में मृत्यु दुश्मन और जन्म मित्र मालूम पड़ता है। साकार है, यह जो सगुण है, यह जो रूप से भरा है, इसके भीतर तो जन्म के समय हम बैंड-बाजे बजाकर स्वागत कर लेते हैं; और मेरा अरूप, मेरा निर्गुण, मेरा निराकार, मेरा अव्यक्त, मेरा अदृश्य | मृत्यु के समय रो-धोकर विदा कर देते हैं। प्रकट हो रहा है। शायद हमें खयाल हो कि हंसना और रोना भी विपरीत चीजें हैं, अब ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं हमारे गणित से। हमारी तो फिर हम गलती में हैं। हमारी भाषा और सोचने के नियम की बुद्धि से ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं। सीधी बात कहनी | भूल है। अगर आप रोते ही चले जाएं, तो थोड़ी ही देर में रोना हंसने चाहिए। अव्यक्त का अर्थ है, जो प्रकट नहीं होता, जो प्रकट हुआ | में बदल जाएगा। प्रयोग करके देखें। यह तो कोई बहुत कठिन ही नहीं कभी। तो जगत से प्रकट कैसे होगा? और अगर जगत से प्रयोग नहीं है। रोते ही चले जाएं, रुकें ही मत; एक क्षण आएगा प्रकट हो रहा है, तो उसे अव्यक्त कहने की क्या जरूरत है? दो में | कि आप पाएंगे, रोना समाप्त हो गया और हंसने का जन्म हो गया से कुछ एक करो। तर्क अगर होगा, तो कहेगा, दो में से कुछ एक | है! हंसते चले जाएं, रुकें ही मत, तो आप पाएंगे कि हंसना विलीन करो। या तो कहो कि यह जो प्रकट हुआ है, यही मैं हूं, प्रकट हुआ; | | हो गया और रोना शुरू हो गया। और या कहो, यह जो प्रकट हुआ है, यह मैं नहीं हूं; अप्रकट हूं मैं। | इसलिए ग्रामीण स्त्रियां भी जानती हैं कि बच्चों को ज्यादा हंसने लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह जो प्रकट हुआ है, इसमें मैं ही व्याप्त | नहीं देतीं। कहती हैं, अगर ज्यादा हंसेगा, तो फिर रोएगा। इसलिए हूं; मैं ही इसमें भरा हूं; मैं ही इसमें परिपूर्ण हूं। रूप के भीतर मेरा | हंसने में ही रोक लेना उचित है। लेकिन हमारी भाषा में हंसना और ही अरूप है। आकार के भीतर मेरा ही निराकार है। दृश्य के भीतर रोना विपरीत है; जन्म और मृत्यु विपरीत है; अंधेरा और प्रकाश मैं ही अदृश्य हूं। | विपरीत है; बचपन और बुढ़ापा विपरीत है; सर्दी और गर्मी यह हमें कठिनाई में डालता है। लेकिन इसे समझना पड़े। श्रद्धा | विपरीत है। हो, तब तो यह तत्काल समझ में आ जाता है; समझना नहीं पड़ता। यह भाषा की भूल है। यह तर्क की भूल है। ये विपरीत हैं नहीं! श्रद्धा न हो, तो इसे थोड़ा समझना पड़े। इसे थोड़ी चेष्टा करनी पड़े | ऐसा कहीं प्रकाश देखा है आपने, जो अंधेरे से न जुड़ा हो? ऐसा कि क्या प्रयोजन होगा ऐसी उलटी बात कहने का? और फिर यह कहीं कोई अंधेरा देखा है आपने, जो प्रकाश से न जुड़ा हो? उलटी बात आगे बढ़ती ही चली जाती है। वे इसे और उलटाते चले | सगे-साथी हैं, संगी हैं, ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। एक ही चीज जाते हैं। के दो छोर हैं। अगर यह खयाल में आ जाए, तो कृष्ण का सूत्र इतना हमारी बुद्धि की सोचने की जो व्यवस्था है, हमारी बुद्धि की जो बेबूझ नहीं मालूम होगा। कैटेगरीज हैं, हमारे सोचने के जो नियम हैं, उन नियमों में ही | लेकिन इस सूत्र ने बड़ी कठिनाइयां दी हैं। इस बात ने बड़ी बुनियादी भूल है। उन नियमों के कारण, जो जीवन में हो रहा है, | कठिनाइयां दी हैं कि परमात्मा सगुण है या निर्गुण? कितने उपद्रव, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। कितने विवाद! नासमझी का कोई अंत नहीं मालूम पड़ता है। और जैसे अगर मैं यह कहूं कि जन्म भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं, तो | जिन्हें हम सोचते हों कि समझदार हैं, वे भी बैठकर विवाद करते गणित और तर्क के लिहाज से गलत है। क्योंकि अगर मैं जन्म हूं, रहते हैं कि परमात्मा निर्गुण है या सगुण? तो मृत्यु कैसे हो सकता हूं? जन्म और मृत्यु तो विपरीत हैं। | सगुण के उपासक हैं, वे कहते हैं, निर्गुण की बात ही मत करो। हमारे सोचने में विपरीत हैं, वस्तुतः विपरीत नहीं हैं। अस्तित्व में | | निर्गुण के उपासक हैं, वे कहते हैं, सगुण की सब बात बकवास है। जन्म और मृत्यु जुड़े हैं, एक हैं। जन्म, मृत्यु का ही पहला छोर है; | आकार को मानने वाले हैं, तो मूर्तियां बनाकर बैठे हैं। निराकार को और मृत्यु, जन्म का ही दूसरा। जन्म लेकर हम करते क्या हैं सिवाय मानने वाले हैं, तो मूर्तियां तोड़ने में लगे हैं! मृत्यु तक पहुंचने के! जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। विपरीत तो मुसलमान हैं, वे निराकार को मानने वाले हैं। उन्होंने कितनी हैं ही नहीं; दो भी नहीं हैं। दो तो हैं ही नहीं; भिन्न भी नहीं हैं। एक मूर्तियां मिटा दी दुनिया से! बनाने वालों ने जितनी मेहनत नहीं की, 188 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतर्क्य रहस्य में प्रवेश उन बेचारों ने उससे भी ज्यादा मेहनत की मिटाने में! बनाने वाले भी इतनी फिक्र नहीं करते मूर्ति की, जितनी मिटाने वाले को करनी पड़ती है। मिटाने वाला जान की जोखिम लगा देता है, मूर्ति को मिटा देता है, क्योंकि परमात्मा निराकार है। लेकिन कैसे मूर्तियां मिटाओगे ? बनाने वाले बनाए चले जाते हैं। जिन्होंने मूर्तियां बनाईं, उनका कोई हिसाब है ? भारत में हम समझते हैं कि जितने आदमी हैं, उससे कम परमात्मा नहीं हैं, उससे कम परमात्मा की मूर्तियां नहीं हैं। पहले तैंतीस करोड़ आदमी हुआ करते थे, तो तैंतीस करोड़ देवता थे हमारे पास। इधर आदमियों ने तो थोड़ी संख्या बढ़ा ली है, पता नहीं देवता क्या कर रहे हैं ! बनाने वाले बनाए चले जाते हैं; क्योंकि वे कहते हैं, सगुण है, साकार है, रूपवान है। मिटाने वाले मिटाए चले जाते हैं। लेकिन भाषा की भूल इतनी महंगी पड़ सकती है। जिसे हम सगुण कहते हैं, वह निर्गुण का ही एक छोर है। जिसे हम निर्गुण कहते हैं, वह सगुण का ही एक छोर है । सगुण और निर्गुण दो विपरीत घटनाएं नहीं, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। जिसे हम रूप कहते हैं, वह अरूप का ही एक हिस्सा है। • इसे ऐसा समझें कि अरूप का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है, उसे हम रूप कहते हैं। और रूप का भी जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर चला जाता है, उसे हम अरूप कहते हैं। सगुण? जिसे हम नाप लेते हैं, तौल लेते हैं, वह सगुण हो जाता है। निर्गुण ? जो हमारी नाप-तौल के पार निकल जाता है, तो निर्गुण हो जाता है। मेरे घर में आंगन है, तो मेरे आंगन का अपना आकाश है, दीवाल है आंगन की। मेरा आकाश पड़ोसी के आकाश से जुदा है, भिन्न है। अगर पड़ोसी मेरे आकाश में आना चाहे, तो मैं इनकार करूंगा। मेरा आकाश, मेरे आंगन का आकाश ! लेकिन इससे क्या आकाश विभाजित होता है? कितनी ही हम दीवाल खड़ी करें, इससे केवल हमारी सीमा बनती है देखने की । लेकिन दीवाल के पार का आकाश और मेरे आंगन के आकाश में क्या कोई खंड हो जाता है ? कोई टूट हो जाती है ? मेरी दीवाल मेरी ही आंख के लिए बाधा बनती है, आकाश के लिए नहीं। ध्यान रखें, मेरी दीवाल मेरी ही आंख की सीमा बनती है, आकाश की नहीं। तो मेरे लिए आकाश दो हिस्सों में बंट जाता है; आकाश नहीं बंटता है। मेरे आंगन का आकाश उस आकाश का ही हिस्सा है, जो बाहर है। और जो बाहर है, वह मेरे आंगन के ही आकाश का विस्तार है। जितने भी विपरीत शब्द हैं हमारे पास, वे सभी एक ही अस्तित्व | के छोर हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है । मेरा निराकार इन सब आकारों में छिपा है । मेरा निर्गुण इन सब गुणों में प्रकट हुआ है। मेरा परमात्मा ही इस पदार्थ | का आधार है । और सब भूत मुझमें स्थित हैं। और यह जो सारा जगत दिखाई पड़ रहा है, यह मुझमें स्थित है, मुझमें ही ठहरा हुआ है । और तब तत्काल एक विपरीत बात वे कहते हैं — विपरीत हमें | दिखाई पड़ती है - और सब भूत मुझमें स्थित हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूं। सब भूत मुझमें हैं, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं, यह कैसे होगा ? अगर सब भूत परमात्मा में स्थापित हैं और अगर परमात्मा ही सब में प्रकट हो रहा है, तो फिर यह कहना कि मैं उनमें नहीं हूं, हमारे तर्क को नई दुविधा दे देगा। श्रद्धा को कठिनाई नहीं है, क्योंकि श्रद्धा प्रश्न नहीं उठाती । श्रद्धा आर-पार देख लेती है, ट्रांसपैरेंट है। वह देख लेगी कि ठीक है; कुछ अड़चन नहीं है। बिलकुल ठीक है। झेन फकीर बोकोजू के पास एक जिज्ञासु आया है और उस जिज्ञासु ने पूछा कि परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग क्या है ? बोकोजू चुपचाप बैठा रहा और फिर उसने खिड़की के बाहर झांककर देखा और कहा कि देखो! सूरज ढलने लगा, सांझ होने के करीब है। कोई संबंध न था! उस आदमी ने पूछा था, ईश्वर को पाने का मार्ग क्या है? और यह आदमी खिड़की के बाहर हाथ उठाकर बोला, देखो, सांझ होने लगी, सूरज ढलने के करीब है। उस आदमी ने पैर छुए और चला गया। एक दूसरा आदमी बैठा था, वह हैरान हो गया। यह बोकोजू तो पागल है ही, वह जो आ गया था, वह महापागल मालूम पड़ता है ! उसने जो प्रश्न पूछा था कि ईश्वर को पाने का मार्ग क्या है ? हद्द पागल आदमी था! और इसने जो उत्तर दिया ! कुछ लेन-देन ही नहीं दोनों में! कोई संबंध नहीं! कोई दूर की भी संगति नहीं। कहां ईश्वर | को पाने का मार्ग ! और क्या मतलब इससे कि सूरज डूबता है और सांझ हो रही है ! 189 उस आदमी ने कहा कि मुझे भी एक सवाल पूछना है, लेकिन कृपा करके ऐसा जवाब मत देना। मुझे यह पूछना है कि इस आदमी जो पूछा, उसका क्या हुआ ? Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 बोकोजू ने कहा कि जवाब दे दिया गया। और केवल दे ही नहीं आदमी ने कहा कि सूरज उगने लगा है। वह तो डूब गया, उसे छोड़ दिया गया, जवाब पहुंच भी गया है। ही दिया, जो मैं था। अब दूसरे का ही जन्म हो रहा है; रास्ता मिल उस आदमी ने कहा, जवाब मेरी समझ में नहीं आया। जवाब था | गया है। ही नहीं, पहुंच कैसे सकता है? सूरज डूब रहा है, इससे क्या | कृष्ण कहते हैं, ये सब मुझमें स्थित हैं, ये सारे भूत, लेकिन मैं लेना-देना है उसकी जिज्ञासा का? | उनमें स्थित नहीं हूं। बोकोजू ने कहा, बेहतर हो कि तू उस आदमी से जाकर पूछ कि यह इंगित है, और महत्वपूर्ण है। श्रद्धा तो सीधा समझ लेगी; सवाल का जवाब मिल गया है या नहीं? | विचार को थोड़ा-सा चक्कर काटना पड़ेगा। जो भी विराट्रतर है, वह आदमी बाहर गया उस आदमी को खोजने। बाहर ही, द्वार | | वह क्षुद्रतर में प्रविष्ट भी हो जाए, तो भी प्रविष्ट नहीं होता। एक के पास ही, वृक्ष के नीचे वह आदमी आंख बंद करके ध्यान में बैठा | | छोटा-सा वर्तुल मैं खींचं, एक छोटा सर्किल, और फिर एक बड़ा था। उसे हिलाया और पूछा कि जवाब मिल गया है? | सर्किल उसके चारों तरफ बनाऊं, तो यह कहना तो बिलकुल ठीक उस आदमी ने कहा, जवाब मिल गया है। सूरज डूबने के करीब है, बड़ा सर्किल यह कह सकता है कि छोटा सर्किल मुझमें स्थित है, मेरा जीवन भी डूबने के करीब है। और बोकोजू ने मुझे कह दिया है, फिर भी मैं उसमें स्थित नहीं हूं। क्योंकि छोटा सर्किल तो पूरा है कि अगर जीवनभर की व्यर्थता भी तेरे लिए परमात्मा को पाने का ही बड़े सर्किल में उपस्थित है, लेकिन बड़ा सर्किल छोटे सर्किल मार्ग नहीं बन सकी, तो अब और क्या मार्ग बनेगा? अगर जीवनभर के बाहर भी फैला हुआ है। का अनुभव भी तुझे परमात्मा के दरवाजे पर नहीं ले आया है, तो अब | | तो जीवन का एक अनिवार्य नियम है कि क्षुद्र तो विराट में स्थित और किस रास्ते से तू आ सकेगा? और मौत करीब है, सूरज डूबने | | होता है, लेकिन विराट क्षुद्र में नहीं। इसे ऐसा समझें, एक बूढ़ा के करीब है, सांझ होने लगी है। अब तू खो मत समय को। आदमी कह सकता है कि मैं बच्चे में मौजूद हूं, बच्चा मुझमें स्थित 'उस आदमी ने पूछा, आप यहां क्या कर रहे हैं? है, फिर भी मैं बच्चे के बाहर हूं। एक बूढ़े आदमी में बचपन भी तो उस आदमी ने कहा कि अब मैं डूबने की तैयारी कर रहा है। छिपा होता है, जवानी भी छिपी होती है। उन सबको उसने अपने में जीवनभर मैंने जीने की तैयारी की थी, वह व्यर्थ गई है। अब मैं | |समा लिया है। फिर भी वह कुछ ज्यादा होता है, समथिंग मोर।' अपने हाथ से डूबने की तैयारी कर रहा हूं। जिस तरह वहां बाहर उनसे कुछ फैला होता है। उसकी परिधि बड़ी है। सूरज डूब रहा है, इसी तरह भीतर मैं भी डूब जाऊं, यही उनका | जो भी छोटा है, वह बड़े में समाया होता है; लेकिन बड़ा उस संकेत है। छोटे में समाया नहीं होता। छोटे से भी बड़ा प्रकट होता है, फिर भी और सुबह जब सूरज उग रहा था दूसरे दिन, तब भी वह आदमी | | समाया नहीं होता। सागर कह सकता है कि सभी नदियां मुझमें उसी झाड़ के नीचे बैठा था। बोकोजू बाहर आया। वह तीसरा समाई हुई हैं, फिर भी मैं नदियों में नहीं समाया हुआ हूं। आदमी भी रातभर मौजूद रहा कि यह क्या हो रहा है! सब बात || अर्थ इतना ही है, तर्क और विचार की दृष्टि से, कि जो विराट बेबूझ हो गई थी। बोकोजू सुबह बाहर आया। उसने उस आदमी है वह क्षुद्र के पार है। क्षुद्र से प्रकट भी होता है, तो भी क्षुद्र के पार को-जो ध्यान में रातभर बैठा रहा था—हिलाया और पूछा कि है। यह जो पारगामिता है, ट्रांसेंडेंस है, यह जो सदा पार होना है, कुछ खबर दो। | बियांडनेस है, इसका सूत्र है यह। इसका मूल्य है, इसका अर्थ है, उस आदमी ने आंख खोली। और उस आदमी ने कहा कि सूरज | वह हमारे खयाल में आ सकेगा। उग रहा है। सुबह होने के करीब है। बोकोजू ने उसे आशीर्वाद दिया और वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं। पहले कहा, वे सब भूत और कहा कि अब तू जा सकता है। मुझमें स्थित हैं। और अब तत्क्षण एक पंक्ति भी नहीं पूरी हो पाई उस आदमी ने कहा कि मैं अगर यहां ज्यादा रुका तीसरे | | और कृष्ण कहते हैं, और वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं। आदमी ने तो मैं पागल हो जाऊंगा, इसका डर है। यह क्या हो | । किंतु मेरे योग को देख, मेरी माया को देख कि समस्त भूतों को रहा है? | धारण-पोषण करने वाला होकर भी मैं भूतों में स्थित नहीं है। क्योंकि यह एक और तरह की भाषा है, जो श्रद्धा समझ पाती है। उस जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने वाला वायु सदा ही 1901 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतळ रहस्य में प्रवेश* आकाश में स्थित है, वैसे ही संपूर्ण भूत मेरे में स्थित हैं, ऐसा जान। कृष्ण कुछ भी कहें, अर्जुन उन्हें बांध लेना चाहता है। उस बांधने एक के बाद दूसरी पंक्ति पहले को खंडित करती चली जाती है। | में ही उसे अपना छुटकारा दिखाई पड़ता है। अगर कृष्ण फंस जाएं, एकदम अतर्का वक्तव्य है। जो कहते हैं एक क्षण, दूसरे क्षण | जो कह रहे हैं उसी में, तो अर्जुन कृष्ण से जीत जा सकता है। खंडित कर देते हैं। जो दूसरे क्षण कहते हैं, तीसरी पंक्ति में उसके । एक बहुत मजे की बात है कि अगर यह चर्चा बिलकुल तर्कयुक्त पार निकल जाते हैं। क्या कहना चाहते हैं? क्या इशारा है? क्योंकि | ढंग से चले, तो कृष्ण की हार निश्चित है। अगर यह ठीक नियम जो कहा है, वह अतळ है। शायद यही कहना चाहते हैं कि मैं | | से खेल चले तर्क के, तो कृष्ण की हार निश्चित है। अर्जुन अतळ हूं। सुनिश्चित जीतेगा। इसे समझ लें। इस वक्तव्य का सार भाव यही है कि कृष्ण यह ___ कृष्ण ने सब तर्कों के जवाब दिए हैं। एक-एक तर्क को काटने कह रहे हैं कि तू समझने से समझ सके, ऐसा मैं नहीं हूं। तू जानने | की कोशिश की है। अर्जुन ऐसी जगह आ गया है कि अब और तर्क से जान सके, ऐसा मैं नहीं हूं। तू पहचानने से पहचान सके, वह मैं | उठाने का उसका मन नहीं है। तो कृष्ण तत्काल अपना बेबूझपन नहीं हूं। तू जानना छोड़, तू पहचानना छोड़, तू समझ छोड़, तू | | प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि अब मैं तुझे बता दूं वह, जैसा मैं हूं। गणित छोड़, तू तर्क छोड़, तो तू मुझे जान सकता है; क्योंकि मैं | | अब तक तू जो कह रहा था, तो मैं भी खेल रहा था। अब तक तू अतळ हूं। जो पूछ रहा था, तो मैं भी जवाब दे रहा था। लेकिन वह शतरंज का अतयं का अर्थ है, मैं रहस्य हूं। रहस्य का अर्थ है, कोई भी | | खेल था। मैं देख रहा था, तू किसलिए पूछ रहा है, तो क्या जवाब सिद्धांत, कोई भी नियम मुझे नहीं घेर पाएगा। मैं पारे की तरह हूं। | देना जरूरी है, वह मैं दे रहा था। अब मैं तुझे वही बताता हूं, जो मैं मुट्ठी तू बांधेगा तर्क की और मैं बिखरकर बाहर छिटक जाऊंगा। | हूं। यह जो दिखाई पड़ रहा है, इसमें मैं न दिखाई पड़ने वाले की जब तक तू नहीं बांधेगा, तब तक शायद मुझे पाए भी कि मैं हूं; | तरह छिपा हूं। यह सारा जगत मुझमें ठहरा हुआ है, और इसमें मैं जैसे ही तू मुट्ठी बांधेगा, मैं छिटक जाऊंगा। बुद्धि जैसे ही जीवन | | नहीं हूं; और फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि यह जगत भी मुझमें के सत्य को पकड़ना चाहती है, सत्य छिटक जाता है पारे की तरह। ठहरा हुआ नहीं है; और फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि मैं इस जगत तो तू मुझे बांधने की कोशिश मत कर। में समाया हुआ हूं। कृष्ण ने अब तक जो अनुभव किया है, वह यही है कि अर्जुन अर्जुन का सिर घूम जाता। जो भी विचार से चलेगा, उसका उन्हें बांधने की कोशिश कर रहा है। अर्जुन ने सब तरह से कोशिश घूमेगा। श्रद्धा नहीं घूमती है। श्रद्धा इतनी शक्तिशाली है कि कृष्ण की है। क्योंकि अगर अर्जुन कृष्ण को बांध ले तर्क में, विचार में, | भी उसे डांवाडोल नहीं कर सकते। इतनी बात कृष्ण ने अगर पहले तो इस युद्ध से छुटकारा हो सकता है। कही होती, तो अर्जुन अब तक हजार सवाल उठा दिया होता। वह क्योंकि कृष्ण कहते हैं कि यह सब माया है; तो अर्जुन कहना चुप है। वह समझने की कोशिश कर रहा है। समझने से ज्यादा वह चाहता है कि अगर सब माया है, तो मुझे इसमें क्यों उलझाते हैं? | कृष्ण को पीने की कोशिश कर रहा है। कृष्ण क्या कह रहे हैं, यह कृष्ण कहते हैं कि ये कोई मरते नहीं मारने से; तो अर्जुन कहेगा कि | मूल्यवान नहीं रहा अब। कृष्ण क्या हैं, उनकी प्रेजेंस, उनकी जब ये मरते ही नहीं मारने से, तो मारने से भी क्या सार है? कृष्ण | मौजूदगी, उनका होना, वह अपने द्वार खोलकर उनको अपने भीतर अगर कहते हैं कि त अपने यश के लिए और प्रतिष्ठा के लिए लड: समा रहा है। कृष्ण क्या कह रहे हैं, यह अब सवाल नहीं है बहुत तो अर्जुन कहेगा, यश और प्रतिष्ठा तो सब अहंकार है, और आप महत्वपूर्ण। क्यों कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं ही तो समझाते हैं कि अहंकार बाधा है! अगर कृष्ण कहते हैं कि है। कौन कह रहा है! धर्म के लिए तुझे लड़ना है, तो अर्जुन कहेगा कि मुझ से क्या धर्म| इसलिए अर्जुन चुपचाप पी रहा है। जिन बातों में एक-एक पद की स्थापना हो सकेगी? जब आप ही मौजूद हैं, तो धर्म की स्थापना पर संकट होना चाहिए, और संदेह होना चाहिए, उन्हें वह चुपचाप उतने से काफी है। अगर कृष्ण कहते हैं कि यह जीवन असार है, पीए जा रहा है। उसे कहीं कोई विरोध जैसे दिखाई भी नहीं पड़ तो अर्जुन चाहता है कि मुझे छुटकारा दो, ताकि मैं एकांत में जाकर रहा है। समाधि में लीन हो जाऊं। ध्यान रखें, यह विरोध हो सकता है दो कारणों से दिखाई न पड़े। 191 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 मैंने गीता के कई सतत पाठी देखे हैं, उन्हें भी नहीं दिखाई पड़ता। | सकता, जो दोनों एक साथ हो। या तो बिंदु होगा, या रेखा होगी। उसका कारण यह नहीं है कि उनकी श्रद्धा इतनी है कि उन्हें इसमें रेखा का मतलब ही है, बहुत-से बिंदु सतत, बहुत-से बिंदु विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वे इतनी बुद्धि भी नहीं लगाते कि विरोध | | श्रृंखला में। अगर यह बिंदु है, तो रेखा नहीं हो सकती। अगर यह दिखाई पड़े। पढ़ते चले जाते हैं। पढ़ते-पढ़ते आदत हो जाती है। | रेखा है, तो बिंदु नहीं हो सकता। बिंदु का मतलब ही है कि जो और और जो बीच में विरोध है स्पष्ट, वह भी दिखाई नहीं पड़ता। सुनते | विभाजित न किया जा सके। रेखा तो विभाजित की जा सकती है। रहते हैं, विरोध दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़ गए। युक्लिड को मानें विरोध न दिखाई पड़ना दो तरह से संभव है। एक तो श्रद्धा इतनी | कि इस इलेक्ट्रान को मानें? क्या करें? और यह इलेक्ट्रान है कि प्रगाढ़ हो कि विरोध के बीच में वह जो आदमी खड़ा है, वही दिखाई | युक्लिड की फिक्र ही नहीं करता; ज्यामिति की फिक्र नहीं करता; पड़े विरोध के पार वह जो चेतना खड़ी है, वही दिखाई पड़े और | | गणित के नियम नहीं मानता; और दोनों तरह का व्यवहार करता या फिर बुद्धि इतनी कम हो कि पहले वक्तव्य में और दूसरे वक्तव्य | | है! बिहेव्स बोथ वेज साइमल्टेनियसली। कोई शब्द नहीं है हमारे में विरोध है, यह भी दिखाई न पड़े। . पास। कण-तरंग, इसको क्या नाम दें? कण-तरंग कहें! दोनों बुद्धि की कमी को श्रद्धा की गहराई मत समझ लेना। बहुत बार | विपरीत शब्द हैं। वैज्ञानिक बड़े पेशोपस में थे कि क्या करें। बुद्धि का उथलापन श्रद्धा की गहराई समझ ली जाती है। श्रद्धा की लेकिन तथ्य को तो मानना ही पड़ेगा, चाहे युक्लिड के ही गहराई बुद्धि के उथलेपन का नाम नहीं है! श्रद्धा की गहराई बुद्धि खिलाफ जाता हो। अंततः यही हुआ कि युक्लिड को छोड़ देना से मुक्ति है। पड़ा; तथ्य को ही मानना पड़ा। इसे पढ़ना। पहले तो विरोध खोजने की कोशिश करना। सब आइंस्टीन से किसी ने पूछा है कि यह तो नियम के विपरीत है! तरह से विरोध देखने की कोशिश करना। और जब बुद्धि थक जाए, तो आइंस्टीन ने कहा, हम क्या करें? कहना चाहिए, नियम ही तथ्य जैसा कि मैं कछ दो-तीन बातें कह. तो खयाल में आ जाए। । के विपरीत है। नियम बदला जा सकता है, तथ्य नहीं बदला जा इस सदी के मध्य में विज्ञान ने एक नया सिद्धांत खोजा। कहें| | सकता। नियम बदला जा सकता है; नियम हमारा बनाया हुआ है। खोजा, या कहना चाहिए, खोज में आ गया अचानक। जैसे ही | तथ्य नहीं बदला जा सकता है; तथ्य हमारा बनाया हुआ नहीं है।' परमाणु की खोज हुई, तो विज्ञान को पता चला कि परमाणु के जो | युक्लिड को हारना पड़ेगा, क्योंकि तथ्य यह है। घटक, इलेक्ट्रांस हैं, वे बड़े अदभुत हैं, रहस्यपूर्ण हैं। रहस्यपूर्ण | विपरीत एक साथ मौजूद है जीवन में। उसी तथ्य को भौतिकी इसलिए हैं कि हमारे पास कोई शब्द ही नहीं कि हम उनको बताएं | | इस इलेक्ट्रान के व्यवहार में पाई, कि जीवन एक साथ मौजूद है। कि वे क्या हैं। किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे कण हैं। और फ्रायड ने अपने अंतिम जीवन के क्षणों में अनुभव किया कि किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे कण नहीं हैं, तरंग हैं। और तब | | आदमी के भीतर जीवन की लालसा तो है ही, मृत्यु की भी लालसा किन्हीं वैज्ञानिकों ने खबर दी कि वे दोनों एक साथ हैं, कण भी और | है। जिंदगीभर वह कहता था, आदमी के जीवन में एक ही खास तरंग भी। चीज है, लिबिडो। लिबिडो उसके लिए शब्द था, जीवेषणा। कण का मतलब होता है कि जो कभी तरंग नहीं हो सकता। तरंग आदमी जीना चाहता है। लेकिन आखिरी उम्र में, आदमी का का मतलब होता है कि जो कभी कण नहीं हो सकती। अगर मैं कहूं अध्ययन जीवनभर करने के बाद उसे लगा कि यह बात अधूरी है। कि मैंने आपकी दीवाल पर एक बिंदु बनाया; यह बिंदु भी है और आदमी सिर्फ जीना ही नहीं चाहता, आदमी साथ ही मरना भी लकीर भी; प्वाइंट भी है और लाइन भी। तो आप कहेंगे, क्या कह चाहता है। यह चाह भी आदमी के भीतर छिपी है। रहे हैं आप! दो में से एक ही बात हो सकती है, अन्यथा युक्लिड अब बड़ी मुश्किल हुई। क्या ये दोनों चाहें एक साथ आदमी के बेचारे का क्या होगा? ज्यामेट्री का क्या होगा? आप क्या कहते हैं! भीतर छिपी हैं? क्या यह आदमी दोनों चाह है? फ्रायड खुद परेशान अगर मैं कहूं कि यह बिंदु भी है और रेखा भी, दोनों एक साथ। तो हुआ, क्योंकि वह तर्कयुक्त गणित में भरोसा करता था। उसे आप कहेंगे, कृपा करें! यह दोनों एक साथ हो नहीं सकता। और | | कठिनाई मालूम पड़ी कि आदमी में दो में से एक ही हो सकती है, अगर मैं खींचना भी चाहूं ऐसी कोई चीज तख्ते पर, तो खींच नहीं | या तो जीने की चाह हो या मरने की चाह हो। यह समझ में आता Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतर्क्स रहस्य में प्रवेश है कि एक आदमी में अभी जीने की चाह है; फिर बाद में मरने की | पर हमें कठिनाई है। क्योंकि हमारे लिए प्रेम और घृणा विपरीत बातें चाह आ जाए, यह समझ में आ सकता है; लेकिन दोनों एक साथ! हैं, अलग-अलग। वही, जो भौतिकविद पहुंचे पदार्थ में, मनसविद पहुंच गए ऐसा नहीं है। इसलिए प्रेम क्षणभर में घृणा बन सकता है; और मनुष्य की वासना में, तो पाया कि दोनों वासनाएं एक साथ मौजूद | घृणा क्षणभर में प्रेम बन सकती है। जो आकर्षण है, वह विकर्षण हैं। और अब जो और गहरे जा रहे हैं लोग, वे अनुभव करते हैं कि बन सकता है। जो विकर्षण है, वह आकर्षण बन सकता है। वे उन्हें दो वासनाएं कहना गलत है। आदमी के भीतर एक ही वासना बदलने योग्य हैं, एक्सचेंजेबल हैं, और लिक्विड हैं, तरल हैं, है, जो जीने और मरने की दोनों है। तो जब तक अच्छा लगता है. एक-दसरे में बह जाते हैं। सच तो यह है कि वे दो नहीं हैं. एक तो आदमी उस वासना की व्याख्या करता है कि मैं जीना चाहता हूं। ही हैं। जब अच्छा नहीं लगता, तो उसी वासना की व्याख्या करता है कि कृष्ण यही कह रहे हैं कि मैं दोनों हूं। जहां-जहां तुझे वैपरीत्य मैं मरना चाहता हूं। दिखाई पड़े, वह दोनों मैं हूं। बूढ़े आदमी कहते हुए सुने जाते हैं कि भगवान, अब हमें उठा इस संबंध में हिंदू चिंतन बहुत अनूठा है। दुनिया के किसी धर्म ले! तो ऐसा मत समझना कि कुछ बदलाहट हो गई है उनमें, कि ने भी द्वंद्व को इतनी गहराई से आत्मसात नहीं किया। इसलिए मैं कोई क्रांति हो गई है उनमें। वही चाह विफल होकर, असफल | कहता हूं कि आइंस्टीन के लिए या फ्रायड के लिए हिंदू चिंतन होकर, हारकर, पराजित होकर, जरा-जीर्ण होकर अब मृत्यु की | जितनी सहजता से आत्मसात कर सकता है, उतना क्रिश्चियन भाषा बोल रही है। वही चाह है। | चितन आत्मसात नहीं कर सकता है। क्योंकि क्रिश्चियनिटी या __ अभी कोई आ जाए और कहे कि एक नया यंत्र बन गया है। इस इस्लाम द्वंद्व को मानकर चलते हैं। दरवाजे से घुसो, उधर से निकलो, जवान हो जाते हो! वह बूढ़ा यह भी खयाल में ले लें। कल मैंने आपसे कहा था, दो धाराएं आदमी कहेगा, भगवान! अभी थोड़ा ठहरना। मैं इस यंत्र से जरा हैं, एक यहूदी और एक हिंदू। शेष धाराएं उनकी शाखाएं हैं। यहूदी गुजरकर एक बार देख लूं। अगर ऐसा होता हो, तो अभी मरने की धारा जीवन को द्वंद्व में तोड़कर चलती है। भगवान है एक, शैतान ऐसी कुछ जल्दी नहीं है! है एक; दोनों दुश्मन हैं। अच्छाई है एक, बुराई है एक; दोनों में क्या हुआ? ये चाहें दो नहीं हैं। लेकिन भाषा में बड़ी कठिनाई दुश्मनी है। पाप है एक, पुण्य है एक; दोनों विपरीत हैं। नर्क है एक, है। दो ही कहना पड़ेंगी। ये एक ही हैं। मनसविद हमारे भीतर खोज स्वर्ग है एक; दोनों में विरोध है। सिर्फ हिंदू चिंतना द्वंद्व को कर-करके एक और तीसरे तथ्य पर पहुंचे हैं। आपको खयाल में आत्मसात करती है। इसलिए हमने कुछ अदभुत चीजें बनाईं। आ जाए कि वैपरीत्य वैपरीत्य नहीं है। मनसविद कहते हैं कि हम जैसे-जैसे मनुष्य की समझ बढ़ेगी, उन चीजों की गरिमा और महत्ता जिस व्यक्ति को प्रेम करते हैं, उसी को घृणा भी करते हैं। भी समझ में आएगी। यह जब पहली दफा उदघाटन हुआ, तो यह पहली दो बातों से | ___ हम अकेली कौम हैं इस जमीन पर, जिन्होंने परमात्मा के विपरीत भी ज्यादा मन को डंवाने वाली बात है। क्योंकि मां को अगर कोई एक बुराई का परमात्मा खड़ा नहीं किया। खड़ा ही नहीं किया। कहे कि तू अपने बेटे को प्रेम भी करती है और घृणा भी, साथ ही; | शैतान की, हमारी चिंतना में, कोई गुंजाइश नहीं है। मगर यह बड़ा तो कोई मां राजी नहीं होगी। लेकिन फ्रायड कहता है कि उसका न कठिन काम है। ईसाई और मसलमान एक लिहाज से सीधे और राजी होना केवल उसके भीतर के भय को बताता है। वह जानती है | सरल हैं, साफ हैं। जटिलता नहीं है। क्योंकि जो-जो बुराई है, वह गहरे में कि यह सच है। शैतान पर छोड़ देते हैं; और जो-जो भलाई है, वह परमात्मा पर अगर किसी प्रेमी से हम कहें कि तू जिस प्रेयसी के लिए मरा जा रख लेते हैं। इसलिए उनका परमात्मा एकदम भला है। अंग्रेजी में रहा है, उसी को कल मार भी सकता है। अभी उसके लिए अमृत जो शब्द गॉड है, वह गुड का ही रूपांतरण है। वह जो शुभ है, वही की तलाश कर रहा है, कल दवाई की दुकान से उसी के लिए जहर परमात्मा है। और जो अशुभ है, वही शैतान है। भी खरीद सकता है। और कल तो दर है: मनसविद कहते हैं. इसी । लेकिन हम क्या करेंगे? हमारे परमात्मा को दोनों होना पडेगा समय भी, इस क्षण में भी प्रेम और घृणा दोनों साथ ही मौजूद हैं। एक साथ, परमात्मा भी और शैतान भी। इसलिए हमने एक कल्पना | 193 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-44 की है, जो बहुत गहरी है। वह यह है कि परमात्मा निर्माता भी है। | भीड़ में बिलकुल डूबे हुए हैं। फिर भी अगर आपको थोड़ी-सी भी और विध्वंसक भी। ईसाइयत कहेगी, परमात्मा बनाता है, शैतान ध्यान की क्षमता हो, आंख बंद कर लें, अपने भीतर ध्यान में हो मिटाता है। हम कहते हैं, परमात्मा दोनों ही काम करता है; वही | जाएं, तो आप कह सकते हैं कि मैं भीड़ में मौजूद हूं और फिर भी बनाता है, वही मिटाता है। भीड़ में नहीं हूं। __ हमने अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई है। हमने शिव की प्रतिमा | आप जंगल में चले जाएं और ध्यान की बिलकुल क्षमता न हो; बनाई है, जिसमें वे आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री। दुनिया में कोई एक वृक्ष के नीचे बैठ जाएं; कोई वहां नहीं है, निराट सुनसान है; ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। एक ही व्यक्ति दोनों कैसे हो सकता आंख बंद करें, भीड़ मौजूद है! तब आपको वहां कहना पड़ेगा, है? या तो स्त्री हो या पुरुष हो। लेकिन दोनों हैं; दोनों एक साथ। | भीड़ यहां बिलकुल नहीं है, फिर भी मैं भीड़ में मौजूद हूं। इसलिए कृष्ण यह भी कहते हैं कि यह सारा संसार मुझमें समाया इस भीड़ में बैठकर भी आप भीड़ के बाहर हो सकते हैं। तब हुआ है और फिर भी मैं इसमें नहीं हूं। अगर कृष्ण से कोई पूछे कि | आपको एक जटिल सत्य का अनुभव होगा, भीड़ में हूं, भीड़ में ये जो पाप हो रहे हैं, इनके संबंध में आपका क्या खयाल है? तो समाया हूं, बैठा हूं, चारों तरफ भीड़ है, फिर भी मैं भीड़ में नहीं हूं। कृष्ण कहेंगे, सारे पापियों में भी मैं समाया हुआ हूं और फिर भी मैं तब आपको खयाल में आएगा कि यह द्वंद्वातीत अतिक्रमण क्या है! उनमें नहीं हूं। और सारे पाप मेरे ही भीतर हो रहे हैं और फिर भी मैं | यह नान-डुअल ट्रांसेंडेंस क्या है! यह कृष्ण किस गहन पहेली की उनमें नहीं हूं। बात कर रहे हैं! यह जो द्वंद्वातीत, ट्रांसेंडेंटल, दोनों को स्वीकार करके भी उनके वे यह कह रहे हैं, मैं ही लड़ता हं, मैं ही लड़ाता हूं; मैं ही भागता पार होने की बात है, यही भारतीय धर्म का गुह्यतम सूत्र है। इसलिए | हूं, मैं ही भगाता हूं; और फिर भी मैं इस सब में नहीं हूं। हमारा परमात्मा, हमारी जो परमात्मा की धारणा है, वह दुनिया के | लेकिन यह ध्यान की या श्रद्धा की, समाधि की जो परम अवस्था दूसरे लोगों को बहुत अजीब मालूम पड़ती है। उनकी कल्पना में है, तभी खयाल में आती है। तभी खयाल में आती है। नहीं आती है कि यह कैसी बात है! हमारे मुल्क में भी ऐसे लोग हैं, | एक सूफी फकीर मरने के करीब था। चिकित्सक उसे दवा दे रहे जिनकी समझ में नहीं आती। | हैं। वह दवा पी रहा है। लेकिन चिकित्सक को उसकी आंखों को जैसे कृष्ण का ही व्यक्तित्व है, यह जैनों की समझ में नहीं आ देखकर शक हुआ कि वह दवा नहीं पी रहा है। चिकित्सक ने कहा सकता। क्योंकि वे कहेंगे, यह आदमी कैसा है? यह बांसुरी भी बजा कि आप दवा पी तो जरूर रहे हैं, लेकिन आपकी आंखों से ऐसा सकता है, यह युद्ध के मैदान पर भी खड़ा हो सकता है! यह अहिंसा | | लग रहा है कि आपको कोई प्रयोजन नहीं है। की परम बात भी कह सकता है और हिंसा के बड़े युद्ध में अर्जुन को उस फकीर ने कहा, तुम्हारे लिए दवा पी रहा हूं; मैं दवा नहीं पी जाने की सलाह देता है! सलाह ही नहीं देता, फुसलाता है। और इतने | | रहा हूं। दवा तो पी ही रहा है, लेकिन उसने कहा, तुम्हारे लिए दवा ढंग से फुसलाता है कि किसी सेल्समैन ने कभी किसी दूसरे को नहीं | पी रहा हूं। मैं दवा नहीं पी रहा हूं। फुसलाया होगा। उसको धक्का देता है कि जा और जूझ जा; | अगर कोई मोहम्मद के हाथ में तलवार को देखकर मोहम्मद से बिलकुल बेफिक्र रह! और एक अजीब सूत्र देता है; उससे कहता | पूछता कि आप यह तलवार क्यों लिए हुए हैं? तो शायद वे भी यही है, बेफिक्री से मार; क्योंकि आत्मा कभी मरती ही नहीं! कहते, तुम्हारे लिए लिए हुए हूं। मेरे हाथ में तलवार नहीं है। यह जो द्वंद्वातीत अतिक्रमण की क्षमता है, यह गहनतम खोज है। | इसलिए मोहम्मद ने अपनी तलवार पर लिख रखा था, शांति मेरा इस सूत्र में कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू मेरे रूप को दो विरोधों में संदेश है। मत बांट। दोनों में मैं मौजूद हूं-रूप में भी, अरूप में भी; मूर्त में पागलपन है! तलवार पर, शांति मेरा संदेश है! उलटी हो गई भी, अमूर्त में भी; पदार्थ में भी, परमात्मा में भी–मैं ही हूं। और | बात। कृष्ण जैसी हो गई। तलवार पर लिखना कि शांति मेरा संदेश फिर भी मैं तुझसे कहता हूं कि इन सबमें होकर भी मैं बाहर रह जाता | है! और कोई जगह नहीं मिलती लिखने को! इस्लाम शब्द का अर्थ हूं। इन सबके बीच में खड़े होकर भी मैं इनमें डूब नहीं जाता हूं। होता है, शांति। इसे आप अनुभव कर सकते हैं। यहां आप भीड़ में बैठे हुए हैं, | - लेकिन मोहम्मद ठीक कह रहे हैं। तलवार उनकी तलवार के 194 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतळ रहस्य में प्रवेश लिए नहीं उठी है। और तलवार उनके हाथ में है ही नहीं। मगर यह कठिन है। यह तो एक गहन अनुभव हो, तो ही खयाल में आ सकता है। कुछ प्रयोग करें, तो समझ में आएगा। कुछ थोड़े-से प्रयोग करें. तो आसान हो जाएगा। जैसे मैंने कहा, यहां भीड़ में बैठे हैं। एक क्षण को बदल लें ध्यान, भूल जाएं भीड़ को। भीड़ खो गई; आप अकेले हो गए। भीड़ फिर भी रहेगी, आप अकेले हो गए। भोजन कर रहे हैं। समझ लें, जान लें कि शरीर में भोजन जा रहा है. आप में नहीं। शरीर में भोजन जाता रहेगा; आप बाहर हो गए। कोई आपको चांटा मार रहा हो, तब समझें कि पदार्थ से पदार्थ टकराया; हाथ चेहरे से लगा; मैं दूर ही खड़ा रह गया हूं; मुझे छुआ नहीं जा सका। तब चांटे की आवाज भी होगी, गाल पर निशान भी आ जाएगा, वह आदमी तृप्त होकर भी लौट जाएगा और आप भीतर अछूते बाहर खड़े रह जाएंगे। थोड़े प्रयोग करें, तो यह पहेली खयाल में आ सकती है। आज इतना ही। लेकिन अभी उठे नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। यहां कीर्तन होगा। पांच मिनट सम्मिलित हों। और बैठे ही न रहें, सम्मिलित हों। दोहराएं साथ में आनंद से और फिर वापस जाएं। 195 Page #222 --------------------------------------------------------------------------  Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 तीसरा प्रवचन जगत एक परिवार है Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ।। ७ ।। प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।। ८ ।। न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु । । ९ । । और हे अर्जुन, कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरी प्रकृति में लय होते हैं। और कल्प के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं। अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं। हे अर्जुन, उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं। इ स सूत्र के निकट पहुंचने लिए हम दो-चार मार्गों | से यात्रा करें, तो आसान होगा। यह सूत्र मनुष्य के चिंतन में जो मूलभूत प्रश्न है, उससे संबंधित है। आदमी ने निरंतर जानना चाहा है, कैसे यह सृष्टि निर्मित होती है ? कैसे विलीन होती है ? कौन इसे बनाता? कौन इसे सम्हालता ? किस में यह विलीन होती है ? कोई है इसे बनाने वाला या नहीं है? इस प्रकृति का कोई प्रारंभ है, कोई अंत है? या कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं? इस प्रकृति में कोई प्रयोजन है, कोई लक्ष्य है, जिसे पाने के लिए सारा अस्तित्व आतुर है, या यह लक्ष्यहीन एक अराजकता है? यह जगत एक व्यवस्था है या एक अराजक संयोग है ? और इस प्रश्न के उत्तर पर जीवन का बहुत कुछ निर्भर करता है, क्योंकि जैसा उत्तर हम स्वीकार कर लेंगे, हमारे जीवन की दशा भी वही हो जाएगी। ऐसे विचारक रहे हैं, जो मानते हैं कि जीवन एक संयोग, एक एक्सिडेंट मात्र है। कोई व्यवस्था नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है, कोई कारण भी नहीं है; सिर्फ जीवन एक दुर्घटना है। ऐसी दृष्टि को जो मानेगा, वह जो कह रहा है, वह सच हो या न हो, उसका जीवन जरूर एक दुर्घटना हो जाएगा। वह जो कह रहा है, वह सारे जगत को प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन उसके अपने जीवन को निश्चित ही प्रभावित करेगा । यदि मुझे ऐसा लगता हो कि यह सारा विस्तार, यह पूरा ब्रह्मांड एक संयोग मात्र है, तो मेरे अपने जीवन का केंद्र भी बिखर जाएगा। तब मेरे जीवन की सारी घटनाएं भी संयोग मात्र हो जाएंगी। फिर मैं बुरा करूं या भला, मैं जीऊं या मरूं, मैं किसी की हत्या करूं या किसी पर दया करूं, इन सब बातों के पीछे कोई भी प्रयोजन, कोई सूत्रबद्धता नहीं रह जाएगी। ऐसा जिन्होंने कहा है, उन्होंने जगत को अराजक बनाने में सुविधा दी है। और कठिनाई यह है कि चाहे कोई विचारक कितना ही कहे कि जगत अराजक है, खुद उसकी चेतना इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती। क्योंकि ऐसे विचारक जब अपना प्रस्ताव करते हैं कि जगत अराजक है, तो इसे भी बहुत तर्कयुक्त ढंग से सिद्ध करते हैं। ऐसे विचारक भी जब यह कहते हैं कि जगत अराजक है, तो इसकी भी सुसंगत व्यवस्था निर्मित करते हैं। वे एक सिस्टम बनाते हैं। अगर आप उनका विरोध करेंगे, तो वे आपके विपरीत तर्क उपस्थित करेंगे। वे आपके तर्कों का खंडन करेंगे। वे अपने तर्कों का समर्थन करेंगे। 198 लेकिन उन्हें शायद खयाल नहीं आता कि अगर जगत एक अराजकता है, तो किसी को भी समझाने का कोई प्रयोजन नहीं है; और फिर न कोई सही है और न कोई गलत । अगर जगत एक अराजकता है, एक अनार्थी है, एक केआस है, तो फिर मैं आपको समझाऊं कि सही क्या है, तो मैं मूढ़ हूं। क्योंकि अराजकता में सही कुछ भी नहीं हो सकता है। सही और गलत व्यवस्था में होते हैं। फिर अगर मैं कहूं कि मैं ही सही हूं और आप गलत हैं, तो मैं अपनी ही बात का खंडन कर रहा हूं; क्योंकि सही और गलत किसी प्रयोजन से होते हैं। अगर मैं कहूं कि यह रास्ता गलत है, और साथ ही यह भी कहूं कि यह रास्ता कहीं पहुंचता नहीं है, तो मैं पागल हूं। क्योंकि अगर रास्ता कहीं भी नहीं पहुंचता है, तो रास्ता गलत और सही नहीं हो सकता। क्योंकि रास्ते का गलत और सही होना इस पर निर्भर होता है कि मंजिल मिलेगी या नहीं मिलेगी। अगर मंजिल है ही नहीं, तो सभी रास्ते समान हैं; न वे गलत हैं, न वे सही हैं। क्योंकि कोई रास्ता कहीं भी पहुंचता नहीं है, इसलिए जांचिएगा कैसे, मापिएगा कैसे कि कौन सही है, कौन गलत है ? जो कहते हैं कि जगत अराजक है, वे भी सिद्ध करना चाहते हैं कि हम जो कह रहे हैं, वह सत्य है । अराजकता में कोई सत्य और असत्य नहीं हो सकता । सत्य और असत्य व्यवस्था की बातें हैं। इसलिए मैं कहता हूं, जिन्होंने ऐसा कहा है, वे भी व्यवस्था को Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगत एक परिवार है * स्वीकार करते हैं। उनकी चेतना भी गहन रूप में व्यवस्था को | क्योंकि हमारे प्राणों की गहराई से व्यवस्था की मांग है। इस मांग अस्वीकार नहीं कर पाती। अव्यवस्था से वे भी राजी नहीं हो पाते हैं। का ही परिणाम ईश्वर की धारणा है। अब तक ऐसा कोई भी जगत में व्यक्ति नहीं हुआ है, जो ईश्वर की धारणा का अर्थ है कि जगत एक व्यवस्था है, एक अव्यवस्था के लिए अंतर्मन से राजी हो। अगर आप ऐसे व्यक्ति | कास्मास है, केआस नहीं। यहां जो भी हो रहा है, वह प्रयोजनपूर्वक । को भी जाकर छुरा उसके हाथ में भोंक दें, तो वह भी पूछेगा, क्यों? है। और यहां जो भी हो रहा है, उसका कोई गंतव्य है। और यहां तुमने छुरा मुझे क्यों मार दिया है? जो भी हो रहा है, उसके पीछे कोई सुनियोजित हाथ हैं। यहां जो भी लेकिन अगर जगत अराजक है, तो क्यों का प्रश्न अनुचित है। दिखाई पड़ रहा है, वह कितना ही सांयोगिक हो, सांयोगिक नहीं यहां घटनाएं घटती हैं, बिना किसी कारण के। तो मैं कह सकता हूं है, कार्य और कारण से आबद्ध है। कि यह संयोग है कि मेरे हाथ में छुरा है, तुम्हारा हाथ करीब है। | - ईश्वर की धारणा का जो मौलिक आधार है, वह पहला आधार और यह संयोग है कि मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में छुरे को भोंकता है। यही है कि मनुष्य कुछ भी करे, विचार कुछ भी करे, विचार इसमें कोई कारण नहीं है। लेकिन अराजक आदमी भी पूछेगा कि | व्यवस्था के पार नहीं जा सकता है। विचार स्वयं ही व्यवस्था का छुरा मुझे क्यों मारा गया है? वह भी जानना चाहता है कारण। | | आधार है। विचार व्यवस्था की मांग है। सोचने का अर्थ ही है कि मैं आप से यह कह रहा हूं कि मनुष्य की चेतना ही ऐसी है कि प्रयोजन है, अन्यथा सोचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। समझाने वह व्यवस्था को अस्वीकार नहीं कर सकती है। विचार में भी का अर्थ है. क्योंकि कोई प्रयोजन है। अस्वीकार करे, तो भी अव्यवस्था के लिए भी व्यवस्था निर्मित | और हम जहां भी देखें, वहां जीवन में व्यवस्था के चरण सब करेगी। अगर कोई आदमी यह भी कहे कि जगत नहीं है, तो इसे | | जगह दिखाई पड़ते हैं। छोटे-से परमाणु से लेकर आकाश में घूमते भी वह सिद्ध करने में लग जाता है। अगर वह यह कहे कि यह सब | हुए विराट महाकाय ताराओं की तरफ हम आंख उठाएं, चाहे झूठ है, जो है, तो भी वह इसे सिद्ध और सत्य करने में लग जाता | क्षुद्रतम में और चाहे विराटतम में, एक गहन, निबिड़ योजना है। इससे एक भीतरी बात की खबर मिलती है। परिलक्षित होती है। पश्चिम में एक विचारक हुआ, बर्कले। बर्कले कहता है कि जगत | एडिंगटन ने अपने मरने के पहले लिखा है-और एडिंगटन तो एक स्वप्न है, एक विचार; बाहर कोई जगत नहीं है। लेकिन वह भी विशुद्ध वैज्ञानिक चिंतक था—उसने लिखा है कि जब मैंने अपना लोगों को समझाने जाता है कि मैं जो कहता हूं, वह ठीक है। विचार शुरू किया जगत के बाबत, तो मैं सोचता था, जगत वह किन्हें समझाने जाता है? अपने ही विचारों को? अपने ही | वस्तुओं का एक समूह है। लेकिन जीवनभर की निरंतर खोज के सपनों को? अपने ही सपने के पात्रों को? और जब कोई उसको | बाद अब मुझे ऐसा लगता है, जगत वस्तुओं का समूह नहीं, विचार मानकर राजी हो जाता है और ताली बजाता है, तो वह प्रसन्न होता | की एक व्यवस्था है। एडिंगटन ने कहा है कि नाउ दि वर्ल्ड लुक्स है। अपने ही सपनों के पात्रों से सुनी गई तालियों से प्रसन्न होता है? | | मोर लाइक ए थाट दैन लाइक ए थिंग। और जब कोई राजी नहीं होता है और इनकार करता है, तो वह दुखी | | वस्तु में और विचार में क्या फर्क है? वस्तु अलग-अलग और पीड़ित होता है। टुकड़ों में भी हो सकती है, लेकिन विचार सदा एक संयोजना में वह कहता भला हो कि जगत मेरा विचार है, लेकिन उसकी होता है। विचार का एक पैटर्न है। विचार के भी भीतर एक चेतना स्वयं भी इसे नहीं मान पाती है। | आर्गेनिक यूनिटी, एक सावयव एकता है। इसे थोड़ा खयाल में ले आप क्या कहते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है; आपका | | लें, तो इस सूत्र को समझना आसान हो जाए। अंतर्चित्त क्या स्वीकार करता है, वह महत्वपूर्ण है। ___ यह मेरा हाथ है। ये मेरे हाथ की पांच अंगुलियां हैं। यह मेरा पैर तो एक द्वार आपको कहूं, और वह पहला द्वार यह है कि मनुष्य है। यह मेरा सिर है। यह मेरा शरीर है। अगर ये सब वस्तुएं हैं, तो की चेतना स्वभावतः व्यवस्था को स्वीकार करती है। इस जगत में इनके भीतर कोई ऐक्य नहीं हो सकता। लेकिन मेरे मन में विचार अगर कोई व्यवस्था है, तो ही हम तृप्त हो सकते हैं। अगर इस उठता है, और मेरा हाथ उस विचार को पूरा करने के लिए उठ जाता जगत में कोई व्यवस्था नहीं है, तो हम तृप्त नहीं हो सकते हैं; है। मेरे मन में कामना उठती है, और मेरे पैर चलने को तत्पर हो 199 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 जाते हैं। मेरी आंख देखती है, और मेरे कान, जो मेरी आंख देखती है, उसे सुनने को उत्सुक हो जाते हैं। मेरे पैर और मेरी आंख में, और मेरे कान में, और मेरे हाथ में, और मेरे मन में एक अंतर्व्यवस्था है, एक इनर सिस्टम है। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं कि हाथ मेरे पैर से जुड़ा है, पैर मेरे शरीर से जुड़े हैं। ये सिर्फ जोड़ नहीं हैं। इन सबके भीतर बहती हुई कोई एकता है। उस एकता का नाम आर्गेनिक यूनिटी है। ईश्वर की धारणा इस बात की घोषणा है कि यह जगत भी वस्तुओं का समूह नहीं, एक अंतर ऐक्य है। एक इनर यूनिटी इस सारे जगत के भीतर दौड़ रही है। अगर वृक्ष उग रहा है और आकाश में तारे चल रहे हैं, वर्षा हो रही है और नदियां सागर की तरफ भाग रही हैं, सूरज सुबह उग रहा है और चांद रात को आकाश में यात्रा करता है—यह सब का सब अलग-अलग घटनाओं का जोड़ नहीं है । इन सारी घटनाओं के बीच जैसे मेरे शरीर में मेरी एकता व्याप्त है, इन सबके बीच कोई अंतर्व्यवस्था व्याप्त है। उस अंतर्व्यवस्था का नाम ईश्वर है। ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वर अंतर्व्यवस्था है । समस्त व्यक्तियों के बीच जो अंतर्व्यवस्था है, उसका नाम ईश्वर है, समस्त वस्तुओं के बीच जो जोड़ने वाली कड़ी है। अब यह मजे की बात है कि अगर मेरे हाथ को काट दें, तो मेरा हाथ कटकर गिर जाएगा, मेरा शरीर अलग हो जाएगा, लेकिन दोनों के बीच की जोड़ने वाली कड़ी दिखाई नहीं पड़ेगी। पकड़ में भी नहीं आएगी। अब तक तो नहीं आ सकी है। और जितना गहरे जो जानते हैं, वे कहते हैं, कभी पकड़ में नहीं आ सकेगी। वह अंतर्व्यवस्था अदृश्य है। यह तो निश्चित है कि मेरे हाथ और मेरे बीच कोई अंतर- कड़ी है, तभी मेरे मन में विचार कंपता है और मेरा हाथ सक्रिय हो जाता है। विचार और मेरे हाथ में भी कोई जोड़ है। लेकिन हाथ को काटते हैं, तो हाथ में और मेरे शरीर में जो जोड़ है, वह तो दिखाई पड़ता है— नसें दिखाई पड़ती हैं, मसल्स दिखाई पड़ते हैं, स्नायु, हड्डियां दिखाई पड़ती हैं - लेकिन मेरे हाथ और मेरे विचार में जो जोड़ है, वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता ! वह जोड़ है जरूर। क्योंकि इधर मैं सोचता हूं, उधर मेरा हाथ सक्रिय हो जाता है। जब कभी वह जोड़ खो जाता है, तो हम कहते हैं, आदमी को लकवा लग गया, पक्षाघात गया। अब वह सोचता है कि मेरा हाथ उठे और हाथ नहीं उठता। तो वह आदमी कहता है, मैं | पैरालाइज्ड हो गया। लेकिन इस जगत में जो लोग व्यवस्था को नहीं देखते, वे एक पैरालाइज्ड जगत देख रहे हैं; एक पक्षाघात, एक लकवे से लगा हुआ जगत है उनका । इसलिए नास्तिक जिस जगत को देखता है, वह पैरालाइज्ड है । उसमें अंतर्व्यवस्था उसे दिखाई नहीं पड़ रही है। और ध्यान रहे, जिसका जगत पैरालाइज्ड है, वह खुद भी उसके साथ पैरालाइज्ड हो जाएगा। जिसका जगत एक मुर्दा जोड़ है, वह आदमी भी अपने भीतर एक मुर्दा जोड़ हो जाएगा। उसकी आत्मा बिखर जाएगी। जिसे इस जगत में आत्मा नहीं दिखाई पड़ती, उसे | अपने भीतर भी आत्मा दिखाई नहीं पड़ेगी, क्योंकि तब वह भी एक वस्तुओं का जोड़ है। जैसा कि चार्वाक ने कहा है कि आदमी केवल वस्तुओं का जोड़ है, उसके भीतर आत्मा जैसी कोई भी वस्तु नहीं है। अगर हम आदमी को काटें, तो यह बात सच है। अगर आदमी को तोड़ें, तो यह बात सच है। हमें कहीं भी वह अंतर्व्यवस्था दिखाई नहीं पड़ेगी। वह अंतर्व्यवस्था अदृश्य है और इसलिए परमात्मा अदृश्य है। पहली बात, परमात्मा से प्रयोजन है, इस सारे जगत के भीतर एक जीवंत जोड़ है। यहां एक पत्ता भी नहीं हिलता, जब तक कि पूरे जगत का उसे साथ न हो। यहां अगर मैं एक शब्द बोलता हूं, तो यह शब्द मैं ही नहीं बोलता, बोल नहीं सकता हूं; अलग, | अकेला, अलग-थलग जगत से मैं नहीं हूं। एक शब्द भी यहां बोला जाएगा, बोला जा सकता है तभी, जब पूरे जगत का उसे सहयोग हो, जब पूरी अंतर्व्यवस्था साथ | आपकी आंख खुलेगी भी नहीं, अगर सूरज ढल जाए, समाप्त हो जाए। आपकी सांस चलेगी भी नहीं, अगर सूरज मर जाए। दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, उसके साथ आपकी सांस जुड़ी है। जिस दिन सूरज समाप्त हो जाएगा, उस दिन हम समाप्त हो जाएंगे और हमें पता भी नहीं चलेगा कि सूरज समाप्त गया। क्योंकि पता चलने के लिए भी हम बचेंगे नहीं। हमें कभी पता नहीं चलेगा कि सूरज समाप्त हो गया। क्योंकि सूरज समाप्त हुआ, उसके साथ तत्क्षण हम समाप्त हो जाएंगे। सारा जगत एक अंतर-संयोग है, अंतर-संबंध है। कहें कि जगत एक परिवार है। ईश्वर की मान्यता का अर्थ है, जगत को एक परिवार के रूप में | देखना । ईश्वर को इनकार करने का अर्थ है, प्रत्येक व्यक्ति एटामिक हो गया, आणविक हो गया। अब जगत एक परिवार नहीं 200 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगत एक परिवार है के है, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं है; और कहीं कोई संबंध नहीं है। दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? मैं कुछ कहता हूं, आप कुछ ध्यान रहे, मनुष्य की चेतना इसे स्वीकार नहीं करती है। परम कहते हैं। इन दोनों में कोई संबंध नहीं है! नास्तिक भी अपने जीवन में व्यवस्था को खोजता है। और परम __मैंने उनसे कहा, आपका मन भी संबंध की तलाश करता है? नास्तिक भी व्यवस्था की मांग करता है। | आप भी एक व्यवस्था की खोज करते हैं? आपको व्यवस्था का मैं एक नास्तिक को जानता हूं। मेरे पड़ोसी थे। विश्वविद्यालय खयाल छोड़ देना चाहिए। जब कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो आप में प्रोफेसर हैं। दर्शनशास्त्र के ही प्रोफेसर हैं। अक्सर मेरे पास आते | | मरने की खबर दें, मैं विवाह की चर्चा करूं, इससे अड़चन क्या थे। कहते थे, जगत में कोई व्यवस्था नहीं है। कहते थे, जगत सिर्फ | | है? लेकिन आपकी भी अपेक्षा है कि आपने मरने की खबर दी, तो परमाणुओं का जोड़ है। इसके भीतर कोई अंतःस्यूत, कोई धागा नहीं | मैं मरने की खबर के संबंध में ही बात करूं। इतनी व्यवस्था की है। जैसे कि माला में मनके डले होते हैं और भीतर एक अनस्यूत | मांग आप भी करते हैं! धागा उनको जोड़े होता है, ऐसा कोई धागा इस जगत में नहीं है; ___ हमारी चेतना व्यवस्था की मांग किए ही चली जाती है। अगर क्योंकि उसी धागे का नाम ईश्वर है। मनके ही मनके हैं, कहीं कोई | | कल रास्ते पर वे मुझे मिले थे और मैंने नमस्कार किया था और जोड़ नहीं है। और सब चीजें सांयोगिक हैं। आज नहीं किया, तो उनका मन दुखी होता है। मैंने उनसे पूछा, दुखी वे कहते थे कि जैसे हम एक टाइपराइटर पर एक बंदर को बिठा | होने की क्या जरूरत है ? कल यह संयोग था कि नमस्कार हुई। दें और वह ठोंकता रहे टाइपराइटर को, अनंतकाल तक ठोंकता रहे, | आज यह संयोग है कि नमस्कार नहीं होती। दोनों के बीच कोई तो गीता भी निर्मित हो सकती है। क्योंकि एक संयोग ही है; गीता | | संबंध कहां है? तब उनका बहरापन टूटना शुरू हुआ। और उन्हें भी शब्दों का एक संयोग है। अगर एक बंदर अनंतकाल तक-हम | | खयाल आना शुरू हुआ कि मांग तो मेरी भी व्यवस्था की ही है। सिर्फ कल्पना कर लें-एक बंदर अनंतकाल तक टाइपराइटर को चेतना व्यवस्था को मांगे ही चली जाती है। व्यवस्था चेतना की बैठकर कता रहे बिना कछ जाने. तो भी अनंत-अनंत संयोगों में गहरी प्यास है। ईश्वर उसका अंतिम उत्तर है। ईश्वर का अर्थ है. हम एक संयोग गीता भी होगी। क्योंकि आखिर गीता है क्या? शब्दों | | जगत को एक व्यवस्था मानते हैं। यहां कुछ भी अकारण नहीं है। का एक संयोग है। एक दफे में गीता निर्मित नहीं होगी, हजार दफे | इसलिए कृष्ण कहते हैं कि कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति में नहीं होगी, करोड़ दफे में नहीं होगी। हम सोचें अनंतकाल तक | को ही प्राप्त हो जाते हैं, मेरी प्रकृति में लय हो जाते हैं। और कल्प वह बंदर और टाइपराइटर दोनों लगे हुए हैं, तो अनंत-अनंत | | के प्रारंभ में उन्हें मैं पुनः निर्मित करता हूं। संयोगों में एक संयोग गीता भी होगी। इसे हम दूसरे दरवाजे से भी चलें। यह गाणितिक बात है। यह प्रोबेबिलिटी है। इसमें कोई शक नहीं । ऐसा अगर हो, मनुष्यता नष्ट हो जाए। कल कोई युद्ध है। यह हो सकता है। लेकिन फिर भी गीता को पढ़कर ऐसा मालूम हो-और अगर राजनीतिज्ञों की कृपा रही, तो होगा ही-मनुष्यता नहीं पड़ता कि यह एक संयोग है। फिर भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता | कल नष्ट हो जाए, आदमी समाप्त हो जाए, और फिर किसी कि किसी आदमी ने अचानक इन शब्दों को जोड़ दिया है। इन शब्दों | अनजाने ग्रह से मनुष्यता के इस मरघट पर कोई यात्री उतरें। अगर के भीतर अनस्यूत धागा मालूम पड़ता है। लेकिन वे मानने को राजी | उन्हें माइकलएंजलो के हाथ की बनी हुई कोई तस्वीर मिल जाए, तो नहीं थे। मैंने उन्हें न मालूम कितने-कितने रूपों से समझाया होगा, | वे क्या करें? लेकिन वे मानने को राजी ही नहीं थे। दो ही उपाय हैं। या तो वे सोचें कि किसी ने इसे बनाया होगा। जो मानने को राजी नहीं ही है, वह बहरा हो जाता है, वह सुनना | क्योंकि इतने अनुपात में, इतने सुसंयोजन में, इतनी लयबद्ध, रंगों बंद कर देता है। तब फिर मेरे पास एक ही उपाय था, और वह उपाय | | के साथ इतनी व्यवस्था, रूप का अवतरण, रंगों में निराकार की मैंने उनसे किया। मैं उनसे असंगत बातें करने लगा। वे पूछते | | पकड़-यह आकस्मिक नहीं हो सकती, को-इंसिडेंटल नहीं हो आकाश की, मैं जमीन का जवाब देता। वे ईश्वर की चर्चा उठाते, | सकती। ऐसा नहीं है कि रंग पड़ गए होंगे केनवस पर और यह चित्र मैं मशीन की बात करता। वे किसी के मरने की खबर देते, और मैं | बन गया होगा। किसी के विवाह की चर्चा छेड़ता। वे मुझसे कहने लगे, आपका एक तो रास्ता यह है कि वे इस चित्र की व्यवस्था को देखकर 2011 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 सोचें कि किसी ने इसे निर्मित किया होगा । और दूसरा रास्ता यह है कि वे सोचें कि यह बन गई होगी। लेकिन अगर एक चित्र हाथ में लगे, तो संयोग की बात भी हो सकती है। लेकिन फिर उन्हें मूर्तियां मिलें, खजुराहो के मंदिर मिलें, कि कोणार्क की मूर्तियां मिलें। और वे जमीन के कोने-कोने पर घूमते रहें और उन्हें अनेक यंत्र मिलें, और अनेक व्यवस्थाएं मिलें, तब भी अगर वे यही कहे चले जाएं कि यह संयोग की बात है ! यह संयोग की बात है कि यह जो रेडियो का यंत्र पड़ा है, संयोग की बात है कि अनंत-अनंत काल में अनेक-अनेक चीजों के मिलने से निर्मित हो गया होगा। लेकिन अगर एक रेडियो हो, तब भी यह संभव हो सकता है। जमीन पर बहुत रेडियो मिलें, रेल के इंजन मिलें, उजड़े हुए कारखाने मिलें, जगह-जगह व्यवस्था के लक्षण मिलें, जगह-जगह बनाने वाले की खबर मिले, तब भी अगर वे यात्री जिद्द किए जाएं, तो वह जिद्द उनकी नासमझी होगी । जमीन के इंच-इंच पर और प्रकृति के इंच-इंच पर और विश्व के इंच-इंच पर बनाने वाले की छाप है। यहां एक भी चीज निष्प्रयोजन नहीं मालूम पड़ती। और प्रत्येक चीज के भीतर एक गहन अनुपात है। अगर हम इनकार करे चले जाएं, तो हम अपने ही हाथ अपने को अंधा बनाते हैं। देखें, चारों तरफ आंखें खोलकर देखें। बीज को बोते हैं जमीन में। बीज को तोड़कर देखें, तो वृक्ष का कोई नक्शा दिखाई नहीं पड़ता, कोई ब्लू-प्रिंट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन अब वैज्ञानिक मानते हैं कि बीज में ब्लू-प्रिंट है, नहीं तो यह वृक्ष निकलेगा कैसे ? एक छोटे-से बीज में तोड़कर देखने पर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन इस बीज को जमीन में बो देते हैं और वृक्ष अंकुरित होता है; हर कोई वृक्ष नहीं, एक विशिष्ट वृक्ष अंकुरित होता है। इस वृक्ष की शाखाएं हर वृक्ष जैसी नहीं होतीं। इसकी अपने ही ढंग की शाखाएं होंगी, अपने ही ढंग के पत्ते होंगे, अपने ही ढंग के फूल खिलेंगे। और आश्चर्य की बात यह है कि जब यह वृक्ष संपूर्ण होगा, तो जिस बीज को हमने बोया था, वही बीज करोड़ों होकर वापस निकल आएगा। हर कोई बीज नहीं, वही बीज करोड़ों होकर फिर प्रकट हो जाएगा ! एक बीज के भीतर भी ब्लू प्रिंट है। एक बीज के भीतर भी व्यवस्था है। एक बीज के भीतर भी भविष्य की पूरी रूप-रेखा है। एक मां के पेट में बच्चे ने लिया है। वह जो पहला अणु है। बच्चे का, उसके भीतर पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट है। उस व्यक्ति का पूरा का पूरा जीवन विकसित होगा; उस सब की कहानी छिपी है; उस सब के मूल निर्देश सूत्र छिपे हैं, सारे सुझाव छिपे हैं। और शरीर उन सारे सुझावों को मानकर चलेगा। उस व्यक्ति की आंख का रंग क्या होगा, यह उस छोटे-से अणु में छिपा है, जो खाली आंख से देखा नहीं जा सकता। उस व्यक्ति की कितनी बुद्धि होगी, कितनी मेधा होगी, कितना आई क्यू होगा, वह उस छोटे-से अणु में छिपा है। जिसको बुद्धि लाख उपाय करे, तो भी पता नहीं लगा पा सकती। वह व्यक्ति कितनी उम्र का हो सकेगा, कितनी उम्र का होकर मरेगा, उस व्यक्ति को कौन-सी खास बीमारियां हो सकती हैं, वह सब उस छोटे-से बीज में छिपा है। अगर इतने छोटे-से बीज में यह वृक्ष का सारा ब्लू-प्रिंट छिपा होता है; अगर छोटे-से मनुष्य के अणु में, सेल में, उसके पूरे जीवन की कथा छिपी होती है, तो क्या यह सोचना गलत है कि इस पूरे जगत का भी कोई ब्लू-प्रिंट होना चाहिए? क्या यह सोचना गलत है कि इस सारे जगत की भी मूल व्यवस्था किसी अणु में छिपी हो? उस अणु का नाम ही परमात्मा है। यह जो इतना बड़ा विराट जगत है, इस सारे जगत के फैलाव की भी मूल व्यवस्था कहीं होनी चाहिए। कृष्ण कहते हैं, मैं ही इसे सृजन करता और मैं ही फिर इसे अपने में लीन कर लेता हूं। इसे समझें। एक बीज से वृक्ष निर्मित होता है और फिर वृक्ष पुनः बीजों में लीन हो जाता है। प्रथम और अंतिम क्षण सदा एक होते हैं। जहां से यात्रा शुरू होती है, वहीं यात्रा पूर्ण हो जाती है। बीज से शुरू होती है यात्रा, बीज पर समाप्त हो जाती है। इस विराट अस्तित्व को अगर हम एक इकाई मान लें, तो | इस इकाई का भी मूल कहीं छिपा होना चाहिए। लेकिन हम बीज को तोड़ते हैं, तो वृक्ष नहीं मिलता। और अगर हम आदमी के अणु को तोड़ें, उसके सेल को, कोष्ठ को तोड़ें, तो भी उसमें आदमी नहीं | मिलता। तो एक बात साफ होती है कि बीज में वृक्ष छिपा है, लेकिन किसी अदृश्य ढंग से; किसी ऐसे ढंग से कि जब तक प्रकट न हो जाए, तब तक उसका पता ही नहीं चलता । 202 ईश्वर का भी पता तभी चलना शुरू होता है, जब किन्हीं अर्थों में वह हमारे लिए प्रकट होने लगता है। तब तक पता नहीं चलता। इसलिए सैद्धांतिक रूप से अगर कोई मान भी ले कि जगत में ईश्वर है, तब भी उसका कोई प्रयोजन नहीं, जब तक कि वह Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगतं एक परिवार है * प्रकट न होने लगे; वह अदृश्य हमें दिखाई न पड़ने लगे। उस बीज है, और प्रत्येक चीज ऊपर उठ रही है। चीजें ठहरी हुई नहीं हैं, चीजों में से वृक्ष निकलने न लगे, फूल न खिलने लगें, तब तक हमें| | के तल रूपांतरित हो रहे हैं। और यह जो विकास है, इररिवर्सिबल उसका पूरा एहसास, उसकी पूरी प्रतीति नहीं होती। | है, यह पीछे गिर नहीं जाता। एक बच्चे को हम दुबारा बच्चा कभी लेकिन यह धारणा उपयोगी है; क्योंकि यह धारणा हो, तो उस | | नहीं बना सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि विकास सुनिश्चित प्रतीति की तरफ चलने में आसानी हो जाती है। और हम उसी तरफ | रूप से उसकी आत्मा का हिस्सा हो जाता है। यात्रा कर पाते हैं, जिस दिशा को हम अपने संकल्प में उन्मुक्त कर आप जो भी जान लेते हैं, उसे फिर भुलाया नहीं जा सकता। लेते हैं। जिस दिशा को हम बंद कर देते हैं, उस तरफ यात्रा कठिन | आपने जो भी जान लिया, उसे फिर मिटाया नहीं जा सकता। हो जाती है। क्योंकि वह आपकी आत्मा का सुनिश्चित हिस्सा हो गया। वह पश्चिम में एक विचारक अभी था, जिसका पश्चिम पर बहुत आपकी आत्मा बन गई। इसलिए इस जगत में जो भी हम हो जाते प्रभाव पड़ा, एडमंड लूसेल्ड। उसका कहना है, मनुष्य का पूरा | हैं, उससे नीचे नहीं गिर सकते। जीवन एक इनटेंशनलिटी है। मनुष्य का पूरा जीवन एक गहन तीव्र ___ अगर यह संयोग मात्र है, तो ठीक है। एक बूढ़ा किसी दिन इच्छा है। तो जिस दिशा में मनुष्य अपनी गहन तीव्र इच्छा को लगा सुबह उठकर पाए कि बच्चा हो गया! एक ज्ञानी सुबह उठे और देता है, वही दिशा खुल जाती है; और जिस दिशा से अपनी इच्छा | पाए कि सब अंधकार हो गया; अज्ञान ही अज्ञान छा गया! एक को खींच लेता है, वही बंद हो जाती है। मूर्तिकार सुबह उठकर पाए कि उसकी छेनी-हथौड़ी को हाथ पकड़ तो अगर एक चित्रकार चित्रकार होना चाहता है, तो अपने | | नहीं रहे, हाथ छूट गए हैं ! उसे कुछ खयाल ही नहीं आता कि कल समस्त प्राणों की ऊर्जा को उस दिशा में संलग्न कर देता है। एक वह क्या था! मूर्तिकार मूर्तिकार होना चाहता है, एक वैज्ञानिक वैज्ञानिक होना नहीं, हमारा आज हमारे समस्त कल और अतीत के ज्ञान और चाहता है। लेकिन अगर आप कुछ भी नहीं होना चाहते, तो आप अनुभव को अपने में समा लेता है, निविष्ट कर लेता है। न केवल ध्यान रखिए, आप कुछ भी नहीं हो पाएंगे, क्योंकि आप किसी भी | | अतीत को निविष्ट कर लेता है, बल्कि भविष्य की तरफ पंखों को यात्रा पर अपनी चेतना को संगृहीत करके गतिमान नहीं कर पाते। | भी फैला देता है। आपके भीतर इंनटेंशनलिटी, आपके भीतर संकल्प का आविर्भाव जगत एक सुनिश्चित विकास है, एक कांशस इवोल्यूशन। ही नहीं हो पाता। तो आप एक लोच-पोच व्यक्ति होते हैं, जिसके अगर जगत विकास है, तो उसका अर्थ है कि वह कहीं पहुंचना चाह भीतर कोई केंद्र नहीं होता। बिना रीढ़ की, जैसे कोई शरीर हो बिना रहा है। विकास का अर्थ होता है, कहीं पहुंचना। जीवन कहीं रीढ़ की हड्डी का, वैसी आपकी आत्मा होती है बिना रीढ़ की। | | पहुंचना चाह रहा है। जीवन किसी यात्रा पर है। कोई गंतव्य है, कोई . यह जगत भी अपने समस्त रूपों में एक गहन इच्छा की सूचना | | मंजिल है, जिसकी तलाश है। हम यूं ही नहीं भटक रहे हैं। हम कहीं देता है। यहां कोई भी चीज अकारण होती मालूम नहीं हो रही है। | जा रहे हैं। जाने-अनजाने; पहचानते हों, न पहचानते हों; हमारा यहां प्रत्येक चीज विकासमान होती मालूम पड़ती है। प्रत्येक कृत्य हमें विकसित करने की दिशा में संलग्न है। ___ डार्विन ने जब पहली बार विकास का, इवोल्यूशन का सिद्धांत __ और ध्यान रहे, हमारे जीवन में जब भी आनंद के क्षण होते हैं, जगत को दिया, तो पश्चिम में विशेषकर ईसाइयत ने भारी विरोध | तो वे वे ही क्षण होते हैं, जब हम कोई विकास का कदम लेते हैं। किया। क्योंकि ईसाइयत का खयाल था कि विकास का सिद्धांत | | जब भी हमारी चेतना किसी नए चरण को उठाती है, तभी आनंद से धर्म के खिलाफ है। लेकिन हिंदू चिंतन सदा से विकास के सिद्धांत | भर जाती है। और जब भी हमारी चेतना ठहर जाती है. अवरुद्ध हो को धर्म का अंग मानता रहा है। जाती है, उसकी गति खो जाती है और कहीं चलने को मार्ग नहीं असल में विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत में | | मिलता, तभी दुख, तभी पीड़ा, तभी परतंत्रता, तभी बंधन का परमात्मा है। विकास के कारण ही पता चलता है कि जगत किसी | | अनुभव होता है। मुक्ति का अनुभव होता है विकास के चरण में। गहन इच्छा से प्रभावित होकर गतिमान हो रहा है। जगत ठहरा हुआ | | जब बच्चा पहली दफा जमीन पर चलना शुरू करता है, तब नहीं है, स्टैटिक नहीं है, डायनैमिक है। यहां प्रत्येक चीज बढ़ रही आपने उसकी प्रफुल्लता देखी है? जब वह पहली दफा पैर रखता 203 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* है जमीन पर, और पहली दफा डुलता हुआ, कंपता हुआ, घबड़ाया | न केवल हम ठहरे हुए ही नहीं हैं, हम प्रतिपल विकासमान हैं। हुआ, भयभीत, झिझकता हुआ, पहला कदम उठाता है, और जब | | और एक-एक व्यक्ति ही नहीं, पूरा जगत विकासमान है। यह जो पाता है कि कदम सम्हल गया और जमीन पर वह खड़े होने में समर्थ | | विकास की अनंत धारा है, अगर है, तो ही जगत में ईश्वर है। है, तो आपको पता होना चाहिए, विकास का एक बहुत बड़ा कदम | क्योंकि ईश्वर का अर्थ है-टेल्हार्ड डि चार्डिन ने एक शब्द का उठ गया है। यह सिर्फ पैर चलना ही नहीं है, आत्मा को एक नया | प्रयोग किया है, दि ओमेगा प्वाइंट। अंग्रेजी में अल्फा पहला शब्द भरोसा मिला, आत्मा को एक नई श्रद्धा मिली; आत्मा ने पहली दफा है और ओमेगा अंतिम। अल्फा का अर्थ है, पहला; ओमेगा का अपनी शक्ति को पहचाना। अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो | अर्थ है, अंतिम। चार्डिन ने कहा है कि गॉड इज़ दि ओमेगा प्वाइंट। सकेगा, जो यह घुटने के बल चलकर होता था। अब यह दुबारा वही ईश्वर जो है, वह अंतिम बिंदु है विकास का। विकास की अंतिम नहीं हो सकेगा। अब यह सारी दुनिया भी इसको घुटने के बल झुकाने संभावना, विकास का जो अंतिम रूप है, विकास की जो हम में असमर्थ हो जाएगी। एक बड़ी ऊर्जा का जन्म हो गया। कल्पना कर सकते हैं, वह ईश्वर है।। इसलिए जब कोई हार जाता है, तो हम कहते हैं, उसने घुटने टेक | ईश्वर का अर्थ है कि यह जगत किसी एक सुनिश्चित बिंदु की दिए। घुटने टेकना हारने का प्रतीक हो जाता है। लेकिन कल तक | तरफ यात्रा कर रहा है। कितना ही हम भटकते हों, और कितना ही यह बच्चा घुटने टेककर चल रहा था। इसे पता ही नहीं था कि मैं | मार्ग से च्युत हो जाते हों, और कितने ही गिरते हों, कितने ही क्या हो सकता हूं, मैं भी खड़ा हो सकता हूं, अपने ही बल मैं भी | | खाई-खड्डु हों, लेकिन इन सारे खाई-खड्डों, इन सारी गिर जाने की चल सकता हूं। यह दुनिया की पूरी की पूरी ताकत, सारी दुनिया की संभावनाओं के बावजूद भी हम उठते हैं, बढ़ते हैं; और कोई दिशा शक्ति भी चेष्टा करे, तो मुझे गिरा नहीं पाएगी। है, जहां हम खिंचे चले जा रहे हैं। आदमी की चेतना विकसित होती इस बच्चे के भीतर इनटेंशनलिटी, एक तीव्र इच्छा का जन्म हो | चली जा रही है। गया। जिस दिन यह बच्चा पहली बार बोलता है और पहला शब्द | | इसे हम ऐसा समझें। अस्तित्व, जो है हमारे चारों तरफ, उसका निकलता है इसका—तुतलाता हुआ, डांवाडोल, डरा हुआ—उस | नाम है। अस्तित्व से भी महत्वपूर्ण और कीमती, और अस्तित्व में दिन इसके भीतर एक नया कदम हो गया। जिस दिन बच्चा पहली जो केंद्रीय है, वह है जीवन। लाइफ इज़ सेंट्रल इन एक्झिस्टेंस। बार बोलता है, उसकी प्रफुल्लता का अंत नहीं है। अपने को | क्यों? अभिव्यक्त करने की आत्मा ने सामर्थ्य जुटा ली। - - . .. एक पत्थर पड़ा है, पत्थर कितना ही खूबसूरत हो; और पास में इसलिए बच्चे अक्सर एक ही शब्द को-जब वे बोलना शुरू एक फूल खिल रहा है, और फूल कितना ही बदसूरत हो, तो भी करते हैं तो दिनभर दोहराते हैं। हम समझते हैं कि सिर खा रहे | | फूल पत्थर से कीमती है। क्यों? फूल विकासमान है, फूल जीवंत हैं, परेशान कर रहे हैं, वे केवल अभ्यास कर रहे हैं अपनी स्वतंत्रता | | है; पत्थर मुर्दा है। फूल बढ़ रहा है। पत्थर की कोई संभावना नहीं का। वह जो उन्हें अभिव्यक्ति मिली है, वे बार-बार उसको छूकर | है, फूल की संभावना है। पत्थर कल भी पत्थर रहेगा; फूल आज देख रहे हैं कि हां, मैं बोल सकता हूं! अब मैं वही नहीं हूं-मौन, | कली है, कल खिलेगा। फूल विकासमान है, डायनैमिक है। बंद। अब मेरी आत्मा मुझसे बाहर जा सकती है। नाउ कम्युनिकेशन __ अस्तित्व का जो केंद्र है, वह जीवन है। कहें हम ऐसा कि इज़ पासिबल। अब मैं दूसरे आदमी से कुछ कह सकता हूं। अब | अस्तित्व जीवन के लिए है। एक्झिस्टेंस इज़ फार लाइफ। अस्तित्व मैं अपने में बंद कारागृह नहीं हूं। मेरे द्वार खुल गए! | का अंत है जीवन। अस्तित्व का लक्ष्य है जीवन। लेकिन जीवन भी वह बच्चा सिर्फ अभ्यास कर रहा है। अभ्यास ही नहीं कर रहा | | किसी के लिए है। जीवन में अगर हम खोजें कि क्या है केंद्रीय, तो है, वह बार-बार मजा ले रहा है। वह जिस शब्द को बोल सकता | हम पाएंगे, चिंतन, मनन, विचार, मन। है, उसे बोलकर वह बार-बार मजा ले रहा है। वह कह रहा है कि जैसे अस्तित्व का केंद्र है जीवन, ऐसे जीवन का केंद्र है विचार। ठीक! अब यह बच्चा दुबारा वही नहीं हो सकता, जो यह एक शब्द | | इसलिए एक फूल खिल रहा है, कितना ही खूबसूरत हो; और एक बोलने के पहले था। एक नई दुनिया में यात्रा शुरू हो गई। विकास | | मोर नाच रहा है, कितनी ही उसकी नृत्य की गरिमा हो; लेकिन एक का एक चरण हुआ। | छोटा-सा मूढ़ बच्चा भी उसके पास बैठा है, तो यह बच्चा ज्यादा 204] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगत एक परिवार है * मूल्यवान है। यह बच्चा कुरूप हो, तो भी फूल से ज्यादा मूल्यवान प्रकट होता है, वह पहले ही मौजूद होना चाहिए, अन्यथा प्रकट है। और यह बच्चा बिलकुल मूढ़ हो, तो भी मोर से ज्यादा नहीं हो सकता। इसे थोड़ा समझना कठिन होगा। मूल्यवान है! क्यों? क्योंकि इस बच्चे के पास एक भीतरी संभावना लेकिन अंत में वही प्रकट होता है, जो प्रथम में मौजूद होता है, है, जो फूल के पास और मोर के पास नहीं है। इस बच्चे के पास यह जीवन के शाश्वत नियमों में एक है। अगर फूल में से अंत में भीतर एक मन की संभावना है, कितनी ही छोटी, लेकिन एक और | बीज निकलते हैं, बीज से अंत में बीज निकलते हैं, वृक्ष से अंत में नई संभावना का द्वार खुल गया है। यह विकास के एक ऊपर के बीज निकलते हैं, तो वे बीज खबर देते हैं कि प्रथम में भी बीज ही तल पर खड़ा हो गया है। रहा होगा। पत्थर पड़ा है। पत्थर से फूल एक कदम ऊपर है; विकासमान है। __ आपने या माली ने एक पौधा लगाया। यह माली मर जाएगा। फूल से यह बच्चा एक कदम ऊपर है, क्योंकि यह विकासमान ही | | इसके बेटे इस वृक्ष में आए हुए बीजों को बटोरेंगे। फिर भी वे कह नहीं है. यह मनन की क्षमता से भी भरा है. यह सोच भी सकता है। सकते हैं कि बीज चंकि अंतिम है. इसलिए बीज प्रथम में भी रहे माइंड इज़ सेंट्रल टु लाइफ। मन जीवन का केंद्र है। लेकिन मन | | होंगे। क्योंकि अंतिम वही होता है, जो प्रथम में मौजूद था। अंत में कितना ही विकसित हो, एक आइंस्टीन बैठा हो, जिसके पास | | वही तो प्रकट होता है, जो पहले से छिपा था। अंत प्रथम की विकसित से विकसित मन है; जिसने जगत को कीमती सिद्धांत अभिव्यक्ति है। दिए, शक्ति दी, विज्ञान दिया। लेकिन पास में ही एक साधारण-सा तो जैसा चार्डिन ने शब्द उपयोग किया है, ओमेगा, अंत। बट मनुष्य बैठा हो ध्यान में लीन, तो आइंस्टीन से ज्यादा कीमती है। | ओमेगा इज़ आल्सो दि अल्फा। वह जो पहला है, वही अंतिम है। एक साधारण-सा व्यक्ति ध्यान में लीन बैठा हो, तो आइंस्टीन से | तो अगर ईश्वर जीवन की परम शिखर अनुभूति है, तो निश्चित ही ज्यादा कीमती है। | वह प्रथम भी मौजूद होगी। इसलिए कृष्ण के इस सूत्र को अब हम क्यों? क्योंकि उसने और एक नया चरण पूरा किया। अब वह समझें, तो आसानी हो जाएगी। मन में ही नहीं जीता; मन को भी शांत करने पर, विचार के भी खो कहते हैं, कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। जाने पर जो चेतना शेष रह जाती है, उसमें जीता है। वे यह कह रहे हैं कि कल्प के अंत में सभी कुछ अंततः ईश्वरीय कांशसनेस इज़ सेंट्रल टु माइंड, मन का भी केंद्र चैतन्य है। हो जाता है; एवरीथिंग बिकम्स डिवाइन। अंत में अंत का अर्थ चैतन्य शिखर है। अस्तित्व आधार है, चैतन्य शिखर है। लेकिन | है, यह परम जो स्थिति होगी विकास होते-होते, यात्रा चैतन्य का भी प्रयोजन क्या? एक आदमी बैठा है शांत; मन के | चलते-चलते, जो आखिरी मंदिर आएगा, उसमें पत्थर भी, प्राण विचार खो गए, अशांति खो गई, सब खो गया। शांत है बिलकुल। | भी, सभी कुछ मुझ में लीन हो जाता है। क्योंकि मैं ही प्रथम और चेतना से भरा है। लेकिन उसके पास ही एक दूसरा आदमी बैठा | मैं ही अंतिम हूं। कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते है, जो सिर्फ शांत ही नहीं है—मात्र शांति निषेध है, नकार है, | हैं, अर्थात मेरी प्रकृति में लय हो जाते हैं। मेरा जो स्वभाव है, मेरा अभाव है जो केवल शांत ही नहीं है, जो परमात्मा के अनुभव से | जो होना है. मेरा जो अस्तित्व है. अंत में सभी कछ उसमें लीन हो नाच उठा है। जाता है। गॉड इज़ सेंट्रल टु कांशसनेस। अकेले शांत हो जाना निषेध है। | इसलिए कल्प को दो तरह से देखें। उसको सिर्फ अंत ही न मन तो खो गया, लेकिन नया कुछ अवतरित नहीं हुआ है। लेकिन | समझें; उसे लक्ष्य भी समझें। वह दोहरे अर्थों में अंत है। वह चेतना जब परमात्म से भर जाए और चेतना जब दिव्यता से भर | समाप्ति भी है, वह पूर्णता भी। और हर पूर्णता समाप्ति होती है। हर जाए, तो अब एक नया रंग, एक नया आनंद, एक एक्सटैसी, एक | समाप्ति पूर्णता नहीं होती, लेकिन हर पूर्णता समाप्ति होती है। वर्षा अमृत की हो गई है। यह शिखरों में भी शिखर है। ___ जब सारा जीवन विकसित होकर प्रभु के पास पहुंच जाता है, तो ये पांच-अस्तित्व, जीवन, मन, ध्यान, परमात्मा। और समझ जगत तिरोहित हो जाता है, सिर्फ परमात्म-चेतना शेष रह जाती है। में आने की बात होगी, आसान हो जाएगा–अगर परमात्मा पीक यह एक कल्प का अंत है। है, शिखर है हमारे अनुभव का, हमारे अस्तित्व का, तो जो अंत में | - कृष्ण कहते हैं, और कल्प के प्रारंभ में मैं उनको फिर रचता हूं; | 205] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 4 फिर उनका निर्माण करता हूं। ध्यान रहे, यह निर्माण भी विकास की यात्रा है। यह निर्माण भी फिर पुराने जैसा नहीं होता। यह निर्माण भी और एक अगला कदम है । यह फिर से निर्माण, फिर एक अगला कदम है। अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को अंगीकार करके, स्वभाव के वश से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत समुदाय को बारंबार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं। और जो भी रचना घटित होती है, कृष्ण कह रहे हैं, वह रचना प्रत्येक के कर्मानुसार घटित होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जो करता है, वैसा ही हो जाता है। और प्रत्येक भूत समुदाय जो-जो कर गुजरता है, वही करना उसकी आत्मा बनती चली जाती है। और वही आत्मा उसके नए जन्म का रूप देती है। वही आत्मा, वही कर्मों का समुचित रूप उसके नए जन्म का ब्लू प्रिंट है। न केवल व्यक्ति के लिए, वरन समस्त जगत के लिए भी। यह समस्त जगत जब पुनः निर्मित होगा, तो इस जगत ने जो भी किया, जो भी पाया, जो भी अनुभव, जो भी यात्रा का फल, वह सब का सब पुनः बीज बन जाता है। जब एक वृक्ष में बीज लगते हैं, तो क्या होता है ? वृक्ष का सारा अनुभव, वृक्ष की सारी यात्रा, वृक्ष का सारा जीवन बीज में पुनः प्रविष्ट हो जाता है । सार में, इसेंस में सब बीज में छिप जाता है। फिर बीज जमीन में पड़ता है। फिर वृक्ष का जन्म होता है। इस संबंध में एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि भारतीय, हिंदू चिंतन जगत को एक वर्तुलाकार यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन जगत की यात्रा को रेखाबद्ध यात्रा मानता है। ईसाई चिंतन का खयाल है कि समय एक रेखा में चलता है; सीधा, बिलकुल सीधा – लीनियर कंसेप्ट आफ टाइम - सीधा । लेकिन हिंदू चिंतन मानता है कि समय एक वर्तुल में चलता है, सर्कुलर । जैसे गाड़ी का चाक घूमता है, ऐसा समय घूमता है। अब यह आश्चर्य की बात है कि हिंदू चिंतन की जो धारणा है, वही वैज्ञानिक है; क्योंकि इस जगत में कोई भी गति सीधी नहीं होती। तो समय की भी होने का कोई कारण नहीं है। इस जगत में समस्त गतियां सर्कुलर हैं। चाहे जमीन सूरज का चक्कर लगाती हो, और चाहे सूरज महासूर्यों का चक्कर लगाता हो; चाहे यह आकाश के इतने अनंत-अनंत तारे चक्कर लगाते हैं किसी धुरी का; चाहे एक परमाणु हम तोड़ें, तो परमाणु इलेक्ट्रान और न्यूट्रान हैं, चक्कर लगाते हैं। जहां भी गति है, गति सर्कुलर है। और अब तक जगत में ऐसी कोई गति नहीं मिली है, जो लीनियर हो, जो रेखाबद्ध हो । समय की गति तो देखी नहीं जा सकती, समय | को पकड़ा नहीं जा सकता। अगर समय की गति पकड़कर हम नाप-जोख करते, तो तय हो जाता कि ईसाई जैसा सोचते हैं, वह सही है; या हिंदू जैसा सोचते हैं, वह सही है! लेकिन समय को तो पकड़ा नहीं जा सकता, समय को देखा नहीं जा सकता, फिर कैसे तय करें? तो हिंदू का चिंतन गहरा मालूम पड़ता है। वह कहता है, तुम मुझे कोई एकाध भी ऐसी गति बता दो, जो पकड़ी जा सकती हो, जो सीधी हो, रेखाबद्ध हो। जितनी गतियां मनुष्य को पता हैं, सभी वर्तुल हैं। तो हिंदू कहता है, फिर जो गति हमें दिखाई नहीं पड़ती, ज्यादा उचित है कि हम मानें, वह भी वर्तुल होगी। कोई कारण नहीं है उसके | रेखाबद्ध होने का। हिंदू मानता है कि गति मात्र वर्तुलाकार है। बच्चा है, यह वर्तुल का पहला बिंदु है। इसलिए अक्सर बूढ़े जो हैं, फिर बच्चों जैसे हो जाते हैं— जैसे। बच्चे नहीं हो जातें, बच्चों | जैसे हो जाते हैं - निरीह, असहाय – पुनः | एक वर्तुल पूरा हुआ। हिंदू कहता है कि बच्चे और बूढ़े के बीच सीधी रेखा नहीं है; | वर्तुलाकार है । इसलिए पैंतीस साल के करीब आदमी वर्तुल के शिखर पर होता है, फिर गिरना शुरू हो जाता है। फिर वापस आने लगा। कब्र में पहुंचते-पहुंचते वह वहीं पहुंच जाता है, जहां अपने घर के झूले में था - वापस । और अगर हम गौर से देखें, तो दिखाई पड़ेगा कि बूढ़ा धीरे-धीरे, धीरे - धीरे बच्चे जैसा निरीह होता चला | जाता है; बच्चे से भी ज्यादा निरीह । क्योंकि बच्चे पर तो कोई दया भी करता था। अब उस पर कोई दया करने वाला भी नहीं मिलता। क्योंकि लोग समझते हैं, वह बूढ़ा है, उस पर क्या दया करनी ! | इसलिए भारत ने जो खयाल दुनिया को दिया था कि बच्चे से भी ज्यादा चिंता वृद्ध की करना, उसके पीछे कारण था। उसके पीछे कारण था कि वृद्ध दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन वह बच्चे जैसा हो गया है। बच्चे को हम माफ कर देते हैं, अगर वह नाराज हो । बूढ़े को हम माफ नहीं कर पाते, अगर वह नाराज हो । लेकिन भारत की बहुत गहरी समझ थी, और वह यह थी कि बच्चे को तुम चाहे माफ मत भी करना, क्योंकि अभी बच्चे को कुछ पता भी नहीं है कि माफ किया जाता है कि नहीं किया जाता है, लेकिन बूढ़े को तो बिलकुल माफ कर देना । माफ ही मत कर देना, मान लेना कि वही ठीक है, तुम गलत हो । क्योंकि उसे भी खयाल है कि वह बूढ़ा है, लेकिन उसकी प्रकृति अब बिलकुल बच्चे जैसी 206 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगत एक परिवार है* हो गई है। वर्तुल पूरा हो गया है। वह बच्चे ही जैसी नासमझियां आप आज जो भी हैं, वह आपके समस्त कलों का जोड़ है। और करेगा. लेकिन समझदारी के खयाल के साथ करेगा। कल आप जो होंगे, उसमें आज और जुड़ जाएगा। आप जो बोलेंगे, इसलिए बूढ़ा कठिन हो जाता है। बच्चे जैसी ही नासमझियां | | जो सोचेंगे, जो होंगे, जो व्यवहार करेंगे, जो करेंगे और जो नहीं करेगा। बच्चे जैसी ही जिद्द बूढ़े आदमी में वापस लौट आती है। करेंगे, वह भी—वह आपके समस्त सार से निकलेगा। आपके पूरे वैसा ही हठधर्मीपन आ जाता है। और एक और खतरा साथ हो | | जीवन के कर्मों के सार से निकलेगा। एक अर्थ में यह सेल्फ गया होता है, क्योंकि उसे खयाल होता है कि वह बच्चा नहीं है। प्रपोगेटिंग, स्वचालित व्यवस्था है। इससे अन्यथा होने का कोई • तो बूढ़े निरंतर कहते हैं कि मैं कोई बच्चा नहीं हूं। उसे खयाल | | उपाय नहीं है। अगर हम इस सारी बात को, पूरे जगत को एक यह होता है कि वह बूढ़ा है; उसे सारे जीवन का अनुभव है। और | व्यक्ति मान लें, तो पूरे जगत में भी ऐसा ही घटित होगा। उसे पता नहीं कि प्रकृति उसे वापस वर्तुल की पूर्णता की स्थिति पर हे अर्जुन, उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश ले आई है। क्योंकि मृत्यु वहीं होती है, जहां जन्म होता है। वह बिंदु स्थित रहते हुए वे कर्म मुझे नहीं बांधते हैं। बिलकुल एक है। इसलिए वापस प्रकृति उसको ला रही है। मगर | यह अंतिम सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है। क्योंकि यह सवाल अनुभव, मन, स्मृति, उसे कहती है, वह सब जानता है; और | | उठ सकता है कि अगर व्यक्ति कर्म करता है, तो अपने कर्मों से व्यवहार वह ऐसा करता है, जैसे कुछ न जानता हो। बंध जाता है; और अगर परमात्मा भी जगत को रचता है, बनाता तो उसका व्यवहार उसके ही बच्चों को अखरने लगता है। उसके | है, मिटाता है, सम्हालता है, तो क्या ये कर्म उसे नहीं बांधते होंगे? बच्चों को लगता है कि काम तो ऐसे करते हो, जैसे कुछ न जानते | क्या ये कर्म उसका बंधन न बन जाते होंगे? क्या ये कर्म फिर उसके हो। और बातें ऐसी करते हो, जैसे सब जानते हो! इसलिए बच्चों | लिए भी कारागृह निर्माण न करते होंगे? अगर व्यक्ति बंध जाता को भी सहना मुश्किल हो जाता है। है, तो होगा वह महाव्यक्ति, लेकिन उसके महाकर्म भी तो उसे लेकिन भारत की समझ थी कि बूढ़े के साथ ऐसे ही व्यवहार | | बांधने वाले सिद्ध होंगे। करना जैसे वह बच्चा है। उसकी हठधर्मी सही है। वह गलत हो, | | इसलिए कृष्ण ने कहा है कि यह सब करता हूं, अनासक्त। इससे कोई चिंता मत करना। वह ठीक हो कि गलत हो, हमेशा उसे किस कर्म में व्यक्ति अनासक्त रह सकता है? सिर्फ व्यक्ति ठीक मान लेना। वह गलत भी करे, तो भी उसके चरणों में सिर रख | | खेल में अनासक्त रह सकता है, बाकी सभी कर्मों में आसक्त हो देना। वह वापस लौटता हुआ वर्तुल है। बच्चे से ज्यादा दयनीय है। | जाता है। सिर्फ खेल में अनासक्त रह सकता है। हम तो खेल में भी बच्चे में तो अभी शक्ति जगेगी। अभी तो बच्चा शक्ति का स्रोत | नहीं रह सकते हैं। क्योंकि हमारे लिए खेल भी कर्म बन जाता है। है। बूढ़ा तो चुक गया। उसकी शक्ति खो गई। इसलिए पूरब ने बूढ़े । अगर दो आदमियों को ताश खेलते देखें, तो उनके माथे पर ऐसी को जो आदर दिया है, उसके पीछे बड़ी सूझ है, खयाल है, कारण | | सिकुड़नें पड़ी होती हैं, जैसे जीवन-मरण का सवाल है। दो आदमियों है। सारी गतियां वहीं शुरू होती हैं, वहीं अंत होती हैं। | को शतरंज खेलते देखें, तो जैसे इसी खेल पर सब कुछ निर्भर है। कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें लीन हो जाता है और फिर मुझसे पुनः इस जगत का पूरा भविष्य, इनके इस खेल पर निर्भर है! यह जो रचा जाता है। यह रचना जगत के कर्मानुसार, भूतों के कर्मानुसार | शतरंज के सिपाहियों को यहां से वहां उठाकर रख रहे हैं, सारे प्राण घटित होती है। उनके खिंचे हैं! उनका ब्लड प्रेशर नापें, बढ़ जाएगा। उनकी छाती इस संबंध में भी पूर्वीय चिंतन अति वैज्ञानिक है। क्योंकि पूरब | | की धड़कन बढ़ जाएगी। उनका एक घोड़ा मरेगा, कि एक हाथी मानता है, अकारण कुछ भी घटित नहीं होता। जो भी होगा, वह | मरेगा, तो न मालूम कितनी पीड़ा और कितना क्या हो जाएगा! कारण से बंधा होगा। अगर इस पूरे जगत को हम एक व्यक्ति मान ___ इस शतरंज के खेल पर बैठा हुआ आदमी भी खेल में नहीं है। लें, तो इस पूरे जगत के एक कल्प का जो कर्म होगा, वही कर्म | | यह भी कर्म हो गया! और अगर हार जाएगा, तो रातभर सो नहीं इसके नए कल्प की शुरुआत होगी। यह विशाल है बात, और सकेगा। रातभर शतरंज चलती रहेगी। फिर रखता रहेगा, सोचता मस्तिष्क पकड़ नहीं पाएगा। लेकिन बूंद को भी समझ लें, तो सागर रहेगा। शतरंज के जो बड़े खिलाड़ी हैं, वे कहते हैं कि शतरंज में समझ में आ जाता है। वही जीत सकता है, जो पांचवीं चाल तक को पहले से सोच 207] Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 ले–पांचवीं चाल! अभी मैं यह चलूंगा, यह उत्तर आएगा; तब मैं | गिर जाता। किसी का पैर पड़ जाता, किसी का बना-बनाया महल यह चलूंगा, तब यह उत्तर आएगा। ऐसे पांच को जो पहले से सोच जमीन पर हो जाता। बच्चे लड़ते, गाली देते, एक-दूसरे को मारते। ले, वही शतरंज में कुशल हो सकता है। किसी ने किसी का घर गिरा दिया हो, तो झगड़ा तो सुनिश्चित है। निश्चित ही है, कुशल शतरंज में होगा कि नहीं होगा, एक बात सारे झगड़े ही घरों के हैं। किसी का धक्का लग गया, किसी का घर पक्की है, पागल हो जाएगा। | गिर गया। किसी ने बड़ी मुश्किल से तो आकाश तक पहुंचाने की तो मैंने सना है कि इजिप्त का एक सम्राट शतरंज खेलते-खेलते | कोशिश की थी; और किसी ने चोट मार दी, और सब जमीन पर पागल हो गया। बड़ा खिलाड़ी था। सब इलाज किए गए, वह ठीक | गिर गया! न हो सका। तो फिर मनसविदों ने कहा कि अब एक ही उपाय है तो बुद्ध खड़े होकर देखते रहे। बच्चे एक-दूसरे से लड़ते रहे। कि इससे भी बड़ा शतरंज का खिलाड़ी कोई मिले, तो शायद यह झगड़ा होता रहा। फिर सांझ होने लगी। फिर सूरज ढलने लगा। ठीक हो जाए। बहुत खोज की गई, आखिर एक आदमी मिल गया। | फिर किसी ने नदी के किनारे आकर जोर से आवाज लगाई कि उसने मना किया। बहुत प्रलोभन दिए गए, प्रलोभन में आकर वह तुम्हारी माताएं तुम्हारी घर राह देख रही हैं; अब घर जाओ! जैसे ही चला आया। क्योंकि पागल के साथ वह शतरंज खेलने को तैयार | बच्चों ने यह सुना, अपने ही बनाए हुए घरों पर कूद-फांद करके, नहीं होना चाहता था। ऐसे तो शतरंज का खेल ही पागल करने | उनको गिराकर, वे घर की तरफ चल पड़े। वाला है, फिर पागल खिलाड़ी भी सामने हो! तो वह खेलना नहीं बुद्ध खड़े थे, देखते रहे। उन्होंने कहा, जिस दिन हम अपने सारे चाहता था। लेकिन सम्राट का मामला था, बड़े प्रलोभन थे। लाखों | जीवन को रेत के खेल जैसा समझ लें, और जिस दिन खयाल हमें रुपए का कहा गया, आ गया। आ जाए कि अब यह खेल समाप्त हुआ, पुकार आ गई वहां से कहते हैं, सालभर यह खेल चला। सम्राट ठीक हो गया, लेकिन | असली घर की, अब उस तरफ चलें, तो उस दिन हम भी इनको वह जो खेलने आया था, वह पागल हो गया! वह गरीब आदमी | गिराकर इसी तरह चले जाएंगे। अभी लड़ रहे थे कि मेरे घर को था। फिर उससे बड़ा खिलाड़ी खोजना भी मुश्किल था। और उतना | गिरा दिया, अब खुद ही गिराकर भाग गए हैं! वह पुरस्कार भी नहीं दे सकता था। वह पागल ही मरा। | बच्चे जैसे रेत के घर बनाकर खेल खेल रहे हों, वैसे ही जब शतरंज भी आदमी खेलता है. तो भारी तनाव। और अगर तनाव कोई व्यक्ति जीवन को खेल बना ले, तो अनासक्त हो जाता है। न हो, दो आदमी ताश खेलते हों, तनाव ज्यादा न रहा हो, तो खीसे परमात्मा के लिए जीवन एक खेल है। से कुछ निकालकर दांव पर लगा लेते हैं। क्योंकि ये रुपए जो हैं, ध्यान रहे, इसलिए हमने जो शब्द प्रयोग किया है, वह है, ये तत्काल किसी भी खेल को काम में परिवर्तित कर देते हैं। तो लीला। उसका अर्थ है, प्ले। थोड़ा आदमी दांव लगा लेता है। थोड़ा ही सही, तो फिर खेल में पृथ्वी पर किसी दूसरे धर्म ने जगत के निर्माण को लीला नहीं रस आ जाता है। कहा है। ईसाई ईश्वर अति गंभीर है। इसलिए छः दिन में उसने इतना रस क्यों आ जाता है खेल में? खेल में रस ही नहीं है आपको, | कठिन काम किया कि सातवें दिन विश्राम किया। ईसाई ईश्वर की जब तक कि कर्म न बन जाए। जब तक आसक्ति न बने, तब तक धारणा है कि संडे जो है, वह विश्राम का दिन है। इसलिए हाली-डे रस नहीं है। रुपए के साथ जुड़ते ही आसक्ति जुड़ जाती है। रुपया है, इसलिए छुट्टी है। क्योंकि छः दिन में ईश्वर ने दुनिया बनाई, फिर सेतु का काम कर जाता है। अनासक्त कर्म तो एक ही हो सकता | वह इतना थक गया, इतना परेशान हो गया कि सातवें दिन उसने है, जैसे छोटे बच्चे खेलते हैं। विश्राम किया। वह सातवें दिन इसीलिए ईसाई अभी भी काम करना बुद्ध ने कहा है कि गुजरता था एक नदी के किनारे से। बच्चों को | पसंद नहीं करता। कि जब भगवान तक सातवें दिन काम नहीं रेत के घर बनाते देखा, रुककर खड़ा हो गया। इसलिए खड़ा हो | करता, तो हमें तो करना ही नहीं चाहिए! गया कि बच्चे भी रेत के घर बनाते हैं और बूढ़े भी। थोड़ा इनके | लेकिन ईसाई जो धारणा है ईश्वर की, वह बहुत सीरियस है, खेल को देख लूं। रेत के ही घर थे। हवा का झोंका आता, कोई घर गंभीर है। तभी तो थक गया। और ये कृष्ण कभी नहीं कहेंगे कि मैं खिसल जाता। किसी बच्चे का धक्का लग जाता, किसी का घर थकता हूं। ये कहते हैं, कल्पों के बाद फिर रचता हूं। फिर सब मुझ 208 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जगत एक परिवार है * में लीन हो जाते हैं, मैं फिर रचता हूं। ये फिर मुझ में लीन हो जाते हैं, परमात्मा के लिए लीला है। यह इतना सुंदर नहीं हो सकता, अगर मैं फिर रचता हूं-एड इनफिनिटम। इसका कोई हिसाब नहीं है। ये यह उसके लिए काम हो। सभी काम कुरूप हो जाते हैं। सभी काम थकते ही नहीं। इन्होंने कोई हाली-डे नहीं मनाया। इसका कुछ कारण कुरूप हो जाते हैं। होगा। ये बहुत गंभीर नहीं मालूम पड़ते, नहीं तो थक जाते। ___ एक नर्स एक बच्चे की सेवा करती है, तब वह काम होता है; हिंदू धारणा ईश्वर की, गंभीर धारणा नहीं है। बहुत प्रफुल्लित, | और एक मां जब अपने बच्चे को खिलाती है, तब वह खेल होता बहुत खेल जैसी धारणा है। इसलिए हमने जगत को लीला कहा है। | है, वह लीला होती है, काम नहीं होता। वह उसका आनंद है। लीला अनूठा शब्द है। दुनिया की किसी भाषा में इसका अनुवाद | इसलिए जब एक मां अपने बच्चे के साथ खेल रही होती है, तब नहीं किया जा सकता। क्योंकि अगर हम कहें प्ले, तो वह खेल का | | एक अनूठा सौंदर्य प्रकट होता है। और जब एक नर्स भी उस बच्चे अनुवाद है। लीला परमात्मा के खेल का नाम है। और दुनिया में | के साथ खेल रही होती है, तब एक कुरूपता प्रकट होती है। उस किसी धर्म ने चूंकि परमात्मा को कभी खेल के रूप में देखा नहीं, | | कुरूपता का कारण नर्स नहीं है, बच्चा नहीं है; उस कुरूपता का इसलिए लीला जैसा किसी भाषा में कोई शब्द नहीं है। लीला अनूठे | | कारण काम है। जिस जगह भी काम आ जाएगा, वहीं चित्त उदास रूप से भारतीय शब्द है। इसका कोई उपाय नहीं है। अगर हमें | | हो जाता है। और जहां खेल आ जाता है, वहीं चित्त नृत्य से भर करना भी हो कोशिश, तो उसको डिवाइन प्ले। लेकिन वह शब्द | जाता है। नहीं बनते। लेकिन अगर हम अपने महात्माओं की तरफ देखें, तो हमें शक लीला काफी है। उसमें ईश्वर को जोड़ना नहीं पड़ता। लीला होगा। इनको देखें अगर हम, तो हमें लगेगा, ये तो भारी उदास हैं! शब्द पर्याप्त है। उसका मतलब यह है कि यह सारा का सारा जो | | अगर इन्हीं महात्माओं की तरफ से परमात्मा की तरफ जाना हो, तो सृजन है, यह कोई गंभीर कृत्य नहीं है। यह एक आनंद की | | हमें मानना चाहिए, परमात्मा तो सतत रो ही रहा होगा! महात्मा ही अभिव्यक्ति है। यह सारा जो विकास है, यह कोई सिर-माथे पर | | अगर उसका दरवाजा हैं, तो ये महात्मा तो ऐसे मरे हुए बैठे हैं कि सलवटें पड़ी हों ईश्वर के, ऐसा नहीं है। यह एक नाचता हुआ, यह जीवन की कोई पुलक इनमें मालूम नहीं होती। ये तो अपने भीतर एक मौज से चलता हुआ प्रवाह है। यह भारी चिंता नहीं है; यह जैसे मरघट लिए हुए हैं, ताबूत हैं, कā हैं। मौज है। ___जीसस ने इस शब्द का उपयोग किया है। जीसस ने कहा है कि इसे थोड़ा खयाल में ले लें, क्योंकि यह बहुत उपयोग का है। ये धर्मगुरु! तुम सफेद ताबूत हो। तुम पुती-पुताई सफेद कब्रे हो। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने जीवन को भी लीला बना लेता. | तुममें जो स्वच्छता दिखाई पड़ रही है, वह केवल ऊपर की पुताई है. उसी दिन मक्त हो जाता है. उसी दिन वह ईश्वरीय हो जाता है.| है: भीतर तम सडी हई लाशें हो। . उसी दिन वह ईश्वर हो जाता है। ___ महात्मा का उदास होना जरूरी है। महात्मा हंसता हुआ मिले, जब तक आपका जीवन काम है, तब तक आप एक गुलाम हैं, तो भक्त चले जाएंगे। क्योंकि महात्मा में हम प्रफुल्लता देखने को अपनी ही चिंताओं के, अपनी ही गंभीरता के। अपनी ही गंभीरता | राजी नहीं हैं। हमने धर्म को एक गंभीर कृत्य बना लिया है। हमने के पत्थरों के नीचे दबे जा रहे हैं। ये पहाड़ जो आपके सिर पर हैं, धर्म को इतना गंभीर कृत्य बना लिया है कि उसमें ईश्वरीय तत्व तो आपकी ही गंभीरता के हैं। उतार दें इन पहाड़ों को। जीवन को एक विलीन ही हो जाएगा। खेल समझें, एक आनंद, तो फिर सिर पर कोई बोझ नहीं है। फिर | । इसलिए आज अगर कृष्ण जैसा आदमी हमारे बीच हो, तो आप आप जीवन से नाचते हुए गुजर सकते हैं। फिर आपके होंठ पर भी । यह मत सोचना कि आप कृष्ण के पैर छू सकोगे। आप नहीं छू बांसुरी हो सकती है। फिर आपके प्राण में भी गीत हो सकता है। | सकोगे। क्योंकि अगर यह कृष्ण चौरस्ते पर खड़े होकर चौपाटी पर और जिस दिन आपके प्राण में भी यह लीला का भाव उदय होगा, बांसुरी बजाता मिल जाए, तो आप पुलिस में खबर करोगे! आप उस दिन आप इस सत्र को समझ पाएंगे कि यह पूरा का पूरा जगत कहोगे, यह हमारा कृष्ण नहीं है। यह क्या बात है! कृष्ण और उस परमात्मा के लिए भी लीला है। | बांसुरी बजा रहे हैं? वह तो आप किताब में पढ़ लेते हो, तो टाल और ध्यान रहे, यह जगत इतना सुंदर इसीलिए है कि उस जाते हो। यू कैन टालरेट। अगर चौपाटी पर बजाएं, तो बहुत 209 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 मुश्किल हो जाएगी। कहा है कि बीच से जिन लोगों को उठना हो, वे कल से बीच में क्योंकि हम सबकी आदत मुर्दा महात्माओं को देखने की हो गई | | बिलकुल न बैठे। वे बाहर रहें। बीच से उठकर कल से कोई : है। जितना मरा हुआ आदमी हो, उतना बड़ा महात्मा मालूम होता | जाएगा, तो आप जो पास में बैठे हैं, उसको बिठालें, लीलापूर्वक! है। जीवन की जरा-सी पुलक दिखाई न पड़े। और क्षुद्रतम बातों को | | उससे कहें कि बैठ जा! पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर भी वह गंभीरता दे देता है। और कृष्ण जैसे व्यक्ति विराटतम बातों | | विदा हों। को भी गैर-गंभीर आनंद दे देते हैं। क्षुद्रतम बातों को! वह पूछेगा कि यह खाना कितनी देर का बना है? यह ब्राह्मण ने बनाया है कि नहीं बनाया? इसको किसी स्त्री ने तो नहीं छ दिया? यह महात्मा है! यह खाने तक को प्रफुल्लता से नहीं ले सकता। यह खाने में भी गणित रखता है! यह पूछता है कि घी कितने पहर का है ? इतने पहर से ज्यादा हो गया, तो फिर घी नहीं ले सकता! यह दूध गाय का है कि नहीं? यह जो बुद्धि है, यह जीवन को लीला नहीं बना सकती। यह जीवन को अति गंभीर बना देती है। अगर एक स्त्री बैठी हो, उठ जाए, तो यह महात्मा पूछेगा, स्त्री को उठे हुए इस जमीन से कितनी देर हुई? क्योंकि उसके हिसाब हैं, गणित हैं, कि स्त्री जब यहां से उठ जाए, तब इतनी देर तक भी उसका प्रभाव उस जमीन के टुकड़े पर रहता है। तो तब तक महात्मा वहां नहीं बैठेगा। अगर आप रुपया महात्मा को देंगे, तो वह अपने हाथ में नहीं लेगा; छोड़ भी नहीं सकता। वह एक शिष्य को साथ में रखेगा; उसको दिलवाएगा! क्योंकि रुपया लेना पाप है। लेकिन बिना रुपए लिए भी नहीं चल सकता, तो यह पाप दूसरे से करवाता रहेगा! .... ये जो गुरु-गंभीर लोग हैं, हिंदू धर्म के प्राण इन्होंने ले डाले। हिंदू धर्म जमीन पर अकेला हंसता हुआ धर्म था और जिसमें हंसने की प्रगाढ़ क्षमता थी। उदासी जिसका लक्ष्य न था, आनंद जिसका गंतव्य था। लेकिन मूल सूत्र खो जाते हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि हम वही करने लगते हैं, जो हम करना चाहते हैं। जीवन को लीला की दृष्टि से देखा जा सके, तो कृष्ण का यह सूत्र आपको स्पष्ट हो जाएगा कि कैसे कोई जीवन-शक्ति इतने विराट जाल को रचते हुए दूर खड़े रहकर देख सकती है, अनासक्त! इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह मुझे बांधता नहीं है। क्योंकि बांधती है आसक्ति, कर्म नहीं। और अगर कर्म अनासक्त हो, तो बंधन नहीं होता है। शेष हम कल बात करेंगे। लेकिन पांच मिनट रुकें। कोई उठे न! देखें पहले भी आपको 210 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 चौथा प्रवचन विराट की अभीप्सा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।। को तोड़ें, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं, लेकिन हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। १० ।। हाइड्रोजन और आक्सीजन को साथ रख दें, तो पानी नहीं बनता। अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम् । | यह बड़ी अजीब बात है! क्योंकि पानी को तोड़ने पर हाइड्रोजन और परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।। ११।। आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता, इसलिए स्वभावतः मोघाशा मोधकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। | हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से पानी बन जाना चाहिए। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ।। १२ ।।। लेकिन एक चीज खो रही है, एक मिसिंग लिंक है। हाइड्रोजन और हे अर्जुन, मुझ अधिष्ठाता की उपस्थिति मात्र से यह और आक्सीजन तब तक नहीं मिलते, जब तक बिजली मौजूद न मेरी प्रकृति अर्थात माया चराचर-सहित सर्व जगत को रचती | | हो। अगर विद्युत मौजूद हो, तो आक्सीजन और हाइड्रोजन मिल है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह जगत जाते हैं और पानी बन जाता है। बनता-बिखरता रहता है। और मजे की बात यह है कि बिजली मौजूदगी के अतिरिक्त और ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम | कुछ भी नहीं करती; वह पानी में सम्मिलित नहीं होती। अगर भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग, मनुष्य का शरीर धारण सम्मिलित होती, तो जब हम पानी को तोड़ते, तो बिजली भी मिलनी करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। जो कि वृथा चाहिए। लेकिन पानी को तोड़ने पर हाइड्रोजन और आक्सीजन ही आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों के | मिलते हैं। अगर बिजली मौजूद न हो, तो भी घटना नहीं घटती। और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात बिजली मौजूद हो, तो बिजली प्रवेश नहीं करती, लेकिन उसकी तामसी स्वभाव को ही धारण किए हुए है। मौजूदगी से ही घटना घट जाती है। जस्ट प्रेजेंस। मौजूदगी प्रविष्ट | हो जाती है; बिजली प्रविष्ट नहीं होती। इसे थोड़ा समझ लें। और मौजूदगी को तो तोड़कर पाया नहीं जा र स सूत्र में बहुत-सी बातें कही गई हैं महत्वपूर्ण, विचार सकता। जब हम पानी को तोड़ेंगे, तो बिजली मौजूद थी पानी बनते र के लिए भी, साधना के लिए भी, गहरी और ऊंची भी।। । वक्त, उसकी मौजूदगी को हम पानी से नहीं निकाल सकते हैं। । पहली बात। परमात्मा जगत का सृजन करता हो, | परमात्मा की मौजूदगी से जगत रचता है, कृष्ण यह कह रहे हैं। तो कैसे करता होगा? क्या वैसे ही, जैसे कुम्हार अपने चके पर वह यह कह रहे हैं कि मैं कैटेलिटिक एजेंट हूं। मैं बनाता नहीं, मेरा बर्तन रचता है? या वैसे, जैसे मूर्तिकार अपनी छेनी से पत्थर को होना ही सृजन का सूत्रपात है। काटता और मूर्ति को रचता है ? या वैसे, जैसे एक कवि शब्दों की | ।। यह बहुत गहरी बात है। और होना भी यही चाहिए। क्योंकि संयोजना करता और गीत को रचता है? परमात्मा का सृजन किस - परमात्मा को भी अगर घड़े की तरह निर्माण करना पड़े जगत को, विधि का है? तो कुम्हार से बड़ी उसकी हैसियत नहीं है फिर। अगर उसे भी कार्य इस सूत्र में एक बहुत गहरी बात कही गई है। और जो लोग में संलग्न होना पड़े, तो उसका मतलब यह हुआ कि जिस पर वह विज्ञान को थोड़ा समझते हैं, उन्हें समझनी बहुत आसान हो जाएगी। काम कर रहा है, उस पर उसकी पूरी मालकियत नहीं है। पूरी क्योंकि विज्ञान मानता है कि कुछ ऐसा सृजन भी है, जब करने | | मालकियत का मतलब यह होता है कि इशारा भी न करना पड़े और वाला कुछ भी नहीं करता, केवल उसकी मौजूदगी ही सृजन हो काम हो जाए। मौजूदगी काफी होनी चाहिए। जाती है। विज्ञान उसे कैटेलिटिक एजेंट कहता है। उसके बिना | | अगर पिता अपने घर वापस लौटे और बेटे की तरफ आंख से घटना नहीं घटती; उसकी मौजूदगी से ही घटना घट जाती है; वह | इशारा करना पड़े कि मेरे पैर छु; मैं तेरा पिता हूं, मेरा आदर कर; स्वयं कुछ करता नहीं। तो वह पिता नहीं रहा। उसकी मौजूदगी ही आदर बन जानी चाहिए। जैसे अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिलाएं, तो पानी वह मौजूद है, तो आदर घट जाना चाहिए। नहीं बनेगा; यद्यपि पानी को हम तोड़ें, तो हाइड्रोजन और एक शिक्षक अपने वर्ग में आए और डंडा ठोंककर टेबल पर आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है। अगर हम पानी विद्यार्थियों को शांत करे, तो उसका अर्थ यह हुआ कि वह शिक्षक 12121 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विराट की अभीप्सा . है ही नहीं। उसका कमरे में प्रवेश ही शांति हो जानी चाहिए। उसकी | हुआ था, उसे हम कभी भी न खोज पाएंगे। मौजूदगी काफी होनी चाहिए। . इसलिए जगत को हम कितना ही खोजें, हम परमात्मा को न खोज शिक्षक आते हैं, वे मुझे कहते हैं, गुरुओं का कोई सम्मान नहीं पाएंगे। इसलिए विज्ञान ठीक कहता है कि हम बहुत खोजते हैं, रहा। तो मैं उनसे पूछता हूं, जब भी कोई गुरु होता है, तो सम्मान | लेकिन परमात्मा मिलता नहीं। और जब तक न मिले, तब तक जरूर होता है। गुरु ही न रहे होंगे। अगर तुम कहते हो, गुरुओं का विज्ञान माने भी कैसे! उसकी बात भी ठीक है। क्योंकि हम हर चीज कोई सम्मान न रहा, तो मुझे शक होता है कि गुरु ही न रहे होंगे। को खोज लेते हैं, परमात्मा कहीं मिलता नहीं। और अगर यह उसका क्योंकि गुरु का मतलब ही यह होता है कि वह मौजूद है, तो सम्मान सृजन है, तो कहीं न कहीं उसकी सृष्टि में उसको मिलना ही चाहिए। की घटना घटती ही है, उसे घटाना नहीं पड़ता। उसके लिए लेकिन अगर कृष्ण का यह सूत्र याद रखा जाए, तो विज्ञान आयोजन नहीं करना पड़ता। गुरु की परिभाषा ही यह होनी चाहिए अधैर्य नहीं दिखाएगा। क्योंकि विज्ञान भलीभांति जानता है कि कि जिसकी मौजूदगी में आदर उत्पन्न हो। अगर गुरु को भी आदर कैटेलिटिक एजेंट भी होते हैं, और उनकी मौजूदगी से घटनाएं उत्पन्न करना पड़े, तो वह आदमी गुरु तो नहीं है, और कुछ भी घटती हैं। फिर घटी हुए घटना को तोड़ने से कैटेलिटिक एजेंट को होगा। क्योंकि जो उत्पन्न करना पड़े, वह कृत्रिम हो जाता है। | नहीं पाया जा सकता। कृष्ण कहते हैं, मेरी मौजूदगी में रचना का सिलसिला शुरू होता - तो क्रिएटर की तरह नहीं, स्रष्टा की तरह नहीं, उपस्थिति मात्र है। मैं बनाता भी नहीं; यह मेरा कृत्य नहीं है; यह मेरी उपस्थिति काम करती हो, ऐसे कैटेलिटिक एजेंट की तरह मैं इस जगत को मात्र, मेरे मौजूद होते ही जीवन चल पड़ता है। निर्मित करता हूं। सुबह सूरज निकलता है, फूल खिल जाते हैं। ऐसा सूरज । यदि यह ठीक है, तो विज्ञान उसी दिन परमात्मा को अनुभव कर एक-एक फल पर आकर फल को खिलाता नहीं है। बस, उसकी पाएगा, जिस दिन विज्ञान सजन की प्रक्रिया में मौजूद हो, सृष्टि से मौजूदगी! पक्षी गीत गाने लगते हैं। अब सूरज एक-एक पक्षी की उसे कभी खोजा नहीं जा सकता। गर्दन पकड़कर गीत गवाता नहीं है। बस, उसकी मौजूदगी! नींद टूट । ध्यान रखें, यह और थोड़ा गहरे जाने की जरूरत पड़ेगी। सृष्टि जाती है, आंखें खुल जाती हैं, जागरण फैल जाता है। सूरज किसी का अर्थ है, जो बन गई चीज। तो बन गई चीज से उसे कभी नहीं के द्वार पर आकर खटखटाता नहीं, कि उठो! बस, उसकी मौजूदगी। | खोजा जा सकता, क्योंकि उसकी उपस्थिति से बनी है। उसके हाथ लेकिन इससे भी गहरी बात है, कैटेलिटिक एजेंट। सूरज की तो | | की कोई छाप नहीं है उस पर। उसके हस्ताक्षर नहीं हैं। तो हम कितने किरणें आती हैं। नहीं दरवाजा खटखटाती होंगी, फिर भी किसी | | ही डिटेक्टिव्स लगाएं, और हम कितने ही जासूस लगाएं, कहीं सूक्ष्म तल पर दरवाजा खटखटाती हैं। और नहीं एक-एक कली को कोई छाप उसकी मिलती नहीं है। फूल खिलता है, उसकी कोई छाप सूरज पकड़कर खोलता है, फिर भी उसकी किरणें आकर एक-एक | | मिलती नहीं। पहाड़ बनते हैं, मिट जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती कली को सहलाती हैं। और नहीं पक्षियों की गर्दन दबाता है कि गीत | | नहीं। चांद-तारे जन्मते हैं, खो जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती गाओ, फिर भी उसकी किरणें कोई गहरा संस्पर्श देती हैं और पक्षी | नहीं। जो चीज बन गई है, उसमें उसकी छाप नहीं मिलेगी। के कंठ से गीत फूट पड़ता है। नहीं, आपको झकझोरता नहीं है कि इसलिए विज्ञान असमर्थ मालूम पड़ता है। वह करीब-करीब से उठो! लेकिन फिर भी किसी गहरे रासायनिक तल पर उसकी | | गुजर जाता है और परमात्मा की कोई झलक नहीं मिलती। और जब किरणों की मौजूदगी हवा में आक्सीजन को बढ़ा देती है; और | तक स्पष्ट प्रमाण न मिलें, तब तक विज्ञान की अपनी मजबूरी है, आक्सीजन का बढ़ जाना आपके भीतर एक झकझोर ले आता है | वह स्वीकार नहीं कर सकता। और आपको उठ जाना पड़ता है। परमात्मा की झलक किसको मिलती है? परमात्मा की झलक कैटेलिटिक एजेंट और भी सूक्ष्म बात है। इतना भी नहीं करता। उसको मिलती है, जो सृष्टि में खोजने नहीं जाता, बल्कि सृजन की बस, सिर्फ मौजूद होता है। एंड दि प्रेजेंस वर्क्स; सिर्फ मौजूदगी ही प्रक्रिया में मौजूद होता है। काम करती है; कोई रासायनिक प्रवेश नहीं होता। इसलिए हम । इसलिए बहुत मजे की बात है कि कभी किसी कवि को झलक पीछे, जो निर्माण हुआ है, अगर उसे तोड़ें, तो जिसकी मौजूदगी में मिल जाती है उसकी; वैज्ञानिक को नहीं मिल पाती। कभी किसी 1213/ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* मूर्तिकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। कभी किसी नृत्यकार जैसे कभी-कभी आपको भय लगता है; लगता है, कोई मौजूद को भी उसकी झलक मिल जाती है। ध्यानी को सदा उसकी झलक | है और दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही मलिक भी घबड़ा गए। मिलती रही है। ये सारे के सारे लोग सृजन की प्रक्रिया में मौजूद | घबड़ाहट दोहरी थी। एक तो यह थी कि मैं अपराध कर रहा हूं; मुझे होते हैं। यहां रुकना नहीं चाहिए। और दूसरी घबड़ाहट यह थी कि चारों इसे हम ऐसा समझें। रवींद्रनाथ को जब भी कोई गीत जन्मता, | तरफ कोई मौजूद हो गया था। वह जगह खाली न रही थी। तो वे खाना-पीना बंद कर देते थे—बंद हो जाता था। खा-पी नहीं | घड़ी दो घड़ी, फिर मलिक के पैर बंध गए। अब वे भागना भी सकते थे। द्वार-दरवाजे बंद कर लेते थे। मिलना-जुलना बंद कर चाहते हैं, वहां से हट भी जाना चाहते हैं, लेकिन अब हट भी नहीं देते थे-बंद हो जाता था। मिल नहीं सकते थे। होंठ बंध जाते थे। सकते; किसी चीज ने जैसे कि जमीन से कशिश बांध ली। आंखें बोलने की असमर्थता हो जाती थी। द्वार-दरवाजे बंद करके, ।। झपकाना चाहते हैं, झपकती नहीं हैं। श्वास जैसे ठहर गई हो। वहां भूखे...। वे सो नहीं सकते थे। जब भी कोई गीत उनमें जन्म लेता कोई विराट जैसे उतर आया चारों तरफ। सारा स्थान किसी की था, तो जब तक वह पूरा जन्म न ले ले, तब तक वे और कुछ भी उपस्थिति से भर गया। रवींद्रनाथ डोल रहे हैं, जैसे कोई वृक्ष नहीं कर सकते थे। मनाही थी कि जब रवींद्रनाथ अपने कमरे में बंद हवाओं में डोलता हो। कि रवींद्रनाथ नाच रहे हैं, जैसे कोई मोर होकर कुछ लिखते हों, तो कोई आस-पास न आए। | आषाढ़ में नाचता हो। कि रवींद्रनाथ के भीतर कुछ हो रहा है, जैसे कभी ऐसा भी हो जाता था—क्योंकि सृजन के क्षणों के लिए किसी मां के गर्भ से बच्चे का जन्म हो रहा हो। कोई प्रेडिक्शन, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती-रवींद्रनाथ बैठे | रात गहरी होने लगी, और रवींद्रनाथ वैसी ही अवस्था में हैं। फिर हैं, मित्र पास बैठे हैं, या शिष्य पास बैठे हैं, और अचानक उनकी | वे स्वस्थ हुए, वापस हुए। और जैसे ही वे स्वस्थ और वापस हुए, आंखें बंद हो गईं, और गीत का जन्म शुरू हो गया। तो लोगों को मलिक के पैर जमीन से जैसे छूट गए, वे भागे। बाद में उन्होंने खबर थी कि चुपचाप हट जाना है। वहां फिर जरा भी बाधा नहीं | रवींद्रनाथ से जाकर दूसरे दिन पूछा कि अपराध मेरा क्षमा हो। रात डालनी है। इतना भी नहीं कहना है कि अब मैं जाऊं! क्योंकि इतना | | मैं चोरी छिपे खड़ा रह गया था। ऐसा लगा कि आप तो मिट गए, भी उस भीतर हो रही रचना की प्रक्रिया में बाधा बन जाएगी। कोई और मौजूद हो गया था! गुरदयाल मलिक ने लिखा है कि मैं नया-नया गया था। नियम रवींद्रनाथ ने कहा कि मैंने अब तक स्वयं कुछ भी नहीं लिखा तो मुझे पता था, लेकिन मन में एक अभिलाषा भी थी कि जब सच | है। जब मैं मिट जाता हूं, तभी कोई मुझसे लिखवा जाता है। जब में ही गीत जन्मता है, तब मैं भी छिपकर देख लूं कि रवींद्रनाथ को | मैं नहीं होता हूं, तभी कोई मुझसे गा जाता है। और मैं लाख कोशिश होता क्या है! करूं, कितने ही सुंदर शब्दों को जमाऊं, तुकबंदी तो बन जाती है, पांच-सात मित्र बैठकर गपशप करते थे और रवींद्रनाथ अपने | लेकिन काव्य का जन्म नहीं होता। काव्य का जन्म तो तभी होता है, हाथ से चाय बनाकर उनको पिला रहे थे। अचानक उनके हाथ से | जब मैं मिट जाता हूं, जड़-मूल से खो जाता हूं। प्याली छूट गई। सब लोग चुपचाप वहां से अधूरी चाय पीए उठ अगर रवींद्रनाथ को इस काव्य के जन्म के क्षण में ही ईश्वर का गए। लोगों ने मलिक को भी इशारा किया। मन तो नहीं था उठने अहसास हो, तो हो सकता है। क्योंकि जब भी जगत में कोई चीज का, लोग नहीं माने तो उन्हें भी उठ जाना पड़ा। सृजित होती है, कहना चाहिए, इन दि मोमेंट आफ क्रिएशन; नाट लोग तो चले गए, मलिक बाहर दीवाल के पास छिपकर बैठ | व्हेन इट हैज बीन क्रिएटेड; पैदा हो गई तब नहीं, सृजित हो गई तब गए। रवींद्रनाथ की आंखों से आंसू बहने लगे, और उनके शरीर में | नहीं, जब सृजन हो रही होती है; इन दि वेरी प्रोसेस, प्रक्रिया में होती एक पुलकन और एक सिहरन का दौर शुरू हो गया। जैसे | है; जब जन्म हो नहीं गया होता, जन्म हो रहा होता है, तब रोआं-रोआं किसी अज्ञात ऊर्जा से भर गया हो, और जैसे रोएं-रोएं। कभी-कभी उसकी झलक मिल जाती है। क्योंकि उसकी मौजूदगी में कोई सूक्ष्म स्पंदन प्रवेश कर रहे हों। कोई अनूठी शक्ति ने सारे के बिना किसी भी चीज का जन्म नहीं होता है। उसकी मौजूदगी के कमरे को घेर लिया है, ऐसा मलिक को भी अनुभव होने लगा। बिना, उस कैटेलिटिक के मौजूद हुए बिना, एक कविता भी जन्मती कोई मौजूदगी! नहीं है। 214 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विराट की अभीप्सा कभी-कभी सर्जकों को उसकी प्रतीति होती है, उसका कारण | इसलिए मातृत्व एक गहरी धार्मिकता है। इसलिए जिस दिन यह है। और जिस कवि को कवि के अंतरतम में सृजन का यह | स्त्री मां नहीं होना चाहेगी, उस दिन स्त्री का धार्मिक होना असंभव अनुभव न हुआ हो, वह तुकबंद है, कवि नहीं है। उसने शब्दों को | | हो जाएगा। जोड़ना सीख लिया है। उसकी कविता कंस्ट्रक्शन है, क्रिएशन | | मैंने कहा कि स्त्री को यह सुलभ है कि उसके भीतर सृजन की नहीं। कंपोजीशन है, क्रिएशन नहीं। उसने जोड़-तोड़ बना ली है। प्रक्रिया घटती है। जैसे इस पूरे जगत के गर्भ में किसी दिन सारे वह भाषा जानता है, वह भाषा का खेल जानता है। वह नियम | | चांद-तारे पैदा हुए, एक बहुत छोटे-से रूप में स्त्री के भीतर जीवन जानता है। वह शब्दों को बिठा लेता है। लेकिन उसने कभी काव्य पुनः निर्मित होता है; बार-बार निर्मित होता है। का जन्म नहीं देखा है। ___ यह उसका गौरव भी है, यह उसकी दुविधा भी है। क्योंकि इसी ___ इसलिए हम अपने मुल्क में कवियों की दो कोटियां करते रहे हैं। कारण स्त्री कुछ और सृजन नहीं कर पाती। स्त्री कोई अच्छे गीत एक कोटि कवियों की वह थी, जो शब्दों को निर्माण कर लेते थे, | | नहीं निर्मित कर पाई। उसने कोई अच्छी मूर्तियां नहीं बनाईं। स्त्री के जमा लेते थे, उनको हम कवि कहते थे। एक वे भी कवि थे, जिनके | | नाम पर कोई बड़ी कला नहीं है। स्त्री किसी धर्म को जन्म नहीं दे भीतर कविता का जन्म होता था, उनको हम ऋषि कहते थे। ऋषि का । | पाई। स्त्री ने कोई भी ऐसा अनूठा काम किया हो सृजन का? वह अर्थ कवि है। लेकिन फर्क थोड़ा-सा है। ऋषि हम उसे कहते हैं, जो | | नहीं किया। उसका कुल कारण इतना है कि उसके भीतर सृजन की मिट गया और जिसने जन्म होते अपने भीतर किसी चीज को देखा। | इतनी बड़ी घटना घटती है कि उसे बाहर सृजन का खयाल नहीं कभी, सजन के किसी क्षण में उसकी झलक मिल सकती है, आता है। यह दुर्भाग्य भी है। अगर भीतर की सूजन की घटना में क्योंकि हर सृजन में वह मौजूद होता है। कभी आपने खयाल किया ईश्वर का अनुभव न हो पाए और बाहर सृजन की क्षमता टूट जाए, हो, जब कोई स्त्री पहली दफा गर्भवती होती है, तो उसके सौंदर्य में तो यह दुर्भाग्य भी है। शरीर के पार की कोई चीज उतरनी शुरू हो जाती है। असल में मां पुरुष ने बहुत कुछ सृजन किया है। मनसविद कहते हैं, पुरुष बने बिना स्त्री सौंदर्य के पूरे निखार को कभी उपलब्ध नहीं होती है। कमी अनुभव करता है भीतर, इसलिए बाहर से पूर्ति करता है सृजन जब उसके भीतर कोई जन्म हो रहा होता है, कोई सजन हो रहा होता | | करके। इसलिए जब एक माइकलएंजलो एक चित्र निर्मित कर लेता है, तब उसके आस-पास परमात्मा की छबि और मौजूदगी है, जब एक मोजार्ट एक गीत की तरंग, एक संगीत की लय तय अनिवार्य है। | कर लेता है, या तानसेन जब एक राग को जन्म दे देता है, या जब ___ अगर स्त्रियां इस सत्य को जान लें कि जब उनके भीतर कुछ एक महावीर एक जीवन के नए आयाम को पैदा कर देते हैं, या जब निर्मित हो रहा है, तब वे परमात्मा के अति निकट होती हैं, अगर एक बुद्ध एक नया द्वार खोल देते हैं, तब इन्हें जो प्रतीति और जो वे क्षण उनके ध्यानपूर्ण हो जाएं, तो एक स्त्री को अलग से साधना | तृप्ति होती है, वह प्रतीति और तृप्ति सृजन की है। करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका मां होना ही उसकी साधना ध्यान रहे, जहां भी सृजन की क्षमता है, वहां परमात्मा का हो जा सकती है। अनुभव आसान है। इसलिए नान-क्रिएटिव, असृजनात्मक लोग पुरुष इस लिहाज से वंचित है, स्त्री इस लिहाज से बहुत गरिमा | | परमात्मा को कभी अनुभव नहीं कर पाते। युक्त है। क्योंकि पुरुष के भीतर कुछ भी निर्माण नहीं होता, सृजन लेकिन बड़ी हैरानी की बात है। अनेक लोग हैं, जो परमात्मा की नहीं होता, स्त्री के भीतर कुछ सृजन होता है। स्त्री के भीतर सृजन | | खोज में जाते हैं और बिलकुल गैर-सृजनात्मक हो जाते हैं। हमारे की प्रक्रिया गजरती है। और छोटा-मोटा सजन नहीं होता। एक | मुल्क में तो बहुत लोग हैं। हमारे मुल्क में तो कुछ ऐसा है कि जो फूल जब खिलता है पौधे पर, तो सारा पौधा सुंदर हो जाता है। | व्यक्ति परमात्मा की खोज में जाता है, उसका सृजन से कोई संबंध क्यों? क्योंकि फूल का सृजन हुआ। लेकिन जब जीवन का ही नहीं रह जाता। श्रेष्ठतम फूल, मनुष्य, किसी स्त्री के भीतर निर्मित होता है, तो | और ध्यान रहे, सृजन निकटतम है, जहां से उसकी प्रतीति हो स्वभावतः उसका सारा व्यक्तित्व एक अनोखे सौंदर्य से भर जाता | | सकती है। इसलिए अगर एक साधु सृजन छोड़कर और मुर्दे की है। उस क्षण परमात्मा बहुत निकट है। भांति जीने लगता है, तो उसे परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाएगा, 215 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 कठिन हो जाएगा। क्योंकि सृजन की घड़ी में परमात्मा की मौजूदगी उसके बिना सृजन नहीं हो सकता। अनिवार्य है। उसकी मौजूदगी के बिना कहीं भी सृजन नहीं होता। तो कृष्ण कहते हैं, मैं मौजूद, मेरी मौजूदगी काफी है। हे अर्जुन! वह कैटेलिटिक एजेंट है। जहां भी कुछ पैदा होगा, वह सदा मौजूद | मेरी उपस्थिति मात्र से प्रकृति सर्व जगत को रच लेती है। और इस होता है। उसके बिना पैदा ही नहीं होता। और जहां भी विध्वंस ऊपर कहे गए कारण से ही जगत बनता और बिखरता रहता है। मैं होगा, वहां वह सर्वाधिक दूर होता है। कुछ करता नहीं हूं। मुझे कुछ करना नहीं पड़ता है। मुझे हिलना भी ध्यान रहे, जितना सृजनात्मक क्षण हो, उसकी निकटता होती है। नहीं पड़ता है। मुझे वासना भी नहीं करनी पड़ती है। मुझे इच्छा भी जितने विध्वंस का क्षण हो, उससे उतनी ही ज्यादा दूरी हो जाती है। | नहीं करनी पड़ती है। बस, मेरा होना ही सृजन है। इसलिए महावीर ने अगर हिंसा को अधर्म कहा है, तो उसका | __ अगर हम इसे ऐसा कहें, तो बहुत आसान हो जाएगा। हम सदा कारण है। उसका कुल कारण इतना है कि जब भी हम विध्वंस कर कहते रहे हैं, गॉड इज़ दि क्रिएटर, ईश्वर स्रष्टा है। बेहतर हो, हम रहे होते हैं, तब हम परमात्मा से सर्वाधिक दूरी के बिंदु पर होते हैं। | कहें, गॉड इज़ दि क्रिएटिविटी, ईश्वर सृजन की प्रक्रिया है; ईश्वर अगर इसे इस भांति समझेंगे, तो अहिंसा का नया अर्थ खयाल में सृजनात्मकता है। व्यक्ति कम, प्रक्रिया ज्यादा। व्यक्ति कम, प्रवाह आएगा। इसे ऐसा समझें, हिंसा का अर्थ है विध्वंस; अहिंसा का ज्यादा। क्योंकि व्यक्ति तो रुका हुआ हो जाता है, प्रवाह सतत अर्थ है सृजन। गतिमान है। और व्यक्ति की तो सीमा हो जाती है, प्रवाह की कोई लेकिन नासमझ लोगों का कोई हिसाब रखना मुश्किल है। सीमा नहीं है। नासमझ लोगों ने अहिंसा का अर्थ लिया है कि हिंसा मत करो, तो परमात्मा एक सृजन का प्रवाह है। और जहां उसकी मौजूदगी अपने को रोककर बैठ जाओ। उनकी अहिंसा सजनात्मक या है, वहीं अनंत-अनंत रूपों में सजन प्रकट होने लगता है। जीवन क्रिएटिव नहीं है; मुर्दा, मरी-मराई है। हिंसा विध्वंस है, तो अहिंसा | | का खेल उसकी मौजूदगी का आनंद है। उसके मौजूद होते ही जीवन को सृजन होना चाहिए। तो ही अहिंसा उसके विपरीत होगी। उत्सव से भर जाता है। उसके मौजूद होते ही राग-रंग; उसके मौजूद अगर मैं चींटियां न मरें, ऐसा सम्हल-सम्हलकर निकल जाऊं; | | होते ही फूल खिल उठते हैं और गीत का जन्म हो जाता है। मैं फूल न तोडूं, क्योंकि हिंसा हो जाएगी; मैं किसी को चोट न जहां भी कुछ जन्म रहा हो, वहां मौन होकर बैठ जाना; • पहुंचाऊं कि हिंसा हो जाएगी; मैं चलना-फिरना, सब गति रोक हूँ, | परमात्मा निकट है। एक कली फूल बन रही हो, तो भागे हुए मंदिर क्योंकि हिंसा हो जाएगी; मैं अपने मुंह पर पट्टियां बांध लूं कि कहीं | मत चले जाना! श्वास में कोई जीव-जंतु न मर जाए; मैं पानी छानकर पी लूं कि कहीं मगर पागलों का जगत है। फूल जन्म रहा है, वहां वे खड़े भी न कोई हिंसा न हो जाए; मैं रात का भोजन बंद कर दूं-यह सब ठीक | होंगे! बल्कि उस कली को तोड़कर भागेंगे मंदिर की तरफ, है। लेकिन यह बिलकुल गैर-सृजनात्मक है, नान-क्रिएटिव है। परमात्मा को चढ़ा देने के लिए! इतना काफी नहीं है कि चींटी न मरे; अपर्याप्त है। जरूरी है कि अच्छा होता कि वहीं बैठ जाते, जब कली फूल बन रही थी। मेरे द्वारा जीवन को जन्म मिले। इतना काफी नहीं है कि कोई मुझसे | वहां परमात्मा ज्यादा संभव था, बजाय उस मंदिर के, जहां आप मरे न; इतना जरूरी है कि मेरे द्वारा जीवन को गति मिले, जीवन फूल को तोड़कर ले आए हैं। पता ही नहीं। बढ़े और फैले। इतना काफी नहीं है कि मैं फूल न तोडूं; यह जरूरी जहां भी कोई चीज पैदा हो रही हो-सुबह का सूरज जन्म ले है कि मैं फूल लगाऊं, फूल मेरे द्वारा खिले। रहा हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो; सुबह आ रही हो; जब तक अहिंसा सृजनात्मक न हो, तब तक नपुंसक होती है। भोर पैदा हो रही हो; या सांझ का पहला तारा उग रहा हो-वहां और इस मुल्क की अहिंसा नपुंसक हो गई है, इंपोटेंट हो गई है। रुक जाना! पवित्र मंदिर बहुत करीब है; वहीं है; वहां ठहर जाना! क्योंकि उसका अर्थ हो गया है, यह मत करो, यह मत करो, यह वहां शांत, उस सृजन के साथ एक हो जाना! तो उसकी उपस्थिति मत करो! डोंट उसका स्वर हो गया है। तो इससे इतना तो हुआ कि अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी। विध्वंस मत करो, लेकिन क्या करो, उसका कोई स्वर नहीं है। | इसलिए यह हमारी सदी परमात्मा से दूर हो गई मालूम पड़ती है, परमात्मा की गहनतम प्रतीति सृजन के क्षण में होती है, क्योंकि उसका कारण यह है कि हम आदमी की बनाई हुई चीजों से इस बुरी |216 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट की अभीप्सा तरह घिर गए हैं कि सृजन का कोई सवाल ही नहीं है ! क्योंकि आदमी की बनाई हुई चीजों में ग्रोथ तो होती नहीं। आप एक मकान बनाते हैं, वह बढ़ता तो है नहीं। आप एक कार ले लेते हैं, वह बढ़ती तो है नहीं । आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज में ग्रोथ तो होती नहीं, विकास तो होता नहीं, जन्म तो होता नहीं। आदमी की तो सब बनाई हुई चीजें मुर्दा हैं; उनमें जीवन की कोई धारा तो है नहीं। तो बड़े मकान हैं सीमेंट-कांक्रीट के, वे आकाश को छू रहे हैं। उनके पास आदमी कितनी ही देर खड़ा रहे, परमात्मा की प्रतीति नहीं हो पाएगी, क्योंकि वहां कुछ भी तो जन्म नहीं हो रहा है। सीमेंट-कांक्रीट, जैसे मृत्यु का साकार रूप ! जैसे मुर्दा होने का इससे ज्यादा और कोई अच्छा ढंग नहीं हो सकता ! आदमी जितना आदमी की बनाई चीजों से घिर जाता है, उतना ही उसे जन्म के क्षण में खड़ा होना मुश्किल हो जाता है, उतना ही वह सृजन के करीब नहीं रह जाता। अभी लंदन में सर्वे हुआ, तो दस लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। पांच लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है। अगर ये बच्चे बड़े होकर पूछें कि परमात्मा कहां है? तो कोई कठिनाई है ? जिन्होंने गाय नहीं देखी, जिन्होंने खेत नहीं देखा, अगर ये कहें कि परमात्मा कहां है? तो इनके प्रश्न में कोई आपको बुराई मालूम पड़ती है? इनका प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है; क्योंकि जीवन को इन्होंने कहीं भी बढ़ते हुए नहीं देखा। चीजों दुनिया देखी है, सृजन की दुनिया नहीं देखी। तो फिर स्वाभाविक है, अगर ये कविता भी लिखेंगे, तो उसमें रेल का इंजन आएगा, आकाश के तारे नहीं आएंगे। ये कविता लिखेंगे, तो उसमें भी मिल की चिमनियां आएंगी, खिलते हुए फूल नहीं आएंगे। अगर ये चित्र भी बनाएंगे - जैसा कि पिछले पचास साल की पूरी चित्रकला कहेगी - अगर ये चित्र भी बनाएंगे, तो उन चित्रों में भी अखबार की कटिंग काट-काटकर चिपका देंगे, कोलाज कहेंगे ! उसमें भी आदमी की जो-जो विकृतियां हैं, वे उभरकर सामने आएंगी। पिकासो के चित्रों को अगर देखा जाए, तो वे हमारे मन की पूरी कथा हैं। लेकिन उनमें फूल खिलते मालूम नहीं पड़ेंगे; उनमें कोई चीज बढ़ती हुई मालूम नहीं पड़ेगी; उनमें किसी का जन्म होता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक अस्वाभाविक वस्तुओं के जगत में घिरकर जी रहे हैं, जहां कोई चीज पैदा नहीं होती; हर चीज बनाई जाती है। जहां किसी चीज का जन्म नहीं होता, जहां हर चीज सिर्फ जोड़ी जाती है। आदमी को प्रभु को खोजना हो, तो सृजन के निकट ही उसे खोज सकता है। ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग, मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। मूढ़ एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ मूर्ख नहीं होता, यह पहले समझ लें । मूढ़, मूर्ख से भी खतरनाक अवस्था है। मूर्ख का मतलब होता है, जिसे पता नहीं है; मूढ़ का मतलब होता है, जिसे पता नहीं है, लेकिन जो सोचता है कि उसे पता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। मूर्ख वह है, जिसे पता नहीं है। उसे क्षमा किया जा सकता है। उसे पता ही नहीं है। अज्ञानी है। लेकिन यह अज्ञान सिर्फ अभाव है। इसमें उसे कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। पता नहीं है। एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। मूढ़ होने के लिए जरा ज्यादा उम्र होना जरूरी है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। वह सुविधा बूढ़ों के लिए ही है, मूढ़ होने की। तो जितनी ज्यादा उम्र हो, उतना आदमी ज्यादा मूढ़ सकता है। क्योंकि उसे पता | बिलकुल नहीं है, लेकिन ऐसा पता लगने लगता है जीवनभर के अनुभव से कि मुझे पता है। ईश्वर को जो इनकार करने वाले लोग हैं, वे अज्ञानीजन नहीं हैं। वे वे लोग हैं, जिन्हें खयाल है कि वे ज्ञानी हैं। स्वयं को ज्ञानी मानने का जिन्हें खयाल है, वे मूढ़ हो सकते हैं। मूढ़ का मतलब है, अज्ञान अकेला नहीं, धन अहंकार भी । अज्ञान + अहंकार, तो मूढ़ता पैदा होती है। मूढ़ता का मतलब है कि मैं जानता हूं; और मुझे कुछ भी भीतर पता नहीं है। लेकिन मेरा अहंकार कैसे स्वीकार करे कि मैं नहीं जानता हूं! 217 आप अपनी तरफ सोचें, तो आपको पता चलेगा, मूर्खता बड़ी बीमारी नहीं है, मूढ़ता बड़ी बीमारी है। कितने सवाल हैं, जिनके जवाब आप देते हैं, बिना जाने हुए ! अगर छोटा बच्चा अपने बाप से पूछता है कि ईश्वर है ? बाप को बिलकुल पता नहीं है। लेकिन वह या तो कहता है, है; या कहता है, नहीं है। कोई भी जवाब दे, लेकिन एक जवाब कभी नहीं देता कि मुझे पता नहीं है। यह मूढ़ता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 लेकिन एक छोटे बच्चे के सामने बाप कैसे यह माने कि मैं नहीं जानता हूं! पर उसे पता नहीं है, यह बच्चा कितने दिन छोटा रहेगा? थोड़े दिन में इसे पता चल जाएगा कि यह बाप झूठ बोलता रहा है। इसलिए अगर हर बेटा उम्र पाने के बाद बाप का आदर छोड़ देता है, तो उसका कुल कारण इतना है, बाप के द्वारा की गई बेईमानियां, जो बचपन में बच्चे के साथ की गई हैं। क्योंकि उस वक्त तो बाप बड़ा मजा लिया ज्ञानी होने का। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह पाता है, यह बाप भी उतना ही अज्ञानी है जितना मैं ! इसको भी कुछ पता नहीं है। इसने नाहक ही झूठी शान और झूठा अहंकार मेरे ऊपर थोपा। तो आदर खो जाएगा। सिर्फ वही बाप अपने बेटे का आदर पाने में समर्थ हो सकता है, जो ईमानदार है। ईमानदार का अर्थ है, जो मूढ़ नहीं है; जो मूढ़ता नहीं करता। क्या जरूरत है! जो हमें पता नहीं है, कह दें कि पता नहीं है। जो हमें पता है, कह दें कि पता है। इसमें जो आदमी डांवाडोल होता है, वह मूढ़ है। कृष्ण कहते हैं, ऐसा होने पर भी — कि परमात्मा की मौजूदगी ही सारे जीवन की सृजनात्मकता है, कि उससे ही सारा जीवन गतिमान है, कि उससे ही सारा जीवन परिपूर्ण है, कि वही है जीवन का मूल, कि वही उसकी आत्मा है - ऐसा होने पर भी, मूढ़ लोग चारों तरफ यह सब देखकर भी, इस चारों तरफ जीवन को अनुभव करके भी, अपनी मूढ़ता नहीं छोड़ते मालूम पड़ते हैं। जब भी कोई व्यक्ति ईश्वर के संबंध में बिना जाने वक्तव्य देता है, तब वह अपने ही साथ नहीं, औरों के साथ भी अपराध कर रहा है। लेकिन हम क्षुद्र बातों के संबंध में कहीं ज्यादा सही वक्तव्य देते हैं। जितनी विराटतर होती है बात, उतने ही हमारे वक्तव्य झूठे होते चले जाते हैं। जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, वे उनको समझाए चले जाते हैं, जो उनसे पूछने चले आए हैं। एक महिला मेरे पास आती थीं। महत्वाकांक्षी हैं। अधिक लोग हैं। और जब पुरुष महत्वाकांक्षी होते हैं, तो उतना अस्वाभाविक उपद्रव नहीं होता। जब स्त्रियां महत्वाकांक्षी होती हैं, तो भारी उपद्रव होता है। क्योंकि स्त्री स्वभावतः महत्वाकांक्षी नहीं है। इसलिए जब कोई महत्वाकांक्षी स्त्री होती है, तो फिर पुरुष उससे जीत नहीं सकते। क्योंकि वह पागल की तरह होती है। फिर उसके सामने टिकना बहुत मुश्किल है। आती थीं देवी। बहुत महत्वाकांक्षी हैं। गुरु बनने की महत्वाकांक्षा है। तो मुझसे आकर निरंतर वह एक ही बात पूछती थीं। यह नहीं पूछती थीं, मैं क्या करूं? वह मुझसे पूछती थीं, मैं दूसरों को क्या करवाऊं ? यह नहीं पूछती थीं कि मेरे मन को शांति | कैसे मिले? वह मुझसे पूछती थीं, दूसरे लोग बहुत अशांत हैं, उनको शांति कैसे दी जाए? यह नहीं पूछती थीं कि उन्हें कुछ समझना है। वह यही पूछती थीं कि दूसरों को समझाना है, तो कैसे समझाया जाए ? ऊपर से देखने पर लगेगा, बड़ी सेवा की भावना है। मैं उनको कहा भी कि पहले समझो; दूसरों को समझाना महत्वपूर्ण नहीं है। | तुम्हें समझ आ जाएगी, तो उसकी मौजूदगी ही दूसरों को समझाने का कारण हो जाएगी। पहले शांत हो जाओ। तुम शांत हो जाओगी, तो तुम्हारे पास जो भी आएगा, वह उस शांति से आकर्षित होगा । वह शांति संदेश बन जाएगी। पर उनका कोई रस ही नहीं था। उनका | कोई रस स्वयं में नहीं था। यह भी मूढ़ आदमी का बुनियादी लक्षण है, उसका स्वयं में, स्वयं के विकास में, सृजन में, स्वयं के रूपांतरण में कोई रस नहीं होता। उसकी उत्सुकता दूसरों में बहुत होती है। असल में वह दूसरों को मैनिपुलेट करने में, दूसरों को चलाने में रस लेता है। यह बहुत हैरानी की बात है कि जब हम दूसरों को दबाते हैं, तो | हम अच्छे ढंग से भी दबा सकते हैं। बुरे लोग बुरे ढंग से दबाते हैं, अच्छे लोग अच्छे ढंग से दबाने लगते हैं। और बुरे आदमी से तो | छुटकारा भी कर सकते हो, अच्छे आदमी से छुटकारा बहुत | मुश्किल है। क्योंकि वह इतने प्रेम से दबाता है आपकी गर्दन कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। वह इतने भले मन से दबाता है कि आप यह भी नहीं कह सकते कि मेरी गर्दन घुटी जा रही है ! इसलिए भले लोग बुरे लोगों से भी बुरे सिद्ध होते हैं। उन महिला को एक ही रस था कि दुनिया में क्रांति लानी है, दुनिया को सुधारना है। रोज मेरे पास कोई न कोई आता है, जिसको | दुनिया को ठीक करने का खयाल पकड़ जाता है। अपने को ठीक | करने की बात मूढ़ता से छुटकारा दिला सकती है; दूसरों को ठीक | करने की बात गहरी मूढ़ता में फंसा देती है। मैंने उन्हें समझाया, उनकी समझ के बाहर थी बात। वह मुझसे पूछती थीं कि मेरी कुंडलिनी जग गई है या नहीं? आप कह दो। मैंने उनको कहा कि अगर जग जाएगी, तो तुम्हें पता चल | जाएगा। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं है। पूछती हो, उसका मतलब ही यह होता है कि नहीं जगी है। जिस दिन मैंने उनसे यह कहा, उसी दिन से उन्होंने आना बंद 218 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विराट की अभीप्सा कर दिया। अब मुझे पता चला है कि वह दूसरों की कुंडलिनी जगा| इसे ऐसा समझें, आप चल रहे हैं, पास से चींटियों का एक रही हैं। और इतना ही नहीं कि वह जगा रही हैं, दूसरों की जगनी | | समूह जा रहा है। आपको खयाल है, चींटियों को आपके होने का भी शुरू हो गई है! वह और कठिन बात है। मूढ़ता का कोई अंत | | पता भी नहीं चल सकता! हां, चींटियों को एक ही ढंग से पता चल नहीं है! सकता है कि आपका पैर पड़ जाए और वे मर जाएं; और समझें कृष्ण कहते हैं कि ऐसे मूढ़ लोग, चारों तरफ मैं मौजूद हूं, तो | कि कोई विपत्ति आ गई। लेकिन एक मनुष्य हमारे पास से गुजर भी अनुभव नहीं कर पाते। चारों तरफ सब जगह मैं मौजूद हूं, तो | | रहा है, यह चींटियों को पता नहीं चल सकता। क्योंकि मनुष्य को भी अनुभव नहीं कर पाते। वे कहते हैं, सामने आ जाओ, तो हम देखने के लिए कम से कम मनुष्य की चेतना चाहिए। पहचानें! हम केवल समान तल पर अनुभव कर सकते हैं। श्रेष्ठ जो है, सदा से नास्तिकों ने यह कहा है। यह बहुत समझने जैसा है।। | वह हमारी आंख से ओझल हो जाता है। आप चींटी को देख सकते सदा से नास्तिकों ने कहा है, अगर परमात्मा है, तो सामने आ जाए! | हैं, चींटी आपको नहीं देख पाती। ऊंचाई से नीचे देखना आसान वह सब जगह सामने है। वही है; और दूसरा कोई भी नहीं है। | है; क्योंकि आप उस रास्ते से गुजर चुके हैं। लेकिन नीचाई से ऊपर लेकिन नास्तिक सदा कहता रहा है कि वह सामने आ जाए, तो हम | | देखना असंभव है। मान लें। और मजे की बात यह है कि कृष्ण कहते हैं कि जब मेरे | आप गीता लेकर बैठे पढ़ रहे हैं। आपका कुत्ता भी आपके पास जैसा व्यक्ति सामने आ जाता है, कहते हैं कि जब मैं सामने खड़ा | बैठकर पूंछ हिला रहा है। क्या किसी भी तरह हम कल्पना कर हो जाता हूं, तो वे ही मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले सकते हैं कि उसे गीता का पता चल रहा होगा, जो आप हाथ में मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। अगर मैं सामने आ जाऊं, तो लिए बैठे हैं? वे कहते हैं कि अरे! तुम तो आदमी ही हो! तुम भगवान कैसे? आप चाहे जोर-जोर से दोहरा रहे हों, तो भी कुत्ता बैठकर अपनी अगर मैं सामने न आऊं, तो वे कहते हैं, सामने आ जाओ। क्योंकि | मक्खियां उड़ाता रहेगा। उसकी चेतना में कहीं से भी, यह आपका अगर तुम हो, तो प्रकट हो जाओ। अगर मैं प्रकट हो जाऊं, तो वे जो जोर से पाठ चल रहा है, प्रवेश नहीं करेगा। अगर आप गीता मूढजन कहते हैं कि तुम? तुम तो ठीक हमारे ही जैसे हो! तुम को छोड़कर चले जाएं, तो गीता उसे दिखाई पड़ सकती है, पर गीता भगवान कैसे? की तरह नहीं। हो सकता है. वह उससे खेलने लगे। हो सकता है. एक बात तय है कि भगवान चाहे अप्रकट रूप से सब तरफ | उसे फाडने लगे। हो सकता है. उसे मंह में दबाकर बाहर घमने मौजूद हो, और चाहे प्रकट रूप से आपके सामने खड़ा हो जाए, | निकल जाए। वह गीता के साथ कुछ कर सकता है, लेकिन गीता अगर मूढ़ता की दृष्टि है, तो दोनों हालत में वह दिखाई नहीं पड़ का उसे कोई बोध नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है; उसकी चेतना सकता है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि वह सामने है या नहीं, | बंद है। सवाल यह है कि भीतर मूढ़ता है या नहीं। चेतना वहीं तक देख पाती है, जहां तक विकसित होती है। तो आप खुद ही सोचो! आपको भी कई दफे लगा होगा कि भगवान | | परमात्मा अगर सामने भी मौजूद हो जाए, तो भी हम उसे समझ नहीं सामने हो, तो अभी मान लूं। लेकिन जरा यह सोचो कि अगर | पा सकते, हम उसे देख नहीं पा सकते। हमारी हालत उसके सामने भगवान सामने हो, आप मान लोगे? वैसी ही है, जैसी हमारे सामने एक चींटी की हो जाती है। उसका अति कठिन है। बहुत कठिन है। कठिनाइयों के कारण हैं। वे | जो.परमात्म रूप है, वह हमारी आंखें कैसे पकड़ें? जहां तक हमारी मूढ़ता की अनेक सीढ़ियां उसके कारण हैं। उनको हम थोड़ा समझ | चेतना का विकास नहीं है, वहां हम देख कैसे पाएंगे? हम वही देख | पाते हैं, जो हम हैं। पहली बात, अपने से जो श्रेष्ठ है, उसे देखना बहुत मुश्किल है। | इसलिए अगर कृष्ण भी सामने खड़े हों, तो हमें कृष्ण में आदमी मुश्किल नहीं, असंभव कहना चाहिए, करीब-करीब असंभव। | दिखाई पड़ेगा भलीभांति। और हम गलत नहीं हैं। हम गलत नहीं क्यों? क्योंकि जहां तक हमारी चेतना गई है, उसके पार हमारी हैं। जहां तक कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ता है, हम बिलकुल सही आंख उठ नहीं सकती। जो हम हैं, वहीं तक हम देख सकते हैं। हैं। गलती हमारी वहां शुरू होती है कि आदमी के पार हमें कुछ भी लें। 219| Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 दिखाई नहीं पड़ता। आदमी का दिखाई पड़ना तो बिलकुल ठीक है। बात ही अलग। अगर यह न भी हो, तो भी इस खोज में आप ऊपर कृष्ण आदमी तो हैं ही, लेकिन तब हम सब जोड़ लगाकर कहते हैं | | उठ जाएंगे। कि आदमी तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भगवान कहीं दिखाई नहीं मूढ़ता हमारी कहती है कि सिद्ध करो, यह नहीं है। लेकिन हमें पड़ते। और जब आदमी दिखाई पड़ते हैं, तो हमारे अहंकार को पता नहीं कि इसे हम सिद्ध करके कि नहीं है, केवल अपने विकास कष्ट होगा बहुत कि हम सामने खड़े आदमी को, मांस-हड्डी के | की संभावनाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं, एक द्वार बंद कर रहे हैं। आदमी को, इसको हम भगवान मान लें! तो हमारे अहंकार को | | यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण कि यह है या नहीं, हम इसे देखने की भारी पीड़ा होगी। कोशिश करें। ध्यान रहे, पहला सूत्र हमारी मूढ़ता का यह है कि जो हमें दिखाई बुद्ध के पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हमें तो कोई ऐसी पड़ता है, उसके पार हम झांकने को भी तैयार नहीं होते। दिखाई तो बात नहीं दिखाई पड़ती। महावीर के पास लोग आते हैं, वे कहते हैं पड़ेगा ही नहीं, झांकने को भी तैयार नहीं होते। तैयारी भी नहीं कि हम आपको तीर्थंकर नहीं मान सकते। दिखाते कि हम उसके पार भी देखने के लिए तैयार हैं, बल्कि हम न मानने से महावीर की कोई हानि नहीं होती। महावीर किसी गैर-तैयारी दिखाते हैं। वह हमारी मूढ़ता है। | वोट की तलाश में नहीं हैं कि कितने लोग मानते हैं। तो महावीर हम कहेंगे कि कहां! भगवान तो दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि हम आपसे हाथ जोड़कर नहीं कहेंगे कि मानो कि मैं तीर्थंकर हूं! क्योंकि सब तरह से सिद्ध करेंगे कि भगवान है ही नहीं। क्योंकि हम कहेंगे अगर तुमने न माना, तो मैं कहीं का न रह जाऊंगा! तुम्हारे मत पर कि इस आदमी को कल मैंने देखा था। प्यास लगी थी, तो यह कह | तो मेरा सब दारोमदार है। तुम मुझे मानो। न बुद्ध आपसे हाथ रहा था, पानी लाओ! भगवान को पानी की क्या जरूरत? हमने | | जोड़कर कहेंगे कि मैं बुद्ध हूं, मुझे मानो। न कृष्ण कहेंगे। इससे देखा, यह आदमी भोजन कर रहा था। भगवान को भोजन की क्या | कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप मानते हैं कि नहीं मानते। उन्हें कोई जरूरत? धूप पड़ती है, तो कृष्ण को भी पसीना आ जाता है। | फर्क नहीं पड़ता। भगवान को पसीने की क्या जरूरत? लेकिन आपका न मानना, आपके लिए अवरोध हो जाता है। वे हम हजार कसौटियां रखेंगे। और सब कसौटियों से हम सिद्ध हैं या नहीं, यह भी गौण है, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। अगर कोई करेंगे कि यह आदमी भगवान नहीं है, आदमी ही है। और जब हम | व्यक्ति पत्थर को भी भगवान मानकर चल पड़े, तो पत्थर भगवान सिद्ध कर लेंगे कि यह आदमी है, तो हम को बड़ी तृप्ति होगी। यह होगा कि नहीं होगा, यह सवाल नहीं है; वह आदमी जरूर ऊपर हमारी मूढ़ता है। उठना शुरू हो जाएगा। यह सवाल उस आदमी के अपने मजा यह है कि इस सिद्ध करने से हमें कुछ मिलेगा नहीं। अगर अंतर्विकास का है। और हम जितने विराटतर को मान लेते हैं, उतने यह सही भी है कि यह आदमी ही है और हमने सिद्ध कर लिया कि | विराटतर तक पहुंचने की हमारी चेतना का मार्ग साफ हो जाता है। आदमी है, तो भी हमें मिलेगा क्या? यह हमारी मूढ़ता है। इसे हम ऐसा देखें, अगर मूढ़ न हो आदमी, अमूढ़ हो, तो वह दूसरी बात सोचें, हो सकता है, यह भगवान न हो। लेकिन हम क्या करेगा? इस सिद्ध करने में न पड़ें कि यह भगवान नहीं है। बल्कि यह कहता मूढ़ आदमी कहेगा कि कृष्ण को भूख लगती हमारे जैसी, तो यह है, तो हम थोड़ा खोज में लगें विधायक रूप से; मूढ़ता को तोड़ने आदमी है। कृष्ण को भी कांटा गड़ता, खून निकलता, तो ये हमारे में लगें। कोशिश करें कि यह आदमी कहता है कि हां, भगवान | जैसे आदमी हैं। भगवान हम न मानेंगे। यह मूढ़ का तर्क है। प्रकट हुआ है, तो देखें, चलें; थोड़ा आगे बढ़ें। थोड़ी अपनी चेतना अमूढ़ का तर्क इससे उलटा होगा; यही, लेकिन दिशा बदल को ऊपर उठाएं। थोड़ी अपनी जगह छोड़ें। थोड़ा अपना | जाएगी। वह कहेगा, कृष्ण को भी भूख लगती है और ये भगवान पर्सपेक्टिव, अपना परिप्रेक्ष्य बदलें। देखें कि शायद यह आदमी। हो सकते हैं; मुझे भी भूख लगती है, मैं भी भगवान क्यों नहीं हो ठीक कहता हो। सकता हूं! यह अमूढ़ आदमी का तर्क है। वही है, तर्क में कोई फर्क तो मैं आपसे कहता हूं कि यह भगवान न भी हो, तो भी यह नहीं है। लेकिन दिशा बिलकुल बदल गई है। वह कहेगा, कृष्ण के खोज आपकी चेतना को बड़ा कर जाएगी। अगर यह हो, तब तो भी पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है; मेरे पैर में भी कांटा 2200 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *विराट की अभीप्सा गड़ता है, तो खून निकलता है। अगर कृष्ण भगवान हो सकते हैं, अगर कोई आदमी किसी के संबंध में कुछ बुराई करे, तो हमारे तो मैं भगवान क्यों नहीं हो सकता है। हृदय का फूल ऐसे खिल जाता है, जैसे वर्षा हो गई, नई सब ताजगी कृष्ण की मनुष्यता कृष्ण के भगवान होने में बाधा नहीं बनेगी आ गई भीतर। जैसे कोई किसी की निंदा करे हमारे कान में, तो ऐसा अमूढ़ के लिए; कृष्ण की मनुष्यता स्वयं की मनुष्यता के पार जाने | लगता है कि कोई संगीत बजने लगा! प्राण नाचने लगते हैं। का द्वार बन जाएगी। इसलिए मजे की बात है, जब भी हमसे कोई किसी की निंदा करे, लेकिन कृष्ण कहते हैं, मूढजन मनुष्य का शरीर धारण करने | हम कभी इसकी फिक्र में नहीं पड़ते कि यह सही है या गलत? हम वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। | मान लेते हैं। निंदा में कोई तर्क करता ही नहीं। अगर कोई आदमी वे अपने को श्रेष्ठ नहीं समझ पाते मेरे कारण; अपने कारण | | आकर आपको मेरे बाबत कहे कि वह आदमी चोर है, तो आप एक मुझको भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने को श्रेष्ठ समझने का एक | | गवाह तक न पूछेगे उससे कि कोई गवाह है? आप कहेंगे, मैं तो मौका उन्हें था कि वे अपनी दीनता से मुक्त हो जाते, कि महिमा से | पहले ही जानता था; पहले ही से पता था। एक गवाह की भी भर जाते, कि गौरवान्वित हो जाते; कि देखते कि मेरी क्या अनंत | जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर यह भी न सोचेंगे आप कि यह जो आदमी संभावना है; कि उनका बीज भी भरोसे से भर जाता; कि आशाएं | | बोल रहा है, कहीं यह खुद तो चोर नहीं है। न; यह भी न सोचेंगे। उनमें भी खिल जातीं; कि अभीप्सा उनकी भी जग जाती; दूर का | क्योंकि इस वक्त ऐसी बातें सोचना शोभनीय नहीं है। इस वक्त इस आकाश उनको भी अपने पास मालूम होने लगता; अनंत की दूरी | आदमी पर शक करना बिलकुल ही अशोभन है। संदेह करना ही मिट जाती, अगर वे यह देखते कि ठीक मेरे जैसा मनुष्य भी भगवान | नहीं, इस वक्त तो श्रद्धा एकमात्र मार्ग है। है। लेकिन वे ऐसा नहीं देखते। वे ऐसा देखते हैं कि अच्छा, मेरे | जब कोई किसी की निंदा कर रहा हो, तो हमारे चित्त ऐसे जैसा मनुष्य भगवान का दावा कर रहा है! धोखेबाज है, तुच्छ है। | श्रद्धावान हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि दूसरा अच्छा है, इससे हमारे ऐसा दावा नहीं करना चाहिए; यह बात ठीक नहीं है! | अहंकार को पीड़ा पहुंचती है। क्योंकि ऐसा लगता है, फिर मैं? मूढ़ता अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का नाम है। लेकिन | | दूसरा बुरा है, हमारा अहंकार आनंदित होता है कि बिलकुल ठीक। अपने पैर पर कोई कुल्हाड़ी नहीं मारता। मारने वाला तो यही | अगर सारी दुनिया बुरी है, तो फिर मैं ही अच्छा बच रहता हूं! समझता है कि दूसरे के पैर पर मार रहे हैं। लेकिन कृष्ण के पैर पर | तो हम सारी दुनिया बुरी है, ऐसा मानकर चलते हैं। जिनके कुल्हाड़ी मारने का कोई उपाय नहीं है। सब कुल्हाड़ी आखिर में | | बाबत हमें अभी पता नहीं है, उनके बाबत भी हम समझते हैं कि अपने ही पैर पर पड़ जाएगी। इसलिए वे मूढ़ कह रहे हैं। कह रहे | सिर्फ पता नहीं है, बाकी होंगे तो बुरे ही। भला आदमी तो कोई हो हैं, मुझे तुच्छ समझने में मैं तुच्छ नहीं हो जाता हूं; लेकिन मुझे तुच्छ नहीं सकता, यह हमारी अंतर्निहित आस्था है। यह हमारी समझने में तुम्हारी जो गरिमा की संभावना थी, वह खो जाती है। | आस्तिकता है। सारा जगत बुरा है। किसी का पता चल गया है, बुद्ध को देखकर यह सोचने की जरूरत नहीं है कि बुद्ध को ज्ञान | | किसी का अभी पता नहीं चला है। यह सारा जगत बुरा है। हुआ या नहीं। बुद्ध को देखकर यह देखने की जरूरत है कि बुद्ध | तो जिसका पता नहीं चला है, उसके बाबत हम अपने मन में संदेह को हो सका है, तो मुझे भी हो सकता है। यह भरोसा। रखते हैं कि आज नहीं कल! आप एक दिन धोखा दे सकते हैं, दो बुद्ध की आंखों में झांककर अपने भविष्य में झांकने का नाम | दिन धोखा दे सकते हैं, कोई भी आदमी सदा तो धोखा नहीं दे ज्ञान है; और अपने तराजू पर रखकर बुद्ध को तौल लेने का नाम | सकता। आज नहीं कल कलई खल ही जाएगी। आज नहीं कल वस्त्र मूढ़ता है। बुद्ध को दरवाजा बनाओ। हम बुद्ध को तो दरवाजा नहीं | | झांककर हम देख ही लेंगे कि तुम भी नंगे हो। कब तक ढांके रहोगे! बनाते, अपने को दीवाल बनाकर खड़े हो जाते हैं। तो हम यह भाव रखते हैं। और जैसे ही किसी का पता चल जाता फिर आदमी की मूढ़ता का जो केंद्र है, वह उसका अहंकार है, | | है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। हम जानते हैं कि यह तो हम पहले ही ईगो है। इसलिए दूसरी बात, जब भी कोई आदमी हमें किसी के | जानते थे। यह हमारा अंतर्निहित विश्वास था। यह तो हमारी खिलाफ कुछ कहे, हमारे मन में बड़ी प्रफुल्लता होती है। इसे अंतरात्मा की पहले से ही दृढ़ आस्था थी कि यह आदमी बुरा है। खयाल करना। लेकिन जब कोई आदमी किसी के बाबत कहता है कि वह भला | 221 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 है, अच्छा है, तो हमारा मन मानने का नहीं करता। सुन भी लें, तो | जाए, तो तीसरे की आकांक्षा रखता है। वह बढ़ता चला जाता है। टालरेट करते हैं। सह लेते हैं कि ठीक है; होगा। होगा भी। दूसरी ध्यान रहे, वह आदमी मूढ़ है, जो सारी दुनिया को बुरा सिद्ध चर्चा छेड़ो! कोई दूसरी बात करें। | करने में लगा है। क्योंकि अंततः यह सारी दुनिया की बुराई लौटकर और अगर कोई ज्यादा जिद्द करे कि नहीं, भला है ही। संत है। | उसकी अपनी बुराई हो जाएगी, और उसके विकास का कोई उपाय महात्मा है। फलां है, ढिका है। तो हम कहेंगे, कोई गवाही है? . न रह जाएगा। किसने कहा? कौन कहता है? जो कहते हैं, उनकी नैतिकता का | अमूढ़ उसे कहते हैं, जो सारी दुनिया के भले होने का भरोसा कुछ पक्का है? तुमने कैसे जाना? क्या प्रमाण हैं? | रखता है। जिसकी अंतर्निहित आस्था इस बात की है कि सब लोग जब भी कोई किसी की भलाई की बात करे, तो हमें पीड़ा होती । भले हैं। और अगर कभी किसी आदमी की बुराई की खबर मिलती है मानने में, क्योंकि हमारी अंतर्निहित निष्ठा के विपरीत है। यह है, तो भी वह यह नहीं कहता कि वह आदमी बुरा है। इतना ही हमारी मूढ़ता है। कहता है, आदमी भला है, लेकिन भले आदमी से भी भूल-चूक क्योंकि मजा यह है इस मूढ़ता का कि जितना ही हम सिद्ध करने | | हो जाती है। आदमी तो भला ही है। तो भला आदमी भी कभी भटक में सफल हो जाते हैं कि सारी दुनिया बुरी है, उतना ही हमारे अच्छे | जाता है। अंतर्निहित आस्था उसकी भलाई की है। वह सारी दुनिया होने का उपाय बंद हो जाता है। जब सारी दुनिया बुरी है, तो मुझे | में चारों तरफ भलाई को खड़ा हुआ देखता है। तब उसे अपनी बुराई अच्छे होने का कोई भी कारण नहीं रह जाता। जब आप सुबह से | | दिखाई पड़नी शुरू होती है। तब वह अनुभव करता है, इस दुनिया अखबार पढ़ते हैं और देख लेते हैं कि कितनी औरतें भगाई गईं, में शायद सबसे पिछड़ा हुआ मैं ही हूं! तब उसके विकास की कितनी हत्याएं की गईं, कौन-कौन कालाबाजारी में पकड़े गए, तब | | संभावना, उत्क्रांति, उठ सकता है ऊपर। भीतर-भीतर कोई खड़ा खुश होने लगता है। वह कहता है कि सारी लेकिन हमारी मूढ़ता का कोई अंत नहीं है। हम सिद्ध करने में दुनिया ऐसी है। लगे रहते हैं कि कृष्ण भगवान हैं या नहीं, कि बुद्ध भगवान हैं या इसका मतलब यह है कि हम बिलकुल निश्चित रह सकते हैं। नहीं, कि महावीर भगवान हैं या नहीं, कि जीसस ईश्वर के पुत्र थे हम जैसे हैं, निश्चित रह सकते हैं। अभी तक न हमने किसी की या नहीं, या यह दावा झूठा है! यही तो झगड़ा था। जीसस के बाबत औरत भगाई। सोचा है, भगाई नहीं है! तो सोचने में क्या ऐसी बुराई यहूदियों ने झगड़ा खड़ा किया कि वे ईश्वर के पुत्र नहीं हैं; इसलिए है, जब लोग भगा ही रहे हैं! तो विचार मात्र कोई इतना बुरा नहीं सूली दी। और दो-ढाई हजार साल से ईसाई मिशनरी, ईसाई है। यह सब कालाबाजारी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, सब हो रहा | धर्मगुरु सिद्ध करने में लगा है कि वे ईश्वर के पुत्र हैं। है। भीतर एक तृप्ति होती है कि हम काफी अच्छे हैं। और जिसको ध्यान रहे, जब हम बहुत सिद्ध करने में लग जाते हैं कि फलां यह तृप्ति हो जाती है कि मैं काफी अच्छा हूं, उसने आत्महत्या कर आदमी ईश्वर का पुत्र है, तब भी हम गवाही देते हैं कि भरोसा हमें ली अपनी। है नहीं। सिद्ध बहुत करने का मतलब भी यही होता है। अगर एक __ अच्छा आदमी कभी भी तृप्त नहीं होता अपनी अच्छाई से; बुरा | आदमी दिनभर कहे कि मैं सदा सच बोलता हूं, मैं सदा सच बोलता आदमी सदा ही अपनी अच्छाई से तृप्त होता है। अच्छा आदमी ह, मैं झूठ कभी नहीं बोलता, तो आप पक्का समझना कि वह सदा एक डिसकंटेंट में जीता है, एक असंतोष में, कि मैं और | आदमी चौबीस घंटे झूठ बोलने से पीड़ित है। ये इतनी गवाही की अच्छा, और अच्छा, और अच्छा कैसे होता चला जाऊं! बुरा कोई जरूरत नहीं है। आदमी सदा संतोषी होता है अपने बाबत, भीतर के बाबत, कि मैं | | ठीक है; अगर यह अंतर्निहित आस्था है कि एक आदमी ईश्वर बिलकुल अच्छा हूं। और तब बुरा आदमी रोज-रोज नीचे गिरता | | है, तो ठीक है। यह हमारा विकास बन जाना चाहिए। इसे मैं दूसरे जाता है। अगर आज वह पहले नर्क में राजी है, तो कल दूसरे में | | को समझाने जाने की कोई जरूरत नहीं है। राजी हो ज एगा: परसों तीसरे नर्क में उतरकर राजी हो जाएगा। यह बडे मजे की बात है कि आपको पक्का न हो. तो आप दसरे अच्छा आदमी पहले स्वर्ग में भी खड़ा हो, तो राजी नहीं होता है कि | को समझाने की कोशिश करते हैं। तो अगर ईसाई मिशनरी समझाता यह स्वर्ग है। वह दूसरे स्वर्ग की आकांक्षा रखता है। दूसरे में पहुंच | | फिरता है लोगों को कि ईश्वर का पुत्र है जीसस; जब दूसरे की आंख 222 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विराट की अभीप्सा में झलक आ जाती है भरोसे की, तो उसको भी लगता है कि होगा, | | आसान इसलिए है कि उनकी मनुष्यता हमारे सामने से तिरोहित हो जरूर होगा। क्योंकि इतने लोग भी मानने लगे हैं! उसे खुद भी कोई गई होती है। राम पर उनके गांव के धोबी को भी भरोसा नहीं था कि भरोसा नहीं है। क्योंकि भरोसा आत्मक्रांति बन जाता है। | यह आदमी भगवान है। अब हम आराम से राम को भगवान मान यहूदियों को भरोसा नहीं है। वे सूली पर लटकाते हैं। ठीक सूली सकते हैं। अब हमें तकलीफ नहीं है। अब मनुष्य रूप तिरोहित हो पर लटकाने के पहले पायलट ने जीसस से पूछा है, तुम सच-सच गया है। इसलिए अब हमें यह सोचने की सुविधा नहीं है कि वे भी मुझे कह दो, क्या तुम ईश्वर के पुत्र हो? | हमारे जैसे मनुष्य हैं, भगवान कैसे हो सकते हैं! इसे कैसे कहा जा सकता है! और अगर जीसस कह भी दें, तो | फिर जैसे समय बीतता है, हम कथाएं गढ़ते चले जाते हैं। और कौन मानता है? ये कृष्ण चिल्लाकर कह रहे हैं, कौन मानता है? उन कथाओं में हम यह कोशिश करते हैं कि किसी भी तरह से कोई मानने को तैयार नहीं होता। उनका मनुष्य रूप तिरोहित हो जाए। हमारी सारी कथाएं उनके नहीं मानने का गहरा कारण यह है कि हम ऊपर उठने को तैयार मनुष्य रूप को तिरोहित करने का उपाय हैं। यह सिद्ध हमको करना नहीं हैं। और ये बातें खतरनाक हैं। इनको मानें, तो ऊपर उठना पड़ता है बाद में कि वे मनुष्य नहीं थे, सिर्फ मनुष्य रूप में दिखाई पड़ेगा। हम बचाव कर रहे हैं। ये सब डिफेंस मेजर हैं। हम कहते पड़ रहे थे। फिर सब तरह से हम सिद्ध करते हैं। यह सारा सिद्ध हैं, ये बुद्ध, कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि अगर ये कुछ हैं, तो फिर मुझे | करना हमारी उस मूढ़ता का ही हिस्सा है। जब वे मनुष्य रूप में आत्मग्लानि पैदा होगी। फिर मुझे पीड़ा होगी शुरू, फिर मुझे संताप | सामने होते हैं, तो हमें तकलीफ होती है, क्योंकि उस रूप को होगा कि अगर ये बुद्ध इतने परम आनंद में हो सकते हैं, तो मैं क्यों | असिद्ध नहीं किया जा सकता। नहीं हो सकता हूं। तो फिर मुझे ग्लानि शुरू होगी। तो मैं इस झंझट | | बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं। यह बुद्ध का भक्त, जो उनको भगवान में नहीं पड़ना चाहता। मैं कहता हूं, यह सब बनावट है, यह सब मानता हो, उसे बड़ी तकलीफ देता है। बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं! दिखावा है। यह आदमी बन-ठनकर, शांत होकर, आंख बंद करके | बुद्ध को तो बीमार नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि बुद्ध कोई मनुष्य तो बैठ गया है। कुछ हुआ-वुआ नहीं है। भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर नहीं हैं! कुछ भी नहीं है। फिर बाद में उसे कथाएं गढ़नी पड़ती हैं कि बुद्ध इसलिए बीमार क्यों? बुद्ध के भीतर प्रवेश करके देखा, कि कृष्ण के भीतर पड़े कि उन्होंने किसी भक्त की बीमारी अपने ऊपर ले ली। इसलिए प्रवेश करके देखा, कि यह आदमी भगवान है या नहीं हैं? | बीमार पड़े। या बुद्ध इसलिए बीमार पड़े कि उन्होंने सारे जगत की नहीं, देखने की जरूरत नहीं है। हम देखने के पहले ही जानते हैं | | बीमारियां अपने में लेकर उनका सबका छुटकारा कर दिया। कि नहीं है। यह हमारा जानना हमारी मूढ़ता है। और यह मूढ़ता बड़ी __जीसस को सूली लगी, तो भक्तों को खयाल था कि उनको मरना महंगी पड़ गई है। | नहीं चाहिए सूली पर; क्योंकि अगर मर गए, तो फिर भगवान ___ इसलिए एक बहुत मजे की घटना घटती है। वह घटना यह है कि | कैसे! मनुष्य रूप दिक्कत डाल रहा है। जीसस मर गए, तो भक्तों इस जगत में हम कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे लोगों को उनके मरने | | को बड़ी तकलीफ हुई। तो कथा बाद में गढ़नी शुरू हो गई कि वे के बाद ही उनको भगवान मान पाते हैं, जिंदा में नहीं मान पाते। | तीन दिन के बाद पुनरुज्जीवित हो गए, रिसरेक्ट हो गए! क्योंकि मरने के बाद कई आसानियां हो जाती हैं। पहली आसानी तो अगर यह मान लिया जाए कि वे तीन दिन के बाद पुनरुज्जीवित यह हो जाती है कि उनका मनुष्य रूप सामने नहीं रह जाता। | हो गए, तो वे फिर कब मरे? इसका ईसाइयों के पास कोई जवाब नहीं है। फिर वे मरे कब? अगर वे तीन दिन के बाद पनरुज्जीवित अब मान सकते हैं। लेकिन अगर महावीर सामने होते. तो मश्किल | हो गए और देखे गए, तो फिर वे मरे कब? फिर उन्हें दुबारा तो पड़ती; इसको प्रमाणित करना पड़ता। अब मान सकते हैं, क्योंकि | मरना चाहिए! कोई उत्तर नहीं है। अब इसमें कोई झगड़ा नहीं है, इसमें कोई झंझट नहीं है। इसमें कोई | | क्यों? हुए जीवित या नहीं, यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। झंझट नहीं है, इसमें अब कोई झगड़ा नहीं है। | लेकिन आज दो हजार साल बाद इससे भरोसा मिलता है कि वे इसलिए मुर्दा व्यक्तियों को भगवान मान लेना बहुत आसान है। भगवान थे। सूली लगा दी, फिर भी जीवित हो गए। आदमी नहीं हैं कि महावीर के [223 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 थे, आदमी होता तो मर जाता। झूठा है, तो इनके लड़के की नौकरी का क्या होगा? इनकी बीमारी सूली जब लग रही थी, तब भक्त देख रहे थे आशा से कि कोई का क्या होगा? फलाने को कैंसर है, उसका क्या होगा? चमत्कार होगा! आखिरी क्षण में जीसस कोई खेल दिखाएंगे! तो मैंने कहा, तू ठहर! जब लड़के को नौकरी मिल जाए, तब तू वही आदमी की मूढ़ता! आदमी भगवान को नहीं मानता, बताना जाकर। तब वे कहेंगे, हमको पहले से ही पता था। अभी चमत्कार को मानता है। चमत्कार हो, तो उसे लगता है कि चलो, उनका इनवेस्टमेंट है। अभी चमत्कार में थोड़ा न्यस्त स्वार्थ है। कुछ तो अपने से अलग है, कुछ भिन्न है। हाथ से राख निकाल देता कृष्ण को आप न मानेंगे! कृष्ण को आप मान सकते हैं, अगर है, ताबीज निकाल देता है: जरूर कुछ बात है! कोई चमत्कार हो। चमत्कार को मान सकते हैं। क्योंकि हमारी आदमी से मतलब नहीं है। यह आदमी राख से भी दो कौडी का मढता चमत्कार और मदारीगिरी से प्रभावित होती है। चमत्कार हम हो, तो चलेगा; लेकिन राख निकाल देता है हाथ से! मदारीगिरी से देख सकते हैं, हमारे तल पर होता है। हाथ खाली है और राख गिर मतलब है। तो मदारी को हम चाहे एक दफा भगवान मान भी लें, गई! अब इसमें कोई दिक्कत नहीं है। कोई चेतना ऊपर उठाने की हालांकि मन में हम जानते रहेंगे कि जरूर किसी ट्रिक से, कहीं चोगे जरूरत नहीं है। यह तो हमारी आंख में भी दिख जाता है कि हाथ वगैरह में छिपा रखी होगी-मन में। लेकिन जब तक खुल न जाए, खाली था और राख गिर गई। तो चमत्कार हो गया। तब तक कुछ कहना ठीक नहीं है। कहीं ताबीज निकाला होगा, जो चमत्कार आपको चमत्कार मालूम पड़ता है, वह आपकी क्योंकि स्विस मेड घड़ी अगर हाथ से निकलती हो, तो बिना छिपाए चेतना को ऊपर उठाने वाला सिद्ध नहीं हो सकता। वह आपकी नहीं निकलेगी। हम जानते हैं कि स्विस मेड है; हाथ से निकल कैसे बुद्धि जहां है, वहीं दिख जाता है। बड़ा चमत्कार तो यह है कि हम रही है! अपनी मनुष्यता से ऊपर उठकर थोड़ा देख पाएं, तो हमें कृष्ण जैसे ऐसे एक महात्मा बंबई में किसी के घर ठहरे होंगे। वे जब चले | व्यक्ति का रूप दिखाई पड़ना शुरू हो। गए, तो वह महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि मैं बड़ी लेकिन कृष्ण कहते हैं, वे मुझे तुच्छ समझते हैं, क्योंकि मैं मनुष्य मुश्किल में पड़ गई हूं। मैं तो सारे अपने मित्रों, परिवारों, संबंधियों | के शरीर में खड़ा हूं। को सबको उनका भक्त बना दी। सिर्फ इसीलिए कि वे घड़ी, वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों ताबीज न मालूम क्या-क्या निकाल देते हैं। इस बार बड़ी मुश्किल | के और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात स्वभाव हो गई है। वे गए हैं और उनका बैग घर में रह गया है। उसमें दो को ही धारण किए हुए हैं। सौ स्विस मेड घड़ियां हैं। एक आखिरी बात, मनुष्य अनिर्मित, अपूर्ण चेतना है। जानवरों तो मैंने उससे पूछा कि तुझे पहले पक्का भरोसा था? के पास पूरा व्यक्तित्व है। एक गाय पूरी गाय है; एक कुत्ता पूरा उसने कहा, भरोसा तो नहीं था। शक तो होता था भीतर कि कुत्ता है; आदमी पूरा आदमी कभी नहीं हो पाता। आदमी जरूर कहीं न कहीं घड़ी छिपी होगी। अब प्रमाणं मिल गया। कम-ज्यादा होता रहता है। आदमी आदमी की तरह पैदा नहीं होता, तो अब तू क्या करेगी? आदमी उसे बनना होता है। आदमी में विकास है। एक कुत्ता कुत्ते उसने कहा कि अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ी हूं। जिनको मैंने की तरह पैदा होता है। फिर आप किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते उनका भक्त बनाया, उनको भी मैं कहती हूं, तो वे कहते हैं, तेरा | कि तुम अधूरे कुत्ते हो, या कम कुत्ते हो। कोई अधूरा कुत्ता नहीं है, दिमाग खराब हो गया है! कोई कम कुत्ता नहीं है। सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। वह जो कुत्तापन मैंने उससे पूछा कि तू जिनको कहती है, उनके कोई निहित स्वार्थ | है, वह सबको मिला हुआ है एक-सा। तो नहीं हैं? लेकिन आदमी से हम कह सकते हैं कि तुम थोड़े कम आदमी उसने कहा, हैं। किसी का लड़का बीमार है; किसी को नौकरी | | हो। किसी से हम कह सकते हैं कि तुम थोड़े ज्यादा आदमी हो। नहीं मिल रही है; किसी का बाप पागल हो गया है; किसी का कुछ | | किसी से हम कह सकते हैं कि तुम्हारी आदमियत का क्या हुआ? हो गया है। | किसी कुत्ते से कह सकते हैं कि तुम्हारे कुत्तेपन का क्या हुआ? कोई तो अगर यह सिद्ध हो जाए कि वे बाबा चमत्कार जो कर रहे हैं, अर्थ नहीं है। व्यर्थ की बात है। कुत्ता हमेशा कुत्ता है। उसमें कभी 224) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विराट की अभीप्सा * कोई गड़बड़ नहीं होती। | की ओर गति कर पाता है। __ आदमी इस जगत में अपूर्ण व्यक्तित्व है, बाकी सबके पास पूरा आज इतना ही। व्यक्तित्व है। इस लिहाज से बड़ी कठिनाई है। वह कठिनाई यह है। लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंगे। कौन कि आदमी पूरा आदमी न होने से, चाहे तो जानवरों से भी नीचे गिर जाने, कीर्तन से ही उसकी झलक मिल जाए! और कीर्तन जब यहां सकता है। और यही उसकी गरिमा भी है कि वह चाहे तो आदमी | चले, तो आप खड़े होकर न देखें; बैठकर ही देखें। यहां से भी ऊपर, देवताओं से भी ऊपर उठ सकता है। आस-पास भी लोग आने की कोशिश न करें। ताकि सब लोग देख इसलिए, आपको यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जानवरों में | | सकें। पांच मिनट बैठे रहें। ताली बजाएं। कीर्तन में सम्मिलित हों। राक्षस कोई भी नहीं होता, क्योंकि जानवरों में देवता कोई भी नहीं | होता। आदमी आदमी भी हो सकता है; नीचे गिर जाए, तो राक्षस भी हो सकता है; ऊपर उठ जाए, तो देवता भी हो सकता है। आदमी एक संक्रमण व्यवस्था है। आदमी सुनिश्चित नहीं है; सृजन में, प्रक्रिया में है। तो आदमी दोनों तरफ जा सकता है। और ध्यान रहे कि जीवन में ठहराव नहीं होता। अगर आप ईश्वर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप राक्षस की तरफ जाने लगेंगे। क्योंकि जाना पड़ेगा ही; रुकाव नहीं है। जीवन में एक गति है। जाना तो पड़ेगा ही। आप रुक नहीं सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैं जहां हूं, वहीं ठहर जाऊंगा। आप कहीं हैं नहीं। जीवन एक गति है। आपको चलना तो पड़ेगा ही। इसमें कोई चुनाव नहीं है। अगर आप ऊपर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप नीचे की तरफ जाने लगेंगे। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि यह जो तुच्छ समझने वाली दृष्टि है, मुझे, ईश्वर अगर साकार खड़ा हो, तो तुच्छ समझती है; निराकार हो, तो कहती है, कहां है? यह जो बुद्धि है, यह जो मूढ़ता वाली बुद्धि है, यह राक्षसों जैसी हो जाती है, आसुरी हो जाती है। और फिर अपने ही अपने ही-हाथ से बनाए गए अंधकार में अपने को डुबाती चली जाती है। परमात्मा का कहीं भी लक्षण मिले, कहीं भी जरा-सी झलक मिले, उसे इनकार मत करना। क्योंकि वह तुम्हारे विकास का रास्ता है। कहीं बुराई बिलकुल पक्की भी हो, प्रमाणित भी हो, तो भी संदेह जारी रखना। क्योंकि उसे मान लेना, तुम्हारे गिरने का उपाय हो जाएगा। शैतान बिलकुल दरवाजे पर भी आकर बैठ जाए घर के, तो भी समझना कि नहीं है। और परमात्मा कहीं भी दिखाई न पड़े, तो भी जानना कि यहीं है। क्योंकि उसकी यह प्रतीति तुम्हारे | भीतर जो हो सकता है विकास, उसके लिए सहयोगी होगी। श्रेष्ठ को स्वीकार कर लेना, न दिखाई पड़ता हो तो भी; अश्रेष्ठ को इनकार कर देना, बिलकुल प्रत्यक्ष हो तो भी। तो ही मनुष्य ऊपर 225 Page #252 --------------------------------------------------------------------------  Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 पांचवां प्रवचन देवी या आसुरी धारा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः । तो अतीत से हम जी नहीं सकते, क्योंकि अतीत में हमारा कोई भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् । । १३ ।। अनुभव जीवन का नहीं है। अतीत तो दुख की एक लंबी कथा है। सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । फिर भी हम जीते हैं, तो हमारे जीने की प्रेरणा कहां से आती होगी? नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ।। १४ ।। पीछे से तो यह धक्का आता नहीं है। निश्चित ही यह खिंचाव आगे परंतु हे पार्थ, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन है, से आता होगा। भविष्य हमें खींचता है, और भविष्य के खिंचाव में वे तो मेरे को सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित हम चलते हैं। अतीत के धक्के में नहीं, भविष्य के खिंचाव में, __ अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए | भविष्य के आकर्षण में। भविष्य के आकर्षण का नाम आशा है। निरंतर भजते हैं। __ आशा का अर्थ है, जो कल नहीं हुआ, वह आने वाले कल में और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और । हो सकेगा। जो कल नहीं मिला, वह कल मिलेगा। जो पीछे संभव गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न | नहीं हुआ, वह भी आगे संभव हो सकता है। इस संभावना का जो करते हुए, और मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे | सपना है, वही हमें जिलाता है। अतीत व्यर्थ गया, कोई हर्ज नहीं; ध्यान में युक्त हुए अनन्य भक्ति से मुझे उपासते हैं। | भविष्य में सार्थकता मिल जाएगी। असफलता लगी हाथ में अब तक, लेकिन कल सफलता के फूल भी खिल सकते हैं। यह संभावना, यह आशा हमें खींचती चली जाती है। आशा के वश हम 1 नुष्य की मूढ़ता के संबंध में थोड़ी बातें और जान लेनी | जीते हैं। 01 जरूरी हैं। क्योंकि उन्हें जानकर ही हम आज के सूत्र ___ उमर खय्याम ने अपने एक गीत की कड़ी में कहा है कि मैंने में प्रवेश कर सकेंगे। तीन लक्षण कृष्ण ने मूढ़ता के | | लोगों को दुख झेलते देखा और फिर भी जीते देखा! लोगों को पीड़ा और कहे हैं. वथा आशा. वथा कर्म और वथा ज्ञान वाले। पाते देखा और फिर भी जीवेषणा से भरा देखा, तो मैं बहत चिंतित इन तीन शब्दों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। क्योंकि व्यर्थ | | हुआ। इतना दुख है कि समस्त मनुष्य-जाति को आत्महत्या कर आशा में जो उलझा हुआ है, वह सार्थक आशा करने में असमर्थ | लेनी चाहिए। दुख इतना है कि जीवन कभी का असंभव हो जाना हो जाता है। व्यर्थ ज्ञान में जो उलझा है, सार्थक ज्ञान की ओर उसकी चाहिए था। लेकिन जीवन असंभव नहीं होता। दुखी से दुखी आंख नहीं उठ पाती। व्यर्थ कर्म में जो लीन है, वह उस कर्म को व्यक्ति भी जीए चला जाता है। खोज ही नहीं पाता, जिसकी खोज से समस्त कर्मों के बंधन से | तो उमर खय्याम ने कहा है कि मैंने पूछा ज्ञानियों से, बुद्धिमानों मुक्ति संभव है। | से, लेकिन कोई उत्तर न पाया। क्योंकि उन ज्ञानियों और बुद्धिमानों व्यर्थ आशा क्या है? और हम सब जिस आशा में जीते हैं, उसमें को भी मैंने दुख में ही पड़े हुए देखा। और उनके दरवाजे पर, उनके हमने कभी कोई सार्थकता पाई है? सभी आशा में जीते हैं। आशा | | मकान पर, मैं जिस दरवाजे से प्रवेश किया, सब चर्चा के बाद उसी के बिना जीना तो कठिन है। आशा के सहारे ही जीते हैं। आशा का | दरवाजे से मुझे वापस आ जाना पड़ा, वही का वही। कोई उत्तर हाथ अर्थ है भविष्य। अतीत तो दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे जाता। | न आया। सब जगह से निराश होकर एक दिन मैंने आकाश से पूछा अपने अतीत को लौटकर देखें, तो दुख का एक समूह, दुख की | कि जमीन पर इतने लोग रह चुके हैं अरबों-अरबों, न मालूम कितने एक राशि मालूम पड़ती है, विफलताओं का एक ढेर, सभी सपनों | कालों से! आकाश, तूने सबको देखा है। सब दुख में जीए। क्या की राख। पीछे लौटकर देखें, तो कोई कणभर को भी आनंद की | तू मुझे बता सकता है कि उनके जीने का राज क्या है? सीक्रेट क्या कोई झलक नहीं दिखाई पड़ती है।। | है? इतना दुख, फिर भी आदमी जीए क्यों चला जाता है? अगर मनुष्य को अतीत के सहारे ही जीना हो, तो मनुष्य इसी क्षण | तो उमर खय्याम ने कहा है, आकाश ने एक ही शब्द उच्चारा, गिर जाए और जी न सके। क्योंकि अतीत में कछ भी तो नहीं है, जो आशा, होप। एक ही छोटा-सा शब्द, आशा। प्रेरणा बने। अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो सहारा बने। अतीत में | आदमी जीए चला जाता है, दौड़े चला जाता है। कोई स्वप्न पूरा कुछ भी तो नहीं है, जो जीवन को आगे ले जाने के लिए गति दे। । हो सकेगा, इसलिए पैरों में गति बनी रहती है, प्राणों में ऊर्जा बनी 1228 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा रहती है। लेकिन यहीं व्यर्थ आशा को समझ लेना जरूरी होगा। में आ जाएगा कि दुराशा कैसी है। आदमी आशा करता है भविष्य की। जिसे उसने आज अतीत | | हमने क्या चाहा है? जो भी चाहा है, एक बात पक्की है, वह बना लिया है, वह भी कल भविष्य था। आज का दिन बीत गया, | मिला नहीं है। और ऐसा नहीं कि आपने ही ऐसा किया है। पूछे अतीत हो गया। कल चौबीस घंटे पहले यह भी भविष्य था और | पड़ोसियों से! इतिहास में पीछे लौटें। पूछे उन सबसे, जिन्होंने यही मैंने अपनी आशा का दीया इस चौबीस घंटे पर जला रखा था, आज | चाहा है। किसी को भी नहीं मिला है। आज तक एक भी मनुष्य ने वह भी अतीत हो गया। लेकिन मैं लौटकर भी न देखेंगा कि कल | यह नहीं कहा है कि मुझे दूसरे से सुख मिल गया हो। लेकिन सभी जो मैंने दीया जलाया था आशा का, वह इन चौबीस घंटों में पूरा ने दूसरे से सुख चाहा है। अब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य ने यह हुआ या नहीं! नहीं कहा है कि मैं दूसरे से सुख पाने में समर्थ हो गया हूं। जिन्होंने न, बिना यह फिक्र किए मैं अपने दीए की ज्योति को आगे आने | कहा है कि मुझे सुख मिला है, उन्होंने कहा है, सुख मैंने अपने वाले चौबीस घंटों में सरका दूंगा। रोज अतीत होता चला जाएगा भीतर खोजा, तब मिला। और जब तक मैंने दूसरे के पास से सुख समय, और मैं कभी लौटकर यह न देणूंगा कि मेरी आशा व्यर्थ तो पाने की कोशिश की, तब तक केवल दुख पाया, सुख नहीं मिला। नहीं है? क्योंकि रोज समय बीत जाता है और वह पूरी नहीं होती। _लेकिन हम सभी दूसरे से सुख चाह रहे हैं। दूसरे बदल जाते हैं, वृथा आशा का अर्थ है, इस बात की प्रतीति न हो पाए कि जो | लेकिन दूसरे से सुख चाहना नहीं बदलता। आज मैं एक स्त्री से मैं चाहता हूं, वह चाहना ही व्यर्थ है; वह कभी पूरा नहीं होगा। उस | सुख चाह सकता हूं, कल दूसरी स्त्री से, परसों तीसरी स्त्री से। चाह का स्वभाव ही अपर रहना है। जो में मांगता है, वह कभी नहीं स्त्रियां बदल जाती हैं। आज मैं बेटे से सख चाहता है. कल मित्र मिलेगा। लेकिन समय का धोखा! हम रोज आगे सरका देते हैं, | से चाहता हूं, परसों किसी और से चाहता हूं। आज अपनी मां से पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और कभी यह नहीं सोचते कि जिसे सुख चाहता हूं, आज अपने पिता से सुख चाहता हूं, कल अपनी हम आज अतीत कह रहे हैं, वह भी कभी भविष्य था। उसमें भी | | पत्नी से सुख चाहता हूं, लेकिन दूसरा, दि अदर मेरे सुख का केंद्र हमने आशा के बहुत-बहुत बीज बोकर रखे थे, वे एक भी फलित होता है। और मनुष्य के पूरे इतिहास में एक भी अपवाद नहीं है, नहीं हुए, एक भी अंकुर नहीं निकला, एक भी फूल नहीं खिला। एक भी एक्सेप्शन नहीं है, एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है आज तो पहली तो आशा की व्यर्थता इससे बनती है कि समय बीतता तक कि मुझे दूसरे से सुख मिला। आपको भी नहीं मिला है। चला जाता है, लेकिन जो भूल हमने कल की थी, वही हम आज | लेकिन एक बड़े मजे की बात है। जब दूसरे से सुख नहीं मिलता, भी करते हैं, वही हम कल भी करेंगे। मौत आ जाएगी, लेकिन तब आप एक दूसरी भूल करते हैं। और वह दूसरी भूल यह है कि हमारी भूल नहीं बदलेगी। दूसरे से दुख मिला। जब दूसरे से सुख नहीं मिल सकता, तो ध्यान बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो लौटकर यह देखे कि मैं पचास रखना, दूसरे से दुख भी नहीं मिल सकता। भ्रांति एक ही है। साल जी लिया, कौन-सी आशा पूरी हुई? अगर मैंने चाहा था प्रेम, | कोई सोचता है, दूसरे से सुख मिल जाए, यह हो नहीं सकता। तो मुझे मिला? अगर मैंने चाहा था सुख, तो मैंने पाया? अगर मैंने क्योंकि सुख की सारी संभावना स्वयं से खुलती है, दूसरे से नहीं। चाही थी शांति, तो फलित हुई? अगर मैंने आनंद की आशा बांधी | खलती ही नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे कोई रेत से तेल निकालना चाहे थी, तो उसकी बूंद भी मिली? मैं पचास वर्ष जी लिया हूं, मैंने जो और न निकले। इसमें कोई रेत का कसर नहीं है। रेत में तेल है ही भी चाहा था, जो आशाएं लेकर जीवन की यात्रा पर निकला था, नहीं। दूसरे में सुख है ही नहीं। लेकिन जब दूसरे में विफलता आती जीवन के रास्ते में वह कोई भी मंजिल घटित नहीं हुई। फिर भी मैं है—जो कि आएगी ही–तो हम सोचते हैं, दूसरे से दुख मिला। उन्हीं आशाओं को बांधे चला जा रहा हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी यह दूसरी भूल है। क्योंकि जिससे सुख नहीं मिल सकता, उससे आशाएं ही दुराशाएं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो मैं चाहता हूं, वह | दुख भी नहीं मिल सकता। जीवन का नियम ही नहीं है कि मिले; और वह मैंने चाहा ही नहीं, तब दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं। सब दुख स्वयं के कारण जो कि मिल सकता था। | मिलते हैं और सब सुख स्वयं के कारण मिलते हैं। सुख और दुख हमने क्या चाहा है, उसे हम थोड़ा विस्तार में देखें, तो खयाल का केंद्र स्वयं की तरफ है। लेकिन हमारी आशा के जो तीर हैं, वे 229 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 दूसरे की तरफ लगे रहते हैं। यह वृथा आशा है; और ऐसा व्यक्ति | | अगर आपको सुख की कोई झलक मिलती है, तो वह इसीलिए मूढ़ है। मूढ़ वह इसलिए है कि वह जीवन के नियम को समझ ही | मिलती है कि कभी भूल-चूक से आप जीवन के नियम के अनुकूल नहीं पा रहा है। और जीवन का नियम प्रतिपल प्रकट हो रहा है। पड़ जाते हैं। कभी भूल से आप दीवाल से निकलना भूल जाते हैं जब भी चाहोगे दूसरे से सुख, तत्काल दुख मिलेगा। यह दुख और दरवाजे से निकल जाते हैं। या कभी ऐसा हो जाता है कि आप दूसरे से नहीं मिलता, दूसरे से सुख चाहने के कारण मिलता है। दरवाजे को दीवाल समझ लेते हैं और निकल जाते हैं। लेकिन जब आपने नियम के विपरीत चलने की कोशिश की, इसलिए दुख भी सुख फलित होता है, तो नियम की अनुकूलता से। मिल जाता है। आपने नियम के प्रतिकूल बहने की कोशिश की, वृथा आशा का अर्थ है, नियमों के प्रतिकूल आशा। जैसा मैंने टांग टूट जाती है। आपने नियम के प्रतिकूल चलने की कोशिश उदाहरण के लिए आपसे कहा, दूसरे से सुख मिल सकता है, यह की, दीवाल से सिर टकरा जाता है। इसमें दीवाल का कसूर नहीं एक वृथा आशा है। इसका चुकता परिणाम दुख होगा। और जब है। दीवाल निकलने के लिए नहीं है। निकलना हो, तो दरवाजे से दुख होगा, तो हम कहेंगे, दूसरे से दुख मिल रहा है। हम अपनी निकलना चाहिए। भ्रांति नहीं छोड़ेंगे, यह मूढ़ता है। दुख मिल रहा है, सबूत हो गया लेकिन अगर आपका एक दीवाल से सिर टकराता है, तो आप | कि मैंने जो चाह की, वह नियम के प्रतिकूल थी। तत्काल दूसरी दीवाल चुन लेते हैं कि इससे निकलने की कोशिश दूसरे से कुछ भी नहीं मिल सकता है। दूसरे से मिलने का कोई करेंगे। और जिंदगीभर दीवालें चुनते चले जाते हैं; और वह जो उपाय ही नहीं है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह हम अपने दरवाजा है, उसे चूकते चले जाते हैं। एक दीवाल से ऊबते हैं, तो ही भीतर खोदकर पाते हैं। दूसरी दीवाल को पकड़ लेते हैं। दूसरी से ऊबते हैं, तो तीसरी और दूसरी तरफ से समझने की कोशिश करें। प्रत्येक व्यक्ति दीवाल को पकड़ लेते हैं। लेकिन दीवाल को नहीं छोड़ते! अपने चारों ओर आशाओं का, इच्छाओं का एक जाल बुनता है। हर आदमी दुखी है। दुख का कारण जीवन नहीं है। दुख का अगर आशाएं टूटती हैं, जाल टूटता है, इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो कारण जीवन बिलकुल नहीं है। क्योंकि जीवन तो परमात्मा का | वह समझता है कि परमात्मा नाखुश है, भाग्य साथ नहीं दे रहा है। स्वरूप है। दुख वहां हो नहीं सकता। दुख का कारण है, जीवन के | लेकिन वह यह कभी नहीं सोचता कि मैंने जो जाल बुना है, वह जो शाश्वत नियम हैं, उनकी नासमझी। जाल गलत है। जमीन में कशिश है। आप एक झाड़ पर से गिर पड़ेंगे, तो टांग भाग्य हर एक के साथ है। भाग्य का अर्थ है, जीवन का परम टूट जाएगी। इसमें न तो झाड़ का कोई हाथ है और न जमीन का नियम, दि अल्टिमेट ला। भाग्य सबके साथ है। जब आप भाग्य कोई हाथ है। जमीन तो सिर्फ चीजों को नीचे की तरफ खींचती है। के साथ होते हैं, तो सफल हो जाते हैं। जब आप भाग्य के विपरीत आपको झाड़ पर सम्हलकर चढ़ना चाहिए। आप गिरते हैं, तो आप हो जाते हैं, तो असफल हो जाते हैं। भाग्य किसी के विपरीत नहीं जिम्मेवार हैं। आप यह नहीं कह सकते हैं कि जमीन की कशिश ने है। लेकिन हमारे जाल में ही बुनियादी भूलें होती हैं। थोड़ा अपने मेरे पैर तोड़ डाले। जमीन को कोई आपसे मतलब नहीं है। आप न | जाल की तरफ देखें। गिरे होते. तो जमीन की कशिश भीतर पड़ी रहती। वह नियम आप एक आदमी चाहता है कि धन मझे मिल तो मैं धनी हो पर लागू न होता। नियम तो काम कर रहे हैं। जब आप उनके | जाऊंगा। भीतर एक निर्धनता का बोध है हर आदमी को, एक इनर प्रतिकूल होते हैं, तो दुख उत्पन्न हो जाता है; जब उनके अनुकूल | पावर्टी है। हर आदमी को लगता है भीतर, मेरे पास कुछ भी नहीं होते हैं, तो सुख उत्पन्न हो जाता है। है; एक खालीपन, एंप्टीनेस, रिक्तता है। भीतर कुछ भी नहीं है। ध्यान रखें, सुख का एक ही अर्थ है, जीवन के नियम के जो | इसे कैसे भर लूं! इस रिक्तता को भरने की दौड़ शुरू होती है। अनुकूल है, वह सुख को उपलब्ध हो जाता है। दुख का एक ही कोई आदमी धन से भरना चाहता है। गलत जाल रचना शुरू अर्थ है कि जीवन के नियम के जो प्रतिकल है, वह दख को उपलब्ध कर दिया। क्योंकि ध्यान रहे, धन भीतर नहीं जा सकता, और भीतर हो जाता है। अगर आप दुखी हैं, तो स्मरण कर लें कि आप जीवन | है निर्धनता। और धन बाहर रह जाएगा। धन भीतर जाता ही नहीं। के आधारभूत नियम के प्रतिकूल चल रहे हैं। कभी भूल-चूक से| इसलिए एक बड़े मजे की घटना घटती है, जितना धन इकट्ठा 230 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा होता है, उतनी भीतर की निर्धनता और प्रकट होने लगती है। इसलिए अमीर आदमी से ज्यादा गरीब आदमी जमीन पर खोजना मुश्किल है । इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि अमीरों के बेटे - बुद्ध और महावीर — अमीरी को छोड़कर सड़क पर भीख मांगने चले गए। यह बड़े मजे की बात है! जैसे ही किसी मुल्क में अमीरी बढ़ती है, वैसे ही उस मुल्क में एक भीतरी दीनता का भाव गहन हो जाता है। जब तक मुल्क गरीब होता है, तब तक भीतरी गरीबी का पता नहीं चलता । आज पश्चिम के सभी विचारक आंतरिक दरिद्रता की बात करते हैं। चाहे सार्त्र, चाहे कामू, चाहे हाइडेगर, वे सभी यह कहते हैं कि आदमी भीतर बिलकुल खाली है, एंप्टी है। इसको हम कैसे भरें ? गरीब आदमी को पता चलता है, पेट खाली है; अमीर आदमी को पता चलता है, आत्मा खाली है। पेट को भरना बहुत कठिन नहीं है, आत्मा भरना बहुत कठिन है। असल में पेट खाली होता आत्मा के खाली होने का खयाल ही नहीं उठ पाता। इसलिए असली गरीबी तो उस दिन शुरू होती है, जिस दिन यह बाहरी गरीबी मिटती है। उस दिन असली गरीबी शुरू होती है। एक और गहरी गरीबी है। उस गरीबी को भरने का भाव मन में होता है। क्योंकि खाली कोई भी नहीं रहना चाहता । खाली होना पीड़ा है। भरापन चाहिए, एक फुलफिलमेंट चाहिए। कैसे उसको भरें? आदमी धन इकट्ठा करने में लग जाता है। नियम की भूल हुई जा रही है। धन इकट्ठा हो जाएगा, भीतर भर नहीं सकता। क्योंकि बैंक बैलेंस किसी भी तरह इनर बैलेंस नहीं बन सकता। वह तिजोड़ी में भरता जाएगा। आत्मा में कैसे धन जाएगा ? तो जो आदमी धन इकट्ठा करके सोचता हो कि मैं भरापन पा लूं, वह वृथा आशा कर रहा है। अगर असफल हुआ, तब तो असफल होगा ही; अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा। इसको और ठीक से समझ लें। अगर असफल हुआ, धन न कमा पाया, तब तो असफल होगा ही। क्योंकि जीवन दुख से भर जाएगा, फ्रस्ट्रेशन से, विषाद से, कि इतनी कोशिश की और धन भी न कमा पाया ! और अगर सफल हो गया, तो और भी बड़ी असफलता अनुभव होगी कि धन कमा लिया; पूरा जीवन गंवा दिया; और धन का ढेर लग गया; और मैं तो खाली का खाली हूं! कठिनाई धन में नहीं है, बुराई धन में नहीं है। धन का कोई कसूर नहीं है। आपको नियम की समझ नहीं है। आप उससे भरना चाहते भीतर की कमी को, जो भीतर नहीं जा सकता! इसमें धन का क्या | कसूर है? फिर यह पागल धन को गालियां देना शुरू करेगा। दूसरी भूल शुरू हुई। फिर यह धन को गाली देना शुरू करेगा कि धन पाप है, कि धन बुरा है, कि धन मैं छूना नहीं चाहता । यह वही की वही भूल है। धन का इसमें कोई कसूर नहीं है। धन क्या कर सकता है ? धन बाहर की चीज है, बाहर के काम आ सकता है। उसे भीतर भरने की कोशिश आपकी भूल थी, धन का कोई कसूर न था । तीसरी तरफ से देखें। एक आदमी यश पाना चाहता है, प्रतिष्ठा पाना चाहता है, अहंकार पाना चाहता है— जाना जाए कि वह कोई है ! एक अर्थ में ठीक है । खोज है यह भी आंतरिक । हर आदमी जानना चाहता है, वस्तुतः मैं कौन हूं। यह बिलकुल भीतरी भूख है। जानना चाहता है, | मैं कौन हूं। लेकिन गलत रास्ते पर जा सकता है । बजाय यह जानने के कि मैं कौन हूं, दूसरों को जनाने चल पड़े कि मैं कौन हूं। तो उपद्रव शुरू हो गया ! बजाय जानने के कि मैं कौन हूं, क्योंकि मैं | कौन हूं यह तो भीतरी खोज है, दूसरों को जनाने की कोशिश कि मैं कौन हूं... । जरा देखें, किसी राजनीतिज्ञ को आपका धक्का लग जाए, | वह आपकी तरफ आंख उठाकर कहेगा, जानते नहीं, मैं कौन हूं? | उसको खुद भी पता नहीं है। लेकिन जब वह कह रहा है, जानते नहीं, मैं कौन हूं, तो उसका मतलब है कि अखबार में रोज फोटो छपती है, फिर भी जानते नहीं, मैं कौन हूं! अभी न भी होऊं मिनिस्टर, तो कोई हर्ज नहीं। पहले मिनिस्टर रह चुका हूं, भूतपूर्व हूं, एक्स मिनिस्टर हूं! जानते नहीं, मैं कौन हूं! आदमी जानना चाहता है स्वयं कि मैं कौन हूं; यह उसकी भीतरी भूख है। लेकिन नियम की भूल हो सकती है। और तब वह आदमी | दूसरों को जनाने निकल पड़ेगा कि मैं कौन हूं। जिंदगी बीत जाएगी | दूसरों को समझाते - समझाते कि मैं यह हूं, मैं यह हूं। और आखिर में वह पाएगा, अगर सफल हो गया, तो भी असफल हो जाएगा। आखिर में पाएगा, सबने जान लिया है कि मैं कौन हूं- प्रधानमंत्री हूं, कि राष्ट्रपति हूं, कि यह हूं या वह हूं और मुझे खुद तो अभी तक पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूं। तब एक भारी विफलता हाथ लगेगी। अगर असफल हुआ, तो असफल होगा। अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा। वृथा आशा का अर्थ है, सफलता संभव ही नहीं है। चाहे जीतो, 231 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-42 चाहे हारो, हार निश्चित है। सफलता संभव ही नहीं है। तो दुनिया | | लेना-देना है? न मैंने उसे गाली देने को उकसाया, न मैंने उसे प्रेरित में जो लोग बहुत यश पा लेते हैं, बड़ी पीड़ा से भर जाते हैं। किया। मेरा कोई संबंध ही नहीं है। मैं असंबंधित हूं। मैंने बहुत जिंदगीभर कोशिश की यश को कमाने के लिए। अखबारों की | | समय पहले दूसरों की गलतियों के लिए अपने को सजा देना बंद कटिंग काटकर घर में रख लेते हैं। फाइल बना लेते हैं। फिर कोई | | कर दिया है। क्योंकि क्रोध मैं करूं, जलूंगा मैं, आग मेरे भीतर पूछता ही नहीं। फिर एक वक्त आता है कि सब जान लेते हैं। अब उठेगी। रोआं-रोआं मेरा झुलस जाएगा। प्राण मेरे कंप उठेंगे। बात समाप्त हो गई। भीतर कुछ घटित नहीं होता। भीतर कुछ घटित | रक्तचाप मेरा बढ़ेगा। रात मुझे नींद नहीं आएगी। और यह आदमी, नहीं होता। | हो सकता है, गाली देकर मजे से सो जाए। इसने अपना काम पूरा इसलिए बहुत प्रतिष्ठित लोग भीतर बहुत अप्रतिष्ठा में मरते हैं। कर लिया। बहुत यशस्वी लोग भीतर बड़ी हीनता के बोध से भर जाते हैं; बड़ी वृथा कर्म का अर्थ है, जिससे सिवाय हानि के और कुछ भी नहीं इनफीरिआरिटी पकड़ लेती है। सब जानते हैं उन्हें, वे खुद ही अपने | | होता, लेकिन फिर भी हम किए चले जाते हैं। क्यों किए चले जाते को नहीं जानते हैं! सब पहचानते हैं उन्हें, खुद ही वे अपने को नहीं हैं? एक यांत्रिक आदत के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। एक पहचानते हैं! सारी दुनिया उन्हें जान लेती है, और वे अपने से | मूर्छा, एक निद्रा पकड़े हुए है, और किए चले जाते हैं। कल भी अपरिचित खड़े हैं! पीड़ा पैदा होगी। वृथा आशा! | किया था, आज भी किया है। सौ में निन्यानबे मौके हैं कि कल भी तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ता का पहला लक्षण, वृथा आशा। | करेंगे। जीवनभर-अगर आप अपने वृथा कर्मों का अनुपात जोड़ें, वृथा कर्म। ऐसे कर्म हैं, जो वृथा हैं, लेकिन हम किए चले जाते | | तो आपको पता चलेगा कि आपका पूरा जीवन वृथा कर्मों का एक हैं। वृथा कर्म से अर्थ है, ऐसा कर्म, जिससे सिवाय अहित के और | जोड़ है। कुछ भी नहीं होता। उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध वृथा | | अहंकार के लिए हम कितने कर्म करते रहते हैं! शायद हमारे कर्म है, लेकिन रोज किए चले जाते हैं। रोज करते हैं, रोज पछता जीवन का निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा ऐसे कर्मों में संलग्न होता है, भी लेते हैं। रोज मन में तय भी कर लेते हैं कि अब नहीं करूंगा, | | जिससे हम अपने अहंकार को मजबूत करके दूसरों को दिखाना क्योंकि वृथापन समझ में आता है। लेकिन घड़ी दो घड़ी भी नहीं | चाहते हैं। चाहे हम कपड़े पहनते हों, चाहे हम मकान बनाते हों, बीत पाती है कि क्रोध फिर होता है। चाहे हम अपनी पत्नी को गहने से लाद देते हों, इन सबके पीछे, इस कर्म से आपको कोई फायदा नहीं होता। कभी किसी को नहीं | | इस सारी दौड़ के पीछे, एक मैं को प्रकट करने की चेष्टा चल रही हुआ। हो नहीं सकता है। क्योंकि क्रोध का अर्थ है, दूसरे की गलती | | है कि मैं हूं। और मैं साधारण नहीं हूं, नोबडी नहीं हूं, समबडी हूं। के लिए अपने को सजा देना। एक आदमी ने मझे गाली दे दी, यह इस मैं को मजबूत करने की कोशिश चल रही है। इस कोशिश गलती उसकी है। क्रोध मैं कर रहा हूं, सजा मैं अपने को दे रहा हूं। | में हम सारा जीवन गंवा देते हैं। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है, वृथा कर्म का अर्थ है, गलती किसी और की, अपराधी कोई और, | | सिर्फ इसलिए कि दूसरों के मकानों को छोटा करके दिखा दे। समझ सजा कोई और भुगत रहा है। लीजिए, दिखा भी दिया। दूसरों के मकान छोटे भी हो गए, आपका बुद्ध को किसी ने गाली दी। बुद्ध ने सुन ली और अपने रास्ते | मकान बड़ा हो गया। होगा क्या? इससे क्या फलित होगा? पर चलने लगे। बुद्ध के भिक्षु आनंद ने कहा, इस आदमी ने गाली | यह छोटे बच्चे जैसी दौड़ है। छोटे बच्चे अक्सर अपने बाप के दी है, इसको कुछ उत्तर नहीं देते हैं? पास टेबल पर ऊपर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा बुद्ध ने कहा, मैंने बहुत समय पहले से दूसरों की गलतियों के | हो गया। अगर आपके मकान के बड़े होने से आप पड़ोसी से बड़े लिए अपने को सजा देना बंद कर दिया है। दूसरे ने गलती की, | | होते हैं, तो इस बच्चे के तर्क में कोई गलती नहीं है। तब तो जो गाली देना उसका काम है, वह जाने। मैं कहां आता हूं? दे, न दे; | | छिपकली आपकी छत पर चल रही है, वह आपसे बड़ी हो गई! वजनी गाली दे, कम वजनी गाली दे; ताकत लगाए, न लगाए। | अगर मकान ऊंचा होने से आप बड़े हो सकते, तो बड़ा होना एकदम उसने मेहनत की। गांव से यात्रा करके रास्ते तक आया गाली देने; | आसान था। तब तो आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो दे दी। उसने अपना काम पूरा किया, वह लौट गया। मेरा क्या गई। तब तो उनके ऊपर और बादल उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो 1232 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा * गई। और चांद-तारे हैं; कहां तक ऊपर जाइएगा? और कहीं ऊंचाई, | कुछ नहीं निकलता। और सार्थक कर्म से अभी निकलता है, यहीं भौतिक ऊंचाई, भीतरी ऊंचाई से कोई संबंध रखती है? निकलता है, कल की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। अक्सर उलटा होता है। अक्सर यह होता है कि भीतरी ऊंचाई जैसा मैंने कहा, जब आप क्रोध करते हैं, तो आप भीतर जल से भरा हुआ आदमी बाहरी ऊंचाई की चिंता ही नहीं करता। क्योंकि जाते हैं। रास्ते पर चलते हुए एक अनजान बच्चे की तरफ देखकर इतना आश्वस्त होता है भीतरी ऊंचाई से कि बाहरी ऊंचाई से क्या | आप मुस्कुरा देते हैं, तो भीतर आप खिल जाते हैं। एक आदमी फर्क पड़ता है! इसलिए अक्सर अगर बाप से उसका बेटा कुर्सी पर | | रास्ते पर चला जा रहा है, उसका सामान गिर जाता है, आप उठाकर चढ़कर कहे कि मैं तुमसे बड़ा हो गया, तो बाप खुश होता है, और दे देते हैं और अपने रास्ते पर चले जाते हैं। यह कृत्य बहुत छोटा कहता है. बिलकल ठीक, जरूर बडे हो गए। अगर बाप से बेटा है. लेकिन भीतर बहत अर्थ रखता है। कत्य बिलकल छोटा है। कुश्ती लड़ता है, तो बाप चित जमीन पर लेट जाता है, बेटे को जीत | एक आदमी का छाता गिर गया है और आपने उठाकर दे दिया और जाने देता है। क्योंकि खुद की जीत इतनी सुनिश्चित है कि उसे सिद्ध | अपने रास्ते पर चले गए। कहीं कोई विराट कर्म नहीं हो गया है। करने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। बेटे को हराने में भी क्या कोई अखबारों में इसकी खबर नहीं छपेगी। इतिहास में कोई अर्थ है? हारा ही हुआ है। लेखा-खोजा नहीं होगा। लेकिन अगर बाप कभी ऐसा मिल जाए और बहुत बाप मिल | लेकिन जो आदमी दूसरे के छाते के लिए झुक जाता है, उठाकर जाएंगे, जो छोटे-से बेटे को दबाकर उसकी छाती पर बैठ जाएंगे | हाथ में दे देता है और चल पड़ता है, इसके भीतर इसी वक्त कुछ कि मैं तेरा बाप हूं, तू मुझे हराने की कोशिश कर रहा है? हो गया। दूसरे के लिए इतना करने का जो सदभाव है, वह भीतर यह जो छाती पर बेटे की बैठा हुआ बाप है, यह हार गया। इसे | | आनंद को इसी क्षण जन्म दे जाता है-इसी क्षण; कल के लिए भरोसा ही नहीं है, बाप होने का भी भरोसा नहीं है। जो गुरु अपने नहीं रुकना पड़ेगा। शिष्य को हराने में लगा हो, वह हार गया। गुरु की तो गुरुता इसमें | लेकिन हम किसी का छाता भी इतनी आसानी से उठाकर नहीं है कि शिष्य अगर लड़ने आ जाए, तो वह हार जाए और कह दे कि | दे सकते। छाता उठाकर हम खड़े होकर देखेंगे कि धन्यवाद देता है बैठ जाओ मेरी छाती पर; जीत गए तुम। या नहीं। तब हमने व्यर्थ आशा शुरू कर दी। और हम चूक गए जितना आश्वासन हो अपने भीतर की स्थिति का, यथार्थ का, एक मौका, एक शुद्ध प्रेम के कृत्य का, ए प्योर एक्ट आफ लव। उतनी ही बाहर की बातें बेमानी हो जाती हैं। लेकिन हम जो कर्म | मौका चूक गए। हमने धन्यवाद में उसको भी बेच दिया। अपेक्षा ने कर रहे हैं, वे बाहर की बातों के लिए हैं। हम सफल भी हो जाएंगे, उसे भी नष्ट कर दिया। तब हम पाएंगे कि वृथा हुआ कर्म, वृथा हुई दौड़। सार्थक कर्म वह है, जो हमारी आत्मा से सहज फलित होता है . नेपोलियन भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, सिकंदर और जिस कर्म में अनिवार्य रूप से प्रेम मौजूद होता है। व्यर्थ कर्म भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, जैसा कोई बड़े से बड़ा वह है, जो हानिकर है, और जिसमें अनिवार्य रूप से क्रोध मौजूद भिखारी हो सकता है। रहता है; या अहंकार मौजूद रहता है; या ईर्ष्या मौजूद रहती है। वे यह सारे जीवन की दौड़ का क्या हुआ? क्या है निष्पत्ति? यह सब एक ही बीमारी के अलग-अलग नाम हैं। इतना कर्म, इतने विराट कर्म का आयोजन, फल क्या है? इतनी सार्थक कर्म अगर हमारे जीवन में बढ़ जाएं, तो हमें कल के दौड़-धूप, पहुंचना कहां होता है? पसीना बहुत बह जाता है, हाथ | | लिए आशा नहीं रखनी पड़ती, आज ही हम धनी हो जाते हैं। लेकिन तो कुछ आता नहीं है! सार्थक कर्म को पहचानने का क्या रास्ता है? एक ही रास्ता है, जो कृष्ण इसे वृथा कर्म कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, यह कर्म व्यर्थ है। | कर्म इसी क्षण सारे प्राण को आनंद से भर जाए-इसी क्षण। मूढजन व्यर्थ कर्म करते रहते हैं। और ध्यान रहे, इसी क्षण केवल वे ही कृत्य आपके प्राण को सार्थक कर्म क्या है? सार्थक कर्म का अर्थ है, व्यर्थ कर्म से | आनंद से भर सकते हैं, जिन्हें पुराने धर्मशास्त्रों में पुण्य कहा है। कितना ही हम कुछ करें, कभी कुछ नहीं निकलता; और सार्थक | पाप का अर्थ है, वृथा कर्म, जिससे कभी कोई निष्पत्ति न होगी। कर्म से अभी निकलता है और यहीं निकलता है। व्यर्थ कर्म से कभी पुण्य का अर्थ है, ऐसा कर्म, जो अभी आनंद से भर जाता है। 233 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 4* लेकिन हम ऐसे बेईमान हैं और ऐसे चालाक हैं कि हम पुण्य भी वृथा कर्म की कोटि में बना लिए हैं, रख दिए हैं। हम अगर पुण्य भी करते हैं, तो इसलिए कि आगे कुछ मिले। एक आदमी अगर एक पैसा भी दान करता है, तो वह पक्का कर लेता है कि इसके कितने गुना ज्यादा मुझे स्वर्ग में मिलेगा। व्यर्थ हो गया। पुण्य का शुद्ध नृत्य, किसी आदमी को एक पैसा देने का यह छोटा-सा कृत्य भी बहुत बड़ा हो सकता था, अगर इसके पीछे कोई मांग न होती, इसके पीछे अगर कोई आशा न होती, कोई अपेक्षा न होती। सिर्फ इस घड़ी में एक आदमी पीड़ा में था और मैंने, चूंकि मेरे पास था, दे दिया था। इससे ज्यादा इसमें कुछ भी न होता, तो यह पुण्य का कृत्य था और एक फूल की तरह मेरे जीवन में खिल जाता और इसकी सुगंध कभी भी समाप्त न होती। और यह फूल कभी भी मुर्झाता नहीं। और यह मेरे प्राणों की अनिवार्य संपत्ति हो जाती। धन से प्राण नहीं भरे जा सकते, लेकिन ऐसे फूल इकट्ठे होते चले जाएं, तो प्राण भर जाते हैं। और फुलफिलमेंट, एक भरापन अनुभव होने लगता है। लेकिन मैं चूक गया। मैंने पहले पक्का कर लिया कि यह एक पैसा जो मैं दे रहा हूं, इसका कितने गुना मुझे मिलेगा। मैंने इसको भी भविष्य में खींच दिया। मैंने इसे भी वासना बना दिया। मैंने इसमें भी भविष्य को निर्मित कर लिया और आशा निर्मित कर ली। अब मैं दुख पाऊंगा। यह क्षण भी मैंने खोया, यह पैसा भी मैंने खोया, और अब यह भविष्य मुझे दुख देगा। क्योंकि कोई स्वर्ग इसके उत्तर में मिलने वाला नहीं है। स्वर्ग इतना सस्ता नहीं है। पुण्य से स्वर्ग नहीं मिलता; पुण्य स्वयं स्वर्ग है। तो पुण्यों के जोड़ से स्वर्ग नहीं मिलता ; पुण्य में होना ही स्वर्ग में होना है। पुण्य एटामिक एक्ट का नाम है; एक-एक आणविक कृत्य । बस, मुझे आनंद था, बात समाप्त हो गई। इसके आर-पार नहीं देखना है । लेकिन हम हमेशा आशा में जीते हैं। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक टर्किश स्नानगृह में स्नान करने गया। यात्रा से आया था, फटे-पुराने उसके कपड़े थे, धूल-धवास से भरा था। शक्ल पर भी धूल थी, लंबी यात्रा की थकान थी, दीन-हीन उसके कपड़े थे। तो टर्किश बाथ के सेवकों ने समझा कि कोई गरीब आदमी है। स्वभावतः, जहां आशा में आदमी जीता है, वहां अमीर की सेवा की जा सकती है, गरीब की सेवा नहीं की जा सकती । होना तो उलटा चाहिए कि गरीब की सेवा हो; क्योंकि वह सेवा की ज्यादा | उसे जरूरत है । अमीर को उतनी जरूरत नहीं है; उसे सेवा मिलती ही रही होगी। लेकिन आशा का जो जगत है...। नौकर-चाकरों ने उस पर कोई ध्यान ही न दिया । फटी-पुरानी तौलिया उसे दे दी, क्योंकि पुरस्कार की कोई संभावना न थी । उपयोग में लाया हुआ साबुन उसे दे दिया। पानी की भी किसी ने चिंता नहीं की कि गरम है कि ठंडा है। मालिश करने वाले ने भी ऐसे ही हाथ फेरा, जैसे जिंदा आदमी पर हाथ न फेरता हो। नसरुद्दीन सब देखता रहा । स्नान करके बाहर निकला। कपड़े पहने । किसी नौकर को आशा ही नहीं थी कि इससे कुछ टिप भी मिलेगी, कोई पुरस्कार भी होगा। लेकिन उसने अपने खीसे से उस देश की जो सबसे कीमती स्वर्णमुद्रा थी, वह बाहर निकाली। प्रत्येक नौकर को एक - एक स्वर्णमुद्रा दी, और अपने रास्ते पर चल पड़ा। अवाक रह गए नौकर। छाती पीट ली दुख से दुख से कह रहा हूं! छाती पीट ली दुख से । क्योंकि अगर इसकी सेवा ठीक से की होती, तो आज पता नहीं क्या हो जाता ! स्वर्णमुद्रा कभी किसी ने | नहीं दी थी। नवाब भी वहां से गुजरे थे, वजीर भी वहां से गुजरे थे। | एक-एक नौकर को एक-एक स्वर्णमुद्रा किसी ने कभी भेंट न दी थी। और इतनी सेवा की थी। और यह आदमी सब को मात कर गया। छाती पर सांप लोट गया। उस रात नौकर सो नहीं सके। | बार-बार यही खयाल आया, बड़ी भूल हो गई। अगर ठीक से सेवा की होती - सेवा तो की ही नहीं उस आदमी की— अगर ठीक से सेवा की होती, तो पता नहीं क्या दे जाता ! मुल्ला नसरुद्दीन दूसरे दिन फिर उपस्थित हुआ । और भी | फटे-पुराने कपड़े थे, और भी धूल-धंवास से भरा था। लेकिन ऐसे | उसका स्वागत हुआ, जैसे सम्राट का हो। जो श्रेष्ठतम तेल था उनके | पास, निकाला गया। जो श्रेष्ठतम साबुन थी, वह आई। नए ताजे | तौलिए आए। गरम पानी आया। घंटों उसकी सेवा हुई। घंटों उसे | नहलाया गया। वह शांत, जैसे कल नहाता रहा, वैसे ही नहाता रहा। जाते वक्त, जब जाने लगा, अपने खीसे में हाथ डाला। नौकर सब हाथ फैलाकर आशा में खड़े हो गए। जो उस देश का सबसे छोटा पैसा था, वह उसने एक-एक पैसा उनको भेंट दिया ! छाती पर पत्थर पड़ गया। वे सब चिल्लाने लगे कि तुम आदमी पागल तो नहीं हो! यह तुम क्या कर रहे हो ? कल जब हमने कुछ भी नहीं किया, तुमने स्वर्णमुद्राएं दीं। और आज जब हमने सब कुछ | किया, तो ये पैसे तुम दे रहे हो ? 234 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यह कल का पुरस्कार है। आज का | | अज्ञान में था, तो इस ज्ञान और अज्ञान में फर्क क्या है? पुरस्कार कल दे चुका हूं। आप गीता पढ़ जाएं और वही के वही आदमी रहें, जो गीता पढ़ने उस रात भी नौकर नहीं सो सके! के पहले थे, तो इस गीता के साथ जो मेहनत हुई, वह व्यर्थ गई। हम जो भी अपेक्षाएं बांधकर जीते हों। कुछ भी हो जाए, कुछ न | और इस गीता ने जो आपको दिया, वह बेकार है, दो कौड़ी का भी करें और स्वर्णमुद्रा मिल जाए, तो भी दुख होता है। कुछ करें, नहीं है। क्योंकि आप वही के वही हैं; कहीं कोई फर्क नहीं हुआ। स्वर्णमुद्रा न मिले, तो भी दुख होता है। अपेक्षा में दुख है, अपेक्षा ___ मैं देखता हूं, गीतापाठी हैं, चालीस साल से गीता पढ़ रहे हैं। में पीड़ा है। यहां बंबई में कई सत्संगी हैं. वे रोज सुबह से उठकर सत्संग करते कृष्ण कहते हैं, और वृथा ज्ञान वाले...। रहते हैं। नियमित करते रहते हैं। कौन वहां बोल रहा है. कौन नहीं वृथा ज्ञान क्या है? जो ज्ञान अपने काम न आए, वह वृथा है। | बोल रहा है, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं है, सत्संग करना उनका और हम सबके पास ऐसा-ऐसा ज्ञान है, जो काम कभी भी नहीं | | धंधा है। अपना रोज सुबह सत्संग कर आते हैं। वह वैसे ही, जैसे आता। दुनिया में ज्ञान की कोई भी कमी नहीं है। शायद जरूरत से कोई आदमी रोज सुबह उठकर चाय पीता है, कोई रोज सुबह ज्यादा है। और हर आदमी के पास पर्याप्त मात्रा में है, जरूरत से | उठकर सिगरेट पीता है, ये सत्संग करते हैं! ज्यादा है। इसलिए हरेक बांटता रहता है, हर किसी को बांटता /चालीस साल से ये सत्संग कर रहे हैं। शायद सिगरेट पीने वाले रहता है। का कुछ असर भी हुआ हो, कैंसर हो गया हो, टी.बी. हो गई हो, इस दुनिया में जितने मुक्तहस्त होकर हम ज्ञान बांटते हैं, और | वह भी इनको नहीं हुआ। कुछ नहीं हुआ इन्हें। ये सत्संग से ऐसे कोई चीज नहीं बांटते। हालांकि कोई लेता नहीं आपके ज्ञान को, | बचकर निकल जाते हैं! और इनको करवाने वाले लोग भी बैठे हुए पर आप बांटते चले जाते हैं। क्योंकि दूसरे के पास भी पहले से ही | | हैं कि वे इनको करवाते रहते हैं। वे भी इनको करवाते रहते हैं। काफी है। कोई किसी की सलाह नहीं मानता। इस दुनिया में जो उनको भी इससे प्रयोजन नहीं है। सबसे ज्यादा दी जाती है चीज, वह सलाह है। और जो सबसे कम कुछ हैं, जिनको सत्संग करवाना ही है, वह उनकी बीमारी है। ली जाती है, वह भी सलाह है। कोई नहीं मानता, लेकिन आप बांटे | | कुछ हैं, जिनको सत्संग करना ही है, वह उनकी बीमारी है। ये दोनों चले जाते हैं। तरह के बीमार मिल जाते हैं, फिर चलता रहता है ज्ञान का __ यह ज्ञान, जो आप बांटते फिरते हैं, आपके किसी काम आया लेन-देन! कहीं कोई फल नहीं होता। हां, एक फल होता दिखाई है कभी? इसका आपने कभी कोई उपयोग किया? यह ज्ञान कभी पड़ता है कि धीरे-धीरे ये सुनने वाले सुनाने वाले बन जाते हैं, यह आपके जीवन का अंतरंग हिस्सा बना? यह ज्ञान आपकी बीइंग, एक फल दिखाई पड़ता है! जो सुनते रहे काफी दिन, फिर इतना पिकी आत्मा बना? यह ज्ञान कभी आपके हृदय में धड़का और ज्ञान इकट्ठा हो जाता है कि अब उसका क्या करें? तो ज्ञान का एक आपके खून में बहा? यह ज्ञान कभी आपके मस्तिष्क की मज्जा बन ही उपयोग मालूम पड़ता है कि दूसरे को ज्ञानी बनाओ! स्वयं से पाया? या बस कोरे शब्द हैं, जो आपके भीतर गूंजते रह जाते हैं? उसका कोई लेना-देना नहीं है। आप एक ग्रामोफोन रिकार्ड हैं? अपने भीतर आप जांच करना, कौन-सा ज्ञान है, जिसने जरा खयाल करेंगे अपनी बुद्धि का तो आपको पता लगेगा कि | आपको छुआ हो, जिसने आपको स्पर्श किया हो, जिसके बाद बिलकुल ग्रामोफोन रिकार्ड हैं। कुछ है, जो डाल दिया जाता है | आप वही आदमी न रह गए हों, जो आप पहले थे; रत्तीभर भी भीतर, फिर आप उसे बाहर डालते रहते हैं। यह ज्ञान वृथा है। बदल गया हो कुछ! क्योंकि जो ज्ञान जीवन को रूपांतरित न कर जाए, आपके खुद ही | कुछ बदलता दिखाई नहीं पड़ता हो, तो कृष्ण कहते हैं, यह वृथा काम न आए, वह इस दुनिया में किसी और के काम न आ सकेगा। | ज्ञान है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति, ऐसा वृथा ज्ञानी मूढ़ है। थोड़ा-सा ज्ञान ज्ञान वही सार्थक है, जिसे जानने से ही मेरे जीवन में रूपांतरण काफी है, जो बदले। ऐसी आग को घर में जलाकर भी क्या करेंगे, हो। ज्ञान का अर्थ ही है, जो क्रांति हो जाए! जानूं और बदल जाऊं। | जिससे आंच भी न निकलती हो! एक प्याली चाय भी बनानी हो, जानूं और बदलू न, जानकर भी वही रह जाऊं, जो अनजाने में था, | | तो न बनती हो! और जला रहे हैं जिंदगीभर से, और घर में चिल्लाते [235] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 फिर रहे हैं कि आग जल रही है! कुछ नहीं होता। की तरफ हवाएं चलती हैं, तब अगर आप अपनी नाव को खोल थोड़ा-सा इंचभर भी जीवन बदलता हो, ऐसे ज्ञान की तलाश देते हैं, तो आप पश्चिम की तरफ पहुंच जाते हैं। इस जगत में पूरब करनी चाहिए; और ऐसे ही ज्ञान पर भरोसा करना चाहिए; और ऐसे की तरफ भी हवाएं चलती हैं। जरा प्रतीक्षा करें और नाव का पाल ही ज्ञान को भीतर जाने देना चाहिए। व्यर्थ के ज्ञान को भीतर नहीं जाने तब खोलें, जब पूरब की तरफ हवाएं चलती हैं, तो आप पूरब पहुंच देना चाहिए, क्योंकि भीतर कचरा भरने के लिए स्थान नहीं है। जो जाते हैं। बहुत कचरा भीतर भर लेता है, फिर कभी सार्थक भी दरवाजे पर आ । प्रतिपल जीवन में नीचे की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं जाए, तो वह कचरे की वजह से भीतर नहीं जा सकता। और ऊपर की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं। आप जिन ऐसा मैं देखता हूं बहुत लोगों को। वे मेरे पास आकर कभी कहते हवाओं का सहारा ले लेते हैं, आप उसी यात्रा पर निकल जाते हैं। हैं कि यह बात तो ठीक लगती है, लेकिन पहले जो बातें सुनी हैं, | जब कोई आपको गाली देता है, तब यह हवा दूसरी तरफ जा रही उनकी वजह से बड़ी मुश्किल हो रही है! | है। अगर आपने अभी पाल खोल दी अपनी नाव की, तो आप क्रोध __ मैं उनसे कहता हूं कि अगर पहली सुनी बातों ने तुम्हारी जिंदगी | | के जगत में उतर जाएंगे। यह आपका जिम्मा है, यह गाली देने वाले बदल दी हो, तो मेरी बात को भूल जाओ! और अगर पहली सुनी | का नहीं है। इस जगत में सब हो रहा है, यह आप पर निर्भर है। बातों ने तुम्हारी जिंदगी न बदली हो, तो कचरे की तरह उनको बाहर | | जब कोई शांत ध्यान में बैठा है, तब भी एक हवा दूसरी तरफ बह फेंक दो! इतनी हिम्मत रखनी चाहिए कि जिस ज्ञान से मेरे में कोई रही है। काश, आप भी इसके पास शांत होकर थोड़ी देर बैठ जाएं, अंतर नहीं पड़ा, उसे मैं बाहर उतारकर रख सकूँ। जिस दवा से कोई | तो शायद आपकी नाव किसी दूसरी यात्रा पर निकल जाए। फायदा न हुआ हो, बल्कि बीमारी और सघन हो गई हो, उस दवा | बुद्ध एक गांव में बहुत बार गए। उस गांव में एक दुकानदार है। को कब तक लेते रहिएगा? मित्र उसको कहते हैं कि बुद्ध आए हैं। वह कहता है कि अभी तो लेकिन बड़े खतरनाक बीमार भी हैं दुनिया में! वे बीमारी को ही दुकान पर बहुत ग्राहक हैं। कभी बुद्ध आते हैं, वह कहता है, इस नहीं पकड़ लेते, दवा तक को जोर से पकड़ लेते हैं। वे कहते हैं, बार तो लड़के की शादी है। कभी बुद्ध आते हैं, वह कहता है कि एक दफे बीमारी रहे कि जाए, लेकिन दवा को हम न छोड़ेंगे! आज तो मौसम ठीक नहीं है; आज बाहर न जा सकूँगा। कभी दवा को कोई पकड़ ले, तो उस मरीज को क्या कहिएगा? यह कहता है, आज तबियत खराब है। पागल हो गया। ज्ञान पकड़ने की चीज नहीं है, रूपांतरित होने की | | तीस वर्ष बुद्ध उस गांव से अनेक बार गुजरे, लेकिन वह आदमी है, बदलने की है, आत्मक्रांति की है, ट्रांसफार्मेशन की है। | यही कहता रहा, कभी यह कारण है, कभी वह कारण है। लेकिन तो कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान वृथा है, जिस ज्ञान से कोई अंतर इस आदमी को कोई जाकर गाली दे, ग्राहकों को छोड़कर दरवाजे नहीं पड़ता। ऐसा व्यक्ति मूढ़ है। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा | से बाहर निकल आएगा। कोई इसको गाली दे, धुआंधार वर्षा हो ज्ञान से भरे हुए मूढजन...। रही हो, फिक्र छोड़ देगा। कोई इसको गाली दे, बीमार हो, मर भी - इसके बाद वे दूसरे हिस्से में उनकी बात करते हैं, जो मूढ़ नहीं हैं।। । | गया हो, तो फिर से प्राण आ जाएंगे; बाहर निकल आएगा कि वे कहते हैं, हे पार्थ, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन, | | किसने गाली दी? लेकिन बुद्ध इसके गांव से गुजरते हैं, तो यह मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप तीस साल तक कोई न कोई बहाना खोजता रहता है। जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर भजते हैं। ___ मैं पटना में था, वहां के कलेक्टर मुझे रात ग्यारह बजे मिलने इसमें दो बातें समझ लेने की हैं। एक तो दैवी प्रकृति के आश्रित | | आए। तो मैंने उनसे कहा कि अब तो मैं सोने जा रहा हूं, बिस्तर पर हुए—यह कीमती हिस्सा है। बैठ गया हूं, आप देख ही रहे हैं। बस, अब सिर रखने की देर थी इस जगत में ऊपर की तरफ जाने वाला प्रवाह है, नीचे की तरफ और आप आ गए हैं। आप कल सुबह आठ बजे आ जाएं। उन्होंने जाने वाला प्रवाह है। आप जिस प्रवाह को चुन लेते हैं, वही प्रवाह | कहा, आठ बजे तो मैं आ ही नहीं सकता, क्योंकि आठ बजे तो मैं आपके जीवन को गतिमान करने लगता है। इस जीवन में पूरब की | सोकर ही नहीं उठता। तरफ भी हवाएं चलती हैं, और पश्चिम की तरफ भी। जब पश्चिम मैंने उनको कहा कि नौ बजे आ जाएं, क्योंकि फिर नौ से ग्यारह 2361 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा मैं उलझा रहूंगा। उन्होंने कहा, नौ बजे मैं बिलकुल नहीं आ सकता। | की तरफ भी जा सकता है, आखिरी नीचाई तक जा सकता है; और क्या तकलीफ है? वह आखिरी ऊंचाई तक भी जा सकता है। वह निम्नतम हो सकता उन्होंने कहा, नौ बजे तक तो मैं स्नान वगैरह करके कोर्ट जाने | | है और श्रेष्ठतम भी। अब यह उस पर ही निर्भर है कि वह किस की तैयारी करता हूं। धारा के वशीभूत होता है। तो मैंने उनको कहा कि आप पांच बजे आ जाएं। उन्होंने कहा दैवी धारा उसे कहते हैं, जो आपके भीतर रोज-रोज दिव्यता को कि पांच बजे भी नहीं आ सकता, क्योंकि साढ़े चार बजे तो दफ्तर | | बढ़ाती चली जाए। तो जांचते रहें अपने भीतर कि मैं जिस जीवन से लौटता हूं, थका-मांदा होता हूं। | में चल रहा हूं, उसमें मेरी दिव्यता बढ़ रही है या घट रही है? तो मैंने उनसे पूछा कि आप मुझसे मिलना चाहते हैं कि मैं आपसे __ अक्सर तो ऐसा होता है कि बूढ़े लोग कहते हैं कि बचपन बहुत मिलना चाहता हूं? कौन किससे मिलना चाहता है, यह तय हो जाए! | अच्छा था; स्वर्ग था। इसका मतलब क्या हुआ? मैं बूढ़े कवियों अनेक लोग ऐसे हैं, वे कहते हैं कि हम तो इसी वक्त नाव | को मिलता है, तो वे गीत गाते हैं बचपन के। वे कहते हैं, बचपन छोड़ेंगे; हवा को पूरब की तरफ ले जाना चाहिए। हवा को पूरब की स्वर्ग था। वह शांति! वह निर्दोषता! तरफ जाना है कि आपको पूरब की तरफ जाना है? तो जिंदगीभर कहां बहे तुम? बचपन तो शुरुआत थी यात्रा की। फिर मैंने उनसे कहा कि सोना छोड़ नहीं सकते पंद्रह मिनट | | अब बूढ़े हो गए, अस्सी साल के हो गए, अभी भी कहते हो, पहले स्नान पंद्रह मिनट पहले कर नहीं सकते; दफ्तर से थककर बचपन बड़ा निर्दोष था, तो यह पूरी जिंदगी यात्रा तुमने किस दिशा आए, तो मिलने आ नहीं सकते। तो यह जो आप कहते हैं कि मुझे में की? गलत; कहीं तुम उलटे ही बहे। अन्यथा बूढ़े आदमी को परमात्मा की तलाश है, यह परमात्मा लास्ट आइटम मालूम पड़ता कहना चाहिए कि बचपन निर्दोष था, अब महानिर्दोषता फलित हुई है! यह आखिरी, फेहरिस्त में आखिरी मालूम पड़ता है। क्योंकि | है। बचपन आनंद था, लेकिन इस आनंद के सामने कुछ भी नहीं नींद भी इससे महत्वपूर्ण है, दफ्तर भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है, था, जो आज उतरा है। तब तो यात्रा बढ़ती हुई, तब तो आप दिव्य थकान भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। तो ऐसा मालूम पड़ता है कि की ओर बढ़े। परमात्मा पर बड़ा उपकार कर रहे हैं! अगर एक आदमी बगीचे की तरफ जाता है, तो बगीचा नहीं भी कृष्ण कहते हैं, यह मूढ़ता है, यह मूढ़-भाव है। | आता. तो भी बहत पहले ठंडी हवाएं मालम पड़ने लगती हैं. तो अमूढ़, बुद्धिमान वह है, जो अपने को दैवी प्रकृति के आश्रित | | भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, कर लेता है। जो चौबीस घंटे इस खोज में रहता है कि परमात्मा की। | लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि तरफ कहां हवा बह रही है, मैं उसमें सम्मिलित हो जाऊं। मेरे सहारे बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन पक्षियों की तो शायद मैं न जा सकू। शायद अकेला मेरा इतना बल नहीं; शायद चहचहाहट सुनाई पड़ने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं; लेकिन हवा जब बह रही हो, तो मैं | करीब आया। अगर आप बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं, और पक्षियों सम्मिलित हो जाऊं। की आवाज खो जाती है, फूलों की सुगंध आनी बंद हो जाती है, हम भी खोजते हैं हवाएं, लेकिन हम वे हवाएं खोजते हैं, जो हमें फिर ठंडी हवाओं का भी पता नहीं चलता, तो एक दफा तो रुककर नर्क की तरफ ले जाएं। हवाओं का कोई कसूर नहीं है। आप खोल सोचें कि बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं कि बगीचे से विपरीत चले जा लेते हैं पालं बेवक्त, फिर दुख पाते हैं। समझदार आदमी समय पर पाल खोलना जानता है। और सदा तलाश में रहता है कि कब पाल | - हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी हमें और घने दुख में ले बंद कर ले, कब पाल को खोल ले; कब नाव को छोड़ दे; कब | | जाती है। हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह और बड़े नर्कों का द्वार नाव को रोक ले। थोड़े ही दिन में उसे पता चल जाता है कि इस | खोलती चली जाती है। तो हम विकसित होते हैं या पतित होते हैं? जीवन में दो धाराएं हैं, दो आकर्षण हैं, दो मैग्नेट्स हैं, जो काम | | हम नीचे गिरते हैं या ऊपर उठते हैं? कर रहे हैं। दैवी धारा का अर्थ है, जहां से भी, जिस परिस्थिति में भी, जिस जैसा मैंने आपको कल कहा कि मनुष्य अपूर्ण है और वह नीचे घटना में भी खड़े हों, वहां तत्काल खोजें कि इसमें दैवता की तरफ 237 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 जाने का मार्ग क्या है? और मैं आपसे कहता हूं, ऐसी कोई घटना | कुछ भी नहीं कर सकता, कोई उपाय नहीं है। आप कहां है, यह नहीं है, जहां दोनों धाराएं मौजूद न हों। | सवाल नहीं है। आपकी अंतर्धारा किस ओर बही जा रही है! एक आदमी आपको गाली देता है। आप यह भी सोच सकते हैं ___ मैंने सुना है कि एक साधु और एक वेश्या की एक साथ मृत्यु कि इस आदमी ने गाली दी। अगर ऐसे मैंने बरदाश्त कर लिया, हुई, एक ही दिन। आमने-सामने घर था। मृत्यु के दूत लेने आए, तब तो हर कोई मुझे गाली देने लगेगा। इसका मुंह बंद करना जरूरी | तो दूत बड़ी मुश्किल में पड़ गए। उन्हें फिर जाकर हेड आफिस में है। आपने एक धारा चनी। आप वहीं खडे होकर यह भी सोच पता लगाना पड़ा कि मामला क्या है। क्योंकि सकते थे कि इस आदमी ने एक ही गाली दी; सिर्फ गाली ही दी, | मालूम पड़ती है। साधु को ले जाने की आज्ञा हुई है नर्क, और वेश्या मुझे मारा नहीं। बड़ी कृपा है। आदमी बड़ा भला है। मार भी सकता को आज्ञा हुई है स्वर्ग! तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कहीं भूल हो था। आपने दूसरी धारा चुनी। | गई है! साधु बड़ा साधु था; वेश्या भी कोई छोटी वेश्या नहीं थी। प्रत्येक घटना में दोनों धाराएं मौजूद हैं, चुनाव आपका है। ऐसा | मामला सीधा साफ है, गणित में कोई गड़बड़ है। वेश्या को नर्क आदमी नहीं है बुरे से बुरा, जिसमें परमात्मा की झलक न हो। और जाना चाहिए, साधु को स्वर्ग जाना चाहिए। ऐसा आदमी नहीं है भले से भला, जिसमें आप शैतान को न खोज काश, जिंदगी इतनी सीधी होती, तो सभी वेश्याएं नर्क चली लें। चुनाव आपका है। चुनाव बिलकुल आपका है। और जो आप | | जातीं और सभी साधु स्वर्ग चले जाते। लेकिन जिंदगी इतनी सीधी चुनेंगे, वही आपके जीवन का प्रवाह हो जाएगा। . नहीं है, जिंदगी बहुत जटिल है। तो कृष्ण कहते हैं, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन | ऊपर से पता लगाकर लौटे। खबर मिली कि वही ठीक आज्ञा है, वेश्या को स्वर्ग ले आओ, साधु को नर्क। उन्होंने पूछा, थोड़ा और महात्मा का इतना ही अर्थ होता है कि जो दैवी प्रकृति के हम समझ भी लें, क्योंकि हम बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। तो दफ्तर आश्रित हुआ, जो अब सब जगह दैवता का मार्ग खोजता है, जो से उन्हें खबर मिली कि तुम जरा नए दूत हो; तुम्हें अनुभव नहीं है। सब जगह मंदिर की तलाश करता है। पहले ही दिन ड्यूटी पर गए थे। पुरानों से पूछो! यह सदा से होता मैंने लोगों को मंदिर में जाते देखा है। वहां वे पता नहीं क्या आया है; यही नियम है। फिर भी उन्होंने कहा, थोड़ा हम समझ लें। तलाश करते हैं। अगर मंदिर में बैठे हुए लोगों की बातचीत सनें, तो पता चला कि जब भी साध के घर में सबह कीर्तन होता. तो तो पता चलेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं! साधु समझा रहे हैं, उनके वेश्या रोती अपने घर में। सामने ही घर था। रोती, रोती इस मन से आस-पास बैठी हुई स्त्रियों की बातचीत सुनें कि वे क्या बातचीत कि मेरा जीवन व्यर्थ गया। कब वह क्षण आएगा सौभाग्य का कि कर रही हैं? ऐसे कीर्तन में मैं भी सम्मिलित हो जाऊं! मन भी होता, तो कभी स्त्रियां इसलिए कह रहा हूं कि पुरुष तो अब साधुओं को सुनने द्वार के बाहर निकल आती। साधु के मंदिर के पास कान लगाकर जाते ही नहीं, इसलिए उनकी बात छोड़ दें। या जाते भी हैं, तो कुछ खड़ी हो जाती दीवाल के। लेकिन मन में ऐसा लगता कि मुझ जैसी अपनी पत्नी के पीछे चले जाते हैं, कुछ दूसरों की पत्नियों के पीछे | | पापी मंदिर में कैसे प्रवेश करे! तो कहीं साधु को पता न चल जाए, चले जाते हैं। साध से कछ लेना-देना नहीं होता। इसलिए चुपचाप छिप-छिपकर कीर्तन सुन लेती। मंदिर की सुगंध ये जो बैठे हुए लोग हैं, इनसे पूछे कि वहां किसलिए जाते हैं? | उठती, धूप जलती, मंदिर के फूलों की खबर आती, मंदिर का घंटा क्या बात करते हैं? क्या सोचते हो मंदिर में बैठकर? चर्च में भी | बजता; और चौबीस घंटे, पूरे जीवन वेश्या मंदिर में रही। चित्त बैठकर चिंतन क्या चलता है? मस्जिद में भी भीतर क्या होता रहता | | मंदिर में घूमता रहा, घूमता रहा, घूमता रहा। और एक ही कामना है? क्योंकि मस्जिद काम नहीं आएगी; वह जो भीतर हो रहा है, | | थी कि अगले जन्म में चाहे बुहारी ही लगानी पड़े, पर मंदिर में ही वही काम आएगा। जन्म हो। मंदिर के द्वार पर ही! वेश्या के घर में भी बैठकर अगर भीतर दैवी आश्रित कोई बह। साधु भी कुछ पीछे न थे वेश्या से। जब भी वेश्या के घर रात रहा हो, तो शायद परमात्मा तक पहुंच जाए। और मंदिर में भी | | राग-रंग छिड़ जाता, आधी रात होती, तो वे करवट बदलते रहते! बैठकर अगर भीतर कोई उलटी धारा में जा रहा हो, तो परमात्मा वे सोचते, सारी दुनिया मजा लूट रही है। हम कहां फंस गए! और | 238| Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा सामने ही, भगवान! सामने के सामने ही आनंद लुटा जा रहा है | भी टांग लेते हैं। और एक हम मुसीबत में फंस गए। यह साधुता कहां से ले फंसे! असली सवाल भगवान नहीं है; असली सवाल भक्त है। कई बार भाग जाते निकलकर घर से; वेश्या के घर का चक्कर लगा| | भगवान तो केवल निमित्त है। क्योंकि उसके बिना भक्त होना आते। भीतर घुसने की कोशिश भी करते, तो हिम्मत न होती कि मैं | | मुश्किल हो जाएगा। वह तो केवल सहारा है। साधु, भीतर कैसे जा सकता हूं! कोई देख न ले! | इसलिए योग के जो पुराने शास्त्र हैं, वे बहुत अदभुत हैं। वे वेश्या मंदिर में रही, साधु वेश्यालय में रहे। देखा किसी ने नहीं | | कहते हैं कि भगवान भी एक साधन है; वह भी एक उपकरण है, यह, क्योंकि यह घटना भीतर की है। और जो बाहर से तौलते हैं, जस्ट ए मीन्स। परम उपलब्धि के लिए, जीवन के परम आनंद की वे नहीं देख पाएंगे। उपलब्धि के लिए भगवान भी एक उपकरण है, एक साधन है। और महात्मा, कृष्ण उसे कहते हैं, जो दैवी प्रवाह में है। जो शुभ की, | | ऐसे लोग भी हुए हैं, जैसे कि बौद्ध हैं या जैन हैं; वे कहते हैं, सौंदर्य की, सत्य की, सब दिशाओं से खोज करता रहता है। | | भगवान के बिना भी चला लेंगे। जिसका चुनाव शुभ का है। अशुभ दिखाई भी पड़े, तो आंख बंद | लेकिन भगवान के बिना भक्त होना बहुत मुश्किल है। भगवान कर ले देखाई न भी पडे. तो भी देखता है। धीरे-धीरे के होते हए भक्त होना मश्किल है. तो भगवान के बिना भक्त होना सारा जगत शुभ हो जाता है। बहुत मुश्किल हो जाएगा। महावीर ने चला लिया, लेकिन महावीर सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप | के भक्त नहीं चला पाए। उनको फिर महावीर को ही भगवान बना जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर मुझे भजते हैं। लेना पड़ा। महावीर ने कहा, कोई भगवान की जरूरत नहीं, कुछ भी वे करते हों, कुछ भी वे सोचते हों, एक बात निरंतर, | | उपासना काफी है, साधना काफी है, सदभाव काफी है, सत्य काफी सब ओर, मैं उन्हें दिखाई पड़ता हूं। सबमें आत्यंतिक कारण की | है। और कोई जरूरत नहीं है। भांति छिपा हुआ, सबके भीतर सनातन मूल की तरह अप्रकट, सब | | महावीर बहुत सबल व्यक्ति हैं, वे बिना भगवान के भक्त हो स्थितियों में, सब दशाओं में मेरा भजन उनके चित्त में अनन्य रूप | | सके। बड़ा कठिन है। कठिन ऐसा है कि प्रेमी मौजूद न हो, प्रेमिका से चलता रहता है। मौजूद न हो और आप प्रेमी हो सकें। हो सकते हैं; कठिन नहीं है। __ और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों | | जब कोई आदमी पूरे प्रेम से भरा होता है, तो इससे कोई फर्क नहीं का कीर्तन करते हुए, तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और पड़ता है कि प्रेमी पास है या नहीं है। न हो, तो भी प्रेम तो मौजूद मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए | ही रहेगा। कोई प्रेमी के कारण तो प्रेम पैदा होता नहीं। प्रेम तो भीतर भक्ति से मुझे उपासते हैं। होता है; उसके कारण प्रेमी पैदा होता है। लेकिन हमारा प्रेम तो ऐसा इसमें दो-तीन बातें समझ लेने की हैं। है कि प्रेमी क्षणभर को हट जाए, तो प्रेम खो गया! एक, परमात्मा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; आप भक्त हो | वह था ही नहीं। धोखा था, प्रवंचना थी, बहाना था। एक शक्ल सकते हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। इसे फिर से दोहरा दूं, परमात्मा | थी, एक चेहरा था, कोई अंतर-अवस्था न थी। न हो, चलेगा। आप भक्त न हुए, नहीं चलेगा। भगवान मूल्यवान बुद्ध बैठे हैं एक जंगल में। कोई निकले या न निकले; रास्ते से नहीं, भक्त मूल्यवान है। कोई गुजरे या न गुजरे; उनकी करुणा तो बरसती ही रहेगी; उनका ऐसा समझें कि भगवान तो खूटी की तरह है, भक्त टांग दिए | | प्रेम तो झरता ही रहेगा। जैसे निर्जन में एक फूल खिले; रास्ते पर कपड़े की भांति है। खूटी के लिए तो कोई खूटी नहीं लगाता, कपड़ा | कोई न निकले, तो भी फूल तो खिला ही रहेगा; सुगंध तो फैलती टांगने के लिए कोई लगाता है। कपड़ा टांगने को ही न हो, तो खूटी ही रहेगी। फूल यह तो नहीं सोचेगा कि बंद करो दरवाजे, कोई व्यर्थ है। और कपड़ा टांगने को हो, तो हम किसी भी चीज को खूटी | ग्राहक तो दिखाई नहीं पड़ता! फूल कोई दुकानदार तो नहीं है। बना सकते हैं। जिस घर में खूटी नहीं होती, लोग दरवाजे पर टांग | | ठीक ऐसे ही, प्रेमी भी हो सकता है बिना प्रेम-पात्र के, लेकिन देते हैं, खिड़की पर टांग देते हैं, खीली पर टांग देते हैं। खूटी हो, बड़ा कठिन है। प्रेम-पात्र के साथ होते हुए हम प्रेमी नहीं हो पाते, कपड़ा ही न हो, तो क्या टांगिएगा? कपड़ा हो, खूटी न हो, तो कहीं | तो बिना उसके बहुत कठिन होगा। कोई महावीर कभी हो सकता 239 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 है। इसमें कठिनाई नहीं है। महावीर हो सके, वे पा सके परम | उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। उपासना का अर्थ अवस्था बिना भगवान की धारणा के; भगवान को पा सके बिना | होता है, उसके पास बैठना। कहीं भी बैठे हों, अगर अनुभव करें भगवान की धारणा के। लेकिन उनके पीछे का आदमी तो नहीं पा | कि परमात्मा के पास बैठे हैं, तो उपासना हो गई। घर में बैठे हों, सकेगा; फिर उसे कठिनाई हुई। कोई भगवान नहीं रहा जैन विचार | | कि मंदिर में, कि जंगल में, कहीं भी बैठे हों, अगर उसकी उपस्थिति में, तो फिर महावीर को भगवान की तरह मानकर पूजा करनी शुरू | अनुभव कर सकें, अगर अनुभव कर सकें उसका स्पर्श-कि करनी पड़ी। | हवाओं में वही छूता है, और सूरज की किरणों में वही आता है, खंटी तो चाहिए ही। भक्त हआ नहीं जा सकता बिना भगवान | और पक्षियों के गीत में उसी के गीत हैं, और वृक्षों में जो सरसराहट के; भगवान होना चाहिए। होती है हवा की, पत्ते जो कंपते हैं, वही कंपता है; सागर की जो कृष्ण कहते हैं कि ये जो भक्तजन हैं, यह जो भक्ति की धारा है, | लहर हिलती है, यह उसी की तरंगें हैं-अगर ऐसी प्रतीति हो सके, यह जो सतत अनन्य चिंतन है, यह जो परमात्मा का स्मरण तो उपासना हो गई। है-उसके नाम का, उसके गुणों का; उसकी स्तुति है—यह भक्त उपासना का अर्थ यह नहीं कि गए मंदिर में, घंटा बजाया, पूजा के हृदय को निर्मित करती है। | की; घर लौट आए। ऐसा भी नहीं है कि उसमें उपासना नहीं हो ठीक वैसे ही, जैसे बीज को हम बो देते हैं। वृक्ष तो बीज में छिपा | सकती है। उसमें हो सकती है। लेकिन जितनी जल्दबाजी में आदमी होता है, वृक्ष बाहर से नहीं आता, वह तो बीज में छिपा होता है;। घंटे बजाते हैं, उससे शक होता है। जितनी जल्दी में घंटा बजाते हैं, लेकिन अगर पानी न डाला जाए, और अगर सूरज की धूप न मिले, | जितनी जल्दी में पूजा-प्रार्थना करते हैं! तो वह जो छिपा है, वह भी प्रकट नहीं हो पाता। और अगर प्रकट और देखें उनकी पूजा-प्रार्थना का जो समय है, वह काफी भी हो जाए, और अगर माली का सहारा न मिले, और माली की | फ्लेक्सिबल होता है। कभी जब उन्हें फुर्सत होती है, या पत्नी से सुरक्षा न मिले, तो प्रकट हो जाए, तो भी टूट जाता है। घर झगड़ा हो गया हो, या दुकान आज बंद हो, या आज अदालत जो है, वह तो बीज में है, लेकिन गौण सहारे आस-पास खड़े | न जाना हो, तो उपासना लंबी हो जाती है। आज जल्दी दफ्तर करने होते हैं। एक दिन जरूर बीज इतना बड़ा वृक्ष बन जाता है कि पहुंचना हो, उपासना सिकुड़कर छोटी हो जाती है। संक्षिप्त में भी फिर पशुओं का डर नहीं रहता; कि फिर उसे कोई तोड़ सकेगा, | | निपटा देते हैं। जल्दी से घंटी बजाई है, जल्दी से सब किया है! इसका भय नहीं रहता। फिर वर्षा न भी हो, तो अब बीज वर्षा के जो और भी ज्यादा जल्दी में हैं और जिनके पास सुविधा है, वे भरोसे नहीं है। अब उसने अपनी जड़ें फैला ली हैं। वह दूर नीचे | | खुद उपासना नहीं करते, नौकर-चाकर रख लेते हैं, उनसे करवा पाताल तक पहुंच गया है। अब वह अपना पानी खुद खींच सकता | देते हैं। पंडित हैं, पुजारी हैं, उपासना के लिए आप बीच में दलाल है। अब सूरज कुछ दिन न भी निकले, तो वृक्ष को बहुत चिंता नहीं | रख लेते हैं। भगवान से आपको लेना-देना है, पंडित-पुजारी को है। अब उसने सूर्य की बहुत-सी ऊर्जा को छिपाकर अपने भीतर | आपसे कुछ लेना-देना है; दोनों के बीच संबंध हो जाता है, राशि-कोष निर्मित कर लिए हैं। अब वह उनसे काम चला लेगा। समझौता हो जाता है, सौदा हो जाता है। वह कहता है, हमें आप अब माली भूल भी जाए और छूट भी जाए, तो वृक्ष अब अपनी | | इतना दे देना, हम इतनी उपासना कर देंगे। और आप निश्चित हैं खुद ही सुरक्षा करने में समर्थ हो गया है। लेकिन बीज ये बातें नहीं | कि उपासना चल रही है! कर सकता। उपासना भी उधार हो सकती है? उपासना का अर्थ है, खुद तो महावीर तो वृक्ष जैसे व्यक्ति हैं, इसलिए बिना ईश्वर के चला | | उसके पास होना। दूसरा उसके पास कैसे होगा? और वह दूसरा लेते हैं। कोई कठिनाई नहीं आती। और ईश्वर को पा लेते हैं। | भी हो सकता था, उसको उसकी चिंता नहीं है। उसको चिंता आपसे लेकिन हम तो छोटे-छोटे बीज हैं, इनके लिए आस-पास बहुत | पैसे लेने की है। वह जब उपासना कर रहा है मंदिर में, तब वह तरह की व्यवस्था चाहिए। गिनती कर रहा है, महीने के कितने दिन-बाकी बचे, कि आज तो कृष्ण कहते हैं, ईश्वर की धारणा, ईश्वर की तरफ उन्मुखता, । तनख्वाह का दिन आ गया कि नहीं आ गया: कि वह देख रहा है. उपासना उपयोगी है। यहां से उपासना करके दूसरे के घर जाना है, फिर तीसरे के घर जाना 240 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी या आसुरी धारा * है। दिन में एक पंडित दस-पांच घरों को निपटा देता है! निपटाना | हो जाए, अगर ये पापी जो हैं, पाप न करें। इसलिए उसको काम में है उसे। लगाए रखने के निमित्त ये बाहर आकर पाप किए चले जाते हैं। इसलिए ध्यान रहे, पुजारी परमात्मा से जितने दूर रह जाते हैं, | नहीं, कोई उससे प्रयोजन नहीं है। उसके गुणों की स्तुति का उतना शायद ही कोई रह पाता हो। क्योंकि पुजारी को प्रयोजन ही नहीं मतलब यह नहीं है कि हम एक खुशामद करें। स्तुति खुशामद नहीं रह जाता। उसका मतलब कुछ और है। यह उसके लिए धंधा है। । | है, वह फ्लैटरी नहीं है। और परमात्मा की आप कभी भी खुशामद उपासना आप उधार नहीं करवा सकते, आपको ही करनी नहीं कर सकते। क्योंकि खुशामद आप उसी की कर सकते हैं, पड़ेगी। और ऐसी उपासना का कोई मूल्य नहीं है कि मंदिर में तो जिसके और आपके बीच मूल्यों की समानता हो। परमात्मा के निकट होते हों और मंदिर के बाहर निकलते ही आप एक आदमी के पास जाकर कह सकते हैं कि आप जैसा परमात्मा खो जाता हो। ऐसी उपासना से क्या होगा? अगर वह है, महान कोई भी नहीं है। और वह खुश होगा, क्योंकि वह अहंकार तो सब जगह है। और अगर नहीं है, तो कहीं भी नहीं है; मंदिर में की तलाश में है। परमात्मा से आप यह कहकर उसे खुश न कर भी नहीं है। अगर नहीं है, तो सब मंदिर व्यर्थ हैं। और अगर है, तो | | पाएंगे कि आपसे महान कोई भी नहीं है। क्योंकि अहंकार की कोई सारी पृथ्वी, सारा जगत उसका मंदिर है। | तलाश नहीं है। और आप कितना भी कहें, वह जितना विराट है, इन दो के बीच उपासक को चुन लेना चाहिए। या तो वह समझ | | आपके शब्द उतना विराट होना प्रकट न कर पाएंगे। और वह ले कि वह मंदिर में भी नहीं है; और या फिर वह जान ले कि जहां | जितना महान है, आपके कोई शब्द उसको छू न पाएंगे। इसलिए भी अस्तित्व है, वहीं वह है। और उसकी यह जो खोज चलती रहे, | आपके कहने का कोई मतलब नहीं है। जहां भी वह है।... उसकी स्तुति का क्या अर्थ है? उसकी प्रार्थना का क्या अर्थ है? एक वृक्ष के पास बैठे, तो भी परमात्मा के पास बैठे। और एक उसके गुणों के कीर्तन का क्या अर्थ है? पशु के पास खड़े हों, तो भी परमात्मा के पास खड़े हों। एक मित्र बड़े अलग अर्थ हैं। बड़े अलग अर्थ हैं। पास हो, तो भी परमात्मा पास हो; और एक शत्रु पास हो, तो भी मंसूर निकल रहा है एक गली से, एक सूफी फकीर। फूल खिला परमात्मा पास हो। आपके लिए वही रह जाए। जितना यह बढ़ता है। खड़ा हो गया मंसूर। हाथ जोड़े, आकाश की तरफ देखा। उसके चला जाए विस्तार, जितनी यह प्रतीति उसकी गहन होती चली साधकों ने पूछा, यहां किसको हाथ जोड़ रहे हैं? कोई मस्जिद नजर जाए, उतने ही आप उपासना में रत हो रहे हैं। नहीं आती! मंसूर ने कहा, फूल खिला है, प्रभु की कृपा! अन्यथा उसके गुणों की चर्चा उपयोगी होगी। लेकिन हम गुणों की क्या | फूल कैसे खिल सकते हैं! चर्चा करते हैं? हम उसके गुणों की चर्चा कम करते हैं। हम गुणों यह कीर्तन है। की चर्चा में भी अपना हिसाब ज्यादा रखते हैं। मंदिर में मैं सुनता हूं ___ सूरज निकला है, मंसूर हाथ जोड़े खड़ा है। साथी कहते हैं, क्या लोगों को जाकर, वे कहते हैं कि हम पापी हैं और तुम पापियों का कर रहे हैं? क्या मूर्तिपूजक हो गए! मंसूर कहता है, सूरज निकल उद्धार करने वाले। इन्हें उसकी चर्चा से कम प्रयोजन है। इन्हें रहा है। इतना प्रकाश, इतना प्रकाश, प्रभु की कृपा है! प्रयोजन इसका है, इनको एक बात का पक्का है कि ये पापी हैं! यह स्तुति है। इसका बिलकुल पक्का नहीं है कि वह पापियों का उद्धार करने मंसूर मर रहा है, उसके हाथ-पैर काट दिए गए हैं। वह आकाश वाला है। ये तो केवल अपने पापों से बचाव का उपाय खोज रहे | | की तरफ आंखें उठाकर मुस्कुरा देता है। भीड़ पूछती है, यह तुम हैं। ये अपने पापों से बचाव का उपाय कर रहे हैं। इन्हें उसमें क्या कर रहे हो? दुश्मन इकट्ठे हैं, वे उसको मार रहे हैं। मंसूर उत्सुकता नहीं है। कहता है, प्रभु की कृपा है! क्योंकि इधर तुम मुझे मार रहे हो, उधर और मजा यह है कि बाहर निकलकर मंदिर के, ये कोई पापों में | | वह मुझे मिलने को बिलकुल तत्पर खड़ा है। इधर तुम मुझे कमी करने वाले नहीं हैं। अब ये बड़े निश्चित हैं, क्योंकि वह पापियों| | गिराओगे, उधर मैं उसमें डूब जाऊंगा। प्रभु की बड़ी कृपा है। और का उद्धार करने वाला है। अगर ये पाप न करेंगे, तो वह बेचारा शायद तुम सहायता न करते मुझे मारने में, तो मुझे पहुंचने में थोड़ी किसका उद्धार करेगा! परमात्मा भी खाली पड़ जाए, अनएंप्लायड देर भी हो जाती। 24] Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 यह स्तुति है। कह रहा है कि तेरी बड़ी कृपा है। ऐसे तो मैं आदमी ऐसा हूं कि जीसस को सूली लग रही है। और सूली पर आखिरी क्षण वे फांसी भी लगे, तो कम है। तूने इतने में ही बचा लिया! कहते हैं, हे परमात्मा, इन सबको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता | यह उसको बार-बार नमन है। और ऐसे भाव में जो जीएगा नहीं, ये क्या कर रहे हैं! सतत, अगर उसकी जिंदगी क्रमशः उस परमात्मा की तरफ बहने यह उसका गुणगान है। यह उसका कीर्तन है। यहां भी अनुकंपा | | लगे, तो... ही जीसस को खयाल में आती है। (किसी व्यक्ति ने उठकर मंसूर के संबंध में कुछ उलटा-सीधा जीवन में कोई भी अवसर न जाए जब हम उसकी अनुकंपा को | प्रश्न पूछा, निकट बैठे लोगों ने उसे पागल समझ वापस बैठा अनुभव न करें। दुख हो कि सुख, शांति हो कि अशांति, सफलता दिया। इस पर भगवान श्री ने हंसते हुए उसे समझाकर अपनी बात मिले कि असफलता, रात हो कि दिन, सूरज उगता हो कि ढलता जारी रखी।) हो–उसकी अनुकंपा हमें प्रतीत होती रहे, उसके गुणों का एक कुछ फिक्र न करिए। कोई मंसूर के प्रेमी आ गए हैं। उन पर सरगम हमारे भीतर बजता रहे, तो स्तुति है, तो कीर्तन है। हम जीएं नाराज मत हो जाइए। उन पर नाराज हो गए, तो आसुरी प्रवृत्ति की कैसे ही, लेकिन भीतर एक सतत स्मरण उसका बना रहे। उसके तरफ बहना शुरू हो जाता है। उन पर खुश हो जाइए। एक मौका स्मरण से हम न चूकें, तो उसका स्मरण है। | आपको दिया नाराज होने का, अगर नहीं हों, तो यात्रा दूसरी तरफ कष्ण कहते हैं. ऐसे दढ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरा शुरू हो जाती है। कीर्तन करते हुए मुझे बार-बार नमस्कार करते हुए...। जीवन प्रतिपल एक चुनाव है। परमात्मा की तरफ, हर जगह से बार-बार कैसे नमस्कार करिएगा? जहां भी आपको उसकी हम खोज लें। अब ये सज्जन आ गए, उनमें भी हम शैतान को देख अनुकंपा अनुभव हो-और कहां उसकी अनुकंपा नहीं अनुभव | सकते हैं; उनमें भी हम पागल को देख सकते हैं; उनमें भी हम होगी? अनुभव करने की दृष्टि हो, तो सब जगह उसकी अनुकंपा | परमात्मा को देख सकते हैं। हम पर निर्भर करेगा, उन पर निर्भर अनुभव होगी। नहीं है। वे पागल हैं कि नहीं हैं, यह उनकी बात है। लेकिन हम यह मंसूर जा रहा है एक रास्ते से। पैर में पत्थर लग गया है, लहूलुहान | देख सकते हैं, उनकी इस वृत्ति में भी हमें एक मौका है, अगर हम हो गया। वहीं बैठकर, हाथ जोड़कर घुटने टेक दिए हैं। साथियों ने | | उनमें भी उसकी ही अनुकंपा अनुभव करें। उन्होंने सिर्फ कहा, कहा, क्या करते हो? पागल हो गए हो! पैर से लहू बह रहा है। आकर पत्थर ही मार सकते थे। उन्होंने सिर्फ कहा, कुछ और तो मंसूर ने कहा, जहां तक मैं जानता हूं, जैसा मे आदमी हूं, मुझे | किया नहीं। जैसे हम आदमी हैं, इनके साथ कुछ भी किया जाए, फांसी होती तो भी कम था। उसकी कृपा है। फांसी बची, सिर्फ पैर | तो थोड़ा है। में जरा-सा पत्थर लगा है। जैसा मैं आदमी हूं, उसे तो फांसी भी जीवन में हर घड़ी चुनते रहें, जहां से उसकी स्तुति और उसका हो, तो कम है। उसकी कृपा है कि फांसी बच गई और पैर में सिर्फ स्मरण हो सके, तो एक दिन भीतर वह सघन भाव उपस्थित हो पत्थर लगा है। जाता है भक्त का, जो कि द्वार है भगवान के अनुभव के लिए। अगर आपके पैर में पत्थर लगता, तो मालूम है आपके मुंह से आज इतना ही। क्या निकलता? आपके मुंह से गाली निकलती। सारी दुनिया उस - लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन करेंगे। एक बात कह दूं, क्षण में बिलकुल बेकार हो जाती। सारा जीवन असार हो जाता। बीच में जब कीर्तन चले, तो आप उठे मत। कोई एक खड़ा हो अगर आपका वश चले, तो आप उस वक्त पूरी दुनिया में आग लगा | | जाता है, तो पीछे लोगों को खड़ा होना पड़ता है। दें, सब नष्ट-भ्रष्ट कर दें। नहीं चलता वश, बात अलग है। लेकिन | दूसरी बात, यहां नीचे जो लोग भी आकर खड़े होते हैं, वे अगर भीतर तो सोच लेते हैं। जरा-सा दांत में दर्द हो जाए, तो जगत में कीर्तन में नाचते हों, तो ही खड़े हों। आकर खड़े होकर देखना नहीं ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता। जरा-सी सिर में पीड़ा हो जाए, तो जगत है। फिर वहीं बैठकर देखते रहें। यहां नीचे भी कोई आकर खड़ा एकदम नास्तिकता से भर जाता है, सब अंधेरा हो जाता है। | नहीं होगा। कीर्तन में सम्मिलित होना हो, तो आ जाएं! यह मंसूर कुछ और ढंग का आदमी है। यह हाथ जोड़कर उससे | 242 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 छठवां प्रवचन ज्ञान, भक्ति, कर्म Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-42 ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। ही यह भ्रांति भी भर जाती है कि जिस मार्ग से मैं जा रहा हूं, वही एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। १५ ।। | सही है, वैसे ही उपद्रव शुरू हो जाता है। शायद इतने से भी उपद्रव अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् न हो, अगर मैं यह जानं कि यह मार्ग मेरे लिए सही है। मेरे लिए मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् । । १६ ।। | यही मार्ग सही है। लेकिन अहंकार यहीं तक रुकता नहीं। अहंकार कोई तो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान-यज्ञ के द्वारा | एक निष्कर्ष अनजाने ले लेता है कि जो मेरे लिए सही है, वही पूजन करते हुए एकत्व भाव से अर्थात जो कुछ है सब | सबके लिए भी सही है। वासुदेव ही है, इस भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथकत्व ___ इसलिए धर्मों के नाम से जो उपद्रव है, वह धर्मों का नहीं, भाव से अर्थात स्वामी-सेवक भाव से और कोई-कोई | अहंकारों का उपद्रव है। मेरा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता अनेक प्रकार से भी उपासते हैं। | कि कोई और ढंग भी सही हो सकता है। यही मानने को तैयार नहीं क्योंकि श्रोत-कर्म अर्थात वेदविहित कर्म में हं, यज्ञ में हूँ, | होता कि मेरे अतिरिक्त कोई और भी सही हो सकता है। तो मेरा ही स्वथा अर्थात पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूं, | रास्ता होगा सही, मेरी उपासना पद्धति होगी सही, मेरा शास्त्र होगा औषधि अर्थात सब वनस्पतियां में हं एवं मंत्र में हं.चूत में | सही। लेकिन मेरा यह सही होना तभी मुझे रस देगा, जब मैं सब हूं, अग्नि में हूं और हवनरूप क्रिया भी में ही हूं। दूसरों को गलत कर डालूं। और ध्यान रहे, जो दूसरों को गलत करने में लग जाता है, उसकी शक्ति और ऊर्जा उस मार्ग पर तो चल ही नहीं पाती, जिसे उसने गर्ग हैं अनेक, गंतव्य एक है। यात्रा-पथ बहुत हैं, यात्री | | सही कहा है; उसकी शक्ति और ऊर्जा उनको गलत करने में लग Oil भी बहुत हैं, यात्रा की विधियां भी बहुत हैं; लेकिन जाती है, जिन पर उसे चलना ही नहीं है। जब तक यात्री नहीं मिट जाता, यात्रा-पथ नहीं मिट | ___ यह उपद्रव और भी गहन हो गया, क्योंकि हमने धर्मों को जाता, यात्रा की विधियां नहीं मिट जाती, तब तक वह उपलब्ध नहीं| जन्मजात बना लिया। धर्म जन्मजात नहीं हो सकता। धर्म तो होता, जो गंतव्य है। व्यक्तिजात होगा। कोई व्यक्ति पैदाइश से न हिंद हो सकता है. न परमात्मा तक पहुंचने के लिए दो व्यक्तियों के लिए एक ही मार्ग मुसलमान हो सकता है; न ईसाई हो सकता है, न जैन हो सकता नहीं हो सकता, असंभव है, क्योंकि दो व्यक्ति भिन्न हैं। वे जो भी है। पैदाइश से तो केवल संभावना लेकर पैदा होता है कि धार्मिक करेंगे, भिन्न होगा; वे जैसे भी करेंगे, भिन्न होगा। और हमें यात्रा हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। वहां से शुरू करनी होती है, जहां हम हैं। ये दो संभावनाएं होती हैं, ये दो दरवाजे खुले होते हैं-धार्मिक मैं वहीं से यात्रा शुरू करूंगा, जहां मैं हूं। आप वहां से यात्रा | हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। लेकिन हिंदू या मुसलमान शुरू करेंगे, जहां आप हैं। हमारी यात्रा का प्रारंभिक बिंदु एक नहीं। या ईसाई पैदाइश से कोई नहीं होता। हो भी नहीं सकता। क्योंकि पिता हो सकता, क्योंकि दो व्यक्ति एक ही जगह खड़े नहीं हो सकते। का धर्म, या पिता की मान्यता खून से बच्चे में प्रवेश नहीं करती। लेकिन यात्रा का अंतिम पड़ाव एक हो सकता है, क्योंकि उस पड़ाव | और हम किसी आदमी की हड्डियों और खून की जांच करके नहीं कह पर व्यक्ति मिट जाते हैं। व्यक्तियों के मिटते.ही व्यक्तियों की | सकते हैं कि ये मुसलमान की हैं, कि हिंदू की हैं, कि जैन की हैं। भिन्नता मिट जाती है। एक व्यक्ति के शरीर की हम सारी जांच-पड़ताल कर डालें. उसके __जब तक मैं व्यक्ति हूं, तब तक मैं जो भी करूंगा वह भिन्न | जीवकोष्ठों में प्रवेश कर जाएं, उसके मूल बीज-कण में उतर जाएं, होगा, इस सत्य को न समझ लेने से मनुष्य के धर्म का इतिहास | उसकी भी जांच कर लें, तो धर्म का कोई भी पता नहीं चलेगा। अकारण ही रक्तपात से, अकारण ही हिंसा से, अकारण ही द्वेष लेकिन एक उपद्रव पैदा हुआ कि हमने धर्मों को जन्मजात कर से भर गया है। | लिया है। तो एक मुसलमान के बेटे को मुसलमान होना पड़ता है; प्रत्येक को ऐसी प्रतीति हो सकती है कि जिस मार्ग पर मैं जा रहा | | एक हिंदू के बेटे को हिंदू होना पड़ता है। जरूरी नहीं है कि यह बात हूं, वह सही है। इस प्रतीति में कोई भूल भी नहीं है। लेकिन जैसे उसके व्यक्तित्व के ढांचे से मेल खाए। तब खतरे होते हैं। तब 244 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान, भक्ति, कर्म खतरा बड़ा यह होता है कि जो धर्म उसका मार्ग बन सकता था, वह जन्म से उसे अगर न मिला हो, तो अड़चन पैदा हो जाती है। वह अड़चन गहरी है। इधर मैं जानता हूं ऐसे लोगों को, जो कि हिंदू के घर में न पैदा होकर अगर मुसलमान के घर में पैदा हुए होते, तो उन्हें लाभ हो जाता। ऐसे लोगों को जानता हूं, जो मुसलमान के घर में पैदा न होकर हिंदू के घर में पैदा होते, तो उनके जीवन में धर्म के फूल खिल जाते। उनके व्यक्तित्व का ढांचा और उनके जन्म के ढांचे का कोई मेल नहीं है। जन्म एक और बात है, धर्म एक और बात है। जन्म शरीर की बात है, धर्म व्यक्ति के टाइप की खोज है। धर्म व्यक्ति की अंतरात्मा की तलाश है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही ढंग से अपने धर्म को खोजना चाहिए। स्वधर्म की खोज जन्म से पूरी नहीं होती, स्वधर्म की खोज करनी पड़ती है। इसलिए एक और घटना घटती है कि सभी धर्म जब पहली दफा अवतरित होते हैं, तो उनमें जो जीवन और जो तेज होता है, वह समय के बीतते-बीतते क्षीण हो जाता है। जब भी कोई नया धर्म अवतरित होता है— नए धर्म का अर्थ है, जब कोई नया टाइप, व्यक्तित्व का कोई नया ढंग परमात्मा की तरफ जाने का मार्ग खोज लेता है, तो एक नए धर्म का सूत्रपात होता है— जब भी कोई नया धर्म पैदा होता है, तो उसमें एक ताजगी, एक प्रफुल्लता, एक जीवन का बहाव होता हैं। मोहम्मद के समय में जो इस्लाम की खूबी थी, वह आज नहीं है। हो नहीं सकती। कृष्ण के समय में, कृष्ण की मौजूदगी में जो कृष्ण के आस-पास घटित हुआ था, वह आज नहीं हो सकता। महावीर के साथ जो पहली दफा जैन हुए थे, उनके बच्चे उसी अर्थों में जैन नहीं हो सकते। क्योंकि महावीर के पास जिन्होंने पहली दफा | जैन होने का निर्णय लिया था, वह उनका कांशस डिसीजन था; वह उनका चेतना से लिया गया संकल्प था। वह उन्होंने चुना था । वह उनकी अपनी निष्ठा थी। वह उधार नहीं थी। वह बाप-दादों से नहीं आई थी। उसके लिए उन्होंने स्वयं खोज की थी। इसलिए महावीर के आस-पास जो लोग जैन हुए, उनके जैन होने में जो रस था, उनके जैन होने में जो प्राण था, वह किसी जैन के बेटे को नहीं हो सकता। होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह रस और प्राण स्वयं के चुनाव से उत्पन्न होता है। अगर कोई व्यक्ति गलत मार्ग भी चुन ले अपनी पूरी निष्ठा के साथ, तो मैं कहता हूं, वह परमात्मा तक पहुंच जाएगा। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती है, मार्ग नहीं। और कोई व्यक्ति अगर उधार निष्ठा से ठीक से ठीक मार्ग भी चुन ले, तो कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती है, मार्ग नहीं। निष्ठा है बल मार्ग में बल नहीं है; मेरे संकल्प में बल है। लेकिन जन्म से तो संकल्प मिलता नहीं ! जन्म से सिद्धांत मिलते हैं, शास्त्र मिलता है; जन्म से शब्द मिलते हैं, संकल्प नहीं मिलता। इसलिए जन्म के साथ जंब तक दुनिया में धर्म बंधा रहेगा, तब तक दुनिया अधार्मिक रहने को मजबूर रहेगी, आदमी को अधार्मिक रहना पड़ेगा। क्योंकि हम धार्मिक होने का चुनाव नहीं देते। इसे ऐसा समझें, मैं मुसलमान घर में पैदा हुआ हूं। अगर वह मार्ग मेरी व्यक्तिगत रुझान में नहीं बैठता; अगर वहां मैं नहीं हूं, जहां से उस मार्ग पर चल सकूं; अगर मैं ऐसा नहीं हूं, जो उस मार्ग से संयुक्त हो सके; अगर मुझ में और उस मार्ग में कोई तालमेल नहीं बैठता, तो मेरे सामने एक ही उपाय रह जाता है कि मैं | अधार्मिक हो जाऊं। 245 इस दुनिया में इतने अधार्मिक लोग दिखाई पड़ते हैं, इतने अधार्मिक नहीं हैं ये ! इनका केवल दुर्भाग्य एक है कि ये जन्म के साथ धर्म को बांधने की चेष्टा में संलग्न हैं । और जब हम बीस-पच्चीस वर्ष तक एक व्यक्ति को एक धर्म की शिक्षा दें, तो वह उसके अंतस - चेतन में प्रवेश कर जाती है, फिर वह धर्म परिवर्तित भी नहीं कर सकता। अगर एक हिंदू मुसलमान हो जाए, वह लाख उपाय करे मुसलमान होने का, उसके भीतर का हिंदू जो पच्चीस साल तक उसके भीतर निर्मित हुआ है, कभी भी मिट नहीं सकता। कभी भी मिट नहीं सकता, वह उसके भीतर बना ही रहेगा। एक हिंदू ईसाई हो जाए, लेकिन उसके अंतस चेतन में जो प्रवेश कर गया है, वह उसकी आधारभूमि रहेगी। उसकी ईसाइयत के | नीचे हिंदू का रंग रहेगा। वह चर्च में जीसस को हाथ जोड़ेगा, लेकिन हाथ जोड़ने के ढंग वही होंगे, जो राम के मंदिर में रहे थे । | उसका अंतस - चेतन, उसका अनकांशस निर्मित हो चुका है। अब मनसविद कहते हैं कि सात साल में अंतस चेतन निर्मित हो जाता है । और सात साल के बाद उसे बदलना असंभव के करीब है। सात साल की उम्र में अंतस - चेतन निर्मित हो जाता है, आधार रख दिए जाते हैं, फिर भवन उसके ऊपर ही उठेगा। अगर एक व्यक्ति को ऐसे धर्म में जन्म मिल गया, जिससे Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* उसका मेल नहीं खाता और सौ में से नब्बे मौके पर यह घटना समझना! कोई धर्म में पैदा होता ही नहीं; धर्म खोजना पड़ता है। यह घटेगी। क्योंकि जन्म का धर्म से कोई संबंध नहीं है, धर्म का संबंध एक अंतोज है। यह एक अंतोज है सत्य की, और निजी है। और संकल्पपूर्वक चुनाव से है। व्यक्ति को धार्मिक होना पड़ता है, हर आदमी को खोजना पड़ता है। यह उधार मिलता ही नहीं। धार्मिक कोई पैदा नहीं हो सकता। और यह गौरव की बात है। अगर कोई सोचता हो, किसी गुरु से मिल जाएगा, अगर कोई अगर हम धार्मिक पैदा ही होते हों, तो धर्म बड़ी साधारण बात सोचता हो, किसी से मिल जाएगा, तो गलती है। खोजना ही रह जाएगी। अगर हम धार्मिक इसी तरह होते हों-जैसे बाप से पड़ेगा। खोजेंगे, तो ही गुरु भी मिलेगा। खोजेंगे, तो ही किसी से आंख पाते हैं, जैसे बाप से हाथ पाते हैं, जैसे बाप से शरीर का रंग भी मिलने का मार्ग साफ होगा। लेकिन यह मुरदे हस्तांतरपा से नहीं पाते हैं-अगर ऐसे ही हम धर्म भी पाते हों, तो धर्म भी | मिलता। कोई ट्रांसफर नहीं कर सकता। कोई बाप लिख नहीं जा बायोलाजिकल, एक जैविक घटना हो जाएगी। सकता कि मेरे धन के साथ मैं धर्म भी अपने बेटे को वसीयत में तब तो इस का अर्थ हुआ कि शरीर ही नहीं, आत्मा भी हम बाप देता हूं। नहीं तो दुनिया में जैसे धन बढ़ गया, ऐसे ही धर्म भी बढ़ से पाते हैं; जो कि सरासर झूठ है। शरीर मिलता है माता और पिता गया होता। से; तो शरीर का जो भी है, वह माता-पिता से मिलता है। लेकिन | दुनिया में धन बहुत बढ़ गया है। दो हजार साल पीछे लौटें, धन आत्मा माता-पिता से नहीं मिलती; आत्मा की यात्रा अन्यथा है, | और कम था। और पांच हजार साल पीछे लौटें, धन और कम था। अलग है। दुनिया में सब चीजें बढ़ गईं, जिनकी वसीयत हो सकती थी। सिर्फ और आत्मा की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम यह है कि धर्म नहीं बढ़ा। बल्कि धर्म कम हो गया मालूम पड़ता है। जरूर आत्मा हर संकल्प से विकसित होती है। जितना बड़ा संकल्प, कहीं कोई फर्क है। उतनी आत्मा सबल होती है। और धर्म इस जगत में सबसे बड़ा जो भी चीज वसीयत की जा सकती है, वह बढ़ जाएगी। दुनिया संकल्प है; सबसे बड़ी चुनौती है; सबसे बड़ा अभियान है; | की भाषाएं बढ़ गईं; दुनिया का वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ गया; दुनिया में दस्साहस है। क्योंकि अज्ञात में छलांग है उसकी खोज है, जिसका किताबें बढ गई: दनिया के मकान बढ गए: दनिया में आदमी बढ हमें कोई भी पता नहीं; उस तरफ की यात्रा है, जिस तरफ के हमें गए। दुनिया में सब बढ़ गया है, जो भी वसीयत हो सकती है। कोई संकेत भी नहीं मिलते; उस सागर में उतरना है, जिसका कोई क्योंकि बाप दे जाता है बेटे को, तो बाप ने जो भी कमाया था, नक्शा नहीं है। और एक अनजान में, अपरिचित मार्ग पर भटक उसके ऊपर बेटा कमाना शुरू करता है। फिर बेटा उसमें जोड़ देता जाने का डर है, पहुंच जाने की उम्मीद कम है। इसलिए धर्म सबसे | है, अपने बेटे को दे जाता है। बाप की भी कमाई, अपनी भी कमाई, बड़ा साहस है; दुस्साहस है। कमजोर का काम नहीं है धर्म। बेटा वहां से शुरू करता है। लेकिन आमतौर से हम देखते हैं, कमजोर धर्म से जुड़ा हुआ ___ तो जगत में सब चीजें बढ़ती जा रही हैं, प्रोग्रेसिव हैं, गतिमान दिखाई पड़ता है। अक्सर ऐसा दिखाई पड़ता है, जितने कमजोर हैं; सिर्फ एक चीज घटती जा रही है, वह धर्म है। लेकिन शायद लोग हैं, वे सब धर्म की आड़ में खड़े हो जाते हैं। इन कमजोरों ने आपने कभी सोचा न हो, इसका कारण क्या है? यह धर्म क्यों ही धर्म को जन्म का हिस्सा बना दिया, क्योंकि सुविधा है उसमें। घटता जा रहा है? धर्म को भी चुनने की कठिनाई न रही! इतना भी श्रम न उठाना पड़ेगा नासमझ हैं, वे कहते हैं कि धर्म इसलिए घट रहा है कि वैज्ञानिकों अब कि धर्म को चुने। वह भी जन्म के साथ जुड़कर लेबिल की ने अधार्मिक बातें कर दीं; वे कहते हैं, लोग नास्तिक हो गए; वे तरह मिल जाएगा। उसे हमें चुनना नहीं पड़ेगा, खोजना नहीं पड़ेगा, | कहते हैं, लोग भौतिकवादी हो गए; वे कहते हैं, लोग बिगड़ गए। अन्वेषण नहीं करना पड़ेगा, भूल-चूक नहीं करनी पड़ेगी, बच ये सब बातें गलत हैं। कोई बिगड़ा नहीं है। कोई नास्तिक नहीं जाएंगे सब भूल-चूक से! हो गया है। किसी भौतिकवादी की बातों से धर्म का कुछ बिगड़ नहीं तो फिर एक लेबिल ही मिलेगा, धर्म मिलने वाला नहीं है! | | सकता। और धर्म अगर इतना कमजोर है कि वैज्ञानिक की बातों से कृष्ण ने कहा है कि स्वधर्म। लेकिन लोग अक्सर समझते हैं कि मिट जाए और भौतिकवादी की बातों से मिट जाए, तो किसी योग्य स्वधर्म का मतलब है, जिस धर्म में पैदा हुए! भूलकर ऐसा मत भी नहीं है, मिट ही जाना चाहिए। धर्म इतना कमजोर नहीं है। धर्म 246 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म * के घट जाने का कारण और है। | एंड दि नोइंग। ज्ञान तीन हिस्सों में टूट जाता है। धर्म वसीयत नहीं किया जा सकता। इसलिए आप धर्म के मामले | लेकिन ज्ञानी की जो आकांक्षा है, वह किसी चीज को बाहर से में अपने बाप के कंधे पर खड़े नहीं हो सकते। आपको अपने ही जानने की नहीं है। क्योंकि बाहर से जाना, तो क्या जाना! अगर मैं पैर की जमीन खोजनी पड़ती है। इसलिए धर्म में बढ़ती नहीं हो | आपके पास आऊं और आपके चारों तरफ घूमकर आपको जान सकती है हर पीढ़ी के साथ। एक ही रास्ता है बढ़ती का कि हर पीढ़ी | लूं, तो जानने वाले की इच्छा पूर्ण नहीं होगी, क्योंकि यह जानना न धर्म को खोजती चली जाए। लेकिन अगर हम अपने बाप की | हुआ, केवल परिचय हुआ। अगर मैं जाऊं और एक वृक्ष के चारों वसीयत पर सोचते हों कि धर्म मिल जाएगा, तो धर्म खो जाएगा। | तरफ चक्कर लगाकर देख लूं, तो यह जानना न हुआ; एक्वेनटेंस तब हम झूठे धर्म में खड़े रह जाएंगे। हुआ, पहचान हुई। इसलिए कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत कीमत की बात कही है। तो जानने की जिसकी खोज है, वह इतने से राजी नहीं होगा। वह पहली, कि बहुत-बहुत रूपों से मेरी तरफ मार्ग आते हैं। कोई हैं, | | तो कहेगा, जब तक मैं वृक्ष ही न हो जाऊं, तब तक जानना पूरा जो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान के द्वारा पूजते हैं। ज्ञान ही नहीं है। क्योंकि जब तक मैं वृक्ष से जरा भी दूर रहूंगा, तब तक उनका यज्ञ है। एकत्व-भाव से, जो कुछ है, सब वासुदेव ही है, बाहरी परिचय रहेगा, भीतरी पहचान नहीं होगी। भीतरी पहचान का ऐसे भाव से उपासते हैं। यह पहला वर्ग है बड़ा। तो एक ही रास्ता है कि मैं वृक्ष के फूल को बाहर से न देखू, इस - तीन वर्ग हैं। एक वर्ग है, जिसके व्यक्तित्व का ढांचा ज्ञान का | तरह वृक्ष में लीन हो जाऊं कि मैं फैल जाऊं वृक्ष के पत्तों में, है। इसे हम थोड़ा समझ लें। इसमें भी बहुत शाखाएं होंगी, लेकिन | शाखाओं में, जड़ों में, फूल में। मैं वृक्ष के भीतर एक हो जाऊं। फिर भी एक मोटा विभाजन किया जा सकता है। मुझमें और वृक्ष में रत्तीभर का फासला न रह जाए, तब जानना • एक वर्ग है मनष्य का. जिसका ढांचा ज्ञान का है। ज्ञान के ढांचे घटित होगा। तब मैं कह सकंगा. मैंने वक्ष को जाना। अगर बाहर से अर्थ है, ऐसा व्यक्ति जानने को आतुर होता है। ऐसा व्यक्ति | | से ही जाना, तो इतना ही कह सकूँगा कि वृक्ष की थोड़ी मुझे पहचान अपना जीवन भी गंवा सकता है जानने के लिए। जानना उसका | है। लेकिन दूरी है इस पहचान में। सबसे बड़ा रस है। जिज्ञासा उसका मार्ग है। वह कुछ भी खो सकता तो ज्ञान की प्रक्रिया में टूट जाती है घटना तीन में। लेकिन जो है। वह कुछ भी दांव पर लगा सकता है। उसे अगर इतना भर पता | ज्ञान का खोजी है, वह इस कोशिश में रहेगा कि एक दिन ऐसा चले कि एक इंच ज्यादा मेरा जानना हो जाएगा, तो वह सब कुछ | आए, जब ज्ञाता ज्ञेय हो जाए; व्हेन दि नोअर बिकम्स दि नोन, ऑर दांव पर लगा सकता है। अगर आप ऐसे व्यक्ति से पूछे कि जानकर |दिनोन बिकम्स दि नोअर, व्हेन दि आब्जर्वर इज़ दि आब्जर्ल्ड, जब क्या करोगे? तो वह कहेगा, जानकर करने की कोई जरूरत नहीं, | दोनों एक हो जाएं। उसके पहले ज्ञानी की तृप्ति नहीं है। जानना काफी है। ऐसा व्यक्ति कहेगा कि जानना पर्याप्त है, नालेज | | इसलिए अगर हम ज्ञानी से कहें कि परमात्मा आकाश में है,वह फार नालेज सेक। वह कहेगा, जानना जानने के लिए ही। जानना | मानने को राजी नहीं होगा। वह तो कहेगा, जब मेरी अंतरात्मा में काफी है, और क्या करना है! बुद्ध जैसा व्यक्ति है, जानना काफी | | होगा, तभी मैं मान सकता हूं। या मैं परमात्मा की अंतरात्मा में है। उसके लिए जानना ही उसकी आत्मा बन जाती है। प्रविष्ट हो जाऊं, तब मैं मान सकता हूं। इसके पहले मेरे मानने का - जो जानने की दिशा में चलेगा, वह अंततः पाएगा कि एक ही | | कोई भी उपाय नहीं है। शेष रहा, क्योंकि ज्ञान का जो अंतिम चरण है, वह अद्वैत है। क्यों .. इसलिए आकाश का परमात्मा ज्ञानी के काम नहीं आएगा। अगर ऐसा है, इसे हम थोड़ा समझें। हम कहें कि मंदिर की प्रतिमा में परमात्मा है, तो वह उसे नहीं मान जब भी हम कुछ जानते हैं, जब भी हम कुछ जानते हैं, तो जानने | सकेगा। क्योंकि प्रतिमा के आस-पास घूमा जा सकता है, प्रतिमा की घटना में तीन हिस्से टूट जाते हैं। जानने वाला अलग हो जाता में प्रवेश कैसे होगा? अगर हम कहें. शास्त्रों में परमात्मा है. तो वह है; जिसे जानता है, वह जानी जाने वाली चीज अलग हो जाती है | कहेगा, शास्त्रों को पढ़ा जा सकता है, शब्दों को समझा जा सकता और दोनों के बीच ज्ञान का संबंध घटित होता है। तो ज्ञान तीन | है, लेकिन प्रवेश कैसे होगा? हिस्से में टूट जाता है, ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान; दि नोअर, दि नोन, | ज्ञानी की आत्यंतिक खोज इस बात के लिए है कि कब मैं उसके 247 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 साथ एक हो जाऊं, तभी जानूंगा कि जाना। उसके पहले सब | मनुष्य का एक विभाजन है। जानना फिजूल है। उसके पहले जिसे हम जानना कहते हैं, वह | जिन लोगों को जानने की खोज है, उनके लिए भक्ति सदा जानना नहीं है। फिजूल मालूम पड़ेगी। कीर्तन हो रहा होगा, तो वे कहेंगे, यह क्या बटैंड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं; वे ठीक हैं। बट्रेंड रसेल | | पागलपन है! कोई गीत गा रहा होगा, वे कहेंगे, इससे क्या होगा! ने कहा है, एक तो ज्ञान है, जिसे हम कहें एक्वेनटेंस, परिचय। और कोई मंदिर में पूजा करता होगा, तो उन्हें समझ में नहीं पड़ेगी। एक वस्तुतः ज्ञान है, जिसे हम नालेज कहें। __दूसरे का मार्ग कभी भी समझ में नहीं पड़ता। लेकिन समझदार परिचय का मतलब है, बाहर से। और ज्ञान का मतलब है, | उसी का नाम है, जो दूसरे के मार्ग को भी होने की सुविधा देता है, भीतर से। चाहे उसकी समझ में न भी पड़ता हो। जब मैं यह कहूं कि मुझे यह इसका तो यह अर्थ हुआ कि समस्त विज्ञान परिचय है, क्योंकि | | कीर्तन समझ में नहीं पड़ रहा है, तो मैं इतना ही कह रहा हूं कि कोई वैज्ञानिक कितना ही जान ले, बाहर ही खड़ा रहता है। असल | | मुझसे इसका कहीं ताल-मेल नहीं खाता। लेकिन हम जल्दी आगे में विज्ञान का तो आधार ही यही है कि जानने वाले को बाहर खड़ा बढ़ जाते हैं। हम कहते हैं, यह गलत है। वहां भूल शुरू हो जाती रहना चाहिए। यहीं धर्म और विज्ञान के जानने में फर्क पड़ जाता है। है। मेरे लिए गलत होगा, तो भी किसी और के लिए सही हो सकता वैज्ञानिक बाहर खड़ा रहता है। अपनी प्रयोगशाला में खड़ा है, | | है। मेरे लिए भ्रांत होगा, मेरे लिए नहीं होगा ठीक, तो भी किसी जांच रहा है। घटना उसकी टेबल पर घट रही है, वह दूर खड़ा देख | | और के लिए बिलकुल ठीक हो सकता है। रहा है। बल्कि वैज्ञानिक का नियम यह है कि दूरी इतनी होनी चाहिए | ___ कृष्ण कहते हैं, यह पहला विभाजन है ज्ञान का। . कि अपना भाव प्रविष्ट न हो जाए। वैज्ञानिक को बिलकुल निष्पक्ष लेकिन जब भी कोई अपने विभाजन के आर-पार जाने लगता होना चाहिए। निष्पक्ष होने के लिए दूरी चाहिए, पर्सपेक्टिव चाहिए, है, तो दूसरों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है। अपने मार्ग पर फासला चाहिए। बहुत पास हो जाओ, तो मन का लगाव बन चलना तो उचित है, लेकिन दूसरों के मार्गों को विचलित करना सकता है। लगाव नहीं होना चाहिए। निष्पक्ष, एक जज की हैसियत | | अनुचित है। से दूर खड़े होकर देखते रहो। जो हो रहा है, वही देखो। अपने को | - बहुत बार ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले लोगों ने भक्ति के मार्ग उसमें प्रवेश मत करो। अन्यथा तुम वह भी देख सकते हो, जो नहीं पर जाते हुए लोगों के मार्ग में बड़ी बाधाएं और बड़ी अड़चनें खड़ी हो रहा है; जो तुम चाहते हो, होना चाहिए, वह भी देख सकते हो। कर दी हैं, अनजाने ही। क्योंकि उनके लिए जो ठीक नहीं लगता, इसलिए दूरी रखो, भीतर प्रवेश मत कर जाओ। बी एन आब्जर्वर, | वे कहते हैं, ठीक नहीं है। लेकिन किसी दूसरे मार्ग पर वह बिलकुल बट डोंट बी ए पार्टिसिपेंट। निरीक्षक तो रहो, लेकिन भागीदार मत ही ठीक हो सकता है। बन जाओ। कृष्ण कहते हैं, यह जो पहली उपासना है, ज्ञान-यज्ञ का पूजन इसलिए विज्ञान कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा उन अर्थों | | करने वाले जो लोग हैं, वे एकत्व-भाव से, जो कुछ है, परमात्मा में, जिन अर्थों में कृष्ण ज्ञानी की बात कर रहे हैं। क्योंकि वहां दूसरी है, ऐसी प्रतीति में रमते हैं। यही उनकी उपासना है। वे मुझे सभी में शर्त है। वहां यह शर्त है, डोंट बी जस्ट एन आब्जर्वर. बी ए खोज लेते हैं। वे सभी में मझे देख लेते हैं। वे सब पर्दो को हटा देते पार्टिसिपेंट। बाहर मत खड़े रहो, भीतर आ जाओ। दर मत खड़े | हैं और जो पर्यों के भीतर छिपा है, उसकी झलक पा लेते हैं। रहो, दूरी गिरा दो। क्योंकि दूर से तुम जो जानोगे, वह बाहरी | यह झलक एक की झलक है; सारे भेद पर्दो के भेद हैं। पर्दे सब पहचान होगी। भीतर आओ, अंतरतम में प्रविष्ट हो जाओ। वहां | | हट जाएं, तो जो भीतर छिपा है, वह एक है। जैसे हम सब मकानों आ जाओ, जिसके भीतर और जाने का उपाय नहीं है। आखिरी केंद्र | को गिरा दें, तो सभी मकानों के भीतर से जो आकाश प्रकट होगा, पर आ जाओ, परिधि को छोड़ दो। उस केंद्र पर आ जाओ, जिसके | वह एक होगा। भीतर और जाने की सुविधा ही नहीं है। तभी तुम जान पाओगे। । लेकिन सब मकान जब तक बने हैं, तब तक सभी मकानों की तो ज्ञान एक दिशा है। इस दिशा में बहुत मार्ग जाते हैं, क्योंकि दीवालों में घिरा हुआ आकाश अलग मालूम पड़ता है। किसी फिर ज्ञान के भी बहुत-बहुत रूप हो जाते हैं। लेकिन मोटे अर्थों में मकान की दीवालें लाल हैं, और किसी की पीली हैं, और किसी 248 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान, भक्ति, कर्म की गरीब हैं, और किसी की मकान की दीवालें धनी हैं, और किसी का मकान आकाश छूता है, और किसी का जमीन छू रहा है। बहुत - बहुत फासले हैं। झोपड़े हैं और महल हैं, वह भीतर छिपा जो आकाश है, अलग-अलग मालूम पड़ता है। कौन मानने को तैयार होगा कि झोपड़े के भीतर भी वही आकाश है जो महल के भीतर है ? कौन मानने को तैयार होगा ? मानने को तैयार नहीं होगा। कहेगा कि महल में जो आकाश है, वह बात ही और है । वह स्वर्णमंडित है, हीरे-जवाहरातों से सजा है। सुगंध से भरपूर है। उसकी शान और है, उसका विलास और है । झोपड़े का भी एक गरीब आकाश है, दीन है, दरिद्र है। लेकिन आकाश भी कहीं भिन्न हो सकता है ? झोपड़ा होगा दीन-दरिद्र; महल होगा समृद्ध; लेकिन भीतर जो आकाश है, दोनों के भीतर जो रिक्त स्थान है, वह कैसे भिन्न हो सकता है? लेकिन झोपड़ा भिन्न दिखाई पड़ता है, महल भिन्न दिखाई पड़ता है। अभिन्नता तब तक न दिखाई पड़ेगी, जब तक हम झोपड़े और महल को मिटाकर न देखें। झोपड़े को भी मिटा दें, महल भी मिटा दें; और फिर फर्क करने जाएं कि दोनों के भीतर जो छिपा आकाश था, अब उसमें कुछ भेद रहा? एक दीन, एक समृद्ध ! एक गरीब, एक अमीर ! एक स्वर्णमंडित, एक भिक्षापात्र से भरा ! अब उन आकाशों में कोई भी भेद न रह जाएगा। ज्ञानी की खोज उसकी खोज है, जो सभी रूपों के भीतर छिपा है, सभी आंकारों के भीतर छिपा है । और ज्ञानी जब तक उस निराकार को नहीं खोज लेता, जो सभी आकारों में रमा है, तब तक उसकी तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी अक्सर, साकार की जो पूजा करते हैं, उनके खिलाफ मालूम पड़ेगा। उसके खिलाफ होने का कारण है, उसकी खोज । उसकी खोज निराकार की है। इसलिए जब आपको देखेगा किसी आकार की पूजा कर रहे हैं, तो कहेगा, क्या पागलपन में पड़े हो ! उसे खोजो, जो निराकार है! लेकिन उसे पता नहीं कि कोई और आकार से भी उसकी यात्रा पर जा सकता है। उसकी हम पीछे बात करेंगे। यह जो निराकार, एकत्व, सब में ही वासुदेव को देख लेने वाला है, समझ लेना चाहिए कि क्या यह मेरा मार्ग है? खोज लेना चाहिए, तालमेल बिठाना चाहिए, क्या ज्ञान मेरी खोज है? क्या मैं उस तरह का व्यक्ति हूं जो सब आकारों को गिराकर निराकार की तलाश में लगा हूं? क्या उससे मेरी तृप्ति होगी? क्या वही मेरी आत्मा की अभीप्सा है? वही मेरी प्यास है? अगर नहीं है, तो उस उपद्रव में कभी भी पड़ना नहीं चाहिए। अगर है, तो शेष सब को भूलकर उसमें पूरी तरह लीन हो जाना चाहिए। यह स्वधर्म की खोज है। कृष्ण कहते हैं, दूसरे पृथकत्व भाव से, द्वैत भाव से, अर्थात स्वामी सेवक भाव से मेरी उपासना करते हैं। 249 दूसरा वर्ग है भक्त का । भक्त की खोज बिलकुल भिन्न है । खोज का अंत बिलकुल एक है, खोज का मार्ग बिलकुल भिन्न है । भक्त कहता है, जानने से कोई प्रयोजन नहीं । जानने में भक्त को बिलकुल रूखा-सूखापन मालूम पड़ता है। है भी शब्द रूखा । ज्ञान बड़ा रूखा शब्द है। उसमें कहीं कोई रस-धार नहीं बहती । ज्ञान बिलकुल मस्तिष्क की बात मालूम पड़ती है, उसमें हृदय की धड़कन नहीं सुनाई पड़ती। ज्ञान एक गणित का फार्मूला मालूम पड़ता है, किसी फूल का खिलना नहीं। भक्त कहता है, जानने से क्या होगा? प्रेम ! जानना कुछ मतलब का नहीं है। वह कहता है, जब तक मैं उसे प्रेम न कर पाऊं, तब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं है। नोइंग नहीं, लविंग जानना नहीं, उसके प्रेम में डूब जाना । भक्त कहता है, जानना भी बाहर ही बाहर है; कितने ही भीतर चले जाओ, जानना फिर भी बाहर है। और भक्त ठीक कहता है । अपनी जगह से बिलकुल ठीक कहता है। वह कहता है, जब तक प्रेम में न डूब जाओ, तब तक असली जानना कहां! क्योंकि भक्त कहता है कि प्रेम ही जानने का मार्ग है। अब इसे ऐसा समझें, एक डाक्टर है, वह एक मरीज के पास खड़ा हुआ है एक घर में मरीज मरणासन्न है। मर रहा है। डाक्टर उसकी नाड़ी अपने हाथ में लिए हुए खड़ा है, तत्पर । नाड़ी की एक-एक धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के हृदय की | धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के खून की चाल उसकी समझ में आ रही है। मरीज की अवस्था उसके पूरे ज्ञान में है। पास में ही उस मरीज की पत्नी छाती पीटकर रो रही है। हाथ उसका नाड़ी पर नहीं है मरीज की । हृदय की धड़कन का उसे कुछ पता नहीं है। मरीज की क्या अवस्था है, उसका उसे कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन उसके आंसू बहे जा रहे हैं। उसके प्राण संकट में हैं। वह मरीज नहीं मर रहा है, वह खुद मर रही है। इस मरीज के साथ उसका मरना घटित हो रहा है। इन दोनों के जानने में बड़ा फर्क है। डाक्टर का जानना कितना ही गहरा हो, बहुत गहरा नहीं है। पत्नी का जानना बिलकुल भी नहीं | है। इसे कुछ भी पता नहीं है कि घड़ीभर बाद यह आदमी मर जाएगा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 कि बचेगा, कि क्या होगा! कि इसके शरीर में क्या कमी है और | बचाने की उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता है। यह पत्नी भी क्या ज्यादा है, और क्या घट रहा है-इसे कुछ भी पता नहीं है। उत्सुक है कि यह आदमी बच जाए, लेकिन इसकी बचाने की गणित का इसे कोई भी पता नहीं है। लेकिन किसी अंतस्तल पर इसे उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता नहीं है। पता है कि घटना समाप्त हो गई। जीवन बुझने के करीब है। इसे __ अगर यह आदमी मर जाएगा, तो डाक्टर भी दुखी होगा। दुखी कुछ भी पता नहीं है। इसके पास कोई यंत्र जानने के नहीं हैं। लेकिन | इसलिए होगा कि केस असफल हुआ। दुखी इसलिए होगा कि दवाएं इसकी अंतस-चेतना आंसुओं से भर गई है। इसकी अंतस-चेतना काम न कर पाईं। दुखी इसलिए होगा कि मेरा निदान उपयोगी न पर मृत्यु की छाया आ गई है। हुआ। दुखी इसलिए होगा कि कहीं कोई गणित में भूल हुई। दुखी डाक्टर समझाता भी है कि घबड़ाओ मत, अभी कोई घबड़ाने | इसलिए होगा। यह आदमी जो मर रहा है, उसके लिए एक केस है। की बात नहीं है, लेकिन घबड़ाहट नहीं रुकती। डाक्टर कहता है, इस पत्नी का दुख कुछ और ढंग का होगा। इस आदमी के मरने मरीज बच जाएगा, तो भी उस स्त्री की आंखों में भरोसा नहीं आता। के साथ यह कभी दुबारा वही नहीं हो सकेगी, जो थी। इस आदमी वह किसी और ही ढंग से जान रही है कि बचना असंभव है। के मरने के साथ ही उसके भीतर बहुत कुछ मर जाएगा, जो फिर और ऐसा नहीं कि इसके लिए पास होना ही जरूरी है। ऐसी | कभी पुनरुज्जीवित नहीं होगा। उसका कोई हिस्सा कट जाएगा और घटनाएं घटी हैं कि दूर बेटा मर रहा है, हजारों मील दूर, और मां गिर जाएगा। यहां तत्काल हजारों मील दूर फासले पर बोध से भर गई है कि कुछ वहीं हम समझें कि एक तीसरा आदमी भी बैठा हुआ है, वह एक अघट हो रहा है। अभी तो इस पर वैज्ञानिक भी शोध करते हैं और अखबार का रिपोर्टर है। वह खबर लेने आया है कि यह आदमी वे कहते हैं कि इसमें वैज्ञानिक आधार है। क्योंकि जिस बच्चे का | | कब मरे, मैं दफ्तर में जाकर खबर कर दूं। वह भी वहीं मौजूद है। हृदय अपनी मां के हृदय के साथ नौ महीने धड़का हो, उन दोनों के | | वह भी अपना कागज-कलम लिए बैठा है कि यह आदमी मरे और हृदय के बीच एक लयबद्धता है। और वह लयबद्धता ऐसी है कि | | मैं जल्दी से लिखू। वह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। उसकी समय और स्थान के फासले को नहीं मानती। और अगर दूर बेटे | | उत्सुकता और ही तीसरे ढंग की है। वह सोच रहा है कि किस ढंग का हृदय धड़क लगे और मत्य के करीब आ जाए तो मां के हृदय से ब्योरा लिखा जाए। किस ढंग से खबर दी जाए। किस ढंग से में भी धड़कन होती है: वह चाहे समझ पाए, चाहे न समझ पाए। अखबार के पढ़ने वाले लोग इस परी स्थिति को जान पाएंगे, जो अभी इस पर रूस में बहुत प्रयोग चलते हैं। तो उन्होंने बहुत | यहां घटित हो रही है। डाक्टर से उसके जानने का फासला और भी जमीन के भीतर ले जाकर पशुओं को, जमीन के भीतर पानी में | तीसरे ढंग का है। समुद्र में ले जाकर हजारों फीट नीचे; और यहां ऊपर उस पशु के | एक चौथा आदमी भी वहां मौजूद है, जो एक चित्रकार है। वह बेटे को मारा जा रहा है या उसके बेटे को काटा जा रहा है; और | | भी उत्सुक है इस आदमी में। लेकिन वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मौत वहां उनके पशुओं के हृदय की धड़कनें, रक्तचाप का अध्ययन | कब आ जाए। क्योंकि वह मौत पर एक चित्र बनाना चाहता है। किया, तो वे चकित रह गए। यहां बेटा मरता है और वहां मां के | और जब मौत इस आदमी के सिर पर उतर आए, और इसकी मौत हृदय में सब कुछ उथल-पुथल हो जाती है। यह तो पशुओं की बात | | की छाया इस आदमी को घेर ले, तब वह अनुभव करना चाहता है है! उधर नीचे उन्होंने मां को मारा है, इधर बेटे को कुछ हो जाता | कि क्या होता है? रंग कैसे बदल जाते हैं? धूप-छाया कैसी भिन्न है; बेचैनी हो जाती है, उदासी छा जाती है। हो जाती है? वह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। लेकिन इन सब ___ इस पर हजारों प्रयोग हुए हैं। और एक बात उन्होंने तय कर ली की उत्सुकताएं अलग हैं। है कि प्रेम का अपना एक अलग ही आयाम है, जिसका ज्ञान से ___ अगर हम इन चारों से अलग-अलग पूछे, तो शायद हमें वहम कुछ लेना-देना नहीं है। | भी हो कि ये एक ही आदमी की खाट के पास मौजूद थे या चार __अब यह पत्नी भी जानती है कुछ, किसी और मार्ग से। यह अलग आदमियों के पास मौजूद थे। इन चारों के वक्तव्य बिलकुल डाक्टर भी मौजूद है, यह पत्नी भी मौजूद है। यह डाक्टर भी तत्पर | अलग होंगे। है, यह भी उत्सुक है कि यह आदमी बच जाए, लेकिन इसकी । शायद वह स्त्री कोई वक्तव्य ही न दे पाए। डाक्टर जो कहेगा, 250 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म * उसकी भाषा मेडिकल साइंस की होगी। पत्रकार जो कहेगा, उसकी | | लेकिन दो बने रहते हैं। प्रेम में भी एकता घटित होती है। दो बने खबर-पत्री की भाषा होगी। चित्रकार जो कहेगा, वह कहेगा, रुको! रहते हैं और भीतर कोई एक हो जाता है। दो धड़कनें होती हैं, जब तक मेरा चित्र न बन जाए, तब तक कुछ कहना मुश्किल है। | लेकिन धड़कनों का स्वर एक हो जाता है। दो प्राण होते हैं, लेकिन मेरा चित्र ही कहेगा। | दोनों के बीच एक धारा प्रवाहित होने लगती है। और इन चारों को, अगर हमें पता न हो कि ये एक ही आदमी | | प्रेम भी एक तरह की एकता को जानता है। और एक लिहाज से के करीब मौजूद थे, तो हम कभी कल्पना न कर पाएंगे कि वह एक प्रेम की जो एकता है, वह ज्यादा समृद्ध है ज्ञान की एकता से। ज्ञान ही आदमी था, जिसके चारों तरफ ये चारों मौजूद थे! की एकता उतनी समृद्ध नहीं है। क्योंकि उसमें निश्चित रूप से एक ठीक परमात्मा के चारों तरफ भी हम इसी तरह मौजूद हैं। और हो जाता है। वह गाणितिक एकता है; मैथेमेटिकल यूनिटी है। दो हम सबके उससे संबंधित होने के रास्ते अलग हैं। और एक का | मिलकर एक हो जाते हैं। ज्यादा जटिल नहीं है, सरल है। प्रेम की रास्ता दूसरे के लिए बिलकुल बेबूझ है। एकता ज्यादा जटिल है। दो दो रहते हैं और फिर भी एक का दूसरा रास्ता है, भक्त का। भक्त कहता है, जानने का क्या | | अनुभव करने लगते हैं। ज्यादा समृद्ध है। प्रयोजन? और जानकर भी क्या होगा? हम उसके प्रेम में डूब जाना। इसलिए ज्ञानियों से सखे वक्तव्य पैदा हए हैं। प्रेमियों ने बहत चाहते हैं। हम उसे जानना नहीं चाहते, हम उसमें लीन हो जाना | | रसपूर्ण वक्तव्य दिए हैं। प्रेमियों ने गाया है, नाचा है, रंगा है, चित्र चाहते हैं। हम जानना नहीं चाहते; जानने में दूरी है। हम तो उसके बनाए हैं, मूर्तियां बनाई हैं। हृदय में प्रवेश करना चाहते हैं और अपने हृदय में उसे प्रवेश देना । ऐसा समझें कि अगर सारा जगत ज्ञानी हो, तो सुखद नहीं होगा। चाहते हैं। क्योंकि जगत में जो रौनक है, वह जटिलता की है, कांप्लेक्सिटी - अगर भक्त से कोई कहेगा कि एक ही है, तो भक्त को समझ | की है। जगत में अगर सब बिलकुल सरल-सरल हो और में नहीं आएगा। क्योंकि प्रेम की घटना, अगर एक ही है, तो घटेगी सीधा-सीधा हो, तो जगत का सारा सौरभ खो जाए। भक्तों ने जगत कैसे? प्रेम की घटना के लिए कम से कम दो चाहिए। को सौरभ दिया है। इसलिए जिन धर्मों ने सिर्फ ज्ञान को ही प्रतिष्ठा मैंने आपसे कहा कि ज्ञान की घटना तभी घटेगी, जब दो मिट | | दी, वे रूखे हो गए हैं, मरणासन्न हो गए हैं। जाएं और एक बचे। जब एक बचे, तो ज्ञान की घटना घटेगी। ज्ञान | - नहीं यह कह रहा हूं कि जगत में भक्त ही भक्त हो जाएं। अगर की अनिवार्य शर्त है कि दो-पन मिट जाए और एक ही बचे। प्रेम | भक्त ही भक्त जगत में हों, तब भी एक कमी हो जाएगी। वह ज्ञानी की शर्त है कि अगर एक ही बचा, तो प्रेम कैसे घटित होगा? तो | भी एक रंग देता है अपनी मौजूदगी से। वह भी एक स्वर देता है प्रेम कहता है कि दो! और एक दिशा देता है। वह दिशा भी वंचित हो जाए, तो भी __ भक्तों ने गाया है कि नहीं तेरा मोक्ष चाहिए, नहीं तेरा निर्वाणः | नुकसान होता है। हमें तेरी वृंदावन की गली में अगर कुत्ता होने को भी मिल जाए, तो | | इस जगत में जितने रूप हैं, वे सभी इस जगत को समृद्धि देते हम तृप्त हैं! पर तेरी गली हो। और जन्मों से हमें छुटकारा नहीं हैं। इसलिए समृद्धतम धर्म वह है, जो सभी रूपों को आत्मसात कर चाहिए। एक ही प्रार्थना है कि जन्मों-जन्मों में जहां भी हम हों, तेरी लेता है। इस लिहाज से हिंदू धर्म बहत अदभत है। अदभुत इस स्मृति बनी रहे, उतना काफी है। लिहाज से है कि वह सभी मार्गों को आत्मसात कर लेता है। वह यह कोई और ही भाषा है। इन दोनों भाषाओं में विरोध है। विरोध ज्ञानी को ज्ञान का मार्ग दे देता है, भक्त को भक्ति का मार्ग देता है। होगा। लेकिन ये दोनों भाषाएं एक ही घटना की तरफ खबर देती | | दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीं है दूसरा। दूसरे सारे के सारे धर्म हैं। भक्त कहता है, दो तो होने ही चाहिए! किसी एक विशिष्टता को आधार बनाकर चलते हैं। __ अब यह जरा मजे की बात है कि प्रेम में भी एकता घटित होती | | जैसे जैन हैं। तो भक्ति उपाय नहीं है, ज्ञान ही उपाय है। इसलिए है, लेकिन वह एकता ज्ञान की एकता से भिन्न भाषा में प्रकट होती| जैन साधु के चेहरे पर एक रूखा-सूखापन छा जाएगा। अनिवार्य है। जैसे, ज्ञान में एकता घटित होती है, जब दो मिट जाते हैं। प्रेम है। जैन साधु नाचता हुआ मिले, तो बेचैनी होगी हमें। मीरा नाचे, में भी एकता घटित होती है, जब दो ऐसे हो जाते हैं, जैसे एक हों, तो हमें कोई बेचैनी नहीं होगी। चैतन्य नाचता हुआ गांव से गुजर 251 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 काश में जाए, तो हमें कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन जैन साधु नाचे, तो | इस भक्त के विरोधाभास को ठीक से समझ लें। इनकंसिवेबल है; यह कुछ मेल नहीं खाती बात। भक्त कहता है, हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि मिलने का मजा उसका कारण है। क्योंकि मार्ग शुद्धतम ज्ञान का है, सूखे ज्ञान | तभी आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। अगर हम तुमसे एक ही हैं का है। जरूरत है उसकी। कुछ हैं, जो उसी मार्ग से जा सकेंगे। कुछ सदा से, तो मिलने का सारा अर्थ ही खो गया। फिर मिले न मिले, हैं, जिनके लिए वही उपाय है। और जिनके लिए वही उपाय है, बराबर है। उनके लिए श्रेष्ठतम वही है। लेकिन जो विपरीत है, उसको कठिनाई | यह नदी जो दौड़ती जाती है सागर की तरफ, यह जो नाचती हुई खड़ी हो जाएगी। वह अपने को सताना शुरू कर देगा। उमंग है, यह जो उत्सवपूर्ण भागना है, यह इसीलिए है कि सागर __ अब अगर एक व्यक्ति जैन धर्म में पैदा हुआ है और भक्ति | वहां दूर है और अलग है। और यह मिलन एक घटना होगी। उसका मार्ग है, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। कठिनाई इसलिए इस नदी को कोई कहे कि तू पागल है, तू सागर से एक है ही। खड़ी होगी कि जैन धर्म में भक्ति के लिए उपाय नहीं है। अगर वह यह भी ठीक है। नदी सागर से एक है ही। उसी से पैदा हुई है। कोशिश करके उपाय करेगा, तो वे उपाय झूठे होंगे। जैनों ने | सूरज की किरणों पर चढ़कर, हवाओं में जाकर, उसी से उठकर कोशिश की है। जैनों ने कोशिश की है कि भक्ति का भी कोई मार्ग आई है। उसी सागर से भाप उठी है. वाष्पीभत हुई है. आकाश खोज लिया जाए। मगर उसमें आधार नहीं रहता, जड़ें नहीं रहतीं। | बादल बनी है, बरसी है पहाड़ों पर, गंगोत्री से उतरी है, गंगा बनी और उसमें एक तरह का अन्याय भी मालूम पड़ता है। है, चली है सागर की तरफ। ___ अब अगर महावीर के सामने कोई भक्ति-भाव से नाचने लगे, ज्ञानी कहेगा, व्यर्थ का इतना उत्सव है! नाहक इतनी दौड़धूप है! तो महावीर के साथ निश्चित अन्याय है। अन्याय इसलिए है कि | इतने शोर-गुल की कोई भी जरूरत नहीं है। इतने नदी-पहाड़ और महावीर की खड़ी नग्न प्रतिमा, उससे इस नृत्य का कोई मेल नहीं | | इतने मैदान पार करके भागने का प्रयोजन क्या है ? तू सागर के साथ होता। यह नृत्य बेमानी है। एक है ही। कृष्ण के सामने यह नृत्य सार्थक मालूम होता है। इसमें | लेकिन नदी कहेगी कि सागर को अलग ही रहने दो, उसे दूर ही तालमेल है। कृष्ण खड़े हैं मोर-मुकुट लगाए हुए, हाथ में बांसुरी | | रहने दो, उसे दूसरा ही रहने दो, क्योंकि मैं मिलने का आनंद लेना' लिए हुए। उनके सामने कोई नाच रहा है, तो इस नाचने में और | चाहती हूं। और यही प्रार्थना रहेगी परमात्मा से कि सदा यह मिलने कृष्ण के बीच एक संगति है। लेकिन महावीर नग्न खड़े हैं, उनके की घटना घटती रहे। इतनी दूरी बनाए रखना कि मिलन संभव होता सामने कोई नाच रहा है, तो वह केवल इतना कह रहा है कि जिस | रहे। इतने दूर तो रखना ही। धर्म में मैं पैदा हो गया, वह मेरे लिए नहीं था। और कुछ नहीं। अब यह जो स्थिति है, जैसे इस्लाम कहता है कि कोई आदमी वह इतना ही कह रहा है। यह न कहे कि मैं परमात्मा के साथ एक हूं, उसका कारण कुल अगर कोई ज्ञानी को आप कृष्ण के मंदिर में ले जाएं, तो सारी इतना ही है। कल मैंने कहा कि मंसूर को सूली लगा दी। लगाने का बात व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सब क्या पागलपन है! यह | कारण कुल इतना था, मंसूर का मार्ग था ज्ञान। मंसूर कहता था, मोर-मुकुट, यह बांसुरी, यह सब क्या पागलपन है! अनलहक। मैं ईश्वर हूं; मैं ब्रह्म हूं। यह भाषाओं का भेद है। और भक्त की जो भाषा है, वह दो को | वह वेदांत की बड़ी गहरी बात कह रहा था। सूफी दृष्टि का ठीक स्वीकार करके चलती है। वह सारे जगत को दो में तोड़ लेती है, उदघोषक था। मैं ब्रह्म हूं; अहं ब्रह्मास्मि। अगर उसने उपनिषदों के एक तरफ भगवान को और एक तरफ भक्त को। और तब संबंध वक्त में हिंदुस्तान में कहा होता, तो हमने उसकी महर्षि की तरह निर्मित करती है। पूजा की होती। उसने जरा गलत वक्त चुना। उसने उनके बीच में कृष्ण कहते हैं, और दूसरे हैं, जो पृथक भाव से मेरी उपासना | कहा, जो कह रहे थे कि कोई यह न कहे कि मैं ब्रह्म हूं। क्योंकि करते हैं। जो कहते हैं मुझसे कि हम तुमसे अलग हैं। और कहते | जब ब्रह्म हम हो गए, तो फिर भक्ति का, मिलन का आनंद कहां इसीलिए हैं कि हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि एक होने का मजा तभी | रहेगा? वह भक्तों के बीच ज्ञान की बात कहकर मुसीबत में पड़ा। आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। उन भक्तों ने कहा कि बंद करो यह बात! यह बात ठीक नहीं है; 252| Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म यह कुफ्र है, यह पाप है। | ईश्वर की तरफ जाता है, उसको पत्नी और प्रेयसी मानकर, तब ठीक है; भक्त की दृष्टि से यह पाप है। ज्ञानी की दृष्टि से, | पुरुष जितनी अभिव्यक्ति दे सकता है प्रकट, एक अर्थ में निर्लज्ज, भगवान अलग है, यह अज्ञान है। भक्त की दृष्टि से, मैं भगवान | उतनी स्त्री नहीं दे सकती। इसलिए उर्दू या अरबी या ईरानी, इन हूं, ऐसी घोषणा पाप है। और दोनों सही हैं। इससे जटिलता होती | भाषाओं में जो प्रेम की भंगिमा प्रकट हुई, और थोड़े से शब्दों में है। इससे जटिलता होती है, क्योंकि दूसरे के मार्ग को समझने में | प्रेम का जो प्रगाढ़ रूप प्रकट हुआ, वह दुनिया की किसी भाषा में हमें बड़ी कठिनाई होती है। नहीं हो सका है। उसका कुल मात्र कारण यही था कि परमात्मा को यह जो भक्त है, इसकी खोज का तारा है प्रेम। और यह कहता| प्रेयसी मानते से ही, अब कोई अड़चन न रही, अब गीत कोई भी है कि प्रेम काफी है; जानना व्यर्थ है। प्रेम में लीन हो जाना सार्थक गाया जा सकता है। है। क्योंकि प्रेम में आत्मक्रांति घटित हो जाती है। | और पुरुष गा रहा है। और पुरुष तो आक्रामक है, इसलिए वह कृष्ण कहते हैं, ऐसे जो लोग हैं, वे स्वामी-सेवक भाव से, या | संकोच नहीं करेगा। वह संकोच करे, तो पुरुष कम है, इसकी खबर प्रेमी-प्रेमिका के भाव से, या किन्हीं और रूपों में, लेकिन संबंध में | | देगा। स्त्री संकोच न करे, तो स्त्रैण न रही। संकोच में ही उसका मुझे सोचते हैं। वे कोई संबंध निर्मित करते हैं। सौंदर्य है। और निस्संकोच आक्रमण में ही पुरुष का शौर्य है। भक्तों ने सब तरह के संबंध बनाए हैं। भक्त या तो परमात्मा को प्रेयसी मान ले, या प्रेमी मान ले, ये . जैसे सूफियों ने बहुत प्यारा संबंध बनाया है। ऐसी हिम्मत कोई | दो रूप हैं। सूफियों ने वह रूप चुना परमात्मा को प्रेयसी मानने का; हिंदू साधक नहीं कर सका। हिंदू साधकों ने जो भी संबंध बनाए हैं, | हिंदुओं ने परमात्मा को प्रेमी मानने का रूप चुना। वे इतने हिम्मतवर नहीं हैं। हिंदू धारणा में परमात्मा पुरुष है और | लेकिन और भी प्रेम के रूप हैं। क्योंकि प्रेम के कितने रूप हैं! साधक उसकी प्रेयसी, पत्नी, दासी के भाव से चलता है। | परमात्मा मां हो सकता है, परमात्मा पिता हो सकता है, परमात्मा . सूफियों ने हद कर दी। उन्होंने परमात्मा को प्रेयसी बना दिया | पुत्र हो सकता है; वे सारे रूप भी चुने गए। वे सारे रूप भी चुने और खुद प्रेमी! परमात्मा को प्रेयसी और खुद प्रेमी! इस वजह से | गए। परमात्मा मां हो सकता है, तब उसके साथ प्रेम की जो धारा ही इस्लाम के प्रभाव में जो भी काव्य की धाराएं पैदा हुईं, सूफियों | बहेगी, उसका ढंग और होगा। बेटा भी मां को प्रेम करता है। के संपर्क में जो भी काव्य पैदा हुए—चाहे अरबी, चाहे ईरानी और | | लेकिन इस प्रेम का ढंग और होगा, रंग और होगा; इसकी चाल चाहे उर्दू-उन काव्यों में प्रेम की जो झलक उठी, वह हिंदुस्तान की | | और होगी। परमात्मा को पिता भी मानकर कोई प्रेम कर पाता है। किसी भाषा में पैदा हुए काव्य में नहीं उठ सकी। उसका कारण था। | | लेकिन एक बात तय है, कोई भी संबंध हो. भक्त संबंध खोजेगा उसका कारण था, क्योंकि जब परमात्मा को प्रेयसी बना दिया, तो | | ही, क्योंकि संबंध ही उसके प्रेम के लिए मार्ग बनेगा। लेकिन सब द्वार खुल गए। तब परमात्मा के साथ प्रेम की सारी खुलकर | इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एकता को उपलब्ध नहीं होता। चर्चा हो सकी। फिर कोई बात ही न रही। एकता को उपलब्ध होता है-संबंधों की सघनता से, संबंधों के ___ध्यान रहे, अगर परमात्मा पुरुष है और भक्त स्त्री है, पत्नी है, | नैकटय से, संबंधों की आत्मीयता से। प्रेयसी है, तो स्त्री लज्जावश प्रेम का निवेदन भी बहुत-बहुत | और सच तो यह है कि बाकी हमारे जीवन के सारे संबंध सिर्फ झिझककर करती है। करेगी ही। इसलिए हिंदू भक्तों ने जो गाया है, | हमें धोखा देते हैं कि हम एक हो गए, एक हम हो नहीं पाते हैं। न वह बहुत झिझकपूर्ण है। मीरा कितनी ही हिम्मत करे, लेकिन मीरा | कोई पति पत्नी से एक हो पाता है; न कोई बेटा किसी मां से एक ही है। हिम्मत कितनी ही करे—बहुत हिम्मत की है लेकिन हिम्मत | हो पाता है; न कोई मित्र किसी मित्र से एक हो पाता है। कभी छिपी-छिपी है। जैसा कि स्त्री का स्वभाव है। वह अगर कहती भी | क्षणभर को वहम होता है। कभी क्षणभर को ऐसा लगता है कि एक है, तो बड़े परोक्ष, बड़े पर्दे और बड़ी ओट से कहती है। चूंघट उसका | हो गए; और लग भी नहीं पाता कि विछोह शुरू हो जाता है। सिर्फ पड़ा ही रहता है। वह कहती है चूंघट उठाने की बात, फिर भी वह परमात्मा के साथ, उसके दोहरेपन में भी, उसके द्वैत में भी एकता बूंघट के पीछे से ही कहेगी। अनिवार्य है; होगा ही ऐसा। सध जाती है। वह फिर टूटती नहीं। लेकिन जब कोई सूफी फकीर प्रेमी की तरह, पुरुष की तरह इसलिए भक्ति जो है, वह प्रेम की शाश्वतता है, वह प्रेम की 253 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 चरम ऊंचाई है। और जितने भी प्रेमी दुनिया में तकलीफ पाते हैं, अब कोई व्यक्ति है, वह पहुंच जाता है किसी साधु-संन्यासी के उस तकलीफ का कारण प्रेम नहीं है, उस तकलीफ का कारण यह | | पास। साधु-संन्यासी उसे समझाता है कि शांत बैठो, एक घंटेभर है कि वे प्रेम से जो चाह रहे हैं, वह केवल भक्ति से मिल सकता | बिलकुल शांत, निश्चल होकर बैठ जाओ। वह एक सेकेंड शांत है। जो वे प्रेम से चाह रहे हैं, वह प्रेम से नहीं मिल सकता। नहीं बैठ सकते, घंटाभर! उनके लिए ऐसा कष्टपूर्ण हो जाता है कि प्रेम से क्षण का संबंध ही मिल सकता है; प्रेम से शाश्वतता नहीं | घंटेभर वे बैठेंगे, तो उस वक्त पाएंगे कि दुनियाभर में जितनी मिल सकती। लेकिन जब भी कोई प्रेम से शाश्वतता मांगने लगता परेशानी है. सब उन पर आ गई है। इससे तो जब वे भाग-दौड में है, तभी दुख में पड़ जाता है। शाश्वतता भक्ति से मिल सकती है। रहते हैं, तभी शांत रहते हैं। वह एक ऐसा द्वैत है, जिसके भीतर सदा के लिए अद्वैत सध सकता इसलिए अक्सर लोगों को खयाल में आता है कि जब वे ध्यान है। बाकी हमारे सब द्वैत ऐसे हैं कि जिनके भीतर झलक मिल जाए, करने बैठते हैं, तब उनकी अशांति बढ़ जाती है। उसका मतलब है तो भी बहुत है। झलक भी लेकिन काफी है। और झलक को भी | कि वह टाइप उनका ध्यान वाला नहीं है। उनके लिए कर्म ही ध्यान बुरा कहने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि शायद वही झलक हमें | | का द्वार बनेगा। ध्यान उनके लिए सीधा द्वार नहीं बन सकता। उन्हें और ऊपर उठाने के लिए इशारा बने। लेकिन जो उस झलक में ही | | किसी ऐसे कर्म की जरूरत है, जिसमें वे पूरा लीन हो जाएं। इस उलझ जाता है, वह खो जाता है। भक्त प्रेम की खोज है। | बुरी तरह डूब जाएं कि कर्ता न बचे, कर्म ही रह जाए। फिर वह कुछ कृष्ण कहते हैं, और तीसरे लोग भी हैं, जो बहुत प्रकार से मुझे भी हो-चाहे वे कोई चित्र बना रहे हों, और चाहे कोई मूर्ति बना उपासते हैं। ये तीसरे लोग मूलतः कर्म से संबंधित होते हैं। | रहे हों, और चाहे किसी के पैर दाब रहे हों, और चाहे गड्डा खोद ये तीन हिस्से हैं। मनुष्य के मनस के, मनुष्य के मन के तीन | | रहे हों, और चाहे बगीचा लगा रहे हों—वह कोई भी कर्म हो; कोई हिस्से हैं, ज्ञान, भाव और कर्म। ज्ञान हमारे मस्तिष्क को केंद्र | ऐसा कर्म, जो उनकी उपासना बन जाए। बनाकर जीता है; भाव हमारे हृदय को केंद्र बनाकर जीता है; कर्म | | लेकिन अगर आपको अपने टाइप का ठीक-ठीक पता नहीं है, हमारे हाथों को केंद्र बनाकर जीता है। | तो आप मुश्किल में पड़ते रहेंगे। और एक कठिनाई जरूरी रूप से अब जैसे जीसस; जीसस कहते हैं कि अगर तू प्रार्थना करने | पैदा हो जाती है। वह इसलिए पैदा हो जाती है कि सभी प्रकार के आया है मंदिर में और तुझे खयाल आ जाए कि तेरा पड़ोसी बीमार | लोगों ने इस जगत में परमात्मा को पाया है। एक चैतन्य ने नाचकर है, तो मंदिर को छोड़, पड़ोसी की सेवा में जा; वही उपासना है। | भी पाया है। और एक बुद्ध ने शरीर का जरा भी अंग न हिलाकर जीसस कहते हैं, सेवा ही धर्म है। भी पाया है। चैतन्य नाचकर पाते हैं, बुद्ध बिलकुल शरीर को . इसलिए ईसाइयत ने दुनिया में धर्म की एक बिलकुल नई प्रतिभा | निश्चल करके पाते हैं। को जन्म दिया। वह प्रतिभा थी सेवा की। और ईसाइयों ने जितनी | अब संयोग से अगर आप बुद्ध के पास से गुजर गए, तो आप सेवा की है, उतनी सारी दुनिया के सारे लोगों ने मिलकर भी नहीं बिना सोचे-समझे बुद्ध के पास शांत होकर बैठने की कोशिश की है। कर भी नहीं सकेंगे। क्योंकि कर्म ही उपासना है, ऐसे गहन करेंगे। या संयोग से आप चैतन्य के पास से गुजर गए, तो आप भाव पर सारी ईसाइयत की दृष्टि खड़ी है। कर्म ही उपासना है। भूल | | चैतन्य की तरह नाचने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस बात को पहले 1. चलेगा: कर्म को मत भल जाना। ज्ञानी कहेगा. ठीक से जान लें कि आप क्या हैं? क्या आपके लिए उचित होगा? भूल जाओ कर्म को, चलेगा; परमात्मा को मत भूल जाना। ___ इधर मैंने अनुभव किया है कि अगर आपके टाइप का यह जो तीसरा मार्ग है-हममें बहुत लोग हैं, जिनके व्यक्तित्व | ठीक-ठीक खयाल हो जाए, तो साधना इतनी सुगम हो जाती है, का केंद्र कर्म है; जो कुछ करेंगे, तो ही पा सकेंगे। उनसे अगर कहा | | जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। टाइप का ठीक खयाल न हो, जाए, खाली बैठ जाएं, शांत बैठ जाएं, तो वे और भी अशांत हो | | तो साधना अकारण कठिन हो जाती है। और ध्यान रहे, दूसरे के जाएंगे। इसलिए बहुत लोग हैं, दिक्कत में पड़ते हैं। इसलिए मैंने टाइप से पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जन्मों-जन्मों खो सकते पहले कहा कि मार्ग का ठीक-ठीक चयन न हो पाए, तो हम व्यर्थ | हैं, अगर आप अपने को न पहचान पाए कि आपके लिए क्या ही कष्ट पाते हैं। उचित हो सकता है। जाओ परमात्म 254 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान, भक्ति, कर्म तो कृष्ण कहते हैं, और तीसरे लोग भी हैं, वे भी बहुत प्रकार से ड्राइविंग को भूल सकते हैं। अब चाहे सिगरेट पीएं, अब चाहे गीत मुझे उपासते हैं। लेकिन उपासना हो कोई, मार्ग हो कोई, विधि कोई, | गुनगुनाएं, चाहे रेडियो सुनें, चाहे मित्र से गपशप करें; अब चाहे कोई कैसा भी चले, दिशा चने कोई, एक बात निश्चित है कि चाहे | कुछ भी करें, शरीर का जो रोबोट है, शरीर का जो यंत्र हिस्सा है, श्रोत-कर्म हो, वेद-विहित कर्म हो, गहरे में मैं ही हूं। और चाहे यज्ञ | वह ड्राइविंग करता रहेगा। आपकी जरूरत कभी-कभी पड़ेगी, कोई हो, गहरे में यज्ञ की लपटों में मेरी ही अग्नि है। और चाहे पितरों के अचानक एक्सिडेंट का मौका आ जाए, तो आपकी जरूरत पड़ेगी, निमित्त दिया जाने वाला अन्न हो, मैं ही महापितर हूं। मैं ही तुम्हारे तो आपको ध्यान देना पड़ेगा, अन्यथा गाड़ी चलती रहेगी! आप सब पिताओं का पिता हूं। क्योंकि मैं ही सारे जन्म और सारी सृष्टि अपने रास्ते पर बाएं मुड़ जाएंगे, दाएं मुड़ जाएंगे; अपने घर के के मूल में हूँ। औषधि हों, कि वनस्पतियां हों, कि कोई वनस्पतियों सामने आ जाएंगे, अपने गैरेज में चले जाएंगे। इस सब में आपको से पूजा कर रहा हो, कि कोई फूल चढ़ा रहा हो, मैं ही हूं। मंत्र मैं हूं, कुछ करना नहीं पड़ेगा। घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूं। हमारे शरीर में, हमारे मन में एक हिस्सा है, जिसको वैज्ञानिक यह सूत्र इतनी ही बात कह रहा है कि करो तुम कुछ, अगर निष्ठा | | रोबोट पार्ट कहते हैं। वे कहते हैं कि हम इतने कर्म कर पाते हैं से और मुझे स्मरण करते हुए तुमने किया है, तो तुम मुझे पा लोगे। | इसीलिए कि हमारे शरीर में एक यंत्र हिस्सा है, जिसे कुशल कर्म को चाहे तुम यज्ञ में डालो घी, अगर निष्ठा से, मुझे स्मरण करते हुए, | | हम सौंप देते हैं। फिर वह करता रहता है। फिर हमें बीच-बीच में मेरी उपस्थिति को अनुभव करते हुए और मेरे लिए ही तुमने वह | जरूरत नहीं रहती है करने की। एक नौकर को काम दे दिया है, वह डाला है, तो घृत भी मैं हूं, और जिस अग्नि में तुमने डाला है, वह कर लेता है। जरूरत हमारी तब पड़ती है, जब कोई अनहोनी नई बात भी मैं हूं। लेकिन ध्यान रहे, शर्त खयाल में रहे, अन्यथा घी व्यर्थ | हो। तो नौकर पूछता है कि मालिक, यह काम मैं कैसे करूं? क्योंकि जाएगा। अग्नि थोड़ी देर में बुझ जाएगी। | यह कोई नई घटना है, इसका पहले कोई अंदाज नहीं है। उपासना भी तर हो, तो जो कुछ भी तुम करोगे, वहीं से मुझे पा| अगर रास्ते पर जाते हुए एक्सिडेंट होने के करीब हो, तो मालिक लोगे; क्योंकि सब जगह मैं हूं। और अगर उपासना भीतर न हो, | | की जरूरत पड़ेगी। रोबोट, आपका यंत्र-मानव कहेगा, आ जाओ तो तुम सब कुछ घेर लो, तुम मुझे नहीं पा सकोगे; क्योंकि कहीं शीघ्रता से, जरूरत है, क्योंकि इसका कोई अभ्यास नहीं है। और भी तुम मुझे नहीं खोज पाओगे। एक्सिडेंट का कोई अभ्यास किया भी कैसे जा सकता है? उसका ___ उपासना आंख है। उपासना आंख है। उपासना का सूत्र मौलिक | मतलब ही यह है कि वह अनहोना होगा, जब भी होगा। तो हमारे है। इसलिए क्या करते हो, यह सवाल नहीं है। कैसे करते हो, किस | भीतर यह हिस्सा है। हृदय से करते हो, किस आत्मा से करते हो, वही सवाल है। लेकिन ध्यान रखें, ड्राइविंग और पूजा में यही फर्क है कि पूजा ___ हम इसे भूल ही जाते हैं। इसलिए एक आदमी कहता है कि मैं | | को जिसने अपने रोबोट को दे दिया, उसकी पूजा व्यर्थ हुई। आप पूजा कर रहा हूं। पूजा एक बाह्य कर्म हो जाता है। क्रिया पूरी कर सब काम रोबोट को दे दें। ड्राइविंग देनी ही पड़ेगी, नहीं तो फिर देता है; खुद को वह क्रिया कहीं भी छूती नहीं। कहीं कोई एक बूंद | ड्राइविंग ही कर पाएंगे जिंदगी में; फिर और कुछ न कर पाएंगे। भी उस क्रिया की अंतस में नहीं जाती। | खाना खाने का काम रोबोट को देना पड़ता है। सब काम रोबोट को फिर रोज-रोज करता रहता है। तो रोज-रोज करने से, पुनरुक्त देने पड़ते हैं। टाइपिस्ट अपनी टाइपिंग रोबोट को दे देता है। हम करने से आदत का हिस्सा हो जाता है, यांत्रिक हो जाता है। वैसे ही | सब अपने काम बांट देते हैं, ताकि हम मुक्त रहें। लेकिन पूजा यांत्रिक हो जाता है, जैसे आप अपनी कार चलाते हैं। फिर कार | बिलकुल उलटी ही बात है। पूजा रोबोट से नहीं की जा सकती। चलाते वक्त आपको ड्राइविंग करनी नहीं पड़ती, ड्राइविंग होने पूजा आपको करनी पड़ेगी। और ध्यान रखना पड़ेगा कि कभी भी लगती है। जब तक ड्राइविंग करनी होती है, तब तक आपको वह यांत्रिक, मैकेनिकल न हो जाए। क्योंकि जिस दिन वह यांत्रिक लाइसेंस मिलना नहीं चाहिए, क्योंकि उसका मतलब ही यह है कि हो गई, उसी दिन व्यर्थ हो गई। अभी खतरा है, अभी आपसे भूल-चूक हो सकती है। ___ उपासना का अर्थ है, परमात्मा का सतत स्मरण बना रहे, ऐसी ड्राइविंग उसी दिन आपकी कुशल हो पाती है, जिस दिन आप कोई भी क्रिया, उसका स्मरण न खोए, ए कांस्टेंट रिमेंबरिंग। कोई 2551 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* भी क्रिया, परमात्मा के स्मरण को सतत बनाए रखे, तो उपासना है।। | याद नहीं आता। जब से बचपन से मैं यह कर रहा हूं। मेरे पिता भी और कृष्ण कहते हैं फिर वह कुछ भी हो, यज्ञ हो, कि श्रोत-कर्म ऐसा ही करते थे। उन्हीं के साथ-साथ मैं भी सीख गया। कुछ हो, कि अग्नि हो, कि हवनरूप क्रिया हो, कि मंत्र हो, कि तंत्र हो, | अनुभव हुआ जिंदगी में ? वे कहते हैं, कुछ अनुभव नहीं हुआ। कुछ भी हो, मैं तुझे भीतर मिलूंगा। कहीं से भी तू आ, तू मेरे पास पचास साल के हो गए हैं। पता नहीं चालीस साल से, पैंतालीस पहुंच जाएगा। | साल से, कब से कर रहे हैं! कोई अनुभव नहीं हुआ, और यह पर एक ही बात खयाल रहे, उपासना यांत्रिक बन गई कि मिट | पैंतालीस साल मंदिरों के सामने सिर झुकाने में गए। तो ये सिज्दा जाती है। और हमारी हालतें ऐसी हैं कि यांत्रिक बनने का सवाल | बेकार हो गया। यह प्रार्थना फिजूल है। यह यांत्रिक हो गई। अब ही नहीं उठता, हम पहले से ही उसे यांत्रिक मानकर चलते हैं। बाप | यह एक मजबूरी है। एक रोबोट का हिस्सा हो गई है कि करनी अपने बेटे को मंदिर में ले जाता है और कहता है. पजा करो। बेटे पडती है। करते रहेंगे और मर जाएंगे। को स्मरण कल भी नहीं दिलाया जाता सिर्फ पजा करवाई जाती है।। उपासना ऐसे नहीं होगी। उपासना का अर्थ है, स्मरणपूर्वक, बेटे को अभी यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। अभी उसे यह भी पता माइंडफुली; ईश्वर को स्मरण करते हुए किया गया कोई भी कृत्य नहीं कि यह क्या हो रहा है! बाप सिर झुकाता है, बड़े-बूढ़े सिर | उपासना है। गड्ढा खोदते हों जमीन में, ईश्वर को स्मरणपूर्वक झुकाते हैं, वह भी सिर झुकाता है। यह सिर झुकाना रोबोट हो | | खोदते हों; मिट्टी न निकलती हो, ईश्वर ही निकलता हो, तो प्रार्थना जाएगा। फिर यह जिंदगीभर झुकाता रहेगा। हो गई, उपासना हो गई। उस गड्ढे में भी वही मिलेगा। किसी मरीज ऐसे मैं लोगों को देखता हूं। सड़कों पर से जा रहे हैं, मंदिर के पैर दाबते हों, मरीज मिट जाए, ईश्वर ही रह जाए। ईश्वर के ही देखकर जल्दी से उनका सिर झुक जाता है। रोबोट! उनसे अगर पैर हाथ में रह जाएं। स्मरणपूर्वक ईश्वर के ही पैर दबने लगें। उसी पूछो कि क्या किया, तो वे कहेंगे, कुछ किया नहीं। | मरीज में ईश्वर मिल जाएगा। कहां, यह सवाल नहीं है; कैसे! एक मित्र को मैं जानता हूं। गांव में कोई भी मंदिर पड़े, तो वे तो कृष्ण कहते हैं, सब जगह मैं हूं, सबके भीतर मैं छिपा हूं। उसको नमस्कार करते हैं। मेरे साथ घूमने जाते थे सुबह। तो मैंने तुम कहीं से भी आ जाओ, सब रास्ते मेरे पास ले आते हैं। सिर्फ उनसे कहा, एक दफा ठीक से एक मंदिर के सामने घड़ी दो घड़ी | | मुझे स्मरण रखना, इतनी ही शर्त है। बैठकर यह कर लो, तो ज्यादा बेहतर है बजाय फुटकर दिनभर | आज इतना ही। करने के। इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ता, जहां से भी निकले, | लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में डूबें। पांच मिनट जल्दी से सिर झुकाया, आगे बढ़ गए! | उपासना के बना लें। कोई उठेगा नहीं, बैठे रहें। और जब तक मेरी बात उनकी समझ में पड़ी। एक दिन उन्होंने किया। फिर मेरे | कीर्तन खतम न हो, तब तक उठें न। एक पांच मिनट शांति से साथ घूमने गए। मंदिर पड़ा, तो उनको बड़ी बेचैनी हुई। उनको अपनी जगह बैठे रहें। अपने हाथ-पैर रोकने पड़े। दस कदम मेरे साथ आगे बढ़े और मुझसे बोले, माफ करिए! मैंने कहा, क्या हुआ? उन्होंने कहा, मुझे वापस जाकर नमस्कार करनी पड़ेगी। क्या मामला है? मझे भय लग रहा है। जिंदगी में ऐसा मैंने कभी नहीं किया। इस मंदिर को तो मैं कभी चूकता ही नहीं। तो मुझे भय लग रहा है कि पता नहीं इससे कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहा, जाओ! अब यह ठीक वैसी ही आदत हो गई, जैसे किसी को सिगरेट पीने की हो जाए। न पीए, तो मुश्किल मालूम पड़ती है। अब यह मंदिर को हाथ जोड़ना एक आदत का हिस्सा हो गया। अब यह जबरदस्ती हाथ को रोकना पड़ता है। मैंने उनसे पूछा, कितने साल से करते हो? वह कहते हैं, मुझे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 सातवां प्रवचन मैं ओंकार हूं Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-42 पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । हैं, उससे हम मुक्त भी होना चाहेंगे। बंधन चाहे कितना ही स्वर्ण वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ।। १७ ।। का क्यों न हो, विद्रोह पैदा करेगा। गतिर्मा प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । भारतीय मनीषा धर्म को एक बंधन नहीं मानती, धर्म को एक प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजमव्ययम् ।।१८।। | मुक्ति मानती है। धर्म एक ग्रंथि नहीं है, जिससे हम बंधे हैं; धर्म और हे अर्जुन! मैं ही इस संपूर्ण जगत का धाता अर्थात | एक स्वतंत्रता है, जिसमें हम मुक्त हो सकते हैं। धर्म शब्द का अर्थ धारण करने वाला, पिता, माता और पितामह हूं, है, जिसने हमें धारण किया है। उससे हम बंधे नहीं हैं, हम उससे और जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद ही निष्पन्न हुए हैं। और यजुर्वेद भी मैं ही हूं। एक वृक्ष है। वृक्ष के नीचे उतरें, तो जड़ों का फैलाव है। वृक्ष और हे अर्जुन, प्राप्त होने योग्य गंतव्य तथा भरण-पोषण ऐसा भी सोच सकता है कि जमीन वह है, जिससे मैं बंधा हूं। और करने वाला, सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वास इस सोचने में भी गलती न होगी। क्योंकि वृक्ष ऐसा देख सकता है स्थान और शरण लेने योग्य तथा हित करने वाला, कि यह जमीन ही है, जिसमें मेरी जड़ें उलझी हैं और जिससे मैं बंधा और उत्पत्ति और प्रलयरूप तथा सबका आधार, निधान हूं। वृक्ष जड़ों और जमीन के बीच के संबंध को बंधन की भांति भी अर्थात प्रलयकाल में सबका जिसमें लय होता है, देख सकता है। और वृक्ष इस भांति भी देख सकता है कि जमीन और अविनाशी, बीज कारण भी में ही हूं। मेरा बंधन नहीं है; यह जमीन ही है, जिस पर मैं सधा हूं। यह जड़ों और जमीन के बीच बंधन नहीं है, जड़ों और जमीन के बीच प्राणों का संबंध है। - से मार्ग हैं अनेक और मंजिल एक है, वैसे ही प्रभु के __ अगर वृक्ष ऐसा देखे कि जमीन से मैं बंधा हूं, तो जमीन से मुक्त UI रूप भी हैं अनेक, वह जो रूपायित हुआ है, वह एक | होने की कोशिश शुरू हो जाएगी। इस देखने से ही कोशिश शुरू है। ऐसा नहीं है कि उसे एक ही रूप में देखा जा सके! | | हो जाएगी। यह दृष्टि ही छुटकारे का प्रारंभ होगी। और अभागा कोई रूप की सीमा नहीं है। जो जिस रूप में खोजना चाहे, उसे | | होगा वह वृक्ष। क्योंकि जहां तक देखने का संबंध है, वहां तक तो खोज ले सकता है। सभी रूप उसके हैं। जो भी है, वही है। कोई हर्ज नहीं है कि वृक्ष समझे कि मैं जमीन से बंधा हूं, क्योंकि कृष्ण इस सूत्र में बहुत-से शब्दों का संकेत किए हैं। वे | आकाश में उड़ नहीं सकता, लेकिन जिस दिन वृक्ष इस बंधन से शब्द-संकेत समझने जैसे हैं; क्योंकि उन शब्द-संकेतों से ही | मुक्त होने की कोशिश करेगा, उस दिन वृक्ष अपने ही हाथों अपनी साधना का पथ भी विस्तीर्ण होता है। कहा है, अर्जुन, मैं ही इस | | आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि जड़ें बंधन नहीं हैं, जीवन हैं। संपूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वाला हूं। धर्म का अर्थ है, जिसने हमें धारण किया है। वह बंधन नहीं है, धर्म शब्द से हम परिचित हैं। धर्म शब्द का अर्थ होता है, जो वह हमारे प्राणों का स्रोत है। जड़ें बंधन नहीं हैं, जड़े वृक्ष के प्राण धारण करे, जो धारण किए हुए है! धर्म शब्द से अर्थ रिलीजन नहीं | | हैं। और पृथ्वी ने उसे बांधा नहीं है, जीवन दिया है। सच तो यह है होता। धर्म शब्द से अर्थ मजहब भी नहीं होता। मजहब का अर्थ कि जड़ों के कारण ही वह आकाश में फैलने में समर्थ हुआ है। जड़ों होता है, पंथ, सेक्ट, संप्रदाय। रिलीजन शब्द का मौलिक अर्थ | में जो रस, जड़ों में जो प्राण, जो ऊर्जा उसे उपलब्ध हो रही है, वही होता है, जिससे हम बंधे हैं, रिलीगेर, जिससे हम बंधे हैं। लेकिन उसके पत्ते और फूल बनकर आकाश में खिली है। यह जो वृक्ष की यह बड़ी कीमती बात है कि भारत धर्म को इस भांति नहीं सोचता यात्रा है आकाश की तरफ उठने की, यह जो महत्वाकांक्षा है कि कि जिससे हम बंधे हैं, बल्कि इस भांति सोचता है कि जिस पर हम आकाश को छू लूं, यह जड़ों के ही आधार पर है। सधे हैं। और ध्यान रहे, जितनी जड़ें गहरी जाएंगी जमीन में, उतना ही बंधन शब्द अप्रीतिकर भी है, कुरूप भी है। शायद पश्चिम ने | वृक्ष ऊपर जाएगा आकाश में। अगर जड़ें जमीन के पूरे के पूरे प्राणों धर्म को एक बांधने वाली सीमा-रेखा की तरह देखा है, इसीलिए | में प्रविष्ट हो जाएं, तो वृक्ष आकाश को स्पर्श कर लेगा। जितनी पश्चिम ने धर्म से मुक्त होने की चेष्टा भी की है। जिससे हम बंधे होगी गहराई जड़ों की, उतनी ऊंचाई हो जाएगी वृक्ष की। जड़ें दुश्मन |258| Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं ओंकार हूं * नहीं हैं; और जड़ें ऊंचे उठने में बाधा भी नहीं हैं; और जड़ें आकाश में उड़ने में सहयोगी हैं, साथी हैं। उनके बिना वृक्ष बचेगा ही नहीं, आकाश में उड़ने का तो सवाल ही नहीं है। भारतीय मनीषा कहती है कि धर्म है वह, जो हमें धारण किए है। इसमें एक और मजे की बात है कि अगर आपको बंधन में डाला जाए, तो आपकी जानकारी के बिना नहीं डाला जा सकता। और बंधन में डालने का तो अर्थ ही यह होगा कि पहले कभी आप बंधन के बाहर भी थे, और कभी बंधन में डाल दिए गए हैं, और कभी बंधन से फिर अलग भी हो सकते हैं। यहां एक दूसरा सूत्र आप खयाल ले लें। भारतीय मनीषा की दृष्टि ऐसी है कि धर्म वह है, जिससे हम चाहें तो भी अलग नहीं हो सकते; कोई उपाय नहीं है। हम चाहें तो भी हम धर्म से अलग नहीं हो सकते, क्योंकि धर्म हमारे प्राणों का आधार है। धर्म से अलग होकर हम हो ही नहीं सकते, हमारा अस्तित्व भी नहीं होगा। जैसे वृक्ष जमीन से अलग होकर नहीं हो सकता, और जैसे मछली सागर से अलग होकर नहीं हो सकती। क्योंकि सागर सिर्फ मछली के लिए माध्यम ही नहीं है, जिसमें वह होती है, वह उसका प्राण भी है। सागर ने उसे धारण भी किया है, जन्माया भी है, जिलाया भी है। सागर उसे लीन भी करेगा अपने में। सागर ही मछली के भीतर भी दौड़ रहा है। इसलिए सागर के बाहर आकर मछली को जीना असंभव है। थोड़ी-बहुत देर जी सकती है, जितनी देर तक, भीतर जो सागर था, वह सूख न जाए। थोड़ी-बहुत देर वृक्ष भी हरा रहेगा, जितनी देर तक जमीन से खींची गई रस-धार मौजूद रहेगी। फिर सूख जाएगा। धर्म वह है, जिससे हम अलग नहीं हो सकते। वह हमारी आत्मा हैं। इसलिए धर्म की जो दूसरी बड़ी व्याख्या भारत ने की है, वह महावीर ने की है। हिंदुओं ने व्याख्या की है कि धर्म वह है, जो धारण किए है। महावीर ने व्याख्या की है कि धर्म वह है, जो हमारा स्वभाव है। बात एक ही है। क्योंकि स्वभाव ही हमें धारण किए हुए है; या जो हमें धारण किए हुए है, वही हमारा स्वभाव है; वही हमारा इनट्रिजिक नेचर है; वही हम हैं। तो कृष्ण अपनी पहली परिभाषा देते हैं; वे कहते हैं, मैं धर्म हूं; मैं धाता हूं; मैं वह हूं, जो धारण किए है। जो हमें धारण किए है, उसे हम भूल सकते हैं, उससे हम दूर नहीं हो सकते। जो धारण किए है, उसे हम भूल सकते हैं, उससे हम दूर नहीं हो सकते। उसका हम विस्मरण कर सकते हैं, उससे हम विच्छिन्न नहीं हो सकते। उसे हम जन्मों-जन्मों तक याद न करें, यह हो सकता है, लेकिन हम क्षणभर को भी उससे भिन्न नहीं हो सकते। इसलिए सारी दुनिया में धर्म को सीखने की भाषा में समझा गया है; धर्म भी एक लर्निंग है, एक शिक्षण है। भारत ने उसे इस भाषा में नहीं समझा। भारत के लिए धर्म शिक्षण नहीं है, पुनर्मरण है; रिमेंबरिंग है। हम सिर्फ भूल सकते हैं, खो नहीं सकते। और जो बहुत निकट होता है, उसे भूलना आसान है। गुह्य वृक्ष अगर अपनी जड़ों को भूल जाए, तो बहुत कठिन नहीं है। कई कारण हैं। पहला तो कारण यह है कि जड़ें छिपी होती हैं जमीन के भीतर। असल में जहां भी जन्म होता है, वहां गुह्य अंधकार चाहिए। चाहे मां के पेट में बच्चे का जन्म होता हो, तो भी | अंधकार चाहिए। और चाहे जड़ों में वृक्ष का जन्म होता हो, तो भी पृथ्वीका गुह्य अंधकार चाहिए। जहां भी जन्म होता है, वहां इतनी निजता चाहिए कि प्रकाश भी बाधा न डाले। वहां इतना मौन | चाहिए, इतनी शांति चाहिए कि प्रकाश की किरण भी आकर कंपन पैदा न करे । प्रकाश के साथ हलन चलन शुरू हो जाता है। अंधकार महाशांति है। और इसलिए हम अंधकार से डरते हैं, क्योंकि हम कोई भी शांति नहीं चाहते। जो भी शांति चाहेगा, वह अंधकार से नहीं डरेगा, अंधकार को प्रेम करने लगेगा। जो जितनी ज्यादा अशांति से भरा होगा, उतना अंधकार से डरेगा, भयभीत होगा । मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो अंधकार में सो भी नहीं सकते ! रात को प्रकाश जलाकर ही सोएंगे। यह अशांति की आखिरी सीमा है। जड़ें तो अंधकार में बड़ी होती हैं, इसलिए छिपी होती हैं। जो भी | महत्वपूर्ण है, वह गुप्त होता है। जो प्रकट होता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। ध्यान रहे, जो भी महत्वपूर्ण है, वह सदा गुप्त होता है। जड़ें गुप्त हैं, वे महत्वपूर्ण हैं; उन्हें उघाड़ा नहीं जा सकता। शाखाएं उघड़ी हैं, जो उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं। हम एक वृक्ष की शाखाओं को काट दें, नई शाखाएं आ जाएंगी। एक पूरा वृक्ष गिर जाए, नए अंकुर निकल | आएंगे और नया वृक्ष निर्मित हो जाएगा। क्योंकि वह जो प्राण है, वह नीचे छिपा है। उस पर आघात भी नहीं पहुंचता है। लेकिन जड़ें | काट दें, फिर सारा वृक्ष कुम्हला जाएगा और मर जाएगा। तो जहां जीवन का सूत्र है, उसे छिपाकर रखा है जीवन ने जड़ें | छिपी हैं; वृक्ष भूल सकता है। बहुत स्वाभाविक है कि वृक्ष को जड़ों की कोई याद न आए। फूल दिखाई पड़ें; शाखाएं दिखाई पड़ें। 259 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 * रोशनी में हैं; आकाश में फैली हैं; महत्वाकांक्षा का हिस्सा हैं। पक्षी आते हैं, शाखाओं पर विश्राम करते हैं। फूल आते हैं, पक्षी गीत गाते हैं। सुबह सूरज निकलता है, हवाएं झोंके देती हैं। तूफान आते हैं, आंधियां आती हैं। वर्षा होती है, रात में चांदनी बरसती है। सब वृक्ष के ऊपर घटित होता है। वृक्ष इसमें खो जा सकता है, जड़ें भूल जा सकता है। लेकिन जब वृक्ष को जड़ों की बिलकुल भी याद नहीं है, तब भी जड़ें ही उसे धारण किए हुए हैं। जब उसे बिलकुल भी स्मरण नहीं | है, जब वह कभी धन्यवाद का एक शब्द भी जड़ों से कहता, जब कभी लौटकर जड़ों का कोई आभार भी नहीं मानता, तब भी जड़ें उसे धारण किए हुए हैं। तो एक व्यक्ति नास्तिक हो, ईश्वर को इनकार कर दे, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है; ईश्वर ही उसे धारण किए हुए है। और एक व्यक्ति भूल जाए, और ईश्वर की उसे कोई सुध न रहे, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ईश्वर ही उसे धारण किए हुए है। कृष्ण कहते हैं, मैं हूं धाता, मैं वह हूं, जो धारण किए हुए है। कोई जाने, न जाने पहचाने, न पहचाने; स्मृति आती हो, न आती हो, चाहे तो इनकार भी कर दे, तो भी मैं धारण किए हुए हूं। आप इनकार कर सकते हैं, लेकिन ईश्वर से बच नहीं सकते। आप भाग सकते हैं; कितने ही भागें! जैसे कोई मछली सागर में सागर से भागती हो, भागती जाए, मीलों के चक्कर लगाए और फिर भी पाए कि सागर में है। ऐसे ही हर व्यक्ति जो ईश्वर से भागता है, एक दिन पाता है कि वह जिसमें भाग रहा था, वही तो ईश्वर है। कहां भागकर जाने का उपाय है ? इसलिए हमने बहुत मौलिक और आधारभूत व्याख्या पकड़ी है धर्म की और वह है कि जो हमें धारण किए है। और आपको ही नहीं ... । सारी दुनिया में धर्मों ने मनुष्य को केंद्र बना लिया है। इसलिए बहुत धर्म हैं, जो कहेंगे कि जानवरों में तो कोई आत्मा ही नहीं है, इसलिए उनकी हिंसा की जा सकती है; वृक्षों में कोई आत्मा नहीं है, उन्हें काटा जा सकता है; सिर्फ आदमी में आत्मा है। अधिकतर धर्म एन्थ्रोपोसेंट्रिक हैं; आदमी को केंद्र मान लिया है। भारत ऐसा नहीं मानता। भारत यह नहीं कहता कि जो आदमी को धारण किए हुए है, वह ईश्वर है। भारत यह कहता है कि अस्तित्व जिसमें सम्हला हुआ है, जो अस्तित्व को ही धारण किए हुए है, वह ईश्वर है। वही नहीं है ईश्वर, जो आपको धारण किए हुए है; | वह जो वृक्ष को धारण किए हुए है, वह भी ईश्वर है। वह जो नदी में बह रहा है, वह भी ईश्वर है। वह जो सूरज में पिघलकर आग बन रहा है, वह भी ईश्वर है। और वही ईश्वर नहीं है, जो आपको प्रीतिकर है, जो अप्रीतिकर है, वह भी ईश्वर है। अमृत ही ईश्वर नहीं है, जहर भी ईश्वर है । जहर के होने के लिए भी उसका ही आधार चाहिए। उसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। इसे हम ऐसा समझें, कि ईश्वर से हमारा अर्थ है, अस्तित्व का | जो सार है। इसलिए ईश्वर हमारे लिए व्यक्ति नहीं है। वह कहीं आकाश में सात आसमानों के ऊपर बैठा हुआ सिंहासन पर कोई | व्यक्ति नहीं है, जो राज-काज चला रहा है। इतनी बचकानी हमारी धारणा नहीं है। यह बच्चों का ईश्वर है। इससे और गहरे ईश्वर को | बच्चे नहीं समझ सकते। लेकिन हमारे लिए ईश्वर का अर्थ है, | जिसमें सभी कुछ धारा हुआ है – सभी कुछ; जन्म भी और मृत्यु भी; और सृजन भी और प्रलय भी । तो इसका साधक के लिए क्या अर्थ होगा ? | साधक के लिए अर्थ होगा कि जब भी आप किसी चीज को देखें, तो उसकी शाखाओं पर कम, उसकी जड़ों पर ज्यादा ध्यान दें। और जब भी किसी चीज को आप देखें, तो जो प्रकट है, उस पर कम;. . और जो अप्रकट है, उस पर ज्यादा ध्यान दें। जो दिखाई पड़ रहा है, उस पर कम; और जिसके कारण दिखाई पड़ रहा है, | उसकी खोज करें। मछली को देखें, तो सागर की याद करें। और वृक्ष को देखें, तो जड़ों का स्मरण आ जाए। सदा ही उसकी खोज | करते रहें, जो नीचे छिपा है सभी को सम्हाले हुए है। तो कृष्ण कहते हैं, मैं धाता हूं। और अगर कोई धर्म की खोज | करता रहे, तो मुझ तक पहुंच जाता है। मैं पिता हूं, माता हूं, पितामह हूं। 1 अजीब है बात। क्योंकि वे कह रहे हैं, मैं पिता भी हूं ! पिता कहते हों, तो फिर माता नहीं कहना चाहिए; कहते हैं, मैं माता भी हूं ! और यहां तक भी ठीक था, फिर बात और भी अतर्क्य हो जाती है; वे कहते हैं, पिता का पिता भी मैं ही हूं; पितामह भी मैं ही हूं! ऐसा कहकर क्या कहना चाहते हैं? ऐसा कहकर वे यह कहना चाहते हैं - इसे हम थोड़ा दो-तीन तरफ से समझने की कोशिश करें। | आप पैदा हुए। तो शायद आपको खयाल होगा, जन्म की एक | तिथि है और फिर मृत्यु की एक तिथि है, इन दोनों के बीच आप समाप्त हो जाएंगे। लेकिन इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है । इस जगत में कोई चीज अलग-थलग नहीं है। जन्म के 260 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं ओंकार हूं * पहले भी आपको किसी न किसी रूप में होना ही चाहिए, अन्यथा | जानी चाहिए, जो फिर भरी न जा सके। आपका जन्म नहीं हो सकता। जगत एक श्रृंखला है, जगत एक | लेकिन ऐसा नहीं होगा। मेरे होने न होने से इस विराट प्रवाह में कड़ियों का जोड़ है, जिसमें हर कड़ी पीछे की कड़ी से जुड़ी है; और | कहीं भी कोई भनक भी न पड़ेगी। तो फिर मैं अलग हूं और यह हर कड़ी आगे की कड़ी से भी जुड़ी है। जिसे आप जन्म कहते हैं, | | जगत अलग है। और निश्चित ही इस जगत और मेरे बीच जो संबंध वह सिर्फ एक कड़ी की शुरुआत है; पिछली कड़ी पीछे छिपी है। | है, वह मैत्री और प्रेम का नहीं, संघर्ष का और शत्रुता का है। इस और जिसे आप मृत्यु कहते हैं, वह फिर एक कड़ी का अंत है; जगत से मुझे जीतना है, ताकि मैं ज्यादा जी सकू। इस जगत से मुझे लेकिन अगली कड़ी आगे मौजूद है। इस जगत में कोई चीज बचना है, ताकि यह जगत मुझे पीस न डाले। विच्छिन्न नहीं है। जीवन एक सतत श्रृंखला है, एक प्रवाह है। ___ जगत बिलकुल बेरुखा मालूम पड़ता है। वृक्ष के नीचे खड़े हों, अगर ईश्वर को खोजना है, तो प्रवाह को देखना पड़ेगा; और | | वृक्ष ऊपर गिर जाता है! और जरा भी खबर नहीं देता है कि मैं गिर अगर ईश्वर से बचना है, तो व्यक्ति को देखना पड़ेगा। अगर आप | | रहा हूं, हट जाओ! और तूफान आता है, और आप गिर जा सकते व्यक्ति को देखेंगे, तो ईश्वर को खोजना मुश्किल है। हैं। आंधी आपको मिटा दे सकती है। सागर आपको डुबा ले सकता मैं पैदा हुआ, मैं मर जाऊंगा; अगर यही जीवन है, तो इस जगत है। पहाड़ आपको दबा दे सकता है। इस जगत में चारों तरफ में ईश्वर का कोई अनुसंधान नहीं हो सकता। मेरा जन्म भी तब बेबूझ अस्तित्व को आपकी कोई भी चिंता नहीं है। एक शत्रुता है; जगत है, क्योंकि कोई कारण नहीं, एक एक्सिडेंट, एक दुर्घटना मालूम आपको मिटाने पर तुला है। तो आप जगत से संघर्ष करने को तत्पर होती है कि मैं पैदा हुआ; और मेरी मृत्यु भी एक दुर्घटना होगी। इन हो जाएं। दोनों के पार, जगत के अस्तित्व से मेरा क्या संबंध है? जब मैं नहीं। इसलिए पश्चिम ने एक भाषा खोजी है; वह भाषा युद्ध की भाषा था, तब भी जगत था; और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी जगत रहेगा। है, संघर्ष की भाषा है। इसलिए ऐसी किताबें लिखी गई हैं पिछले तो मैं इस जगत से अलग हो गया, मेरे संबंध टूट गए। | पचास वर्षों में। बड रसेल ने भी एक किताब लिखी है; नाम दिया और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी फूल खिलते रहेंगे। और जब मैं है, कांक्वेस्ट आफ नेचर, प्रकृति की विजय! नहीं रहंगा, तब भी वसंत आएगा और पक्षी गीत गाते रहेंगे। और विजय की भाषा ही संघर्ष और यद्ध की भाषा है। हम उसे कैसे रहंगा. तब भी झरने बहेंगे और नाचेंगे और सागर की जीत सकते हैं. जो हमारा प्राण है? हम उसे कैसे जीत सकते हैं. जो तरफ चलेंगे। तब तो इस जगत से मेरी शत्रुता भी निर्मित हो गई। | हमें धारण किए है? हमारा उससे क्या संघर्ष हो सकता है? मछली क्योंकि मेरे होने न होने से इस जगत की धारा का कोई भी संबंध | | का क्या संघर्ष सागर से? वृक्ष की जड़ों का क्या संघर्ष पृथ्वी से? नहीं मालूम पड़ता। मैं अलग हो गया। मैं टुकड़ा हो गया। | लेकिन दृष्टि पर निर्भर करेगा। पश्चिम की दृष्टि ऐसी ही है, व्यक्ति को एक टुकड़े की तरह तो कृष्ण कहते हैं, मैं तुम में ही नहीं हूं, मैं तुम्हारी मां में भी हूं, देखने की। और इसलिए पश्चिम में जीवन को देखने का ढंग संघर्ष | तुम्हारे पिता में भी, पिता के पिता में भी।। का हो गया। अगर मैं अलग हूं, तो जीवन संघर्ष है; और अगर मैं | श्रृंखला की खबर दे रहे हैं वे। वे यह कह रहे हैं कि तुम तुम में एक हूं, तो जीवन समर्पण होगा। | ही नहीं हो, तुम तुम्हारी मां में भी थे; तुम तुम्हारे पिता में भी थे; अगर मैं इस जगत से अलग हूं और मेरे जन्म से इस जगत को और तुम तुम्हारे पिता के पिता में भी थे। और तुम अपने बच्चों में कोई प्रयोजन नहीं है; मैं जब नहीं था, तो जगत में कौन-सी कमी भी रहोगे; और तुम अपने बच्चों के बच्चों में भी रहोगे। यह जगत थी? कोई भी तो मेरे न होने से फर्क नहीं पड़ता था। और जब मैं | | तुमसे कभी भी खाली नहीं होगा; और यह जगत तुमसे कभी खाली कल नहीं हो जाऊंगा, तो जगत में कौन-सी कमी हो जाएगी? कोई | | नहीं था। यह जगत तुमसे सदा ही भरा रहा है; और यह जगत सदा भी तो फर्क नहीं पड़ेगा। तुमसे भरा ही रहेगा। इस जगत के तुम अनिवार्य हिस्से हो। इस तो मेरा होना और जगत का होना, दोनों संबद्ध नहीं मालूम होते। | जगत में और तुम्हारे बीच एक पारिवारिक नाता है। यह जगत नहीं तो जब मैं नहीं था, तो जगत में कुछ कमी होनी चाहिए। और तुम्हारा पड़ोसी ही नहीं है; इस जगत के और तुम्हारे बीच, जैसे मां जब मैं न रह जाऊं, तब एक खाली जगह, एक रिक्त जगह छूट और बेटे के बीच, पिता और बेटे के बीच नाता हो, वैसा नाता है। 261 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 तुम इसकी ही कड़ी हो। | खिड़की नहीं, कोई दरवाजा नहीं। सब तरफ से बंद। कहीं बाहर से एक लहर उठती है सागर में, क्षणभर को नाचती है आकाश में, | | जुड़ने का कोई सेतु नहीं। कोई चर्चा नहीं हो सकती। पड़ोसी से सूरज को छूने की कोशिश करती है, और फिर गिर जाती है। लहर | मिलने का कोई उपाय नहीं। हाथ फैलाकर दोस्ती नहीं बांधी जा सोच सकती है कि मैं सागर से अलग हूं। सोच सकती है। अलग | सकती। सब तरफ से बंद। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति एक बंद अणु है। होती भी है क्षणभर को। प्रकट ही दिखाई पड़ता है कि सागर से अगर ऐसा है, तो जगत एक भयंकर संघर्ष होगा और एक भयंकर अलग है। छलांग भरती है आकाश की तरफ, पूरा सागर नीचे पड़ा | असफलता भी। रह जाता है; सिर्फ लहर उठती है। कृष्ण कहते हैं, जगत या व्यक्ति, अलग-अलग चीजें नहीं हैं, तो लहर को यह खयाल अगर आ जाए, यह अहंकार अगर आ| एक लंबी श्रृंखला है। जिसमें हर चीज पिछली कड़ी से और अगली जाए कि मैं अलग है, तो गलती तो कुछ भी नहीं है। और जब लहर कड़ी से जुड़ी है। यह जो वृक्ष की जड़ है, यह जो वृक्ष के शिखर पर को सागर नीचे खींचने लगे, तो लहर को ऐसा लगे कि सागर मुझे | | फूल खिला है, इससे जुड़ी है। अगर फूल से बात कर रहे होते अर्जुन मिटाने को तत्पर है, और हवाएं मुझे तोड़ देने को उत्सुक हैं, और | की जगह कृष्ण, तो फूल से वे कहते कि मैं तेरे भीतर तो हूं ही; तेरी सारा जगत मेरे खिलाफ है, और सारा जगत मुझे मिटाने की चेष्टा | जड़ों के भीतर भी मैं ही हूं। और तेरी जड़ें जिस बीज से पैदा हुई थीं, में लगा है, तो मुझे लड़ना है! यह भी तर्कयुक्त होगा। पहले निर्णय | उसके भीतर भी मैं ही था। और वह बीज जिस वृक्ष पर लगा था, वह के बाद, यह दूसरी बात स्वाभाविक है। | भी मैं हूं। और वह वृक्ष जिन जड़ों से आया था, वह भी मैं। और तू लेकिन लहर को सागर मिटाने को उत्सुक है? सागर लहर को | लौटता जा पीछे; मैं तेरा पूरा इतिहास हूं; दि होल हिस्ट्री। मैं तेरा मिटाने को उत्सुक हो भी कैसे सकता है! और यह सच है कि लहर | अनंत इतिहास हूं। सब जो हुआ है पहले, उसमें मैं था। और अभी सागर में ही मिटती है। फिर भी सागर लहर को मिटाने को उत्सुक जो हो रहा है, वह उससे जुड़ा हुआ अंग है। नहीं है। क्योंकि लहर को यह पता ही नहीं है कि वह सागर का बढ़ा ___ व्यक्ति अपने को अस्तित्व से अलग न समझे, तो ही धर्म के हुआ हाथ है, और कुछ भी नहीं है। वह सागर की ही छाती पर उठी | अनुभव में उतरता है। अलग समझे, तो अधर्म के अनुभव में यात्रा एक तरंग है। वह सागर की ही छाती है। वह सागर की ही | शुरू हो जाती है। व्यक्ति अपने को जगत से एक जान पाए, तो महत्वाकांक्षा है, जो छलांग लगा गई है। इससे भिन्न नहीं है। सागर | तत्क्षण लहर फैलकर सागर बन जाती है। उसे क्यों मिटाएगा! सागर ही है वह। __ और काश! मैं यह देख सकूँ कि मैं अपने पिता में, अपनी मां कृष्ण कहते हैं, मैं मां भी हूं, पिता भी हूं, पितामह भी हूं। | में, उनके पिता में, उनकी मां में, अनंत-अनंत श्रृंखलाओं में किसी वे यह कह रहे हैं कि मैं वह अनंत श्रृंखला हूं, जिसकी तुम एक | | न किसी रूप में मौजूद था, तो फिर मेरा जन्म कोई अनहोनी घटना कड़ी हो। मैं तुम्हारे पीछे तुम्हारे पिता की तरह छिपा हूं; तुम्हारे पीछे | | नहीं रह जाती, एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हो जाता है। फिर मेरी तुम्हारी मां की तरह छिपा हूं; उनके भी पीछे, उनके भी पीछे, मैं | | मृत्यु भी मृत्यु नहीं होगी; क्योंकि जब मेरा जन्म मेरा जन्म नहीं है, सदा तुम्हारे पीछे खड़ा हूं। तुम मेरे ही बढ़े हुए हाथ हो; तुम मेरी ही तो मेरी मृत्यु भी मेरी मृत्यु नहीं हो सकती। मेरा जन्म एक लंबी लहर हो; तुम मेरी ही तरंग हो। और तुम्ही नहीं हो, तुम्हारी मां भी श्रृंखला का हिस्सा है और मेरी मृत्यु भी एक लंबी श्रृंखला का थी; तुम्हारे पिता भी थे; उनके पिता भी थे। हिस्सा होगी। समझें। एक दृष्टि है व्यक्ति को व्यक्ति मानने की, एटामिक, | | और तीसरी बात कहते हैं, और जानने योग्य पवित्र ओंकार मैं हूं। अणु की तरह अलग। लीबनिज ने इसके लिए एक ठीक शब्द ___ अतीत की बात कही कि यह मैं हूं। अतीत की सारी श्रृंखला मैं पश्चिम में खोजा है। उसने शब्द दिया है, मोनोड। मोनोड का | | हूं; आई एम दि पास्ट, दि होल पास्ट। पूरा बीता हुआ सब मैं हूं। मतलब होता है, एक ऐसा अणु, जिसमें कोई खिड़की-दरवाजे नहीं | | और तत्क्षण भविष्य की बात कहते हैं कि जानने योग्य ओंकार भी हैं; जो सब तरफ से बंद है। | मैं हूं। तो हम व्यक्ति को मोनोड समझ सकते हैं; विंडोलेस, डोरलेस, | | ओंकार का अनुभव इस जगत का आत्यंतिक, अंतिम अनुभव एटामिक, क्लोज्ड; सब तरफ से बंद एक मकान, जिसमें कोई है। कहना चाहिए, दि अल्टिमेट फ्यूचर। जो हो सकती है आखिरी 262 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं ओंकार हूं बात, वह है ओंकार का अनुभव। मांस-पेशियां टकराती हों, चाहे मेरे मुंह से निकलती हुई वायु का तो कृष्ण कहते हैं, भविष्य भी मैं हूं। कहते हैं, अतीत ही मैं नहीं | धक्का आगे की वायु से टकराता हो, लेकिन टकराहट से पैदा होता हूं, तुम्हारा पिता ही मैं नहीं हूं, पिता का पिता ही मैं नहीं हूं, तुम्हारी | | है संगीत। हमारी सभी ध्वनियां टकराहट से पैदा होती हैं। हम जो जो भी संभावना है भविष्य की, वह भी मैं हूं। तुम जो हो सकते हो, | | भी बोलते हैं, वह एक व्याघात है, एक डिस्टरबेंस है। वह भी मैं हूं। तुम जो थे, वह मैं हूं ही। तुम जो हो, वह मैं हूं ही। ओंकार उस ध्वनि का नाम है, जब सब व्याघात खो जाते हैं, तुम जो हो सकते हो; वह फूल, जो अभी नहीं खिला, खिलेगा | | सब तालियां बंद हो जाती हैं, सब संघर्ष सो जाता है, सारा जगत वह भी मैं हूं। और वह जो बीज अभी नहीं लगा, लगेगा, वह भी विराट शांति में लीन हो जाता है, तब भी उस सन्नाटे में एक ध्वनि मैं हूं। इस जगत का अतीत ही मैं नहीं हूं, इस जगत की संपूर्ण | सुनाई पड़ती है। वह सन्नाटे की ध्वनि है; वॉइस आफ साइलेंस; संभावना भी मैं हूं। जो कुछ भी हो सकेगा, वह भी मैं हूं। | वह शून्य का स्वर है। उस क्षण सन्नाटे में जो ध्वनि गूंजती है, उस क्योंकि अगर परमात्मा सिर्फ अतीत है और भविष्य नहीं, तो ध्वनि का, उस संगीत का नाम ओंकार है। व्यर्थ है। क्योंकि अतीत तो हो चुका। जो हो चुका, अब उससे कुछ | - अब तक हमने जो ध्वनियां जानी हैं, वे पैदा की हुई हैं। अकेली लेना-देना नहीं है। जो नहीं हुआ है, वही हमारी आशा है। अगर | | एक ध्वनि है, जो पैदा की हुई नहीं है; जो जगत का स्वभाव है; उस परमात्मा सिर्फ हमारा अतीत है, तो भविष्य अंधकार है। अतीत तो | | ध्वनि का नाम ओंकार है। जा चुका, मर चुका, हो चुका। मौलिक रूप से परमात्मा को हमारा इस ओंकार को कृष्ण कहते हैं, यह अंतिम भी मैं हूं। जिस दिन भविष्य होना चाहिए। तो ही आशा, सार्थक आशा का जन्म होता | सब खो जाएगा, जिस दिन कोई स्वर नहीं उठेगा, जिस दिन कोई है, तो ही सार्थक अभीप्सा का, उस महत्वाकांक्षा का, जो अंतिम | अशांति की तरंग नहीं रहेगी, जिस दिन जरा-सा भी कंपन नहीं को अनुभव करना चाहती है। | होगा, सब शुन्य होगा, उस दिन जिसे त सनेगा. वह ध्वनि भी मैं कृष्ण कहते हैं, मैं तुम्हारा भविष्य भी हूं। और भविष्य में जो | ही हूं। सब के खो जाने पर भी जो शेष रहेगा, वह मैं हूं। या ऐसा अंतिम घटना घट सकती है, वह वे कहते हैं। वे कहते हैं, ओंकार | कहें, जब सब खो जाता है, तब भी मैं शेष रह जाता हूं। जब कुछ भी मैं हूं। भी नहीं बचता, तब भी मैं बच जाता हूं। मेरे खोने का कोई उपाय ओंकार का अर्थ है, जिस दिन व्यक्ति अपने को विश्व के साथ नहीं है, वे यह कह रहे हैं। एक अनुभव करता है, उस दिन जो ध्वनि बरसती है। जिस दिन | वे कह रहे हैं, मेरे खोने का कोई उपाय नहीं है। मैं मिट नहीं व्यक्ति का आकार में बंधा हुआ आकाश निराकार आकाश में सकता हूं, क्योंकि मैं कभी बना नहीं हूं। मुझे कभी बनाया नहीं गया गिरता है, जिस दिन व्यक्ति की छोटी-सी सीमित लहर असीम है। जो बनता है, वह मिट जाता है। जो जोड़ा जाता है, वह टूट सागर में खो जाती है, उस दिन जो संगीत बरसता है, उस दिन जो जाता है। जिसे हम संगठित करते हैं, वह बिखर जाता है। लेकिन ध्वनि का अनुभव होता है, उस दिन जो मूल-मंत्र गूंजता है, उस | | जो सदा से है, वह सदा रहता है। मूल-मंत्र का नाम ओंकार है। ओंकार जगत की परम शांति में गूंजने | इस ओंकार का अर्थ है, दि बेसिक रियलिटी; वह जो मूलभूत वाले संगीत का नाम है। सत्य है, जो सदा रहता है। उसके ऊपर रूप बनते हैं और मिटते हैं, संगीत दो तरह के हैं। एक संगीत जिसे पैदा करने के लिए हमें | | संघात निर्मित होते हैं और बिखर जाते हैं, संगठन खड़े होते हैं और स्वर उठाने पड़ते हैं, शब्द जगाने पड़ते हैं, ध्वनि पैदा करनी पड़ती | | टूट जाते हैं, लेकिन वह बना रहता है। वह बना ही रहता है। है। इसका अर्थ हुआ, क्योंकि ध्वनि पैदा करने का अर्थ होता है कि | | यह जो सदा बना रहता है, इसकी जो ध्वनि है, इसका जो संगीत कहीं कोई चीज घर्षण करेगी, तो ध्वनि पैदा होगी। जैसे मैं अपनी | | है, उसका नाम ओंकार है। यह मनुष्य के अनुभव की आत्यंतिक दोनों ताली बजाऊं, तो आवाज पैदा होगी। यह दो तालियों के बीच | बात है। यह परम अनुभव है। जो घर्षण होगा, जो संघर्ष होगा, उससे आवाज पैदा होगी। । ___ इसलिए आप यह मत सोचना कि आप बैठकर ओम, ओम का तो हमारा जो संगीत है, जिससे हम परिचित हैं, वह संगीत संघर्ष उच्चार करते रहें, तो आपको ओंकार का पता चल रहा है। जिस का संगीत है। चाहे होंठ से होंठ टकराते हों, चाहे कंठ के भीतर की ओम का आप उच्चार कर रहे हैं, वह तो उच्चार ही है। वह तो |263 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-48 आपके द्वारा पैदा की गई ध्वनि है। जहां तक मेरा संबंध है, मैं मानता हूं, यह झगड़ा वैसा ही बचकाना इसलिए धीरे-धीरे होंठ को बंद करना पड़ेगा। होंठ का उपयोग | | है, जैसा कुछ लोग मुर्गी और अंडे के बाबत किए रहते हैं। कुछ नहीं करना पड़ेगा। फिर बिना होंठ के भीतर ही ओम का उच्चार | लोग कहते हैं, मुर्गी पहले है और अंडा बाद में; और कुछ लोग करना। लेकिन वह भी असली ओंकार नहीं है। क्योंकि अभी भी | कहते हैं, अंडा पहले है और मुर्गी बाद में। मगर दोनों नासमझ हैं। भीतर मांस-पेशियां और हड्डियां काम में लाई जा रही हैं। उन्हें भी | क्योंकि जब भी हम मुर्गी कहते हैं, तो उसके पहले अंडा आ ही छोड़ देना पड़ेगा। भीतर मन में भी उच्चार नहीं करना होगा। तब | | जाता है। और जब भी हम अंडा कहते हैं, तो उसके पहले मुर्गी आ एक उच्चार सुनाई पड़ना शुरू होगा, जो आपका किया हुआ नहीं | ही जाती है। है। जिसके आप साक्षी होते हैं, कर्ता नहीं होते हैं। जिसको आप | । इसलिए ज्यादा उचित हो कि हम मुर्गी और अंडे में पहले कौन बनाते नहीं, जो होता है, आप सिर्फ जानते हैं। है, इसकी फिक्र छोड़ें। क्योंकि कोई भी पहले हो नहीं सकता। कैसे जिस दिन आप अपने भीतर ओम की उस ध्वनि को सुन लेते हैं, | | अंडा पहले होगा मुर्गी के? कैसे होगा? उसके होने के लिए ही मुर्गी जो आपने पैदा नहीं की, किसी और ने पैदा नहीं की; हो रही है, की जरूरत पड़ जाती है। कैसे मुर्गी होगी पहले अंडे के? उसके आप सिर्फ जान रहे हैं, वह प्रतिपल हो रही है, वह हर घड़ी हो रही होने के लिए ही अंडे की जरूरत पड़ जाती है। है। लेकिन हम अपने मन में इतने शोरगुल से भरे हैं कि वह इसलिए शायद कहीं भाषा की भूल है, लिंग्विस्टिक भूल है। सूक्ष्मतम ध्वनि सुनी नहीं जा सकती। वह प्रतिपल मौजूद है। वह | | असल में अंडा और मुर्गी दो चीजें नहीं हैं; अंडा और मुर्गी एक ही जगत का आधार है। चीज के दो रूप हैं। ऐसा कहना चाहिए कि अंडा जो है, वह छिपी इस संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है। पश्चिमी | हुई मुर्गी है; मुर्गी जो है, वह प्रकट हो गया अंडा है। इनको दो में मनोविज्ञान, पश्चिमी विज्ञान, पश्चिम की समस्त खोज इस नतीजे | बांटने की बात ही गलत है। दो में बांटने से फिर कभी हल नहीं होता। पर पहुंची है कि जगत का जो आत्यंतिक आधार है, वह विद्युत है, ___ मुझे ऐसा खयाल में आता है कि विद्युत और ध्वनि के बीच ठीक इलेक्ट्रिसिटी है। और इसलिए पश्चिम का आधुनिक चिंतन कहता | वैसा ही संबंध है। इसलिए ध्वनि के बिना विद्युत नहीं हो सकती; है कि ध्वनि मूल नहीं है, विद्युत मूल है। और ध्वनि, साउंड भी | और विद्युत के बिना ध्वनि नहीं हो सकती। लेकिन पूरब और विद्युत का एक प्रकार है। साउंड जो है, ध्वनि जो है, वह भी विद्युत पश्चिम में यह बुनियादी फर्क क्यों आया, उसका कारण है। उसका का ही एक प्रकार है, ए मोड। कारण कीमती है। वह समझ लेना चाहिए। लेकिन पूरब की बात बिलकुल ही भिन्न है। पूरब कहता है कि ___ वह फर्क इसलिए है कि पश्चिम ने जो खोज की है, वह पदार्थ साउंड, ध्वनि जो है, वह अस्तित्व का मूल उपकरण है; और विद्युत | को तोड़कर की है। पदार्थ को तोड़ा, आखिरी परमाणु की खोज की, जो है, वह ध्वनि का ही एक प्रकार है, ए मोड। पश्चिम विद्युत को कि कौन-सी चीज से पदार्थ बना है? विद्युत मिली। पूरब ने जो मूल मानता है, ध्वनि को विद्युत का ही एक रूप; पूरब ध्वनि को | खोज की है, वह पदार्थ को तोड़कर नहीं की है, वह अपने ही मन मूल मानता है और विद्युत को ध्वनि का ही एक रूप। को तोड़कर की है। ध्यान रखें, मैटर हैज बीन एनालाइज्ड इन दि इसलिए पूरब में वे लोग हुए, जिन्होंने ध्वनि के माध्यम से दीए वेस्ट एंड माइंड इन दि ईस्ट। जला दिए। जिन्होंने एक राग गाया और बुझा दीया जला। यह बात अगर आप पदार्थ को तोड़ेंगे, तो जो अंतिम अणु हाथ में आने सही हो कि न हो, पर पूरब की मान्यता यह है कि विद्युत ध्वनि का वाला है, वह विद्युत का होगा। अगर आप मन को तोड़ेंगे, तो जो ही एक रूप है। तो अगर ध्वनि की एक खास ढंग से चोट की जाए, | अंतिम अणु हाथ में आने वाला है, वह ध्वनि का होगा। किसी न तो आग जल जानी चाहिए। अगर ध्वनि एक खास ढंग से की जाए, | किसी दिन पदार्थ का जो अंतिम अणु है वह, और मन का जो तो आकाश में बिजली कड़कने लगनी चाहिए। अगर विद्युत ध्वनि | अंतिम अणु है वह, वे एक ही सिद्ध होंगे; या एक के ही दो रूप का ही एक रूप है, तो ध्वनि की तरंगों के आघात से अग्नि का जन्म | सिद्ध होंगे। हो जाना चाहिए। अगर मुझसे पूछे, तो मैं ऐसा कहूंगा कि वह जो पदार्थ का अणु भविष्य तय करेगा कि इन दोनों मान्यताओं में क्या संभावना है। है, वह अप्रकट मन है; और वह जो मन का अणु है, वह प्रकट हो 264 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं ओंकार हूं गया पदार्थ है। परमाणु भी पदार्थ का छिपा हुआ मन है, ए हिडेन हैं, तो तीन प्रकार के ज्ञान होंगे। तीन तरह के टाइप हैं, प्रकार हैं, माइंड। क्षुद्रतम में भी विराट छिपा हुआ है, और विराट को भी | तो तीन प्रकार के इशारे होंगे। प्रकट होना हो, तो क्षुद्र का ही सहारा है। कृष्ण ने कहा कि वे तीनों वेद मैं हूं। ओंकार कहकर कृष्ण कहते हैं कि मैं वह परम अस्तित्व हूं, जहां चाहे कोई कर्म से अपने कर्ता को मिटा दे, तो ओंकार में प्रवेश केवल उस ध्वनि का साम्राज्य रह जाता है, जो कभी पैदा नहीं हुई | कर जाता है। चाहे कोई अपने प्रेम से प्रेमी को डुबा दे, तो ओंकार और कभी मरती नहीं है, जो अस्तित्व का मूल आधार है। उस | | में प्रवेश कर जाता है। और चाहे कोई अपने ज्ञान से द्वैत के पार हो संगीत के सागर का नाम ओंकार है। | जाए, अद्वैत में प्रवेश कर जाए, तो उस ओंकार को उपलब्ध हो उस तक पहुंचना हो, तो अपने मन से सब ध्वनियां समाप्त जाता है। करनी चाहिए। अपने मन से एक-एक ध्वनि को छोड़ते जाना वेद का अर्थ है, वे किताबें नहीं, जो वेद के नाम से जानी जाती चाहिए, एक-एक शब्द को, एक-एक विचार को और मन की ऐसी | | हैं। वेद से अर्थ है, वे समस्त इशारे, जो मनुष्य-जाति को कभी भी अवस्था ले आनी चाहिए, जब मन निर्ध्वनि हो जाए, साउंडलेस हो | और कहीं भी उपलब्ध हुए हों, जो ओंकार की तरफ ले जाते हैं। जाए। और जिस दिन आप पाएंगे कि मन हो गया ध्वनिशून्य, उसी | ध्यान रखें, वेद शब्द बहुत अदभुत है। इसके बड़े विस्तीर्ण अर्थ दिन आप पाएंगे, ओंकार प्रकट हो गया! ओंकार वहां निनादित हो | | हैं। वेद शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान। इसलिए वेद को किसी किताब ही रहा था। ओंकार की धुन वहां बज ही रही थी सदा से, अनंत से, | | में बांधा नहीं जा सकता। जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है। जहां भी अनादि से। लेकिन आप इतने शोरगुल में व्यस्त थे, आप इतने जोर | | इशारा है, वहीं वेद है। में लगे थे बाहर कि आपको वह ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती थी। उन दिनों तक कृष्ण ने जब यह बात कही, तो वह सारा ज्ञान तीन आपका यह उपद्रव शांत हो जाए, आपका यह बुखार से भरा | पुस्तकों में संगृहीत था। इसलिए इन तीन पुस्तकों का नाम लिया। हुआ, दौड़ता हुआ पागलपन शांत हो जाए, तो जो सदा ही भीतर | | अगर आज कृष्ण हों, तो इन तीन का नाम नहीं लेंगे। इसमें कुरान बज रहा है, वह अनुभव में आने लगता है। वह मनुष्य की | भी सम्मिलित होगा, इसमें बाइबिल भी सम्मिलित हो जाएगी, इसमें आत्यंतिक अवस्था है। वह उसका परम भविष्य है। जेंदावेस्ता भी जुड़ेगा, इसमें लाओत्से का ताओ तेह किंग भी आने कृष्ण कहते हैं, मैं ओंकार हूं। और कृष्ण कहते हैं, ऋग्वेद, | ही वाला है। इन पांच हजार वर्षों में, कृष्ण के बाद, जो-जो इशारे सामवेद, यजुर्वेद भी मैं ही हूं। उस ओंकार की तरफ हुए हैं, वे भी वेद का हिस्सा हो गए। ओंकार के बाद वेद की बात कहने का कारण है, प्रयोजन है। वेद एक विकासमान धारा है। वेद कोई सीमित किताब नहीं है। कृष्ण कहते हैं, वह परम ध्वनि मैं हूं, और उस परम ध्वनि को | | इसीलिए वेद का कोई लेखक नहीं है। एक-एक वेद में सैकड़ों पहुंचने वाले जितने भी शास्त्र हैं, वह भी मैं हूं। उस परम ध्वनि की ऋषियों के वचन हैं। उस जमाने तक जितने ऋषियों का ज्ञान था, ओर जिन-जिन शास्त्रों ने इशारा किया है, वह भी मैं हूं। वह ध्वनि | वह सब संगृहीत हो गया। फिर वेद के दरवाजे बंद हो गए। और तो मैं हूं ही, लेकिन जो इंगित; वह चांद तो मैं हूं ही, जिन अंगुलियों | | जिस दिन वेद के दरवाजे बंद हुए, उसी दिन हिंदू धर्म मुर्दा हो गया। ने चांद की तरफ इशारा किया है, वे अंगुलियां भी मैं ही हूं। क्योंकि | __ वेद का दरवाजा खुला ही रहना चाहिए। उसमें नए ऋषि होते मेरे अतिरिक्त मेरे उस गुह्यतम रूप की तरफ इशारा भी कौन कर रहेंगे। उनके वचन संगृहीत होते ही चले जाने चाहिए। चाहे वे कहीं सकेगा? मेरी तरफ अंगुली भी कौन उठा सकेगा सिवाय मेरे? | भी हों। तो कृष्ण कहते हैं, वेद भी मैं ही हूं। वेद किसी व्यक्ति की किताब नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। वेद का अर्थ है, वह सब, जिसने ओंकार की ओर इशारा किया | | वेद न मालूम कितने व्यक्तियों का संग्रह है। उस जमाने तक जितने है। वेद का अर्थ है, वह सारा ज्ञान, जिसने उस परम ध्वनि की तरफ | | लोगों ने जाना था, उन सबका संग्रह है। लेकिन फिर द्वार बंद हो गए। ले जाने का मार्ग खोला है। उन्होंने तीन वेद का नाम लिया है। जब कोई धर्म जीवंत होता है, तो भयभीत नहीं होता, खुले दरवाजे विचारपूर्वक ही यह बात है। क्योंकि कल मैंने आपसे कहा, तीन | रखकर सोता है। जब कोई धर्म कमजोर हो जाता है, मरने के करीब प्रकार के मनुष्य हैं। तो तीन प्रकार के वेद होंगे। तीन प्रकार के मन आता है, बूढ़ा हो जाता है, तो दरवाजे बंद कर देता है और पहरे लगा 265 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 देता है। ये कमजोरी के लक्षण हैं। लेकिन जिस दिन दरवाजा बंद होता है, उसी दिन ज्ञान तो आगे बढ़ता चला जाता है, किताब रुक जाती है। किताब रुक जाती है। ठीक वैसी घटना अभी थोड़े दिन पहले फिर घटी। उससे आपको बात समझ में आ जाएगी। सिक्खों का वेद है, गुरु-ग्रंथ । नानक के समय में, उस समय के जितने ज्ञानियों के इशारे थे, सब उसमें संगृहीत किए गए हैं। उसमें फिक्र नहीं की गई है कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन ब्राह्मण है, कौन शूद्र है। उसमें फरीद के भी वचन हैं, उसमें और कबीर के भी, उसमें दादू के भी। उस समय जितने भी फकीर इशारे वाले थे, उन सबके वचन संग्रहीत कर लिए गए हैं। 1 लेकिन फिर धीरे-धीरे बात मरने लगी। फिर धीरे-धीरे दरवाजे सख्त होने लगे। फिर उसमें वही सम्मिलित हो सकेगा, जो सिक्ख है । फिर दसवें गुरु ने द्वार बंद कर दिए। धर्म कमजोर हो गया। फिर दसवें गुरु ने कहा कि अब इस किताब में आगे नहीं जोड़ा जा सकेगा । उसी दिन यह किताब बूढ़ी होकर मर गई। क्योंकि अब इसमें ग्रोथ नहीं हो सकती। लेकिन दस गुरुओं तक यह किताब विकासमान होती रही, बढ़ती होती रही। इसमें जुड़ता रहा । ज्ञान एक धारा है, जैसे गंगा एक धारा है। गंगा अगर कह दे प्रयाग में आकर कि अब नदी-नाले मुझमें नहीं जुड़ सकेंगे, अब कोई मुझमें आगे नहीं जुड़ेगा। अब मैं गंगा हूं। और एक गंदे नाले को मैं नहीं गिरने दूंगी। क्योंकि कहां पवित्र गंगा, और एक साधारण-सा नाला आकर मुझमें गिर जाए और गंदा कर जाए! जिस दिन गंगा यह कहती है कि एक साधारण-सा नाला मुझमें गिरकर मुझे गंदा कर देगा, उस दिन वह गंगा नहीं रही। क्योंकि गंगा का मतलब ही यह है कि जिसमें कोई भी गिरे, गिरते से पवित्र हो जाए। अब नाला गंगा को गंदा कर देगा, तो नाला ज्यादा शक्तिशाली हो गया ! जब भी कोई धर्म भयभीत हो जाता है और डरता है कि कुछ मिश्रित न हो जाए, कुछ गलत न हो जाए, इसलिए सब घेराबंदी कर लो उस दिन किताबें बंद हो जाती हैं। वेद की जब कृष्ण ने यह बात कही, तब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें थीं। अब ये तीनों किताबें जिंदा किताबें नहीं हैं। एक जगह इनके द्वार बंद हो गए। अगर वे द्वार खुले होते, तो वेद ने जगत के सारे ज्ञानको संग्रहीत किया होता। जैसा कि आपने देखा होगा, वेद ठीक वैसी ही चीज थी इस मुल्क में, जैसे कि आज इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका है। हर वर्ष | उसको नए एडीशन करने पड़ते हैं। क्योंकि ज्ञान विकसित होता है, उसे सम्मिलित कर लेना होता है। रोज ज्ञान बढ़ता है, तो इनसाइक्लोपीडिया को रोज ज्ञान को बढ़ाए जाना पड़ता है। उसके पुराने एडीशन बाहर होते जाएंगे। रोज यह ज्ञान बढ़ता रहेगा। किसी दिन अगर इनसाइक्लोपीडिया वाले यह सोचें कि बस, अब हम और ज्ञान को भीतर नहीं आने देंगे, उसी दिन इनसाइक्लोपीडिया आउट आफ डेट हो जाएगा, उसी दिन मर जाएगा। वेद हमारा इनसाइक्लोपीडिया था। ओंकार की तरफ जितने इशारे किए गए थे, हमने वेद में संगृहीत किए थे। तो कृष्ण कहते हैं, वे तीनों वेद मैं ही हूं। और हे अर्जुन, प्राप्त होने योग्य गंतव्य, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, सबका साक्षी, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, हितकारी, उत्पत्ति, प्रलय सबका आधार, निधान और वह, जिसमें सबका लय होता है, अविनाशी, बीज कारण भी मैं ही हूं। इसमें तीन-चार बातें महत्वपूर्ण हैं, वह हमें खयाल में ले लेनी चाहिए। गंतव्य, दि एंड, आखिरी मंजिल, जो पाने योग्य है, वह मैं ही हूं। और अगर मेरे अतिरिक्त कुछ भी तुझे पाने योग्य लगता है, तो | थोड़ा सोच-समझ लेना, वह पाने योग्य नहीं हो सकता। परमात्मा के अतिरिक्त जो भी व्यक्ति कुछ और पाने में लगा है, सच पूछिए तो पाने में नहीं, खोने में लगा है। परमात्मा के अतिरिक्त अगर आपने कुछ पा भी लिया, तो आखिर में आप पाएंगे कि आपने सब खो दिया, पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि और हम कुछ भी पा लें, वह हमारी संपदा नहीं बनती, सिर्फ विपत्ति बनती है। संपत्ति नहीं, विपत्ति । कुछ भी हम इकट्ठा | कर लें, वह हमसे बाहर ही छूट जाता है। वह हमारे प्राणों का विकास नहीं होता, सिर्फ प्राणों पर बोझ बन जाता है। और एक न एक दिन मृत्यु सब छीन लेती है । मृत्यु सब छीन लेती है। 266 मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी मरणशय्या पर पड़ा है। आखिरी घड़ी है। वह आंख खोलता है और अपनी पत्नी से कहता है कि मेरा जो सागर के तट पर भवन है, चाहता हूं कि मेरे मित्र अहमद को दे दिया जाए — वसीयत कर रहा है। उसकी पत्नी कहती है, अहमद को ? इस आदमी की शक्ल मुझे पसंद ही नहीं। बेहतर हो, यह हम रहमान को दे दें ! मुल्ला दुख में आंख बंद कर लेता है। फिर आंख खोलता है और Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं ओंकार हूं * कहता है, ठीक, मेरा जो पहाड़ पर बंगला है, वह मैं चाहता हूं कि | | हूं, निर्माता मैं हूं, और तुझे लगता है कि पाप है! गवाही मैं हूं, तेरी मेरी बड़ी लड़की को दे दिया जाए। | अंतिम गवाही मैं हूं; और तू कुछ भी करेगा, मैं ही तेरे भीतर उसकी पत्नी कहती है; बड़ी लड़की को? उसके पास काफी है! करूंगा, तू जाने या न जाने। लेकिन तु कहता है कि यह मुझे लगता मेरी छोटी लड़की के लिए एक मकान की पहाड़ पर जरूरत है। वह | है, पाप है! तू कहता है कि मेरे मन को पीड़ा होती है, कि अपने ही उसको दे देना उचित है। | प्रियजनों से कैसे लडूं! मुल्ला और भी थोड़ी देर तक आंख बंद किए पड़ा रहता है। फिर । वह कृष्ण कहते हैं, सबका आधार मैं हूं, सबका पिता मैं हूं, आंख खोलता है और कहता है कि मेरी जो बड़ी कार है, वह मेरे | | सबका भविष्य मैं हूं, लेकिन तू अपने को बीच में क्यों ला रहा है? मित्र मर गए हैं, उनका बेटा है, उसको दे देना चाहता हूं। मतलब यह है कि अहंकार अपने को मालिक समझता है, और उसकी पत्नी कहती है, उस पर तो मेरी बहुत दिन से आंख है। अहंकार अपने को निर्णायक समझता है। और अहंकार समझता है वह मैं किसी को नहीं दे सकती हूं। वह तो मेरे छोटे बेटे के काम | | कि मैं ही निर्णय करूंगा, वैसा ही मुझे चलना है। अहंकार समर्पण में आने वाली है। | करने को तैयार नहीं है। मुल्ला तब आंख बंद करके कहता है कि एक बात पूर्वी आखिरी? समर्पण तो तभी हो सकेगा, जब हमें पता चले कि न मैंने मुझे मैं यह जानना चाहता हूं, मर कौन रहा है? मैं मर रहा हूं कि तू मर | | बनाया है, न मैं स्वयं को सम्हाले हुए हूं। अभी यह शब्द मेरे मुंह रही है? तू कम से कम इतना धीरज तो रख कि मुझे मर जाने दे। फिर | | से निकलता है, दूसरा न निकले, उसे भी निकालने का मेरे पास तुझे जो करना हो, करना। इतना तो मुझे पता ही है कि जब जिंदगी | | कोई उपाय नहीं है। एक सांस आती है, और फिर न आए, तो एक अपनी न हुई, तो वसीयत क्या अपनी होने वाली है! | सांस लेने का भी कोई उपाय नहीं है। इतना निरुपाय, इतना मौत सब छीन लेती है। लेकिन फिर भी आदमी वसीयत तो कर | | असहाय, इतना न होने के बराबर मैं हूं। लेकिन फिर भी मैं निर्णय जाना चाहता है। यह मरने के बाद भी अपना दावा रखने की चेष्टा | | करता हूं कि मैं यह करूंगा और यह नहीं करूंगा, और यह ठीक है। जो भी हम इकट्ठा कर लेंगे, मौत छीन लेगी। सिर्फ एक संपदा | | है, और यह गलत है! निर्णायक मेरा अहंकार बनना चाहता है। है, जो मौत नहीं छीन पाती है। वह संपदा परमात्मा की है। वह | कृष्ण उसे यही समझा रहे हैं कि अगर तू गौर से देखेगा, तो संपदा प्रभु के अनुभव की है। वह संपदा उस स्वभाव की है, जो नीचे-ऊपर सब दिशाओं में सब भांति मुझे छाया हुआ पाएगा। और हम में ही छिपा है। वह उस ओंकार की है, जो सदा है और कभी अच्छा हो कि तू अपनी यह मालकियत छोड़ दे। यह मालकियत ही छीना नहीं जा सकता। तेरा दुख और तेरा पाप है। कृष्ण कहते हैं, गंतव्य मैं हूं; सबका स्वामी, सबका साक्षी, | एक ही पाप है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार को मजबूत सबका वास स्थान! जहां सब रह रहे हैं, वह मैं हूं। जो सबको चला | किए जाना। और एक ही पुण्य है, स्वयं की अस्मिता को, अहंकार रहा है, वह मैं हूं। और जो सबको देख रहा है, वह भी मैं हूं। शरण | को पिघलाते चले जाना। एक घड़ी आ जाए, जिस दिन मैं न रहूं, लेने योग्य, जिसकी शरण तुम आओ, ऐसा भी मैं हूं। हित करने | | मेरा बोध न रहे, तो उस दिन मेरे भीतर जो बोलेगा, जो चलेगा, जो वाला; उत्पत्ति-प्रलय-रूप। जन्म मुझसे तुम्हारा हुआ, सम्हाला मैंने | उठेगा, जो करेगा, वह परमात्मा है। उस दिन न मेरा कोई पाप है, तम्हें, खोओगे भी तुम मझमें ही। सबका अंतिम बीज कारण मैं हं।। न मेरा कोई पण्य है। उस दिन न मेरा कोई कर्तव्य है और न कछ यह कृष्ण क्यों कह रहे हैं अर्जुन को? वह इसलिए कह रहे हैं | अकर्तव्य है। उस दिन जो होगा, वह सहज होगा; जैसे श्वास कि अर्जुन तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। चलती है, खून बहता है, हवाएं चलती हैं, सूरज निकलता है। उस यह अंतिम सूत्र ठीक से समझ लें। दिन मेरी कोई जरूरत ही नहीं है। वे यह कह रहे हैं, तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। बनाया मैंने, | कृष्ण उस दिशा में अर्जुन को इशारा कर रहे हैं कि तू थोड़ा सम्हाला मैंने, मिटाऊंगा मैं; तू व्यर्थ अपने को बीच में मत ला। | समझ। तू यह फिक्र छोड़ कि तू इनका मारने वाला है, कि तू इनका वह अर्जुन कह रहा है कि युद्ध में मैं नहीं जाना चाहता हूं, क्योंकि | | बचाने वाला हो सकता है। तू यह भी फिक्र छोड़ कि तेरे ऊपर यह मुझे लगता है, यह पाप है। कृष्ण कहते हैं, मालिक मैं हूं, साक्षी मैं | निर्णय है कि यह युद्ध शुभ है या अशुभ है। तू जरा चारों तरफ गौर [2671 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 से देख। तू सिर्फ एक लहर है। एक क्षण को उठा है और एक क्षण रही है; सब जम जाएं, सख्त हो जाएं भीतर। बाद खो जाएगा। मैं सागर हूं। मैं तुझसे कहता हूं कि तू मेरे से ही। अगर जब सारी लहरें एक-दूसरे को जमाने में लगी हों, तो फिर उठा है, मुझसे ही सम्हाला गया है। मैं ही तेरा अभी भी मालिक हूं, | नीचे के सागर का खयाल आना बहुत मुश्किल हो जाता है। अभी भी मैं ही तेरा साक्षी हूं। जब तू नहीं था, तब भी मैं था; जब | इसलिए जिन लोगों को समाज को छोड़कर भागना पड़ा-बुद्ध को तू नहीं होगा, तब भी मैं रहूंगा। तू मेरी तरफ देख और अपने कर्ता | या महावीर को या जीसस को या मोहम्मद को भी एकांत में भाग के भाव को मेरे ऊपर छोड़ दे। मुझे हो जाने दे कर्ता और तू बन जा | जाना पड़ा—उसका कारण अगर मौलिक आप समझना चाहें, तो केवल उपकरण, तू बन जा केवल एक बांस की पोंगरी। गीत मुझे | सिर्फ इतना ही है कि आप सब इतने जमे हुए बर्फ की चट्टानें हैं कि गाने दे, तू बीच में मत आ। तू बीच में आएगा, वही तेरा दुख, वही आपके बीच में पिघलना बहुत मुश्किल है! पूरा टेंपरेचर नहीं है तेरी पीड़ा, वही तेरा संताप है। पिघलने का वहां। सब जीरो डिग्री से नीचे जमे हुए हैं। वहां अगर यह सारी की सारी बात समझाने के पीछे अहंकार को पिघलाने | कोई पिघलना भी चाहे, तो पिघलना मुश्किल है। चारों तरफ जमाने का इशारा है। अहंकार बर्फ की तरह हमारे भीतर जमा हुआ है, वाले लोग मौजूद हैं। फ्रोजन। उसे थोड़ा पिघलाना जरूरी है। इसलिए बुद्ध या महावीर को समाज छोड़कर भागना पड़ता है। कभी आपने खयाल किया, सागर में एक बर्फ की चट्टान तैर | | समाज को छोड़कर भागने का और कोई कारण नहीं है। अकेले में रही हो, तो सागर से बिलकुल अलग मालूम पड़ती है। पीछे मैंने | | जाना पड़ता है, ताकि वहां कम से कम अपनी ही ठंडक से लड़ना कहा, लहर सागर से अलग मालूम पड़ती है। लेकिन लहर का भ्रम | पड़े; दूसरों की ठंडक से तो न लड़ना पड़े। अकेले, एकांत में, जहां ज्यादा देर नहीं चल सकता, क्योंकि लहर कितनी देर उठी रहेगी? | चारों तरफ कोई ठंडक न हो। क्षणभर बाद गिर जाएगी और खो जाएगी। लेकिन लहर अगर मैंने सुना है, फकीर बोकोजू जंगल में था। उसके ज्ञान की खबर फ्रोजन हो जाए, जम जाए, बर्फ बन जाए, फिर लहर का भ्रम बहुत | राजधानी तक पहुंच गई। सम्राट उससे मिलने आया। सम्राट आया देर चल सकता है। क्योंकि जब तक बर्फ न पिघले! और अगर था मिलने, तो सम्राट था, कुछ भेंट लानी चाहिए। तो एक बहुत चारों तरफ दूसरी लहरें भी जमकर बर्फ हो गई हों, तो यह भ्रम और | बहुमूल्य, लाखों रुपए की कीमत का एक कोट सिलवा लाया। भी बहुत देर चल सकता है। क्योंकि गर्मी भी कहीं से नहीं मिलेगी, उसमें लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात लगा दिए। बड़ा कीमती वस्त्र सब तरफ से अहंकार की ठंडक ही मिलेगी, यह और जम जाएगी। था। शायद पृथ्वी पर वैसा खोजना दूसरा मुश्किल हो। सम्राट उसे ___ हम सब ऐसी ही लहरें हैं, फ्रोजन वेव्स। और चंकि हम चारों बड़ी मेहनत से बनवाकर लाया था। तरफ सभी बर्फ बन गए हैं जमकर; एक-दूसरे को हम ठंडक देते | जब सम्राट फकीर के सामने मौजूद हुआ, तो फकीर एक चट्टान रहते हैं और जमाते रहते हैं। हम सब एक-दूसरे के अहंकार को | पर नग्न, एक वृक्ष से टिका हुआ बैठा है। सम्राट ने चरण छुए, भेंट जमाने की चेष्टा में लगे रहते हैं, हमें पता हो या न पता हो। रखी। फकीर भेंट को देखकर हंसा। फिर फकीर ने ऊपर वृक्ष की बाप बेटे से कहता है कि शाबाश, तू पहला नंबर आ गया है तरफ देखा। फिर आस-पास हिरण घूमते थे, उनकी तरफ देखा। स्कूल में! आएगा क्यों नहीं; आखिर मेरा ही बेटा जो है! ये | फिर आकाश में चीलें उड़ती थीं, उनकी तरफ देखा। एक-दूसरे को जमा रहे हैं। बेटे के अहंकार को जमाने की चेष्टा ___ उस सम्राट ने कहा, आप क्या देख रहे हैं? तो उसने कहा, मैं चल रही है। यह देख रहा हूं कि तुम्हारा यह कोट मझे बड़ी दिक्कत में डालेगा। बेटा आज अगर प्रथम नहीं आया है. तो घर बिलकल उदास है। क्योंकि अगर यह कोट तमने मझे राजधानी में दिया होता. तो मां बेचैन है, बाप पराजित मालूम पड़ रहा है। बेटा भी चिंतित है। राजधानी में सभी आदमी इस कोट की प्रशंसा करते और कहते कि क्या हुआ है? जरा बर्फ पिघलने लगी। वह अहंकार, मैं—हमारे घर मैं बहुत महान हो गया हूं, क्योंकि मुझे यह राजा का कोट मिल गया में कभी कोई नंबर दो आया ही नहीं, और यह बेटा नंबर दो आ गया! है। लेकिन यहां जंगल में बेपढ़े-लिखे जानवर हैं, असभ्य, इन को हम सब एक-दूसरे को जमाने की कोशिश में लगे हैं। हमारी कुछ पता नहीं है। मैंने ऊपर देखा इसलिए कि वे जो तोते बैठे हैं, शिक्षा, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, सब एक-दूसरे को जमा वे हंस रहे हैं। मैंने ऊपर देखा कि वह जो चील उड़ रही है, वह 268| Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं ओंकार हूं * मजाक उड़ाएगी। मैंने हिरण की तरफ देखा, उसकी आंख में शरारत है। आपके जाते ही ये सब कहेंगे, बन गए बुद्ध! कैसे मुक्त थे, कैसे आनंद में थे, नग्न! कैसे स्वतंत्र थे, कैसे परमात्मा की हवाएं सीधा छूती थीं! पहन लिया कोट! और फिर यहां हीरे-जवाहरात का कोई पता रखने वाला भी नहीं है। तो मैं शान भी बघारूंगा, तो किसके सामने? और अकड़कर चलूंगा भी, तो कहां? यहां अगर अकडकर चलंगा, तो यह सारा जंगल मझ पर हंसेगा। तो यहां मैं सम्राट के द्वारा सम्मानित कम और किसी सर्कस का जोकर ज्यादा मालूम पडूंगा। यह कोट तुम ले जाओ, इतनी कृपा करो। जंगल में आपके आस-पास ठंडक देने वाला कोई भी नहीं है, आपके अहंकार को ठंडा करने वाला कोई भी नहीं है, पिघल जाएगा आसानी से। इसलिए भागते रहे लोग। कृष्ण उसी अहंकार को पिघलाने के लिए कह रहे हैं, सब मैं हूं। अगर तुझे यह स्मरण आ जाए अर्जुन, तो तू जो इस खयाल से भर रहा है कि तू ही केंद्र है और तेरे ऊपर ही सब दारोमदार है, यह खयाल तेरा छूट जा सकता है। और यह खयाल न छूटे, तो आदमी की आंखें अंधी ही रह जाती हैं। · अहंकार अंधापन है। और अहंकार के छूट जाते ही प्रज्ञा की आंख खुलती है, और जीवन जैसा है वैसा पहली बार दिखाई पड़ता है। आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। और कीर्तन पूरा हो जाए तभी उठे। 269 Page #296 --------------------------------------------------------------------------  Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 आठवां प्रवचन जीवन के एक्य का बोध अ-मन में Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-48 तपाम्यहमहं वर्ष निगृहणाम्युत्सृजामि च । | जाएगा। जो अनदेखा है, उसका आप अनुमान ही करेंगे कि होगा, अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन । । १९ ।। | वह दिखाई नहीं पड़ेगा। और ऐसा कभी नहीं कर सकते कि दोनों विद्या मां सोमपाः पूतपापा | हिस्सों को आप एक साथ देख लें। एक छोटे-से रेत के टुकड़े के यरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। भी दोनों हिस्से एक साथ नहीं देखे जा सकते हैं। जब एक देखेंगे, ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम् दूसरा ओझल हो जाएगा। तो विराट की तो कठिनाई और भी बढ़ अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् । । २०।। जाती है। मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं तथा वर्षा को आकर्षित करता हमारा मन अंश को ही देख पाता है। यह पहली बात.ठीक से हूं और वर्षाता हूं। और हे अर्जुन, मैं ही अमृत और मृत्यु एवं समझ लें। यदि यह बात ठीक से समझ में आ जाए, तो बहुत-सी सत और असत भी, सब कुछ मैं ही हूं। बातें समझ में आ सकेंगी। और अगर यह बात ठीक से समझ में न परंतु, जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को आए, तो धर्म के बहुत से सूत्र बेबूझ रह जाते हैं। यह बहुत करने वाले और सोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र बुनियादी है। हुए पुरुष मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को | मन की सामर्थ्य ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में देखने चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इंद्रलोक को | की। मन का स्वभाव ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। | देख लेने का। वैसे ही, जैसे आंख चाहे भी, तो भी ध्वनि को सुन नहीं सकती. और कान चाहे भी, तो भी रूप को देख नहीं सकता। कान का स्वभाव नहीं है, आंख का स्वभाव नहीं है कि ध्वनि को + वन है एक, अस्तित्व है एक, लेकिन मन सभी कुछ | सुन सके। आंख देख सकती है, सुन नहीं सकती। UIT तोड़कर देखता है। मन जब तक तोड़ न ले, तब तक फिर अगर कोई आंख से सुनने की कोशिश करे, और उसे कुछ देख ही नहीं पाता है। मन के देखने की प्रक्रिया में ही | भी सुनाई न पड़े, और उसे लगे कि जगत में कोई ध्वनि नहीं है, तो जीवन खंड-खंड हो जाता है। कसूर किसका होगा? और अगर कोई कान से देखने की कोशिश इसे ऐसा समझें, प्रकाश की एक किरण है; उसे एक कांच के | करे, और उसे कुछ भी दिखाई न पड़े, और वह कहे कि जगत में प्रिज्म से निकालें, तो सात टुकड़ों में टूट जाती है, सात रंगों में | कुछ भी नहीं है, तो कसूर किसका होगा? कान का कोई कसूर नहीं विभाजित हो जाती है। प्रकाश की किरण अविभाज्य है, अपने में | है, क्योंकि कान देख ही नहीं सकता। आंख का कसूर नहीं है, अखंड है। प्रिज्म के टुकड़े से गुजरकर टूट जाती है, हिस्सों में बंट क्योंकि आंख सुन ही नहीं सकती। कसूर उस व्यक्ति का है, जो जाती है। आंख और कान के स्वभाव को नहीं समझ पा रहा है। हमारा मन अस्तित्व की किरण को भी ऐसे ही तोड़ देता है। मन के स्वभाव के संबंध में पहली बात कि मन किसी भी वस्तु हमारा मन जहां भी देखता है, वहां पूरे को कभी भी नहीं देख पाता को उसकी समग्रता में, टोटेलिटी में नहीं देख सकता है। जब भी है। बड़ी चीजों की तो बात ही छोड़ दें, छोटी-सी चीज को भी मन | देखेगा, अंश को देखेगा, पूर्ण को नहीं, पहली बात। पूरा देखने में असमर्थ है। एक छोटा-सा कंकड़ का टुकड़ा आपके | आज तक किसी व्यक्ति के मन ने किसी चीज की पूर्णता नहीं हाथ में रख दूं, तो भी आपकी आंखें, आपकी इंद्रियां, आपका मन देखी है। इसलिए जहां भी मन होगा, वहां अपूर्ण ही अनुभव होगा, उस टुकड़े को पूरा नहीं देख सकते; एक हिस्सा छिपा रह जाएगा। | अपूर्ण ही दृष्टि होगी, अधूरा ही खयाल होगा। इसलिए जो लोग और जब आप दूसरा हिस्सा देखेंगे, तो पहला हिस्सा छिप जाएगा। मन से पूरे का निर्माण करते हैं, उनका निर्माण काल्पनिक हो जाता एक छोटा-सा कंकड़! | है, अनुमान हो जाता है। जो उन्हें नहीं दिखाई पड़ता, उसका वे उसे भी छोड़ दें। एक धूल का, रेत का टुकड़ा अपने हाथ पर | अनुमान करके पूरा कर लेते हैं। जो दिखाई पड़ता है, उसमें उसे भी रख लें। उसे भी आपकी इंद्रियां पूरा नहीं देख सकती हैं, उसे भी जोड़ देते हैं, जिसको वे सोचते हैं कि होगा। इसलिए मन से निर्मित तोड़कर ही देखेंगी। एक हिस्सा दिखाई पड़ेगा, एक अनदेखा रह | दुनिया में जितने भी शास्त्र हैं, वे सभी व्यर्थ हैं, पूर्ण की तरफ ले |272| Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * जाने वाले नहीं हैं। हजार अंधे भी इकट्ठे हो जाते, तो कोई भी गलत न कहता। वे सभी और दुनिया में दो तरह के शास्त्र हैं। एक तो वे शास्त्र हैं, जो उन | ठीक कहते। फिर भी उनका ठीक आंशिक था। और भूल उनके लोगों ने कहे हैं, जिन्होंने मन को मिटाकर पूर्ण को जाना। और एक | | कहने में नहीं थी, भूल उनके विस्तार में थी। जब किसी अंधे ने कहा वे शास्त्र हैं, जो उन लोगों ने कहे हैं, जिन्होंने मन को व्यवस्थित कि हाथी किसी महल के खंभों की भांति है, तब भूल इसमें नहीं करके, शिक्षित करके, अध्ययन से, विचार से, मनन से, चिंतन | थी, जो उसने जाना था। जो उसने जाना था, वह उसने पैर जाने थे; से, तर्क से, अनुभव से मन को विकसित किया और फिर जगत के | जो उसने कहा, वह हाथी के बाबत कहा। जो जाना था, वह अंश संबंध में दृष्टि को लिपिबद्ध किया। फिलासफी और रिलिजन, धर्म | था; और जिसके संबंध में कहा, वह पूर्ण था। और जब भी कोई और दर्शन में यही फर्क है। अंश को पूर्ण के संबंध में कहता है, तो असत्य हो जाता है। धर्म उन लोगों के वक्तव्य हैं, जिन्होंने मन को मिटाकर जाना, ___ इसलिए मन परमात्मा के संबंध में जो भी कहेगा, वह असत्य जिन्होंने मन के प्रिज्म को तोड़ डाला और अस्तित्व की किरण को | होगा। सीधा देखा-अविभाज्य, बिना बंटा हुआ, अखंड। और दर्शन, ध्यान रहे, वे लोग जो कहते हैं, ईश्वर है-मन से, उतने ही फिलासफी उन लोगों के वक्तव्य हैं, जिन्होंने मन को खूब विकसित | असत्य होंगे, जितने वे लोग जो कहते हैं, ईश्वर नहीं है-मन से। किया, ट्रेन किया, प्रशिक्षित किया, समझाया, सिखाया, पढ़ाया, | मन अंश को ही जानता है, और मन की इच्छा होती है कि पूर्ण को और फिर जगत के संबंध में एक दृष्टि निर्मित की। कह दे कि यही है। इसलिए सब फिलासफीज अधूरी हैं; होंगी ही। कोई और उपाय | ये पांचों अंधे अगर एक-दूसरे की बात सुनकर चुप रह नहीं है। साक्रेटीज कितनी ही बड़ी बात कहे, वह बात मन की ही जाते—पर नहीं, संभव नहीं था कि चुप रह जाते! क्योंकि अंधों में है। और साक्रेटीज के पास मन का कितना ही विकसित रूप हो, | | कलह अनिवार्य हो गई। क्योंकि जब एक अंधे ने कहा कि हाथी वह मन ही है। अगर साक्रेटीज यह भी कहे कि ये सातों जो रूप खंभों की तरह है, और दूसरे अंधे ने कहा कि हाथी सूप की तरह टूट गए हैं किरण के, इनको जोड़ लेने से फिर एक किरण बन है, और तीसरे ने कुछ और चौथे ने कुछ कहा, तो उन सबने कहा सकती है, तो भी वह मन का ही अनुमान है। अरस्तू कितना ही कि ये सभी सही तो नहीं हो सकते। और मेरा अनुभव सही है, तो कहे, प्लेटो कितना ही कहे, कांट और हीगल कितना ही कहें; वे निश्चित ही दूसरे लोग गलत हैं। जो कह रहे हैं, वह उनके विचार का निष्कर्ष है, अनुभव का नहीं। इसलिए फिलासफीज लड़ती रहती हैं, संघर्ष चलता रहता है। वे जो कह रहे हैं, वह उनका तर्कबद्ध आयोजन है, प्रतीति नहीं। पांच हजार साल में मनुष्य ने बहुत तरह के दर्शनशास्त्रों को जन्म वह उनके मन की ही दृष्टि है, मन से मुक्त उनका साक्षात्कार नहीं। दिया; वे सब एक-दूसरे से कलह करते रहते हैं। वे कहते हैं कि मन से पैदा होती है फिलासफी। मन के पार उठ जाने से जो पैदा तुम गलत हो, हम सही हैं। और जब वे कहते हैं, हम सही हैं, तो होता है, वही धर्म है। निश्चित ही कारण हैं; उनकी प्रतीति है। मन जो भी कहेगा, वह अधूरा होगा। इसलिए मेरा मन जो कहेगा - वह जो आदमी कह रहा है कि हाथी खंभे की तरह है, वह गलत और आपका मन जो कहेगा, उसमें मेल होने का कोई भी उपाय नहीं नहीं कह रहा है। और चूंकि उसे हाथी खंभे की तरह मालूम पड़ता है। मन का कहना करीब-करीब वैसा ही है, जैसा पंचतंत्र की एक | है, वह कैसे मान ले कि हाथी सूप की तरह भी है? ये दोनों बातें पुरानी कथा में हम सब जानते हैं, पांच अंधे एक हाथी को अनुभव | एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? करते हैं। और वे जो भी कहते हैं, वह सभी सच है। जिस अंधे ने लेकिन जिनके पास आंख है, वे जानते हैं, ये दोनों बातें एक हाथी के पैर को छुआ है, उसने कहा, किसी महल के सुदृढ़ स्तंभों साथ सही हैं। हाथी सूप भी है, हाथी खंभा भी है; हाथी और बहुत की भांति है हाथी। और जिसने हाथी के कानों को छुआ, उसने कहा कुछ भी है। और जितने अंधे आते चले जाएं, हाथी उतने ही रूप कि जैसे स्त्रियां अनाज को साफ करती हैं सूप में, वैसे सूप की भांति लेता चला जाएगा। है हाथी! ___ मन जो भी देखता है, वह सही है, लेकिन आंशिक—एक बात। गलत दोनों ने नहीं कहा, गलत पांचों ने नहीं कहा; और पांच और इसलिए मन के अनुभव को कभी पूर्ण पर मत फैलाना, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 अन्यथा वही फांसी बन जाती है। और मन के अनुभव पर कभी मत कहना दूसरे को गलत, क्योंकि दूसरे का मन जो जानता है, वह भी सही हो सकता है। धर्मों में विवाद नहीं है; हो नहीं सकता; सब विवाद दर्शनों का है और प्रत्येक धर्म जन्मता तो उनके बीच है, जो पंडित नहीं होते, लेकिन हाथ उनके पड़ जाता है अंततः, जो पंडित होते हैं। यह दुर्भाग्य है, लेकिन यह भी नियम है। | जब भी धर्म का जन्म होता है, तो वह उस आदमी में होता है, जिसका मन खो गया होता है; तब वह पूर्ण को जानता है। लेकिन जब लोग उससे समझते हैं, तो वे मन से ही समझेंगे; कोई और उपाय नहीं है। अगर मैं कोई ऐसी बात आपसे कहूं, जो मैंने मन के पार जानी हो, तो आपसे जब कहूंगा और आप जब सुनेंगे, तो आप मन से ही सुनेंगे। और मन से सुनकर अगर आपने उसे मान लिया या न माना, आपने कोई भी नतीजा लिया, तो वह नतीजा आंशिक होगा। और उस नतीजे पर ही कल मेरी बात के आधार पर कोई निर्माण हो सकता है, कोई शास्त्र बन सकता है, कोई धर्म बन सकता है। । वह धर्म अधूरा होगा और झूठा हो जाएगा। धर्म जब जन्मते हैं, तो पूर्ण होते हैं— महावीर में, कृष्ण में, या बुद्ध में, या मोहम्मद में। और जब चलते हैं, तो अपूर्ण हो जाते हैं। चलते हैं मन के सहारे; अधूरे हो जाते हैं। और अधूरे होते ही दूसरे अधूरे वक्तव्यों से संघर्ष शुरू हो जाता है। मोहम्मद का और महावीर का कोई संघर्ष नहीं है। बुद्ध का और कृष्ण का कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन हिंदू और मुसलमान का है, जैन और बौद्ध का है। होगा ही । जहां मन मिट गया है, वहां सभी वक्तव्यों के भीतर जो छिपा है, वह दिखाई पड़ जाता है । और जहां मन है, वहां एक वक्तव्य सही और शेष गलत मालूम पड़ते हैं। यह मन की पहली अड़चन है कि मन बांटकर देखता है। दूसरी अड़चन, जो इससे भी कठिन है, और वह यह है कि मन विरोध में बांटकर देखता है। मन जब भी दो चीजों को तोड़ता है, दोनों के बीच विरोध देखता है। जैसे जीवन है। अगर जीवन को मन देखेगा, तो उसे जीवन में दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म और मृत्यु । और मन कैसे माने कि जन्म और मृत्यु एक ही हैं? बिलकुल उलटे हैं। एक कैसे हो सकते हैं? कहां जन्म और कहां मृत्यु ? जीवन को बांटेगा मन, तो दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म का और मृत्यु का। और दोनों उलटे मालूम पड़ेंगे; कंट्राडिक्टरी; एक-दूसरे | | के विरोध में। जब भी मन बांटेगा, तो विरोध में बांटेगा; और जीवन अविरोधी है, नान - कंट्राडिक्टरी है। जीवन में कोई तकलीफ ही नहीं | है। जन्म और मृत्यु, जीवन में एक ही चीज के दो नाम हैं, एक ही चीज का विस्तार है। जो जन्म की तरह शुरू होता है, वही मृत्यु की | तरह पूर्ण होता है। अगर जन्म प्रारंभ है जीवन का, तो मृत्यु उसकी पूर्णता है। जन्म और मृत्यु में अगर मन को हम बीच में न लाएं, तो कोई भी विरोध नहीं है। लेकिन मन को हम बीच में कैसे न लाएं! हमारे पास और कोई उपाय नहीं है। मन ही हमारे पास उपाय है जानने के लिए। जैसे ही मन को हम लाते हैं, मन जीवन को दो हिस्सों में तोड़ देता है; एक हिस्सा जन्म हो जाता है, एक हिस्सा मृत्यु हो जाती है। | यह मन सभी जगह चीजों को दो में तोड़ देता है। यह कहता है, यह आदमी अच्छा है, वह आदमी बुरा है। सच्चाई बिलकुल उलटी है; अच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। तो जब हम कहते हैं, यह आदमी अच्छा है और वह आदमी बुरा है; या हम कहते हैं, यह बात अच्छी है और वह बात बुरी है; तब हमने तोड़ दिया। बड़ी अड़चन होगी यह मानने में कि अच्छाई और बुराई एक ही | चीज का विस्तार है। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि साधु और असाधु एक ही चीज के दो छोर हैं। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि राम और रावण दुश्मन हैं हमारे मन के कारण; अन्यथा अस्तित्व में एक ही लीला के दो छोर हैं। इसे ऐसा समझें, क्या रामायण संभव है रावण के बिना ? अगर संभव हो, तो रावण को विदा करके सोचने की कोशिश करें। रावण | को हटा दें राम की कथा से। और तब आप पाएंगे कि राम के भी | प्राण निकल गए। राम के प्राण भी रावण से जुड़े हैं। इधर रावण गिरेगा, तो राम भी गिर जाएंगे। राम भी रावण के बिना खड़े नहीं रह सकते। और अगर इतना गहरा जोड़ है, तो विपरीत कहना नासमझी है। अगर इतना गहरा जोड़ है कि राम का अस्तित्व नहीं हो सकता रावण के बिना, न रावण का अस्तित्व हो सकता है राम के बिना, | तो दोनों को दुश्मन देखना हमारे मन की भूल है। एक खेल के दोनों हिस्से हैं, जिसमें दोनों अनिवार्य हैं; जिनमें एक भी छोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन मन तो तोड़कर ही देखेगा। मन कैसे मान सकता है कि राम और रावण एक हैं! कभी भी नहीं मान सकता। मन कहेगा, | कैसी बात कर रहे हो ? कहां राम, कहां रावण! विपरीत हैं; तभी 274 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * तो इतना संघर्ष है दोनों में, तभी तो युद्ध है। तब फिर ऐसा देखें; जिंदगी हमारे गणित को नहीं मानती। जिंदगी हमारे गणित के एक को हटा दें। सब हिसाब को अस्तव्यस्त कर देती है। राम इसको भलीभांति अगर सच में रावण राम के दुश्मन हैं, तो रावण अगर न रहे, तो जानते हैं। राम को यह भलीभांति पता है। इसलिए संघर्ष गहरा है, राम और भी खिलकर प्रकट होना चाहिए। अगर रावण सच में ही लेकिन द्वेष कहीं भी नहीं है। युद्ध प्रगाढ़ है, लेकिन खेल से ज्यादा राम का दुश्मन है, तो रावण के हटते ही राम की प्रतिभा और खिल महत्ता नहीं है। राम को भलीभांति पता है कि वह जो दूसरा छोर है, जानी चाहिए। अगर रावण विरोध में है, तो रावण के हटते ही राम | वह अलग नहीं है। इसलिए लक्ष्मण को भेज देते हैं रावण के पास के फूल की सब पंखड़ियां पूरी खिल जानी चाहिए। क्योंकि विरोधी | ज्ञान जानने के लिए। रोक रहा था खिलावट को; विरोधी दुश्मन था; अड़चन डाल रहा | राम को भी पता है कि मेरा भी जो अनुभव है, वह एक छोर का था; अड़चन हट गई, अब राम को पूरा खिलना चाहिए। | है; रावण का भी जो अनुभव है, वह दूसरे छोर का है। और ज्ञान लेकिन राम को खिलना तो बहुत दूर, रावण को अगर बिलकुल पूरा लक्ष्मण का तभी होगा, जब वह दोनों छोरों को संयुक्त रूप से हटा दें, तो राम का आपको पता ही नहीं चलेगा कि वह कभी हुए जान ले। राम को तो उसने जाना है, उसे रावण के पास भेजते हैं हैं! उनका पता ही नहीं चलेगा। और यह बात दोनों तरफ लागू है। | अंत में कि तू उससे भी शिक्षा ले ले; वह महापंडित है, वह राम के बिना रावण को भी होने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह | | महाज्ञानी है; उसका भी अपना अनुभव है; उसकी भी अपनी यात्रा ऐसा है, तो फिर हमारे देखने में कहीं भूल है। वह जो हम शत्रुता है; उसने भी कुछ जाना है दूसरे किनारे से, जो कि अनूठा होगा देखते हैं, वह हमारी भूल है। कहना चाहिए, एक ही चीज के दो छोर | | और तू अधूरा रह जाएगा। तू राम को ही मत जान, रावण को भी हैं। और एक भी छोर दूसरे के बिना नहीं हो सकता। अनिवार्य छोर! | जान ले। और दोनों को जानकर तू ज्यादा पूर्ण होगा; अनुभव ज्यादा 'तो जब भी राम होंगे, तब रावण होगा। और जब भी रावण समद्ध, ज्यादा सघन होगा। होगा, तब राम होंगे। यह युद्ध नहीं है; यह युद्ध हमारे मन की प्रिज्म ___ और विपरीत जहां मिल जाते हैं, वहां अनुभव पूर्ण हो जाता है। में से गुजरकर दिखाई पड़ता है। जब मन को कोई हटा देगा, तो लेकिन हमारा मन? हमारा मन ऐसा है कि राम की पूजा करेंगे और पता चलेगा, एक ही ऊर्जा, एक ही शक्ति दोनों तरफ है। उस शक्ति रावण को आग लगाएंगे। यह हमारा मन है! मन हमारा ऐसा है कि के बहाव के लिए दोनों उतने ही जरूरी हैं। हम एक को पूजेंगे, दूसरे की निंदा करेंगे; एक को मित्र मानेंगे, ऐसा समझें कि गंगा बहती है दो किनारों के बीच। और हम मान दूसरे को शत्रु मानेंगे। ले सकते हैं कि दोनों किनारे अलग हैं। एक किनारे को हटा दें और | (किसी ने बीच से उठकर मन की परिभाषा पूछी।) फिर गंगा को बहाकर देखें, तब पता चलेगा कि वे दोनों किनारे पूछ रहे हैं एक मित्र कि मन की परिभाषा क्या है? तो मन की अलग न थे। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि एक किनारे से | थोड़ी परिभाषा समझें। अब देखें, जो मैं कह रहा था, पूछते हैं, मन दूसरे किनारे की प्रतिद्वंद्विता है, कांपिटीशन है; और एक किनारा की परिभाषा कैसे है? दूसरे से मुठभेड़ ले रहा है। और हमें ऐसा भी लग सकता है कि लेकिन आप उनकी तरफ मत देखें! आप ऐसे देख रहे हैं, जैसे एक किनारा गंगा को अपनी तरफ खींचने की कोशिश में लगा है। | उन्होंने बड़ी शत्रुता से पूछा है; वहीं भूल हो जाती है। आवाज जरा लेकिन ध्यान रहे, गंगा उन दोनों किनारों के बीच ही चलती है। वे | जोर की है, लेकिन मित्र की है; ऐसा क्या परेशान होना! उनकी दोनों किनारे गंगा के ही दो छोर हैं। और एक को भी हटाकर दूसरा तरफ मत देखें। नहीं बचेगा! मन की परिभाषा; मन का अर्थ होता है, मनन, विचार, चिंतन; कठिन होगी यह बात; और हमारी बुद्धि को अति कठिन पड़ेगी, जो दिखाई पड़े, उसके साथ चिंतन की धारा को जोड़ना। समझें; क्योंकि हमें सदा तोड़कर देखने में आसानी हो जाती है। राम को | एक फूल मुझे दिखाई पड़ता है। जहां तक दिखाई पड़ता है, वहां अच्छा बना लेते हैं, रावण को बुरा बना देते हैं; गणित साफ हो | | तक मन नहीं आता; लेकिन जैसे ही मैं कहता हूं, सुंदर है, मन आ जाता है। रावण छोड़ने जैसा है, राम पूजने जैसे हैं। रावण बुरा है, | गया; जैसे ही मैं कहता हूं, सुंदर नहीं है, मन आ गया; जैसे ही मैं राम अच्छे हैं। बंटाव सीधा हो गया, गणित साफ हो गया। | कहता हूं, बहुत प्यारा है, मन आ गया; जैसे ही मैं कहता हूं, बेकार 275 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 है, मन आ गया। जब तक दर्शन है, तब तक मन नहीं है। जैसे ही को तोड़कर देखती है, क्योंकि मन से निर्मित है। और मन भी चीजों दर्शन के साथ शब्द और विचार जुड़ते हैं, मन की गति शुरू हो गई। को तोड़कर देखता है, क्योंकि भाषा के पार मन का कोई अस्तित्व मन का अर्थ है, विचार को, शब्द को पैदा करने वाला यंत्र। मन नहीं है। यही मैं कह रहा था कि हम जहां भी कुछ देखते हैं, वहां का अर्थ है, विचार को जन्म देने वाला स्रोत। फूल को अगर मैं तत्काल विपरीत का अनुभव शुरू हो जाता है। अगर हम सौंदर्य देखता रहूं और सोचूं न, तो मेरी आत्मा और फूल के बीच मिलन | देखते हैं, तो कुरूप का बोध तत्काल शुरू हो जाता है। क्या आप होगा। अगर सोचूं, तो मेरी आत्मा और फूल के बीच में एक नई | ऐसा कर सकते हैं कि किसी चीज को सुंदर कहें बिना किसी चीज विचारों की श्रृंखला खड़ी हो जाएगी, शब्दों का एक जाल खड़ा हो | को असुंदर कहे? जाएगा। तब मैं फूल को न देख पाऊंगा सीधा; तब इन शब्दों के बुद्ध से महाकाश्यप ने पूछा है। महाकाश्यप एक दिन सुबह बुद्ध पार से, इन शब्दों के भीतर से फूल को देखूगा। तब फूल के संबंध के पास पहुंचा है, उनका एक प्रमुख शिष्य है। सूरज उग रहा है, में जो भी निर्णय मैं लूंगा, वह फूल के संबंध में नहीं, मेरे मन के पक्षी गीत गा रहे हैं और महाकाश्यप बुद्ध से पूछता है कि यह जो संबंध में है। क्योंकि अगर मैं बचपन से ऐसे घर में बड़ा हुआ हूं, | चारों तरफ फैला है, क्या यह सुंदर नहीं है? जहां गुलाब को सुंदर समझा जाता है, अगर मुझे बचपन से | बुद्ध चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप की तरफ देखते हैं, मुस्कुराते सिखाया गया है कि गुलाब सुंदर है, तो मेरे मन में विचारों की एक | हैं, लेकिन बोलते नहीं। महाकाश्यप फिर पूछता है कि क्या मेरे श्रृंखला है गुलाब के संबंध में, सौंदर्य की। अब अगर गुलाब का प्रश्न में कोई असंगति है? आप उत्तर क्यों नहीं देते हैं? फूल मैंने देखा और मेरे मन की धारा खड़ी हुई, मेरे विचार खड़े | बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैं, फिर महाकाश्यप की तरफ देखते हुए, और उन्होंने कहा, फूल सुंदर है, तो यह मेरी प्रतीति न हुई, यह हैं, मुस्कुराते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप तीसरी बार पूछता मेरे मन का वक्तव्य हुआ। और मन का वक्तव्य शब्दों का वक्तव्य है कि इतना ही कह दें कि आप जवाब न देंगे। है। निःशब्द जब कोई होता है, तो मन खो जाता है। बुद्ध फिर चारों तरफ देखते हैं और चुप रह जाते हैं। महाकाश्यप इसका अर्थ यह हुआ कि शब्दों की हमारे भीतर जो प्रक्रिया है, || | से वे तब कहते हैं कि तू जो पूछ रहा है, उससे तू मुझे बड़ी मुश्किल दिवेरी प्रोसेस आफ लैंग्वेज इज़ माइंड। हमारे शब्दों की जो प्रक्रिया | में डाल रहा है। मुश्किल में इसलिए डाल रहा है कि अगर मैं कहूं, है, हमारे शब्दों का जो संग्रह है, हमारे शब्दों का जो जाल है, वह यह सब सुंदर है, तो मैं किसको कुरूप कहूं? क्योंकि जब भी सुंदर हमारा मन है। मन हमारे समस्त शब्द, हमारी समस्त भाषा, हमारे का उपयोग करें, तो कुरूप की धारणा सुनिश्चित हो जाती है। समस्त सोचने की क्षमता का इकट्ठा जोड़ है। और बुद्ध ने कहा कि अब मुझे न कुछ कुरूप रहा है और न कुछ आदमी गैर-मन की हालत में दो तरह से हो सकता है। बेहोश सुंदर रहा है; जो जैसा है, वैसा ही रह गया है। यह मन के बाहर से पड़ा हो, तो भी गैर-मन की हालत में हो जाता है। यह मन से नीचे देखा गया जगत है। कांटा कांटा है, फूल फूल है; गुलाब गुलाब की अवस्था है। आदमी समाधि में हो, तो भी मन के बाहर हो जाता | है, चंपा चंपा है। न कुछ सुंदर है, न कुछ कुरूप है। जो जैसा है, है। यह मन से ऊपर की अवस्था है। वैसा है। इसलिए ऋषियों ने कहा है कि प्रगाढ़ निद्रा में भी आदमी समाधि बुद्ध ने कहा, जो जैसा है, वह मुझे दिखाई पड़ता है। यह सुंदर जैसी अवस्था में पहुंच जाता है। एक ही लक्षण समान है, मन नहीं है या कुरूप, यह मैं कैसे कहूं? क्योंकि जिस मन से मैं बांटता था, होता। प्रगाढ़ निद्रा में भी मन नहीं होता, क्योंकि विचार खो जाता वह खो गया है। मन जो मेरे पास था, जिससे मैं तौलता था, वह है। लेकिन विचार तो खो जाता है, होश भी खो जाता है। समाधि खो गया है। में भी प्रगाढ़ निद्रा की घटना घटती है, मन खो जाता है; लेकिन | समझें, एक तराजू है हमारे पास; उससे हम तौल लेते हैं, होश पूरा होता है। कौन-सी चीज वजनी है, कौन-सी चीज गैर-वजनी है। तराजू खो मन हमारे चिंतन का यंत्र है। और इसलिए जितना ही ज्यादा हम | गया। फिर कोई मुझसे पूछता है कि यह ज्यादा वजनी है या कम इस चिंतन के यंत्र का उपयोग करके जगत को देखते हैं, उतना ही | | वजनी है ? मैं अपने हाथ पर रखकर थोड़ा अंदाज कर सकता हूं; जगत बंट जाता है। इस बंटाव में कई कारण हैं। हमारी भाषा चीजों हाथ से तराजू का काम ले सकता हूं। यद्यपि उतना सुनिश्चित तो 276 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * गया है। नहीं होगा, तोला-तोला, रत्ती-रत्ती नहीं बता सगा; लेकिन फिर | | मालिक हो जाएं, तो आप जगत को दूसरे ढंग से देखना शुरू करेंगे। भी कह सकता हूं कि यह सेरभर है, यह तीन पाव है! साफ तो नहीं ___ यह मैंने क्यों कहा? यह मैंने इसलिए कहा कि कृष्ण का यह जो होगा उतना। सूत्र है, यह आपकी तभी समझ में आ सकेगा, जब आप मन और लेकिन मेरा हाथ भी टूट गया; अब मेरे पास कोई भी उपाय नहीं | | गैर-मन, दो ढंग से जगत को देखने की व्यवस्था को समझने में है, जिससे मैं इसे नाप लूं। तो अब मैं आंख से ही देखकर अंदाज समर्थ हो जाएं। लगाऊंगा कि यह थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता है, यह थोड़ा कम | कृष्ण कहते हैं, मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं और मैं ही वर्षा को मालूम पड़ता है। मात्रा देखकर कहूंगा। भूल अब ज्यादा होगी। । भी आकर्षित करता हूं। मैं ही बरसाता हूं, मैं ही वर्षा हूं। लेकिन मेरी आंख भी चली गईं। अब मेरे पास कोई भी उपाय | । इसे हम ऐसा समझें, आग को और जल को हम सदा विपरीत नहीं है कि मैं कहूं कि कौन ज्यादा है, कौन कम है! हाथ नहीं, तराजू | | देखते हैं। अगर आग लगी हो, तो हम पानी से उसे बुझा देते हैं। नहीं, आंख नहीं। अब तो मैं यही कहूंगा कि यह यह है और वह | और अगर हम पानी में आग लगाना चाहें, तो कोई उपाय नहीं है। वह है। लेकिन मेरे पास वह तौलने का यंत्र नहीं है, जिससे मैं तौल | | आग और पानी हमारे लिए विपरीत हैं। आग की पानी से क्या लेता, बांट लेता, कौन कम है, कौन ज्यादा है। मैत्री? पानी दुश्मन है। बुद्ध ने कहा, जो है, वह है। सूरज उग रहा है। फूल खिल रहे | | पर कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं आग और मैं ही हूं जल; मैं ही हैं। पक्षी गीत गा रहे हैं। और मैं यहां बैठा सुन रहा हूं। लेकिन वह | भभकता हूं, मैं ही बुझाता हूं; मैं ही हूं सूर्य, जो तपता है; और मैं जो कह सकता था सुंदर और असुंदर, वह मौजूद नहीं है। वह खो | | ही हूं वह वर्षा, जो आकर्षित होती है सूर्य से। अगर हम मन का हिसाब छोड़ दें और जरा अस्तित्व को देखें, · ध्यान का अर्थ है, मन का खो जाना। ध्यान का अर्थ है, भाषा | | तो पता चलेगा, सूर्य ही तो खींचता है सागर से पानी को, सूर्य ही का, शब्द का, विचार का भीतर से तिरोहित हो जाना। तो बनाता है बादलों को, सूर्य ही तो बरसाता है। तो आग और पानी इसका यह अर्थ भी नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश करेगा, वह | | में जो वैमनस्य हमें दिखाई पड़ता है, वह कहीं न कहीं हमारे मन के बोल न सकेगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि जो ध्यान में प्रवेश कारण ही होगा! वह वैमनस्य राम और रावण जैसा ही है। सूर्य के करेगा, वह शब्द का उपयोग न कर सकेगा। सच तो यह है कि वही | | बिना पानी नहीं हो सकेगा। पानी के बिना सूर्य नहीं हो सकेगा। वे उपयोग कर सकेगा। लेकिन तब उपयोग उपयोग होगा; वह | | कहीं बहुत गहरे में संयुक्त और इकट्ठे हैं। मालिक होगा। बुद्ध भी बोल रहे हैं; वे कह रहे हैं कि मेरा मन खो उनके संयुक्त होने की खबर वे देते हैं और कहते हैं, हे अर्जुन, गया। शब्द का उपयोग हो रहा है, भाषा का उपयोग हो रहा है, मैं ही अमृत हूं और मैं ही मृत्यु। लेकिन बस उपयोग की तरह। जैसे आदमी जब चलता है, तो पैर - दुनिया में ईश्वर के संबंध में जिन लोगों ने भी सोचा है, उनमें का उपयोग करता है; जब बैठ जाता है, तो पैर का उपयोग बंद कर सिर्फ हिंदू दृष्टि ईश्वर के साथ मृत्यु को भी जोड़ती है; बाकी कोई देता है। | भी नहीं जोड़ता है। पृथ्वी पर जितनी चिंतनाएं हैं, वे सभी कहती हैं लेकिन आपका मन पागल है; आप नहीं भी काम लेना चाहते कि ईश्वर जीवन है, लेकिन कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं हैं उससे, वह काम करता ही चला जाता है। आप कहते हैं, चुप हो करता कि ईश्वर मृत्यु भी है। उसका कारण है। वह जो हमारे मन जाओ; वह चुप होता ही नहीं! आप कहते हैं, बंद करो, मुझे सोना का विभाजन है, उसमें हम कैसे दोनों कहें? कैसे? ईश्वर दोनों कैसे है; और वह बंद नहीं होता। और आप कहते हैं, ठहर जाओ, यह | | हो सकता है? बात मुझे सोचनी ही नहीं है; और वह सोचे चला जाता है। और | | लेकिन ईश्वर दोनों है; क्योंकि जीवन दोनों है। हमारे तर्क में न आप बिलकुल बेबस हैं। आए, तो हमें तर्क छोड़कर देखना चाहिए। लेकिन हमारे तर्क के यह आपकी विवशता, यह आपकी बेचैनी, यह आपकी | | पीछे जीवन चलने को आबद्ध नहीं है। अगर हम पूछे किसी और मजबूरी—आपकी आत्मा की मालकियत खो गई है और मन | | से, तो वह कहेगा, ईश्वर जीवन है। लेकिन ईश्वर मृत्यु है, यह आपका मालिक है। यह मालकियत मिटे, मन नीचे उतरे, आप | कहने में घबड़ाहट होगी उसे। क्योंकि मृत्यु को हम सोचते हैं, वह 277 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* जीवन के विपरीत है। और जीवन को हम अच्छा और मृत्यु को बुरा च्वांगत्से की पत्नी मर गई है, सम्राट उसे दुख प्रकट करने आया समझते हैं। | है, और च्वांगत्से खंजड़ी बजाकर वृक्ष के नीचे बैठा गीत गा रहा इसलिए मित्र के लिए हम जीवन की प्रार्थना करते हैं, और शत्रु | | है। सम्राट थोड़ा बेचैन हुआ। यह च्वांगत्से बड़ा फकीर था, तभी के लिए मृत्यु की प्रार्थना करते हैं। चाहते हैं मित्र जीए, और चाहते | तो सम्राट खुद आया था चलकर कि उसकी पत्नी मर गई है तो उसे हैं शत्रु मर जाए। लेकिन हमें पता नहीं; मर तो वही सकता है, जो जाकर दो शब्द संवेदना के कह आए। लेकिन यहां संवेदना का कोई जीएगा। और हमें यह भी पता नहीं कि जो जीएगा, उसे मरना ही | | उपाय ही न था! यह आदमी खंजड़ी बजाकर गीत गा रहा था! पड़ेगा। तो जब हम किसी की मृत्यु की प्रार्थना करते हैं, तब हम | संवेदना प्रकट करनी तो दूर रही...। उसके जीवन की भी प्रार्थना कर रहे हैं। और जब हम किसी के | सम्राट तय करके आया था, जैसा कि सभी लोग तय करके जाते जीवन के लिए शुभकामना करते हैं, तब हम मृत्यु की भी हैं, जब कोई मर जाता है, कि क्या कहना! कैसे शुरू करना! कठिन शुभकामना कर रहे हैं। क्योंकि जीवन बिना मृत्यु के हो नहीं सकता | मामला भी है। किसी के घर कोई मर गया, कहां से शुरू करो! क्या है; वे एक ही चीज के दो छोर हैं। कहो! भाषा मुश्किल में पड़ती है, साहस जवाब देता है। जीवन और मृत्यु बड़े विपरीत छोर हैं। हम सबको ऐसा अब तक सब तय करके आया था, यह-यह कहूंगा, ऐसे-ऐसे बात शुरू लगता रहा होगा कि जीवन को जो समाप्त करती है, वह मृत्यु है। करूंगा, किसी तरह निपटाकर निकल आऊंगा। लेकिन यहां और लेकिन वह दृष्टि गलत है। जीवन को जो पूर्ण करती है, वह मृत्यु | मुश्किल बढ़ गई, क्योंकि च्वांगत्से खंजड़ी पीट रहा है। सम्राट है। जीवन मृत्यु में जाकर अपने चरम शिखर को छूता है। | बिलकुल उदास होकर आया था, तैयार होकर आया था। इसलिए भारत ने जवानी को बहुत मूल्य नहीं दिया, वार्धक्य को | | स्वभावतः, दूसरे का जीवन हमें जब प्रफुल्लित नहीं करता, तो मूल्य दिया। पश्चिम जवानी को मूल्य देता है; वृद्ध को कोई मूल्य | | दूसरे की मृत्यु हमें दुखी क्यों करेगी! और अगर दूसरे का जीवन नहीं देता। वृद्ध होना अवमूल्यित हो जाना है, डिवेल्युएशन हो | हमें प्रफुल्लित ही कर पाए, तो हम उस स्थिति को जान लेंगे, जहां जाता है। आदमी बूढ़ा हुआ पश्चिम में कि डिवेल्युएशन हुआ, | | फिर मृत्यु भी दुखी नहीं कर पाती। उसका अवमूल्यन हो गया। उसका जो भी मूल्य था जगत से, वह सम्राट आया था उदास बाना पहनकर। देखा, तो रहा नहीं खो गया। गया। उसने च्वांगत्से से कहा कि महानुभाव! दुख न मनाएं, इतना क्यों? क्योंकि अगर जीवन और मृत्यु विपरीत हैं, तो फिर जवान | ही काफी है। लेकिन खंजड़ी बजाएं और गीत गाएं, यह जरा ज्यादा ही जीवन के शिखर को छूता है; बूढ़ा तो मौत की तरफ जाने लगा। | हो गया! दुख न मनाएं, चलेगा, ठीक है। लेकिन यह जरा ज्यादा इसे ऐसा समझें, अगर मृत्यु बुरी है, तो बूढ़ा अच्छा कैसे हो हो गया! सकता है? क्योंकि बूढ़े का मतलब है, जो मृत्यु में जाने लगा। वह च्वांगत्से ने कहा, क्या कहते हैं। जिसके साथ मैंने जीवन के मृत्यु का पथिक है; मृत्यु उसके करीब आने लगी। बूढ़े का मतलब परम आनंद जाने, और जिसके साथ जीवन की लंबी यात्रा पूरी की, है, जिससे मृत्यु प्रकट होने लगी। तो फिर जवान शिखर है जीवन क्या उसके पूर्ण होने के क्षण में मैं गीत गाकर विदा भी न दे सकूँ! का। अगर मृत्यु जीवन के विपरीत है, तो जवानी जीवन होगी। फिर मगर यह कुछ और ढंग है देखने का। यह मन से देखी गई बात जवानी का मूल्य होगा, बूढ़े का अवमूल्यन हो जाएगा | नहीं है। अगर मन से देखी गई हो, तो मृत्यु दुख का कारण है, जन्म पश्चिम ने मृत्यु को जीवन की समाप्ति समझा है, इसलिए बूढ़ा | खुशी का कारण है। यह मन के कहीं पार से देखी गई बात है, जहां अनादृत हो गया। इस भाव के साथ बूढ़े का कोई आदर नहीं हो जन्म और मृत्यु विपरीत नहीं रह जाते, जहां दोनों ही एक ही जीवन सकता। पूरब ने मृत्यु को जीवन की पूर्णता समझा है, इसलिए बूढ़ा | की धारा के अंग हो जाते हैं। और जहां जीवन मृत्य और जन्म के आदृत हुआ। क्योंकि वही चरम शिखर है जीवन का, जवान नहीं; | बीच की धारा बन जाता है, दोनों किनारे उसी के हो जाते हैं। वृद्ध ही चरम शिखर है जीवन का। और मृत्यु का क्षण सिर्फ अज्ञान तो च्वांगत्से कहता है कि उसकी महापूर्णता के क्षण में मैं उसे के कारण अवसाद का क्षण है; अगर समझ हो, तो उत्सव का क्षण | । गीत गाकर विदा न दे सकू, तो मुझसे ज्यादा अकृतज्ञ कौन होगा? भी हो सकता है। सम्राट की समझ में नहीं पड़ा होगा। आपकी भी समझ में पड़ना 2781 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * मुश्किल पड़ेगा। लेकिन जिनकी समझ में पड़ जाए, वे ही केवल शंकर का शिवलिंग रखा है। कभी आपने खयाल किया कि शंकर समझदार हो पाते हैं। मृत्यु के देवता हैं, विध्वंस उनके हाथ में है। ब्रह्मा बनाता है, विष्णु प्रयोजन इतना ही है कि जिसे हम विपरीत कहते हैं, वह विपरीत सम्हालता है, शंकर विध्वंस में ले जाते हैं। शिव विध्वंस के देवता नहीं है। विपरीत हमारी भ्रांति है। और जहां-जहां विरोध दिखे, हैं। लेकिन जो शिवलिंग रखा है, वह फैलिक सिंबल है, वह वहां-वहां खोजेंगे, तो नीचे एकता की धारा मिल जाएगी। कांटा है, | जननेंद्रिय का सिंबल है, वह सृजन का प्रतीक है। वह जो शिवलिंग गुलाब है। फूल खिला है, कांटा लगा है। आप फूल तोड़ने जाते है, वह जन्म और जीवन का प्रतीक है। और शंकर देवता हैं विध्वंस हैं, कांटा हाथ में छिद जाता है; लहू की धार फूट पड़ती है। के; उनके काम जो जिम्मा है, वह है मिटाने का। स्वभावतः, आपको लगेगा कि फूल और कांटा दुश्मन हैं। कहां | ___ बड़ी हैरानी, बड़े पागल लोग थे ये हिंदू! जब पहली दफा फूल, कहां कांटा! गए थे फूल तोड़ने, लग गया कांटा! | पश्चिम में शंकर का यह प्रतीक पहुंचा, तो उन्होंने कहा, ये कैसे अगर आप किसी को कांटा भेंट करने जाएं, तो वह भी चौंकेगा | | लोग हैं! विध्वंस का देवता है, जिसे कि दुनिया को नष्ट करना है, कि आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है! भेंट तो फूल किए | और यह फैलिक सिंबल है! और यह जननेंद्रिय का सिंबल है, जाते हैं। कभी देखें; गुलाब के कांटे तोड़कर किसी को भेंट करने | | जीवन का प्रतीक; जहां से समस्त जीवन जन्मता है और विकसित चले जाएं। फिर दुबारा वह आपको दिखाई भी नहीं पड़ेगा। आपसे | होता है! यह किस प्रकार का प्रतीक है? यह प्रतीक होना ही नहीं बचकर निकलने लगेगा। जिस रास्ते आप गुजरते हैं, उस रास्ते | चाहिए। यह प्रतीक शंकर के साथ मेल नहीं खाता। नहीं गुजरेगा। खाता भी नहीं है। अगर हम भी सोचेंगे गणित से, तो मेल नहीं लेकिन फूल और कांटे क्या दुश्मन हैं? तो फिर जरा गुलाब की | खाता। अगर विध्वंस का देवता है, तो कुछ विध्वंस की बात होनी शाखा में नीचे उतरें। शाखा में बहती हुई रसधार से पूछे कि यह | चाहिए थी। यह तो जीवन है। जीवन का प्रतीक चुना है और विध्वंस फूल और यह कांटा क्या अलग-अलग जगह से आते हैं? का देवता है। कारण वही है। वही रस कांटा बनता है, वही रस फूल बनता है। ये दोनों कृष्ण कहते हैं, मैं ही अमृत और मैं ही मृत्यु हूं। अलग-अलग हमें दिखाई पड़ते होंगे, ये अपने में अलग-अलग ये विपरीत प्रतीक हमें मालूम पड़ते हैं, लेकिन भारत ने सदा यह नहीं हैं। और गुलाब के सब कांटे तोड़ डालें, तो फूल भी उदास हो | कोशिश की है कि विपरीत के भीतर जो एक धारा है, वह खयाल जाएंगे; क्योंकि भीतर की रसधार को चोट लगेगी। वही रसधार तो में आए। इसलिए जानकर विध्वंस के देवता के सामने सृजन का है। और जब गुलाब के फूल तोड़ लिए जाते हैं, तो कांटे भी पीड़ा प्रतीक रखा है; जानकर, सोचकर, बहुत खोजकर। यही प्रतीक अनुभव करते हैं। क्योंकि वे तो संयुक्त हैं, अस्तित्व इकट्ठा है। मन | उनका प्रतीक हो सकता है। क्योंकि जिसे विध्वंस की अंतिम सीमा बांटता है; फिर फूल अच्छे हो जाते हैं, कांटे बुरे हो जाते हैं। फिर छुनी है, उसे जन्म के पहले क्षण में भी उपस्थित होना चाहिए। जिसे कांटे को कोई भेंट नहीं दे सकता, फूल को ही भेंट देना पड़ता है। | मृत्यु का रास्ता बनना है, उसे जन्म का भी द्वार बनना चाहिए। लेकिन अस्तित्व कांटे और फूल एक साथ उगाए चला जाता है। | इसलिए दोनों विपरीत—मृत्यु उनका काम, जन्म उनका प्रतीक। अस्तित्व एक साथ दोनों को जीवन दिए चला जाता है। यहां भी इतनी ही बात होती, तो भी आसान था, और भी कठिन कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं अमृत, मैं ही मृत्यु हूं।' सूत्र है। जब पहली बार भारतीय चिंतन की कुछ झलक भारत के बाहर कृष्ण कहते हैं, एवं सत और असत भी मैं ही हूं। फैलनी शुरू हुई, तो जो सबसे बड़ी हैरानी अनुभव होनी | सत का अर्थ है, जो है; और असत का अर्थ है, जो नहीं है। जो स्वाभाविक थी, वह यही थी। सबसे ज्यादा हैरान करने वाला है, वह तो मैं हूं ही; जो नहीं है, वह भी मैं ही हूं! यह आखिरी पश्चिम में जो हमारा प्रतीक है, वह महादेव का, शिव का है। कभी | कंट्राडिक्शन है। तर्क में, चिंतन में, विचार की पद्धति में, जो है और आपने खयाल नहीं किया होगा; क्योंकि न हम देखते, न हम | जो नहीं है, यह सबसे बड़ा विरोध है। होना और न होना, यह सबसे सोचते, न हम खोजते! बड़ी खाई है। इससे बड़ी कोई भी खाई नहीं हो सकती। आपने देखा है, जगह-जगह सड़क के किनारे एक वृक्ष के नीचे तो कोई मान भी ले सकता है, थोड़ा कल्पना को फैलाए तो मान |279 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* ले सकता है कि जन्म और मृत्यु जुड़े हैं-चलो एग्रीड; माना। कोई जाऊंगा, आज हूं। आज मेरे होने की गंगा बहती है। दो मेरे किनारे यह भी मान ले सकता है-थोड़ी हिम्मत जुटाए, थोड़ी आदतों को - हैं। कल भी मैं नहीं था, कल फिर मैं नहीं रहूंगा। यह दो न होना तोड़े-कि चलो माना कि राम और रावण की कथा भी, एक गिर | मेरे दो किनारे हैं, और मेरा होना बीच की धारा है। उन दो के बिना जाए, तो नहीं हो सकेगी; किसी तरह दोनों जुड़े हैं, माना। यह भी | मैं नहीं हो सकूँगा। वे दोनों मेरे तरफ मुझे घेरे हुए हैं। माना जा सकता है कि फूल और कांटा जुड़े हैं। लेकिन यह तो सुबह थी; सांझ हो गई; रात आ गई; फिर सुबह आएगी। कभी बिलकुल नहीं माना जा सकता कि जो है, वह उससे जुड़ा है, जो है आपने देखा, हर दिन को दोनों तरफ दो रातें घेरे हुए हैं। हर रात को ही नहीं! क्योंकि जो है ही नहीं, उससे जोड़ कैसा? जोड़ का तो | दोनों तरफ दो दिन घेरे हुए हैं। विपरीत किनारा बना हुआ है। जो मतलब ही होता है कि दो चीजें हों, तो जोड़ हो सकता है। जो नहीं | भी है, वह दोनों ओर नहीं से घिरा है। और जो भी नहीं है, वह भी है, उससे कैसा जोड़? दोनों ओर है से घिरा है। यह आत्यंतिक खाई है, होने में और न होने में। न होने और होने होना और न होना इतने विपरीत नहीं हैं, क्योंकि एक-दूसरे में के बीच तो हमारा मन बिलकुल ही इनकार कर देगा कि जोड़ बन हम बदलते हुए देखते हैं। जो आदमी था, वह अब नहीं हो गया। नहीं सकता। खींच-तानकर राम और रावण के बीच बना लें; इसका मतलब हुआ कि जो था, वह नहीं है में प्रवेश कर जाता है, खींच-तानकर शत्रु और मित्र के बीच बना लें, खींच-तानकर जन्म लिक्विड है, बह सकता है; ठोस विभाजन नहीं मालूम होता। और मृत्यु के बीच बना लें; सुंदर-असुंदर के बीच बना लें; __ आदमी जवान है, फिर यही जवान बूढ़ा हो जाता है। आप बता प्रकाश-अंधकार के बीच बना लें; लेकिन जो है ही नहीं, दैट व्हिच सकते हैं, कब बूढ़ा हो जाता है? कौन-सी तिथि में, कौन-सी इज़ नाट, एंड दैट व्हिच इज़, इन दोनों के बीच क्या जोड़ है? और | तारीख में, कौन-सी समय की सीमा पर जवानी चली जाती है और जोड़ बनेगा कैसे? बुढ़ापा आ जाता है? दो किनारों के बीच जोड़ हो सकता है, क्योंकि दोनों किनारे हैं। नहीं बता पाएंगे। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह लेकिन एक किनारा है और दूसरा किनारा नहीं है, इनके बीच जोड़ | हुआ कि बुढ़ापा और जवानी दो चीजें नहीं हैं; तरल हैं, लिक्विड कैसे होगा? हैं; एक-दूसरे में बह जाती हैं। पता ही नहीं चलता, कब जवान बूढ़ा यह सर्वाधिक कठिन मालूम पड़ेगा, और मन के लिए सबसे हो गया। कब तक बूढ़ा जवान था, यह भी पता नहीं चलता। कब बड़ी चोट भी है। लेकिन इसे समझें, तो समझ में आ सकेगा। इसे बच्चा जवान होता है, यह भी पता नहीं चलता! हम दो-तीन प्रकार से समझने की कोशिश करें। थोड़ा कठिन है, ___ तो जवानी या बुढ़ापा विपरीत दिखाई पड़ते हैं, लेकिन एक-दूसरे लेकिन असंभव नहीं कि खयाल में झलक न आ जाए। और खयाल में बह जाते हैं; एक-दूसरे में डोलते रहते हैं। होना और न होना भी में झलक ही आ सकती है, अनुभव तो खयाल में नहीं आ सकता। इसी तरह एक-दूसरे में डोलता रहता है। अभी बीज है, वृक्ष नहीं झलक आ जाए. तो अनभव की तरफ कदम बढाए जा सकते हैं। है। यह बीज अचानक कल वक्ष के होने में प्रकट हो जाएगा। तो थोड़ी मेहनत लें। होना, न होना; अस्तित्व, अनस्तित्व; सत और असत-ये एक वृक्ष है; कल नहीं था, आज है, कल फिर नहीं हो जाएगा। विपरीत हमें दिखाई पड़ते हैं, विपरीत नहीं हैं। तो होना और न होना किसी न किसी तरह जुड़े होने चाहिए। वृक्ष | इसे हम और एक तरह से देखें। कल नहीं था, आज है, कल फिर नहीं हो जाएगा। तो जो नहीं था, | जो भी चीज है, उसकी संभावना है कि वह नहीं हो जाएगी। ऐसी वह हो सका; जो है, वह कल नहीं हो जाएगा। आप कल नहीं थे, | | कोई चीज आप जानते हैं, जो नहीं न हो जाए? जो भी है, वह नहीं आज हैं, कल फिर नहीं हो जाएंगे। नहीं से आते हैं, नहीं को लौट | हो सकती है। दैट व्हिच इज़, कैन बी दैट व्हिच इज़ नाट। इज़, कैन जाते हैं। तो वह जो बीच में थोड़ी देर के लिए होना है, वह दो नहीं | बी इज़ नाट। के बीच में है। (भीड़ में से कोई खड़ा होकर कुछ चिल्लाकर कहता है। अब इसे हम ऐसा समझें कि दो नहीं किनारे हैं और होना बीच भगवान श्री हंसते हुए उसे समझाते हैं और साथ ही सभी लोगों को की नदी है। दो नहीं किनारे हैं; कल मैं नहीं था, कल फिर नहीं हो | शांत रहने को कहते हैं। और अपनी बात जारी रखते हैं।) 280 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में * छोड़िए! अपन अपनी बात शुरू करें। लेकिन अगर कोई पिता कहे, तो हमें लगेगा, हमारी भाषा जो नहीं है और जो है, उन दोनों के बीच कोई अलंघ्य खाई नहीं | | बोली; और कोई फादर कहे, तो लगेगा, कोई विदेशी भाषा बोल है। वे दोनों एक के ही दो रूप हैं। जो नहीं है, वह है में प्रवेश कर | दी। नासमझी है। पिता और फादर जिस शब्द से पैदा हुए हैं, वह सकता है; जो है, वह नहीं है में प्रवेश कर सकता है। लेकिन हम | एक है। ये फासले कितने ही हो जाएं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बांटकर देखते हैं, इससे कठिनाई हो जाती है। है। संस्कृत में जो मूल रूप हैं, वे सारी दुनिया की भाषाओं में फैल आप शांत बैठे हैं; एक मित्र अशांत हो गए; इतनी देर तक शांत गए हैं। थे। शांति अशांति में चली गई। फिर शांत हो जाएंगे। क्योंकि | | इसलिए संस्कृत किसी की भाषा नहीं है, संस्कृत सब भाषाओं कितनी देर अशांत रहेंगे? जब शांति अशांति बन सकती है, तो की भाषा है। लेकिन जल्दी हमारा मन करता है और कठिनाइयां अशांति फिर शांति बन जाएगी। इतनी देर मौन से बैठे थे, क्रोध में खड़ी कर लेता है। मन बांटकर देखता है और बंटकर मुसीबत में आ गए। मौन क्रोध बन सकता है। कितनी देर रहेगा? जब मौन | पड़ जाता है। क्रोध बन सकता है, तो क्रोध फिर मौन बन जाएगा। लेकिन हम कृष्ण कहते हैं, सत भी मैं हूं, असत भी मैं हूं। जो है, वह भी मैं विपरीत में एकता को नहीं देख पाते हैं, उससे अड़चन हो जाती है; | ही हूं; और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूं। यह सबसे कठिन कोटि उससे कठिनाई हो जाती है। आप भी शांत बैठे हैं, आपको खयाल | | है, सबसे कठिन कैटेगरी है; क्योंकि नहीं है को हम सोच भी नहीं भी नहीं आ सकता कि आप भी इसी तरह अशांत हो सकते हैं! | पाते; लेकिन प्रतिपल घटना घट रही है। जो तारा कल नहीं था, वह बिलकुल हो सकते हैं। क्योंकि अब तक वे भी आप ही जैसे बैठे आज निर्मित हो गया है। हुए थे। वैज्ञानिक कहते हैं, रोज नए तारे निर्मित होते हैं। और जो तारा . वह जो विपरीत है, उसमें हम डोल सकते हैं कभी भी, किसी भी कल था, वह आज खो गया है। क्षण में, किसी भी क्षण में। और मन हमारा बांटकर देखता है। ___ आप रात को जब आकाश में तारे देखते हैं, तो आप इस भ्रांति उनके मन को बंटकर दिखाई पड़ गया कि यह हिंदी है, यह अंग्रेजी | | में न रहें कि जो तारे आप देखते हैं, सब वहां हैं। क्योंकि तारों से है; हिंदी होनी चाहिए, अंग्रेजी नहीं होनी चाहिए! बांटकर जहां भी प्रकाश आने में करोड़ों-करोड़ों वर्ष लग जाते हैं, अरबों वर्ष भी लग हम देखते हैं, वहां विपरीत दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। | जाते हैं। और यह हो सकता है कि वह तारा कभी का मिट चुका अब मजा यह है कि अगर हम भाषाओं के भीतर भी थोड़ा प्रवेश | हो। लेकिन जब वह था, तब उसका प्रकाश चला था, और अब करें, तो हम पाएंगे कि एक ही स्वर गंजता है। सारी दुनिया की | | आज की रात आपको वह दिखाई पड़ता है, वह प्रकाश। हो सकता भाषाओं में अगर हम थोड़ा-सा गहरे उतरें, तो लगता है कि कोई | | है, करोड़ वर्ष पहले वह प्रकाश चला हो, वह तारा कभी का मिट एक ही भाषा बहुत-बहुत ढंग से बोली गई है। और अंग्रेजी और गया। लेकिन उसका प्रकाश पृथ्वी तक आने में समय लगता है। हिंदी तो भीतर इतनी गहरी जुड़ी हैं कि जिसकी हमें कल्पना नहीं हो वह आज की रात आ पाया। आज की रात वह है नहीं। एक तो सकती; सिस्टर लैंग्वेजेज हैं। संस्कृत से दोनों का जन्म हुआ है, | पक्की बात है कि उस जगह तो है ही नहीं, जहां से प्रकाश चला अंग्रेजी का भी और हिंदी का भी। और हिंदी जितनी संस्कृत के | | था। जहां आपको दिखाई पड़ेगा, वहां तो नहीं है। और दूसरी बात करीब है, उतनी ही करीब अंग्रेजी भी है। अगर हम दोनों में थोड़ा | | भी संभव है कि वह मिट ही गया हो, अब कहीं हो ही नहीं। फिर प्रवेश करें, तो हमें पता लगेगा कि दोनों के बीच वैपरीत्य नहीं है, भी दिखाई पड़ रहा है। एक धारा बह रही है। प्रतिपल चीजें बन रही हैं और मिट रही हैं। बनना और मिटना • हिंदी में आप मां कहते हैं, संस्कृत में मातृ कहते हैं, लैटिन और | | एक साथ चल रहा है। अगर हम और गौर से देखें, तो बनना और ग्रीक में मैटर हो जाता है, अंग्रेजी में मदर हो जाता है। वह मदर | मिटना दो अलग-अलग समय में नहीं घटते, एक ही समय में मातृ का ही रूप है, जैसे मां और माता मातृ का ही रूप है। संस्कृत | घटते हैं। जब मैं जवान हो रहा हूं, तभी मैं बूढ़ा भी हो रहा हूं। में पितृ कहते हैं, पितर कहते हैं, हिंदी में पिता कहते हैं; अंग्रेजी में इसीलिए तो पता नहीं चलता कि किस दिन बूढ़ा हो गया। जब मैं वह फादर हो जाता है; पीटर, पैटर और फिर फादर हो जाता है। जी रहा हूं, तभी मैं मर भी रहा हूं। इसीलिए तो पता नहीं चलता कि |281| Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* मृत्यु कहां से आ गई। यह मृत्यु कहीं बाहर से नहीं आती। जब मैं सुख चाहते हैं; दुख से बचना चाहते हैं। ऐसे लोग अभी भी मन से जी रहा हूं, तभी मैं मर भी रहा हूं। ही जी रहे हैं। जब आप एक मकान बना रहे हैं, तभी उसका गिरना भी शुरू सकाम का अर्थ है, मन से जीना; अभी कामना मिटी नहीं, अभी हो गया। लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि सौ साल बाद कामना बाकी है। अगर इस जगत की कामना से ऊब गए हैं, तो गिरेगा, हजार साल बाद गिरेगा। गिरने की प्रक्रिया हजार साल में | उस जगत की कामना शुरू है; अगर यहां मकान नहीं बनाना, तो पूरी होगी, लेकिन गिरना शुरू हो गया इसी क्षण। बच्चा पैदा हुआ | स्वर्ग में कोई मकान बन जाए, इसकी चेष्टा करनी है; अगर यहां और मरना शुरू हो गया। सत्तर साल बाद पूरी होगी यह प्रक्रिया।। | धन नहीं जुटाना, तो कोई पुण्यों की संपदा इकट्ठी हो जाए, इसका सत्तर साल बाद आपको पता लगेगा, चाहे आप बचेंगे भी नहीं तब प्रयास करना है। लेकिन अभी उनकी भाषा नहीं बदली; अभी तक। दूसरों को पता लगेगा कि यह आदमी जो सत्तर साल पहले | उनका सोचने का ढंग नहीं बदला; अभी उनकी दृष्टि नहीं बदली; पैदा हुआ था, आज मर गया। लेकिन सत्तर साल पहले जिस दिन | अभी उनका ढांचा वही है। जन्मा था, उसी दिन मौत शुरू हो गई, मरना शुरू हो गया। फिर भी, ऐसे लोग अपने को पापों से छुड़ाते हैं; पुण्य करते हैं; हम रोज जी भी रहे हैं और मर भी रहे हैं। इसका मतलब कि हम बुरा नहीं करते, भला करते हैं; वेदविहित कर्म करते हैं; पूजा, यज्ञ, रोज हो भी रहे हैं और नहीं भी हो रहे हैं; बन भी रहे हैं और मिट हवन करते हैं। इन पुण्यों के फलस्वरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर भी रहे हैं। यह एक साथ चल रहा है। ये हमारे दो पैर हैं, बायां और वे स्वर्ग में दिव्य देवताओं के सुखों को भोगते हैं, लेकिन मुझे दायां। जब बायां चलता है, तो दायां रुका मालम पड़ता है; जब | | उपलब्ध नहीं होते। दायां उठता है, तो बायां रुका मालूम पड़ता है। लेकिन बायां | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे स्वर्ग और नर्क में भेद न रहा। इसलिए रुकता है कि दायां उठ जाए, दायां इसलिए रुकता है कि | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे पुण्य और पाप में भेद न रहा। बायां उठ जाए। जब आप लगते हैं कि जवान हैं, तब बुढ़ापा उठ | | मुझे तो वही उपलब्ध होगा, जिसे मृत्यु और जीवन एक हुए। मुझे रहा है। जब आप लगते हैं कि जी रहे हैं, तब मौत भी कदम उठा | | तो वही उपलब्ध होगा, जो चुनाव ही नहीं करता। जो नहीं कहता, रही है। वे दोनों साथ चल रहे हैं। होना, न होना, एक ही अस्तित्व | यह छोडूंगा, वह पाऊंगा; यह नहीं चाहिए, वह चाहिए, ऐसा जो के हिस्से हैं। चुनाव ही नहीं करता; वन हू हैज बिकम च्वाइसलेस, जो बिलकुल कृष्ण कहते हैं, दोनों मैं हूं। | चुनावरहित हो गया, जिसके मन में कोई विकल्प न रहा। जो कहता परंतु जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने | । है, जो भी है, राजी हूं। दुख है, तो दुख से राजी हूं; सुख नहीं वाले, सोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष, मेरे को | चाहिए। सुख है, तो सुख से राजी हूं; सुख के त्याग की भी चिंता यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैं, वे पुरुष अपने | | नहीं करता हूं। जीवन है, तो धन्यवाद। और मृत्यु आए, तो पुण्यों के फलरूप इंद्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं | स्वागत। और नर्क में डाल दो, तो भी तुम्ही को देखता रहूंगा; और के भोगों को भोगते हैं। | स्वर्ग में भेज दो, तो भी तुम्हीं मेरे सुख हो। कृष्ण कहते हैं, लेकिन...। जो ऐसा हुआ, वह तो मुझे उपलब्ध होता है। लेकिन इसके इस लेकिन शब्द पर खयाल रखना-परंतु। यह तो उन्होंने जो | | पहले वे कहते हैं, परंतु ऐसे लोग भी हैं, जो शायद इतनी निर्द्वद्व, बात कही, आत्यंतिक है, अल्टिमेट है, आखिरी है। लेकिन लोग, | | इतनी द्वंद्वातीत, इतनी अद्वैत की दृष्टि को न पा सकें, वे लोग भी वेदों में जो कहा है, उन कर्मों को, यज्ञों को, हवनों को, क्रियाकांडों | | इंद्रलोक को तो पा ही सकते हैं, स्वर्ग को तो पा ही सकते हैं। को करके. अपने को पापों से मुक्त करके स्वर्ग जाने की कामना | _स्वर्ग का मतलब है, जो कम बुरा करेगा, कम पाप करेगा, कम करते हैं, सुख को पाने की कामना करते हैं। दूसरों को दुख पहुंचाएगा, वह ज्यादा सुख पा सकता है-आनंद ___ यह परंतु बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे | नहीं, ध्यान रखना! इसके भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी होगा; लोग अभी भी स्वर्ग और नर्क को बांटते हैं। इसका अर्थ हुआ, ऐसे | आनंद नहीं, सुख पाएगा। लोग अभी भी सुख और दुख को बांटते हैं। ऐसे लोग अभी भी | | आनंद है सुख और दुख दोनों के पार। आनंद वह पाता है, 282 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन के ऐक्य का बोध-अ-मन जिसके सुख और दुख दोनों की दृष्टि खो जाती है। आनंद तीसरी बात है। आनंद सुख नहीं है। जैसा कि आमतौर से लोग समझते हैं कि आनंद सुख का ही परम रूप है। बिलकुल नहीं है। आनंद का सुख से उतना ही लेना-देना है, जितना दुख से। आनंद न दुख है, और न आनंद सुख है। इसलिए सुख दुख के विपरीत है, दुख सुख के विपरीत है। जिसको विपरीतता दिखाई पड़ रही है, वह सुख दुख में घूमेगा। कृष्ण अगले सूत्र में कहते हैं कि यह स्वर्ग भी मिल जाए, तो फिर लौटकर आना पड़ेगा। क्योंकि फिर दुख में आना पड़ेगा। जो सुख में गया है, उसे दुख में आना ही पड़ेगा। द्वंद्व में जिसने विभाजन किया है, वह एक से दूसरे में जाएगा। जिसने जन्म को पकड़ा, उसे मरना ही पड़ेगा। जिसने सुख को पकड़ा, पकड़ते ही दुख में जाना शुरू हो गया। . कृष्ण कहते हैं, उसे तो लौट आना पड़ेगा। उसने अच्छे कर्म किए, उसने सदभाव रखे, उसने धार्मिक जीवन जीया, वह स्वर्ग तक पहुंच सकता है। सुख के आखिरी छोर को छू लेगा, लेकिन छूते ही लौटना शुरू हो जाएगा। . जैसे घड़ी का पेंडुलम जाता है बाएं तरफ, आखिरी छोर पर पहुंच जाता है। पहुंचते से ही वापस यात्रा शुरू हो जाती है। दाएं तरफ जाने लगता है। ठीक ऐसे ही सुख का आखिरी बिंदु आ जाएगा। फिर यात्रा शुरू हो जाएगी वापसी। क्योंकि द्वंद्व में कोई मुक्ति नहीं है। वह वापस लौट आएगा। उसके कर्म चुक जाएंगे और वह वापस जमीन पर खड़ा हो जाएगा। मुझे नहीं पा सकेगा। ___ मुझे तो वही पा सकेगा, जो सत में और असत में, स्वर्ग में और नर्क में, पाप में और पुण्य में, दोनों में ही बिना किसी भेद-भाव के मुझ को ही देख लेता है। फिर कोई उपाय न रहा, फिर टूट गया पेंडुलम। फिर उसकी कोई यात्रा न रही, कोई मोमेंटम न रहा। कृष्ण का सारा संदेश इस सूत्र में है कि द्वंद्व न दिखाई पड़े। लेकिन मन है, तो द्वंद्व दिखाई पड़ेगा ही। तो इस सूत्र का मतलब हुआ, मन न रहे; नो माइंड, अ-मन पैदा हो जाए। तो ही हम जीवन के ऐक्य को देख पा सकते हैं। ऐक्य ही मुक्ति है और ऐक्य ही आनंद। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। कोई बीच में न उठे। 283 Page #310 --------------------------------------------------------------------------  Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 नौवां प्रवचन वासना और उपासना Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं मन जब भी कुछ तय करता है, तो द्वंद्व में ही तय करता है; उसका क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। विपरीत स्वर भी भीतर मौजूद होता है। जिसको आप मित्र मानते हैं, एवं प्रयोधर्ममनुप्रपन्ना कहीं किसी मन की गहराई में उसे आप शत्रु भी मानते हैं। इसीलिए गतागतं कामकामा लभन्ते ।।२१।। तो मित्रता इतनी जल्दी शत्रुता बन जाती है! अन्यथा जिस आदमी को अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। मैं पचास साल तक मित्र समझा हूं, एक क्षण में शत्रु कैसे हो तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। २२ ।।। | जाएगा? कोई उपाय नहीं है; कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं है कि और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पचास साल की मित्रता एक क्षण में, एक शब्द से शत्रुता बन जाए। पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के बन जाती है लेकिन। गहरे खोजेंगे, तो पाएंगे, ऊपर मित्रता बन साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए | रही थी, भीतर शत्रुता भी पल रही थी। इसलिए एक क्षण में मित्रता और भोगों की कामना वाले पुरुष बारंबार जाने-आने को | नीचे चली गई, शत्रुता ऊपर आ गई। यह सिर्फ पलड़ा भारी हो प्राप्त होते हैं। गया। जब हम एक पलड़े पर तराजू के मित्रता रख रहे थे, तभी हम और जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ शत्रुता भी दूसरे पलड़े पर रखे जाते थे। यह सिर्फ समय और संयोग परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से की बात है कि जिस दिन भी पलड़ा भारी हो जाएगा शत्रुता का, उसी उपासते हैं, उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति वाले पुरुषों || दिन शत्रुता प्रकट हो जाएगी। लेकिन मन से कोई आदमी किसी को का योग-क्षेम में स्वयं प्राप्त कर देता हूं। अनन्य भाव से मित्र नहीं बना सकता है। ___ मन, एक तरह की समझें डेमोक्रेसी है, एक लोकतंत्र है। मन पार्लियामेंटरी है। उसमें जो भी निर्णय होते हैं, वे बहुमत से होते हैं, मा न बाहर तो बांटता ही है, भीतर भी बांटता है। मन से| लेकिन अल्पमत विरोध में खड़ा ही रहता है। और भरोसा नहीं है 01 बाहर जो भी हम जानते हैं, वह तो खंड-खंड हो ही कि जो सदस्य आज पक्ष में मत दिया है, वह कल भी देगा। मन के जाता है, मन के ही कारण हम भीतर भी खंड-खंड हो | | भीतर भी दल-बदलू सदस्य हैं। वे दल बदल लेते हैं। जाते हैं। मन के इस दूसरे पहलू को भी समझ लेना जरूरी है। । तो हम जो भी निर्णय मन से लेते हैं, वह मेजर माइंड का होता मन के साथ कभी भी कोई व्यक्ति एक व्यक्ति नहीं होता, बल्कि है। हमारे भीतर जो मन का बहुमत होता है, वह कहता है, ठीक। एक भीड़ होता है। भीतर भी मन एक नहीं है, अनेक है। सदा से | लेकिन अल्पमत प्रतीक्षा करता है कि कितनी देर तक ठीक! समय आदमी ऐसा समझता रहा है कि उसके भीतर एक मन है। वैसा सत्य आएगा, स्थिति बदलेगी, और हम तोड़ लेंगे। इसलिए हमारा मन नहीं है। आपके भीतर बहुतेरे मन हैं, बहु-मन हैं। अब मनोविज्ञान कभी भी एक स्वर उपलब्ध नहीं कर पाता। कर भी नहीं सकता है। स्वीकार करता है कि मैन इज़ पोलीसाइकिक; बहुत मन हैं भीतर, मन के काम करने का ढंग ही द्वंद्व है।। एक मन नहीं है। ये बहुत मन भी इसीलिए हैं कि मन जहां भी चरण कीर्कगार्ड ने कहा है-और थोड़े से लोग जो मन की गहराइयों रखता है, वहीं खंड हो जाते हैं। | में उतरे हैं, उनमें कीर्कगार्ड एक है—उसने कहा है कि मन के साथ समझें, भीतर मन की इस खंड-खंड हो गई स्थिति को भी | निरंतर ही एक डायलाग है, एक वार्तालाप है, जो मन अपने को ही समझना जरूरी है। दो हिस्सों में तोड़कर चलाए चला जाता है। आपने शायद ही कभी ऐसी कोई मन की दशा पाई हो, जिसके जब आप सोचते हैं कुछ, तो आपका मन दो हिस्सों में टूट जाता विपरीत स्वर आपके भीतर मौजूद न रहा हो। किसी को आपने है; एक पक्ष में बोलता है, एक विपक्ष में बोलता है। समस्त विचार, किया हो प्रेम और साथ ही उसे घृणा न की हो, ऐसा असंभव है। मन का दो हिस्सों में टूटकर वार्तालाप है। एक खेल है, जो आप किसी को की हो श्रद्धा, और साथ ही भीतर मन का एक हिस्सा भीतर खेलते हैं; इस तरफ से भी, उस तरफ से भी। अश्रद्धा से न भरा रहा हो, असंभव है। चाहा हो किसी को, और | यह जो मन का भीतर भी दो हिस्सों में टूट जाना है और बाहर साथ ही चाह से बचना भी न चाहा हो, ऐसा नहीं होगा। | भी जगत दो हिस्सों में टूट जाता है, इसके परिणाम क्या होते हैं? |286 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना और उपासना पहला परिणाम तो यह होता है कि जगत में हमें उस एक के दर्शन जाते हैं। फिर भी हम मानते हैं कि आत्मा है। वह मानना भी हमारे नहीं हो पाते, जो कि सबके भीतर छिपा है। और जब भीतर भी द्वंद्व | मन का एक विचार है। वह भी मन का एक पत्ता है। हो जाता है, तो भीतर भी उस एक के दर्शन नहीं हो पाते हैं, जो | | हम मानते हैं कि आत्मा है। वह भी मन के ही कारण है। इसलिए मौजूद है। वह मानना भी हमारा कभी पूरा नहीं हो पाता। जरा-सी असुविधा तो चाहे कोई बाहर उस एक को देख ले, शर्त एक ही होगी कि आती है और शक पैदा हो जाता है कि है भी, या नहीं है। मन को छोड़कर देखे; और चाहे कोई भीतर उस एक को देख ले, | आज एक मित्र ने मुझे पत्र लिखा है। वे आई.सी.एस. रिटायर्ड शर्त फिर भी वही होगी कि मन को छोड़कर देखे। और जब भीतर | आफिसर हैं; पढ़े-लिखे आदमी हैं, बड़े भक्त हैं। इधर कैंसर हो का एक दिखाई पड़ता है, तो बाहर और भीतर का द्वंद्व भी गिर जाता | गया। इधर कैंसर हो गया, चिकित्सकों ने इनकार कर दिया, अब है। क्योंकि वह भी दो की भाषा है। भीतर और बाहर, वह भी दो कोई इलाज नहीं है, अब मरना ही होगा। बस, समय की प्रतीक्षा की भाषा है। जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो भीतर और | है। वे आज, कल, कभी भी मर सकते हैं। महीने दो महीने लग बाहर दोनों खो जाते हैं; एक ही रह जाता है। जब बाहर का एक सकते हैं। दिखाई पड़ता है, तब भी एक ही रह जाता है; भीतर और बाहर का मुझे पत्र लिखा है कि मेरी सब भक्ति खो गई, मुझे अब किसी द्वंद्व खो जाता है। ईश्वर पर कोई भरोसा नहीं रहा। 'इसे अगर हम संक्षिप्त में कहें तो ऐसे. कि समस्त धर्म की यात्रा कैंसर शरीर पर ही नहीं फैला अब, उसका मतलब हआ, आत्मा मन को खोने की यात्रा है, और समस्त संसार की यात्रा मन को | | तक फैल गया। यह कैंसर शरीर की बीमारी न रही अब, यह आत्मा शक्तिशाली करने की यात्रा है। संसार का अर्थ है, मन को | तक फैल गई। शक्तिशाली किए जाना। धर्म का अर्थ है, मन को विसर्जित किए | लिखा है कि पहले मुझे भरोसा था। जाना। धर्म का अर्थ है, ऐसी चेतना को पा लेना, जहां मन न हो। और मैं जानता हूं कि उनको भरोसा था। और आज से दो साल और संसार का अर्थ है, ऐसे मन को पा लेना, जहां चेतना न हो; | पहले जब मैंने उनसे कहा था कि यह भरोसा बहुत कीमती नहीं है, मन ही मन रह जाए, आत्मा बिलकुल पता न चले। | थोड़ी-सी चीज इसे तोड़ देगी, क्योंकि यह मन का है, तो वे मानने ऐसा हो जाता है। कभी किसी नदी पर देखा हो, पत्तों की बाढ़ को राजी न हुए थे; जिद्द की थी; नाराज हुए थे; कि आप मुझ पर आ जाती है, काई छा जाती है। सारी नदी ढंक जाती है, कुछ दिखाई भरोसा क्यों नहीं करते जब मैं कहता हूं, मुझे भरोसा है? नहीं पड़ता। नीचे के जल का कण भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी नदी | | मैंने उनसे कहा था, मुझे कोई अड़चन नहीं है भरोसा कर लेने की छाती पर पत्ते फैल जाते हैं, नदी भीतर छिप जाती हैं। | में। मेरा कोई हर्ज और कोई लाभ नहीं है। लेकिन फिर भी आपसे ठीक ऐसे ही, मन इतना फैल जाता है—फैल सकता है कि मैं कहता हूं कि यह भरोसा मन का है। यह अनुभव नहीं है, यह वह जो आत्मा है, वह बिलकुल दिखाई पड़नी बंद हो जाए। नदी | खयाल है। और यह खयाल मन इसलिए बनाता है कि मन के अपने बिलकुल मौजूद है। एक पत्ते का जरा-सा फासला है। पत्ते की | | भय हैं, जिन्हें वह छिपाना चाहता है। मन जानता है कि मौत होगी। मोटाई ही कितनी है? लेकिन फिर भी दिखाई नहीं पड़ती, ओझल | मौत से डर लगता है; आत्मा को मान लेता है कि आत्मा अमर है। हो जाती है। मन को डर लगता है कि मैं अकेला हूं जगत में, परमात्मा को मान संसार का अर्थ है, मन ही मन रह जाए और आत्मा का बिलकुल लेता है कि किसी का सहारा है। पता न चले। अब वह सब उखड़ गया है; क्योंकि चिकित्सक कहते हैं, नहीं आपको अपनी आत्मा का पता चलता है? | कुछ हो सकता। मंदिर की पूजा-प्रार्थना कुछ नहीं कर पाती; ऐसे ही मन को समझाने के लिए मत कह लेना कि हां, पता चलता साधु-संतों का प्रसाद कुछ नहीं कर पाता। अब सब भरोसा टूट है। आत्मा का पता चलना आसान नहीं है। क्योंकि हमारी सारी चेष्टा | गया। तो मन को मजबूत करने की है। ये जो मन के पत्ते हैं, इनको ही तो। इसी के लिए भरोसा था, इसी के लिए टूट गया। जिस चीज के हम शक्ति दिए चले जाते हैं। और फिर इन्हीं को हम फैलाए चले लिए था, वही चीज अब नहीं हो रही। ईश्वर साथ नहीं दे रहा है, [2871 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 मौत करीब आ रही है। उस मौत के भय में ही ईश्वर को माना था। करूंगा, तो छाया भी प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि छाया को काटा उस मौत के भय में ही आत्मा को माना था। अब मौत तो चली आ नहीं जा सकता। रही है और भय सामने खड़ा है। अब उस ईश्वर को कैसे माने? दुख सुख की छाया है। जो सुख को मांगता है, वह दुख को भी उस आत्मा को कैसे मानें? मांग रहा है। जानकर नहीं मांगता, क्योंकि कोई दुख को नहीं मांगता मन भय के कारण मान लेता है। या यह भी हो सकता है, मन | है। फिर भी उसे पता नहीं कि वह मांगे या न मांगे, सुख की मांग प्रलोभन के कारण मान ले। क्योंकि भय और प्रलोभन एक ही | में ही दुख को भी निमंत्रण मिल जाता है। दुख पीछे आता है, सुख सिक्के के दो पहलू हैं। मन इसलिए भी मान ले सकता है कि | सामने दिखाई पड़ता है। जब भेंट होती है, तो थोड़ी देर में सुख प्रलोभन है आत्मा को मानने में स्वर्ग का, मोक्ष का; ईश्वर को | बिखर जाता है और दुख की राख हाथ में आ जाती है। मानने में उसके दर्शन का, उसके आनंद का प्रलोभन है। मन बार-बार हमें यह अनुभव होता है। जहां-जहां सुख पर मुट्ठी इसलिए भी मान ले सकता है। बांधते हैं, आखिर में पाते हैं कि दुख हाथ में रह गया। और लेकिन लोभ हो या भय, मन का माना ऊपर के पत्तों पर रखा गया | | जहां-जहां सुख के सपने संजोते हैं, वहीं-वहीं पाते हैं कि सिवाय विश्वास है, नीचे की जीवंत धारा का कोई भी पता नहीं है। इस जीवंत दुख के, दुखस्वप्नों के कुछ हाथ नहीं लगता है। जहां-जहां सुख धारा को हम जान ही तब पाएंगे, जब हम मन के द्वंद्व से हटें। का फूल खोजने जाते हैं, वहां-वहां दुख का कांटा चुभ जाता है। द्वंद्व कोई भी हो-चाहे लोभ का हो, अलोभ का हो; भय का लेकिन फिर भी मन मांगे चला जाता है सुख को। और जितने जोर हो, अभय का हो-द्वंद्व कोई भी हो; सत्य का हो, असत्य का हो; | | से मांगता है, उतने ही जोर से दुख आए चला जाता है। जीवन का हो, मृत्यु का हो; इससे कोई संबंध नहीं है। द्वंद्व की | । इस मांग को हम बदल भी सकते हैं; बदल लेते हैं लोग। फिर भाषा, मन की भाषा है। बड़े मकान बनाने की मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी दुकान सजाने की कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वे लोग, जो सकाम साधना करते | | मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी पद-प्रतिष्ठा, धन की मांग छोड़ देते हैं अर्थात सुख की मांग करते हैं, वे फिर-फिर वापस लौट आते | हैं। लेकिन मन नहीं बदलता। मन फिर स्वर्ग में, परलोक में इन्हीं हैं। क्योंकि सुख की साधना का अर्थ है, दुख को हम अंगीकार सुखों की मांग शुरू कर देता है। करने को राजी नहीं है; दुख को इनकार करते हैं, सुख को अंगीकार तो कृष्ण कहते हैं, और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर करते हैं। | पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों द्वंद्व शुरू हो गया। कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह नहीं चाहिए; | | वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना और कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह चाहिए। हमने विभाजन कर वाले पुरुष बारंबार आने-जाने को प्राप्त होते हैं। लिया। हमने जीवन को अविभाज्य स्वीकार नहीं किया। यह टोटल | वेद भी सहायता न कर सकेंगे; कृष्ण भी सहायता न कर सकेंगे; एक्सेप्टिबिलिटी नहीं है कि हम समग्र जीवन को स्वीकार करते हैं; कोई भी सहायता न कर सकेगा। अगर आपकी मांग ही गलत है, जीवन जैसा है, हम राजी हैं। इसमें हम भेद करते हैं कि हम जीवन | | तो इस जगत में कोई भी सहायता न कर सकेगा। जगत अपने के इस पहलू से राजी हैं; सुख दे जीवन तो हम राजी हैं, दुख दे तो नियमों से घूमता है। अगर आपने गलत मांगा है, तो गलत आपको हम राजी नहीं है। | मिल जाएगा। लेकिन कठिनाई यह है कि दुख जो है, वह सुख की छाया है। आप कहेंगे, हमने तो सुख मांगा है! लेकिन वह जो सुख की तो मुझसे कोई राजी है, वह कहता है, आओ मेरे घर, लेकिन अपनी | | छाया है, वह किसको मिलेगी? वह भी आपको ही मिलेगी। आप छाया को अपने साथ मत लाना; निमंत्रण है, स्वागत है, लेकिन | पूरा देखें। मन तोड़ देता है, इसलिए सुख अलग मालूम पड़ता है, छाया को छोड़कर आना। दुख अलग मालूम पड़ता है। थोड़ा समझें और मन के बिना जगत ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कर सकता हूं कि छाया को पीछे को देखें, तब आपको पता चलेगा कि वे दोनों अलग नहीं हैं। मन छिपाकर आ जाऊं; छोड़कर तो कैसे आ सकता हूं! इस भांति आऊं के कारण ही दो मालूम पड़ते हैं; वे एक ही हैं। कि छाया सामने न पड़े, पीछे छिपी रहे। और जब घर में मैं प्रवेश - किस चीज में हमें सुख मिलता है? और जिस चीज में हमें सुख |288 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना और उपासना मिलता है, उसी में दुख मिल सकता है, फिर भी हमारी आंख नहीं | | तो सड़क पर भीख मांगने निकल जाते हैं। अमीर आदमी का दुख खुलती। सच तो यह है, उसी में दुख मिलता है, जिसमें हमें सुख . है कि वह जो चाहता था, वह मिल गया। गरीब आदमी का दुख है मिलता है। ऐसी किसी चीज में आपको कभी दुख मिला है, जिसमें | | कि जो उसने चाहा, वह नहीं मिला है। आपको सुख पहले न मिला हो? जहां सुख मिलता है, वहीं दुख गरीब और अमीर के दुख अलग-अलग होते हैं, लेकिन दुख में मिलता है। जिसमें सुख मिलता है, उसी में दुख मिलता है। जिससे | कोई फर्क नहीं होता। एक ही चीज के दो छोर होते हैं। गरीब वहां अपेक्षा बांधते हैं, उसी से अपेक्षा टूटती है। जिससे आशा बांधते | खड़ा है, जहां कभी अमीर खड़ा था। और अमीर वहां खड़ा है, जहां हैं, उसी से विषाद फलित होता है। एक ही बीज होता है, फिर भी | | गरीब अगर कोशिश करता रहा, तो कभी खड़ा हो जाएगा। लेकिन हम देख नहीं पाते और जन्मों-जन्मों तक यह कथा ऐसी ही दोहरती | दोनों दुखी हैं। चलती है। यह आना-जाना ऐसे ही होता रहता है। लेकिन गरीब को दिखाई पड़ता है कि चीजें नहीं हैं, इसलिए दुखी कहां, कठिनाई कहां होगी? वही कठिनाई है मन के देखने में। हूं। उसे दूसरा पहलू दिखाई नहीं पड़ता। अमीर को दिखाई पड़ता मन जब किसी चीज में सुख देखता है, तो दुख दूसरा हिस्सा होता है कि चीजें हैं, और दुखी हूं। उसे भी दूसरा पहलू नहीं दिखाई है; वह पीछे छिपा होता है, मन को पूरा दिखाई नहीं पड़ता। जब वह पड़ता। और हम दूसरे पहलू को बदलने के लिए आतुर रहते हैं। सुख देखता है, तो उसे सुख दिखाई पड़ता है, वह कहता है, सुख है इसलिए गरीब अमीर बनने को राजी रहता है। और बहुत बार अमीर यहां। दुख दिखाई नहीं पड़ता। वह ओझल होता है। वह विपरीत है। गरीब बनने को राजी हो गए हैं। वह खयाल में ही नहीं आता। और जब दुख दिखाई पड़ता है, तब | | आखिर अमीर लड़कों ने, बुद्ध ने और महावीर ने, सब छोड़कर सुख ओझल हो गया होता है। तब सुख दिखाई नहीं पड़ता। | भिखारी के रूप में खड़े हो गए! यह दूसरे छोर पर जाने की इनकी · यह मन के देखने का जो अधूरा ढंग है, उसके कारण जो एक तैयारी का कारण क्या है? एक ही कारण है कि जो हमारे पास होता इकट्ठा सत्य है, वह हमें दो हिस्सों में टूटकर दिखाई पड़ता है। क्या | | है, उसी से दुख मिलने लगता है। जितनी हो दूरी, उतने ही सुख का हम मन के बिना जीवन के सत्य को पूरा देख सकते हैं? आभास होता है। जितनी हो निकटता, उतना ही दुख प्रकट होने जिन्होंने भी देखने की कोशिश की है, उन्हें मन को छोड़ देना | | लगता है। जो भी चीज पास आ जाए, वही दुख देने लगती है। जो पड़ा। मन को छोड़ने का अर्थ ही होता है, कामना को छोड़ देना। | भी चीज दूर हो, वही सुख देती मालूम पड़ती है। क्योंकि दूर है; दे क्योंकि मनकामना का विस्तार है। मन वासना है, मन डिजायरिंग | तो नहीं सकती, सिर्फ आभास हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति है-यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल को, जो भी उसने चाहा है, सभी मिल जाए इसी वक्त, तो उससे जाए। और कठिनाई तो यह है. अगर न मिले. तो दख होता है। ज्यादा दखी आदमी खोजना संसार में मश्किल होगा। और मिल जाए, तो भी सुख नहीं होता। न मिले, तो दुख होता है कल्पवृक्ष के बारे में हम सुनते हैं कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष है। उसके खोने का; और मिल जाए, तो बोर्डम, ऊब हो जाती है। नीचे आदमी बैठे, तो जो भी चाहे, उसे मिल जाए। शायद हम ऐसा कोई सुख आपने जाना है, जो आपको मिल जाए, फिर सोचते होंगे, उस वृक्ष के नीचे बैठकर लोग कैसे सुख को न उबाए न? जिससे ऊब न होने लगे? उपलब्ध हो जाते होंगे! मैं आपसे एक राज की बात कहता हूं। कभी गरीब आदमी का दुख होता है अभाव का, और अमीर आदमी वह वृक्ष मिले, तो भूलकर उसके नीचे मत बैठना। अन्यथा आपसे का दुख होता है उपलब्धि का। गरीब आदमी पीड़ित होता है, जो नहीं बड़ा दुखी व्यक्ति फिर संसार में कोई भी नहीं होगा। क्योंकि सख मिला उससे; अमीर आदमी पीड़ित होता है उससे, जो मिल गया। सिर्फ उसकी आशा में है, जो नहीं मिला है। और जब तक नहीं बुद्ध को पीड़ा क्या है? बुद्ध को पीड़ा यह है कि जो भी मिल मिला है, तभी तक। और जब मिल जाता है, तभी दुख हो जाता है। गया है, उसमें कोई सुख नहीं है। घर छोड़कर भाग जाते हैं। उस | तो सुख का जो आभास है, वह वासना का आभास है। वासना युग की, उस इलाके की जितनी सुंदर युवतियां थीं, सभी बुद्ध को | जब तक अतृप्त है, तब तक सुख का आभास है। वासना जब तृप्त उपलब्ध थीं। उनसे घबड़ाकर भाग जाते हैं। महावीर को क्या | | होती है, तब सब बिखर जाता है। आदमी लेकिन चाहे चला जाएगा! तकलीफ है? सब मिल गया है, और सुख तो दिखाई पड़ता नहीं! | यश को चाहेगा, अपयश को नहीं। सुख को चाहेगा, दुख को नहीं। 1289 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 लेकिन जो यश को चाहेगा, उसे अपयश मिलेगा ही। वह उसकी छाया है। जो लाभ चाहेगा, वह हानि में पड़ेगा ही। वह उसकी छाया है। जो जीवन के प्रति मोहित होगा, मृत्यु उसे भयभीत करेगी ही । वह उसकी छाया है। अगर मृत्यु के भय से बचना है, तो जीवन के मोह से बचना पड़ेगा। और अगर दुख में गिरने से बचना है, तो सुख के आकर्षण को छोड़ देना पड़ेगा। सुख का आकर्षण जो छोड़ देता है, उसे फिर कोई दुखी नहीं कर सकता। और यश की जिसकी आकांक्षा न रही, उसका अपमान करना असंभव है। मेरा अपमान मैं ही करवा सकता हूं, आप नहीं कर सकते हैं। अगर मैं मान की आकांक्षा करूं, तो अपमान करवा सकता हूं। अगर मैं यश चाहूं, तो अपयश मेरा किया जा सकता है। अगर मैं प्रशंसा चाहूं, तो मुझे गाली दी जा सकती है। लेकिन अगर मैं प्रशंसा ही न चाहूं, तो आपकी गाली बिलकुल ही व्यर्थ हो जाती है। उसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। क्योंकि जिसे मैं चाहता ही नहीं, उसको मिटाने के प्रयोजन से आप मिटा भी क्या पाएंगे? अगर मैं आदर चाहूं, तो निरादर के लिए मुझे तैयार होना चाहिए। और अगर निरादर की मेरी तैयारी न हो, तो आदर का मुझे खयाल छोड़ देना चाहिए। फिर कोई भी निरादर कर नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है। मैं बाहर हो गया। तो कृष्ण कहते हैं कि जो लोग सुख की कामना से धर्म की साधना भी लगते हैं, वे अपने को कितना ही धोखा दे लें, वापस लौट आएंगे। कितने ही बड़े सुख को पा लें, लेकिन चुक जाएगा पुण्य । पाते ही चुक जाता है। कीमत वसूल हो गई। किया हुआ श्रम पूरा गया। फल मिल गया हाथ में; फिर स्वर्ग भी बासा हो जाता है। सुना है मैंने कि स्वर्ग के देवी-देवता भी पृथ्वी के लिए तरसने लगते हैं। कथाएं हैं, पुराणों में कथाएं हैं कि स्वर्ग के देवता अप्सराओं से ऊब जाते हैं, बुरी तरह ऊब जाते हैं। पृथ्वी की स्त्रियों की कामना करने लगते हैं। पुरूरवा की कथा है कि स्वर्ग से आज्ञा मांगी उसने कि मुझे पृथ्वी पर जाने दें, ताकि मैं पृथ्वी की किसी स्त्री को प्रेम कर सकूं ! क्या हुआ होगा पुरूरवा को? यहां पृथ्वी पर तो अप्सराओं के लिए लोग दीवाने हैं। यहां भी कोशिश करते हैं स्त्रियों को अप्सराओं जैसी सजाने की कोशिश असफल जाती है! लेकिन पुरूरवा को क्या हुआ? वह अप्सराओं को छोड़कर यहां पृथ्वी पर किसी स्त्री से प्रेम करने आना चाहता है! कोई स्त्री स्वर्ग में - कथाएं हैं - बूढ़ी नहीं होती ! सोलह वर्ष पर ही उम्र ठहर जाती | है ! तो आदमी तो कितना चाहता है, कितनी कविताएं लिखता है, और स्त्रियां तो कितनी कोशिश करती हैं। सोलह साल के बाद उनकी उम्र बढ़ती ही नहीं! बहुत कोशिश करती हैं। फिर भी, यहां तो सब बढ़ ही जाती है। वहां तो बढ़ती ही नहीं! पुरूरवा क्यों ऊब गया होगा ? यह सोलह साल पर अगर सबकी उम्र ठहर जाए, तो भी उबाने वाली हो जाएगी; यह भी घबड़ाने वाला हो जाएगा। और जो फूल कुम्हलाता ही न हो, वह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। जो फूल कुम्हलाता ही न हो, वह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। तो अप्सराएं बिलकुल प्लास्टिक की मालूम पड़ी होंगी, कागजी मालूम पड़ी होंगी । न कुम्हलाती हैं; न पसीना आता है; न उम्र ढलती है; न कभी आंख से आंसू बहते हैं; होंठों की मुस्कुराहट है | कि ऐसी बनी रहती है, जैसी कि नेताओं पर चिपकी रहती है ! वह चिपकी ही रहती है। वह कभी हटती ही नहीं । अप्सराएं सोती भी हैं, तो भी होंठ मुस्कुराते रहते हैं । यह मुस्कुराहट भी घबड़ाने वाली हो जाएगी, बेस्वाद हो जाएगी। पुरूरवा घबड़ा गया। उसने कहा कि मुझे आज्ञा दो, मैं पृथ्वी पर जाऊं, किसी स्त्री को प्रेम करूं, जो बूढ़ी भी होती हो, जो रोती भी हो; जिसके शरीर पर पसीना भी आ जाता हो; जिसकी जिंदगी में | सब उतार-चढ़ाव होते हों। ताकि मुझे कुछ असलियत का अनुभव हो; यहां तो सब कागजी हो गया है। स्वर्ग पाकर वासना तो क्षीण नहीं होगी, वासना नए आयाम पकड़ लेगी, नई दुनियाओं में खोज करने लगेगी, नई जगह तलाश करने लगेगी। और फिर जो स्वर्ग पा लिया है, जो सुख पा लिया है... स्वर्ग का अर्थ है मनोवैज्ञानिक कि जो भी सुख पा लिया है, वह पाते ही क्षीण होना शुरू हो जाता है— पाते ही । जिस शिखर को भी हम पा लेते हैं, पाते से ही उतार शुरू हो जाता है, उतरना शुरू हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, लौट आएगा वापस वह व्यक्ति, जिसने सकाम साधना की है। परमात्मा को भी जिसने वासना के माध्यम से चाहा | और मांगा है, उसे सुख तो मिल जाएगा, लेकिन वह लौट आएगा। और ध्यान रखें, सुख को जानकर जब कोई लौटता है, तो महादुख में पड़ जाता है। कभी आपने देखा है, रास्ते से गुजर रहे हैं; अंधेरी रात, सन्नाटा है, अंधेरा है रास्ते पर। फिर एक मोटरगाड़ी पास से गुजर जाती है। तेज प्रकाश आपकी आंख में पड़ता है। 290 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *वासना और उपासना मोटर गुजर गई, पीछे आप और महाअंधकार अनुभव करते हैं, उपासना और वासना का भेद है। हमारी उपासना भी वासना ही है। जितना कि इस गाड़ी के गुजरने के पहले नहीं था। अंधेरा तो वही हम परमात्मा के पास भी जाते हैं, तो परमात्मा के लिए नहीं, कारण है, पर आपकी आंखों की कठिनाई हो गई; आंखों ने प्रकाश जान | | कुछ और ही होता है। कोई बीमार है, इसलिए मंदिर में जाता है। लिया; अब अंधेरा और भी घना मालूम पड़ेगा। | कोई बेकार है, इसलिए मंदिर में जाता है। कोई निर्धन है, इसलिए तो जो भी व्यक्ति स्वर्ग में हो आता है, सुख को जान लेता है, मंदिर में जाता है। कोई निस्संतान है, इसलिए मंदिर में जाता है। गिरते ही महानर्क की गर्त को अनुभव करता है। सुख को जानना || जो किसी भी कारण से मंदिर में जाता है, वह मंदिर में पहुंच ही महंगा सौदा है, गिरना तो पड़ेगा। और जब चित्त गिरता है वापस, | नहीं पाता है। शरीर भीतर प्रवेश कर जाएगा, मूर्ति सामने आ तो सभी कुछ दुख हो जाता है। सभी कुछ दुख हो जाता है। चित्त | जाएगी, लेकिन उपासना संभव नहीं है। क्योंकि जहां वासना है, का अनुभव अब सुख के लिए और भारी मांग से भर जाता है। और | | वहां उपासना संभव ही नहीं है। सभी चीजें उदास कर जाती हैं, और सभी चीजें दुख दे जाती हैं। ___ उपासना का अर्थ होता है, परमात्मा के पास होना। और जब मैं कृष्ण कहते हैं, ऐसे व्यक्ति का आना-जाना जारी रहता है। वह | धन मांगने के लिए उसके पास जाता हूं, तो मैं धन के पास होता परिभ्रमण में भटकता रहता है। वह एक वर्तुल में पड़ जाता है। जैसे हूं; उसके पास कैसे होऊंगा? मेरी मांग ही मेरी निकटता है। जो मैं बैलगाड़ी के चाक में एक आरा ऊपर आता है, फिर नीचे जाता है, | | चाहता हूं, वही मेरे निकट है; और जिससे मैं चाहता हूं, वह तो फिर ऊपर आता है, फिर नीचे जाता है। केवल साधन है। अगर परमात्मा पूरा कर दे, तो ठीक है; अगर पूरा संसार हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण शब्द रहा है। संसार का न करे, तो फिर मैं वहां नहीं जाऊंगा। कोई और पूरा कर दे, तो मतलब होता है, चाक, दि व्हील। संसार का मतलब होता है, | उसके पास जाऊंगा। जहां मेरी वासना पूरी होगी, वहां मैं जाऊंगा। चक्के की तरह जो घमता रहता है। जो अभी ऊपर है. वह थोडी देर परमात्मा कर सकता है, तो वहां भी तलाश कर लेता है। लेकिन में नीचे आ जाता है; जो अभी नीचे है, वह थोड़ी देर में ऊपर आ | परमात्मा मेरी इच्छा का हिस्सा नहीं है। मेरी इच्छा कोई और है। जाता है। और यह चाक घूमता चला जाता है। और जो नीचे है, वह | रामकृष्ण ने विवेकानंद को कहा था। कठिनाई में थे; पिता चल ऊपर आने की आशा करता रहता है। और ऊपर आ भी नहीं पाता बसे थे; बहुत कर्ज छोड़ गए थे। घर में भूख के सिवाय और कुछ है कि नीचे जाना शुरू हो जाता है; क्योंकि चाक घूमता रहता है। | भी नहीं था। विवेकानंद सड़कों पर घूमकर भूखे-प्यासे वापस लौट जो ऊपर है, वह ऊपर बने रहने की कितनी ही कोशिश करे, बना | | आते थे। मां दुखी न हो, तो उससे कहते थे, आज मित्र के घर नहीं रह पाता; नीचे उतरना पड़ता है। निमंत्रण है। वहां से हंसते हुए, पेट पर हाथ फेरते हुए, झूठी डकार कृष्ण कहते हैं, कामना से अगर स्वर्ग भी मिल जाए, तो भी लौट लेते हुए घर में प्रवेश करते थे। आना पड़ता है। कामना की कोई भी उपलब्धि वास्तविक नहीं है। रामकृष्ण को पता चला, तो रामकृष्ण ने कहा कि तू पागल है। कामना की कोई भी उपलब्धि यथार्थ नहीं है। कामना की कोई भी | तू जाकर मंदिर में मां को क्यों नहीं कह देता है? अपनी तकलीफ उपलब्धि स्वप्न से ज्यादा नहीं है। स्वप्न टूटेगा ही। कितना ही लंबा | कह दे। कोई स्वप्न देखे, स्वप्न टूटेगा ही। रामकृष्ण ने कहा, तो विवेकानंद टाल भी न सके। दरवाजे पर क्या कोई उपाय है कि व्यक्ति इस स्वप्न और इस चाक के | रामकृष्ण बैठे हैं दक्षिणेश्वर के, और विवेकानंद को धक्का देकर परिभ्रमण से बाहर हो जाए? भीतर भेजा है कि तू जा, मां से कह; सभी कुछ ठीक हो जाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन | | उस पर छोड़ दे, वह योग-क्षेम सम्हाल लेगी। मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से उपासते. विवेकानंद भीतर गए। घंटा बीत गया। रामकृष्ण झांककर देखते हैं, उन नित्य एकीभाव से मुझ में स्थित पुरुषों का योग-क्षेम मैं स्वयं हैं, हाथ जोड़े खड़े हैं; आंख से आंसू बह रहे हैं! फिर रामकृष्ण सम्हाल लेता हूं। | प्रतीक्षा करते हैं। और घंटा बीत गया! फिर आवाज देते हैं। इसमें तीन बातें समझने जैसी हैं। विवेकानंद बाहर आते हैं। आनंदित हैं। आंसू फूल की तरह मुस्कुरा एक, निष्काम भाव से जो मुझे उपासते हैं। कठिन है बहुत। यही रहे हैं। चित्त आनंद से भरा है। नाचते हुए बाहर आते हैं। [29]] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* रामकृष्ण कहते हैं, कहा था मैंने पहले ही; तू क्यों नहीं कह देता, | ठीक है, अब भी प्रेम है। लेकिन प्रेम तिरोहित हो गया होगा। वे सब सम्हाल लेंगी। क्योंकि प्रेम का कोई कारण था। विवेकानंद ने कहा, कौन-सी बात सम्हाल लेंगी? कोई जवान है, इसलिए मेरा उससे प्रेम है। कल वह बूढ़ा हो रामकृष्ण ने कहा कि मैंने तुझे कहा था, उनसे कह दे कि घर में | जाएगा, फिर कैसे प्रेम टिकेगा? कोई बुद्धिमान है, इसलिए मेरा कुछ भी नहीं है। उससे प्रेम है; कारण है। कोई धनी है, कोई स्वस्थ है, कोई विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया, वह तो मुझे याद ही कलाकार है। कुछ है कारण। न रहा। इतने पास था उनका होना कि दोनों के बीच में और किसी ___ इस जगत में हम जितने भी संबंध बनाते हैं, वे सभी सकारण हैं, तीसरी चीज के होने की जगह भी नहीं थी। सभी सकाम हैं। इसी वजह से, आदत के वश, हम परमात्मा से भी वापस रामकृष्ण ने कहा, पागल! फिर से जा। ऐसे हल नहीं | जो संबंध बनाते हैं, वे भी सकाम हैं। इसलिए सकाम भक्त परमात्मा होगा। मां भी नहीं सुनती है, अगर रोने न लगे बच्चा। जा और कह! के संबंध में जो बातें कहता है, जो गीत गाता है, उनको ठीक से विवेकानंद को फिर भेजा है; वे फिर वापस आ गए हैं आनंद से | | अध्ययन करें, तो पता चलेगा कि वह क्या-क्या कह रहा है! भरे हुए; लेकिन फिर भूल गए हैं। वह कहता है कि तुम्हारे नयन बहुत प्यारे हैं, इसलिए; कि तुम रामकृष्ण ने कहा, इसमें भूलने की बात क्या है? | बड़े मनमोहन हो, इसलिए; कि तुमने सबको रचा, कि तुम सबके विवेकानंद ने कहा कि भूलने का सवाल ही नहीं है। इतने पास पालनहार हो, इसलिए; कि तुम जो पतित हैं, उनके सहारे हो, हो जाता हूं कि दूसरी कोई चीज बीच में आए, इसके लिए जगह, | इसलिए; कि तुमने पापियों को उद्धारा, इसलिए। लेकिन सबके स्पेस, स्थान ही नहीं बचता है। पीछे देअरफोर, इसलिए है। रामकृष्ण ने कहा, इसीलिए तुझे बार-बार भेजा; जानना चाहता | लेकिन अगर वह पापियों का उद्धारक नहीं, अगर उसकी आंखें था कि अभी वासना बनी है या उपासना भी बन सकती है! | बहुत सुंदर नहीं, बड़ी कुरूप हैं, मनमोहन नहीं, फिर क्या होगा? वासना और उपासना का यह फर्क है। वासना सकाम होगी; | | हम जो इस जगत में संबंध बनाते हैं, उन्हीं के आधार पर हम कुछ मांगने के लिए होगी। तो जो हम मांगते हैं, वही श्रेष्ठ है; परमात्मा से भी संबंध बनाने की कोशिश करते हैं, यही सकाम' जिससे हम मांगते हैं. वह श्रेष्ठ नहीं है। उससे मिलता है. इसलिए | | धारणा है। हम उसको श्रेष्ठ मान लेते हैं। लेकिन जो मांगते हैं, वही श्रेष्ठ है। कृष्ण कह रहे हैं, जो निष्काम भाव से मुझे उपासेगा! उपासना का तो अर्थ ही यह है कि एक नया जगत शुरू हुआ जो किसी कारण से नहीं, अकारण। जो कहेगा, कोई कारण नहीं किसी के पास होने का, जिससे कुछ भी मांगना नहीं है, जिसके | | है, कोई वजह नहीं है, बेवजह, बिना कारण, तुम्हारे पास होना बस पास होना ही काफी आनंद है; जिससे और कोई मांग का सवाल | | काफी है। तुम कैसे हो, इसकी कोई शर्त नहीं है। तुम क्या करोगे, नहीं है। उपासना का अर्थ है, परमात्मा के पास होना। और पास इसकी कोई मांग नहीं है। तुमने कब क्या किया है, उसका कोई होने में ही सारी उपलब्धि मानना। पास होने में ही, उसकी निकटता हिसाब नहीं है। तुम सुख ही दोगे, यह भी पक्का नहीं है। तुम दुख ही सब कुछ है। उसके पास होने में ही सब मिल गया। सब स्वर्ग, न दोगे, इसका भी पक्का नहीं है। यह सब कुछ पक्का नहीं है। सब मोक्ष। उसकी निकटता से ज्यादा और कोई चाह नहीं है। । | लेकिन तुम्हारे पास होना, और तुम जैसे भी हो, तुम्हारे पास होना निष्काम साधना का अर्थ है, परमात्मा को चाहना उसके ही | | ही मेरा आनंद है। बस, तुम्हारे पास होने में ही मेरा सब समाप्त हो लिए, किसी और कारण से नहीं जाता है, मैं मंजिल पर पहुंच जाता हूं। इस जगत में हम सभी को किसी और कारण से चाहते हैं। अगर इसलिए निष्काम साधना बड़ी कठिन है; आदमी सोच भी नहीं मैं एक स्त्री को प्रेम करता हूं, तो इसलिए कि वह सुंदर है। लेकिन | | पाता। कोई आदमी चाहता है, मन अशांत है, इसलिए। दुखी है, कल वह असंदर हो सकती है। फिर प्रेम कैसे टिकेगा? क्योंकि | इसलिए। संताप है, चिंता है, इसलिए। अकारण? अकारण की जिस सौंदर्य के लिए प्रेम था, वह खो गया। फिर धोखा ही टिकेगा। भाषा ही ह आती। फिर मुझे खींच-तानकर चलाना पड़ेगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि | लेकिन ध्यान रहे, इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, सभी 2921 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *वासना और उपासना अकारण घटित होता है; और जो भी क्षुद्र है, वह सकारण होता है। की घटना परमात्म में; वह मैं सम्हाल लेता हूं। और क्षेम से अर्थ अगर इस जगत में भी कभी प्रेम घटित होता है, तो वह उपासना है, जब तक वह घटना न घट जाए, तो जो भी जरूरी है, वह भी मैं जैसा होता है; वासना जैसा नहीं होता। कभी हम एक व्यक्ति को | सम्हाल लेता हूं। क्षेम से अर्थ है, योग जब तक न घटे, तब तक इसलिए प्रेम नहीं करते कि कोई भी कारण है। बस, उसके पास | जो भी जरूरी हो! अगर शरीर की जरूरत हो, तो शरीर को सम्हाल होना काफी है। वह क्या करेगा, यह नहीं। उससे कोई मांग नहीं, लूंगा। अगर भोजन की जरूरत है, तो भोजन को सम्हाल लूंगा। कोई अपेक्षा नहीं। बस, वह है, इतना काफी है। उसकी उपस्थिति अगर श्वास की जरूरत है, तो श्वास को सम्हाल लूंगा। जब तक काफी है। उससे क्या मिलता है, इसका भी कोई हिसाब नहीं है। वह परम घटना नहीं घटती है, तब तक उसके पहले जो-जो बिना कारण। आवश्यक है, वह भी मैं सम्हाल लूंगा। उसका नाम है क्षेम। और तो जगत में भी प्रेम का फूल खिलता है कभी बिना कारण। | जब क्षेम के बाद वह परम घटना घट जाएगी, आखिरी, वह भी मैं प्रार्थना भी कभी बिना कारण हो, तो फूल बन जाती है। सम्हाल लूंगा। मंदिर में जाएं, सब कारण बाहर रख जाएं जहां जते उतारते हैं। कृष्ण यह कहते हैं कि एक बार तू अपनी मांग छोड़, तो मैं सब एक बार जूता भी भीतर चला जाए, तो मंदिर अपवित्र नहीं होगा। | सम्हालने को तैयार हूं। और जब तक तू मांग किए जाता है, तब लेकिन कारण भीतर मत ले जाएं। कारण भीतर ले गए, तो सब | तक मैं कुछ भी नहीं सम्हाल सकता हूं। न सम्हालने का कारण है। अपवित्र हो जाता है। कारणों को वहीं उतार जाएं, जहां जूते उतार | | क्योंकि जब तक तू मांग किए जाता है, तब तक तू अपने को मुझसे देते हैं। सब कारण वहां रख जाएं। सब वासनाएं वहां रख जाएं। ज्यादा समझदार समझे चला जाता है। मंदिर में तो सिर्फ होने के आनंद के लिए जाएं। थोड़ी देर उसके पास | मांग का मतलब ही यह होता है। एक आदमी जाता है मंदिर में होंगे। कुछ मत करें वहां। कुछ करना जरूरी नहीं है। बस, चुपचाप | और भगवान से कहता है कि यह क्या किया? यह कैंसर मुझे हो वहां बैठ जाएं। सिर्फ उसकी मौजूदगी अनुभव करें। उसमें भी | गया! यह कैसा न्याय है? अनुभव क्या करना है! शांत बैठे, तो अनुभव होने लगेगी। वह वह यह कह रहा है कि तुमसे ज्यादा अकल तो हममें है! हम वहां है ही, सभी जगह है। | समझते हैं कि यह न्याय नहीं है। और क्या कर रहे हो बैठे वहां? एक बार मंदिर में होने लगे, तो कोई कारण नहीं है कि मस्जिद जिन मित्र का मैंने उल्लेख किया, उन्होंने मुझे पत्र में लिखा है, में क्यों न हो! एक बार मस्जिद में होने लगे, तो कोई कारण नहीं है | | क्या ईश्वर न्याय-युक्त है? अगर न्याय-युक्त है, तो मुझे कैंसर न हो। और एक बार कहीं भी होने लगे, तो कोई क्यों हआ? लिखा है कि मैंने जिंदगी में कोई रिश्वत नहीं ली, कोई भी कारण नहीं है कि और कहीं क्यों न हो! कहीं भी होगा। कहीं| | बुरा काम नहीं किया, किसी को सताया नहीं, फिर यह फल मुझे भी शांत बैठ जाएं, वह मौजूद है। चुप हो जाएं, सिर्फ उसकी | | मिला! तो ईश्वर न्याय-युक्त है, इसे सिद्ध करके बताएं। मौजूदगी को अनुभव करें, तो उपासना है। निश्चित ही अन्याय हो गया। निश्चित अन्याय हो गया, क्योंकि और मांग कोई भी न हो। रत्तीभर भी नहीं। रत्तीभर भी नहीं। | कैंसर आ गया। इसका मतलब यह हुआ कि यह आदमी कहता है अगर वह देने को भी राजी हो जाए, अगर वह कहे भी कि मांग लो, | | कि मैंने कोई बुरा नहीं किया, इसका इसे भरोसा है! इस पर इसे तो भी खोजने से मांग का भीतर पता न चले। कहना पड़े उससे कि | | शक नहीं आता, कि शायद कोई बुरा किया हो! इस पर इसे कोई असमर्थ है, कोई मांग नहीं है। ऐसी स्थिति में होगी निष्काम भाव | | शक नहीं आता। इस पर भी इसे कोई शक नहीं आता कि इसे कैंसर से उपासना। नहीं होना चाहिए। इस पर भी कोई शक नहीं आता। और इस पर और जो निष्काम भाव से उपासना करता है, कृष्ण कहते हैं, | | भी इसे कोई शक नहीं आता कि कैंसर के होने में अन्याय है ही! उसका योग-क्षेम, दोनों ही मैं सम्हाल लेता हूं। | या कैंसर कोई ऐसी बुराई है, जो होनी ही नहीं चाहिए! इस पर भी योग और क्षेम शब्द को समझ लेना चाहिए। | इसे कोई खयाल नहीं आता। एक बात पक्की खयाल आ जाती है योग से अर्थ है, वह परम प्रतीति, अंतिम प्रतीति प्रभु-मिलन कि ईश्वर अन्यायी है, न्याय-युक्त नहीं है। कोई जस्टिस नहीं है। की, पूर्ण के साथ एक होने की। योग से अर्थ है, व्यक्ति के मिटने अगर आज यह ईश्वर की प्रार्थना करे और इसका कैंसर ठीक हो कि चर्च 293 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* जाए, तो फिर यह ईश्वर को मानेगा। अगर इसका कैंसर ठीक न | | एक, बहुत प्रेम था गुलाम से। पत्नी भी नहीं सो सकती थी उसके हो, तो फिर यह नहीं मानेगा। | कमरे में, लेकिन गुलाम सोता था। कोई भी साथ न जाए वहां, वहां यह सशर्त, सकाम भावना है। भक्त, सच में निष्काम भक्त | | भी गुलाम साथ होता था। कितनी ही गुफ्तगू की बात हो, बड़े दो परमात्मा से कहेगा कि जो भी तूने दिया, मैं आनंदित हूं; वह फूल सम्राटों से मिलना हो रहा हो, तो भी गुलाम मौजूद होता था। गहरी गिराए तो, और कैंसर बरसा दे तो। जो भी तूने दिया, मैं आनंदित | | मैत्री थी। सम्राट कुछ भोजन भी करता था, तो पहला कौर गुलाम हूं। क्योंकि तू जो देगा, वह ठीक होगा ही। गलत तो वह तब होता | को देता था। है, जब मेरी मांग के विपरीत पड़ता है। जब मेरी कोई मांग नहीं, तो | दोनों शिकार के लिए गए थे। रास्ते में खो गए। भूख लगी, बहुत गलत होने का कोई उपाय नहीं। अन्याय तो तब मालूम पड़ता है, | परेशान थे। एक वृक्ष के पास रुके। एक ही फल था वृक्ष में, सम्राट जब मैं सोचता था कुछ और मिलेगा, और मिलता कुछ और है। ने हाथ बढ़ाकर तोड़ा। सदा के हिसाब के अनुसार उसने एक कली जब मैं देखता हूं कि जो भी मिलता है, वही न्याय है, तब तो कोई | काटी और गुलाम को दी। उस गुलाम ने कली खाई और कहा कि सवाल नहीं है। आश्चर्य, ऐसा अमृत फल! एक कली और दे दें। कृष्ण कहते हैं कि जो मुझ पर सब छोड़ देता है, उसे मैं सम्हाल सम्राट ने दूसरी भी दे दी। गुलाम ने तीसरी भी मांगी। एक ही लेता हूं। और जो मुझ पर छोड़ता नहीं, खुद ही सम्हालता है, उसे टुकड़ा सम्राट के पास बचा। सम्राट ने कहा कि अब बस! हद्द कर खुद ही सम्हालना पड़ता है। दी तूने! अगर इतना अमृत फल है, तो एक तो टुकड़ा मुझे खा लेने • हम सब खुद सम्हाल-सम्हालकर बोझ से दबे जाते हैं। हम उन | दे! गुलाम हाथ से छीनने लगा। उसने कहा कि नहीं मालिक, यह - देहाती यात्रियों की तरह हैं, जो पहली-पहली दफा ट्रेन में सवार हुए | फल ऐसा अमृत है कि मुझे पूरा दे दें। थे, तो अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखकर बैठ गए थे। क्योंकि | सम्राट ने कहा, यह ज्यादती है। यह सीमा के बाहर बात हुई जा उन्होंने सोचा, टिकट तो हमने सिर्फ अपने बैठने की ही चुकाई है! | रही है। तू तीन टुकड़े खा चुका है। दूसरा फल वृक्ष पर नहीं है। हम और फिर उन्होंने यह भी सोचा कि इतना वजन गाड़ी पर पड़े, गाड़ी दोनों भूखे हैं। और मैंने तुझे तीन टुकड़े दे दिए। फल मैंने तोड़ा है। चल सके, न चल सके! वैसे भले लोग थे। उन्होंने सिर पर अपनी और तू आखिरी टुकड़ा भी नहीं छोड़ना चाहता। . पोटलियां रख लीं और बैठ गए। गुलाम ने कहा कि नहीं, छोड़ने को राजी नहीं हूं। हम भी अपनी पोटलियां अपने सिर पर रखे हैं। हम सोचते हैं, | लेकिन सम्राट न माना। उसने टुकड़ा अपने मुंह में रखा। जहर जीवन चले, न चले! अपना-अपना जीवन तो खींचना ही पड़ेगा। था बिलकुल। उसने गुलाम से कहा, तू पागल तो नहीं है? इसे तू और अपना-अपना खींचने से भी जिनको बोझ काफी नहीं मालूम अमृत कहता है! पड़ता, वे दूसरों का भी खींचते हैं! कई की उतने से भी तृप्ति नहीं । उस गुलाम ने कहा कि जिस हाथ से सदा मीठे फल खाने को होती। उन्हें एकाध राष्ट्र का जब तक बोझ न मिल जाए, उनकी | | मिले, उसके एक जरा-से कड़वे फल की शिकायत भी करनी सारे खोपडी पर जब तक कोई चालीस-पचास करोड आदमियों का जीवन के प्रेम पर पानी फेर देना है। और सवाल फल का नहीं है. बोझ न हो, जब तक उन्हें ऐसा न लगे कि पचास करोड़ लोग उन्हीं | सवाल तो उस हाथ का है, जिसने दिया है। वह हाथ इतना मीठा के कारण चल रहे और जी रहे हैं, तब तक उनको चैन नहीं आता। | है। इसीलिए जिद्द कर रहा था कि वह टुकड़ा मुझे दे दें। आपको इतनी बेचैनी न मिले, तो उन्हें कोई चैन नहीं है! पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गया, तो शिकायत हो हम सबका मन होता है कि मैं चला रहा हूं सब! ऐसा व्यक्ति | | गई। आपको पता भी न चल पाए। क्योंकि पता भी चल गया किसी निष्काम भावना को कैसे उपलब्ध हो सकता है? निष्काम भावना को कारण से, तो शिकायत हो गई। तो जिंदगीभर इतना प्रेम, उसमें यह तो वही उपलब्ध हो सकता है, जो जानता है कि वही चला रहा है, छोटी-सी शिकायत, मेरे छोटे मन का सबूत है। यह फल बहुत तो मैं फिर बीच-बीच में क्यों मांगें खड़ी करूं। फिर मैं बीच-बीच में मीठा था। क्यों कहं कि ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए। पर सम्राट ने कहा कि मुझे कड़वा लगता है। सुना है मैंने, एक मुसलमान बादशाह हुआ। गुलाम था उसका | | तो उस गुलाम ने कहा कि मुझे आपके हाथ के संबंध में पता नहीं, 294 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना और उपासना * आपके मुंह के संबंध में मुझे कुछ पता नहीं, लेकिन आपने जिस हाथ से मुझे दिया है, उस हाथ में सभी कुछ मीठा हो जाता है। निष्काम भावना का अर्थ है, परमात्मा जो भी दे रहा है, वह उसकी अनुकंपा है, हमारी कोई मांग नहीं है। और वह जो भी दे रहा है, उस सभी के लिए हम अनुगृहीत हैं। उसमें भेद नहीं है कि इस बात के लिए अनुग्रह है और इस बात के लिए शिकायत है । जिस आदमी के मन में शिकायत है, वह आस्तिक नहीं है। आस्तिक की मेरी तरफ एक ही परिभाषा है, वह आदमी नहीं, जो कहता है, ईश्वर है । वह आदमी नहीं, जो कहता है कि ईश्वर है, इसके मैं प्रमाण दे सकता हूं। वह आदमी नहीं, जो ईश्वर है, ऐसी मान्यता रखकर जीता है। आस्तिक का एक ही अर्थ है, वह आदमी, जिसकी अस्तित्व के प्रति कोई शिकायत नहीं है। ईश्वर का नाम भी न ले, तो चलेगा। चर्चा ही न उठाए, तो भी चलेगा। ईश्वर की बात भी न करे, तो भी चलेगा। लेकिन अस्तित्व के प्रति, जीवन के प्रति उसकी कोई शिकायत नहीं है। यह सारा जीवन उसके लिए एक आनंद उत्सव है। यह सारा जीवन उसके लिए एक अनुग्रह है, एक ग्रेटिटयूड है । यह सारा जीवन एक अनुकंपा है, एक आभार है। उसके प्राण का एक-एक स्वर धन्यवाद से भरा है, जो भी है, उसके लिए। उसमें रत्तीभर फर्क की उसकी आकांक्षा नहीं है। " ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से उपासता है मुझे। उसके योग-क्षेम की मैं स्वयं ही चिंता कर लेता । उसे अपने न तो योग की चिंता करनी है और न क्षेम की। यहां एक बड़ी अदभुत बात है । और आमतौर से जब भी कोई इस सूत्र को पढ़ता है, तो उसको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है, योग में नहीं ! इस सूत्र पर जितने व्याख्याकार हैं, उनको कठिनाई | क्षेम में मालूम पड़ती है। वे कहते हैं, योग तो ठीक है कि परमात्मा सम्हाल लेगा, अंतिम मिलन को; लेकिन यह जो रोज दैनंदिन का जीवन है, यह जो रोटी कमानी है, यह जो कपड़ा बनाना है, यह जो मकान बनाना है, यह जो बच्चे पालने हैं - यह सब यह परमात्मा कैसे करेगा? हालत दूसरी होनी चाहिए। हालत तो यह होनी चाहिए कि ये छोटी-छोटी चीजें शायद परमात्मा कर भी लेगा। योग, साधना की अंतिम अवस्था, वह कैसे करेगा! लेकिन वह किसी को खयाल नहीं उठता। हम सबको डर इन्हीं सब छोटी चीजों का है, इसीलिए। उस बड़ी चीज पर तो हमारी कोई दृष्टि भी नहीं है। मोहम्मद, सांझ जो भी उन्हें मिलता था, बांट देते थे। कोई भेंट | कर जाता, कोई दे जाता, कोई चढ़ा जाता, वे सांझ सब बांटकर, रात फकीर होकर सो जाते थे। मोहम्मद जैसा फकीर मुश्किल से होता है। और एकबारगी सब छोड़ देना बहुत आसान है। महावीर ने | एकबारगी सब छोड़ दिया; यह बहुत आसान है। मोहम्मद ने एकबारगी सब नहीं छोड़ा; रोज-रोज छोड़ा। यह बहुत कठिन है। सुबह लोग दे जाते, तो मोहम्मद ले लेते, और सांझ सब बांट देते। रात फकीर होकर सो जाते। आदेश था घर में कि एक चावल का टुकड़ा भी बचाया न जाए। क्योंकि जिसने आज सुबह दिया था, वह कल सुबह देगा। और नहीं देगा, तो उसकी मर्जी । नहीं देगा, तो इसीलिए कि देने की बजाय न देना हितकर होगा। सांझ सब बांट देना है। जिसने आज सुबह फिक्र की थी, कल सुबह फिक्र करेगा । नहीं करेगा, तो उसका अर्थ है कि वह चाहता है, आज हम भूखे रहें। उसका अर्थ है कि वह चाहता है, आज भोजन की बजाय भूख हितकर है। 295 ठीक चलता रहा। मोहम्मद की जिद्द थी, इसलिए कोई रोकता नहीं था। लेकिन फिर मोहम्मद बीमार पड़े और अंतिम रात आ गई। तो पत्नी को भय लगा ! उसे लगा, और दिन तो सब ठीक था, लेकिन आज आधी रात में भी दवा की जरूरत पड़ सकती है। | सुबह वह देगा, लेकिन आधी रात ! पत्नी का मन, प्रेम के कारण ही, पांच दीनार, पांच रुपए उसने बचाकर रख लिए। मोहम्मद बेचैन हैं। करवट बदलते हैं, नींद नहीं आती। रात बारह बज गए हैं। आखिर उन्होंने उठकर कहा कि मुझे लगता है कि मेरे जीवनभर का नियम आज टूट गया है। मुझे नींद नहीं आती! मैं तो सदा सो जाता था। आज मेरी हालत वैसी है, जैसी धनपतियों की होती है। करवट बदलता हूं, नींद नहीं आती। मैं सदा का गरीब, मुझे कभी कोई चिंता नहीं पकड़ी। रात मुझे कोई सवाल नहीं था। आज क्या हो रहा है? मुझे डर है कि कहीं कुछ बचा तो नहीं लिया गया ! पत्नी घबड़ा गई। उसने कहा कि क्षमा करें, भूल हो गई बड़ी ! पांच रुपए मैंने बचा लिए, इस डर से कि बीमार हैं आप; पता नहीं, रात दवा-दारू की, चिकित्सक की, वैद्य की जरूरत पड़ जाए, तो मैं क्या करूंगी ! तो मोहम्मद ने कहा कि जीवनभर के अनुभव के बाद भी कि हर | सुबह वह सम्हालने मौज़ूद रहा, तुझे बुद्धि न आई ! जीवनभर के अनुभव के बाद ! और जो हर सुबह मौजूद रहा, अगर जरूरत Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 पड़ेगी तो आधी रात मौजूद नहीं होगा, ऐसे शक का क्या कारण था? कोई अनुभव है तेरा ऐसा? वह पांच रुपए बांट दे ! अन्यथा कूंगा और यह मरते क्षण मेरे ऊपर इल्जाम रह जाए कि मोहम्मद, कुछ साथ था, तब मरे । जिंदगीभर की फकीरी को खराब किए देती है ! पत्नी बाहर गई । चकित हुई देखकर, एक भिखारी द्वार पर खड़ा है! मोहम्मद ने कहा, देखती है! जब लेने वाला आधी रात को आ सकता है, तो देने वाला क्यों नहीं आ सकता? यह आधी रात, अंधेरा, कोई बस्ती में दिखाई नहीं पड़ता, पक्षी भी पर नहीं मारते, और दरवाजे पर आदमी भिक्षा पात्र लिए खड़ा है! फिर भी तेरी आंख नहीं खुलती ? दे आ! वह उसको देकर आ गई, लौटकर आई। मोहम्मद ने, कहते हैं, चादर ओढ़ी; और उनकी अंतिम सांस निकल गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं कि मोहम्मद की सांस अटकी रही, उन पांच दीनार की वजह से। वह अड़चन थी, वह बोझ था, वह पत्थर की तरह जमीन से उन्हें खींचे रहा। वह पत्थर जैसे ही हटा गर्दन से, उन्होंने पंख पसार दिए और किसी दूसरी यात्रा पर चले गए। योग-क्षेम मैं ही सम्हाल लेता हूं, कृष्ण कहते हैं। उतने भाव से, फिर जो भी हो, वही क्षेम है, ध्यान रखना आप ! इसका यह मतलब नहीं है कि वैसे व्यक्ति को कभी मुसीबत न आएगी। इसका यह मतलब भी नहीं है कि उसे रोज सुबह चेक उसके हाथ में आ जाएगा ! ऐसा कोई मतलब नहीं है । अगर इसे ठीक से समझेंगे, तो इसका मतलब यह है कि सुबह जो भी हाथ में आ जाएगा, वही उसका क्षेम है। जो भी उसे आ जाएगा हाथ में - भूख, तकलीफ, सुख, दुख – जो भी, वही परमात्मा के द्वारा दिया गया क्षेम है। वह उसे ही अपना क्षेम मानकर आगे चल पड़ेगा। और योग और भी कठिन बात है। कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं सम्हाल लेता हूं। उसका मतलब? ऐसे उपासक को न साधना की जरूरत है, न साधन की जरूरत है; न तप की जरूरत है, न यज्ञ की जरूरत है; न किसी विधि की जरूरत है, न किसी व्यवस्था की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति को परमात्मा से मिलने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर निष्काम उपासना उसका भाव है, तो मैं उसे मिल ही जाता हूं। वह मिलने का काम मैं सम्हाल लेता हूं। ऐसी बहुत कथाएं हैं, बड़ी मीठी, और मनुष्य के अंतरतम के बड़े गहरे रहस्यों को लाने वाली, जब परमात्मा उपासक को खोजता | हुआ उसके पास आया है। ये प्रतीक कथाएं हैं; और इनको समझने भूल हो जाती है। इन प्रतीक कथाओं का अर्थ यह होता है कि वे एक इंगित करती हैं एक तथ्य की ओर। में अगर उपासक निष्काम भाव में जीता हो, तो उसे परमात्मा को | खोजने भी जाना नहीं पड़ता, परमात्मा ही उसे खोजता चला आता है । आ ही जाएगा। जैसे जब कोई गड्ढा होता है, तो वर्षा का पानी भागता हुआ गड्ढे में चला आता है। पहाड़ पर भी गिरता है, लेकिन पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे अपने से पहले से ही भरे हुए हैं। उनका अहंकार मजबूत है। गड्डा खाली है, निरहंकार है, पानी भागता हुआ आकर गड्ढे में भर जाता है। ठीक ऐसे ही, जहां निष्काम भाव है उपासना का, परमात्मा भागता चला आता है, और हृदय को घेर ता है। 296 / लेकिन इतनी भी वासना की जरूरत नहीं है— इतनी भी - कि वह आए, कि वह मुझे मिले। यह आखिरी कठिन बात है, जो खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि भक्त अगर यह भी कहे कि तू मुझे मिल, तो भी वासना है। भक्त तो यह कहता है कि तू है ही चारों तरफ। बस, मैं निर्वासना हो जाऊं, तो तू यहीं है। तू मुझे यहीं दिखाई पड़ जाएगा। मेरी आंख खुल जाए, तो तू यहीं है। सिर्फ मैं आंख बंद किए बैठा हूं, इसलिए तू दिखाई नहीं पड़ता है। भक्त यह नहीं कहता है कि तू आ । इतनी भी वासना नहीं है। इतना ही कि अपने को मिटा देता है। वासना के | खोते ही मिट जाता है। वासना ही हमारे अहंकार का आधार है। जब तक हम कुछ | मांगते हैं, तभी तक मैं हूं। जब मैं कुछ भी नहीं मांगता, तो मेरे होने का कोई कारण नहीं रह जाता। मैं न होने के बराबर हो जाता हूं। एक खालीपन, एक शून्यता घटित हो जाती है। वही शून्यता उपासना है, वही शून्य परमात्मा की सन्निधि है । यह जो व्यक्ति के भीतर वासना से छूटकर शून्य का निर्मित होना इस पर ध्यान दें। इस पर ध्यान दें, तो कोई कारण नहीं है, कोई कारण नहीं है कि जो हमारे लिए बड़े-बड़े शब्द मालूम पड़ते हैं, खाली और व्यर्थ, वे सार्थक और जीवंत न हो जाएं। परमात्मा एक खाली शब्द है हमारे लिए। इस शब्द में हमारे लिए कुछ भी मालूम नहीं पड़ता कि क्या है। अगर कोई कहता है दरवाजा, तो दरवाज़े में कोई अर्थ है; कोई कहता है पानी, तो पानी में कोई अर्थ है; कोई कहता है वृक्ष, तो वृक्ष में कोई अर्थ है; जब मैं कहता हूं परमात्मा, तब कोई भी अर्थ नहीं है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना और उपासना * वृक्ष कहते से वृक्ष की तस्वीर घूम जाती है। वृक्ष कहते से वृक्ष | | जाएगी। अगर किसी ने गाली दी, और पहले राम का स्मरण आया, का एहसास हो जाता है। दरवाजा कहते से दरवाजे की प्रतीति हो | | तो फिर गाली का उत्तर गाली से देना मुश्किल हो जाएगा। कैसे? जाती है। घोड़ा कहते से घोड़ा खड़ा हो जाता है। लेकिन परमात्मा | राम बीच में आ गया, अब गाली देना असंभव हो जाएगी। मौत भी कहते से कुछ भी तो निर्मित नहीं होता! आ जाए, पहले राम का स्मरण आए। फिर मौत में भी दंश न रह परमात्मा हमारा अनुभव ही नहीं है, इसलिए शब्द खाली है! | जाएगा। कुछ भी हो, राम पहले खड़ा हो जाए। घोड़ा हमारा अनुभव है, इसलिए शब्द आते से अनुभव भी सामने इसको ही मैं उपासना कह रहा हूं। चौबीस घंटे-उठते. बैठते. आ जाता है। परमात्मा हमारा अनुभव नहीं है, इसलिए परमात्मा | सोते-राम का, प्रभु का, परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता शब्द खाली है। सुन लेते हैं; बार-बार सुनने से ऐसा वहम भी पैदा | रहे। धीरे-धीरे यह सघन हो जाता है। यह इतना सघन हो जाता है हो जाता है कि अर्थ हमें मालूम है। | कि सब चीजें पिघलकर बह जाती हैं, यही सघनता रह जाती है। अर्थ अनुभव में होता है, शब्दकोश में नहीं। शब्दकोश में लिखा | धीरे-धीरे सब चीजें ओझल हो जाती हैं, परमात्मा की चारों तरफ हुआ है अर्थ, लेकिन अर्थ अनुभव में होता है। और जब तक उपस्थिति हो जाती है। अनुभव न हो, तब तक हम कितनी ही बार सुनें परमात्मा, | | फिर आप चलते हैं, तो परमात्मा आपके साथ चलता है। आप परमात्मा, परमात्मा, कुछ होगा नहीं। अर्थ कहां से प्रकट होगा? | | उठते हैं, तो परमात्मा आपके साथ उठता है। आप हिलते हैं, तो इसलिए परमात्मा को छोड़ें, उपासना पर ध्यान दें। उपासना से| परमात्मा आपके साथ हिलता है। आप सोते हैं, तो उसमें सोते हैं। अर्थ निकलेगा। उपासना असली चीज है। जैसे अंधे आदमी से हम | आप जागते हैं, तो उसमें जागते हैं। फिर चारों तरफ वही है। कहें कि तू प्रकाश की फिक्र छोड़, तू आंख का इलाज करवा। | श्वास-श्वास में वही है। हृदय की धड़कन में वही है। प्रकाश की फिक्र ही छोड़ दे। जिस दिन आंख ठीक हो जाएगी, उस | यह उपासना है। और मांग कुछ भी नहीं है। उससे चाहना कुछ दिन प्रकाश प्रकट हो जाएगा। ऐसे मैं आपसे कहूं कि आप फिक्र | | भी नहीं है। और मजा यह है, जो उससे कुछ भी नहीं चाहता, उसे छोड़ दें परमात्मा की, फिक्र कर लें उपासना की। उपासना आंख | सब कुछ मिल जाता है। और जो उससे सब कुछ चाहता रहता है, है। आंख जिस दिन खुल जाएगी, उस दिन परमात्मा प्रकट हो उसे कुछ भी नहीं मिलता है। जाएगा। वह यहीं मौजूद है। वासना से भरा हुआ व्यक्ति दरिद्र ही मरता है; उपासना से भरा उपासना का अर्थ क्या है? उपासना का अर्थ है, हम उसकी हुआ व्यक्ति सम्राट हो जाता है, इसी क्षण। वासना भिक्षा-पात्र है; उपस्थिति को प्रतिपल स्मरण करते रहें, अनुभव करते रहें। कुछ भी मांगते रहो, मांगते रहो, वह कभी भरता नहीं। उपासना भिक्षा-पात्र घटित हो, वही हमें याद आए। कुछ भी घटित हो, पहली खबर हमें को तोड़कर फेंक देना है। उपासना इस बात की खबर है कि वह उसकी ही मिले। कुछ भी हो जाए चारों तरफ, नंबर दो पर दूसरी हमारा ही है, उससे मांगना क्या है! वह मुझमें ही है, उससे मांगना याद आए, पहली याद उसकी आए। रास्ते पर एक सुंदर चेहरा क्या है! और जो भी उसने दिया है, वह सब कुछ है, अब और दिखाई पड़े, तो सुंदर चेहरा नंबर दो हो, पहले उसकी खबर आए। उसमें जोड़ना क्या है! एक फूल खिलता हुआ दिखाई पड़े, फूल नंबर दो हो, पहले उसकी उपासना का अर्थ है, स्वयं के भीतर छिपी हुई परम संपदा का खबर आए। कोई गाली दे, गाली देने वाला बाद में दिखाई पड़े. | अनुभव। और वासना का अर्थ है, स्वयं के भीतर एक भिक्षा-पात्र पहले उसकी खबर आए। | की स्मृति कि मैं एक भिखारी का पात्र हूं, मांगता रहूं, मांगता रहूं! आपकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाएगी, उसकी खबर को स्वामी राम अमेरिका गए; वे अपने को बादशाह कहते थे। प्राथमिक बना लें। इसको ही मैं स्मरण कहता हूं। उसकी खबर को | | उन्होंने किताब लिखी है, बादशाह राम के छः हुक्मनामे-बादशाह प्राथमिक बना लें। रास्ते पर पागल की तरह अगर राम-राम, | राम की छः आज्ञाएं। अमेरिका में पहली दफा तो जिन लोगों ने उन्हें राम-राम कहते हुए गुजरते रहें, तो कुछ भी न होगा। बहुत लोग | | देखा, वे थोड़े हैरान हुए कि दिमाग कुछ ढीला मालूम पड़ता है! गुजर रहे हैं। राम-राम कहने का सवाल नहीं, स्मरण का है। । | फकीर हैं. लंगोटी लगाए हए हैं. और अपने को बादशाह कहते हैं। जो भी हो, पहले राम, फिर दूसरी बात। सारी जिंदगी बदल और राम तो बोलते नहीं थे बिना बादशाह के! वे तो कहते थे, राम 1297 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 बादशाह यहां गए। बादशाह राम वहां गए, बहुत लोग वहां मिले। को और बड़ा कर जाती है। एक व्यक्ति ने पूछा कि आप अपने को बादशाह कहते हैं! क्या ___ मांगें मत! यह प्रार्थना शब्द है हमारे पास। हमने इतना मांगा है कारण? आपके पास कुछ दिखाई तो नहीं पड़ता। बादशाहत का | | प्रार्थना के साथ कि प्रार्थना का मतलब ही लगने लगा मांगना! हम कोई लक्षण नहीं है। भिखारी हैं। प्रार्थना के साथ सदा मांगते हैं, इसलिए प्रार्थना का मतलब ही राम ने कहा, कुछ दिन मेरे पास रहो, तो दिखाई पड़ेगा। क्योंकि | | मालूम पड़ने लगा, कुछ मांगना। प्रार्थना करो, इसका मतलब ही बादशाहत बहुत गहरी चीज है और बाहर से दिखाई नहीं पड़ती। होता है, मांगो। वह आदमी कुछ दिन राम के पास रहा। धीरे-धीरे उसे अनुभव ___प्रार्थना का मतलब मांगना जरा भी नहीं है। प्रार्थना का मतलब हुआ कि यह आदमी है तो कुछ अदभुत! यह आदमी कभी किसी | | है, उस तान में एक हो जाना, उस तान के साथ डोलने लगना, उस से कुछ मांगता नहीं! इस आदमी की कोई चाह नहीं दिखती! यह | तान के साथ नाचने लगना, जो कि चारों तरफ मौजूद है। प्रार्थना ऐसे जीता है, जैसे सारी दुनिया इसकी है! यह मांगे किससे? मांगे । | एक लीनता है। उपासना उसकी उपस्थिति को अनुभव करने का क्यों? यह ऐसे जीता है, जैसे सारी दुनिया इसकी है। यह सुबह | | नाम है। सूरज की तरफ ऐसे देखता है, जैसे इसकी ही आज्ञा से सूरज __ और बिना मांगे जो उसे अनुभव करने को तैयार है, कृष्ण कहते निकला है। यह फूलों की तरफ ऐसे देखता है, जैसे इसकी ही आज्ञा | हैं, वह फिर लौटता नहीं। वह फिर चक्कर के बाहर हो जाता है। से फूल खिल रहे हैं। यह लोगों की तरफ ऐसे देखता है, जैसे इसकी | वह चाक से छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। फिर यह चाक ही आज्ञा से वे श्वास ले रहे हैं। घूमता रहे, वह नहीं घूमता। उस आदमी ने सातवें दिन कहा कि मुझे लगता है! पहले तो मैं | कभी आपने देखा हो अगर, तोतों को पकड़ने वाले शिकारी सोचता था कि आपका दिमाग कुछ खराब है। सात दिन रहकर मुझे | जंगल में जाकर तोतों को जिस ढंग से पकड़ते हैं। तो जरूर देखना ऐसा लगता है कि अगर ज्यादा मैं आपके साथ रहा, तो कहीं मेरा चाहिए, न देखा हो तो। रस्सी बांध देते हैं एक, दोहरी रस्सियों को दिमाग खराब न हो जाए! आप बिलकुल सच में ही बादशाह ऐंठाकर, उसमें लकड़ियां बांध देते हैं। रस्सियों की ऐंठन में लकड़ियां मालूम पड़ते हैं! और है आपके पास कुछ भी नहीं! इसका राज क्या अटका देते हैं। तोता लकड़ी पर बैठता है, उसके वजन से उलटा है? व्हाट इज़ दि सीक्रेट? होकर नीचे लटक जाता है। जब बैठता है, तो लकड़ी ऊपर मालूम राम ने कहा, इसका एक ही राज है, हमने अपनी भिक्षा का पात्र पड़ती है, दोनों तरफ रस्सी से बंधी। जब बैठ जाता है, तो वजन से तोड़ दिया, हमने मांगना बंद कर दिया। और जिस दिन से हमने | नीचे लटक जाता है, लकड़ी उलटी हो जाती है। फिर घबड़ा जाता है मांगना बंद किया, यह सारी दुनिया हमारी हो गई। और मैं तुमसे | और लकड़ी को जोर से पकड़ लेता है। अब उलटा लटका है, अब कहता हूं कि भिक्षा-पात्र तोड़ने से मुझे पता चला कि ये चांद-तारे | उसको डर लगता है कि अगर मैने लकड़ी को छोड़ा तो गिरा। और मैंने ही बनाए हैं। और जिसने पहली दफा इन चांद-तारों को अंगुली | पकड़ने वाला उसको आकर पकड़ लेता है। से इशारा किया था, वह मैं ही हूं। लकड़ी उसको पकड़े नहीं होती, वही लकड़ी को पकड़े होता है। लेकिन राम ने कहा, तुझे जो मैं दिखाई पड़ रहा हूं, उसकी मैं | छोड़ दे, तो अभी उड़ जाए। लेकिन अब उसे डर लगता है कि अगर चर्चा नहीं कर रहा हूं! मुझे जो भीतर दिखाई पड़ता है, जो मुझसे | मैंने छोड़ा, तो कौन सम्हालेगा! अगर मैंने छोड़ी लकड़ी, तो उलटा भी पार है. मैं उसकी ही बात कर रहा है। उसी ने चलाए सब लटका हं, जमीन पर गिरूंगा, सिर टूट जाएगा। वह लटका रहता चांद-तारे। वही है मालिक। अब मुझे भीतर के मालिक का पता है। घंटों लटका रहता है। फंसाने वाला अगर देर से आए, तो कोई चल गया, अब मांगना किससे है! चिंता नहीं। वह जब भी आएगा, वह लटका हुआ मिलेगा। उपासना परमात्मा की इतनी सघन प्रतीति करा देती है। वासना | करीब-करीब वासना में हम ऐसे ही लटके होते हैं। और जिसे धीरे-धीरे दीन बना देती है; दीन से दीनतर बना देती है। वासना में | | हम पकड़े होते हैं, हम सोचते हैं, अगर छोड़ा तो मर जाएंगे। कौन जीने वाला सिकंदर भी दीन ही मरता है। वासना में जीने वाला बड़े | | सम्हालेगा? वह कृष्ण कहते हैं, कहते होंगे! अर्जुन से कुछ से बड़ा धनपति भी निर्धन ही मरता है। वासना आखिर में भिखारी | | नाता-रिश्ता रहा होगा। इसलिए कहा कि तेरा योग-क्षेम मैं सम्हाल 298 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वासना और उपासना लूंगा। इधर तो हमने छोड़ी अपनी लकड़ी, कि मरे! सिर के बल गिरेंगे, सब टूट-फूट जाएगा। कोई सम्हालने वाला नहीं मिलेगा। अपना पकड़े रहो जोर से! प्रार्थना कभी-कभी करते हैं कि हे परमात्मा! लकड़ी को जरा बड़ी कर दे, ताकि ठीक से पकड़े रहें; कि मेरे हाथों को जरा मजबूत कर, कि लकड़ी छूट न जाए! ये हमारी प्रार्थनाएं हैं। हमारी प्रार्थनाएं हमारे बंधन को और मजबत करने वाली हैं। हमारी प्रार्थनाएं हमारे संसार को और गहरा करने वाली हैं। आज इतना ही। लेकिन उठे न। पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करते हैं, उसमें सम्मिलित होकर जाएं। बीच में कोई उठे न! एक भी उठता है, तो बाकी लोगों को अड़चन होती है। [299] Page #326 --------------------------------------------------------------------------  Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 दसवां प्रवचन खोज की सम्यक दिशा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। २३ । । अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।। २४ ।। यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।। २५ ।। और हे अर्जुन, यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं। किंतु उनका यह पूजना अविधिपूर्वक है, अर्थात अज्ञानपूर्वक है। क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं। परंतु वे मुझ अधियज्ञ-स्वरूप परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते हैं, इसी से गिरते हैं, अर्थात पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। कारण यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं, और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं। इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता। म नुष्य की खोज चाहे हो कुछ भी, चाहे मांग हो कोई, चाह हो कोई, किसी भी दिशा में दौड़ता हो, कुछ पाना चाहता हो, लेकिन अंततः मनुष्य परमात्मा को ही पाना चाहता है। उसकी सब चाहों में परमात्मा की ही चाह छिपी होती है। उसकी सब वासनाओं में उस प्रभु की तरफ पहुंचने की ही आकांक्षा का बीज छिपा होता है। और जरूरी नहीं है कि यह उसे ज्ञात हो; इसका ज्ञान न भी हो । नहीं होता है। तो भी बीज परमात्मा की ही तलाश का है। हम एक बीज को बोते हैं जमीन में, उस बीज को पता भी नहीं होगा कि वह किस लिए टूट रहा है और किस लिए अंकुरित हो रहा है। उसे यह भी पता नहीं होगा कि इस अंकुरण की प्रक्रिया का अंतिम रूप क्या होने को है। उसे यह भी पता नहीं है कि यह जो आकाश की तरफ उसकी दौड़ चल रही है, यह जो आकाश में शाखाओं को फैला देने का आयोजन चल रहा है, यह किस लिए है ? वह किसे पाना चाहता है? उसे उन फूलों का तो कोई भी स्मरण न होगा, कोई भी स्वप्न भी नहीं होगा, जो फूल उसकी शाखाओं पर खिलेंगे। और उन बीजों की उसे कोई खबर नहीं हो सकती है, | जो उसके ऊपर लगने वाले हैं। उस जीवन का भी उसे कोई अंदाज नहीं हो सकता, जो कि वृक्ष का जीवन होगा। ठीक, आदमी भी बीज की तरह परमात्मा की तरफ बढ़ता है, अनजाने । उसे पता भी नहीं कि वह क्या खोज रहा है! क्यों खोज रहा है ! उसकी सब खोजों में अंतर्निहित खोज क्या है ! इसे हम थोड़ा आदमी की इच्छाओं को समझें, तो समझना आसान हो जाएगा। एक आदमी है, जो धन चाहता है; धन के पीछे दौड़ रहा है। उससे अगर हम कहें कि वह भी परमात्मा को खोज रहा है, तो वह भी मानने को राजी नहीं होगा, दूसरे तो राजी होंगे ही नहीं। एक | आदमी पद की तलाश कर रहा है, प्रतिष्ठा की, यश की। अगर हम कहें कि वह भी प्रभु को खोज रहा है, तो कौन तैयार होगा इस | असंगत बात को स्वीकार करने को ? एक आदमी प्रेम को खोज रहा है, और हम कहें परमात्मा को खोज रहा है, तो कोई तालमेल नहीं मालूम पड़ता। लेकिन अगर थोड़ा गहरे उतरें, तो सीढ़ियां दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी, शृंखला साफ होने लगेगी। एक आदमी धन खोजता है, किस लिए? और धन से क्या उसका प्रयोजन है? धन खोजता है तीन कारणों से। पहला, सुरक्षा के लिए, फार सिक्योरिटी । कल की कोई सुरक्षा नहीं है। अगर धन पास में है, तो | कल की सुरक्षा हो जाएगी। अगर धन पास में है, तो कल के लिए | निश्चित हो सकता है। अगर धन पास में है, तो कल की फिक्र छोड़ी जा सकती है। इसका अर्थ हुआ कि धन खोज रहा है इसलिए कि एक ऐसा जीवन मिल जाए, जहां फिक्र न हो, चिंता न हो। एक ऐसा जीवन | मिल जाए, जहां सुरक्षा हो, असुरक्षा न हो; जहां भय न हो; जहां | मैं असहाय अनुभव न करूं अपने को। वह एक ऐसा जीवन खोज रहा है। लेकिन धन खोज रहा है इस जीवन के लिए। धन से यह जीवन नहीं मिलेगा, लेकिन आकांक्षा यही है। एक आदमी जब धन खोज रहा है, तो वह भी ऐसा धन खोजता | है — दूसरी बात - जो छीना न जा सके। इसलिए तो इतना इंतजाम करता है तिजोड़ियों का, बैंकों का, सेफ्टी का सारा इंतजाम करता | है कि छीना न जा सके। आकांक्षा यह है कि धन हो तो ऐसा, जो कोई छीन न सके। हालांकि जो भी धन हम इंतजाम करते हैं, वह छीना जा सकता है। छीना जाता है। अब तक आदमी कोई उपाय | नहीं कर पाया कि ऐसा धन खोज ले, जो छीना न जा सके। सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं। 302 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *खोज की सम्यक दिशा लेकिन आदमी की आकांक्षा को खोजें, तो वह जरूर ऐसा धन | | जाते हैं। अगर दो सीढ़ियों पर चढ़ जाते हैं, तो चार पर नीचे उतरना खोजना चाहता है, जो फिर उसका ही हो; और फिर कभी भी ऐसा पड़ता है। वह कीमत चुकानी पड़ती है। न हो कि पराया हो जाए। हर आदमी एक ऐसी संपदा खोजना । एक आदमी अगर एक बड़े पद पर पहुंच जाता है, तो पद पर चाहता है, जो सदा-सदा के लिए शाश्वत उसकी अपनी हो। | पहुंचने के लिए जो बेचैनी और परेशानी उठानी पड़ती है, उसमें परमात्मा के सिवाय ऐसी कोई संपदा हो नहीं सकती, जो छीनी न स्वास्थ्य खो देता है। तब एक दिन देखता है कि सड़क पर एक जा सके। सिर्फ वही है, जो छीना नहीं जा सकता। फकीर जा रहा है, जिसके पास स्वास्थ्य की अपार संपदा है, तब आदमी जब धन खोजता है, तो-तीसरे नंबर पर-भीतर वह मन ईर्ष्या से भर जाता है। एक सीढ़ी पर कोई चढ़ा हुआ है, जहां खालीपन अनुभव करता है, रिक्तता अनुभव करता है; उसे भर वह नीचे पड़ गया है। लेना चाहता है। पूरी जिंदगी दौड़कर भी, धन की राशि लग जाती एक आदमी पद की दौड़ में प्रतिभा को खो देता है। असल में है, भीतर का खालीपन नहीं भरता। लेकिन आदमी खोजता | पद की दौड़ अगर पूरी करनी हो, तो प्रतिभा की जरूरत भी नहीं है। इसीलिए है कि भीतर भर जाए, एक आंतरिक फुलफिलमेंट हो; प्रतिभा हो, तो खतरा है। उतनी दौड़ में जाना मुश्किल होगा। एक एक भीतर तप्ति हो जाए, भरापन आ जाए: ऐसी कोई कमी न | गहरी मूढ़ता चाहिए, तो पद की दौड़ में आदमी अंधा होकर लग मालूम पड़े, कोई अभाव न मालूम पड़े; संतुष्ट हो जाए भीतर, | जाता है। वह योग्यता है। प्रतिभा खो देता है। इधर प्रतिभा खो जाती तृप्ति आ जाए; क्षणभर को भी ऐसा न लगे कि मुझे कुछ और है, जिस दिन पद पर पहुंचता है, उस दिन पाता है कि चारों ओर चाहिए। यह तीसरी बात है। | प्रतिभा के दीए जल रहे हैं, और सीढ़ियों में वह पिछड़ गया है। आदमी धन इसलिए खोजता है कि ऐसी अवस्था आ जाए कि जिंदगी अनेक सीढ़ियां हैं। अगर कोई एक सीढ़ी पर चढ़ता है, कुछ उसे मांगने को न बचे, कुछ चाहने को न बचे; ऐसा न रहे उसे | दूसरों पर नीचे उतर जाता है। और किसी भी सीढ़ी पर कितना भी कि फलां चीज मेरे पास नहीं है; अभाव न खटके, खालीपन न चढ़ जाए, फिर भी पाता है कि उससे भी ऊपर सीढ़ियों पर लोग खटके; सब मेरे पास है, ऐसी तृप्ति हो। लेकिन कितना ही धन | चढ़े हुए हैं! मिल जाए, ऐसी तृप्ति होती नहीं। ऐसी तृप्ति तो केवल उसी को | लेकिन आदमी की आकांक्षा सही है। आदमी चाहता है ऐसी होती है, जिसे परमात्मा का धन मिल जाता है। अवस्था, जहां वह किसी से नीचा न रह जाए। तो धन की भी खोज कितनी ही गलत हो, दिशा कितनी ही भ्रांत सिवाय परमात्मा को पाए और कोई उपाय नहीं है। हो, आकांक्षा बिलकुल सही है। वह जो भीतर बीज है, वह लेकिन एक मजे की बात है। आदमी चाहता है कि मैं किसी से बिलकुल सही है। मार्ग चाहे अंकुर का कितना ही विकृत हो जाए, नीचे न रह जाऊं, इसलिए दूसरों को नीचा करने में लग जाता है! लेकिन उसकी अनजानी खोज बिलकुल प्रामाणिक है। पर उसे पता नहीं है कि जो वह कर रहा है, वही सारे लोग भी कर एक आदमी पद चाहता है। पद चाहता है तीन कारणों से, किसी | रहे हैं! मैं एक आदमी हूं; तीन अरब आदमी जमीन पर हैं। मैं भी से हीन न मालूम पडूं, किसी से नीचा न मालूम पडूं। लेकिन कितना | इस कोशिश में लगा हूं कि किसी से नीचे न रह जाऊं। और इसके ही कोई पद खोजे, सदा कोई न कोई आगे मौजूद रहता है। अब | | लिए दूसरों को नीचा करने में लगा है। तीन अरब आदमी, इसी तक ऐसा एक भी आदमी किसी पद पर नहीं पहुंच पाया, जहां | कोशिश में वे भी लगे हैं। वे भी दूसरों को नीचा करने में लगे हैं, जाकर वह कह सके, अब मेरे आगे कोई भी नहीं है। कुछ भी हो | ताकि वे ऊपर हो जाएं। एक-एक आदमी तीन-तीन अरब जाए, कितनी ही बड़ी सीढ़ी चढ़ जाए, जितनी बड़ी सीढ़ी चढ़ता है, | | आदमियों के खिलाफ लड़ रहा है! हारेगा नहीं, तो क्या होगा? तीन पाता है कि आगे और सीढ़ियों पर लोग पहले से चढ़े हुए हैं। | अरब आदमी मुझे नीचा करने में लगे हैं; मैं तीन अरब आदमियों और ऐसा सभी को अनुभव होता है। अनुभव होने के कई | को नीचा करने में लगा हूं! एक पागलों की भीड़ है, जिसमें कोई जटिल कारण हैं। एक तो जिंदगी इकहरी सीढ़ी नहीं है, अनेक कहीं पहुंच नहीं सकता। सीढ़ियों का जोड़ है। अगर आप एक सीढ़ी पर चढ़ जाते हैं, तो | - लाओत्से ने कहा है कि मैंने तो शांति का सूत्र इसी में जाना कि अनेक बार उसी में चढ़ने की वजह से दूसरी सीढ़ी पर नीचे उतर उस जगह बैठ जाओ, जिससे नीची कोई जगह न हो, अन्यथा उठाए 303 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 जाओगे। उस गड्ढे में गिर जाओ, जिससे नीचा कोई गड्डा न हो, अन्यथा लतियाए जाओगे | लाओत्से ने कहा, मैंने तो शांति और संतुष्टि इसमें पाई, जब मैंने दूसरे को नीचा करना तो दूर, अपने को सबसे नीचा स्वीकार कर लिया। उस दिन के बाद मुझे कोई नीचा नहीं कर सका है। जीसस ने कहा है, जो आदमी पंक्ति में सबसे अंतिम खड़े होने को राजी है, वही प्रथम हो जाएगा। लेकिन हमारा क्या होगा, जो पंक्ति में प्रथम खड़े होने के लिए आतुर हैं! हम संघर्ष करेंगे, लड़ेंगे, परेशान होंगे और आखिर में पाएंगे, आगे नहीं पहुंच पाए हैं। संभवतः पंक्ति सीधी नहीं है, सर्कुलर है; गोल घेरे में है। इसीलिए तो कोई आदमी अनुभव नहीं कर पाता कि मैं आगे आ गया। कितना ही दौड़ता है, लेकिन क्यू के आगे नहीं पहुंच पाता। क्यू गोलाकार है, अन्यथा कोई न कोई पहुंच जाता। कोई सिकंदर, कोई नेपोलियन, कोई हिटलर, कोई स्टैलिन कहीं न कहीं पहुंच जाता, और एक दिन कह देता कि ठीक है, मैं क्यू के आखिरी हिस्से में आ गया, नंबर एक हो गया। लेकिन भी कोई पहुंच जाए, वह पाता है कि उसके आगे लोग मौजूद हैं। इसका एक ही मतलब हो सकता है कि जिंदगी सीधी रेखा में नहीं चल रही है; वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। इसलिए आप एक गोल घेरे में अगर दस-बारह लोग खड़े हैं, उनमें से कोई कितना ही दौड़े, और कितनी ही कोशिश करे, जिंदगी गंवा दे नंबर एक होने के लिए, कभी नंबर एक नहीं हो पाएगा। क्योंकि गोले में कोई नंबर एक होता ही नहीं। हमेशा कोई आगे होता है, कोई पीछे होता है। कहीं भी जाए; हमेशा कोई आगे होता है, कोई पीछे होता है। लेकिन आकांक्षा ठीक है और आकांक्षा उचित खबर देती है। वह खबर यह है कि जब तक कोई व्यक्ति अपने को परमात्मा के साथ एक. न समझ ले, तब तक हीनता नहीं मिटती । और जब तक हीनता, इनफीरिआरिटी नहीं मिटती है, तब तक ईर्ष्या भी नहीं मिटती । और जब तक हीनता और ईर्ष्या नहीं मिटती है, तब तक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश भी नहीं मिटती । और इस सबका अंतिम परिणाम चिंता और संताप के सिवाय और कुछ भी नहीं होता । लेकिन आदमी चाहता है परम पद। वह परमात्मा को चाहता है। इसका उसे बोध न हो, इसका होश न हो, यह हो सकता है। एक और तरफ से देखें। हर आदमी मृत्यु से भयभीत है, कंपित है। हर आदमी डरा हुआ है । चाहे कितना ही सुरक्षित हो, मौत कहीं किनारे पर खड़ी हुई मालूम पड़ती है, और किसी भी क्षण गर्दन को दबा ले सकती है। हर व्यक्ति डरा हुआ है मृत्यु से । छोटा-सा बच्चा पैदा होता है, वह भी डरता है, डरता हुआ पैदा होता है। जोर की खटके की आवाज हो जाए, कंप जाता है। अंधेरा हो, भयभीत होने लगता है। कोई पास न हो, अकेला हो, चीखने-चिल्लाने लगता है। पहले दिन से ही भय में जन्मा हुआ है। पूरा जीवन एक भय से कंपता हुआ पत्ता है। हम उपाय करते हैं, हम कई तरह के उपाय करते हैं, ताकि मृत्यु से बच सकें। आकांक्षा बिलकुल ठीक है, लेकिन अब तक कोई मृत्यु से बच नहीं पाया, और बच भी नहीं पाएगा। और अक्सर तो यह होता है, जो मृत्यु से बचने का जितना इंतजाम करते हैं, उतने ही जल्दी अपने ही इंतजाम में दबकर मर जाते हैं। ऐसी हालत हो जाती है, जैसे कोई आदमी मौत न आए, तो अपने चारों तरफ लोहे का एक बख्तर बनाकर पहन ले; लोहे के कपड़े पहन ले, कहीं से मौत न घुस जाए! तो अभी मर जाएगा। | कल के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। हम सब अपनी जिंदगी को चारों तरफ से इतना सुरक्षित कर लेते हैं कि जिंदगी मर जाती है। जिंदगी असुरक्षा में है। जिंदगी तो असुरक्षा में है, अनसटेंटी में, अनिश्चय में। हम सब निश्चित करके, सब व्यवस्था ठीक से | बिठाकर, उसके भीतर मुर्दे की तरह बैठ जाते हैं। मौत से केवल मुर्दा बच सकता है; जो मर ही चुका है, वह भर बच सकता है। जो जिंदा है वह तो मरेगा ही । इसलिए कितना ही हम उपाय करें, उपाय करने में मौत तो नहीं रुकती, जिंदगी गंवा बैठते हैं। उपाय में ही जिंदगी खो जाती है। मौत से बचने का उपाय करते-करते, करते-करते जिंदगी का समय चुक | जाता है। घड़ी का कांटा घूम जाता है और मौत आ जाती है। और हम तब घबड़ाकर कहते हैं कि अभी तो हम सिर्फ मौत से बचने का | इंतजाम कर रहे थे ! यह समय तो हमने मौत से बचने में गंवा दिया ! अभी हम जीए कहां थे? 304 जीना समाप्त हो जाता है जीने के इंतजाम में । जीने का मौका ही नहीं मिलता; अवसर नहीं मिलता; सुविधा नहीं मिल पाती। लेकिन आकांक्षा दुरुस्त है। मौत से बचने की आकांक्षा दुरुस्त है, लेकिन दिशा गलत है। मौत से बचने का एक ही उपाय है कि हम उसे जान लें, जो अमृत है; हम उसे पहचान लें, जो मरता ही नहीं; हम उसके साथ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * खोज की सम्यक दिशा * अपनी एकता को खोज लें, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। यह तो ठीक | | लिए की गई पूजा; सुख के लिए की गई पूजा। मंदिर में खड़ा कोई दिशा होगी। हम इंतजाम करते हैं मौत से बचने का, और उससे जुड़े | मांग रहा है परमात्मा से कुछ, किसी भी देवता के सामने मांग रहा रहते हैं, जो मरेगा ही! शरीर से जुड़े रहते हैं, जो कि मरेगा ही; मृत्यु | है; हजार उनके नाम हैं, हजार उनकी शक्लें हैं, हजार उनके जिसमें अंतर्निहित है, मृत्यु जिसका हिस्सा है। उसका हम इंतजाम | | पूजास्थल हैं; लेकिन जब भी किसी पूजास्थल पर और किसी भी करते हैं बचाने का! इंतजाम में समय व्यतीत हो जाता है और मौत | | देवता की प्रतिमा के समक्ष कोई कुछ मांग रहा है, तब वह अज्ञान आ जाती है। उसकी खोज नहीं कर पाते, जो कि कभी मरा ही नहीं से भरा हुआ है। क्योंकि जिसके पास होने से ही सब मिल जाता है और कभी मरेगा ही नहीं। वह भी मौजूद है। है, अगर उससे भी मांगना पड़े, तो उसका अर्थ है कि हमें पास होना __ अगर यह आकांक्षा ठीक हो, तो अमृत की खोज बनेगी; अगर । ही पता नहीं है। जिसके निकट होने से ही सब मिल जाता है, उसके यह आकांक्षा गलत हो, तो मृत्यु से बचाव बनेगी। अगर धन की | | पास भी जाकर मांगना पड़े, तो उसका अर्थ है, हम पास पहुंचे ही खोज ठीक हो, तो उस परम धन की खोज बन जाएगी, परम संपदा | नहीं, उपासना हुई ही नहीं। की। अगर गलत हो, तो हम धातु के ठीकरे इकट्ठे करने में जिंदगी इसलिए कृष्ण कहते हैं, अविधिपूर्वक है। उसे विधि का भी पता व्यतीत कर देंगे। अगर पद की खोज सही हो, तो परमात्मा के | नहीं है कि वह क्या कर रहा है! सिवाय और कोई पद नहीं है। अगर गलत हो, तो हम आदमियों | अगर सूरज के सामने कोई हाथ जोड़कर खड़ा हो और कहे कि को नीचे-ऊंचे बिठालने में अपनी सारी शक्ति को व्यय कर देंगे।। हे सरज मझे प्रकाश दे। तो एक बात पक्की है कि वह आदमी अंधा यह मनुष्य की...। | होगा। क्योंकि सरज के सामने आंख खोलकर खडे होने से प्रकाश (बीच से उठकर किसी ने कुछ पूछा।) | मिलता ही है; अब इसकी मांग की कोई जरूरत न रही। लेकिन • लिखकर कुछ भी दे दें, इतनी दूर से सुनाई नहीं पड़ेगा। लिखकर अगर कोई आदमी मांग रहा है सूरज के सामने हाथ जोड़कर, दे दें, और लोगों को बाधा न डालें। लिखकर पहुंचा दें। | गिड़गिड़ा रहा है, रो रहा है, घुटने टेके खड़ा है; और कह रहा है कृष्ण ने कहा है इस सूत्र में कि हे अर्जुन, यद्यपि श्रद्धा से युक्त कि हे सूरज, मुझे प्रकाश दे! तो एक बात तय है कि वह आदमी हुए जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही | | अंधा है। उसे यह भी पता नहीं है कि वह सूरज के सामने खड़ा है। पूजते हैं। और सूरज के सामने होने का मतलब ही प्रकाश का मिल जाना हो चाहे पूजा किसी की भी हो रही हो, अंततोगत्वा पूजा मेरी ही जाता है। और कुछ मांगने की जरूरत नहीं। होती है, कृष्ण कहते हैं। पूजने वाले को भी पता न हो कि वह तो जो व्यक्ति परमात्मा के सामने भी कुछ मांगता हुआ पहुंचता किसकी पूजा कर रहा है, लेकिन पूजा मेरी ही हो सकती है। | है, एक बात पक्की है, उसे पता नहीं है कि जहां वह मांग रहा है, कारण? पूजा करने वाले को भी जब पता नहीं है, तो कृष्ण किस | वहां परमात्मा है। उसकी मांग ही बता रही है कि उसे परमात्मा के अर्थ में कह रहे होंगे कि पूजा मेरी ही होती है? पास होने का खयाल भी नहीं है। वह अपनी मांग में ही घिरा हुआ वे इसी अर्थ में कह रहे हैं कि तुम्हारी वासनाएं कहीं भी दौड़ें और चल रहा है। चारों तरफ मांग ही उसको घेरे हुए है। उपासना संभव तुम्हारी पूजा किन्हीं चरणों में पड़े, और तुम श्रद्धा से कहीं भी सिर नहीं है उसे। वासना में ही दबा हुआ है। रखो, तुम मेरी ही तलाश में हो। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि | । इसलिए कृष्ण कहते हैं, चाहे वह कितनी ही विधि करता हो...। कहां तुम्हारी आंख जा रही है। अंततः तुम्हारी आंख मुझे ही खोज विधि बहुत करता है। सच तो यह है कि जो विधि बिलकुल नहीं रही है। तुम कहीं भी खोजो, तम्हारी आंख की आत्यंतिक शरण मैं जानता है, वह बहत विधि करता है। कितनी विधियां नहीं पजा और ही हूं। | प्रार्थना करने वाले लोग करते हैं। सकाम विधियां हजार हैं, लाख किंतु उनका वह पूजना अविधिपूर्वक है, अज्ञानपूर्वक है। । | हैं। कितना-कितना उपाय करना पड़ता है! क्या-क्या सामग्री पूजते वे मुझे ही हैं, फिर भी ज्ञानपूर्वक नहीं। क्योंकि उन्हें स्वयं जुटानी पड़ती है। एक-एक व्यवस्था से एक-एक कदम उठाना ही पता नहीं है कि वे क्या खोज रहे हैं। उन्हें स्वयं ही पता नहीं है। | पड़ता है। सकाम पूजा का अर्थ है, धन के लिए, पद के लिए, जीवन के पूजा एक पूरा रिचुअल है, एक क्रिया-कांड है; उसमें जरा भी 305 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 भूल-चूक नहीं होनी चाहिए; गणित की पूरी व्यवस्था है। जब कोई । रामकृष्ण को पुजारी के पद पर रखा था दक्षिणेश्वर में, तो आठ भी उपासक सकाम वासना से भरकर पूजा में लगता है, तो दिन बाद ही ट्रस्टियों की कमेटी को रामकृष्ण को बुलाना पड़ा। रत्ती-रत्ती हिसाब रखता है; पूरी विधि का पालन करता है। और शिकायतें बहुत आईं कि रामकृष्ण को पूजा करने की विधि नहीं कृष्ण कहते हैं, अविधिपूर्वक! हालांकि वे खुद ही कह रहे हैं कि हे आती। रामकृष्ण से ज्यादा गहरा पुजारी खोजना मुश्किल है पूरे अर्जुन, यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं मनुष्य के इतिहास में। लेकिन ट्रस्टियों की कमेटी ने, जो केवल को पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजना चौदह रुपया महीना रामकृष्ण को तनख्वाह देते थे—निश्चित ही, वे अविधिपूर्वक है। मालिक थे—उन्होंने रामकृष्ण को बुला लिया अदालत में। ट्रस्टियों विधि तो उन्हें भी पता है। विधि की कोई कठिनाई नहीं है। | की अदालत बैठ गई। और उन्होंने कहा कि तुम्हें हमें निकालना एक-एक चरण विधि का ज्ञात है, और चरण पूरा किया जाता है। | पड़ेगा, क्योंकि पता चला है कि तुम्हें पूजा की विधि नहीं आती। लेकिन फिर भी कृष्ण अविधिपूर्वक कहते हैं! रामकृष्ण ने कहा, पूजा और विधि का संबंध क्या है? पूजा आती अविधिपूर्वक कहने का कारण है। परमात्मा के पास, सिर्फ पास | है, विधि की फिक्र क्या है? और विधि आती हो, पूजा न आती हो, होना ही पर्याप्त विधि है, और किसी विधि का अर्थ नहीं है। बाकी | तो विधि का करोगे क्या? सब विधियां स्वयं को दिए गए धोखे हैं। उसके पास होने की कला __ लेकिन ट्रस्टियों को समझ में नहीं आया। आने की बात भी न ही आ जाए, उसकी मौजूदगी को अनुभव करने का द्वार खुल जाए, थी। यह कोई बात हुई! शिकायत गहरी थी। ट्रस्टियों ने कहा कि तो पर्याप्त विधि हो गई। लेकिन विधि तो वे करते हैं! इतनी ही नहीं है; शिकायत थोड़ी ऐसी है कि अपराधपूर्ण है। खबर कृष्ण कहते हैं, अज्ञानपूर्वक। हमें मिली है कि फूल पहले तुम सूंघ लेते हो और फिर चढ़ाते हो! अज्ञान भी विधि कर सकता है, अक्सर करता है, करेगा ही; | और खबर हमें मिली है कि भोग पहले तुम लगा लेते हो, फिर और उसको कुछ उपाय भी नहीं होता। हम सारे लोग अज्ञानपूर्वक भगवान को लगाते हो! न मालूम कितनी विधियों को विकसित कर लिए हैं! बड़ा जटिल रामकृष्ण ने कहा, अपनी नौकरी सम्हालो; मैं तो ऐसे ही पूजा जाल निर्मित किया है। करूंगा। क्योंकि मेरी मां जब कुछ बनाती थी, तो पहले खुद चख बुद्ध को हम चलते देखते हैं, उठते देखते हैं, बैठते देखते लेती थी। अगर मेरे खाने योग्य ही न हो, तो मुझे नहीं देती थी। मैं हैं-हम विधि का निर्माण कर लेते हैं। हम सोचते हैं, अगर ऐसे | भगवान को बिना चखे नहीं लगा सकता हूं। अगर खाने योग्य न ही हम उठे, ऐसे ही हम चले, ऐसे ही हम बैठे, तो बुद्ध को जो हुआ | हो, तो फेंक दूंगा, फिर बनाऊंगा। लेकिन यह असंभव है कि मैं है, वह हमें भी हो जाएगा। | पहले उन्हें चढ़ा दूं और मुझे पता ही न हो कि मैं क्या चढ़ा रहा हूं! __ हम मीरा को नाचते देखते हैं, गीत गाते देखते हैं, आनंद से ___ अब यहां विधि तो पूरी टूट गई। निश्चित ही, फूल सूंघकर कैसे विभोर देखते हैं। हम सोचते हैं, मीरा ने जैसे कपड़े पहने, मीरा ने चढ़ाना! लेकिन रामकृष्ण कहते हैं, बिना सूंघे मैं चढ़ा ही नहीं जैसा तिलक लगाया, मीरा जिस मंदिर के सामने खड़ी है, मीरा ने सकता हूं। अगर फूल में सुगंध ही न हो? मुझे कैसे पता चले? जो कृष्ण की मूर्ति बनाई, मीरा का जो पूजा का ढंग है, अगर वही | | और मैं तो भगवान को वही चढ़ाऊंगा, जो मुझे प्रीतिकर हो। तो ढंग हमने भी पूरा-पूरा पाला, तो जो मीरा को मिला है, वह हमें भी | मुझे पहले पता लगा लेना होगा कि प्रीतिकर मुझे है या नहीं? मिल जाएगा! रामकृष्ण ने कहा, या तो मैं पूजा ऐसी ही करूंगा और या अपनी और यह हो सकता है कि हम मीरा की विधि का पूरा-पूरा | | नौकरी आप सम्हाल ले सकते हैं, क्योंकि नौकरी के लिए पूजा नहीं अनुगमन कर लें, लेकिन जो मीरा को मिला है, वह हमें इससे नहीं | छोड़ी जा सकती। मिल जाएगा। क्योंकि जो दिखाई पड़ रहा था, वह तो केवल ढांचा | | अब यह जो आदमी है, कृष्ण इसको कहेंगे, विधिपूर्वक है। था, आत्मा नहीं थी; जो नहीं दिखाई पड़ रही है—विधि, उपासना, | | हालांकि विधि सब टूट गई। लेकिन फिर भी इसकी विधि में एक निकट होने की क्षमता—वह ढांचा नहीं है। वह दिखाई नहीं पड़ता। | आत्मीयता है, और इसकी विधि में एक रस है, और इसकी विधि वह आंतरिक है। वह भीतरी है। में एक हार्दिक प्रेम है, और इसकी विधि में फूल महत्वपूर्ण नहीं | 306| Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * खोज की सम्यक दिशा * रहा, भोजन महत्वपूर्ण नहीं रहा, बाहरी औपचारिकता महत्वपूर्ण न | का जन्म होता है। और वह विधि विधियों जैसी नहीं होती; वैयक्तिक रही, अंतस का निवेदन महत्वपूर्ण हो गया है। यह जब खड़ा है होती है, निजी होती है, एक-एक व्यक्ति की अपनी होती है। सामने भगवान के, तो सब मिट गया बाहर का। इसके भीतर का । क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं। आंतरिक लगाव ही सब कुछ है। चढ़ाओ तुम कहीं से फूल, मुझ तक पहुंच जाते हैं; और गाओ एक दिन ऐसा हुआ कि रामकृष्ण खड़े हुए रो रहे हैं। पूजा के | तुम गीत कहीं, वह मेरे पास चला आता है; और करो तुम कुछ, फूल कुम्हला गए, पूजा के लिए जलाया गया दीप बुझ गया, और | सभी कुछ मुझे समर्पित हो जाता है। रामकृष्ण खड़े रो रहे हैं, पूजा शुरू ही नहीं हुई है। जो पूजा देखने कृष्ण यह कह रहे हैं कि मैं केंद्र हूं अस्तित्व का। तुम कहीं भी चले आए थे, वे थोड़ी देर में ऊबकर जाने लगे कि यह किस भांति कुछ करोगे-तुम्हारा बुरा भी, तुम्हारा भला भी; तुम्हारा ठीक भी, की पूजा है! दीया बुझ गया, फूल कुम्हला गए, भोग भी रखा-रखा तुम्हारा गलत भी सब मुझ तक पहुंच जाता है, तुम्हें पता हो या ठंडा हो गया, रामकृष्ण खड़े होकर आंख बंद किए रो रहे हैं। यह | न पता हो। फर्क पड़ेगा, अगर तुम्हें पता हो। तो तुम्हारी जिंदगी में कब तक चलेगा! क्रांति हो जाएगी। लोग चले गए, मंदिर खाली हो गया, आधी रात हो गई। । परंतु वे मुझ अधियज्ञ-स्वरूप परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते रामकृष्ण ने आंखें खोली, और काली के सामने लटकी थी तलवार, । उसको खींचकर निकाल लिया। और कहा चिल्लाकर कि बहुत - वे जो सारा जीवन मेरे आस-पास घूमते हैं, उन्हें तत्व से पता चढ़ाए फूल और बहुत चढ़ाया भोग, अब तक कुछ हुआ नहीं नहीं है कि वे किसकी परिक्रमा कर रहे हैं? किसका परिभ्रमण कर उससे, आज अपने को ही चढ़ाता हूं! | रहे हैं? किसके आस-पास घूम रहे हैं? घूमते रहते हैं पागल की • तलवार गर्दन के पास आ गई एक झटके में, और जैसे बिजली | तरह, पर उन्हें पता नहीं कि जहां वे घूम रहे हैं, वह प्रभु का मंदिर कौंध गई। किसने हाथ से तलवार छीन ली, पता नहीं! कैसे तलवार है, उसकी परिक्रमा है। नीचे गिर गई, पता नहीं। सुबह रामकृष्ण बेहोश मिले। बेहोश तो | - इसी से गिरते हैं, अर्थात पुनर्जन्म को उपलब्ध होते हैं। थे, लेकिन चेहरे पर उनके जो स्वर्ण-आभा आ गई थी, वह इस संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं, जो कि भारतीय कभी-कभी सदियों में एकाध आदमी के चेहरे पर आती है। चिंतन के आधार कहे जा सकते हैं। तीन दिन लगे होश में आने में। तीन दिन बाद जब होश में आए, ___ एक, भारतीय चिंतन सदा से विकासवादी है, एवोल्यूशनरी है। तो लोगों ने पूछा, क्या हुआ? रामकृष्ण ने कहा, पूजा हुई। पूजा भारतीय चिंतन मानता है कि व्यक्ति को लौट-लौटकर उसी पूरी हो गई। अवस्था में बार-बार नहीं गिरना चाहिए, क्योंकि उसका अर्थ हुआ उस दिन के बाद रामकृष्ण ने फूल नहीं चढ़ाए, उस दिन के बाद | कि उसके जीवन में कोई विकास नहीं हो रहा है। कल मैंने जो किया भोग नहीं लगाया, उस दिन के बाद दिनों बीत जाते थे, मंदिर के | था, अगर वही भूल मैं आज भी करता हूं और कल भी करता हूं, भीतर भी नहीं जाते थे। फिर तो दूसरा पुजारी रख लेना पड़ा, जो | तो मेरी चेतना में कोई विकास नहीं हो रहा है। अगर जिंदगीभर मैं जब वे नहीं आते थे, तो पूजा कर देता था। कभी-कभी रामकृष्ण | एक सर्किल में घूमता रहता हूं, बार-बार वही करता हूं, बार-बार जाते थे, और जाकर ऐसी बातचीत कर लेते थे, जैसी मित्रों के बीच वही भोगता हूं, तो मेरी जिंदगी विकासमान नहीं है, मेरी जिंदगी होती है। कोई पूछता कि आपने पूजा बंद कर दी? रामकृष्ण कहते | वर्तुलाकार है और चाक की भांति घूमती चली जाती है। विकासमान कि अपने को ही चढ़ा दिया; अब बचा नहीं वह, जो पूजा करे। । | तो वह है, जो नए को उपलब्ध होता है और पुराने को पुनरुक्त नहीं पूजा की आत्यंतिकता तो तब है, जब कोई अपने को ही समर्पित करता। रिपीटीशन नहीं करता पुराने का, तो आगे जाता है। कर देता और चढा देता है। लेकिन विधियां औपचारिक हैं. फार्मल ___ एडीसन ने अपने एक पत्र में किसी को लिखा है कि रोज सांझ हैं, बाहर हैं। कृष्ण जानते हैं भलीभांति कि यह जो देवताओं की पूजा | को सूरज से यह प्रार्थना करता हूं कि जहां तूने सुबह मुझे पाया था, चलती है, विधिपूर्वक चलती है, लेकिन उसे वे अविधि कहते हैं। | वहां सांझ मुझे मत पाना; रात यह प्रार्थना करके सोता हूं कि सूरज, इसलिए, क्योंकि अज्ञान में अविधि ही हो सकती है। ज्ञान में ही विधि | | सांझ तू मुझे जहां छोड़ गया है, कुछ ऐसा हो कि सुबह तू मुझे वैसा 307 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 ही न पाए, कुछ बदल जाए, कुछ नया हो जाए। बुद्ध और महावीर ने एक अनूठा प्रयोग अपने साधकों के लिए लेकिन जैसा हमारा मन है, वह पुनरुक्त करता है। मन | | खोजा था। वे तब तक किसी व्यक्ति को साधना में नहीं ले जाते थे, रिपिटीटिव है। मन की कुछ बातें मैंने आपसे पीछे कही हैं। यह बात | | जब तक उसको पिछले जन्मों का स्मरण न करा दें। भी आप खयाल में ले लें कि मन एक रिपीटीशन, एक पनरुक्ति | बुद्ध से कोई पूछता है कि पिछले जन्म को स्मरण करने से क्या है। वही-वही रोज करता है। एक घेरा बना लेता है। जैसे छोटे प्रयोजन है? मैं तो अभी शांत होना चाहता है. उसका मझे कोई बच्चों की रेलगाड़ी होती है, एक गोल पटरी पर चलती है। चाबी | | रास्ता बताइए। बुद्ध ने कहा कि इसलिए, कि पहले भी पिछले भर दी, पटरी का चक्कर लगा लेती है। चाबी चुक गई, फिर चाबी | | जन्मों में तू यह बात किन्हीं और बुद्धों से कह चुका है कि मैं शांत भर दी, फिर पटरी का चक्कर लगा लेती है। हमारी चाबी चुकती | | होना चाहता हूं, मुझे कोई रास्ता बताइए। और रास्ते तुझे पिछले रहती है। रोज हम भरते रहते हैं भोजन से। चक्कर रोज पूरा होता | जन्मों में भी बताए गए हैं, कभी तूने उनका पालन नहीं किया। तो रहता है। फ्यूल डाल दिया, ईंधन डाल दिया शरीर में, वह अपना | तू मेरा समय नष्ट मत कर। मैं तुझे रास्ता बताऊंगा; पहले भी दूसरे रोज का चक्कर पूरा कर लेता है। बुद्धों से तूने रास्ते इसी तरह पूछे हैं, कभी तूने उनका पालन नहीं कभी आप अपने चौबीस घंटे के वर्तुल का अध्ययन करें, तो | | किया। तू सिर्फ अपनी आदत दोहरा रहा है। तू वही करेगा, जो तूने आप बहुत चकित हो जाएंगे कि रोज-रोज आप वही करते हैं। | पीछे किया था। इसलिए पहले मैं तुझे याद दिला दूं। तू अपने रोज-रोज! दो-चार जन्मों का पहले स्मरण कर ले, ताकि तुझे साफ हो जाए मेरा मतलब यह नहीं है कि रोज आप अलग-अलग दफ्तर में | | कि तू उसी वर्तुल को फिर से तो नहीं दोहरा रहा है! . जाएं। यह भी मतलब नहीं है कि रोज-रोज नई दुकान खोलें। दुकान | उस आदमी को बात समझ में पड़ी। एक वर्ष तक वह बुद्ध के तो वही रहेगी, दफ्तर वही रहेगा। नहीं, लेकिन रोज-रोज आपके पास पिछले जन्मों के स्मरण के लिए रुका। हैरान हुआ। पिछले मन की जो चित्त-दशाएं हैं, वे भी वही होती हैं। चौबीस घंटे में | | जन्म में भी जब उसकी पत्नी मरी थी, तभी वह एक बुद्धपुरुष के आपको कितनी बार क्रोध करना है, उतनी बार आप रोज कर लेते | पास गया था! उसके पहले भी उसकी पत्नी जब मरी थी, तब वह हैं। कितनी बार उत्तेजित होना है, आप उतनी बार उत्तेजित हो लेते | एक बुद्धपुरुष के पास गया था! और अभी भी इस जन्म में उसकी हैं। कितनी बार दुखी होना है, आप उतनी बार दुखी हो लेते हैं। कई पत्नी मर गई थी, तो वह फौरन बुद्ध के पास आ गया था, कि मेरा बार आप चकित भी होते हैं कि अभी तो दुख का कोई कारण नहीं | | मन बड़ा अशांत है, मुझे शांति चाहिए! और मजा यह है कि पहले था, मैं दुखी क्यों हो रहा है? जन्म में भी शांति की तलाश करते-करते नई स्त्री के मोह में पड़ वक्त आ गया! जैसे वक्त पर चाय पीनी पड़ती है, या सिगरेट | गया था। और दूसरे जन्म में भी शांति की तलाश करने गया था पीनी पड़ती है, वैसे ही वक्त पर दुखी भी होना पड़ता है। वक्त आ | और एक भिक्षुणी के प्रेम में पड़ गया था। गया। भीतर से दशा लौट आई। तब वह बहुत घबड़ाया। उसने बुद्ध से कहा कि यह क्या है? मन चौबीस घंटे दोहराए चला जाता है यंत्रवत। इस मन के | | यह मैं कर रहा हूं या मुझसे जबरदस्ती करवाया जा रहा है? - दोहराने को अगर हम लंबा फैलाएं पूरे जीवन के विस्तार पर, तो | बुद्ध ने कहा, अगर तू जानता नहीं है, तो तू करता ही चला इसके कई वर्तुल हैं। रोज घूमता है, वर्ष प्रतिवर्ष घूमता है, फिर | | जाएगा। क्योंकि तुझे पता ही नहीं है कि तू सिर्फ दोहर रहा है, तू जीवन से दूसरे जीवन में घूमता चला जाता है। इसको पुनर्जन्म | | सिर्फ पुनरुक्ति कर रहा है। लेकिन स्मरण नहीं है, इसलिए हम कहता है भारत। बार-बार वही दोहरा लेते हैं; बार-बार वही दोहरा लेते हैं। भारत कहता है कि आदमी जैसा है, अगर वह अपने को | । छोड़ें, पिछले जन्म का स्मरण तो थोड़ा कठिन पड़ेगा, लेकिन रोज-रोज विकासमान न करे, तो वह फिर पूरा का पूरा जीवन वापस | | रोज का तो स्मरण है; बीता कल तो आपको पता है। कल भी दोहर जाएगा। जन्म के बाद हम मृत्यु तक जहां तक पहुंचे हैं, मृत्यु | आपने जिस बात पर क्रोध किया था, और पछताए भी थे कि अब हमें वापस पुरानी जगह पर खड़ा कर देगी; हम फिर से जन्म शुरू | | क्रोध नहीं करूंगा, आज भी उसी बात पर क्रोध किया है और आज कर देंगे; फिर वही का वही, फिर वही का वही। भी पछताए हैं कि क्रोध नहीं करूंगा! और आज भी आप सोच रहे 308 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *खोज की सम्यक दिशा * हैं कि अब कल क्रोध नहीं होगा, क्योंकि मैं पछता लिया हूं। लेकिन क्रोध के कारण एक गड्ढे में पड़ गए थे, क्रोध के कारण थोड़ी पछताए तो आप कल भी थे, परसों भी थे। दीनता आ गई थी। क्रोध के कारण मन को लगा कि उतना अच्छा आप सिर्फ पुनरुक्त कर रहे हैं। क्रोध भी करते हैं, पछता भी लेते आदमी नहीं हूं, जितना दावा करता था। पछतावा करके वापस हैं। फिर क्रोध करते हैं, फिर पछता लेते हैं। अपनी जगह खड़ा हो गया, उसी जगह, जहां क्रोध के पहले था। एक मित्र मेरे पास आते हैं; क्रोधी हैं। ऐसे तो कौन नहीं है; थोड़े। | अब आप फिर क्रोध कर सकते हैं, क्योंकि उसी जगह से आपने ज्यादा हैं। कहते हैं कि किसी तरह मेरा क्रोध छट जाए। बहत क्रोध किया था। पछताते हैं, रोते हैं, छाती पीटते हैं—जब क्रोध कर लेते हैं। मन एक पुनरुक्ति है। और मन के आधार पर जीने वाला आदमी मैंने उनसे कहा, क्रोध की फिक्र छोड़ो; तुम पछताना बंद कर दो। | अपने पूरे जीवन को एक पुनरुक्ति बना लेता है, जस्ट ए एक काम करो। तुम जिंदगीभर से क्रोध छोड़ने की कोशिश कर रहे | | रिपीटीशन, ए मैकेनिकल रिपीटीशन; यंत्रवत घूमते चले जाते हैं। हो, वह तो नहीं छूटा; तुम मेरी मानो, क्रोध की फिक्र छोड़ो, तुम इसका जो बड़े से बड़ा वर्तुल है, वह पूरा जीवन है। सिर्फ भारत को पछताना बंद कर लो। एक बात पक्की कर लो कि अब क्रोध होगा, इस बात का खयाल आ पाया। तो पछताऊंगा नहीं। __ भारतीय धर्मों के अतिरिक्त दुनिया का कोई धर्म पुनर्जन्म का उन्होंने कहा, आप कैसे खतरनाक आदमी हैं! मैं आया हूं क्रोध | | खयाल नहीं करता, रि-बर्थ का खयाल नहीं करता। क्योंकि भारत छोड़ने, आप मेरा पछतावा भी छुड़ा देना चाहते हैं। फिर तो मैं | के अलावा दुनिया के किसी धर्म ने मनुष्य के मन की इस कीमिया महानर्क में पड़ जाऊंगा। को ठीक से नहीं समझा कि अगर मनुष्य का मन पुनरुक्त करता है, मैंने उनसे कहा, कोई भी तो आदत तोड़ो। अगर क्रोध की नहीं | | तो पूरा जीवन भी एक वृहदकाय वर्तुल होगा और आदमी फिर टूटती, पछतावे की तोड़ो; सर्किल टूट जाएगा; पछतावा ही तोड़ो। पुनरुक्त करेगा! और हमने बार-बार किया है! तो दूसरे क्रोध को आने का मौका नहीं रहेगा, क्योंकि बीच की एक | ___ हम बार-बार उसी तरह लोभ में पड़े हैं, अनेक जन्मों में। सीढ़ी हट गयी। अब तक की व्यवस्था यह है तुम्हारी-क्रोध, बार-बार उसी तरह वासना में गिरे हैं, अनेक जन्मों में। बार-बार पछतावा; क्रोध, पछतावा; क्रोध। यह तुम्हारा सर्किल है। कहीं से | मकान बनाए, धन कमाया, पद कमाया। बार-बार असफल हुए, भी सर्किट तोड़ो, कहीं से भी तार को अलग खींच लो। क्रोध से | | अनेक जन्मों में। और हर बार फिर वही, हर बार फिर वही! नहीं खींच सकते, पछतावे से खींच लो। अगर पछतावा नहीं कर | | कृष्ण कहते हैं कि ऐसे जो देवताओं को भजते हैं, बिना मुझे पाए; तो मैं वचन देता हूं कि दूसरा जो क्रोध इसके पीछे आना जाने, अर्थात जो अपनी वासनाओं को ही उपासना बना लेते हैं, जो चाहिए, उसके लिए रास्ता नहीं मिलेगा। किसी मांग से प्रार्थना करते हैं, वे बार-बार गिरते हैं और पुनर्जन्म यह आप चकित होंगे जानकर कि आप इसलिए नहीं पछताते हैं | को उपलब्ध होते हैं। कारण यह है कि देवताओं को पूजने वाले कि आप जानते हैं कि क्रोध बुरा है। आप इसलिए पछताते हैं, ताकि देवताओं को प्राप्त होते हैं। क्रोध की पहली अवस्था फिर से पा ली जाए, और फिर से आप __यह बहुत कीमती सूत्र है। क्रोध करने में समर्थ हो जाएं। कारण यह है कि पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। पछतावा जो है, वह क्रोध की ट्रिक है। पछतावा जो है, कारण यह है कि भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं। कारण पश्चात्ताप जो है, वह क्रोध की होशियारी है; वह अहंकार की | | कि व्यक्ति जो भी पूजता है, अंततः वही हो जाता है। और व्यक्ति उस्तादी है, चालाकी है। जब आप क्रोध कर लेते हैं, तो आपको | | जो भी पूजता है, अंततः उससे ऊपर नहीं जा सकता। कोई भी लगता है, उतना अच्छा आदमी नहीं हूं, जितना मैं अपने को | | व्यक्ति अपने श्रद्धेय से ऊपर नहीं जा सकता। समझता था। पछतावा करके आप फिर समझते हैं कि उतना ही इसे थोड़ा हम समझ लें। अच्छा आदमी हैं, अपने को समझता था। अहंकार अपना आप जिसको श्रद्धा करते हैं. वह आपका मैक्सिमम. आपका पुराना लेबल फिर से पा लेता है; वहीं पहुंच जाता है, जहां क्रोध के श्रेष्ठतम, अंतिम बिंदु हो गया। श्रद्धा जरा सोचकर करना, क्योंकि पहले था। | श्रद्धा आपके भविष्य की लकीर हो जाएगी। जिसको आप श्रद्धा | 309| Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4% करते हैं, उससे ऊपर आप कभी नहीं जा सकते हैं। आपकी श्रद्धा | डांवाडोल करो! यह थोड़ा डांवाडोल हो जाए, तो मेरा सिंहासन आपका अंतिम बिंदु बन जाती है। वह आपके व्यक्तित्व के विकास स्थिर हो जाए। का लक्ष्य हो जाती है। तो आदमी जिसको पूजता है, अनजाने तय जो भी सिंहासन पर है, वह सदा डरा हुआ रहेगा ही; घबड़ाया कर रहा है कि यही मैं होना चाहता हूं। रहेगा। ध्यान रखें, आज अगर सड़क से एक संन्यासी जा रहा हो, तो | मैंने सुना है, इटली में एक बहुत पुराना मंदिर है; अभी भी है। कोई भीड़ नहीं लग जाती उसके आस-पास। कभी लगती थी। | उसकी बड़ी पुरानी कथा है और बड़ी हैरानी की है। उस मंदिर का आज से दो हजार साल पीछे, बुद्ध अगर गांव से गुजरते, संन्यासी | | इतिहास अनूठा है। एक पहाड़ की तलहटी में एक छोटी-सी झील गांव से गुजरता, तो भीड़ लग जाती थी। सारा गांव इकट्ठा हो जाता | || के पास वह मंदिर है, एक बड़े वृक्ष के नीचे। उस मंदिर का जो था। क्योंकि चाहे कोई दुकान कर रहा हो, चाहे कोई खेती कर रहा । पुजारी है, वह दुनिया के इतिहास में अनूठे ढंग का पुजारी है। उस हो, अंतिम श्रद्धा यही थी कि एक दिन मुझे भी संन्यासी हो जाना | | मंदिर का पुजारी बनने का एक ही उपाय है; अगर कोई व्यक्ति है। चाहे न हो पाए; तो इसकी पीड़ा रह जाएगी, दंश रह जाएगा। | मौजूद पुजारी की हत्या कर दे, तो ही वह व्यक्ति वहां का पुजारी लेकिन आज संन्यासी को देखकर कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होती। हां, बन सकता है। अभिनेता निकलता हो, तो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। वह हमारी श्रद्धा तो तलवार लिए पुजारी खड़ा रहता है चौबीस घंटे। क्योंकि पूरे है। वही हम होना चाहते हैं। भला न हो पाएं, भला न हो पाएं, होना | वक्त सोना मुश्किल हो जाता है। सो नहीं सकता। सोए, कि गए। वही चाहते हैं। | जिंदगी हराम हो जाती है; क्योंकि पूरे वक्त...। और कोई नहीं है जो हम होना चाहते हैं, वह हमारा श्रद्धा-पात्र हो जाता है। | उस जंगल में, उस वृक्ष के नीचे एक पुजारी अपनी तलवार लिए श्रद्धा-पात्र का अर्थ है, वह मेरे भविष्य की तस्वीर है; यही मैं होना | | अपनी रक्षा करता रहता है। और आज नहीं कल, उसे पता है कि चाहता हूं। और जो व्यक्ति जिसको श्रद्धा करता है, धीरे-धीरे वैसा | | मौत तो होगी ही। क्योंकि वह भी इसी तरह पुजारी बना है! वह भी ही हो जाता है। हो ही जाएगा, क्योंकि श्रद्धा से हमारी आत्मा निर्मित | किसी को इसी तरह मारा है, तभी पुजारी बना है। और यह सतत होती है, और श्रद्धा हमारी आत्मा का गठन करती है, और श्रद्धा | परंपरा है। कोई उसे मारेगा और पुजारी बनेगा। और जो बनेगा हमारी आत्मा को रूपांतरित करती है। श्रद्धा सोचकर करना! बहुत | | पुजारी, वह भलीभांति जानता है कि वह जिस जगह जा रहा है, वहां होशियारी से, बहुत बुद्धिमानी से। क्योंकि श्रद्धा ढांचा बनेगी, | तलवार लिए खड़े रहना है, और कोई उसकी हत्या करेगा। जिसमें अंततः आप ढल जाएंगे। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है! सभी पदों की हालत ऐसी ही है। जो तो कृष्ण कहते हैं, जो देवताओं को पूजते हैं, वे देवताओं को | | भी वहां पहुंचता है, किसी को मारकर, हटाकर, परेशान करके प्राप्त होते हैं। पहुंचता है। पहुंचते से ही फिर उसको चौबीस घंटे तलवार लिए लेकिन देवता तो स्वयं ही वासनाओं से घिरे हुए जीते हैं! चाहे | खड़े रहना पड़ता है; क्योंकि जिस रास्ते से वह आया है, उसी रास्ते इंद्र हो, तो भी वासनाओं से भरा हुआ जीता है! हम सबको कथाएं | | से दूसरे भी आएंगे। और उसे पक्का मालूम है कि वह सदा वहां पता हैं कि अगर पृथ्वी पर कोई आदमी बहुत तपश्चर्या करे, तो इंद्र | नहीं रह सकता; कोई आएगा पीछे। क्योंकि अगर सदा वहां कोई का सिंहासन डोलने लगता है। इसका मतलब यह है कि ईर्ष्या से | | रह सकता होता, तो वह खुद भी वहां नहीं पहुंच सकता होता। कोई वह भर जाता है, क्योंकि उसे डर होता है कि कोई दूसरा समर्थ | | और ही रहा होता। वह पहुंच गया; कोई और पहुंच जाएगा। आदमी इंद्र होने की स्थिति में आया जा रहा है। अगर यह सफल | | हर पद के पास, हर धन के पास, हर प्रतिष्ठा के, हर सिंहासन हो गया तपश्चर्या में, तो मुझे पद से हट जाना पड़ेगा, और यह | | के पास मौत की घबड़ाहट है। इंद्र घबड़ाया हुआ है; देवता घबड़ाए आदमी मेरे पद पर बैठ जाएगा। | हुए हैं। वासना से भरे हुए हैं, इच्छाओं से भरे हुए हैं। तो इंद्र बेचारा चौबीस घंटे अपने सिंहासन को बचाने में ही लगा। कृष्ण कहते हैं कि देवताओं को पूजकर ज्यादा से ज्यादा अगर हुआ है! कहीं कोई तपश्चर्या करे, कठिनाई उसे होती है! भेजता है कोई आदमी पूरी तरह सफल हो गया, तो देवता हो जाएगा, इससे उर्वशियों को, अप्सराओं को कि जाकर भ्रष्ट करो! इस आदमी को ऊपर नहीं जा सकता! 3101 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोज की सम्यक दिशा लेकिन देवता कोई बहुत ऊंची अवस्था नहीं है। यह भी बहुत हैरानी की बात है कि भारत अकेला देश है, जो देवताओं की अवस्था को बहुत ऊंची अवस्था नहीं मानता ! और यह भी मानता है कि देवताओं को भी अगर मुक्त होना हो, तो उन्हें पहले मनुष्य होना पड़ेगा। मनुष्य चौराहा है। देवता का एक रास्ता है, मनुष्य से जाता है आगे। मालूम पड़ता है, आगे जाते। लेकिन अगर देवता को भी मुक्त होना है, तो उसे वापस चौराहे पर लौटकर मुक्ति का रास्ता पकड़ना पड़ेगा। मनुष्य चौराहा है, क्रास रोड है। पशु भी अगर मुक्त होना है, तो मनुष्य होना पड़ेगा; देवता को भी मुक्त होना है, तो मनुष्य होना पड़ेगा। एक अर्थ में देवता ऊपर मालूम पड़ सकता है, क्योंकि ज्यादा सुख में है। लेकिन एक अर्थ में नीचे है, क्योंकि देवता की स्थिति से अंतिम ट्रांसफार्मेशन, अंतिम क्रांति नहीं हो सकती; उसे मनुष्य तक वापस लौटना पड़ेगा। मनुष्य से ही कोई क्रांति संभव है। इस अर्थ में भी भारत ... देवताओं के पास मनुष्य से ज्यादा शक्ति है, ज्यादा उम्र है, ज्यादा इच्छाओं की पूर्ति का साधन है, ज्यादा सुख है – सब कुछ है— लेकिन आत्मक्रांति का उपाय नहीं है। उन्हें वापस लौट आना पड़ेगा। इसलिए भारत ने मनुष्य को एक अर्थ में चरम माना है। मनुष्य की इतनी गरिमा दुनिया में कहीं भी नहीं है। इस अर्थ में चरम माना है कि सिर्फ मनुष्य की ही आत्मा में मुक्त होने की आत्यंतिक घटना घट सकती है; परम स्वतंत्रता और प्रभु का दर्शन मनुष्य के साथ ही घटित हो सकता है। पशु के साथ नहीं हो सकता, क्योंकि वे भी अज्ञान में हैं; और देवताओं के साथ भी नहीं हो सकता, क्योंकि वे अज्ञान में हैं। पशु दुख में होगा, देवता सुख में होंगे; लेकिन दोनों अज्ञान में हैं। मनुष्य के साथ घटना घट सकती हैं तीनों । भारत कहता है कि मनुष्य नीचे गिरना चाहे, तो पशुओं से नीचे गिर सकता है; ऊपर उठना चाहे, तो देवताओं से पार जा सकता है; और मुक्त होना चाहे, तो समस्त घेरे के बाहर छलांग लगा सकता है। कृष्ण कहते हैं, जो पूजा करेगा पितरों की, वह पितरों को प्राप्त हो जाएगा। जो भी पूजा होगी, अगर सफल हो गए, तो वही हो जाओगे। और मेरे भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं है। मेरे भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं ! जो मुझे भजता है, वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे मुझमें ही एक हो जाता है। सिर्फ परमात्मा की पुनरुक्ति नहीं होती, बाकी सब चीजें पुनरुक्त होती हैं। सिर्फ परमात्मा का कोई रिपीटीशन नहीं होता, बाकी सब | चीजें दोहरती हैं। जो शाश्वत है, वही पुनरुक्त नहीं होता। इसे समझना कठिन पड़ेगा; पर दो-तीन बातें खयाल में लें, तो शायद समझ में आ जाए। दुनिया में सब चीजें नई होती हैं, क्योंकि सभी चीजें पुरानी पड़ जाती हैं। जो भी नई है, वह कल पुरानी हो जाएगी। जो आज पुरानी है, ध्यान रखना, वह कल नई थी। सिर्फ परमात्मा न नया है और | न पुराना। वह सिर्फ है। वह कभी पुराना नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह कभी नया नहीं था। जो चीज नई है, वही पुरानी हो सकती है। जो नई नहीं है, उसके पुराने होने का कोई उपाय न रहा । तो परमात्मा न नया है, न पुराना । इसलिए हमने एक अलग शब्द गढ़ा है; वह है सनातन, वह है शाश्वत, वह है अनादि, अनंत । इस भाषा में हमने उसे कहा | है कि वह सदा है। परमात्मा पुराना नहीं होता, नया नहीं होता; बस होता है। जो चीज नई है, वह कल पुरानी हो जाएगी। और जब पुरानी हो | जाएगी, तो फिर नए होने लिए संभावना शुरू हो जाएगी। जो चीज पुरानी है, वह कल पुरानी हो - होकर नष्ट हो जाएगी, खो | जाएगी; फिर नए होने का मौका मिल जाएगा। दुनिया में सब चीजें दोहरती रहती हैं। कई दफे बहुत हैरानी की | बातें होती हैं। अगर आप दुनिया के फैशन का इतिहास देखें, तो बहुत चकित हो जाएंगे ! दस-पांच साल में फैशन वापस आ जाते हैं। जिन कपड़ों को दस-पांच साल पहले पुराना समझकर छोड़ | दिया, दस-पांच साल बाद वे लौट आते हैं। जिन बालों के ढंग को | दस-पांच साल पहले पुराना समझकर छोड़ा था, दस-पांच साल | बाद वे वापस लौट आते हैं! दस-पांच साल काफी वक्त है। पुरानी चीजें भूल जाती हैं, फिर नई हो जाती हैं। और आदमी की स्मृति इतनी कमजोर है कि वह देख ही नहीं पाता, वह खयाल भी नहीं कर पाता कि हम क्या कर | रहे हैं ! फिर वही चुनकर ले आता है, फिर वही चुनकर ले आता है । आदमी के मन के साथ नए और पुराने का खेल चलता रहता है, पुनरुक्ति चलती रहती है। कृष्ण कहते हैं, जो मुझे उपलब्ध होता है, वह पुनर्जन्म को | उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि वह शाश्वतता के साथ एक हो गया। 311 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* इसका दूसरा अर्थ भी है। पुनर्जन्म तो उसका ही होता है, जो | बहुत की होगी, लेकिन कोई ग्रोथ, कोई विकास, कोई बढ़ती उनके समझता हो कि मेरा जन्म होता है। और जो समझता है कि मेरा जन्म| | भीतर नहीं हुई। वापस उसी क्लास में लौटा दिए गए। होता है, फिर उसे मृत्यु की भी पीड़ा भोगनी पड़ती है। परमात्मा को जीवन तभी हमें वापस भेजता है किसी स्थिति में, जब हम उससे जो जानने लगता है, वह तो जानता है कि न मेरा जन्म होता है और | बिना कुछ सीखे गुजर जाते हैं। जिस स्थिति से आप बिना सीखे न मेरी मृत्यु होती है। तो जन्म और मृत्यु साधारण घटनाएं रह जाती | गुजर जाएंगे, आपको वापस लौटना पड़ेगा। सिर्फ उसी स्थिति में हैं, हवा के बबूलों की तरह। और वह तो जन्म के भी पहले होता आप वापस नहीं लौटेंगे, जिससे आप सीखकर गुजर जाएंगे। है और मृत्यु के भी बाद होता है। अब उसका कोई जन्म और मृत्यु लेकिन हम हर चीज से बिना सीखे गुजर जाते हैं! कितनी बार नहीं होती। | क्रोध किया-सीखा क्या? कितनी बार प्रेम किया-सीखा क्या? बुद्ध से कोई पूछता है, मरने के दिन, कि क्या आप मृत्यु के बाद | | कितनी बार कामवासना में डूबे-सीखा क्या? कितनी बार ईर्ष्या कहीं होंगे या बिलकुल खो जाएंगे? तो बुद्ध कहते हैं, अगर मैं मृत्यु | की-सीखा क्या? कितना लोभ किया-जिंदगी में बहुत कुछ के पहले कहीं था, तो रहूंगा। अगर पहले ही खो गया, तो पीछे भी | किया-सीखा क्या? संपत्ति क्या है? सार क्या है? हाथ में निचोड़ बचेगा क्या? क्या है? सुनने वाले की समझ में नहीं आया है, उसने फिर दूसरी तरह से | | अगर निचोड़ कुछ भी नहीं है, तो आपको लौटना पड़ेगा। पूछा। उसने पूछा कि छोड़ें, यह जरा कठिन है। मैं यह पूछता हूं, जिंदगी किसी को क्षमा नहीं करती, जिंदगी फिर अवसर देगी। जन्म के पहले आप कहीं थे या जन्म के बाद ही आप हुए? जिंदगी फिर कहेगी कि वापस उसी जगह लौट जाओ! . बुद्ध ने कहा, अगर जन्म के पहले मैं कहीं था, तो जन्म के बाद | और हम ऐसे हैं कि बार-बार लौटकर हम पुख्ता होते चले जाते भी कहीं रहूंगा; और अगर जन्म के बाद भी कहीं नहीं था, तो जन्म | हैं। धीरे-धीरे हमको लगता है कि इस क्लास में वापस आना, यह के पहले भी कहीं नहीं था। | तो अपना घर है। उसमें हम वापस आए चले जाते हैं। सीखना पर उस आदमी की समझ में नहीं आया। उसने कहा, पहेली में | | शायद और मुश्किल होता चला जाता है। हम अभ्यासी हो जाते हैं। मत जवाब दें। मुझे सीधा-सीधा कहें। तो बुद्ध ने कहा, जिसे तुम | हम अभ्यासी हो जाते हैं। और हममें जो अभ्यासी हैं, वे कभी-कभी देखते हो, वह तो जन्म के साथ पैदा हुआ है और मृत्यु के साथ मर | आगे निकल जाते हैं। मैं जानता हूं। जाएगा। लेकिन जिसे मैं देखता हूं, वह कभी पैदा नहीं हुआ और | | मैं एक क्लास में नया-नया पहुंचा; बाकी सब विद्यार्थी तो एक कभी मरेगा भी नहीं। लेकिन वह देखना आंतरिक है, वह देखना | | ही उम्र के थे, एक विद्यार्थी बहुत उम्र का था। तो मैंने शिक्षक को भीतर है। वह सिर्फ मैं ही देख सकता हूं; तुम्हें वह दिखाई नहीं | पूछा, तो उन्होंने कहा कि यह छः साल से इसी क्लास में हैं, लेकिन पड़ेगा। तुम भी देख सकते हो, अगर तुम अपने भीतर देखने में | अब कैप्टन हो गए हैं। क्लास के कैप्टन हैं! और वह लड़का समर्थ हो जाओ। अकड़कर खड़ा था। निश्चित ही। छः साल वापस उसी क्लास में लेकिन हम सबका देखना बाहर है। बाहर जो हमें दिखाई पड़ता | | लौटने का चुकता परिणाम इतना हुआ है कि वे अब कैप्टन हो गए है, वह तो जन्म और मृत्यु का घेरा है। भीतर कोई हमारे जरूर छिपा | | हैं! अब वे उस क्लास से शायद जाना भी न चाहें; क्योंकि दूसरी है, जो न जन्मता है और न मरता है। उसकी अगर पहचान हो जाए, | क्लास में कैप्टन वे न हो पाएंगे। तो फिर कोई पुनर्जन्म नहीं है, फिर कोई लौटना नहीं है। | इस जिंदगी में भी जो बहुत तरह के कैप्टन दिखाई पड़ते लौटने को एक तीसरी तरह से भी समझें। हैं—राजनीति में, धन में, यहां-वहां-उनमें अधिक लोग इसी अगर कुछ बच्चे एक क्लास में पढ़ रहे हों, और हर साल उन्हें | | तरह के हैं, जो पुख्ता हो गए हैं, मजबूत हो गए हैं, दोहर-दोहरकर वापस परीक्षा के बाद उसी क्लास में भेज दिया जाए, तो इसका क्या | | जिंदगी में इतने यंत्रवत मजबूत हो गए हैं, कि जो नए बच्चे आ रहे मतलब होगा? इसका एक ही मतलब होगा कि पढ़ा-लिखा उन्होंने | | होंगे जिंदगी में, उनके सामने, कोई राष्ट्रपति, कोई प्रधानमंत्री, कोई बहुत होगा, लेकिन गुना बिलकुल नहीं; पढ़ा-लिखा बहुत होगा, | | कुछ होकर खड़ा हो जाता है। उनसे अगर कहो भी कि जन्म-मरण लेकिन समझा बिलकुल नहीं; पढ़ा-लिखा बहुत होगा, मेहनत से छुटकारा, वे कहेंगे कि नहीं, हम तो बार-बार किसी तरह इसी 1312 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * खोज की सम्यक दिशा * पद पर लौटते रहें, यही आकांक्षा है! | समान ढो रहे हैं, जमीन पर ही। हवाई जहाज से हम चाहें तो ठेले जिंदगी में जो कई बार सफल दिखाई पड़ते हैं, उनका एक ही | | | का काम भी ले सकते हैं, लारी का, ट्रक का। और अगर हवाई कारण हो सकता है गहरे में कि जिंदगी के असली लक्ष्य से वे | | जहाज के पायलट को खयाल ही न हो कि यह हवाई जहाज जमीन असफल हो गए हैं। मगर यह बड़ा कठिन है समझना। जो जिंदगी | को छोड़कर भी उड़ सकता है, तो बेचारा जमीन पर ही ट्रक का काम में तथाकथित सफलता दिखाई पड़ती है, सो-काल्ड सक्सेस, | | करता रहेगा; जमीन पर ही सामान ढोता रहेगा! इसके पीछे जिंदगी की बड़ी गहरी असफलता कारण हो सकती है! | ध्यान रहे, ट्रक तो आकाश में नहीं उड़ सकता, लेकिन हवाई बहुत बार लौट-लौटकर इसी जगह वे काफी ज्ञानी और जहाज जमीन पर चल सकता है। श्रेष्ठ में निकृष्ट तो समाया होता अनुभवी हो गए हैं। इसी क्लास में उन्हें सब रट गया है, सब है, लेकिन अगर आप निकृष्ट के आदी हो जाएं, तो श्रेष्ठ का कंठस्थ हो गया है; कुशल, चालाक हो गए हैं। यद्यपि अनुभव उन्हें | खयाल ही मिट जाता है। कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि अनुभव हो जाए तो लौटने का कोई | परमात्मा के स्मरण का इतना ही अर्थ है, उसकी पूजा का इतना उपाय नहीं है। ही अर्थ है, कि तुम्हीं हो मेरे गंतव्य, कि जब तक मैं तुम्ही न हो जिस चीज को हम जान लेते हैं, हम उसको ट्रांसेंड कर जाते हैं; | जाऊं, तब तक मेरे लिए कोई भी ठहराव नहीं है; तुम्ही हो मुकाम, उसके पार निकल जाते हैं। लेकिन जो आदमी परमात्मा को ही जान और जब तक तम्हीं न मिल जाओ, तब तक मेरे लिए कोई पड़ाव लेगा, फिर तो उसके कहीं भी लौटने का कोई उपाय न रहा, क्योंकि । | पड़ाव नहीं है। रुकूँगा, रातभर ठहरूंगा, सिर्फ इसलिए कि सुबह जीवन की अंतिम शिक्षा पूरी हो गई। चल सकू! रुकुंगा, विश्राम कर लूंगा, सिर्फ इसलिए कि पैर थक परमात्मा का अर्थ है, जीवन का अंतिम निष्कर्ष, अस्तित्व का | गए; और पैरों की ताकत लौट आई तो फिर चल पडूंगा। सार, अस्तित्व का केंद्र; अस्तित्व का आखिरी कमल खिल गया; __ लेकिन हम भी, चलते तो हम भी बहुत हैं, लेकिन हमारा चलना अस्तित्व ने आखिरी गीत गा लिया; अस्तित्व ने आखिरी नृत्य देख | ऐसा है कि जिस जमीन पर हम बार-बार चल चुके हैं, हम उसी पर लिया; अस्तित्व की जो गहनतम संभावना थी, वह अभिव्यक्त हो | लौट-लौटकर चलते रहते हैं। एक ही जगह को हम कई बार पार गई; अब लौटने का कोई उपाय न रहा। करते रहते हैं। हमारी जिंदगी गति नहीं करती; जैसे कि मालगाड़ी __ तो परमात्मा जो है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है। वहां से आप | | के डब्बे शंटिंग करते हैं स्टेशन पर, वैसी हमारी जिंदगी है, ही गिर सकते। और जहां से भी आप वापस गिर सकते | | वहीं-वहीं शंटिंग करते रहते हैं। कहीं कोई अंतिम मुकाम नहीं हैं, वहां तक जानना कि परमात्मा नहीं है, वहां तक संसार है। और आता। बस, दौड़-धूप में, आखिर में यह शंटिंग होते-होते हम जहां से भी आप वापस गिर सकते हैं, तो समझ लेना कि आप टूटते और चुक जाते हैं। छलांग लगाकर उचकने की कोशिश किए होंगे, लेकिन वह नई पुनर्जन्म का अर्थ है, शंटिंग। उसका अर्थ है कि यात्रा पर नहीं अवस्था आपके लिए सहज नहीं थी। आप अपनी पुरानी अवस्था निकल पा रहे हैं आप। फिर वहीं लौट आने का अर्थ है कि आगे में गिर गए हैं। कोई गति नहीं सूझ रही है आपको। . एक आदमी छलांग लगाए आकाश में, तो क्षणभर के लिए उचक __ कृष्ण कहते हैं, लेकिन जो मुझे भजता है, वह फिर नहीं लौटता सकता है। फिर जमीन खींच लेगी। अपनी जगह फिर खड़ा हो है। क्योंकि वह भजन अंतिम है। जाएगा। अगर आकाश में छलांग ही लगानी हो, तो फिर जमीन का | परमात्मा अंतिम निष्कर्ष है-आखिरी, दि अल्टिमेट, परम। गुरुत्वाकर्षण तोड़ने का कोई उपाय करना पड़ेगा। हवाई जहाज कोई | उसके पार कुछ नहीं है। या हम ऐसा कहें, जिसके पार हमारी कोई उपाय करता है, तो जमीन के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाता है, या | समझ नहीं जाती, वही परमात्मा है। जिसके पार हम सोच भी नहीं जमीन के गुरुत्वाकर्षण के रहते भी आकाश में सदा रह जाता है। | सकते; जिसके अतीत और जिसके पार की कल्पना भी नहीं बनती, __ हम सब ऐसे हवाई जहाज हैं, जिनको यह पता ही नहीं है कि हम | | वही परमात्मा है। जमीन के गुरुत्वाकर्षण से ऊपर उठ सकते हैं। और हमारा उपयोग । इस परमात्मा के भजने, इस परमात्मा के पूजने का क्या अर्थ? लोकवाहक की तरह, पब्लिक कैरियर की तरह किया जा रहा है! कैसे कोई पूजेगा? 313 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* तीन बातें अंत में आपसे कहूं। किसी चेष्टा से कहता है। तुम शायद ज्यादा क्रोध से भर गए हो कि एक, जीवन को पुनरुक्ति न बनने दें; स्मरणपूर्वक पुनरुक्ति से गाली भी कम पड़ती होगी; तुमने थूककर कहा। मैं समझ गया। बचें। डोंट गो ऑन रिपीटिंग; दोहराए मत चले जाएं। कहीं से भी | | अब तुम बोलो, तुम्हें और क्या कहना है? ढांचे को तोड़ें। और कहीं से भी इस दोहरती हुई यांत्रिक प्रक्रिया के । अब यह अनप्रेडिक्टेबल है। इस आदमी को हम यांत्रिक नहीं बाहर हो जाएं। छोटे-मोटे प्रयोग से भी आदमी बाहर होना शुरू हो कह सकते। इस आदमी को यांत्रिक कहना मुश्किल है। यह आदमी जाता है; बहुत छोटे-मोटे प्रयोग से! दोहरा नहीं रहा है। हमारी सबकी प्रतिक्रियाएं बंधी हुई हैं। अगर मैंने आपको गाली लेकिन वह दूसरा आदमी तो मुश्किल में पड़ गया। रातभर उसने दी, तो प्रेडिक्टेबल हे कि आप क्या करोगे! जो आपको जानते हैं, सोचा, सो नहीं पाया। अगर ये बुद्ध उसको गाली दे देते, या उसके वे भलीभांति बता सकते हैं कि आप क्या करोगे! एक पत्नी बीस ऊपर थूक देते, तो ज्यादा दया होती। एक अर्थ में वह रात सो साल पति के साथ रहकर भलीभांति जानती है कि अगर वह यह सकता। अगर ये भी नाराज हो जाते, तो वह रात निश्चित सो जाता; कहेगी, तो पति यह जवाब देगा! आदमी प्रेडिक्टेबल हो जाता है। क्योंकि दिक्कत ही खतम हो गई थी। सर्किल पूरा हो जाता। घटना पति भलीभांति जानता है कि घर पहुंचकर पत्नी क्या पूछने वाली पूरी हो जाती। बुद्ध ने पोंछकर पूछ लिया कि और कुछ कहना है? है! उत्तर भी रास्ते में तैयार कर लेता है कि वह यह कहेगी, यह उत्तर तो अटक गई बात अधूरी। मन रातभर बेचैन रहा कि यह आदमी हो जाएगा! और यह भी जानता है कि इस उत्तर को वह मानने वाली कैसा है? फिर मन को यह भी होने लगा कि मैंने गलत आदमी के नहीं है। पत्नी भी जानती है कि मैं यह पूछृगी, तो क्या उत्तर मिलेगा! ऊपर थूक दिया! यह ठीक नहीं किया मैंने थूककर! ऐसे आदमी जानते हुए भी कि यह उत्तर मिलेगा, वह पूछेगी; उत्तर पाएगी, पर तो कम से कम नहीं थूकना था! मानेगी नहीं। लेकिन कहीं से भी हम अपनी यंत्रवत व्यवस्था को रातभर जागता रहा। बेचैन रहा। सुबह ही भागा हुआ आया। तोड़ेंगे नहीं। बुद्ध के पैर पर गिर पड़ा। पैर पर उसके आंसू टपकने लगे। बुद्ध कहीं से भी तोड़ें। कोशिश करें अनप्रेडिक्टेबल होने की। ने उसे उठाया, चादर से पैर के आंसू पोंछे और पूछा, और कुछ कोशिश करें कि आपके बाबत भविष्यवाणी न हो सके। कोई यह कहना है? क्योंकि आज तुम फिर उसी हालत में आ गए। कुछ' न कह सके कि अगर हम चांटा मारेंगे, तो वे क्या करेंगे! कहना चाहते हो, नहीं कह पा रहे, शब्द ओछे पड़ते हैं; आंसू जिस दिन आप अनप्रेडिक्टेबल हो जाते हैं, जिस दिन आपके टपकाकर कहते हो। बोलो, क्या कहना है? बाबत कोई प्रतिक्रिया को पर्व-घोषित नहीं किया जा सकता. आप उस आदमी ने कहा, मैं क्षमा मांगने आया है। पहली दफा मनुष्य होते हैं। उसके पहले आप यंत्रवत होते हैं। बुद्ध ने कहा, छोड़ो भी। कल तो कब का बह गया, तुम किससे कुछ नहीं कहा जा सकता, अगर जीसस के गाल पर आप चांटा | | क्षमा मांगने आए हो? वह आदमी अब तुम्हें कहां मिलेगा, जिसके मारें, तो जीसस क्या करेंगे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अगर ऊपर तुमने थूका था? बुद्ध को आप पत्थर मारें, तो बुद्ध क्या करेंगे, कुछ भी नहीं कहा उस आदमी ने कहा, क्या आप वह आदमी नहीं हैं? क्या कह जा सकता। रहे हैं? क्यों मुझे मुसीबत में डाल रहे हैं! आप ही वे आदमी हैं, एक आदमी ने बुद्ध के ऊपर आकर थूक दिया था; तो वह | | जिन पर मैं थूक गया था। आदमी सोच भी नहीं सकता था कि बुद्ध क्या करेंगे। बुद्ध ने अपनी | बुद्ध ने कहा, लेकिन चौबीस घंटे में, जानते हो, गंगा का कितना चादर से उस आदमी के थूक को पोंछ लिया और उस आदमी से | पानी बह जाता है? चौबीस घंटेभर बाद अगर तुम उसी गंगा से कहा, तुम्हें कुछ और भी कहना है? क्षमा मांगने जाओगे, जिसमें थूक गए थे, तो वह गंगा कहेगी, मुझे उस आदमी ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? मैंने थूका है, कुछ | | पता ही नहीं। किस में तुम थूक गए थे? पानी कितना बह गया कहा नहीं! चौबीस घंटे में! छोड़ो भी। भूलो भी। क्यों रुक गए हो उस पर? बुद्ध ने कहा, मैं समझ गया। कई बार ऐसा हो जाता है कि थूककर जितनी गलती की थी, उससे बड़ी गलती यह कर रहे हो आदमी इतने भाव से भर जाता है कि शब्दों में नहीं कह पाता, तो कि अब उसी पर रुके हुए हो, रातभर खराब की! छोड़ो। 314 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *खोज की सम्यक दिशा लेकिन वह आदमी कैसे छोड़ दे? वह दूसरे दिन फिर आता है | | अनुभव नहीं था, सिर्फ मान्यता थी। और वह इसलिए नहीं आया कि मुझे क्षमा कर दो। वह तीसरे दिन फिर आता है कि मुझे क्षमा था कि ईश्वर को जानना चाहता था। सिर्फ इसलिए आया था कि कर दो। वह चौथे दिन फिर आता है कि मुझे क्षमा कर दो! | बुद्ध और उसके मत और विश्वास के सहायक हो जाएं। वह अपने वह पुनरुक्त कर रहा है; एक घेरे में घूम रहा है। वह एक घेरे में | | विश्वास को मजबूत करने आया था, जानने नहीं। जानने की उसकी घूम रहा है। और बुद्ध आनंद से कहते हैं कि अगर इसे मैं क्षमा कर | कोई तैयारी न थी। वह तो सिर्फ यह कहने आया था कि किसी दिन दं, तो यह फिर थूक सकता है। यह प्रेडिक्टेबल है, इसकी घोषणा वह कह सके कि मैं तो मानता ही हूं, बुद्ध भी मानते हैं! वह मुझे की जा सकती है। यह बेचेन हो रहा है सिर्फ इसीलिए कि एक क्रिया | | भी अपनी कतार में खड़ा करने आया था! पूरी नहीं हो पा रही है। इसको बेचैनी मालूम हो रही है। तो उससे मुझे कहना पड़ा कि नहीं; ईश्वर नहीं है। उसके मन पूरा करना चाहता है कोई भी काम; पूरा हो जाए तो निश्चित अहंकार को तोड़ना जरूरी था। और उससे कहना जरूरी था कि हो जाता है। इनकंप्लीट, कोई चीज अधूरी रह गई, तो मन ऐसे ही | ऐसे मानने से कुछ भी न होगा। है ही नहीं, मानकर क्या करेगा! बेचैन होता है, जैसे दांत गिर जाए आपका एक, तो जीभ वहां | देखा तूने कि वह कैसे कंप गया, जैसे झंझावात में कोई वृक्ष की बार-बार जाती है; खाली जगह को बार-बार छूती है। लाख | जड़ें कंप जाएं। देखा तूने, उसका चेहरा कैसा लाल आग से भर कोशिश करो कि मत छुओ; पता तो है कि गिर गया दांत, फिर जीभ | गया! देखा तूने कि उसके अहंकार को कैसी भयंकर चोट लगी! वहीं चली जाती है। वह जीभ यह कहती है, समथिंग इनकंप्लीट; | अब वह किसी से अपने अहंकार की पुष्टि में मेरा नाम नहीं ले कोई चीज अधूरी है; इसको पूरा करो, भरो। पाएगा। और अब एक बेचैनी की तरह मैं उसका पीछा करूंगा। ठीक, मन ऐसे ही पूरे समय कोशिश करता है भरने की। लेकिन | | अब उसे पता तो है नहीं कि ईश्वर है या नहीं? बुद्ध ने कहा कि नहीं बद्ध जैसे व्यक्ति अघोष्य हो जाते हैं: अनप्रेडिक्टेबल हो जाते हैं। है। अब उसे खोजना ही पड़ेगा। इसके पहले अब वह हिम्मत से उनके बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता। इतने ज्यादा हो जाते हैं...। कभी न कह सकेगा कि है। एक आदमी सुबह बुद्ध से पूछता है, ईश्वर है? बुद्ध कहते हैं, | ___ दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह मेरे से नहीं है। दोपहर दूसरा आदमी पूछता है, ईश्वर है? बुद्ध कहते हैं, | गवाही लेने आया था कि मैं भी कह दूं कि नहीं है, ताकि वह जाकर है। तीसरा आदमी शाम पूछता है, ईश्वर है? बुद्ध कुछ भी नहीं लोगों से कहे कि मैं ही नहीं कहता, बुद्ध भी कहते हैं कि ईश्वर नहीं कहते; चुप रह जाते हैं। है। उससे मुझे कहना पड़ा कि है। उसे भी हिलाना जरूरी था। रात आनंद घबड़ा जाता है। उनके साथ था वह दिनभर। वह रात __झूठी श्रद्धाएं जब तक हिलें न, तब तक सच्ची श्रद्धाएं पैदा नहीं पूछता है कि मेरी मुश्किल कर दी। मैं सो न सकूँगा। पहले मुझे होतीं। थोथे विश्वास जब तक उखाड़ें न जाएं, तब तक आत्मगत समझा दो। सुबह एक आदमी से कहा ईश्वर नहीं है; दोपहर एक | भरोसों का जन्म नहीं होता। आदमी से कहा है; सांझ बिलकुल चुप रह गए, कुछ भी न कहा! और सांझ जो आदमी आया था, वह सीधा, सरल, निर्दोष बुद्ध ने कहा, जो उत्तर तुझे दिए नहीं गए, वे तूने लिए क्यों? वे आदमी था। उसकी कोई मान्यता न थी। न वह मानता था कि है, न जिनको दिए गए थे, उनके और मेरे बीच का मामला है। वह मानता था कि नहीं है। वह बच्चों की तरह भोला था। उसे कोई आनंद ने कहा, लेकिन मैं बहरा तो नहीं हूं! मुझे सुनाई पड़ गए। | भी उत्तर देना उचित न था। चुप रह जाना उचित था। वह मेरी बात और अब मैं सोच रहा हूं कि सही बात क्या है? समझ गया। वह आनंदित वापस लौट गया। वह समझ गया कि बुद्ध ने कहा, सही बात तो तीनों में ही नहीं है। तू सो जा। । ईश्वर के संबंध में चुप होने से ही उसका पता चलेगा। मौन रह जाने उसने कहा, अब मैं बिलकुल न सो सकूँगा। वह सही बात क्या | | से ही। कुछ मत कहो। है और नहीं में उसे नहीं कहा जा सकता। है? रातभर मेरे मन में यही दोहरता रहेगा कि वह सही बात क्या है? वह मेरी चुप्पी को समझ गया, वह मेरे पैर छूकर गया है। आनंद, बुद्ध ने कहा, सही बात कुल इतनी है कि जो आदमी सुबह आया तूने देखा! वह पैर छूकर गया है। पैर छूते वक्त तूने उसकी आंखें था और पूछता था, ईश्वर है? वह आस्तिक था; पर वैसा ही | देखी थीं? वे जैसे शांत झील की तरह हो गई थीं। और वह आदमी आस्तिक, जैसे अक्सर आस्तिक होते हैं। उसका अपना कोई | जल्दी ही प्रभु को पा लेगा। 1315 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 अब ऐसे आदमी से अगर आप जाकर पूछे, तो उत्तर तक | हो सकती! निश्चित नहीं है कि वह क्या कहेगा! स्पांटेनियस होगा, रिपिटीटिव अंतिम को लक्ष्य बनाएं, क्योंकि अंततः वही आप हो जाएंगे। नहीं होगा। सहज होगा; पुनरुक्ति नहीं होगी। वह वही कहेगा, जो | उस पर श्रद्धा रखें जो आखिरी है, चाहे वह असंभव ही क्यों न उस क्षण में उसकी पूरी अंतरात्मा से निकलेगा। वह वही करेगा उस | मालूम पड़े। क्योंकि संभव को जो चुनता है, वह क्षुद्र हो जाता है। क्षण में, जो उसके परे प्राणों से जन्म लेगा। वह किसी चीज को | असंभव को चुनें। दोहराएगा नहीं। और अगर हमें दोहराता हुआ भी दिखाई पड़े, तो __ और ईश्वर से ज्यादा असंभव कुछ भी नहीं है। अदृश्य, अरूप, वह हमारी ही भूल होगी। | निराकार असंभव मालूम पड़ता है। उसे चनें। उसकी तरफ उपासना हमको रोज लगता है कि सुबह सूरज निकलता है, वही सूरज। को बढ़ाते चलें। एक दिन पाएंगे कि वह तो मिल गया; आप खो लेकिन जो सूर्योदय को देखते हैं, वे जानते हैं कि दुबारा एक सूर्योदय गए। एक दिन पाएंगे, आप तो नहीं बचे, वही रह गया। एक दिन फिर नहीं होता; न तो वैसे बादल होते, न वैसे रंग होते; न वैसी सुबह पाएंगे, आप वही हो गए हैं। होती, न वे गीत होते, न वह आकाश होता। हर रोज सुबह नया सूरज | आज इतना ही। उगता है। नए सूरज का मतलब, सब नया होता है। लेकिन पांच मिनट रुकें। कोई बीच में उठे न। कीर्तन पूरा हो ऐसा व्यक्ति प्रतिपल नया होता है। जाए, फिर जाएं। तो एक बात ध्यान रखें, पुनरुक्ति को तोड़ें। दूसरी बात ध्यान रखें, जो कुछ भी चाहें, गहरे खोजें; तो हर चाह में परमात्मा की चाह छिपी हुई मिलेगी। अपनी हर चाह में अंततः परमात्मा को खोजने का उपाय करें। तो धीरे-धीरे चाहें गिर जाएंगी और परमात्मा की मौलिक चाह ही शेष रह जाएगी; ऊपरी चाहें गिर जाएंगी और भीतरी चाह प्रकट हो जाएगी। और तीसरी बात, अंतिम को ही लक्ष्य बनाएं, बीच का कोई पड़ाव मंजिल नहीं हो सकता। परमात्मा से कम को लक्ष्य मत बनाएं। क्योंकि जो लक्ष्य है, अंततः आपकी चेतना का तीर उसी लक्ष्य में बिंध जाएगा, और उसी के साथ एक हो जाएगा। इसलिए छोटे लक्ष्य मत बनाएं। हम सबकी जिंदगी बहुत छोटी-छोटी रह जाती है, छोटे-छोटे लक्ष्यों के कारण। हम क्षुद्र रह जाते हैं, क्षुद्र लक्ष्यों के कारण। __ अब एक आदमी की जिंदगी का लक्ष्य अगर रुपया ही इकट्ठा करना है, तो इस आदमी के पास जो आत्मा होगी, वह आत्मा बहुत बड़ी नहीं हो सकती। कैसे होगी? इसकी आत्मा इसकी अभीप्सा ही तो है। यह धन इकट्ठा करना ही इसकी कुल जमा दौड़ है। तो इसकी आत्मा ज्यादा से ज्यादा एक लोहे की तिजोड़ी हो सकती है। और क्या हो सकती है? इसकी आत्मा का और क्या होगा मूल्य? इसकी आत्मा रुपए से भी छोटी होगी। तभी तो रुपए के प्रति इतनी आकर्षित और आंदोलित है। एक आदमी बड़ी कुर्सी पर पहुंचना चाहता है, तो पहुंच जाएगा एक दिन। लेकिन इसकी आत्मा एक मुर्दा कुर्सी से ज्यादा बड़ी नहीं 316 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 ग्यारहवां प्रवचन कर्ताभाव का अर्पण Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । | रहा हूं, यह परमात्मा का दिया हुआ नहीं है; यह आदमी का अपना तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।। २६ ।। अर्जित है। यह अहंकार कि मैं कुछ कर रहा हूं, आदमी की अपनी यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । खोज है। यह आदमी का अपना आविष्कार है। और जब तक कोई यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।। २७ ।। | आदमी इस भाव को उसके चरणों में न चढ़ा दे, तब तक वह शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। | रूपांतरण घटित नहीं होता, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।। २८।। ___ इसलिए वे कहते हैं कि तू खाए तो, तू चले तो, बैठे तो, हवन तथा हे अर्जुन! मेरे पूजन में पत्र, पुष्य, फल, जल इत्यादि जो करे तो, तू जो कुछ भी करे, वह सब मेरे अर्पण कर। कर्मों को मेरे कुछ कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्ध | अर्पण कर। कर्ता होने के भाव को मुझे अर्पण कर। और जिस क्षण बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ | तू यह कर पाएगा, उसी क्षण तू संन्यस्त हो गया। वह पत्र, पुष्य, फल आदि में ही ग्रहण करता हूं। यह बहुत अदभुत बात है। क्योंकि संन्यास का अर्थ होता है, इसलिए हे अर्जुन, तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता | कर्म को छोड़ देना, कर्म का त्याग। कृष्ण कर्म के त्याग को नहीं है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर्म तो तू कर, लेकिन मुझे अर्पित स्वधर्माचरण रूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। | होकर। कर्म को छोड़ नहीं जाना है, करते जाना है। लेकिन वह जो इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण करने रूप संन्यास-योग से करने वाला है, उसे छोड़ देना है; वह जो भीतर मैं खड़ा हो जाता युक्त हुए मन वाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त | | है, उसे विसर्जित कर देना है। हो जाएगा और उनसे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होवेगा। | अहंकार अकेली चीज है आदमी के हाथ में, जो पूजा में चढ़ाई | जा सकती है। वह आदमी की अपनी है, बाकी तो सब परमात्मा का है। लेकिन दो-तीन बातें और इस संबंध में समझ लेनी जरूरी 1 रमात्मा की पूजा भी करनी हो, तो भी हमारे पास ऐसा | | होंगी। कठिन भी है उसे ही चढ़ाना। धन आदमी चढ़ा सकता है। प कुछ भी नहीं है उसे देने को, जिसे हम अपना कह | | जोश में हो, तो जीवन भी चढ़ा सकता है। गर्दन भी काटकर रख . __सकें। और जो हमारा ही नहीं है, उसे देने का भी क्या | सकता है। इतना कठिन नहीं है। ऐसे भक्त हुए हैं, जिन्होंने गर्दन अर्थ है? जो कुछ भी है, उसका ही है। तो पूजा में उसके द्वार पर काटकर चढ़ा दी, अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उतना भी हम जो रखेंगे, उसका ही उसे लौटा रहे हैं। | कठिन नहीं है, क्योंकि जीवन भी उसी का ही है। लेकिन जिसने मनुष्य के पास ऐसा क्या है जो परमात्मा का दिया हुआ नहीं है? गर्दन चढ़ाई है, वह भी भीतर समझता रहता है कि मैं गर्दन चढ़ा अगर उसकी ही चीजें उसे लौटा रहे हैं, तो बहुत अर्थ नहीं है। कुछ | | रहा हूं! याद रखना, स्मरण रखना, भूल मत जाना, मैं गर्दन चढ़ा ऐसा उसे दें, जो उसका दिया हुआ न हो, तो ही पूजा में चढ़ाया, तो रहा हूं। ही पूजा में हमने कुछ अर्पित किया। गर्दन जब कटती है, तब भी भीतर मैं खड़ा रहता है। मैं को इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। बड़ी कठिनाई होगी खोजने में। | | बचाकर भी गर्दन चढ़ाई जा सकती है। और अगर मैं बच गया, तो क्योंकि क्या है जगत में जो उसका नहीं है? अगर वृक्षों से तोड़कर | जो हम चढ़ा सकते थे, वह बच गया; और जो चढ़ा ही हुआ था, फूल मैं चढ़ा आता हूं उसके चरणों में, वे फूल तो उसके चरणों में | | वही वापस लौट गया। धन कोई चढ़ा दे, जीवन कोई चढ़ा दे, चढ़े ही हुए थे! और अगर नदी का जल भरकर उसके चरणों में | | पद-प्रतिष्ठा कोई चढ़ा दे, सब कुछ चढ़ा दे, लेकिन पीछे मैं बच ढाल आता हूं, तो वह नदी तो सदा से अपना सारा जल उसके | | जाए, तो जो चढ़ाना था, वह बच गया और जो चढ़ा ही हुआ था, चरणों में ढाल ही रही थी! मैं इसमें क्या कर रहा हूं? और इस करने | वह हमने चढ़ा दिया। और चढ़े ही हुए को चढ़ाकर हम और अपने से मेरे जीवन का रूपांतरण कैसे होगा? | मैं को मजबूत कर लेते हैं कि मैंने इतना चढ़ाया है। चढ़ाने वाले भी लेकिन एक बात जरूर मनुष्य के पास ऐसी है, जो परमात्मा की | | हिसाब रखते हैं! दी हुई नहीं है। एक ही बात ऐसी है। कर्ता का भाव, मैं कुछ कर | एक आदमी कुछ दिन पहले मेरे पास आया था। उसने मुझे कहा 1318 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्ताभाव का अर्पण * कि मैं इतने लाख दफा राम का नाम स्मरण कर चुका हूं। वह हिसाब | | ऐसे देखता है, जैसे दूसरा आदमी कीड़ा-मकोड़ा हो! रखे है, कापी बनाए हुए है! सारा हिसाब है कि कितने लाख दफा | | यह तो बुरे आदमी से भी बुरा होना हो गया। यह तो बुराई गहरी उसने राम का नाम लिया। यह आदमी राम के पास भी जाएगा, तो हो गई। और बुरे आदमी ने दूसरों के साथ बुरा किया, इस भले कापी लेकर जाने वाला है। और कहेगा कि याद है? कितना मैं | आदमी ने अपने साथ भी बुरा कर लिया है। और बुरे आदमी ने चिल्लाया! कितने मैंने नाम लिए! यह सब हिसाब मेरे साथ है। | दूसरों को धोखा दिया था, इस भले आदमी ने अपने को भी धोखा लोग प्रेम में भी गणित को ले आते हैं। लोग प्रार्थना में भी | | दे लिया है। हिसाब, बही-खाते रख लेते हैं! सब व्यर्थ हो गया। क्योंकि यह __पूजा और प्रार्थना करने वाले का भी बड़ा सात्विक अहंकार हिसाब-किताब जो रख रहा है, वह अहंकार है। यह जो कह रहा | मजबूत हो जाता है। और ध्यान रहे, जब अहंकार सात्विक होता है, है कि मैंने इतने नाम लिए, अब यह नाम भी संपत्ति हो गई। अब तो बहुत जहरीला हो जाता है। ये करोड़ों सिक्के हो गए मेरे पास। अब इन करोड़ों सिक्कों के साथ । कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। बुरा-भला सब मुझ पर छोड़ मैं उसके पास पहुंचूंगा। | दे। तू जो भी कर रहा है, उसमें तू करने वाला मत रह। तू जान कि कीर्कगार्ड ने. एक ईसाई फकीर ने और एक अदभुत विचारक ने | मैं तेरे भीतर से कर रहा हूं। तू ऐसा अर्पित हो जा। अपनी डायरी में एक वक्तव्य लिखा है। उसने लिखा है कि मैंने सब | । कर्म छोड़ने को वे नहीं कह रहे हैं। इसलिए कृष्ण ने जो बात उसके लिए चढ़ा दिया; समस्त बुरे कर्म छोड़ दिए; सब पापों से | | कही है, वह अति क्रांतिकारी है। कर्म छुड़ा लेने में बहुत कठिनाई अपने को बचा लिया; सब तरह की अनीति से अपने को दूर कर नहीं है। आदमी कर्म छोड़कर जंगल जा सकता है। लेकिन कर्ता लिया। एक दुर्गुण मुझ में न रहा। और तब मुझे एक दिन ऐसा पता | | छुड़ा लेना असली कठिनाई है। और आदमी जंगल भी चला जाए चला कि मुझ में गुण ही गुण हैं! और मैंने पाया कि मेरे भीतर | | कर्म को छोड़कर, तो यह अकड़ साथ चली जाती है कि मैं सब अहंकार लपट की भांति खड़ा हो गया है। और तब मुझे पता चला | कर्मों को छोड़कर चला आया हूं। कर्ता पीछे साथ चला जाता है। कि ये मेरे गुण भी मेरे अहंकार का ही भोजन बन गए हैं। यह मेरा __ कर्म तो बस्ती में छूट जाएंगे, कर्ता नहीं छूटेगा। कर्ता आपके सदाचरण भी, यह मेरा नैतिक जीवन भी, मेरे अहंकार का ही पोषण | साथ जाएगा। वह आपकी भीतरी दशा है। आप मकान छोड़ देंगे, बन गया है। और उस दिन मैं रातभर रोया, उसने लिखा है, कि हे घर-दुकान छोड़ देंगे, काम-धाम छोड़ देंगे, सब तरफ से निवृत्त परमात्मा, इससे तो बेहतर था कि मैं पापी था, बुरा था; कम से कम | होकर भाग जाएंगे जंगल में, लेकिन वह जो भीतर कर्ता बैठा है, यह अहंकार तो खड़ा नहीं होता था। बुराई से मैं छूट गया, अब | वह इस निवृत्ति के ऊपर भी सवार हो जाएगा। निवृत्ति भी उसी का भलाई से तू मुझे छुड़ा। यह भलाई नया कारागृह बन गई। वाहन बन जाएगी। और जाकर जंगल में, वह अकड़ से कहेगा कि और ध्यान रहे, बुरे आदमी के पास जो अहंकार होता है, दीन | सब छोड़ चुका हूं। यह छोड़ना कर्म हो जाएगा। यह छोड़ना कर्म होता है; और भले आदमी के पास जो अहंकार होता है, बड़ा सबल | हो जाएगा, यह त्यागना कर्म हो जाएगा। और अहंकार इससे भी हो जाता है। इसलिए बुरे आदमी की बुराइयां बाहर हैं और भले भर लेता है। आदमी की बुराई भीतर हो जाती है। | इसलिए कृष्ण ने कहा, कर्म छोड़कर कुछ भी न होगा अर्जुन, बरा आदमी चोरी करता है, बेईमानी करता है. धोखा देता है। उसकी बराइयां बाहर हैं। भला आदमी न चोरी करता. न बेईमानी | यह दुरूह है, यह अति कठिन है। क्योंकि कर्म तो बाहर हैं। और करता। समय पर पूजा करता है, प्रार्थना करता है। नियम का पालन | | जो भी बाहर है, उसको पकड़ना भी आसान है, छोड़ना भी आसान करता है। मर्यादा से जीता है। बाहर उसकी कोई बुराई नहीं है। | है। जो भीतर है, उसे पकड़ने में भी जन्मों-जन्मों लग जाते हैं; उसे लेकिन सब के मुकाबले भीतर एक बुराई खड़ी हो जाती है कि मैं | छोड़ना भी उतना ही कठिन है। भला आदमी हूं। जहां भी वह चलता है, वह भले आदमी का | मेरे हाथ में कोई चीज है, उसे मैं छोड़ दं, आसान है। मेरी अहंकार साथ चलता है। इसलिए भला आदमी जब दूसरे की तरफ खोपड़ी में जब कोई चीज होती है, तो छोड़नी मुश्किल हो जाती है। देखता है तो गहरे में छान-बीन करना, तो पता चलेगा—वह . खोपड़ी में हो, उसे भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन जो मेरी चेतना ताको 319 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 में प्रवेश कर जाए, उसे फिर छोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। | अच्छी जंजीरें, हीरे-जवाहरात जड़े हों! लेकिन वह स्वतंत्र नहीं हो यह अहंकार, हमारे भीतर गया गहरे से गहरा संसार है। संसार गया। स्वतंत्र तो वह तभी होता है, जब जंजीरें अच्छी नहीं, जंजीरें का तीर हमारे भीतर जो गहरे से गहरे में चला गया है, उसका नाम | | होती ही नहीं! अहंकार है; उस घाव का नाम अहंकार है। वह हमारे भीतर है। वह | | ध्यान रखें, विचार की तीन अवस्थाएं हैं। एक विचार की हमारे भीतर है। और हमारा मजा ऐसा है कि हम उस तीर को और | अवस्था है, जिसको हम अशुद्ध विचार कहें। अशुद्ध विचार का दबाए चले जाते हैं, ताकि अहंकार और भीतर चला जाए। खाज हो | | अर्थ है, जो वासना के पीछे दौड़ता हो, वृत्तियों के पीछे दौड़ता हो; जाती है न किसी को, तो खुजलाने से भी आनंद मालूम पड़ता है। शरीर को मालिक मानता हो, खुद गुलाम हो जाता हो! जहां वासना अहंकार आत्मिक खाज है; उसे खुजलाने से भी आनंद मालूम | | मालिक है और विचार गुलाम है, वहां बुरा विचार है, असद विचार पड़ता है। पीछे कितनी ही पीड़ा हो, लेकिन जब खुजाते हैं, तब | है, अशुभ विचार है। लगता है, बड़ा सुख मिल रहा है! जिसको भी कभी खाज हुई हो, ___ इसे हम बदल सकते हैं। बदलने का अर्थ यह है कि विचार उसे पता होगा। लेकिन अहंकार तो सभी को हुआ है, सभी को पता | मालिक हो गया, वासना गुलाम हो गई। अब वासना के पीछे होगा। उसे खुजलाने में सुख मिलता है। हालांकि सभी दुख उसी | | विचार नहीं चलता, विचार के पीछे ही वासना को चलना पड़ता है। खुजलाने से पैदा होते हैं। यह शुभ विचार हुआ, सद विचार हुआ, अच्छा विचार हुआ। खाज को खुजलाने से लहूलुहान हो जाता है शरीर, पीछे पीड़ा लेकिन विचार भी मौजूद है और वासना भी मौजूद है; सिर्फ संबंध आती है। और अहंकार को खुजलाने से आत्मा लहूलुहान हो जाती । बदल गया। कल वासना मालिक थी, विचार गुलाम था; अब है, और जन्मों-जन्मों तक पीड़ा की सतत श्रृंखला बन जाती है। विचार मालिक है, वासना गुलाम है। लेकिन फिर भी हम खुजलाए चले जाते हैं, और तीर को भीतर धंसाए| | लेकिन ध्यान रहे, आप गुलाम के मालिक भी हो जाएं, तो भी चले जाते हैं। घाव में भी तीर लगता है, तो हमें रस आता है। | उससे बंधे रहते हैं। आप गुलाम की छाती पर भी बैठ जाएं, तो भी कृष्ण कहते हैं, इसको ही छोड़ दे। यह मैं कर रहा हूं, इस भाव | | गुलाम आपको बांधे रखता है। आप छोड़कर हट नहीं सकते। को छोड़ दे। गुलाम तो हट ही नहीं सकता, क्योंकि आप उसकी छाती पर चढ़े . इस भाव को छोड़ना हो, तो दो अनिवार्य शर्ते हैं। हैं। आप भी नहीं हट सकते, क्योंकि आप हटे कि छाती से उतरे। कहा है कृष्ण ने, उस शुद्ध बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का आपको गुलाम को दबाकर बैठे रहना पड़ेगा। शायद आप सोचते प्रेमपर्वक अर्पण किया हआ सभी कछ मैं ग्रहण करता है। | होंगे, गुलाम मुझसे बंधा है। गुलाम भी जानता है कि आप उससे दो शब्दों का उपयोग किया है, शुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेमी। | | बंधे हैं, हट नहीं सकते। बुद्धि कब शुद्ध होती है? और प्रेम कब पवित्र होता है? बुद्धि । __सुना है मैंने कि एक आदमी एक गाय को बांधकर अपने घर तब शुद्ध होती है...जैसा हम आमतौर से सोचते हैं, तब नहीं। हम लौट रहा है। फकीर हसन उसे रास्ते में मिल गया और हसन ने पूछा सब सोचते हैं कि अगर बुद्धि में शुद्ध विचार हों, तो बुद्धि शुद्ध हो कि मेरे मित्र, मैं एक बात जानना चाहता हूं। तुम गाय से बंधे हो जाती है। इससे ज्यादा भ्रांति की कोई दूसरी बात नहीं है। इसलिए कि गाय तुमसे बंधी है? यह समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा। हम समझते हैं कि बुद्धि के शुद्ध उस आदमी ने कहा, तू पागल मालूम होता है! यह भी कोई होने का अर्थ है, शद्ध विचार, अच्छे विचार, सात्विक विचार: सद पछने की बात है? जाहिर है कि गाय मझसे बंधी है: मैं गाय को विचार हों तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है। लेकिन बुद्धि तब तक शुद्ध बांधकर ले जा रहा हूं। नहीं होती, जब तक विचार हों, चाहे वे सद विचार ही क्यों न हों। | तो फकीर हसन ने कहा, एक काम कर। अगर गाय तुझसे बंधी जब विचार ही नहीं रह जाते, तभी बुद्धि शुद्ध होती है। | है, तो तू छोड़कर बता। तू छोड़ दे। फिर अगर गाय तेरे पीछे चले, जैसे एक आदमी के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। वह कारागृह में तो हम समझें। पड़ा है। कल हम उसे सोने की जंजीरें पहना दें। शायद वह खुश उस आदमी ने कहा, अगर मैं छोड़ दूंगा, गाय भाग खड़ी होगी, हो कि अब मैं स्वतंत्र हो गया, क्योंकि जंजीरें अब सोने की हो गईं। मुझे उसके पीछे भागना पड़ेगा। 3201 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्ताभाव का अर्पण तो फकीर हसन ने कहा, फिर तू ठीक से समझ ले। यह हाथ में कहता हैं। तो वर्ग-संघर्ष जारी रहेगा। जो रस्सी लिए है, इस धोखे में मत पड़ना। अगर गाय भागे, तो तू | । ठीक ऐसी ही घटना भीतर भी घटती है। जब तक भीतर भी उसके पीछे भागेगा, गाय तेरे पीछे नहीं भागेगी। अगर तू गाय को | मालिक और गुलाम में बंटावट है, जब तक बंटावन है भीतर, छोड़ दे, तो गाय तेरा पता लगाती हुई नहीं आने वाली है; तू ही विभाजन है, तब तक भीतर भी एक संघर्ष, एक अंतर्संघर्ष जारी उसका पता लगाता हुआ जाएगा। तो तू इस भ्रम में है कि तू गाय | रहेगा, एक इनर कांफ्लिक्ट, एक अंतर्द्वद्व भीतर भी बना रहेगा। को बांधे हुए है। शुद्ध नहीं है वह स्थिति। जिसे हम बांधते हैं, उससे हम बंध भी जाते हैं; जीवन का यह | कृष्ण कहते हैं, शुद्ध बुद्धि। एक अनिवार्य नियम है। इसलिए जो मुक्त होना चाहता है, वह | उसका अर्थ है, जिसकी बुद्धि इतनी शुद्ध हो गई कि अब वहां किसी को बांधेगा नहीं। बांधा कि आप फिर मुक्त नहीं हो सकते। विचार की कोई तरंग भी नहीं है। एकदम निर्मल झील की तरह हो अगर आपकी वासना को आपने दबा लिया और अच्छा विचार | गई। बुरा विचार तो चला ही गया, गंदी लहर तो चली ही गई, वह आप ऊपर ले आए, तो भी वासना नीचे कुलबुलाती रहेगी, | लहर भी अब नहीं है, जिसको हम निर्मल लहर कहें, वह भी नहीं भभकती रहेगी; लपटें उसकी उठती रहेंगी। आपको रोज-रोज | है। लहर ही न रही। मन झील की तरह मौन हो गया, जिस पर कोई दबाना पड़ेगा। जिसे एक दिन दबाया है, उसे रोज-रोज दबाना भी तरंग नहीं है। पड़ेगा। और दबाने से कोई वासना मिटती नहीं है, भभक भी सकती | । यहां ठीक से समझ लें। है और तेजी से, क्योंकि दमन से रस भी पैदा होता है। और जिसे| नीति का संबंध सिर्फ इतने से है कि आपकी बुद्धि इस अर्थ में हम दबाते हैं, उसमें आकर्षण भी बढ़ जाता है। और जिसे हम दबाते शुभ हो जाए कि अशुभ दब जाए और शुभ ऊपर आ जाए। नीति की हैं, उसकी शक्ति भी इकट्ठी होती चली जाती है। फिर यह संघर्ष दौड़ इतनी है। इसलिए नीति धर्म नहीं है। धर्म और बड़ी बात है! एक सतत है। अधार्मिक आदमी भी नैतिक हो सकता है; कोई अड़चन नहीं है। एक इसलिए जिसे हम बुरा आदमी कहते हैं, वह बाहर लोगों से | | नास्तिक भी नैतिक हो सकता है; कोई अड़चन नहीं है। लड़ता रहता है; जिसे हम अच्छा आदमी कहते हैं, वह भीतर अपने नैतिकता का मतलब ही इतना है कि आप अपनी वासना को से लड़ता रहता है। जिसे हम बुरा आदमी कहते हैं, वह दूसरों को | अपने विचार के नियंत्रण में कर लिए हैं। एक संयम उपलब्ध हुआ सताने की कोशिश में लगा रहता है; जिसे हम अच्छा आदमी कहते | | है। अब आपकी वासना आपको खींच नहीं पाती। अब आप उसे हैं. वह खद को सताने की कोशिश में लगा रहता है। जिसे हम बरा रोक पाते हैं। वासना की लगाम आपके हाथ में आ गई। घोडा जिंदा आदमी कहते हैं, वह इसीलिए बुरा है कि उसको वासना के पीछे | | है, लगाम से आप उसे चला लेते हैं। लेकिन चौबीस घंटे उसको भागना पड़ता है; जिसको हम अच्छा आदमी कहते हैं, उसे | | चलाने में ही व्यय होता है, और घोड़ा पूरे समय तलाश में होता है इसीलिए अच्छा कहते हैं कि वह अपनी वासना की छाती पर सवार कि कब उसे मौका मिल जाए और वह छूटकर निकल भागे। उसके होकर बैठ जाता है। लेकिन यह बैठ जाना भी स्टैटिक है। यह बैठ | पीछे चौबीस घंटे आपको सजग चेष्टा में रत रहना पड़ता है। जाना भी मर जाना है। यह बैठ जाना भी रुक जाना है। ___ और इसलिए कोई भी आदमी चौबीस घंटे तो सतत चेष्टा नहीं एक तीसरी भी अवस्था है बुद्धि की, जब विचार और वासना कर सकता, हर चेष्टा का अनिवार्य रूप विश्राम है। कोई भी आदमी दोनों नहीं होते। उस स्थिति का नाम शुद्ध बुद्धि है। शुद्ध बुद्धि का चौबीस घंटे चेष्टारत नहीं हो सकता, विश्राम तो करना ही पड़ेगा। अर्थ है कि संघर्ष गया; जो लड़ने वाले थे, वे रहे ही नहीं। न बांधने | | जो दिनभर जागा है, उसे रात सोना भी पड़ेगा। और जिसने दिनभर वाला है अब, और न वह जिसे बांधना था। न अब कोई मालिक | | गड्ढा खोदा है, उसे हाथ-पैर को आराम भी देना पड़ेगा। है और न अब कोई गुलाम है। क्योंकि जहां मालिक और गुलाम । इसलिए नैतिक आदमी को बीच-बीच में विश्राम भी लेना पड़ता हैं, वहां एक अंतर्संघर्ष जारी रहेगा ही। | है। उसी विश्राम में उसकी अनीति प्रकट होती है। नैतिक आदमी चाहे समाज हो, जब तक समाज में मालिक और गुलाम हैं, तब को भी बीच-बीच में विश्राम लेना पड़ता है। कई बहाने खोजकर तक समाज में एक संघर्ष जारी रहेगा ही। मार्क्स उसे क्लास स्ट्रगल विश्राम लेता है। कभी कहता है, होली का उत्सव मना रहे हैं, तब 321] Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 वह गालियां बक लेता है। जो बेहूदगियां उसने सालभर नहीं की, | कमी थी, तो उसने यह व्यवस्था बदल दी। उसने बंदरों को बुलाकर अब वह मजे से कर लेता है। | कहा कि आज से नियम बदलता है; सुबह तुम्हें तीन रोटी मिलेंगी नैतिक आदमी को भी बहाने खोज-खोजकर अपनी अनीति को और शाम तुम्हें चार रोटी मिलेंगी। छुट्टी का अवसर देना पड़ता है। क्योंकि थक जाएगा; विश्राम जरूरी बंदरों ने बगावत कर दी। बंदर बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा, है, छुट्टी का दिन जरूरी है। और अगर जागने में नहीं दे पाता, तो यह नहीं चलेगा। यह हो ही नहीं सकता। सुबह चार रोटी ही चाहिए नींद में छुट्टी देनी पड़ती है। तो सपनों में सब बुरे कर्म कर लेता है; और शाम को तीन रोटी ही चाहिए। जो दिनभर दबाए रखे, वह रात सपनों में प्रकट हो जाते हैं। | उस आदमी ने बहुत समझाया कि तुम बिलकुल पागल हो, जोड़ अगर हम अच्छे आदमी के सपने देखें, तो वे अनिवार्य रूप से | | तो करो। जोड़ तो सात ही होता है। बंदरों ने कहा, जोड़-वोड़ से बुरे होते हैं। बुरे आदमी के सपने इतने बुरे नहीं होते। कारण नहीं है। | हमें मतलब नहीं है। चार रोटी सुबह चाहिए, तीन रोटी शाम बुरा आदमी दिन में ही बुरा कर लेता है, रात मजे से सो जाता है। | चाहिए। सुबह तीन रोटी दे दी जाएं, शाम चार रोटी दे दी जाएं; बंदर अक्सर तो ऐसा होता है कि बुरा आदमी रात में बड़े अच्छे सपने | बड़े नाराज हुए। देखता है। कांप्लिमेंट्री है। दिनभर बेचैन रहता है। कई दफा मन में लेकिन बंदर जोड़ नहीं जानते; क्षमा किए जा सकते हैं। आदमी उसके भी आता है कि अच्छा आदमी हो जाऊं। हो नहीं पाता, वह | भी जोड़ नहीं जानता है! नीचे को ऊपर कर लेते हैं, ऊपर को नीचे वासना अतृप्त रह जाती है। बुरा तो वह कर लेता है, जो करना है कर लेते हैं। सोचते हैं, सब ठीक हो गया। सिर्फ जोड़, जोड़ तो उसे। अच्छे की वासना अतृप्त रह जाती है, रात सपना बन जाती है। वही रहता है। __ अच्छा आदमी रात बुरे सपने देखता है। दिनभर तो अच्छा कर अच्छे और बुरे आदमी का जोड़ बराबर है। यह जरा कठिन लेता है सम्हालकर, लेकिन भीतर बुरे का रंग और राग बजता रहता | मालूम पड़ेगा। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, अच्छे और बुरे है; भीतर बुरे की ध्वनि बजती रहती है। वह मांग करती रहती है कि आदमी का टोटल, जोड़ बराबर है; ऊपर और नीचे का फर्क है। छुट्टी थोड़ी मुझे दो, बहुत ज्यादा लगाम मत खींचो। थोड़ा मुझे | | एक में चार रोटी सुबह हैं, तीन रोटी शाम हैं; एक में तीन रोटी सुबह फुर्सत दो, मैं दौड़ सकूँ। हवाएं अच्छी हैं, रास्ता साफ है, सुबह का हैं, चार रोटी शाम हैं। वक्त है, थोड़ा मुझे दौड़ लेने दो। नहीं देता, तो रात जब सो जाता इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि अगर है, लगाम छूट जाती है ढीली, तब मन दौड़ना शुरू हो जाता है। | आप अच्छे आदमी हों, तो बुरे आदमी हो जाएं। इसका यह मतलब एक मजे की बात है कि आदमी ने दिन में जो दबाया हो, वही रात नहीं है। इसका यह मतलब है कि आप अगर अच्छे आदमी हैं, तो उसके सपनों में प्रकट होता है। जो-जो दबाया हो, वही प्रकट हो | अच्छे आदमी ही मत रह जाना। जाता है। सपने सहयोगी हैं। फ्रायड कहता है, सपने सहयोगी हैं। क्योंकि अच्छे आदमी की उपयोगिता है। जहां तक समाज का अगर अच्छा आदमी सो न सके, तो पागल हो जाएगा। अगर | संबंध है, समाज का काम पूरा हो गया। उसे आपके भीतर से कोई बुरा आदमी न सो सके, वह भी पागल हो जाएगा। क्योंकि विश्राम | मतलब नहीं है कि जोड़ क्या है। समाज का काम पूरा हो गया। चाहिए। वह जो दूसरा हिस्सा मांग कर रहा है, जिसको आप | आपका अच्छा चेहरा ऊपर आ गया, बुरा चेहरा आपके भीतर चला दबाकर बैठ गए हैं, उसको भी मौका चाहिए। वह भी आपका | गया। वह आपकी बात हो गई। उसका कोई सामाजिक अर्थ नहीं हिस्सा है। है। समाज जानता है कि आप अच्छे आदमी हैं। आप समाज के कृष्ण इस आदमी को शुद्ध बुद्धि नहीं कहेंगे। वे कहेंगे कि ये | लिए अच्छे आदमी हो गए, समाज की बात पूरी हो गई। दोनों एक जैसे हैं। सिर्फ एक चीज नीचे थी, वह ऊपर आ गई; जो __ समाज को इससे ज्यादा चिंता नहीं है कि अब आप और कुछ ऊपर था, वह नीचे आ गया। लेकिन टोटल, जोड़ वही है। | हों। अच्छे आदमी से समाज राजी है। पर्याप्त है। समाज चाहता है, मैंने सुना है कि एक सर्कस में बंदरों की एक जमात है। और बुरे आदमी आप न हों। आपका बुरा पहलू आपके भीतर हो, अच्छा बंदरों को सम्हालने वाला जो आदमी है, वह रोज सुबह उन्हें चार पहलू बाहर हो। क्योंकि समाज का मतलब ही है कि हमारे बाहरी रोटी देता है और सांझ को तीन रोटी देता है। एक दिन रोटी की कुछ पहलुओं का जो मिलन है, उसका नाम समाज है। 322 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्ताभाव का अर्पण मेरी आत्मा गंदी है, इससे आपको मतलब नहीं; मैं नहा-धोकर, वासनारहित हो। साफ कपड़े पहनकर आपके पास आऊं, पर्याप्त है। क्योंकि ___ तो भक्त सरल मामला नहीं है। लेकिन सरल इसलिए दिखाई आपका जो मिलन होने वाला है, वह मेरे शरीर से और मेरे कपड़ों | पड़ने लगा कि भक्ति से हमने जो कुछ जोड़ रखा है, वह सब ऐसा से होने वाला है, मेरी आत्मा से नहीं। अगर मैं यह कहूं कि मेरी | बचकाना है, ऐसा चाइल्डिश, जुवेनाइल है, कि लगता है कि सरल आत्मा बहुत पवित्र है, लेकिन मैं सब गंदगी ओढ़कर आपके पास है! एक आदमी माला फेर रहा है, तो हम सोचते हैं, भक्त हो गया। आऊंगा; तो आप कहेंगे, आत्मा आप जानें, कृपा करके यह गंदगी एक आदमी जाकर मंदिर की घंटी बजा लेता है, हम सोचते हैं, मेरे पास न लाएं। भक्त हो गया। एक आदमी दीया भगवान के सामने घुमा लेता है, समाज का अर्थ है, हमारे बाहरी व्यक्तित्व के मिलन का स्थल। | तो हम सोचते हैं, भक्त हो गया। समाज को इससे चिंता है कि आपका बाहर का पहलू ठीक हो जाए, ___ अगर भक्ति इतनी ही है, तो मैं आपसे कहता हूं, भक्ति से फिर भीतर की आप जानें। वह आपकी निजी समस्या है। | आप कभी पहुंच ही न सकेंगे। इतना सस्ता यह रास्ता नहीं हो लेकिन धर्म इतने पर नहीं रुकता। धर्म कहता है कि असली, | | सकता। भक्ति अति जटिल है, अति कठिन है। निजी समस्या को ही हल करना है। अच्छा है कि आप अच्छे | इसलिए दुनिया में अगर हम ठीक से खोजने जाएं, तो ज्ञानी आदमी हैं, बुरे नहीं हैं। बेहतर है। लेकिन धर्म कहता है, यह पर्याप्त जितनी बड़ी मात्रा में हुए हैं, उतनी बड़ी मात्रा में भक्त नहीं हुए हैं। नहीं है। जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। अच्छे हैं, बहुत अच्छा है। | यह सुनकर आपको हैरानी होगी। इसलिए ज्ञानियों के जगत में जो लेकिन अच्छे पर ही रुक गए, तो धोखे में हैं। अच्छे से भी पार | | नाम हैं ऊंचाई पर, उतनी ऊंचाई पर भक्तों के नाम आप खोजकर जाना होगा। न बता सकेंगे। बुद्ध हैं, कि महावीर हैं, कि शंकर हैं, कि 'शुद्ध बुद्धि का अर्थ है, जहां न वासना रही, न विचार रहा; जहां याज्ञवल्क्य हैं—इनकी कोटि में, इस ज्वलंत कोटि में भक्तों को दोनों खो गए। तब सिर्फ शुद्ध चेतना रह जाती है। रखना मुश्किल पड़ जाएगा। और उसका कारण यह है कि भक्त तो एक शर्त तो कृष्ण ने कही कि शुद्ध बुद्धि हो और दूसरी बात | होना दुरूह है, कठिन है। दोहरी शर्त है वहां। कही कि निष्काम प्रेमी हो। प्रेम भी उसका निष्काम हो। __ और बुद्धि को शुद्ध कर लेना आसान भी है, हृदय को शुद्ध करना बुद्धि अशुद्ध होती है विचार से प्रेम अशुद्ध हो जाता है वासना और भी जटिल है; क्योंकि बुद्धि ऊपर है, हृदय गहरे में है। और से, कामना से। ऐसा समझें कि बुद्धि से अर्थ है आपके चिंतन की | | बुद्धि तो मैनिपुलेट की जा सकती है; हाथ से उसमें कुछ किया जा क्षमता का, और प्रेम से अर्थ है आपके हृदय के अनुभव की क्षमता | | सकता है। लेकिन हृदय तो इतना अपना मालूम पड़ता है कि उसमें का। आपका मस्तिष्क अशुद्ध होता है विचार से, और आपका | दूरी ही नहीं होती है; उसमें कुछ करना बहुत मुश्किल हो जाता है। हृदय अशुद्ध होता है कामना से, वासना से। और जब तक हृदय इसे ऐसा समझें। अगर मैं आपसे कहूं कि फलां व्यक्ति को आप और बुद्धि दोनों शुद्ध न हों, तब तक भक्त का जन्म नहीं होता। तब | | कोशिश करें प्रेम करने की, तब आपको पता चलेगा कि कितना तक भक्त का जन्म नहीं होता। | कठिन मामला है! कैसे कोशिश करेंगे प्रेम करने की? क्या कभी इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि भक्त को आप ऐसा मत समझना | | भी कोई कोशिश से प्रेम कर पाया है? कौन कर पाया है कोशिश कि वह सरल बात है। ऐसा लोग अक्सर समझाते हुए सुने जाते हैं से प्रेम कभी? जितनी कोशिश करेंगे, उतना ही पाएंगे, प्रेम कि भक्ति बड़ी सरल चीज है; ज्ञान तो बड़ा कठिन है। | मुश्किल हुआ चला जाता है! लेकिन ध्यान रहे, ज्ञान की एक ही शर्त है कि बुद्धि शुद्ध हो। ___ आपसे बुद्धि का कोई भी सवाल हल करवाना हो, कोशिश से और भक्ति की शर्त दोहरी है, कि बुद्धि शुद्ध हो और हृदय निष्काम | | हल हो सकता है। कोई भी विचार कितना ही जटिल हो, कोशिश हो। इसलिए जो आपको समझाते हैं कि भक्ति सरल है, मैं नहीं | | से हल हो सकता है। किसी भी विचार को समझने में कितनी ही समझ पाता कि वे कैसे समझाते हैं? क्योंकि बुद्धि तो शुद्ध हो ही, | | अड़चन हो, कोशिश से हल हो सकती है। प्रेम कोशिश से हल जितनी ज्ञान मांग करता है, उतनी तो मांग भक्ति करती ही है, उससे नहीं होता; प्रयत्न बिलकुल ही व्यर्थ है। थोड़ी ज्यादा मांग भी करती है। हृदय भी, प्रेम की क्षमता भी । इसलिए प्रेमी को हम अंधा कहते हैं। इसीलिए कहते हैं कि है 323 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4* तो है, नहीं है तो नहीं है। और कोई उपाय नहीं है। प्रेम है तो है, लेकिन मीरा का नृत्य बाहर भी फूट रहा है। बाहर भी बह रही है और नहीं है तो नहीं है, उपाय नहीं है। इसलिए प्रेमी एकदम यह धारा। जो भीतर हुआ है, वह बाहर भी तोड़कर आ रहा है। असहाय मालूम पड़ता है, किसी विराट शक्ति के हाथों में पड़ उसकी तरंगें दूर तक जा रही हैं। निश्चित ही, कुछ और भी बात हुई गया; अपना कोई वश नहीं चलता मालूम पड़ता। खिंचा चला जा | | है। वह, दूसरी शर्त पूरी हो, तब होती है। रहा है। भागा चला जा रहा है। खुद का नियंत्रण नहीं मालूम पड़ता। | हम सोच भी नहीं सकते बुद्ध को नाचता हुआ। जब बुद्धि पूरी इसलिए भक्त होना दुरूह बात है। पर अगर बुद्धि शुद्ध हो और | तरह शुद्ध हो जाती है, तो जो अनुभूति होती है, वह आंतरिक है; प्रेम निष्काम हो, तो वह महान घटना भी घटती है और भक्ति का | अत्यंत आंतरिक है; उसको बाहर तक ले जाने का द्वार नहीं है। और फूल भी खिलता है। खिलता है; कभी किसी चैतन्य में, कभी किसी | | जब हृदय भी कामना से मुक्त हो जाता है, तो वह द्वार भी खुल मीरा में खिलता है। लेकिन बहुत रेयर फ्लावरिंग है, बहुत कठिनाई | जाता है, जो बाहर ले जाता है। की बात है। ___ इसे आप ऐसा समझें कि जब तक आपके पास हृदय नहीं होता इसलिए मैं कहता हूं कि बुद्ध होना या महावीर होना कितना ही है, तब तक आप दूसरे से संबंधित हो ही नहीं सकते। सब संबंध कठिन हो, फिर भी बहुत कठिन नहीं है। एक ही शर्त है कि बुद्धि हार्दिक हैं। जितना बड़ा हृदय होता है, उतना संबंधों का विस्तार पूरी शुद्ध हो जाए। लेकिन मीरा का होना थोड़ा अनूठा है, चैतन्य | | होता है। असल में हृदय के द्वारा ही हम दूसरे को संवादित कर पाते का होना थोड़ा अनूठा है। इस अनूठे में एक तत्व और जुड़ता है, | हैं। दूसरे से जो हम जुड़ते हैं, कम्युनिकेट होते हैं, वह हृदय के द्वारा एक दिशा और जुड़ती है, कि हृदय भी निष्काम हो। होते हैं। इसलिए बुद्ध शांत होंगे, शांति उनमें गहरी होगी, निर्विकार होंगे, | - मीरा जब नाचती है, तो जो बुद्ध नहीं कह पाते, वह उसके बूंघर शुद्ध होंगे, लेकिन एक अर्थ में निगेटिव, नकारात्मक मालूम पड़ेंगे। | की झनकार से कहा जाता है। और जब चैतन्य कीर्तन में डूब जाते यह तो हम कह सकते हैं, उनकी अशांति मिट गई; यह भी हम कह | हैं, तो जो बुद्ध नहीं बता पाते, चेष्टा करते हैं, समझाते हैं पूरे जीवन, सकते हैं, उनका दुख मिट गया; यह भी हम कह सकते हैं कि उनकी | फिर भी पाते हैं कि असमर्थता है कोई, चैतन्य असमर्थ नहीं मालूम सब पीड़ा, संताप खो गया; यह भी कह सकते हैं, चिंता अब न | | पड़ते। आंसू से भी कह देते हैं। नाचकर भी कह देते हैं। दौड़कर बची-लेकिन यह सब नकार है। क्या-क्या नहीं रहा, वह हम कह | | भी कह देते हैं। अभिव्यक्ति चैतन्य को सरल मालूम पड़ती है। सकते हैं; लेकिन यह बताना मुश्किल है कि क्या हुआ! ...। | लेकिन भक्ति के साथ एक वहम जुड़ गया, इसलिए कठिनाई मीरा में हमें सिर्फ यही नहीं दिखाई पड़ता है कि उसकी अशांति हो गई। हमने भक्ति को बहुत सस्ती समझा। और समझा कि ज्ञान मिट गई, चिंता मिट गई, संताप मिट गया, दुख मिट गया; साथ तो सबके वश की बात नहीं है, भक्ति सबके वश की बात है। इससे में उसमें नाचता हुआ आनंद भी दिखाई पड़ता है, विधायक, | | भ्रांति हो गई। मैं आपसे कहता हूं, ज्ञान थोड़े ज्यादा लोगों के वश पाजिटिव। क्या हुआ है, वह भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। क्या खो| की बात है, भक्ति थोड़े कम लोगों के वश की बात है। क्योंकि गया है, वह तो दिखाई ही पड़ता है; लेकिन क्या हुआ है, क्या मिल अच्छी बुद्धि पा लेना बहुत कठिन नहीं है; अच्छा हृदय पाना बहुत गया है, उसकी भी प्रत्यक्ष झलक मालूम होती है। | कठिन है। और बुद्धि की शिक्षा के तो बहुत उपाय हैं जगत में; हृदय बुद्ध को जो भी हुआ है, वह भीतर है; वह बाहर नहीं आ पाता। की शिक्षा का अब तक कोई उपाय नहीं है। क्योंकि हृदय के बिना कोई भी चीज बाहर नहीं आ सकती। हृदय || बुद्धि के लिए विश्वविद्यालय हैं, शिक्षक हैं, शिक्षा-पद्धतियां अभिव्यक्ति का द्वार है। बुद्ध को जो हुआ है, वह भीतर हुआ है; हैं। हृदय के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं है, कोई शिक्षक नहीं जो नहीं हो गया है, वह बाहर गिरा है। हमने देखा है उनको पहले | है, कोई शिक्षा-पद्धति नहीं है। हृदय अब तक अछूता पड़ा है। अशांत, अब अशांति गिर गई है। हमने देखा है पहले उन्हें चिंतित, | | हृदय अब तक एक अंधेरा महाद्वीप है, जिसमें कभी-कभी कोई अब चिंता नहीं है। हमने देखा है उन्हें पहले, उनके माथे पर उतरता है। सलवटें-दुख की, पीड़ा की, संताप की। वे खो गई हैं। लेकिन । लेकिन अगर यह दूसरी शर्त पूरी हो सके कि प्रेम हो, और यह सब निषेध है। उनके भीतर क्या हुआ है, यह वे ही जानें। कामनारहित हो। बड़ी कठिन शर्त है। बड़ी कठिन शर्त है। कठिन | 324| Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कर्ताभाव का अर्पण शर्त ऐसी है, जैसे मैं आपसे कहूं, नदी से तो गुजरें, लेकिन पानी | लगता है कि जब भी हम प्रेम में पड़ेंगे, तो कामवासना पीछे आ में पैर न छुए; आग से तो गुजर जाएं, लेकिन जलन जरा भी न हो। जाएगी। आप कहेंगे, बिना आग से गुजरे जलन नहीं होती, तो मैं बिना आग एक और भी प्रेम है, जो वासना की छाया की तरह नहीं जाना से गुजर जाऊं, जलन नहीं होगी। लेकिन शर्त यह है, आग से गुजरें जाता, वरन एक अंतर्निहित दशा की तरह जाना जाता है। और जलन न हो। इसे थोड़ा समझ लें। ध्यान रहे, कोई अगर चाहे तो प्रेम को छोड़ दे, तो वासना छूट जब भी मैं कहता हूं प्रेम, तो मेरा मतलब होता है किसी से। और जाती है। यह कठिनाई है। अगर आग में न जाएं, तो जलने का कोई जब भी मैं कहता हूं ज्ञान, तो मतलब होता है मुझमें। और जब भी सवाल नहीं है। अगर पानी में न जाएं, तो भीगने का कोई सवाल | | मैं कहता हूं प्रेम, तब तीर किसी और की तरफ झुक जाता है, इशारा नहीं है। बहुत लोग हैं, जो प्रेम से इसीलिए भयभीत हो जाते हैं कि किसी और की तरफ हो जाता है। जब भी मैं कहता हूं ज्ञान, तो दूसरे प्रेम में गए, तो जले; भीगे; प्रेम में गए, तो वासना रहेगी ही। की तरफ तीर नहीं जाता; ज्ञान होता है मेरा। तो जब भी मैं कहता हूं इसलिए जो ज्ञान की दिशा में चलने वाले लोग रहे, उन्होंने कहा, प्रेम, तब दूसरा भीतर प्रवेश कर गया; प्रेम शब्द कहते ही मैं प्रेम से सावधान रहना। प्रेम में पड़ना ही मत। सावधान करने का अकेला नहीं रह जाता, दूसरा आ जाता है। कारण इतना ही था कि आशा बहुत कम है कि प्रेम में पड़े और | | इसका मतलब हुआ कि हमारा समस्त प्रेम का अनुभव किसी वासना में न पड़ जाएं। प्रेम और वासना के बीच इतना गहरा संबंध | | आंतरिक अवस्था का अनुभव नहीं है, केवल व्यक्तियों के बीच जो है कि प्रेम में गए, तो वासना में चले ही जाएंगे। इसलिए ज्ञानियों | वासना के संबंध हैं, उनका ही अनुभव है। इसी वजह से प्रेम शब्द ने कहा है कि वासना से तो बचना जरूरी है। प्रेम से बच जाना, तो का उपयोग करते ही...अगर मैं अपने कमरे में अकेला बैठा हूं, वासना से बच जाओगे। और आप आएं, और मैं कहूं कि मैं ज्ञान में था, तो आप कमरे में भक्त की शर्त बडी कठिन है। कष्ण कहते हैं. प्रेम में तो जाना. चारों तरफ नहीं देखेंगे कि कोई मौजद है या नहीं। अगर मैं कहं, मैं वासना से बच जाना; आग में चलना, जलना मत; पानी में उतरना, बड़े प्रेम में था, तो आप चारों तरफ कमरे के देखेंगे कि कोई मौजद भीगना मत। | है! आप अकेले प्रेम में थे! तो फिर शायद सोचेंगे, आंख बंद करके इसलिए मैं कहता हूं, भक्ति थोड़ी कठिन बात है। लेकिन बड़ी | | कोई कल्पना कर रहे होंगे। लेकिन दूसरा जरूरी मालूम पड़ता है, क्रांति भी है। चाहे कल्पना में ही सही। अब इसे हम थोड़ा समझें कि प्रेम अनिवार्य रूप से वासना क्यों | जिस प्रेम की कृष्ण बात कर रहे हैं, वह ज्ञान की तरह ही बात बन जाता है? क्या यह अनिवार्यता प्रेम में है कि प्रेम वासना बनेगा | | है, ध्यान की तरह ही बात है। दूसरे से उसका संबंध नहीं है; स्वयं का ही आविर्भाव है। इसे आप ऐसा समझें कि जैसे ध्यान की ___ अगर ऐसा अनिवार्य हो, तो फिर कृष्ण यह शर्त नहीं लगाएंगे। | साधना होती है, ऐसे ही प्रेम की साधना होती है। यह अनिवार्यता प्रेम में नहीं है। यह अनिवार्यता कहीं मनुष्य की बैठे हैं कमरे में, प्रेम अनुभव करें; अपने चारों तरफ प्रेम बुनियादी समझ की भूल का हिस्सा है। फैलता हुआ अनुभव करें; भीतर प्रेम भरा हुआ अनुभव करें। असल में जब भी हम प्रेम करते हैं, तो वासना के कारण ही करते | | लोक-लोकांतर तक आपका प्रेम फैल जाए, लेकिन दूसरे की हैं। वासना पहले आ जाती है, प्रेम पीछे आता है। वासना पहले अपेक्षा को मौजूद न करें। एक घंटा रोज दूसरे की अपेक्षा को बीच हमारे द्वार को खटखटा जाती है और तब प्रेम प्रवेश करता है। हमने में न लाएं। जो भी प्रेम जाना है, वह वासना के पीछे जाना है। हमने जो भी प्रेम ___ प्रेम दूसरे से संबंध नहीं, वरन मेरे भीतर एक घटना है, जो चारों जाना है, वह वासना की छाया की तरह जाना है। इसलिए हमारे प्रेम तरफ फैलती चली जाती है, जैसे दीए से प्रकाश फैलता है। ऐसा के अनुभव में वासना छा गई है। और हमने जन्मों-जन्मों तक जब | बैठ जाएं घंटेभर। और मुझसे प्रेम फैल रहा है चारों तरफ। कमरे भी प्रेम जाना है, वासना के पीछे जाना है। हमारा प्रेम जो है, वह की दीवालों को पार करके नगर की दीवालों में भर गया है। और हमारी कामवासना की छाया से ज्यादा नहीं है। इसलिए हमें डर नगर की दीवालों को पार करके राष्ट्र, और राष्ट्र की दीवालों को ही? 1325 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 * एकपटाराज पार करके पूरी पृथ्वी को उसने घेर लिया है। और दूर चांद-तारों | | इस आदमी से जो ऊर्जा निकल रही है, वह लोगों को धकाती है तक फैलता जा रहा है। सारा आकाश मेरे प्रेम से भर गया है। और हटाती है। इसको अगर एक घंटा रोज आप फिक्र करते रहें तो धीरे-धीरे । अब तो इसे मापा भी जा सकता है। लेकिन धर्म सदा से जानता धीरे-धीरे, प्रेम दूसरे से संबंध है, यह आपकी धारणा टूट जाएगी। रहा है कि प्रेम संबंध नहीं है, अंतर-ऊर्जा है, इनर एनर्जी है। और एक घड़ी आपके भीतर आ जाएगी, जब आपको लगेगा, प्रेम | | जब मैं कहता हूं, प्रेम शक्ति है, एनर्जी है, ऊर्जा है, तब उसका मेरी अंतर-दशा है। तब आप प्रेम करेंगे नहीं, प्रेम हो जाएंगे। तब | अर्थ यह हुआ कि दूसरे से उसका संबंध करने से वह ऊर्जा प्रेम करने के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं होगी। दूसरा हो या न हो, | वासनाग्रस्त हो जाती है। दूसरे से संबंधित बनाने से, दूसरे से बांध आप प्रेम में रहेंगे ही। तब आप चलेंगे, तो आपका प्रेम आपके लेने से अशुद्ध हो जाती है। दूसरे से बांध लेने से विकृत हो जाती साथ चलेगा; उठेंगे, तो आपका प्रेम आपके साथ उठेगा; बैठेंगे, है, कुरूप हो जाती है। तो आपका प्रेम आपके साथ आएगा। निष्काम प्रेम का अर्थ है, प्रेम की ऊर्जा हो और किसी से बंधी कभी-कभी किसी व्यक्ति के पास जाकर आपको अचानक न हो, किसी कामना के लिए न हो। लगता है कि इस व्यक्ति को न आप जानते, न आप पहचानते; न | तो कृष्ण कहते हैं, बुद्धि हो शुद्ध, विचार का कंपन न हो; हृदय इसका कुछ बुरा जाना है, न इसके किसी दुराचरण की खबर है। | हो प्रेम से भरा, वासना की जरा-सी भी झलक न हो, तो भक्त का लेकिन पास जाकर अचानक आपको लगता है रिपल्शन, विकर्षण, | जन्म होता है। हट जाओ, दूर हट जाओ। किसी व्यक्ति के पास जाकर अचानक, और ऐसा भक्त ही अपना सब कुछ परमात्मा के चरणों में छोड़ अजनबी के पास, लगता है कि गले मिल जाओ। न उसे जाना, न | | पाता है, अपना कर्तापन छोड़ पाता है। उसे पहचाना; न कोई संबंध है! आकर्षण। अब इस सूत्र को हम पूरा देख लें। जिस व्यक्ति के पास आपको जाकर लगता है कि कोई हे अर्जन। मेरे पजन में पत्र. पष्प, फल, जल इत्यादि जो कछ आकर्षण, कोई मैग्नेटिज्म खींच रहा है, समझना कि उस व्यक्ति के भी कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि, पास प्रेम की एक क्षमता, एक मात्रा है। छोटी ही है, लेकिन एक | निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्प, ' मात्रा है। जिस व्यक्ति के पास आपको विकर्षण मालूम होता है, | फल आदि मैं ही ग्रहण करता हूं। हट जाओ, कोई शक्ति जैसे दूर हटाती है, बीच में कोई शक्ति खड़ी ऊपर से देखने में तो बहुत सीधा लगेगा। पत्र, पुष्प, फल, हो जाती है और पास नहीं आने देती, तो समझना कि उस व्यक्ति | जल-हम सब जानते हैं, हम सबने चढ़ाया है। जल चढ़ाया है, के पास प्रेम का बिलकुल अभाव है; जो खींच सकता है, उसका | | फूल चढ़ाया है, पत्ते चढ़ाए हैं, हम सबको पता है। लेकिन कृष्ण बिलकुल अभाव है। तो आप धकाए जा रहे हैं। और यह भी हो | | जैसे लोग इस तरह की क्षुद्र बातें करते नहीं हैं। क्या मतलब है पत्र, सकता है अभ्यास से कि प्रेम का अभाव तो हो ही, साथ में घृणा पुष्प, फल चढ़ाने का? का आविर्भाव हो गया हो; घृणा एक स्थिति बन गई हो, एक दशा एक मतलब आपको पता है, वह मतलब नहीं है। जो मतलब बन गई हो। आपको पता नहीं है, वही मतलब है। वह मैं आपसे कहता हूं। अभी तो वैज्ञानिकों ने चित्त की इस दशा को नापने के लिए यंत्र पत्र, पुष्प, फल व्यक्तित्व के खिलावट की तीन अवस्थाएं हैं। भी निर्मित किए हैं। यह जानकर आप चकित होंगे। और अब तो | कृष्ण कहते हैं कि तू जैसा भी है, अगर अभी सिर्फ पत्ता ही है, अभी ऐसे यंत्र हैं, जिनके सामने खड़े होकर हम कह सकते हैं कि यह | फूल तक नहीं पहुंचा, तो भी कोई फिक्र नहीं, पत्ते को ही चढ़ा दे। व्यक्ति खींचता है लोगों को कि हटाता है। क्योंकि वह जो भीतर अगर त पत्ते से आगे निकल गया है और फल बन गया है. तो फल प्रेम की ऊर्जा है, मैग्नेटिक है। अगर प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति उस | की फिक्र मत कर कि जब फल बनूंगा, तब परमात्मा को चढूंगा। यंत्र के सामने खड़ा होगा, तो यंत्र का कांटा खबर देता है कि यह फूल ही चढ़ा दे। अगर तू फल हो चुका है, तो फल ही चढ़ा दे। आदमी लोगों को अपनी तरफ खींच लेता है। अगर यह आदमी लेकिन तब शायद उन्हें खयाल आया होगा कि ऐसे लोग भी तो घृणा से भरा हो, तो कांटा उलटा घूमता है और खबर देता है कि हैं, जो अभी पत्ते भी नहीं हैं, अभी पानी ही हैं। तो उन्होंने कहा, 326 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्ताभाव का अर्पण * अगर तू अभी जल ही है...। कृष्ण नहीं कहेंगे कि राइपननेस इज़ आल। वे कहेंगे, सरेंडर इज़ जल जो है, बिलकुल प्राथमिक है। उससे नीचे फिर और कुछ आल; पक जाना नहीं, समर्पित हो जाना। और तब वे यह कहते हैं नहीं हो सकता। जल ही बनता है पत्ता। फिर बढ़ता है, तो पत्ता बन कि समर्पित होने के लिए फल के तक रुकने की भी कोई जरूरत जाता है फूल। फिर बढ़ता है, तो फूल बन जाता है फल। नहीं है। फल ही चढ़ेगा, ऐसा नहीं; पत्ता भी चढ़ जाएगा; पानी भी तो कृष्ण ने कहा कि तू हो चाहे पत्ता, चाहे फूल, चाहे फल; तू चढ़ जाएगा; फूल भी चढ़ जाएगा। जो जहां है, वहीं से अपने को जो भी हो, चढ़ा दे; तू जो भी हो, वैसा ही चढ़ जा। अर्पित कर दे; कल की प्रतीक्षा न करे; कल के लिए बात को टाले हममें से बहुत लोग कहते हैं-ये सब हमारी बेईमानी के हिस्से | न; स्थगित न करे। यह तो अर्थ है। हैं-हममें से बहुत लोग कहते हैं कि अभी तो कुछ है ही नहीं मेरे ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जो पत्ते-फूल चढ़ा आते हैं, वह पास, तो अभी परमात्मा को चढ़ाऊं भी क्या? बंद कर देना। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जब फूल चढ़ाएं, तब याद कभी भी नहीं होगा आपके पास, जिस दिन आप अनुभव कर | रखना कि इस फूल के चढ़ाने से संकेत भर मिलता है, हल नहीं सकें कि परमात्मा को चढ़ाने योग्य कुछ मेरे पास है। आप पोस्टपोन | | होता। जब पत्ता चढ़ाएं, और जब पानी ढालें परमात्मा के चरणों में, करते जा सकते हैं। जरूर ढालते चले जाना, लेकिन याद रखना, यह पानी ढालना ये तीन अवस्थाएं हैं, या चार। जल की अवस्था का अर्थ है कि | | केवल प्रतीक है, सिंबल है। ध्यान रखना कि कब तक इस पानी को आप में किसी तरह का विकास नहीं हुआ है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, | | ढालते रहेंगे? एक दिन अपने पानी को ढालने की तैयारी करनी है; उसे भी मैं स्वीकार कर लूंगा। मैं तो, जो भी चढ़ाया जाता है, उसे | | एक दिन अपना फूल चढ़ा देना है; एक दिन अपना फल समर्पित स्वीकार कर लेता हूं। सवाल यह नहीं है कि क्या चढ़ाया, सवाल | | कर देना है। यह है कि चढ़ाया, अर्पित किया। अगर तू पत्ता है, तो पत्ते की तरह उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया आ जा; अगर फूल हो गया है, तो फूल की तरह आ जा; अगर फल | हुआ सब कुछ मैं ही ग्रहण करता हूं! हो गया है, तो फल की तरह आ जा। जिस भी अवस्था में हो। यह तो हम देखते हैं कि फल हम चढ़ा आते हैं, पुजारी ग्रहण ये चार अवस्थाएं हैं चेतना की। पानी उस अवस्था को कहेंगे, | करता है। पक्की तरह पता है। यह भी हम देखते हैं कि फूल हम जल उस अवस्था को कहेंगे, जिसमें चेतना आपकी बिलकुल ही | |चढ़ा आते हैं, वे फिर बाजार में बिक जाते हैं। प्रिमिटिव है, बिलकुल प्राथमिक है। पत्र उस अवस्था को कहेंगे, एक मंदिर की दुकान को मैं जानता हूं, क्योंकि दुकानदार मेरे जिसमें आपकी चेतना ने थोड़ा विकास किया, रूप लिया, आकार | | परिचित हैं। उन्होंने मंदिर नया बना था, तब वह दुकान खोली थी। लिया। फूल उस चेतना को कहेंगे, जिसमें आपकी चेतना ने न | | कोई पंद्रह वर्ष पहले। तब उन्होंने पहली बार जो नारियल खरीदे थे, केवल रूप-आकार लिया, बल्कि सौंदर्य को उपलब्ध हुई। फल वह दुकान उनसे ही चल रही है। क्योंकि वे नारियल रोज चढ़ जाते उस अवस्था को कहेंगे, जिसमें आपकी चेतना सौंदर्य को ही | हैं; रात दुकान में वापस लौट आते हैं। फिर दूसरे दिन बिक जाते उपलब्ध नहीं हुई, और चेतनाओं को जन्म देने की सामर्थ्य को भी | हैं, फिर चढ़ जाते हैं; रात फिर वापस लौट आते हैं। उन्होंने दुबारा उपलब्ध हुई; पक गई। नारियल नहीं खरीदे, क्योंकि पुजारी रात बेच जाता है। नारियल के नीत्शे ने कहा है, राइपननेस इज़ आल-पक जाना सब कुछ है। | सारी दुनिया में दाम बढ़ गए, उनकी दुकान पर अभी तक नहीं बढ़े। लेकिनं कृष्ण नहीं कहेंगे यह। कृष्ण कहेंगे, पक जाना सब कुछ | सस्ते से सस्ते में वे देते हैं। नारियल के भीतर अब कुछ बचा भी नहीं है, चढ़ जाना सब कुछ है। नहीं होगा! नीत्शे ठीक कहता है, क्योंकि नीत्शे की दृष्टि में कोई ईश्वर नहीं| हमें पता है कि फूल हम चढ़ा आएंगे, तो वह उसको नहीं मिल है। तो नीत्शे कहता है, आदमी पक जाए, परा पक जाए। उसकी| सकता। जब तक कि चेतना का फूल न चढ़ाया जाए, तब तक बुद्धि, उसकी प्रतिभा, उसका व्यक्तित्व एक पका हुआ फल हो | | परमात्मा का भोजन नहीं हो सकता। जब तक हम स्वयं को ही न जाए, तो सब है। राइपननेस इज़ आल। बात पूरी हो गई। सुपरमैन | | चढ़ा दें, तब तक हम उसके हिस्से नहीं बनते। पैदा हो गया। महामानव पैदा हो गया। पक गया मनुष्य। कृष्ण कहते हैं कि मैं उस सबको ग्रहण कर लेता हूं, सबको, जो 327 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4* भी मुझे चढ़ाया जाता है; वह सब मेरा ही अंग हो जाता है। | इतना भी नहीं कहते कि तू परमात्मा के साथ एक हो जा। कहते हैं, इसलिए हे अर्जुन, तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है. | मेरे साथ एक हो जा। जो कुछ हवन करता है, दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप | अनेक लोगों को कृष्ण का यह वक्तव्य अहंकार से भरा हुआ करता है, वह सब मुझे अर्पण कर। इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण मालूम पड़ता रहा है, सदियों-सदियों से। और जो लोग नहीं समझ करने रूप संन्यास-योग से युक्त हुए मन वाला तू शुभ-अशुभ पाते, उन्हें लगता है-थोड़ी अड़चन मालूम पड़ती है—कि कृष्ण फल रूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा, और उससे मुक्त हुआ मेरे | | भी कैसा आदमी है? थोड़ा तो संकोच खाना था! अर्जुन से सीधे को ही प्राप्त होगा। | ही कहे चले जाते हैं, छोड़ दे सब मुझ पर! सब धर्म-वर्म को छोड़ इस सूत्र में अंतिम दो-तीन बातें और खयाल ले लेने जैसी हैं। दे, मेरी शरण में आ! जो व्यक्ति अपना सब समर्पित कर देगा, अपने को पीछे बचाए | जरूर कृष्ण किसी और चैतन्य से बोलते हैं। यह उस नदी की बिना, विद नो विदहोल्डिंग, पीछे अपने को जरा भी बचाए बिना | आवाज है, जो सागर में गिर गई। अब नदी अगर यह भी कहे कि जो अपने को अशेष भाव से, सब कुछ, पूरा का पूरा, समग्रीभूत सागर में गिर जा, तो झूठ होगा। अब तो नदी यही कहती है कि मुझ रूप से समर्पित कर देगा, वह परमात्मा का हिस्सा हो जाता है। सागर में मिल जा। . हिस्सा कहना भी ठीक नहीं, भाषा की भूल है, वह परमात्मा ही हो | और अर्जुन को कठिनाई नहीं हुई इस बात से। गीता जिन्होंने भी जाता है। क्योंकि परमात्मा में कोई हिस्से नहीं होते, कोई विभाग | पढ़ी है, उनको कभी न कभी कठिनाई होती है। गीता के बड़े भक्त नहीं होता। हैं, उनको भी भीतर थोड़ा-सा खयाल आता है कि बात.क्या है? जब एक नदी सागर में गिरती है, तो सागर का हिस्सा नहीं हो कृष्ण को ऐसा नहीं कहना था, कोई और तरकीब से कह देते। यह जाती, सागर हो जाती है। सागर का हिस्सा तो हम तब कहें, जब | । सीधा क्या कहने की बात थी? क्या कृष्ण को भी अहंकार है? वह कि उसका कोई अलग-थलग रूप बना रहे। खोजने जाएं और | क्यों बार-बार इस मैं शब्द का उपयोग करते हैं? अर्जुन को तो मिल जाए-कि यह रही गंगा। सागर में उसकी धारा अलग बहती कहते हैं, तू सब छोड़! और खुद अपना मैं जरा भी नहीं छोड़ते हैं! रहे। कहीं नहीं बचती; सागर हो जाती है, फैल जाती है; एक हो | संदेह उठता ही रहा है। लेकिन अर्जुन के मन में जरा भी नहीं जाती है। उठा। अर्जुन ने बहुत सवाल पूछे, यह सवाल जरा भी नहीं पूछा कि तो ध्यान रखना, जब कोई परमात्मा से एक होता है, तो वह यह क्या बात है? मेरे मित्र हो, मेरे सखा हो, फिलहाल तो मेरे उसका अंश नहीं होता, परमात्मा ही हो जाता है; पूरा सागर हो जाता सारथी हो, ड्राइवर हो, थोड़ा तो खयाल करो कि मैं तुमसे ऊपर बैठा है; फैल जाता है; एक हो जाता है। हम परमात्मा के हिस्से नहीं हो | | हूं, तुम मुझसे नीचे बैठे हो; केवल मेरे रथ को सम्हालने के लिए सकते, क्योंकि परमात्मा कोई यंत्र नहीं है, जिसके हम हिस्से हो | | तुम्हें ले आया हूं, और तुम कहे जाते हो कि सब छोड़ और मेरी सकें। परमात्मा सागर जैसे चैतन्य का नाम है। उसमें कोई दीवालें | शरण आ! और विभाजन नहीं हैं। उसमें हम होते हैं, तो हम पूरे ही हो जाते हैं। जब कृष्ण ने कहा होगा, मेरी शरण आ, तो अर्जुन भी उनकी हम उसके साथ पूरे एक हो जाते हैं। आंखों में उस सागर को देख सका होगा। नदी उसे भी दिखाई इसलिए कृष्ण अगर इतनी हिम्मत से अर्जुन से कह सके कि मैं | पड़ती, तो वह भी पूछ लेता। उसे नदी नहीं दिखाई पड़ी होगी। ही हं वह, तो उसका कारण है। अगर इतनी हिम्मत से कह सके कि लेकिन यह बड़ा आत्मीय संबंध था। एक शिष्य और एक गुरु छोड अर्जन त सब, और मझ पर ही समर्पित हो जा। तो यह कृष्ण के बीच था, दो मित्रों के बीच था। अगर भीड़-भाड़ वहां भी खडी उस व्यक्ति के लिए नहीं कह रहे हैं, जो अर्जुन के सामने खड़ा था; | होती, तो जरूर भीड़ में से कोई चिल्लाता कि बंद करो! यह क्या यह उस व्यक्ति के लिए कह रहे हैं कृष्ण, जो उस सागर में गिरकर कह रहे हो? अपने ही मुंह से कह रहे हो कि मेरी शरण आ! मैं हो गए हैं। यह सागर की तरफ से कही गई बात है। लेकिन अब | भगवान हूं! चूंकि नदी अलग नहीं बची है, इसलिए नदी सीधी बात कहती है | | बड़ा आत्मीय नैकटय का वास्ता था। यह अर्जुन और कृष्ण के कि मेरे साथ एक हो जा। क्योंकि नदी अब सागर हो गई है। कृष्ण बीच निजी संबंध की बात थी। अर्जुन समझा होगा। देखी होगी उसने 328 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कर्ताभाव का अर्पण आंख, कि भीतर कोई मैं नहीं है। मैं सिर्फ भाषा का प्रयोग है। | भीतर से तू बदल जा। भीतर की बदलाहट एक ही बदलाहट है! सब छोड़ दे, तो मेरे साथ एक हो जाएगा। और इसे ही वे कहते | | भीतर का केंद्र या तो अहंकार हो सकता है, या परमात्मा। बस, हैं, इस अर्पण को ही वे कहते हैं संन्यास। इतनी हिम्मत की परिभाषा | दो ही केंद्र हो सकते हैं। भीतर दो तरह के केंद्र संभव हैं, या तो संन्यास की किसी और ने नहीं की है। परमात्मा केंद्र हो सकता है, या मैं—अहंकार-केंद्र हो सकता है। अर्जुन संसारी है पक्का। इससे पक्का और संसारी क्या होता | और जिनका भी परमात्मा केंद्र नहीं होता, वे भी बिना केंद्र के तो है? संसार में भेज रहे हैं उसे युद्ध में, और कहते हैं कि इसे मैं कहता | काम नहीं कर सकते, इसलिए अहंकार को केंद्र बनाकर चलना हूं संन्यास से युक्त हो जाना! तू युद्ध में जा और कर्ता को मेरी तरफ | पड़ता है। छोड दे। लड त और जान कि मैं लड रहा है। तलवार तेरे हाथ में अहंकार जो है, सूडो सेंटर है, झूठा केंद्र है। असली केंद्र नहीं है, हो, लेकिन जानना कि मेरे हाथ में है। गर्दन तू काटे, लेकिन जानना | तो उससे काम चलाना पड़ता है। वह सब्स्टीटयूट सेंटर है, परिपूरक कि मैंने काटी है। और गर्दन तेरी कट जाए, तो भी जानना कि मैंने केंद्र है। जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा को केंद्र बना लेता है, इस काटी है। कर्म और कर्तृत्व को सब मुझ पर छोड़ देना, तो तू संन्यास | परिपूरक की कोई जरूरत नहीं रह जाती, यह विदा हो जाता है। से युक्त हुआ। इसलिए कृष्ण का जोर है कि तू सारे कर्ता के भाव को मुझ पर अर्जुन संन्यासी होना चाहता था, लेकिन पुराने ढब का संन्यासी | | छोड़ दे। और जो ऐसा कर पाता है, वह समस्त कर्म-फल से मुक्त होना चाहता था। वह भी संन्यासी होना चाहता था। वह यही कह | हो जाता है, शुभ और अशुभ दोनों से। उसने जो बुरे कर्म किए हैं, रहा था कि बचाओ मुझे। और बड़े गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे उनसे तो मुक्त हो ही जाता है; उसने जो अच्छे कर्म किए हैं, उनसे कोई ढंग का आदमी चुनना चाहिए था। जो कहता कि बिलकुल भी मुक्त हो जाता है। ठीक! यही तो ज्ञान का लक्षण है। छोड़! सब त्याग कर! चल बुरे कर्म से तो हम भी मुक्त होना चाहेंगे, लेकिन अच्छे कर्म से जंगल की तरफ! मुक्त होने में जरा हमें कष्ट मालूम पड़ेगा। कि मैंने जो मंदिर बनाया गलत आदमी से पूछ बैठा। उसे पूछने के पहले ही सोचना था| था, और मैंने इतने रोगियों को दवा दिलवाई थी, और अकाल में कि यह आदमी जो परम ज्ञानी होकर बांसुरी बजा सकता है, इससे | | मैंने इतने पैसे भेजे थे, उनसे भी मुक्त कर देंगे? वह तो मेरी कुल जरा सोचकर बोलना चाहिए! पूछ बैठा। लेकिन शायद वहां कोई | संपदा है! और मौजूद नहीं था, और कोई उपाय नहीं था; पूछ बैठा। सोचा __ बुरे से छोड़ दें! मैंने चोरी की थी, बेईमानी की थी। क्योंकि उसने भी होगा कि कृष्ण भी कहेंगे कि ठीक है। यह संसार सब | | बेईमानी न करता, तो अकाल में पैसे कैसे भिजवा पाता? और माया-मोह है, छोड़कर तू जा! कैसा युद्ध? क्या सार है? कुछ | अगर चोरी न करता, तो यह मंदिर कैसे बनता? तो चोरी की थी, मिलेगा नहीं। और सीधी-सी बात है कि हिंसा में पड़ने से तो पाप | बेईमानी की थी, कालाबाजारी की थी, उनसे मेरा छुटकारा करवा ही होगा। तू हट जा। दो! लेकिन कालाबाजारी करके जो मंदिर बनाया था, और अकाल इसी आशा में उसने बड़ी सहजता से पूछा था। लेकिन कृष्ण ने | | में जो लोगों की सेवा की थी, और रोटी बांटी थी, और दवा-दारू उसे कुछ और ही संन्यास की बात कही; एक अनूठे संन्यास की | | भेजी थी, उसको तो बचने दो! बात कही; शायद पृथ्वी पर पहली दफा वैसे संन्यास की बात कही। लेकिन कृष्ण कहते हैं, दोनों से, शुभ अशुभ दोनों से! उसके पहले भी वैसे संन्यासी हए हैं. लेकिन इतनी प्रकट बात नहीं | क्योंकि कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि शुभ करने में भी अशुभ हो हुई थी। कहा कि तू सब कर्म कर, सिर्फ कर्ता को छोड़ दे, तो तू | | जाता है। शुभ भी करना हो, तो अशुभ होता रहता है। वे संयुक्त हैं। संन्यास से युक्त हो गया। फिर तुझे कहीं किसी वन-उपवन में जाने | | अगर शुभ भी करना हो, तो अशुभ होता रहता है। अगर मैं दौड़कर, की जरूरत नहीं। किसी हिमालय की तलाश नहीं करनी है। तू यहीं | | आप गिर पड़े हों, आपको उठाने भी आऊं, तो जितनी देर दौड़ता हूं, युद्ध में खड़े-खड़े संन्यासी हो जाता है। | उतनी देर में न मालूम कितने कीड़े-मकोड़ों की जान ले लेता हूं! न पहली दफा आंतरिक रूपांतरण का इतना गहरा भरोसा! बाहर मालूम कितनी श्वास चलती है, कितने जीवाणु मर जाते हैं! से कुछ बदलने की चिंता मत कर; बाहर तू जो है, वही रहा आ। मैं कुछ भी करूं इस जगत में, तो शुभ और अशुभ दोनों संयुक्त 329| Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4 हैं। दोनों संयुक्त हैं। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि कालाबाजारी करके मंदिर बनाया है, ऐसा नहीं। कुछ भी करिएगा, तो आप पाएंगे कि अशुभ भी साथ में हो रहा है। इस जगत में शुद्ध शुभ नहीं किया जा सकता; शुद्ध अशुभ भी नहीं किया जा सकता। अशुभ करने भी कोई जाए तो शभ होता रहता है. शभ करने भी कोई जाए. तो अशुभ होता रहता है। वे संयुक्त हैं; वे एक ही चीज के दो छोर हैं। विभाजन मन का है; अस्तित्व में कोई विभाजन नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, शुभ-अशुभ दोनों से मुक्त हो जाता है। और उनसे मुक्त हुआ मुझको ही प्राप्त होता है। क्योंकि परमात्मा, अर्थात मुक्ति। इसलिए जिन्होंने मुक्ति को बहुत जोर दिया, उन्होंने परमात्मा शब्द का उपयोग भी नहीं करना चाहा। महावीर ने परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं किया। क्योंकि महावीर ने कहा, मुक्ति पर्याप्त है, मोक्ष पर्याप्त है। मोक्ष शब्द काफी है। मुक्त हो गए, सब हो गया। अब और चर्चा छेड़नी उचित नहीं है। लेकिन महावीर के लिए मोक्ष का जो अर्थ है, वही हिंदुओं के लिए, मुसलमानों के लिए, ईश्वर का अर्थ है। ईश्वर का और कोई अर्थ नहीं है, परम मुक्ति, दि अल्टिमेट फ्रीडम। क्योंकि जब तक अहंकार मौजूद है, तब तक मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अहंकार की सीमाएं हैं, कमजोरियां हैं। अहंकार की सुविधाएं-असुविधाएं हैं। अहंकार कुछ कर सकता है, कुछ नहीं कर सकता। बंधन जारी रहेगा। सीमा बनी रहेगी। सिर्फ परमात्मा ही जब मेरा केंद्र बनता है, मेरी सब सीमाएं गिर जाती हैं। उसके साथ ही मैं मुक्त हो जाता हूं। उसके साथ ही मुक्ति है। वही मक्ति है। आज इतना ही। पांच मिनट बैठेंगे। जल्दी न करेंगे। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। और बीच में पांच मिनट कोई भी न उठे, अन्यथा बैठे लोगों को तकलीफ होती है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 बारहवां प्रवचन नीति और धर्म Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।। मालूम पड़ते हैं। वे कहते हैं, यह करो और यह मत करो! और ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। २९ ।। | अगर तुम्हारा सदाचरण होगा, तो तुम प्रभु को उपलब्ध हो जाओगे। अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । | सदाचरण की बात ठीक ही मालूम पड़ती है। और कौन होगा जो साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। ३० ।।। कहेगा कि सदाचरण के बिना भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति। कौन है जो कहेगा कि अनैतिक जीवन भी परमात्मा को उपलब्ध हो कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति । । ३१ ।। सकता है! मैं सब भूतों में सम-भाव से व्यापक हूं; न कोई मेरा अप्रिय नीति तो आधार है, ऐसा हम सभी को लगता है। लेकिन नीति है और न प्रिय है। परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, आधार नहीं है। और स्थिति बिलकुल ही विपरीत है। सदाचरण से वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रकट हूं। कोई परमात्मा को उपलब्ध होता हो, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त हां, परमात्मा को जो उपलब्ध हो जाता है, वह जरूर सदाचरण को हुआ मेरे को निरंतर भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है; उपलब्ध हो जाता है। वह जो परमात्मा की प्रतीति है, वह प्राथमिक क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। और मौलिक है; आचरण गौण है, द्वितीय है। इसलिए वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने | होना भी यही चाहिए; क्योंकि आचरण बाहरी घटना है और वाली शांति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन,तू निश्चयपूर्वक प्रभु-अनुभूति आंतरिक। और आचरण तो अंतस से आता है; सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। | अंतस आचरण से नहीं आता। मैं जो भी करता हूं, वह मुझसे | निकलता है; लेकिन मेरा होना मेरे करने से नहीं निकलता। मेरा अस्तित्व मेरे करने के पहले है। मेरा होना, मेरे सब करने से ज्यादा +वन के संबंध में एक बहुत बुनियादी प्रश्न इस सूत्र में गहरा है। मेरा सब करना मेरे ऊपर फैले हुए पत्तों की भांति है; वह OII उठाया गया है। और जो जवाब है, वह आमूल रूप मेरी जड़ नहीं है, वह मेरी आत्मा नहीं है। से क्रांतिकारी है। उस जवाब की क्रांति दिखाई नहीं | __इसलिए यह भी हो सकता है कि मेरा कर्म मेरे संबंध में जो . पड़ती, क्योंकि गीता का हम पाठ करते हैं, समझते नहीं। हम उसे कहता हो, वह मेरी आत्मा की सही गवाही न हो। कर्म धोखा दे पढ़ते हैं, दोहराते हैं, लेकिन उसकी गहनता में प्रवेश नहीं हो पाता। सकता है; कर्म प्रवंचना हो सकता है; कर्म पाखंड हो सकता है, बल्कि अक्सर ऐसा होता है, जितना ज्यादा हम उसे दोहराते हैं, और हिपोक्रेसी हो सकता है। मेरे भीतर एक दूसरी ही आत्मा हो, जिसकी जितना हम उसके शब्दों से परिचित हो जाते हैं, उतनी ही समझने | कोई खबर मेरे कर्मों से न मिलती हो। की जरूरत कम मालूम पड़ती है। शब्द समझ में आ जाते हैं, तो | __यह तो हम जानते हैं कि मैं बिलकुल साधु का आचरण कर आदमी सोचता है कि अर्थ भी समझ में आ गया! सकता हूं पूरी तरह असाधु होते हुए। इसमें कोई बहुत अड़चन नहीं काश, अर्थ इतना आसान होता और शब्दों से समझ में आ है। क्योंकि आचरण व्यवस्था की बात है। मेरे भीतर कितना ही झूठ सकता, तो जीवन की सारी पहेलियां हल हो जातीं। लेकिन अर्थ | | हो, मैं सच बोल सकता हूं; अड़चन होगी, कठिनाई होगी, लेकिन शब्द से बहुत गहरा है। और शब्द केवल अर्थ की ऊपरी पर्त को अभ्यास से संभव हो जाएगा। मेरे भीतर कितनी ही हिंसा हो, मैं छूते हैं। लेकिन शब्द को हम कंठस्थ कर सकते हैं। और शब्द की| अहिंसक हो सकता हूं। बल्कि दिखाई ऐसा पड़ता है कि जिसको ध्वनि बार-बार कान में गूंजती रहे, तो शब्द परिचित मालूम होने | भी अहिंसक होना हो इस भांति, उसके भीतर काफी हिंसा होनी लगता है। और परिचय को हम ज्ञान समझ लेते हैं। चाहिए। क्योंकि स्वयं को भी अहिंसक बनाने में बड़ी हिंसा करनी इस सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि आचरण महत्वपूर्ण नहीं है। कृष्ण | पड़ती है; स्वयं को भी दबाना पड़ता है; स्वयं की भी गर्दन पकड़नी के मुंह से ऐसी बात सुनकर हैरानी होगी। कृष्ण कहते हैं, आचरण | पड़ती है! महत्वपूर्ण नहीं है, अंतस महत्वपूर्ण है। यह हो सकता है कि मेरे बाहर क्रोध प्रकट न होता हो और मेरे सब धर्म, जैसा हम सोचते हैं ऊपर से, आचरण पर जोर देते भीतर बहुत क्रोध हो। संभावना यही है कि मैं इतना क्रोधी आदमी हो 332 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नीति और धर्म * सकता हूं कि क्रोध मेरे लिए इतना खतरा हो जाए कि या तो मैं क्रोध अनैतिक होते ही आप समाज के संघर्ष में पड़ जाते हैं-कानून, करूं या मैं जी सकूँ। और जीना हो, तो मुझे क्रोध को दबाना पड़े। अदालत, पुलिस। अनैतिक होते ही आप समाज से संघर्ष में पड़ इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि छोटे-मोटे क्रोधी कभी क्रोध जाते हैं। अनैतिक होकर जीना बहुत मुश्किल है। धार्मिक होकर को नहीं दबाते। इतना महंगा नहीं है उनका क्रोध। उतने क्रोध के | जीना भी बहुत मुश्किल है; क्योंकि धार्मिक होते ही आप स्वतंत्र रहते भी जिंदगी चल सकती है। लेकिन बड़े क्रोधी को तो क्रोध | जीवन शुरू कर देते हैं। अनैतिकता से इसलिए कठिनाई आती है दबाना ही पड़ता है; क्योंकि जिंदगी असंभव हो जाएगी; जीना ही | कि जब आप दूसरों के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं, तो आप मुश्किल हो जाएगा। वह आग इतनी ज्यादा है कि जला डालेगी कठिनाई में पड़ेंगे। धार्मिक होने से इसलिए कठिनाई आती है कि सब। कोई संबंध संभव नहीं रह जाएंगे। आप दूसरों को मानना ही बंद कर देते हैं। आप ऐसे जीने लगते हैं, तो बड़े क्रोधी को क्रोध को दबाना पड़ता है। दबाने में भी क्रोध जैसे पृथ्वी पर अकेले हैं, जैसे पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। आपका की जरूरत पड़ती है। क्योंकि दबाना क्रोध का एक कृत्य है; चाहे समस्त नियम आपके भीतर से निकलने लगता है। तब भी कठिनाई दूसरे को दबाना हो, चाहे स्वयं को दबाना हो। तो यह हो सकता होती है। है। यह होता है। यह कठिन नहीं है। यह बहुत ही सहज घटता है ध्यान रहे, अनैतिक होना कठिन है; धार्मिक होना कठिन है। कि बाहर जो आचरण में दिखाई पड़ता है, वह भीतर नहीं होता है। | नैतिक होना कनवीनिएंट है; नैतिक होना बड़ा सुविधापूर्ण है, पार्ट हम आचरण में धोखा दे सकते हैं। आफ रिस्पेक्टिबिलिटी है। वह जो हमारा चारों तरफ सम्मानपूर्ण लेकिन आचरण से जो धोखा दिया जाता है, वह लोगों की समाज है, उसमें नैतिक होकर जीना सबसे ज्यादा सुविधापूर्ण है। आंखों को हो सकता है, लेकिन वह धोखा स्वयं को नहीं दिया जा इसलिए जितना चालाक आदमी होगा, उतना नैतिक होकर जीना सकता। नीति का संबंध है दूसरे को धोखा न देने से, धर्म का संबंध शुरू करेगा। है स्वयं को धोखा न देने से। नीति का संबंध है समाज की आंखों नैतिकता अक्सर चालाकी का हिस्सा होती है। धर्म भोलेपन का में शुभ होने से; धर्म का संबंध है परमात्मा के सामने शुभ होने से।। परिणाम है, निर्दोषता का; नैतिकता चालाकी का, हिसाब का, नैतिक होना आसान है। सच तो यह है कि अनैतिक होने में इतनी कैलकलेशन का: अनैतिकता नासमझी का परिणाम है. अज्ञान का। कठिनाइयां होती हैं कि आदमी को नैतिक होना ही पड़ता है। लेकिन समझ लें। अनैतिकता नासमझी का परिणाम है, अज्ञान का; धार्मिक होना बड़ा कठिन है; क्योंकि धार्मिक न होने से कोई भी | नैतिकता होशियारी का, चालाकी का, गणित का; धर्म निर्दोष अड़चन नहीं होती, कोई भी कठिनाई नहीं होती। बल्कि सच तो यह साहस का। है कि धार्मिक होने से ही कठिनाई शुरू होती है और अड़चन शुरू लेकिन समाज जोर देता है कि जो नैतिक नहीं है, वह धार्मिक नहीं होती है। | हो सकेगा। इसलिए अगर परमात्मा तक जाना है, तो नैतिक बनो! धार्मिक होकर जीना बड़े दुस्साहस का काम है। धार्मिक होकर समाज का जोर ठीक है। समाज इस जोर को दिए बिना जी नहीं जीने का अर्थ है कि अब मेरे जीवन का नियम मेरे भीतर से सकता। समाज को जीना हो, तो उसे नैतिकता की पूरी की पूरी निकलेगा; अब इस जगत का कोई भी नियम मेरे लिए महत्वपूर्ण | व्यवस्था कायम करनी ही पड़ेगी। वह नेसेसरी ईविल है, जरूरी नहीं है; अब मैं ही अपना नियम हूं। और अब चाहे कुछ भी | | बुराई है। जब तक कि सारी पृथ्वी धार्मिक न हो जाए, तब तक परिणाम हो, चाहे कितना ही दुख हो, और चाहे नर्क में भी पड़ना | नैतिकता की कोई न कोई व्यवस्था करनी ही पड़ेगी; क्योंकि पड़े, लेकिन अब मेरा नियम ही मेरा जीवन है। अनैतिक होकर जीना इतना असंभव है। तो नैतिकता की व्यवस्था धार्मिक होकर जीना अति कठिन है। धार्मिक होकर जीने का करनी पड़ेगी। परिणाम तो भुगतना पड़ता है। किसी जीसस को सूली लगती है, अगर दस चोर भी चोरी में कोई संगठन कर लेते हैं, तो भी अपने किसी सुकरात को जहर पीना पड़ता है। यह बिलकुल अनिवार्य है। | भीतर एक नैतिकता की व्यवस्था उन्हें निर्मित करनी पड़ती है। दस धार्मिक होकर जीना बहुत कठिन है। चोरों को भी! समाज के साथ वे अनैतिक होते हैं, लेकिन अपने ध्यान रहे, अनैतिक होकर भी जीना बहुत कठिन है; क्योंकि | | भीतर, उनके गिरोह के भीतर अतिनैतिक होते हैं। और यह मजे की 333 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-4 * बात है कि चोर जितने नैतिक होते हैं अपने मंडल में, उतने साधु भी अपने मंडल में नैतिक नहीं होते ! उसका कारण है। उसका कारण है कि चोर भलीभांति समझता है कि अनैतिक होकर जब समाज में जीना इतना असंभव है और मुश्किल है, तो अगर हम अनैतिक भीतर भी हो गए, तो हमारा जो आल्टरनेटिव समाज है, जो वैकल्पिक समाज है, वह भी मुश्किल हो जाएगा। हम पूरे समाज के खिलाफ तो जी ही रहे हैं, वह मुश्किल हो गया है। अब अगर हम दस लोग भी, जो खिलाफ होकर जी रहे हैं, हम भी अगर अनैतिक व्यवहार करें; और रात में हम भी एक-दूसरे की जेब काट लें; और वायदा दें और पूरा न करें, तो फिर हमारा जीना असंभव हो जाएगा। इसलिए चोरों की अपनी नैतिक व्यवस्थाएं होती हैं। उनका अपना मारल कोड है। और ध्यान रहे, साधुओं से उनका मारल कोड हमेशा श्रेष्ठतर साबित हुआ है। उसका कारण है। उसका कारण है कि साधु तो समाज के साथ नैतिक होकर जीता है। उसे कोई अलग समाज नैतिक बनाकर जीने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए दो साधुओं को इकट्ठा करना मुश्किल मामला है। दो साधुओं को इकट्ठा करना मुश्किल मामला है। सौ-पचास साधुओं को इकट्ठा करना उपद्रव लेना है! लेकिन सौ चोरों को इकट्ठा करें, एक बहुत नैतिक समाज उनके भीतर निर्मित हो जाता है। बुरे आदमी की अपनी नैतिक व्यवस्था है; क्योंकि वह यह समझता है कि बिना उस व्यवस्था के जीना असंभव है। बाहर तो वह लड़ ही रहा है, अगर भीतर अपने गिरोह में भी लड़े, तो अति कठिनाई हो जाएगी। समाज को नैतिकता की व्यवस्था जारी रखनी ही पड़ेगी, क्योंकि आदमी इतना अज्ञानी है। लेकिन समाजं यह भी जोर देता है कि जब तक कोई नैतिक न होगा, तब तक वह धार्मिक नहीं हो सकता। यह वक्तव्य जरूरी है, लेकिन खतरनाक है और असत्य है । सचाई उलटी है। सचाई यह है कि जब तक कोई धार्मिक न होगा, तब तक उसकी नैतिकता आरोपित, थोपी हुई, ऊपर से लादी हुई होगी, अस्थाई होगी, आंतरिक नहीं होगी, आत्मिक नहीं होगी। धार्मिक होकर ही व्यक्ति के जीवन में नीति का आविर्भाव होता है। उस नीति का, जो किसी भय के कारण नहीं थोपी गई होती। न किसी प्रलोभन, न किसी पुरस्कार के लिए, न स्वर्ग के लिए; न नर्क के डर से, न स्वर्ग के लोभ से; न प्रतिष्ठा के लिए, न सम्मान के लिए, न सुविधा के लिए, बल्कि इसलिए कि भीतर अब नैतिक होने में ही आनंद मिलता है और अनैतिक होने में दुख मिलता है। लेकिन ऐसी नैतिकता का जन्म धर्म के बाद होता है। कृष्ण ने इसमें एक सूत्र कहा है, और वह सूत्र समझने जैसा है। वह कहा है, अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त हुआ, मुझे निरंतर भजता है, वह साधु मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। यहां साधु की परिभाषा में कृष्ण ने हैरानी की बात कही है। साधु से सामान्यतया हम समझते हैं, सदाचारी । साधु का अर्थ होता है, सदाचारी; असाधु का अर्थ होता है, दुराचारी। यहां कृष्ण कहते हैं, | अतिशय दुराचारी भी यदि मेरी भक्ति में अनन्य भाव से डूबता है, तो वह साधु है। यहां साधु की पूरी परिभाषा बदल जाती है। साधु का अर्थ ही होता है, सदाचारी। यहां कृष्ण कहते हैं, अतिशय दुराचारी भी साधु कहा जाने योग्य है ! फिर साधु की क्या परिभाषा होगी ? कृष्ण कहते हैं, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है - ए फर्म डिटरमिनेशन | एक यथार्थ निश्चय यहां साधु की परिभाषा है। और वह यथार्थ निश्चय क्या है? वह यथार्थ निश्चय है, प्रभु के स्मरण का । वह यथार्थ निश्चय है, प्रभु के प्रति समर्पण का । वह यथार्थ निश्चय है, उसकी अनन्य भक्ति का । यहां दो-तीन बातें हम समझ लें। एक तो यथार्थ निश्चय वाले को साधु कहना बड़ी नई बात है। आपको इस सूत्र को पढ़ते वक्त | खयाल में न आई होगी। क्योंकि यह तो कृष्ण यह कह रहे हैं कि असाधु भी साधु है, अगर वह यथार्थ निश्चय वाला है। असाधु का | मतलब होता है, दुराचारी । असाधु को भी साधु जानना, अगर वह | यथार्थ निश्चय वाला है, और उसका निश्चय मेरी तरफ गतिमान हो गया है। दो बातें । यथार्थ निश्चय का क्या अर्थ है? यथार्थ निश्चय | के दो अर्थ हैं। एक, समग्र हो, उसके विपरीत कोई भी भाव मन में न हो, तो ही यथार्थ होगा, अन्यथा डांवाडोल होता रहेगा। पूरे मन से लिया गया हो, पूरे प्राणों ने हामी भर दी हो। अगर पूरे प्राणों ने हामी भर दी हो, तो वह निश्चय यथार्थ हो जाएगा। और अगर पूरे प्राणों ने हामी न भरी हो, तो निश्चय काल्पनिक रहेगा, वास्तविक नहीं होगा । और मन डोलता रहेगा; और हम ही बनाएंगे और हम ही मिटाते रहेंगे; एक हाथ से निश्चय की ईंटें रखेंगे, दूसरे हाथ से निश्चय की ईंटों को गिरा देंगे। दोनों तरफ से हम काम करते रहेंगे, 334 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नीति और धर्म * एक तरफ निर्णय लेंगे, एक तरफ निर्णय को तोड़ने का उपाय करते | दुश्मन है, अपने को बदल डालेगा! साधु को यह भय लगा कि चोर रहेंगे। कहीं पहुंचेंगे नहीं। यथार्थ निश्चय का अर्थ हुआ कि पूरे चित्त | के साथ रहने से कहीं मेरी साधुता नष्ट न हो जाए! से लिया गया हो। हसन ने बाद में कहा कि उस दिन मुझे पता चला कि मेरे साधु एक सूफी फकीर हसन एक गांव में आया है। रात आधी हो गई का जो निश्चय था, वह चोर के निश्चय से कमजोर था। वह ज्यादा है, कहीं ठहरने को कोई जगह नहीं है; अजनबी, अपरिचित आदमी दृढ़ निश्चयी था। है। सराय के मालिक ने कहा कि कोई गवाह ले आओ, तब मैं गया, चोर के घर रात रुका। कोई सुबह, भोर होने के पहले चोर ठहरने दूंगा। आया; हसन ने दरवाजा खोला। हसन ने पूछा, कुछ मिला? चोर ने आधी रात, गवाह कहां खोजे? अनजान, अपरिचित गांव है। | हंसते हुए कहा, आज तो नहीं मिला, लेकिन फिर कोशिश करेंगे। कोई पहचान वाला भी नहीं है। परेशान है। एक झाड़ के नीचे सोने | ___ उदास नहीं था, परेशान नहीं था, चिंतित नहीं था; आकर मजे से को जा रहा है कि तब एक आदमी उसे पास से गुजरता हुआ दिखाई | | सो गया! दूसरी रात भी गया। और हसन एक महीने उसके घर में पड़ा। उसने उस आदमी से कहा कि पूरी बस्ती सो गई है; किसी | | रहा, और रोज ऐसा हुआ कि रोज वह खाली हाथ लौटता और को मैं जानता नहीं हूं। क्या आप मेरे लिए थोड़ी सहायता करेंगे कि | हसन उससे पूछता कि कुछ मिला? और वह कहता, आज तो नहीं, चलकर सराय के मालिक को कह दें कि आप मुझे जानते हैं! | लेकिन फिर कोशिश करेंगे! उस आदमी ने कहा—पास आकर हसन को देखा कि फकीर | | फिर बरसों बाद हसन को आत्म-ज्ञान हुआ। दूर उस चोर का है-हसन को कहा कि पहले तो मैं तुम्हें अपना परिचय दे दं, कोई पता भी न था कहां होगा। जिस दिन हसन को आत्म-ज्ञान कि मैं एक चोर हं. और रात में अपने काम पर निकला है। एक हआ. उसने पहला धन्यवाद उस चोर को दिया और परमात्मा से चोरे की गवाही एक साधु के काम पड़ेगी या नहीं, मैं नहीं जानता! | कहा, उस चोर को धन्यवाद! क्योंकि उसके पास ही मैंने यह सीखा सराय का मालिक मेरी बात मानेगा, नहीं मानेगा। मेरी गवाही का | | कि साधारण-सी चोरी करने यह आदमी जाता है और खाली हाथ बहुत मूल्य नहीं हो सकता। लेकिन मैं एक निवेदन करता हूं कि मेरा | लौट आता है; लेकिन उदास नहीं है; थकता नहीं; निश्चय इसका घर खाली है। मैं तो रातभर काम में लगा रहूंगा, तुम आकर सो | टूटता नहीं। कभी ऐसा नहीं कहता कि यह धंधा बेकार है, छोड़ दें; सकते हो। कुछ हाथ नहीं आता! हसन थोड़ा चिंतित हुआ। और उसने कहा कि तुम एक चोर __ और जब मैं परमात्मा को खोजने निकला, उस परम संपदा को होकर भी मुझ पर इतना भरोसा करते हो कि अपने घर में मुझे | खोजने निकला, तो न मालूम कितनी बार ऐसा लगता था कि यह ठहराते हो? | सब बेकार है; कुछ मिलता नहीं। न कोई परमात्मा दिखाई पड़ता चोर ने कहा, जो बरे से बरा हो सकता है, वह मैं करता है। है, न कोई आत्मा का अनुभव होता है। पता नहीं इस सब बकवास अब इससे बुरा और कोई क्या कर सकेगा? चोरी ही करोगे न | में मैं पड़ गया हूं, छोडूं। और जब भी मुझे ऐसा लगता था, तभी ज्यादा से ज्यादा! यह आम अपना काम है। तुम घर आकर रह | मुझे उस चोर का खयाल आता था कि साधारण-सी संपदा को सकते हो। | चुराने जो गया है, उसका निश्चय भी मुझसे ज्यादा है; और मैं परम सराय में जगह नहीं मिली। सराय अच्छे लोगों ने बनाई थी। एक | संपदा को चुराने निकला हूं, तो मेरा निश्चय इतना डांवाडोल है! चोर ने जगह दी! और उसने कहा, अब और बुरा क्या हो सकता | तो जिस दिन उसे ज्ञान हुआ, उसने पहला धन्यवाद उस चोर को है। लेकिन फिर भी हसन डरा कि चोर के घर में रुकना या नहीं | दिया और कहा कि मेरा असली गुरु वही है। हसन के शिष्यों ने रुकना! या झाड़ के नीचे ही सो जाना बेहतर है! | उससे पूछा कि उसके असली गुरु होने का कारण? तो उसने कहा, बाद में हसन ने कहा कि उस दिन मुझे पता चला कि मेरा साधु | | उसका दृढ़ निश्चय! उस चोर से कमजोर था। साधु डरा कि चोर के घर रुकू या न रुकूँ! | दृढ़ निश्चय का अर्थ है कि पूरे प्राण इतने आत्मसात हैं कि चाहे और चोर न डरा कि इस अजनबी आदमी को घर में ठहराऊं या न | | हार हो, चाहे जीत; चाहे सफलता मिले, चाहे असफलता, निर्णय ठहराऊ! चोर को यह भी भय न लगा कि यह साधु है, अपना नहीं बदलेगा। दृढ़ निश्चय का अर्थ है, चाहे असफलता मिले, चाहे 335 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-44 सफलता, चाहे जन्मों-जन्मों तक भटकना पड़े, निर्णय नहीं | नहीं है। बदलेगा। खोज जारी रहेगी। सब खो जाए बाहर, लेकिन भीतर और यह बड़े मजे की बात है कि बुरे आदमियों के पास एक तरह खोजने वाला संकल्प नहीं खोएगा। वह जारी रहेगा। सब विपरीत का निश्चय होता है, जो भले आदमियों के पास नहीं होता। बुरे हो जाए, सब प्रतिकुल पड़ जाए, कोई साथी न मिले, कोई संगीन आदमी अपनी बुराई में बड़े जिद्दी होते हैं। और बरे आदमी अपनी मिले, कोई अनुभव की किरण भी न मिले, अंधेरा घनघोर हो, टूटने बुराई में बड़े पक्के होते हैं। और बुरा आदमी अपनी बुराई का इस की कोई आशा न रहे, तब भी। | तरह पीछा करता है, जैसा कोई भला आदमी अपनी भलाई का कभी कीर्कगार्ड ने इस दृढ़ निश्चय की परिभाषा में कहा है, वन हू कैन | नहीं करता। और बुरा आदमी अपनी बुराई से सब तरह के कष्ट होप अगेंस्ट होप। जो आशा के भी विपरीत आशा कर सके, वही पाता है, फिर भी बुराई में अडिग बना रहता है; और भला आदमी दृढ़ निश्चय वाला है। कष्ट नहीं भी पाता, फिर भी डांवाडोल होता रहता है! दृढ़ निश्चय का अर्थ है, जब सब तरह से आशा टूट जाए, बुद्धि | । कहीं ऐसा तो नहीं है, जिसे हम भला आदमी कहते हैं, वह सिर्फ कोई जवाब न दे कि कुछ होगा नहीं अब; रास्ता समाप्त है, आगे भय के कारण भला होता है; उसके पास दृढ़ निश्चय नहीं होता? कोई मार्ग नहीं है; शक्ति चुक गई; श्वास लेने तक की हिम्मत नहीं | | ऐसा तो नहीं है कि जो चोरी नहीं करता, वह इसलिए चोरी न करता है; एक कदम अब उठ नहीं सकता और मंजिल कोसों तक कोई हो, क्योंकि पकड़े जाने का डर है। ऐसा तो नहीं है कि इसलिए चोरी पता नहीं है, तब भी भीतर कोई प्राण कहता चला जाए कि मंजिल न करता हो कि नर्क में कौन भुगतेगा! ऐसा तो नहीं है कि इसलिए है, और चलूंगा; और चलता रहूंगा। यह जो आत्यंतिक संकल्प है, चोरी न करता हो कि बदनामी हो जाएगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसका नाम दृढ़ निश्चय है। चोरी न करना, केवल गहरे में कायरता हो। कहीं ऐसा तो नहीं है और कृष्ण कहते हैं, दृढ़ निश्चय साधु का लक्षण है। कि वह आदमी अहिंसक बनकर बैठ गया है। वह कहता है, हम दुराचरण-आचरण की चिंता छोड़ देते हैं। अब इसे थोड़ा हम किसी को मारना नहीं चाहते; क्योंकि गहरे में वह जानता है कि गहरे में समझेंगे. तो हमें खयाल में आएगा कि उनके छोडने का मारोगे तो पिटने की तैयारी होनी चाहिए। क्योंकि कोई भी आदमी कारण क्या है? मारने जाए और मार खाने की तैयारी न रखता हो, तो कैसे जाएगा? क्योंकि ध्यान रहे, दुराचरण का मौलिक कारण क्या है? तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि सारी अहिंसा केवल भीतर की कायरता सदाचरण की आकांक्षा सभी में पैदा होती है, लेकिन निश्चय ही का बचाव हो; कि न मारेंगे, न मारे जाएंगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कभी दृढ़ नहीं हो पाता, तो दुराचरण पैदा होता है। दुराचरण गहरे | कि मार खाकर भी अपने को बचा लेने की तरकीब हो, कि तुम में निश्चय की कमी है। | कितना ही मारो, हम तो अहिंसक हैं, हम जवाब न देंगे। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने न चाहा हो कि क्रोध भला आदमी जिसे हम कहते हैं, सौ में नब्बे मौके पर कमजोरी से छुटकारा मिल जाए, जिसने न चाहा हो कि झूठ बोलना बंद | | के कारण भला होता है। इसीलिए तो भलाई इतनी कमजोर है दुनिया करूं। क्योंकि झूठ स्वयं को भी गहरे में पीड़ा देता है; और क्रोध में और बराई इतनी मजबत है। और बरे आदमी को दो सजाएं. और खुद को ही जलाता है; और निंदा अपने ही मन को गंदा कर जाती | | बुरे आदमी को अपराध में दंड दो, जेलखानों में रखो, फांसियां है; और अनीति जिसे हम कहते हैं, वह भीतर एक कुरूपता को, लगाओ। और बुरा आदमी है कि परसिस्ट करता है, अपनी बुराई एक कोढ़ को पैदा करती है। तो कौन है जिसने न चाहा हो? पर मजबूत रहता है। एक बात का तो आदर करना ही पड़ेगा कि लेकिन चाह से कुछ भी नहीं होता, क्योंकि चाह संकल्प नहीं उसकी मजबूती गहरी है; उसकी बुराई बुरी है, लेकिन उसकी बन पाती। चाहते हैं बहुत, चाहते हैं बहुत, और समय पर सब मजबूती बड़ी गहरी है और बड़ी अच्छी है। बिखर जाता है। भीतर संकल्प नहीं होता है, तो चाह सिर्फ चाह रह तो कृष्ण कहते हैं कि अगर कोई आदमी दृढ़ निश्चय वाला है और जाती है, निश्चय नहीं बन पाती। दुराचारी भी है, तो भी उसे साधु समझना; क्योंकि अगर वह अपने तो कृष्ण कहते हैं कि अगर कोई दुराचारी भी हो, तो चिंता नहीं | दृढ़ निश्चय को मेरी ओर लगा दे, तो सब रूपांतरण हो जाएगा। है; असली सवाल यह है कि उसके पास एक दृढ़ निश्चय है या । इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि कोई वाल्मीकि, सब तरह से 336 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति और धर्म * बुरा है; हत्यारा है, चोर है, लुटेरा है, डाकू है; और फिर अचानक महर्षि हो जाता है! जरा-सी घटना, इतनी-सी घटना से इतनी बड़ी क्रांति कैसे होती होगी? क्योंकि आचरण जन्मों-जन्मों का बुरा हो, तो क्षणभर में सदाचरण कैसे बन जाएगा ? एक ही बात हो सकती है कि उस दुराचरण के पीछे जो दृढ़ संकल्प था, वह दृढ़ संकल्प अगर अब सदाचरण के पीछे लग जाए, तो क्षणभर में क्रांति हो जाएगी। क्योंकि वह दुराचरण भी उस संकल्प के कारण ही चलता था। बुरे आदमी मजबूत होते हैं; पागल होते हैं; जो करते हैं, उसको बिलकुल पागलपन से करते हैं। हिटलर जैसा साधु खोजना अभी भी मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। स्टैलिन जैसा साधु खोजना अभी भी मुश्किल है। अगर स्टैलिन को एक धुन सवार थी, तो एक करोड़ आदमियों की हत्या वह कर सकता है! अगर हिटलर को एक खयाल सवार था, तो सारी दुनिया आग में डाल सकता है; खुद जल सकता है, सारी दुनिया को जला डाल सकता है। इतना बल, बुराई के लिए, जिससे कि अंततः दुख के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आता है, निश्चित ही एक गहरी बात है। कहना चाहिए, इस तरह के व्यक्तियों के पास एक तरह की आत्मा है; एक पोटेंशियल, एक बीज-रूप आत्मा है ! हिटलर के पास बड़ी आत्मा है बजाय उस आदमी के, जो डर के मारे साधु बना बैठा है। क्योंकि भय तो आत्मा को जंग मार देता है । हिटलर बुरा है, बिलकुल बुरा है; शैतान; जितना शैतान हो सकता है, उतना शैतान है। लेकिन इस शैतान के पास भी एक आत्मा है, एक संकल्प है। और यह संकल्प जिस दिन भी बदल जाए, उस दिन यह आदमी क्षणभर में क्रांति से गुजर जाएगा। किसी भी जन्म में, कहीं भी, इस हिटलर को किसी दिन जब संकल्प का रूपांतरण होगा, तो इसकी आत्मा से एक बहुत महान तेजस्वी व्यक्तित्व का जन्म हो जाएगा एक क्षण में। क्योंकि यह धारा कोई पतली धारा नहीं है, कोई नदी नाला नहीं है। यह महासागर की धारा है। अगर बुराई की तरफ जाती थी, तो बुराई की तरफ सारा जगत बहेगा इसके साथ। अगर भलाई की तरफ जाएगी, तो इतना ही बड़ा प्रचंड झंझावात भलाई की तरफ भी बहने लगेगा। कृष्ण कहते हैं, दुराचार असली सवाल नहीं है, असली सवाल यह है कि वह जो भीतर संकल्प की क्षमता है, दृढ़ निश्चय है। एक । और दूसरी बात; अकेला दृढ़ निश्चय ही हो, तो काफी नहीं है; क्योंकि दृढ़ निश्चय से आप बुरा भी कर सकते हैं, भला भी कर सकते हैं। दृढ़ निश्चय तो तटस्थ शक्ति है। इसलिए दूसरी शर्त है, अनन्य भाव से मेरा भक्त हुआ निरंतर मुझे भजता है; वह साधु मानने योग्य है। और शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाएगा। शीघ्र ही धर्मात्मा जाएगा। यह जो दृढ़ निश्चय की चेतना है, इसका क्या अर्थ है ? अगर | हम अपनी चेतना को समझें, तो हमारी चेतना ऐसी है, जैसे किसी | कुएं में बाल्टी डालें, और छेद ही छेद वाली बाल्टी हो । फिर कुएं से खींचें पानी को, तो पानी भरेगा तो जरूर पहुंचेगा नहीं। भरेगा | तो जरूर; और जब तक बाल्टी पानी में डूबी रहेगी, पूरी भरी मालूम पड़ेगी, लबालब; और जैसे ही पानी से खींचना शुरू हुआ कि बाल्टी खाली होनी शुरू हो जाएगी। बड़ा शोरगुल मचेगा कुएं में, | क्योंकि सब धाराओं से पानी नीचे गिरेगा। आवाज बहुत होगी, हाथ | कुछ भी न आएगा। हाथ खाली बाल्टी लौट आएगी। हमारी चेतना ऐसी है। इतने छिद्र हैं हमारे संकल्प में कि कई बार भर लेते हैं बिलकुल, और ऐसा लगता है कि सब ठीक हो गया। बस, पानी में डूबी रहे, तभी तक पानी में डूबी रहने का अर्थ, जब तक कल्पना में डूबी रहे, तब तक। तब तक सब ठीक हो जाता है। आज सांझ तय कर लेते हैं, तब लगता है कि बिलकुल साधु हो गया मैं अब, अब कुछ कारण नहीं रहा। रात बिलकुल साधु की तरह सो | जाता हूं। और सुबह हाथ खाली बाल्टी ! बड़ा रातभर शोरगुल होता है, बड़ी आवाजें आती हैं कि भरकर बाल्टी आ रही है। ध्यान रहे, जब भरकर बाल्टी आती है, तो आवाज बिलकुल नहीं होती; और जब खाली बाल्टी आनी होती है, तो आवाज बहुत होती है। हमारे मन में कितनी आवाज चलती है। रोज-रोज निर्णय करते हैं, रोज-रोज बिखर जाते हैं। और धीरे-धीरे हम भलीभांति जान जाते हैं कि हमारे निर्णय का कोई भी मूल्य नहीं है। जिस दिन हमें | यह अनुभव हो जाता है कि हमारे निर्णय का कोई भी मूल्य नहीं है, हमारे संकल्प की कोई क्षमता नहीं है, उसी दिन समझना आपकी मृत्यु हो गई। शरीर कुछ दिन चलेगा, वह अलग बात है, आप मर |गए, आत्मिक रूप से आप मर गए। लाशें जी सकती हैं, जीती हैं; | मुर्दे चल सकते हैं, चलते हैं; लेकिन जिस दिन पता आपको चल | गया कि आपके पास कोई संकल्प नहीं है, उसी दिन आप मर गए। तो हम अपने को धोखा देते रहते हैं; यह भी पता नहीं चलने देते। रोज-रोज नए संकल्प करते रहते हैं। और क्षुद्रतम संकल्प भी कभी पूरे होते नहीं दिखाई पड़ते । बहुत क्षुद्र संकल्प करिए, और आपकी छिद्रों वाली बाल्टी उसको बहाकर रख देगी! 337 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 हमारी चेतना ऐसी है, बहुत छिद्रों वाली । जितने ज्यादा छिद्र होंगे, उतना ही संकल्प मुश्किल हो जाएगा। दृढ़ संकल्प का अर्थ है, जिस बाल्टी में कोई छिद्र नहीं है। उसका अर्थ हुआ कि जो चेतना अपने संकल्प से अपने को भर लेती है, तो बिखर नहीं पाती, बिखराव नहीं होता। क्या करें कि ऐसा हो जाए? यह तो हम जानते हैं कि छिद्रों वाली हमारी चेतना है। क्या करें? क्या करें कि ये छिद्र बंद हो जाएं? इनसे हमारा छुटकारा हो जाए! पहली बात, कभी भी बड़े संकल्प मत करें। बचपन से ही हम हर आदमी को बड़े संकल्प करवाने की शिक्षा देते हैं, उससे असफलता हाथ लगती है। बहुत छोटे संकल्प करें। असली सवाल संकल्प का बड़ा होना और छोटा होना नहीं है, असली सवाल संकल्प का सफल होना है। बहुत छोटे संकल्प करें, लेकिन संकल्पों को सफलता तक पहुंचाएं। बड़े संकल्प मत करें। क्योंकि अगर असफलता मिलती है, तो धीरे-धीरे भीतर हीनता गहरी होती चली जाती है। हर असफलता एक छिद्र बन जाती है। हर असफलता एक छिद्र बन जाती है। हर सफलता छिद्रों का रुकना बन जाती है। बहुत छोटे संकल्प करें, बड़े संकल्प का कोई सवाल नहीं है। तिब्बत में, जब कोई साधु प्रवेश करता है किसी आश्रम में, तो बड़े छोटे संकल्पों की शिक्षा देते हैं, बहुत छोटा संकल्प | साधु को कह देते हैं, बाहर दरवाजे पर बैठ जाओ । आंख बंद रखना, और जब तक गुरु आकर न कहे, तब तक आंख मत खोलना । यह कोई बड़ा संकल्प नहीं है। कौन-सा बड़ा संकल्प है! आप कहेंगे, आंख बंद रख लेंगे। लेकिन बंद रखकर जब बैठेंगे दो-चार घंटे, तब पता चलेगा! कई बार बीच में धोखा देने का मन आएगा। कई बार जरा-सी आंख खोलकर देख लेने का मन होगा कि अभी तक गुरु आया कि नहीं आया ? कौन गुजर रहा है? नहीं तो कम से कम घड़ी का जरा-सा खयाल आ जाएगा कि कितना बज गया ? कितनी देर हो गई? और मन इतना बेईमान है कि आपको पता भी नहीं चलेगा और आप कर गुजरेंगे। बहुत छोटा-सा संकल्प है, लेकिन बैठा हुआ है व्यक्ति, आंख बंद किए हुए बैठा है। छः घंटे बीत गए हैं, वह आंख बंद किए हुए बैठा है। कोई बड़ा काम नहीं करवाया गया है। लेकिन छः घंटे भी अगर उसने ईमानदारी से, आथेंटिकली, प्रामाणिक रूप से आंख बंद रखी है, तो छः घंटे के बाद उस आदमी की बाल्टी के कई छेद बंद हो गए होंगे। यह छोटा-सा प्रयोग है। कोई बहुत बड़ा प्रयोग नहीं है। बहुत छोटा-सा प्रयोग है। सब धर्मों के पास छोटे-छोटे प्रयोग हैं। वे छोटे-छोटे प्रयोग धर्म के लिए नहीं हैं, संकल्प के लिए हैं। समझ लें, कोई धर्म कहता है कि आज उपवास कर लें। कोई धर्म कहता है, आज यह नहीं खाएंगे। कोई धर्म कहता है, आज यह नहीं पहनेंगे। कोई धर्म कहता | है, आज रात सोएंगे नहीं। कोई धर्म कहता है, दिनभर खाना नहीं खाएंगे, रात खाना खाएंगे। इनका धर्म से कोई भी सीधा संबंध नहीं है। इन सबका संबंध संकल्प के, वह जो छिद्रों वाली बाल्टी है, उसको भरने से है। लेकिन जैसा मैंने कहा कि आंख खोलकर धोखा देने का मन | होगा, वह तो समझ में भी आ जाएगा, क्योंकि आंख खोलनी पड़ेगी। अगर आपने एक दिन का उपवास किया है, तो वह उपवास | उसी वक्त टूट जाता है, जिस वक्त भोजन का खयाल आ जाता है और आप कल्पना में भोजन करना शुरू कर देते हैं। उसी वक्त टूट जाता है। फिर उपवास रखने का कोई मूल्य नहीं रह गया। कोई मूल्य नहीं रह गया। और आमतौर से साधक, जो उपवास करते हैं, वे क्या करते हैं? जैसे जैनों में उपवास के संकल्प का बहुत प्रयोग किया गया है। तो जब वे उपवास करेंगे उनके पर्युषण में, तो उपवास करके मंदिर में पहुंच जाएंगे ! साधु की चर्चा सुनेंगे, शास्त्र सुनेंगे, मंदिर में बैठे रहेंगे। न भोजन दिखाई पड़ेगा, न भोजन की चर्चा होगी, न उसकी याद आएगी। इसलिए बचाव करेंगे वहां जाकर । यह धोखा है। भोजन करने या नहीं करने का मूल्य नहीं है; मूल्य तो संकल्प को जगाने का है। तो मैं आपसे कहता हूं कि जिस दिन उपवास करें, उस दिन तो चौके में ही अड्डा जमा दें; उस दिन चौका छोड़ना ही नहीं है । और जितनी अच्छी चीजें आपको पसंद हों, सब बनवाकर अपने चारों तरफ रख लें, और बीच में ध्यानस्थ होकर | बैठ जाएं। एक-एक चीज पर ध्यान दें, और भीतर भी ध्यान जारी रखें कि भोजन करने का खयाल उठे...। 338 और आप हैरान होंगे कि मंदिर में भोजन का खयाल आ जाएगा, चौके में आएगा ! और ऐसा कोई नियम न बनाएं। करेंगे ही नहीं। अगर खयाल आता है, तो खयाल करने की बजाय भोजन कर लेना बेहतर है। क्योंकि खयाल ज्यादा गहरे जाता है, भोजन उतना गहरा नहीं जाता। भोजन शरीर में जाता है, शरीर से निकल जाता है; खयाल संकल्प में चला जाता है, और संकल्प में छेद कर जाता है। छोटे-छोटे संकल्पों की साधना से गुजरना जरूरी है। बड़े Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नीति और धर्म * संकल्प मत करें। जो पूरे न हो सकें, उनको छुएं ही मत; जो पूरे हो सकें, उनको ही छुएं। मेरे एक मित्र हैं, सिगरेट से परेशान हैं। चेन स्मोकर हैं। दिनभर पीते रहेंगे ! भले आदमी हैं, साधु-संन्यासियों के पास जाते हैं। न मालूम कितनी बार कसमें खा आए। सब कसमें टूट गईं। कई बार तय कर लिया, घंटे दो घंटे नहीं में भी चलाई हालत। लेकिन फिर नहीं चल सका ! कभी दिन दो दिन भी खींच लिया। लेकिन तब खींचना इतना भारी हो गया कि उससे तो सिगरेट पी लेना ही बेहतर था। सब काम-धाम रोककर अगर इतना ही काम करना पड़े कि सिगरेट नहीं पीएंगे, तो भी जिंदगी मुश्किल हो जाए। रात नींद न आए, दिन में काम न कर सकें, चिड़चिड़ापन आ जाए, हर किसी से झगड़ने और लड़ने को तैयार हो जाएं! तो मैंने कहा, इससे तो सिगरेट बेहतर थी। यह झगड़ा-झांसा चौबीस घंटे का! हरेक के ऊपर उबल रहे हैं। जैसे उन्होंने कोई भारी काम कर लिया है; क्योंकि सिगरेट नहीं पी है ! और हरेक की गलतियां देखने लगें। जब भी वे सिगरेट छोड़ दें दिन दो दिन के लिए, तो सारी दुनिया में उनको पापी नजर आने लगें ! स्वभावतः, उन्होंने इतना ऊंचा काम किया है, तो उनको खयाल में आएगा ही। बहु उपाय करके थक गए। फिर उन्होंने मान लिया कि यह नहीं छूटेगी। लेकिन बड़ी दीनता छा गई मन पर कि एक छोटा-सा काम नहीं कर पाए। मुझसे वे पूछते थे कि क्या करूं? मैंने कहा कि मुझसे तुम मंत पूछो। कितनी सिगरेट पीते हो, मुझे संख्या बताओ ! उन्होंने कहा कि मैं अंदाजन कोई तीस सिगरेट तो हर हालत में दिनभर में पी जाता हूं। तो मैंने कहा, कसम खाओ कि साठ पीएंगे कल से, लेकिन एक कम नहीं। उन्होंने कहा, आप पागल हैं! मैंने कहा कि तुमने जो संकल्प किया, वह हमेशा टूट गया, उससे बड़ा नुकसान पहुंचा। एकाध तो पूरा करके दिखाओ | साठ पीयो कल से। लेकिन एक कम अगर पी, तो ठीक नहीं; फिर मेरे पास दुबारा मत आना। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं! चित्त उनका बड़ा प्रसन्न हो गया। ऊपर से तो कहने लगे कि आप क्या कहते हैं ! लेकिन उनकी आंखें, उनका चेहरा, सब आनंदित हो गया। कि आप आदमी कैसे! आप कहते क्या हैं ! साठ ! लेकिन आप साठ से अगर एक भी कम हुई, तो दुबारा मेरे पास मत आना। उन्होंने साठ सिगरेट पीनी शुरू की। कठिन था मामला । कठिन था मामला, क्योंकि जबर्दस्ती उनको तीस सिगरेट और पीनी पड़ती थीं। नहीं पीनी थीं और पीनी पड़ती थीं। और जब भी कोई चीज न पीनी हो और पीनी पड़े, तो अरुचि बढ़ जाती है; और जब पीनी हो और न पीनी पड़े, तो रुचि बढ़ जाती है। आदमी का मन बहुत अदभुत है। तीन-चार दिन बाद आकर मुझसे बोले कि यह संकल्प कब तक पूरा करना पड़ेगा? मैंने कहा कि यह मेरे हाथ में है, तुम जारी रखो । यह, जब मैं कहूंगा, तब इसको तुड़वा देंगे। उन्होंने कहा, यह बहुत मुश्किल मामला मालूम पड़ता है। जारी रखो ! एक काम तो जिंदगी में मुश्किल करके दिखाओ | सातवें दिन वे हाथ-पैर जोड़ने लगे। उन्होंने कहा कि मैं बिलकुल, मुझे ऐसा पागलपन लगता है कि मुझे पीना नहीं है और मैं पी रहा हूं और आपने मेरी बाकी तीस सिगरेट भी खराब कर दीं। अब ये साठों ही बेकार लग रही हैं ! 339 अभी पीयो ! और एक-दो सप्ताह चलने दो। यह बिलकुल जब नर्क हो जाए; और जैसा तुम पहले छोड़कर लोगों पर चिड़चिड़ा थे, जब इसको पीकर चिड़चिड़ाने लगो और झगड़ने लगो और उपद्रव करने लगो, तब देखेंगे। तीन सप्ताह में उनकी हालत पागलपन की हो गई। तीन सप्ताह | बाद वे आए। मैंने कहा कि अब कोई दिक्कत नहीं है, छोड़ दो। | मैंने उनसे कहा कि इस समय तुम्हें कैसा लगता है? छोड़ पाओगे ? उन्होंने कहा, क्या आप कह रहे हैं! किसी तरह भी छुटकारा हो जाना चाहिए इससे । छूट गई सिगरेट | वह मुझसे अब पूछते हैं - वर्षभर बाद मुझे मिले, तो मुझसे पूछते हैं — इसका राज क्या है? मैंने कहा, राज कुछ भी नहीं है। एक संकल्प जीवन में तुम्हारा पूरा हुआ। तुम्हारी आत्म-ऊर्जा जगी । तुम्हें लगा, मैं भी कुछ पूरा कर सकता हूं! गलत ही सही, पूरा तो कर सकता हूं। तुमने जिंदगी में कभी कुछ पूरा नहीं किया था। ध्यान रहे, जो भी संकल्प लें, वह पूरा हो सके, तो ही लें; अन्यथा मत लें; न लेना बेहतर है। एक दफा उनका टूटना, खतरनाक छेद छूट जाते हैं। और हर बच्चे की जिंदगी में जो इतने छेद बन जाते हैं, उसके लिए हम जिम्मेवार हैं; शिक्षक, मां-बाप, समाज, सब जिम्मेवार हैं। न मालूम क्या-क्या उनको करवाने की Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* कोशिश करते हैं, जो वे नहीं कर पाएंगे। उनका संकल्प टूट जाएगा। छेद-छेद आत्मा हो जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प होना बहुत मुश्किल है। और दूसरी बात; दृढ़ संकल्प बनाने की दिशा में बढ़ें। छोटे-छोटे संकल्प करें, उन्हें पूर्ण करें। धीरे-धीरे आप पाएंगे कि आप भी कुछ कर सकते हैं। और कोई जरूरत नहीं है कि बहुत बड़े-बड़े काम में लगें, बहुत छोटे-से काम में लगें, कि एक मिनट तक मैं इस अंगुली को ऊपर ही रखूंगा, नीचे नहीं गिराऊंगा। एक अमेरिकी युवती पिछले माह मेरे पास थी। उसे मैंने लिखा था... तीन बार मेरे पास आकर गई है। दो वर्ष से निरंतर उसका आना-जाना हुआ है, लेकिन संकल्प की क्षीणता तकलीफ दे रही थी । उतने दूर से आती है; फिर जो मैं कहता हूं, वह नहीं कर पाती; फिर सब द्वंद्व में पड़ जाती है; वापस लौट जाती है। इस बार उसने मुझे लिखा, तो मैंने उसे लिखा कि इस बार एक बात पक्की करके आना, जो भी मैं कहूं, उसमें नो, नहीं नहीं कह सकोगी; उसमें यस ही कहना पड़ेगा; जो भी मैं कहूं! यह बेशर्त है। अन्यथा आना मत। भी मैं कहूं, उसमें हां कहने की तैयारी हो, तो आना। स्वभावतः, उसे सोचना पड़ा कि पता नहीं मैं क्या कहूंगा? उसे खयाल आया कि जिस मकान में मैं रहता हूं, वह छब्बीस मंजिल मकान है। कहीं मैं छब्बीसवीं मंजिल से कूदने के लिए कहूं, तो मेरी क्या तैयारी है? उसने तय किया कि अगर मैं कूदने के लिए कहूंगा, कूद जाऊंगी। हां कहूंगी। उसे खयाल आया, स्त्री है, उसे खयाल आया कि मैं अगर कहूं कि जाओ, भरे बाजार नग्न, चौपाटी तो का एक चक्कर लगा आओ, तो मैं लगाऊंगी? उसने तय कर लिया कि लगाऊंगी। वह तय करके आई। तय करने से ही बदल गई। मुझे न उसे छब्बीस मंजिल मकान से कुदवाना पड़ा और न चौपाटी पर नग्न चक्कर लगवाना पड़ा। यह जो निर्णय है - कि ठीक - यह निर्णय ही बदल गया। करना पड़ता है; कृष्ण कहते हैं, ऐसा गहरा संकल्प जिसका हो, और इस संकल्प को वह मेरे भजन में लगा दे, मेरे स्मरण में लगा दे; यह जो संकल्प की धारा है, यह मेरी तरफ बहने लगे। अब इसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन आप पाएंगे, एक मिनट में पच्चीस दफे मन होगा कि क्या कर रहे हो ? नीचे कर लो ! . क्या फायदा? कोई देख न ले कि यह अंगुली ऊंची क्यों रखे हुए हो ! कोई यह न समझ जाए कि पागल हो गए हो ! एक दूसरे प्रतीक से हम समझ लें। हम ऐसी नदी हैं, जो कई दिशाओं में बह रही है। तो सागर तक हम नहीं पहुंचते; हर जगह रेगिस्तान आ जाता है। अगर गंगा भी कई दिशाओं में बहे, तो सागर तक नहीं पहुंचेगी; सब जगह रेगिस्तान में पहुंच जाएगी। जहां भी पहुंचेगी, वहीं रेगिस्तान होगा। सागर तक पहुंचती है, क्योंकि एक दिशा में बहती है। मेरे पास लोग आते हैं संन्यास के लिए, वे कहते हैं कि गेरुआ कपड़ा न पहनें तो ? माला बाहर न रखें तो ? मैं उनसे कहता हूं, बाहर ही रखना । माला का मतलब नहीं है। लेकिन किसके डर से भीतर कर रहे हो? इतना भी काफी है कि तुम माला पहनकर, गेरुआ कपड़ा पहनकर बाजार में निकल जाओगे, तो भी तुम्हारा संकल्प बड़ा होगा। | ये सब छोटी बातें हैं, लेकिन इनका मूल्य है। मूल्य इनका संकल्प के लिहाज से है, और कोई मूल्य नहीं है। और कोई मूल्य नहीं है। ध्यान रखें, बदलने के लिए और कुछ ' एक गहरा निर्णय, और बदलाहट हो जाती है। | दूसरा ध्यान रख लें कि आपकी चेतना अगर बहुत दिशाओं में बहती रहे, तो आपकी जिंदगी एक मरुस्थल हो जाएगी, एक रेगिस्तान । सब सूख जाएगा, और सब जगह मार्ग खो जाएगा। लेकिन अगर एक दिशा में बह सके, तो किसी दिन, सागर पहुंच ' सकती है। अनन्य भाव से जो मुझे स्मरण करता है, अनन्य भाव से मेरा भक्त हुआ...। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि चाहे वह कुछ भी करता हो, लेकिन उसकी चेतना की धारा मेरी ओर उन्मुख बनी रहती है। वह कुछ भी करता हो । 340 कभी आप देखें किसी घर में, मां अंदर खाना बना रही है; खाना बनाती है, बर्तन मल रही है, बुहारी लगा रही है, लेकिन उसकी | चेतना की धारा उसके बच्चे की तरफ लगी रहती है। शोरगुल हो रहा हो, तूफान हो, बाहर आंधी हो, हवा चल रही हो, बैंड-बाजे बज रहे हों, बादल गरज रहे हों, बिजली कड़क रही हो, लेकिन बच्चे की जरा सी रोने की आवाज उसे सुनाई पड़ जाती है। रात मां सोई हो - मनसविद भी बहुत हैरान हुए हैं— मां सोई हो, तो आकाश में बादल गरजते रहें, उसकी नींद नहीं टूटती ! और बच्चा | जरा-सा कुनमुन कर दे, और उसकी नींद टूट जाती है! बात क्या होगी? क्या होगा इसका कारण ? Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति और धर्म इसका एक ही कारण है, एक अनन्य धारा, एक प्रेम का अनन्य भाव बहा जा रहा है। अभी एक डच महिला मेरे पास थी। वह किसी आश्रम में संन्यासिनी है। बच्चा उसको है छोटा । वह मेरे पास आई, उसने कहा कि जब से यह बच्चा हुआ है, तब से मैं ध्यान नहीं कर पाती। कितना ही ध्यान लगाकर बैठूं, बस मुझे इसका ही ....। जब ध्यान लगाती हूं, तो और इसका खयाल आता है कि पता नहीं, कहीं बाहर न सरक गया हो; कहीं झूले से नीचे न उतर गया हो; कहीं गाय के नीचे न आ जाए; कहीं कुछ हो न जाए ! तो मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है। दो साल से आश्रम में हूं, इस बच्चे की वजह से मेरा सब ध्यान नष्ट हो गया है। तो अब मैं क्या करूं? मैंने उससे कहा, ध्यान को छोड़; बच्चे पर ही ध्यान कर। अब ध्यान को बीच में क्यों लाना ! बच्चा काफी है। मैं क्या करूं? ध्यान मत कर, जब बच्चा झूले में लेटा हो, तो तू पास बैठ जा और बच्चे पर ही आंख से ध्यान कर। बच्चे को ही भगवान समझ । अच्छा मौका मिल गया। बच्चे पर इतना ध्यान दौड़ रहा है सहज, बच्चे में भगवान देखना शुरू कर । पंद्रह दिन में उसे लगा कि मैंने वर्षों ध्यान करके जो नहीं पाया, वह इस बच्चे पर ध्यान करके पा रही हूं। और अब बच्चा मुझे दुश्मन नहीं मालूम पड़ता, बीच में जब मुझे ध्यान में बाधा पड़ती थी, बच्चा दुश्मन मालूम पड़ता था। अब बच्चा मुझे सच में ही भगवान मालूम पड़ने लगा है; क्योंकि इसके ऊपर मेरा ध्यान जितना गहरा हो रहा है, उतना किसी भी प्रक्रिया से कभी नहीं हुआ था। अनन्य भाव का अर्थ है, जहां भी आपका भाव दौड़ता हो, वहीं भगवान को स्थापित कर लें। दो उपाय हैं। एक तो यह है कि कहीं भगवान है, आप सब तरफ से अपने ध्यान को खींचकर भगवान पर ले जाएं। यह बहुत मुश्किल है; इसमें आप हारेंगे; इसमें जीत की संभावना न के बराबर है। कभी हजार में एक आदमी जीत पाता है सब तरफ से खींचकर भगवान की तरफ ले जाने में। कठिन है। शायद नहीं हो पाएगा। पर एक बात हो सकती है, जहां भी ध्यान जा रहा हो, वहीं भगवान को रख लें। अगर वेश्या के घर भी आपके पैर जा रहे हैं, और ध्यान वेश्या की तरफ जा रहा है, तो चूकें मत मौका; वेश्या को भी भगवान ही समझ लें। और आपके पैर की धुन बदल जाएगी, और आपकी चेतना का भाव बदल जाएगा, और एक न एक दिन आप पाएंगे कि वेश्या के घर गए थे, लेकिन मंदिर से वापस लौटे हैं! यह जो क्रांति की संभावना है, यह अनन्य भाव से उसकी भक्ति है । तो कृष्ण कहते हैं कि वह दुराचारी भी हो, कोई फिक्र नहीं । | लेकिन मुझे देखने लगे अपने कर्मों में, चारों तरफ मुझे अनुभव करने लगे, सब ओर मेरी प्रतीति उसमें गहरी होती चली जाए, मेरे स्मरण का तीर उसमें गहरा होता चला जाए, तो शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है। सदाचारी नहीं कहते वे। कहते हैं, धर्मात्मा । सदाचार से बड़ी | ऊंची बात है। धर्मात्मा का अर्थ है, जिसकी आत्मा धर्म हो जाती | है | आचरण तो अपने आप ठीक हो जाता है। आचरण तो गौण है; आदमी के पीछे छाया की तरह चलता है। चूंकि भीतर हम कुछ भी नहीं हैं, इसलिए बाहर सब अस्तव्यस्त है। जिस दिन भीतर हम कुछ हो जाते हैं, बाहर सब सुव्यवस्थित हो जाता है। भीतर के मालिक को सिंहासन पर बिठा दें, बाहर के सब नौकर-चाकर हाथ जोड़कर सेवा में रत हो जाते हैं। भीतर का मालिक बेहोश पड़ा है। सिंहासन से नीचे औंधा पड़ा है। मुंह से उनके फसूकर निकल रहा है। भीतर के मालिक इस हालत में हैं, बाहर सब नौकर-चाकर गड़बड़ में हो जाते हैं। 341 जिसको हम अनीति कहते हैं, वह हमारी इंद्रियों के ऊपर मालिक का अभाव है, अनुपस्थिति है। वहां मालिक मौजूद ही नहीं है, बेहोश पड़ा है। तो ठीक है, जिसको जो सूझ रहा है, वह कर रहा है। इसमें इंद्रियों की कोई गलती भी नहीं है । इंद्रियों को दोष देना मत, इंद्रियों की कोई भी गलती नहीं है । इंद्रियों को कोई देखने वाला ही नहीं है, दिशा देने वाला नहीं है, सूचन देने वाला नहीं है । और तब इंद्रियों से जो बनता है, वह करती हैं। और सब इंद्रियां अलग-अलग हैं, उनके बीच कोई एकसूत्रता नहीं रह जाती । कैसे रहेगी? एकसूत्रता जिससे मिल सकती है, वह सोया हुआ है। तो जब सोया हुआ है सूत्र मूल, जो सबको जोड़ता है, तो कान कुछ सुनते हैं, आंखें कुछ देखती हैं, हाथ कुछ खोजते हैं, पैर कहीं चलते हैं, मन कहीं भागता है, सब अस्तव्यस्त हो जाता है। नदी कई धाराओं में बंट जाती है। फिर एक दिशा नहीं रह जाती। धर्मात्मा हो जाता है वह व्यक्ति । उसकी आत्मा ही धर्म हो जाती है। फिर आचरण तो अपने आप बदल जाता है। सदा रहने वाली शांति को उपलब्ध होता है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 अनैतिक व्यक्ति शांति को उपलब्ध नहीं होता। कैसे होगा? बुरा | भी भाषा की कठिनाई है, इसलिए; अन्यथा सब में वही है, या सब करेगा दूसरों के साथ, दूसरे उसके साथ बुरा करेंगे। नैतिक व्यक्ति वही है। जरा भी, रत्तीभर फर्क नहीं है। कृष्ण में या अर्जुन में, मुझ भी शांति को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि बुराई को दबाता है; बुराई | में या आप में, आप में या आपके पड़ोसी में, आप में या वृक्ष में, भीतर धक्के मारती है कि मुझे मौका दो। भीतर अशांति हो जाती है। आप में या पत्थर में, जरा भी फर्क नहीं है। अनैतिक व्यक्ति को अशांति झेलनी पड़ती है, दूसरों और स्वयं | लेकिन फर्क तो दिखाई पड़ता है! कोई बुद्ध है। कैसे हम मान के बीच में; नैतिक व्यक्ति को झेलनी पड़ती है, अपने ही भीतर। लें कि बुद्ध में वह ज्यादा प्रकट नहीं हुआ है! कैसे हम मान लें कि अनैतिक डरा रहता है कि बाहर कहीं फंस न जाए। नैतिक डरा रहता | बुद्ध में वह ज्यादा नहीं है, और हम में, हम में भी उतना ही है! है कि भीतर जिसको दबाया है, कहीं वह निकल न आए। दोनों ही | कठिनाई है। साफ दिखाई पड़ता है। गणित कहेगा, नाप-जोख हो अशांत होते हैं। | सकती है कि बुद्ध में वह ज्यादा है, कृष्ण में वह ज्यादा है। इसीलिए केवल सदा रहने वाली शांति को वही उपलब्ध होता है, जो | | तो हम कहते हैं, कृष्ण अवतार हैं, बुद्ध अवतार हैं, महावीर तीर्थंकर भीतर धर्मात्मा हो जाता है। धर्मात्मा का अर्थ है, जिसकी आत्मा हैं, जीसस भगवान के पुत्र हैं, मोहम्मद पैगंबर हैं, आदमियों से प्रभ में स्थापित हो जाती है। प्रभ की तरफ दौडते-दौडते बहकर नदी अलग करते हैं उन्हें। उनमें वह ज्यादा दिखाई पड़ता है। सागर में गिर जाती है। जिस दिन सागर और नदी का मिलन होता लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं सम-भाव से व्यापक हूं। फिर भेद है, जहां सागर और नदी का संगम होता है, वहीं धर्मात्मा का जन्म कहां पड़ता होगा? न मेरा कोई अप्रिय है और न मेरा कोई प्रिय। होता है। जिस दिन आत्मा परमात्मा से मिलती है, वह जो प्रेम जब पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय रह जाता है; और न संगम-स्थल है, वहीं धर्मात्मा का जन्म है। फिर कोई अशांति नहीं | कोई प्रिय। क्योंकि जब तक मैं कहता हूं, कोई मुझे प्रिय है, तो है, न बाहर, न भीतर। उसका अर्थ है कि कोई मुझे अप्रिय है। और जब तक मैं कहता हूं, हे अर्जुन, तू निश्चयपूर्वक जान, मेरा भक्तं कभी नष्ट नहीं | | कोई मुझे प्रिय है, उसका यह भी मतलब है कि जो मुझे प्रिय है, वह होता है। कल अप्रिय भी हो सकता है; क्योंकि आज जो अप्रिय है, वह कल नष्ट होने का कोई कारण ही न रहा। नष्ट तो वे ही होते हैं, जो | प्रिय हो सकता है। जब प्रेम पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय होता, ' अशांत हैं। बिखरते तो वे ही हैं, जो भीतर टूटे हुए हैं। जो भीतर एक न कोई प्रिय होता। और न आज प्रिय होता और न कल अप्रिय हो गया, संयुक्त हो गया, उसके नष्ट होने का कोई कारण नहीं है। | होता। ये सारे भेद गिर जाते हैं। परमात्मा पूर्ण प्रेम है, इसलिए कोई और अब हम पहले सूत्र को लें। उसका प्रिय नहीं है और कोई अप्रिय नहीं है। मैं सब भूतों में सम-भाव से व्यापक हूं। न कोई मेरा अप्रिय है परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं उनमें और न कोई प्रिय। परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे प्रकट हूं। में और मैं उनमें प्रकट हो जाता है। यह फर्क है, यहीं भेद है। यहीं बुद्ध कहीं भिन्न, महावीर कुछ सब भूतों में सम-भाव से हूं। और. और हम कछ और मालम पडते हैं। ऐसा नहीं है कुछ, जैसा लोग कहते हैं अक्सर कि फलां व्यक्ति | | जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, मैं उनमें प्रकट हो जाता हूं; जो पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। परमात्मा की कृपा किसी पर भी | मुझे नहीं भजते हैं, उनमें मैं अप्रकट बना रहता हूं। कम-ज्यादा नहीं है। भूलकर इस शब्द का उपयोग दोबारा मत व्यापकता में भेद नहीं है, लेकिन प्रकट होने में भेद है। करना। एक आदमी कहता है कि प्रभु की कृपा है। उसका मतलब __एक बीज है। बीज को माली ने बो दिया, अंकुरित हो गया। एक कहीं ऐसा तो नहीं है कि कभी उसकी अकृपा भी होती है? या एक बीज हम अपनी तिजोड़ी में रखे हुए हैं। दोनों बीजों में जीवन समान आदमी कहता है कि मुझ पर अभी प्रभु की कोई कृपा नहीं है। तो रूप से व्यापक है! और दोनों बीजों में संभावना पूरी है। लेकिन उसका अर्थ हुआ कि उसकी अकृपा होगी! एक बीज बो दिया गया और एक तिजोड़ी में बंद है। जो बो दिया नहीं, उसकी अकृपा होती ही नहीं। इसलिए उसकी कृपा का कोई गया, वह अंकुरित हो जाएगा। जो अंकुरित हो जाएगा, उसमें फूल सवाल नहीं है। वह सम-भाव से सबके भीतर मौजूद है। यह कहना लग जाएंगे। कल हम अपने तिजोड़ी के बीज को निकालें, और उस 3421 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नीति और धर्म * वृक्ष के पास जाकर कहें कि तुम दोनों समान हो, हमारा तिजोड़ी का | तो जब कोई एक भक्त बीज बन जाता है और अपने चारों तरफ बीज मानने को राजी नहीं होगा। परमात्मा के स्मरण की भूमि को निर्मित कर लेता है, तो दोहरी वह कहेगा, कैसे समान? कहां यह वृक्ष, जिस पर हजारों पक्षी | | घटना घटती है, भक्त परमात्मा में प्रकट होता है और परमात्मा गीत गा रहे हैं। कहां यह वृक्ष, जिसके फूलों की सुगंध दूर-दूर तक | | भक्त में प्रकट होता है। वे दोनों प्रकट हो जाते हैं। वे आमने-सामने फैल गई है। कहां यह वृक्ष, जिससे सूरज की किरणें रास रचाती हैं। हो जाते हैं। एनकाउंटर। कहां यह वृक्ष और कहां मैं, बंद पत्थर की तरह! कुछ भी तो मेरे हम सब ने सदा भगवान से साक्षात्कार का मतलब ऐसा ही पास नहीं है। मैं दीन-दरिद्र, मेरे पास कोई आत्मा नहीं है; कोई | सोचा है कि आमने-सामने खड़े हो जाएंगे। वे मोर-मुकुट बांधे हुए फूल, कोई सुवास नहीं है। मुझे इस वृक्ष के साथ एक कहकर क्यों खड़े होंगे, हम हाथ जोड़े, उनके घुटनों में पैर टेके खड़े होंगे! मजाक उड़ाते हो? क्यों व्यंग करते हो? . ऐसा कहीं नहीं होने वाला है। यह तो कवि का काव्य है; और लेकिन हम जानते हैं, उन दोनों में वृक्ष सम-भाव से व्यापक है। | मधुर है, प्रीतिकर है, लेकिन काव्य है। वस्तुतः जो अभिव्यक्ति पर एक में प्रकट हुआ, क्योंकि खाद मिली, जमीन में पड़ा, पानी | | होगी प्रकट होने की, वह ऐसी नहीं होगी। वह तो ऐसी होगी कि पड़ा, सूरज के लिए मुक्त हुआ, उठा, हिम्मत की, साहस जुटाया, | जब हम अपने भीतर के बीज को तोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, तो जो संकल्प बनाया, आकाश की तरफ फैला, अज्ञात में गया, अनजान | अभिव्यक्ति होगी, वह दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े हैं ऐसी नहीं, की यात्रा पर निकला, तो वृक्ष हो गया है। बल्कि दो दर्पण आमने-सामने रखे हैं। कृष्ण कहते हैं, जो मुझे प्रेम से भजते हैं! दो दर्पण अगर आमने-सामने रखे हैं, तो पता है क्या होगा? यह प्रेम से भजना ही बीज को जमीन में डालना है। प्रेम से भजने एक दर्पण दूसरे में दिखाई पड़ेगा, दूसरा दर्पण पहले में दिखाई का अर्थ है कि जो आदमी दिन-रात प्रभु को सब तरफ स्मरण करता | | पड़ेगा। और फिर अनंत दर्पण, एक के भीतर, एक के भीतर, एक है, उसके चारों तरफ प्रभु की भूमि निर्मित हो जाती है—चारों तरफ। | के भीतर दिखाई पड़ते जाएंगे। वह जो इनफिनिटी, वह जो अनंत उठता है तो, बैठता है तो, खाता है तो, प्रभु को स्मरण करता रहता | दर्पण दिखाई पड़ेंगे, और हर दर्पण फिर उसको दिखाएगा, और है। चारों तरफ धीरे-धीरे, उसकी चेतना के बीज के चारों तरफ प्रभु | फिर वह दर्पण इसको दिखाएगा। और यह अनंत होगा। की भूमि इकट्ठी हो जाती है। उसी भूमि में बीज अंकुरित होता है। दो दर्पण एक-दूसरे के सामने हों, तो जो होगा, वही जब हमारी निश्चितं ही, जमीन में बीज को गाड़ना पड़ता है। तो प्रकट बीज चेतना परमात्मा की चेतना के सामने होती है, तो होता है। अंतहीन है, प्रकट जमीन है। यह जो चेतना का बीज है, अप्रकट है; अप्रकट | हो जाते हैं हम। और वह तो अंतहीन है ही। अनंत हो जाते हैं हम, ही इसकी जमीन होगी। उस जमीन को पैदा करना पड़ता है। चारों वह तो अनंत है ही। अनादि हो जाते हैं हम, वह तो अनादि है ही। तरफ मिट्टी इकट्ठी करनी पड़ती है उस जमीन की। वही प्रभु की | अमृत हो जाते हैं हम, वह तो अमृत है ही। और दोनों एक-दूसरे भक्ति है। में झांकते हैं। और यह झांकना अनंत है। इस झांकने का फिर कोई और तब वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट होता हूं। | अंत नहीं होता। यह फिर कभी समाप्त नहीं होता। यह प्रकट होना भी दोहरा है। जब एक वृक्ष आकाश में खुलता तो ध्यान रखें, परमात्मा से मिलन होता है, फिर बिछुड़न नहीं है, तो दोहरी घटना घटती है। यह वृक्ष तो आकाश में प्रकट होता होती। फिर वह मिलन अनंत है। और फिर उस मिलन की रात का ही है, आकाश भी इस वृक्ष में प्रकट होता है। यह वृक्ष तो सूरज के कोई अंत नहीं है। उस सुहागरात का फिर कोई अंत नहीं है। वहां समक्ष प्रकट होता ही है, सूरज भी इस वृक्ष के भीतर से पुनः प्रकट | से फिर कोई वापस नहीं लौटता। वहां से पुनरागमन नहीं है। होता है। यह वृक्ष तो हवाओं में प्रकट होता ही है, हवाएं इस वृक्ष | पर इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा किसी को प्रेम करता है के भीतर श्वास लेती हैं और प्रकट होती हैं। यह वृक्ष तो प्रकट होता और उसे दर्शन दे देता है, और किसी को प्रेम नहीं करता और ही है, इस वृक्ष के साथ जमीन भी प्रकट होती है; इस वृक्ष के साथ | | उसको चकमा देता रहता है कि दर्शन नहीं देंगे! जमीन की सुगंध भी प्रकट होती है। यह वृक्ष ही प्रकट नहीं होता, ___ नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। परमात्मा के प्रेम का सवाल नहीं वृक्ष के साथ सारा जगत भी इसके भीतर से प्रकट होता है। | है, आपके श्रम का सवाल है। उसकी कृपा का सवाल नहीं है, 343 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4 आपके संकल्प का सवाल है। कि उसका प्रश्न क्या था। उसकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, लेकिन आप अपने मटके को एक मित्र ने पूछा है कि चंद्रमा पर आदमी पहुंच गया, लेकिन उलटा रखकर बैठे हैं। आप चिल्ला रहे हैं कि कृपा नहीं है। पास हिंदू शास्त्रों में लिखा है कि वहां देवताओं का वास है! इसका उत्तर का मटका भरा जा रहा है। वह मटका सीधा रखा है, आप अपने दीजिए। मटके को उलटा रखे बैठे हैं। और अगर कोई आकर कोशिश भी इधर गीता चल रही है, उससे इसका कोई प्रयोजन नहीं है। इस करे आपके मटके को सीधा रखने की, तो आप बहुत नाराज होते | पर अगर मैं चर्चा करने बैठ जाऊं, तो गीता बंद कर देनी पड़े। फिर हैं। आप कहते हैं, यह हमारा ढंग है; यह हमारी मान्यता है; यह | चर्चा का दूसरा रुख, वह मेरी आदत नहीं है। जो मैं बात कर रहा हूं, हमारा दृष्टिकोण है; यह हमारा धर्म है; यह हमारा मत है; यह | उससे इतर बात करना मुझे पसंद नहीं है। इस तरह के प्रश्न का उत्तर हमारे शास्त्र में लिखा है! नहीं दिया जाता है, तो उनको लगता है कि भारी नुकसान हो गया। - आप हजार दलीलें देते हैं अपने मटके को उलटा रखे रहने के | फिर मुझे यह भी समझ में नहीं पड़ता कि साधक को क्या लिए। और जब भी कोई अगर जोर-जबर्दस्ती आपके मटके के | प्रयोजन कि चांद पर देवता रहते हैं कि नहीं रहते। आपके भीतर साथ सीधा करने की करे, तो कष्ट होता है, पीड़ा होती है, झंझट | कौन रहता है, इसकी फिक्र करनी उचित है। चांद पर न भी रहते होती है; सुखद नहीं मालूम पड़ता। मटका उलटा रखा है सदा से। । हों, तो कुछ हर्जा नहीं है। और रहते भी हों, तो मजे से रहें! आपको हमें लगता है, यही इसके रखे होने का ढंग है। फिर पास का मटका | | कुछ लेना-देना नहीं है। इन सब बातों का साधक के लिए कोई अर्थ भर जाता है, तो हम चिल्लाते हैं, परमात्मा किसी पर ज्यादा कपाल नहीं होता। मालम हो रहा है और हम पर कपाल नहीं है। मैं उतनी ही बातें आपसे कहना पसंद करता हूं, जो किसी तरह परमात्मा की वर्षा निरंतर हो रही है; जो भी अपने मटके को | | आपकी साधना के लिए उपयोगी हों। व्यर्थ की बातों में प्रयोजन सीधा कर लेता है, वह भर जाता है। और कोई बाधा नहीं है। | मुझे नहीं है। आपका प्रश्न गलत है, यह नहीं कहता। किसी के लिए आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और | सार्थक हो सकता है; वह खोज में लगे। कोई आपका शत्रु नहीं है। आपके अतिरिक्त और किसी ने कभी एक मित्र छपा हुआ पर्चा रोज यहां बांटकर मुझे दे जाते हैं। पोस्ट कोई विघ्न नहीं डाला है। से भी मुझे घर भेजा है। भारी नाराज हैं। वे जो मित्र रोज शोरगुल अगर आप परमात्मा से नहीं मिल पा रहे हैं. तो इसमें आपका करके खडे हो जाते हैं. उनका पर्चा है। उस पर्चे में है कि राजस्थान ही हाथ है। अगर आप मिल पाएंगे, तो यह आपकी ही आपके | में किसी आदमी ने कोई किताब लिखी है, जिसमें उसने लिख दिया ऊपर कृपा है। परमात्मा की कृपा का इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। है कि दशरथ नपुंसक थे, या लक्ष्मण व्यभिचारी थे। उसका प्रेम सम है। उसका अस्तित्व हमारे भीतर समान है। उसकी मुझे पता नहीं है! मैंने वह किताब पढ़ी नहीं। जिन्होंने पर्चा छापा क्षमता, उसकी बीज-क्षमता हमारे भीतर एक-सी है। लेकिन फिर है, उन्होंने भी नहीं पढ़ी है। किसी अखबार में उन्होंने यह पढ़ा है भी हम स्वतंत्र हैं। और चाहें तो उस बीज को वृक्ष बना लें, और | कि ऐसा किसी आदमी ने लिखा है। वे बार-बार मुझे यहां चिट्ठी चाहें तो उस बीज को बंद रख लें। लिखकर भेजते हैं कि मैं जवाब दूं। हम सब तिजोड़ियों में बंद बीज हैं। और सब अपनी-अपनी । | मेरी समझ में नहीं आता। मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। और दशरथ तिजोड़ियों पर ताले डाले हुए हैं मजबूत कि कोई खोल न दे! कहीं | नपुंसक थे या नहीं, इस रिसर्च में जाने का भी मुझे कोई अर्थ नहीं बीज बाहर न निकल जाए। इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। समझ में आता। हों, तो कोई फर्क नहीं पड़ता; न हों, तो कोई दो-तीन प्रश्न रोज मुझसे लोग पूछ रहे हैं, एक-दो मिनट उनके प्रयोजन मुझे नहीं है। जिसको प्रयोजन हो, वह खोजबीन में लगे। संबंध में आपसे कह दूं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिनका कोई भी लेकिन इधर उस सवाल को उठाने का कोई कारण नहीं है। संबंध नहीं है। उनको उत्तर नहीं दिया जाता, तो वे तकलीफ अनुभव। लेकिन हमारे मन न मालूम कहां-कहां के सवाल उठाते हैं! हम करते हैं। क्योंकि किसी के प्रश्न का उत्तर न मिले, तो उसके सोचते हैं, भारी काम हो रहा है। वह मित्र कल मुझे चिट्ठी लिखकर अहंकार को चोट लग जाती है। उसको इसकी फिक्र ही नहीं होती| दे गए हैं, दो दिन से रोज चिट्ठी लिखकर देते हैं, कि वे यहां आधा 344 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति और धर्म * घंटा मंच पर आकर एक बात सिद्ध करना चाहते हैं । वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं मूर्ख हूं। इसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं बिना सिद्ध किए इसे मान लेता हूं। इसे सिद्ध तो तब करना पड़े, जब मैं कहूं कि मैं नहीं हूं या उनकी बात को गलत कहूं। मैं मूर्ख हूं। क्योंकि अगर मैं मूर्ख न होऊं, तो उन जैसे बुद्धिमान जनों को समझाने की कोशिश ही क्यों करूं । सहज-साफ ही है। इसको सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि सिद्ध करने में समय व्यय करना है। मैं मान ही लेता हूं। कृष्ण के वक्त में अगर वे होते, तो कृष्ण ने एक सूत्र अर्जुन से और कहा होता। उन्होंने कहा होता, हे कौन्तेय, जिनके दिमाग के स्क्रू थोड़े ढीले हैं, उनमें भी मैं हूं। वह कृष्ण नहीं कह पाए, यह एक नुकसान हुआ। उनकी मौजूदगी जरूरी थी। गीता ज्यादा समृद्ध हुई होती। उसमें एक सूत्र और उपलब्ध हो जाता। लेकिन यह बात पक्की है, स्क्रू ढीले हों कि ज्यादा कसे हों, मैं उनके भीतर हूं। इसमें - शुबहा नहीं है। इस तरह की बातें हमारे मुल्क के मन में न मालूम कैसे-कैसे घूमती रहती हैं। इन सारी बातों ने हमारे मुल्क को एकदम क्षुद्रत हालत में खड़ा कर दिया है। सोचें विराट को खोजें विराट को; व्यर्थ की बातों में समय जाया न करें। लेकिन हम समझते हैं कि भारी संकट आ गया। किसी ने लिख दिया कि दशरथ नपुंसक थे। अब वह बेचारा कुछ खोज - बीन कर रहा होगा। गलत होगा, सही होगा । किन्हीं को उत्सुकता हो, वे सिद्ध करने में लगें। पर बड़ा मुश्किल मामला है सिद्ध करना कि थे कि नहीं थे। बहुत कठिन है। पर मुझे तो प्रयोजन भी नहीं है। जिनको प्रयोजन है, वे भी क्यों इतने आतुर हैं; कुछ समझ में नहीं आता ! इस तरह की बातों को जरा भी मूल्य देने की जरूरत नहीं है। कोई लिखे, तो भी देने की जरूरत नहीं है। उसको तूल देने की भी जरूरत नहीं है कि शोरगुल मचाओ। उस शोरगुल से और प्रचार होता है कि यह क्या मामला है! इन सबमें पड़ने की जरा भी जरूरत नहीं है। धार्मिक आदमी का यह लक्षण नहीं है। धार्मिक आदमी को एक ही चिंता है कि किसी भांति उसके जीवन का एक-एक पल रीता जा रहा है, उस रीतते हुए जीवन में वह खाली हाथ ही लौट जाएगा? या कि उस रीतते हुए जीवन में प्रभु की कोई झलक मिलनी संभव है? मैं उसी दृष्टि से सब बोल रहा हूं। आप पूछ लेते हैं, आवश्यक 345 नहीं है कि मैं जवाब दूं। आप पूछ लेते हैं, आपका काम पूरा हो गया। मुझे लगेगा कि इससे आपकी साधना में कोई सहायता मिलेगी, तो ही जवाब दूंगा । कुछ ऐसे सवाल लोग पूछते हैं, जो उनके निजी, वैयक्तिक हैं। अब एक व्यक्ति पूछ लेता है। यहां तीस-चालीस हजार आदमी बैठे हों, इनके तीस हजार घंटे खराब करना एक व्यक्ति के निजी प्रश्न के लिए बेमानी है। तीस हजार घंटे बहुत बड़ा वक्त है। अगर एक आदमी की जिंदगी, तो दस साल की जिंदगी एक आदमी की खतम होती है, चालीस हजार घंटे अगर हम खराब करें तो । तो एक आदमी कुछ पूछ लेता है, उसकी व्यक्तिगत रुचि है, उसे मेरे पास आ जाना चाहिए। यहां जोर देने की जरूरत नहीं है। और एक बात पक्की समझ लें कि आपने पूछा, मैंने जवाब नहीं दिया, उसका कुल कारण इतना है कि मैं नहीं समझता कि इतने लोग जो यहां इकट्ठे हैं, इनके लिए उस जवाब की कोई भी जरूरत है। आज इतना ही। लेकिन पांच मिनट बैठेंगे। कीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं। Page #372 --------------------------------------------------------------------------  Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 तेरहवां प्रवचन क्षणभंगुरता का बोध Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । मनुष्य की परम स्थिति तो एक है, लेकिन उसकी बीच की स्थितियां स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् । । ३२ ।। भिन्न-भिन्न हैं। मनुष्य आत्यंतिक रूप से तो समान है, लेकिन किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अलग-अलग स्थितियों में बहुत असमान है। अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।। ३३ ।। मनुष्य का विभाजन जो भारतीय बुद्धि ने किया है, वह पहला मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।। विभाजन है स्त्री और पुरुष में। लेकिन ध्यान रहे, स्त्री से अर्थ है मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ।। ३४ ।। स्त्रैण। स्त्री से अर्थ स्त्री ही हो, तो यह वचन बहुत बेहूदा है। स्त्री क्योंकि हे अर्जुन, स्त्री, वैश्य, शूद्रादिक तथा पाप योनि वाले से अर्थ है स्त्रैण। और जब मैं कहता हूं, स्त्री से अर्थ है स्त्रैण, तो भी जो कोई हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को ही उसका अर्थ यह है कि पुरुषों में भी ऐसे व्यक्ति हैं, जो स्त्री जैसे हैं, प्राप्त होते हैं। स्त्रैण हैं; स्त्रियों में भी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो पुरुष जैसे हैं, पौरुषेय फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्राह्मणजन तथा राजऋषि हैं। पुरुष और स्त्री प्रतीक हैं, सिंबालिक हैं। उनके अर्थ को हम भक्तजन परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित ठीक से समझ लें। और क्षणभंगुर इस लोक को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही गुह्य विज्ञान में, आत्मा की खोज में जो चल रहे हैं, उनके लिए भजन कर। स्त्रैण से अर्थ है ऐसा व्यक्तित्व, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं केवल मुझ परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से अचल मन वाला है; जो प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन यात्रा नहीं कर सकता; जो राह हो, और मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो, तथा देख सकता है, लेकिन खोज नहीं कर सकता। इसे स्त्रैण कहने का मेरी श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने कारण है। वाला हो और मुझ परमात्मा को ही प्रणाम कर। स्त्री और पुरुष का जो संबंध है, उसमें खोज पुरुष करता है, स्त्री इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव केवल प्रतीक्षा करती है। पहल भी पुरुष करता है, स्त्री केवल बाट करके मेरे को ही प्राप्त होवेगा। जोहती है। प्रेम में भी स्त्री प्रतीक्षा करती है, राह देखती है। और अगर कभी कोई स्त्री प्रेम में पहल करे, इनिशिएटिव ले, तो आक्रामक मालूम होगी, बेशर्म मालूम होगी। और अगर पुरुष ट स सूत्र को सुनकर आधुनिक मन को बहुत धक्का | प्रतीक्षा करे, पहल न कर सके, तो स्त्रैण मालूम होगा। र लगेगा। चाह होगी कि यह सूत्र न होता तो अच्छा था। लेकिन विगत पांच हजार वर्षों में, गीता के बाद, सिर्फ आधुनिक आज का विचार इस सूत्र को बड़ी कठिनाई पाएगा | युग में कार्ल गुस्ताव जुंग ने स्त्री और पुरुष के इस मानसिक भेद समझने में। को समझने की गहरी चेष्टा की है। जुंग ने इधर इन बीस-पच्चीस कृष्ण ने कहा है, क्योंकि हे अर्जुन, स्त्री, वैश्य, शूद्र आदि तथा | | पिछले वर्षों में एक अभूतपूर्व बात सिद्ध की है, और वह यह कि पाप योनि वाले भी जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परम | कोई भी पुरुष पूरा पुरुष नहीं है और कोई भी स्त्री पूरी स्त्री नहीं है। गति को प्राप्त होते हैं। | और हमारा अब तक जो खयाल रहा है कि हर व्यक्ति एक सेक्स __बहुत अजीब मालूम पड़ेगा। बहुत कड़वाहट भी मालूम पड़ेगी। से संबंधित है, वह गलत है। प्रत्येक व्यक्ति बाइ-सेक्सुअल है, स्त्री को, वैश्य को, शूद्र को, पाप योनि को समझने में हमें कई तरह दोनों यौन प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद हैं। जिसे हम पुरुष कहते हैं, की कठिनाइयां हैं। उसमें पुरुष यौन की मात्रा अधिक है, स्त्री यौन की मात्रा कम है। पहली कठिनाई कि हमने इन शब्दों से जो कुछ समझा है, वह इन | ऐसा समझें कि वह साठ प्रतिशत पुरुष है और चालीस प्रतिशत स्त्री शब्दों से अभिप्रेत नहीं है। और इन शब्दों का हमारे मन में जो अर्थ | | है। जिसे हम स्त्री कहते हैं, वह साठ प्रतिशत स्त्री है और चालीस है, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। तो इन शब्दों की ठीक से व्याख्या में प्रतिशत पुरुष है। प्रवेश करना जरूरी होगा, तभी इस सूत्र को समझा जा सके। लेकिन ऐसा कोई भी पुरुष खोजना संभव नहीं है, जो सौ मनुष्य की आत्मा तो एक है, लेकिन उसके मन अनेक हैं। और प्रतिशत पुरुष हो; और ऐसी कोई स्त्री खोजनी संभव नहीं है, जो |348 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षणभंगुरता का बोध * सौ प्रतिशत स्त्री हो। यह है भी उचित। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अगर हम स्त्री के मन को ठीक से समझें, तो वह किसी ऐसे जन्म स्त्री और परुष से मिलकर होता है। इसलिए दोनों ही उसके प्रतीक में प्रकट होगा. द्वार खोलकर दरवाजे पर बैठी हई. किसी की भीतर प्रवेश कर जाते हैं। चाहे स्त्री का जन्म हो, चाहे पुरुष का जन्म | प्रतीक्षा में रत; खोज में चली गई नहीं, प्रतीक्षा में। और पुरुष अगर हो, दोनों के जन्म के लिए स्त्री और पुरुष का मिलन अनिवार्य है! दरवाजा खोलकर और किसी की प्रतीक्षा करते दीवाल से टिककर और स्त्री-पुरुष दोनों के ही कणों से मिलकर, जीवाणुओं से मिलकर | बैठा हो, तो हमें शक होगा कि वह पुरुष कम है। उसे खोज पर व्यक्ति का जन्म होता है। दोनों प्रवेश कर जाते हैं। जो फर्क है, वह | जाना चाहिए। मात्रा का होता है। जो फर्क है, वह निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। | जिसकी प्रतीक्षा है, उसे खोजना पड़ेगा, यह पुरुष चित्त का - इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ऊपर से पुरुष दिखाई पड़ता | लक्षण है। जिसकी खोज है, उसकी प्रतीक्षा करनी होगी, यह स्त्री है, उसके भीतर भी कुछ प्रतिशत मात्रा स्त्री की छिपी होती है; जो चित्त का लक्षण है। स्त्री और पुरुष से इसका कोई संबंध नहीं है। स्त्री दिखाई पड़ती है, उसके भीतर भी कुछ मात्रा पुरुष की छिपी | कृष्ण कहते हैं, जो स्त्रैण हैं, वे भी अर्जुन, मुझे पाने में समर्थ हो होती है। और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में स्त्री | | जाते हैं। पुरुष जैसा व्यवहार करे और किन्हीं क्षणों में पुरुष स्त्री जैसा फिर कहते हैं, वैश्य और शूद्र भी। ये दो शब्द भी समझ लेने व्यवहार करे। ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में जो भीतर | जैसे हैं। है, वह ऊपर आ जाए; और जो ऊपर है, नीचे चला जाए। __ मैंने कहा, हमारे मन अलग-अलग हैं, हमारी आत्माएं एक हैं। आप पर एकदम से हमला हो जाए, घर में आग लग जाए, तो और मन के अलग-अलग होने के कारण हमारे शरीर भी आप कितने ही बहादुर व्यक्ति हों, एक क्षण में अचानक आप अलग-अलग हैं। क्योंकि शरीर मन के द्वारा ही निर्मित होता है, पाएंगे, आप स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हैं। रो रहे हैं, बाल नोंच रहे | शरीर को हम पाते हैं मन के द्वारा ही। हैं, चिल्ला रहे हैं, घबड़ा रहे हैं! अगर एक मां के बच्चे पर हमला | चार प्रकार के व्यक्तित्व भारत ने विभाजित किए हैं, ब्राह्मण, हो जाए, तो मां भी खूख्वार हो जाएगी, और ऐसा व्यवहार करेगी, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चारों का भी कोई संबंध आपके जन्म . इतना कठोर, इतना हिंसात्मक, जैसा कि पुरुष भी न कर पाए। यह | से नहीं है। इन चारों का भी गहरा संबंध आपके व्यक्तित्व के ढांचे संभावना है, क्योंकि भीतर एक मात्रा निरंतर छिपी हुई है। वह किसी | से है। हमने यह भी कोशिश की थी कि व्यक्तित्व का ढांचा और भी क्षण प्रकट हो सकती है। जन्म की व्यवस्था में ताल-मेल हो जाए। हमने अकेले ही इस जुंग ने स्त्री और पुरुष के नए अर्थ को फिर से प्रकट किया है। जमीन पर यह प्रयोग किया था कि जन्म में और व्यक्तित्व के ढांचे कृष्ण का भी अर्थ वही है। जब वे कहते हैं, स्त्रियां भी मुझे उपलब्ध में कोई एक इनर हार्मनी, एक आंतरिक संबंध खोज लिया जाए। हो जाती हैं, तो उनका अर्थ यह है,कि वे, जो एक कदम भी नहीं हम थोड़ी दूर तक सफल भी हुए थे। लेकिन वह प्रयोग पूर्ण रूप चलते हैं, मात्र प्रतीक्षा करते हैं, वे भी मुझे पा लेते हैं अर्जुन! जिनके | से सफल नहीं हो पाया। वह टूट गया। टूट जाने के कारण थे, मन में आक्रमण ही नहीं है; परमात्मा की खोज में भी जो आक्रामक, उनकी मैं आपसे पीछे बात करूं। पहले आपको यह कह दूं कि ये एग्रेसिव नहीं हो सकते, वे भी मुझे पा लेते हैं। जो इंचभर भी नहीं चार शब्द व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। चार तरह के व्यक्तित्व होते हैं। चलते, सिर्फ मेरा स्मरण ही करते हैं, सिर्फ अनन्य भाव से मुझे शूद्र हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जो शरीर के इर्द-गिर्द जीता पुकारते ही हैं, जो बदले में कुछ भी चुकाने को तैयार नहीं होते, जो | है। शरीर से ज्यादा जिसे अस्तित्व में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। मुकाबले में कुछ भी दांव पर नहीं लगाते, अगर मैं उनके दरवाजे | शरीर ही जिसका परमात्मा है। शरीर सुख में रहे, तो वह प्रसन्न है; पर भी खड़ा हूं, तो वे दरवाजे तक उठकर भी नहीं आते, मुझे ही शरीर दुख में हो जाए, तो वह दुखी है। शरीर की मांग पूरी हो जाए, उन तक जाना पड़ता है, वे भी मझे पा लेते हैं। | तो सब मांगें समाप्त हो गईं; शरीर की मांग पूरी न हो, तो उसके स्त्रैण से अर्थ है, ऐसा मन, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है; जीवन में व्यथा और संताप है। उसके व्यक्तित्व का केंद्र शरीर है। ज्यादा से ज्यादा समर्पण कर सकता है; ग्राहक मन, रिसेप्टिविटी, | | बहुत अनूठी बात भारतीय शास्त्रों ने कही है कि सभी व्यक्ति द्वार खोलकर प्रतीक्षा कर सकता है। | जन्म से शूद्र होते हैं! एक अर्थ में सही है। सभी व्यक्ति जन्म से 349 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-44 शरीर के इर्द-गिर्द होते हैं, बाकी ऊंचाइयां तो क्रमशः पानी पड़ती | | मिलने वाला रस मन को मिलने वाला रस है। वैश्य यश के लिए हैं। ध्यान रहे, सभी व्यक्ति शरीर से शूद्र जैसे पैदा होते हैं, यह | जीएगा, पद के लिए जीएगा। उनसे मिलने वाला रस, मन के लिए दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो यह है कि अधिक लोग शूद्र ही मरते हैं, | मिलने वाला रस है। और वैश्य धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा अधिक लोग मरते क्षण में भी शरीर के पास ही होते हैं। के लिए शरीर को भी गंवाने को तैयार हो जाएगा। शूद्र पद के लिए, ध्यान रहे, अगर आपके भीतर से शूद्र विलीन हो गया हो, तो धन के लिए, प्रतिष्ठा के लिए शरीर को गंवाने को तैयार नहीं होगा। मृत्यु की आपको पीड़ा नहीं होगी; क्योंकि मृत्यु की पीड़ा शरीर के | शरीर उसके लिए मौलिक मूल्य है। शरीर के लिए वह सब कुछ मरने की पीड़ा है। और जिसके भीतर से शूद्र विलीन हो गया है, कर सकता है। लेकिन वैश्य शरीर को गंवाने को तैयार हो जाएगा। उसका शरीर का दृष्टिकोण ही बदल गया! अब वह भलीभांति । एक लिहाज से शूद्र शरीर से स्वस्थ होगा, वैश्य अस्वस्थ होने जानता है कि शरीर मैं नहीं हूं। लगेगा। एक लिहाज से शूद्र के पास प्रकृति के संपर्क का द्वार बहुत संक्षिप्त में कहें, तो जो ऐसा मानता है कि मैं शरीर ही हूं, वह | स्पष्ट होगा, संवेदनशील होगा; वैश्य प्रकृति के साथ संवेदना खोने शूद्र है। मैं शरीर ही हूं, सब कुछ शरीर है, शरीर पर मैं समाप्त हो | | लगेगा। लेकिन प्रकृति से संवेदना उसकी कम होगी, लेकिन जाता हूं। शरीर ही मेरा जन्म है, शरीर ही मेरा जीवन, शरीर ही मेरी | | परमात्मा की तरफ वह एक कदम ऊपर उठ जाएगा। क्योंकि शरीर मृत्यु है। शरीर के पार मैं नहीं है, शरीर से भिन्न मैं नहीं हूं। शरीर से आत्मा तक जाने में बीच में मन के पड़ाव को पार करना जरूरी में मैं समाप्त हूं, शरीर मेरी सीमा है, यह शूद्र का अर्थ है। | ही है। मन से गुजरना ही पड़ेगा। शूद्र को आत्मा की यात्रा में किसी शूद्र को इसलिए निम्नतम कहा है। निम्नतम कहने का कारण? | | न किसी क्षण वैश्य होना ही पड़ेगा। कारण इतना ही कि शूद्र होना सिर्फ जीवन की बुनियाद है, और | | सभी शूद्र की तरह जन्मते हैं; कुछ लोग वैश्य तक पहुंच जाते भवन उठाया जा सकता है। और भवन न उठे, तो बुनियाद बेकार हैं और समाप्त हो जाते हैं। वह भी पड़ाव है, मंजिल नहीं है। मन है। शरीर पर ही कोई समाप्त हो जाए, तो उसका जीवन व्यर्थ गया। मूल्यवान हो जाएगा शरीर से ज्यादा, और मन के रस शरीर के रस लेकिन हमारी दृष्टि ही शरीर पर है। से ज्यादा कीमती मालूम पड़ने लगेंगे। भोजन उतना मूल्यवान नहीं तो कृष्ण कहते हैं कि शूद्र भी, जो केवल अपने को शरीर में ही रहेगा अब, कामवासना उतनी मूल्यवान नहीं रहेगी, जितना मन के . जिलाए रखते हैं, शरीर के आस-पास ही घूमते रहते हैं; वे भी | | रस मूल्यवान हो जाएंगे। पद है, प्रतिष्ठा है, यश हैं, गौरव है, अगर अनन्य भाव से मेरा स्मरण कर लें, तो अर्जुन, वे भी मुक्त गरिमा है, ये ज्यादा मूल्यवान होने लगेंगे। हो जाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वैश्य भी अगर मुझे स्मरण करें, तो वे भी मुझे कृष्ण, बिलकुल निम्नतम जो चित्त की दशा हो सकती है, उसके | उपलब्ध हो जाते हैं, अर्जुन! वे जो अभी मन में ही घिरे हैं और लिए भी कह रहे हैं कि उस दशा में भी, उस अंधकार में पड़ा हुआ आत्मा तक जिनका कोई कदम नहीं उठा है, वे भी अगर मुझे स्मरण भी अगर मेरा स्मरण करे, तो प्रकाश की किरण उस तक भी पहुंच | करें, तो उन तक भी मेरी किरण पहुंच जाती है। जाती है। खाई में पड़ा है, गहन अंधकार में पड़ा है कोई, चारों ओर | तीसरी कोटि है क्षत्रिय की। क्षत्रिय का अर्थ है, जो शरीर और अंधकार है, लेकिन अगर मुझे स्मरण करे, तो मेरी किरण वहां भी | मन दोनों के पार उठकर आत्मा में जीना शरू करे। शद्र और वैश्य पहंच जाती है। स्मरण ही मेरी उपस्थिति बन जाती है। शद्र को भी. की कोटि को भारत ने नीचा माना है। वह एक पलड़ा है, दो वर्गों वे कहते हैं, यह हो जाएगा। का। क्षत्रिय और ब्राह्मण को श्रेष्ठतर माना है, वह दूसरा पलड़ा है। वैश्य दूसरी कोटि है। शूद्र उसे कहते हैं, जो शरीर के आस-पास | जो आत्मा में जीने की चेष्टा करे। शरीर का भी मूल्य नहीं है, मन जीता है। वैश्य उसे कहते हैं, जो मन के आस-पास जीता है। का भी मूल्य नहीं है, सिर्फ आत्मगौरव का ही मूल्य है। . इसलिए शूद्र की जो भी वासनाएं हैं, आकांक्षाएं हैं, बहुत सालिड, इसलिए क्षत्रिय धन पर भी लात मार देगा, शरीर पर भी लात बहुत स्थूल होंगी। वैश्य की जो कामनाएं और वासनाएं और | मार देगा, मन की भी चिंता छोड़ देगा, लेकिन आत्मगौरव उसके आकांक्षाएं हैं, वे मानसिक होंगी, सूक्ष्म होंगी। लिए सबसे ज्यादा कीमती हो जाएगा। वह उसके आस-पास ही वैश्य धन के लिए जीएगा। धन सूक्ष्म बात है; और धन से | | जीएगा। आत्मगौरव के लिए वह सब कुछ गंवा सकता है, लेकिन 350 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणभंगुरता का बोध आत्मगौरव नहीं गंवा सकता है। चौथी कोटि है ब्राह्मण की । ब्राह्मण से अर्थ है, जो आत्मा से भी पार हट जाए और ब्रह्म में जीए । उसके लिए अब न शरीर का कोई मूल्य है, न मन का कोई मूल्य है, न आत्मा का कोई मूल्य है, उसके लिए सिर्फ परमात्मा ही मूल्यवान रह गया। ये चार टाइप हैं, इनका जाति से फिलहाल कोई संबंध न जोड़ें। ये चार मनस- प्रकार हैं। कृष्ण कहते हैं कि पहले दो प्रकार वाले लोग भी मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, तो बाद के दो प्रकार वाले लोगों का क्या कहना ! अगर वे मेरा स्मरण करें, तो वे मुझे उपलब्ध हैं ही। अगर मन के प्रकार की तरह समझें, तो इस सूत्र में कोई कठिनाई न रह जाएगी। लेकिन भारत ने यह प्रयोग भी किया था । कि ये जो मन के प्रकार हैं, इनको जन्म से जोड़ने की एक अभूतपूर्व चेष्टा की थी। असफल गया वह प्रयोग, लेकिन बड़ा प्रयोग था । और इतना बड़ा था कि सफल होना संभव नहीं मालूम पड़ता था । जितनी बड़ी बात हो, उतनी असफलता की संभावना ज्यादा हो जाती है। और जब कोई बहुत बड़ी बात असफल होती है, तो बड़े गड्ढे में गिरा जाती है। हमने एक अनूठा प्रयोग किया था। वह प्रयोग यह था कि न केवल व्यक्ति का मन अलग-अलग है, न केवल उसकी चेतना के ढांचे अलग-अलग हैं, क्या यह नहीं हो सकता कि प्रत्येक चेतना के ढांचे के व्यक्ति को जन्म भी इस भांति मिले कि वह जन्म से ही अपने ढांचे के अनुकूल पैदा हो सके ? एक व्यक्ति मरता है, तो उसकी आत्मा भटकती है नए जीवन की तलाश में। हर कहीं आकस्मिक जन्म नहीं होता । आत्मा खोजती अपने अनुकूल, अपने अनुकूल गर्भ को खोजती है। और जब अनुकूल गर्भ मिलता है, तो जन्म लेती है। अपने तो जन्म की घटना में दो घटनाएं घटती हैं, मां और पिता का गर्भ निर्माण करना और उस निर्मित गर्भ में एक चेतना का प्रवेश । वह चेतना का प्रवेश उस चेतना के अपने समस्त कर्मों का फल है। उसके अनुकूल वह खोजती है। यह खोज बहुत सचेतन नहीं है, कांशस नहीं है, अनकांशस है। अनकांशस खोज का मतलब यह है कि जैसे हम पानी को बहाते हैं, तो वह गड्ढे को खोज लेता है। भाषा में हम कहेंगे, पानी गड्ढे को खोज लेता है। लेकिन पानी कोई सचेतन रूप से खोजता नहीं, सिर्फ स्वभाव अनुसार वह गड्ढे की तरफ बहता है, जहां नीचाई है, वहां बहता है। पानी ऊपर की तरफ नहीं बह सकता, गड्ढे की तरफ बह सकता है। इसलिए जो सबसे बड़ा गड्ढा है, वहां पहुंच जाता है। कमरे में जहां गड्डा है, पानी पहुंच जाता है। यह खोज अचेतन है। पानी के स्वभाव से हो जाती है। ठीक ऐसे ही, प्रत्येक आत्मा अचेतन खोज करती है। जहां उसके अनुकूल गर्भ होता है, वहीं गड्डा बन जाता है, वहीं आत्मा प्रवेश कर जाती है। भारत ने यह कोशिश की कि क्या यह नहीं हो सकता कि शूद्र आत्माओं के लिए हम एक वर्ग ही नियत कर दें, जहां शूद्र आत्माएं पैदा हो जाएं! क्या यह नहीं हो सकता कि ब्राह्मण आत्माओं के लिए हम ब्राह्मण का एक वर्ग ही नियत कर दें, जहां ब्राह्मण आत्माएं पैदा हो जाएं! यह बड़ा कठिन प्रयोग था, बहुत मुश्किल प्रयोग था । शायद भविष्य में बायोलाजी कुछ इस तरह के प्रयोग करना शुरू करे । लेकिन वे किसी दूसरे ढांचे पर होंगे। क्योंकि विज्ञान अब यह कह रहा है कि हम इस बात की कोशिश जरूर करेंगे आज नहीं कल, कि ज्यादा सुंदर लोग पैदा किए जा सकें, और निर्णायक बना जाँ सके कि ज्यादा सुंदर व्यक्ति पैदा हों। विज्ञान यह भी कह रहा है कि अब यह कठिनाई नहीं रही कि हम अगर पुरुष पैदा करना चाहें, तो पुरुष पैदा करें; और स्त्री पैदा करना चाहें, तो स्त्री पैदा करें। विज्ञान अब यह भी कह रहा है कि हम यह भी तय कर लेंगे कि जो बच्चा पैदा हो, उसका बुद्धि अंक, उसका आई. क्यू. कितना हो, यह हम पहले तय कर लेंगे। हम यह भी तय कर लेंगे कि उसके शरीर का | रंग कैसा हो, उसकी उम्र कितनी हो। हम ये सारी बात तय करेंगे। यह तय करेंगे, तो हमें ब्रीडिंग को नियत करना पड़ेगा। फिर हर कोई, हर किसी से संबंध नहीं बना सकेगा । तब संबंध हमें सीमित करने पड़ेंगे, ताकि वे ही लोग संबंधित हों, जो नियमानुसार एक व्यक्ति को जन्म दे सकें। ठीक वैसे ही प्रयोग भारत ने किसी और दिशा से किए थे, और समाज को चार हिस्सों में बांट दिया था। इन चार हिस्सों में बांटने का प्रयोजन यह था कि शूद्र शूद्र से ही विवाह करे; और यह पीढ़ी दर पीढ़ी ब्राह्मण ब्राह्मण से ही विवाह करे। तो पचास पीढ़ियों के गुजरने के बाद, यह दो ब्राह्मणों का जो विवाह होगा और इन ब्राह्मणों से जो गर्भ निर्मित होगा, वह निर्मित गर्भ किसी ब्राह्मण | आत्मा को आकर्षित करने में ज्यादा संभव होगा, बजाय किसी और | गर्भ के । यह बिलकुल वैज्ञानिक है और तर्कयुक्त है। अगर यह हो सकता है, तो यह बिलकुल तर्कयुक्त है। 351 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* यह प्रयोग एक महत प्रयोग किया गया। हर प्रयोग के खतरे भी | | करते वक्त उसे एक शूद्र के घर में ही योग्य मौका मिला, वह शूद्र होते हैं। खतरा हुआ। यह प्रयोग तो संभव नहीं हो सका; समाज | | के घर पैदा हो जाता है। तो उसे ब्राह्मण की पूरी शिक्षा नहीं मिल चार हिस्सों में बंट गया। यह प्रयोग तो टूटा; लेकिन समाज चार सकेगी, उसे ब्राह्मण का पूरा वातावरण नहीं मिल सकेगा। हो शत्रुओं के हिस्सों में टूट गया। और धीरे-धीरे शूद्र व्यक्तित्व का | सकता है, वह पचास वर्ष का हो जाए, तब इस योग्य हो, जिस विचार न रहा, जाति का लक्षण हो गया। और तब कोई आदमी | योग्य का वह ब्राह्मण के घर में पैदा होकर पांच वर्ष में हो जाता! ये ब्राह्मण पैदा हो गया, तो चाहे वह बिलकुल शूद्र के व्यक्तित्व का | पैंतालीस वर्ष उसके व्यर्थ खो जाएंगे। हो, तो भी सिर पर बैठ गया। और तब कोई अगर शूद्र घर में पैदा ___ भारत ने एक जीवन की गहरी इकॉनामिक्स की चिंता की थी, हुआ और अगर वह ब्राह्मण की योग्यता का था, तो भी उसे किसी | समय कम से कम उपयोग में लाया जा सके और अधिक से अधिक मंदिर में पूजा की जगह न मिली! यह खतरा हुआ। परिणाम हो सकें और व्यक्ति में जो गहनतम छिपा है, वह प्रकट हर प्रयोग का खतरा है। वैज्ञानिकों ने अणु बम की खोज की, हो सके। उसे मां-बाप भी, परिवार भी, वातावरण भी, सब कुछ तब सोचा नहीं था कि अणु बम का परिणाम हिरोशिमा और | ब्राह्मण का मिल सके। शूद्र को शूद्र का मिल सके, वैश्य को वैश्य नागासाकी होगा। तब उन्होंने सोचा था कि अणु की ऊर्जा हमारे | | का मिल सके। इसलिए जातियां विभाजित हुईं। हाथ में लग जाएगी, तो हम सारी जमीन को खुशहाल कर देंगे; | लेकिन यह महान प्रयोग नहीं हो सका। जिन्होंने किया था, वे कोई भूखा नहीं होगा, कोई गरीब नहीं होगा। इतनी बड़ी शक्ति | खो गए। और जिनके हाथ में यह महान प्रयोग दे गए, उन्होंने केवल हमारे हाथ में लगेगी कि हम सारे जीवन को रूपांतरित कर डालेंगे; | समाज को विभाजित करके शोषण का एक उपाय किया।. पृथ्वी स्वर्ग हो जाएगी। तब शूद्र शोषित हो गया। तब ब्राह्मण छाती पर बैठ गया। तब लेकिन यह नहीं हुआ। यह हो सकता था, लेकिन यह नहीं | | क्षत्रिय ने तलवार हाथ में ले ली और लोगों के ऊपर प्रभुसत्ता कायम हुआ। हुआ-हिरोशिमा और नागासाकी कब्रगाह बन गए। एक कर ली। और तब वैश्य धन इकट्ठा करके बैठ गया। और इन चारों लाख आदमी एक क्षण में जलकर राख हो गए। और अभी सारी | | वर्गों ने एक-दूसरे के साथ गहरी शत्रुता ठान ली। जो फायदा होता, दुनिया के पास अणु बम और हाइड्रोजन बम इकट्ठे हैं। किसी भी | वह तो नहीं हुआ, नुकसान यह हुआ कि शूद्र के घर अगर कोई पैदा . दिन पूरी दुनिया राख की जा सकती है! | हो गया, तो उसके विकास का उपाय ही न रहा। आइंस्टीन मरते वक्त कहकर मरा है कि हमने सोचा भी नहीं था पांच हजार साल में अगर डा अंबेदकर को छोड़ दें तो शदों में कि इतनी महान ऊर्जा का ऐसा महान दुरुपयोग हो सकेगा। | एक भी बुद्धिमान आदमी पैदा नहीं हो सका। और ये डाक्टर लीनियस पालिंग ने, जो कि अणु की खोज में बड़े वैज्ञानिकों में एक अंबेदकर भी हमारी वजह से पैदा नहीं हुए। यह एक आदमी है, था, आखिरी वक्त सारी दुनिया के वैज्ञानिकों से अपील की कि अब | जिसको ब्राह्मण की हैसियत का कहा जा सके। इसलिए ब्राह्मणों से दुबारा कोई बड़ी शक्ति आदमी के हाथ में खोजकर मत देना! | नाराज भी थे वे। ब्राह्मणों से नाराज होना बिलकुल स्वाभाविक था, क्योंकि हम खोजते हैं पता नहीं किसलिए और आदमी उसका क्या क्रोध स्वाभाविक था। उपयोग करता है! पांच हजार वर्षों में शूद्रों की कितनी प्रतिभाएं खो गईं, इसका हमें इस मुल्क में इस मुल्क के मनीषियों ने भी एक बहुत अदभुत | | कोई पता नहीं है! प्रयोग गलत निकल गया, गलत आदमियों के सूत्र खोजा था। और वह सूत्र यह था कि प्रत्येक आत्मा को हम | । हाथों में पड़ गया। और कितने शूद्र जैसे ब्राह्मण हमारे मुल्क की उसके जीवन के चुनाव में भी मार्ग-निर्देश कर सकें। आत्मा ऐसे | | छाती पर छाए चले गए और कितना गहन नुकसान पहुंचा गए, ही भटककर कहीं भी, किसी भी तरह पैदा न हो। हम उसे | | उसका भी अब हिसाब लगाना मुश्किल है। सुनिश्चित मार्ग दे सकें, व्यवस्थित मार्ग दे सकें ताकि ज्यादा से | ___ यह मैंने इसलिए कहा, ताकि आपको कृष्ण का अर्थ साफ हो ज्यादा उपयोग थोड़े से थोड़े जीवन का किया जा सके। | सके। कृष्ण के समय में यह महान प्रयोग गतिमान था, यह प्रयोग और अगर एक व्यक्ति पिछले जन्म में ब्राह्मण था, समझें, और . चल रहा था, इस प्रयोग की आधारशिलाएं रखी जा रही थीं। कृष्ण उसने ब्राह्मण की एक ऊंचाई पाई। लेकिन इस बार जन्म की खोज को पता भी नहीं है कि इस प्रयोग का क्या परिणाम आज हो गया! 352 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षणभंगुरता का बोध जो लोग हिरोशिमा के पहले मर गए अणु बम बनाकर, उनको पता भी नहीं है। वे इसी खुशी में मरे हैं कि वे मनुष्य जाति को एक महान शक्ति देकर विदा हो गए हैं। अभागे तो वे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अपने हाथ से अपने सामने आदमीयत को जलते हुए देखा - अपनी ही खोज का यह परिणाम ! कृष्ण ने जब यह सूत्र कहा था, तब मनुष्य के प्रकार का यह महान प्रयोग गतिमान था, स्वस्थ था, विकसित हो रहा था, अंकुरित हो रहा था, सड़ नहीं गया था। कृष्ण कहते हैं, शूद्र हो, कि वैश्य हो, कि स्त्री हो, कोई भी हो, वे भी मेरी शरण को पाकर परम गति को उपलब्ध हो जाते हैं। यहां कोई निंदा का स्वर नहीं है; यहां केवल तथ्य की सूचना है। सिर्फ इस तथ्य की कि जो शरीर के पास जी रहे हैं, वे भी; जो मन के पास जी रहे हैं, वे भी; वे भी शरण आकर मुझे पा लेते हैं। शरण आने का मूल्य समझाया जा रहा है। आप क्या हैं, यह मूल्यवान नहीं है; आप कौन हैं, यह मूल्यवान नहीं है; अच्छे हैं, बुरे हैं, यह मूल्यवान नहीं है। शरण जाने की क्षमता आपकी है, तो आप परमात्मा को उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसी शर्त कृष्ण कहते हैं, शरण, सरेंडर की, उसके सामने समर्पण कर देने की, अपने अहंकार को उसके सामने छोड़ देने की। पुण्यशील ब्राह्मणजन और राजऋषि भक्तजनों का तो परमगति प्राप्त होना सुनिश्चित है। अगर वे भी अपने को शरण में लगा पाएं। इसलिए तू सुखरहित ओर क्षणभंगुर इस लोक को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर। केवल मुझ परमात्मा में अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, और मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो। और मेरा श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला हो, मुझ परमात्मा को प्रणाम कर। इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मुझ को ही प्राप्त हो सकेगा। यहां तीन-चार बातें खयाल में लेने जैसी हैं। पहली बात, कृष्ण कहते हैं, सुखरहित और क्षणभंगुर लोक में ! जहां हम जी रहे हैं, वहां सुख का आभास बहुत होता है, सुख मिलता नहीं। मिलता है दुख, आभास होता है सुख का । हाथ में आता है दुख, आशा बनती है सुख । दूर से दिखाई पड़ता है सुख, पास पहुंचकर उघड़ जाता है और पता चलता है, दुख ही है। दूर से सुख दिखाई पड़ता था । दूरी की भूल है। दूर से जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा पास पाया नहीं जाता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, सुखरहित संसार में ! ध्यान रहे, कृष्ण यह भी कह सकते थे, इस दुख से भरे संसार | में। यह नहीं कहा। ज्यादा उचित होता, ज्यादा जोर वाला होता, | कहते कि इस दुख भरे संसार में। लेकिन कृष्ण ने यह नहीं कहा कि इस दुख भरे संसार में। बुद्ध ने कहा है, यह संसार दुख है । कृष्ण कुछ दूसरा शब्द उपयोग किया है, और ज्यादा विचारपूर्वक है। कृष्ण ने कहा है, इस सुखरहित संसार में ! ने क्यों? क्योंकि दुख तो पैदा ही इसलिए होता है कि हम इस जगत में सुख मान लेते हैं। इसलिए यह कहना कि जगत दुख है, ठीक नहीं है। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख पाते हैं। जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर हम सुख न मांगें, तो जगत | बिलकुल दुख नहीं देता। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख मिलता है। जगत दुख नहीं देता। मैं आपसे आशा करता हूं कि मेरा सम्मान करेंगे, मेरा आदर करेंगे। फिर आप मेरा आदर न करें, सम्मान न करें, तो मुझे दुख हो। दुख आपने मुझे दिया नहीं। आपका कोई हाथ ही नहीं है। आप बिना नमस्कार किए निकल गए। आपको पता भी नहीं होगा कि आपने मुझे दुख दिया। लेकिन मुझे दुख मिला, बिना आपके दिए ! - यह दुख कहां से पैदा हुआ? यह दुख मेरी अपेक्षा से जन्मा । मैंने चाहा था नमस्कार हो, प्रणाम करें मुझे, आदर दें मुझे नहीं दिया, मेरी अपेक्षा टूटी। टूटी हुई अपेक्षा दुख बन जाती है। बिखरा हुआ सुख, दुख बन जाता है। न मिला सुख, दुख बन जाता है। तो जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। बुद्ध से कृष्ण का | वचन ज्यादा गहन है। बुद्ध सीधा कहते हैं, जगत दुख है। ठीक नहीं है । कृष्ण कहते हैं, जगत सुखरहित है । वे यह कहते हैं कि जगत में कोई सुख नहीं है। और अगर कोई मनुष्य ऐसा जान ले कि जगत सुखरहित है, तो फिर उसे इस जगत में दुख नहीं हो सकता। उसे इस जगत में कोई दुख नहीं दे सकता। ? मुझे आप दुख देने में उसी सीमा तक समर्थ हैं, जिस सीमा तक मैं आपसे सुख मांगने में आतुर हूं। सुख मांगने की मात्रा ही आपकी क्षमता है मुझे दुख देने की। अगर मैं कुछ भी मांग नहीं रहा हूं, तो आप मुझे दुख नहीं दे सकते। तो दुख स्वअर्जित है; जगत सुखरहित है और दुख स्वअर्जित है । इसलिए शब्द पर खयाल करें! कृष्ण कहते हैं, सुखरहित है | जगत। दूसरी बात कहते हैं, क्षणभंगुर । एक-एक क्षण में नष्ट हो जाने वाला है। 353 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-42 हमें खयाल नहीं आता। हमें ऐसा लगता है कि जगत बहुत थिर | है, वह भी बूढ़ा, वह भी बूढ़ा होता जा रहा है! एक आदमी मरना है। हम सबको यही खयाल होता है कि हम एक थिर जगत में जी ही नहीं चाहता है। वह जो कोशिश कर रहा है, उसमें ही मर रहे हैं। लेकिन जगत प्रतिपल बदलता चला जाता है—प्रतिपल! जाएगा। जीवन के प्रवाह के विपरीत हम थिर को खोजना चाहते हैं। लेकिन बदलाहट इतनी तीव्र है कि दिखाई नहीं पड़ती। हम चाहते हैं, कुछ ठहर जाए। नदी के किनारे खड़े हैं; नदी बही जा रही है, हम सोचते हैं वही ___ मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो सोचता हूं, यह प्रेम बह न जाए, नदी है। फिर भी नदी में तो दिखाई पड़ता है। पहाड़ के किनारे खड़े बचे, सदा बचे। सिर्फ कवियों की कविताओं में बचता है। और हैं, तब तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता कि पहाड़ बहा जा रहा है। अक्सर उन कवियों की, जिनको प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। सच पहाड़ भी बह रहे हैं। उनके बहने का समय जरा लंबा है। नदी के | तो यह है कि जिनको प्रेम का अनुभव है, वे कविता लिखने की बहने का समय जरा तीव्र है; इसलिए नदी दिखाई पड़ रही है। पहाड़ झंझट में नहीं पड़ते। जिनको कोई अनुभव नहीं है, वे कविता से भी बह रहे हैं। क्योंकि कल जो पहाड़ थे, आज नहीं हैं; और आज | तृप्ति खोजते रहते हैं। जो पहाड़ हैं, कल नहीं थे। कल जो पहाड़ होंगे, उनका हमें अभी सिर्फ कविताओं में प्रेम अमर है। जीवन में कहीं भी अमर नहीं कोई पता नहीं है। है। हो नहीं सकता। ऐसा नहीं कि प्रेमी का कोई कसूर है। नहीं, पहाड़ बह रहे हैं। वे भी बदल रहे हैं। उनका काल-माप बड़ा जीवन का नियम नहीं है। क्षणभंगुर है। है। करोड़ों वर्ष में बदलते हैं। नदी घड़ी में बदल जाती है। बस इसीलिए प्रेमी बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। जब प्रेम के बहाव में काल-माप, टाइम पीरियड का फर्क है, बाकी पहाड़ भी बह रहे हैं। होते हैं और प्रेम अपनी ऊंचाई पर होता है, तो उनको लगता है कि और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक चीज बह रही है। शाश्वत है, इटरनल है। अब तो इसका कोई अंत नहीं होगा। उन्हें प्रत्येक चीज लयमान है, गतिमान है। प्रत्येक चीज दौड़ रही है। पता नहीं है कि शाश्वत तो बहुत दूर की बात है, कल का, सुबह प्रत्येक चीज एक बहाव है। और यहां हर क्षण सब बदला जा रहा का भी कोई भरोसा नहीं है। है। यहां कुछ भी एक क्षण से ज्यादा नहीं टिकता। बाहर भी कुछ। ___ और फिर कल सुबह जब गंगा बह जाती है, और हाथ से पानी नहीं टिकता, भीतर भी कुछ नहीं टिकता। की धाराएं गिर जाती हैं बाहर, और हाथ में कुछ नहीं रह जाता, तब आपने कभी खयाल किया है कि आपका मन एक क्षण भी वही बड़ी कठिनाई शुरू होती है। फिर अपने ही किए हुए वचन-कि नहीं रहता, जो एक क्षण पहले था। एक क्षण पहले सुख मालूम हो | | चाहे मर जाऊं, लेकिन प्रेम करूंगा; चाहे कुछ भी हो जाए, प्रेम रहा था, और जरा भीतर झांककर देखें, सुख तिरोहित हो गया है! | करूंगा। लेकिन प्रेम बह गया। क्योंकि प्रेम आपके वचनों को नहीं एक क्षण पहले दुख मालूम हो रहा था, दुख खो गया है! एक क्षण मानता। प्रेम जगत के नियमों को मानता है। उसके अपने नियम हैं। पहले चिंता मालूम हो रही थी, चिंता चली गई! एक क्षण पहले बड़े मैं कितना ही कहूं, मेरे कहने का कोई सवाल नहीं है। जीवन के शांत थे, अशांत हो गए हैं! एक क्षण भी मन दोहरता नहीं, वही नियम अपवाद नहीं करते। नहीं होता। दो क्षण भी मन एक जैसा नहीं रहता। प्रेम बह जाएगा, तब फिर मुझे प्रेम का धोखा सम्हालना पड़ेगा। " भीतर मन बदल रहा है, बाहर संसार बदल रहा है। कोई चीज | | फिर मैं एक डिसेप्शन को पालकर रखूगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ठहरी हुई नहीं है। और जहां कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, वहां | प्रेम करता हूं और भीतर प्रेम नहीं पाऊंगा। और जारी रखूगा। अपने हमारी ठहराने की आकांक्षा से दुख पैदा होता है। हम ठहराना चाहते को भी धोखा दूंगा, दूसरे को भी धोखा दूंगा। और तब प्रेम से पीड़ा हैं, हम हर चीज को ठहराना चाहते हैं। हम जगत के, जीवन के | निकलेगी, कष्ट आएगा, ऊब मालूम पड़ेगी, घबड़ाहट मालूम नियम के विपरीत कोशिश में लगते हैं। फिर हार जाते हैं। फिर दुखी होगी, धोखा मालूम पड़ेगा। लेकिन अब मैं क्या कर सकता हूं! होते हैं। वचन जो मैने दिया था, उसे खींचना पड़ता है। एक आदमी जबान रहना चाहता है, तो जवान ही रहना चाहता __प्रेम थिर नहीं हो सकता। कोई चीज थिर नहीं हो सकती। सिर्फ है। उसे पता नहीं है कि उसके रहने की कोशिश भी उसको बूढ़ा एक चीज थिर है, वह है परिवर्तन। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती कर रही है. रहने की कोशिश में भी जो समय और ताकत लगा रहा। है, वह है बदलाहट। और सब बदल जाता है। | 354 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षणभंगुरता का बोध तो कृष्ण कहते हैं, क्षणभंगुर है यह। तो मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि जीवन और इस क्षणभंगुर में हम कोशिश करते हैं बचाव की, ठहराव | से व्यर्थ लड़ने की कोशिश में मत पड़! उसमें तू टूट जाएगा। तब की। उस लड़ने में ही हम मिट जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं। मैं यह भी कह रहा हूं कि यह शक्ति, जो तू जीवन से लड़कर नष्ट ___ज्ञान का अर्थ होता है, जीवन के नियम को जानकर जीना।। कर रहा है, यह शक्ति एक और दिशा में भी लगाई जा सकती है। अज्ञान का अर्थ होता है, जीवन के नियम के विपरीत चेष्टा में लगे और जो तू पाना चाहता है, वह पाया जा सकता है। रहना। एक आदमी को पता ही नहीं है कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण | एक ऐसा प्रेम भी है, जो शाश्वत है; लेकिन वह परमात्मा का है. वह छलांग लगा-लगाकर आकाश छने की कोशिश करते हैं. प्रेम है। वह पाया जा सकता है। आदमी-आदमी के प्रेम को शाश्वत गिर-गिरकर हाथ-पैर तोड़ लेते हैं। नियम का उन्हें पता नहीं है कि | करने की कोशिश मत कर! वह नहीं हो सकता। इसका कोई उपाय जमीन खींच रही है, और जितने जोर से तुम उछाल मारोगे, उतने | ही नहीं है। इसका कभी कोई उपाय नहीं हो सकेगा। लेकिन एक ही जोर से खींचे जाओगे। हाथ-पैर तोड़ लेंगे, तो शायद वह कहेंगे | प्रेम है, जो शाश्वत भी है। आदमी-आदमी के बीच के प्रेम की कि जीवन ने उनके साथ धोखा किया! जमीन को कितना कहा कि परेशानी में मत पड़! और अगर आदमी-आदमी के बीच भी प्रेम धरती माता है तू, और यह व्यवहार किया मां होकर! करना है, तो आदमी के भीतर से भी परमात्मा को खोज। प्रेम नहीं, धरती माता का कोई लेना-देना नहीं है इसमें। आपको नियम | | उसको ही कर। आदमी को भी बीच का द्वार बना. जस्ट ए पैसेज. का पता नहीं है। नियम के विपरीत आदमी दुख पैदा कर लेता है। | | एक मार्ग। लेकिन उसके भीतर भी परमात्मा को देख। तो कृष्ण कहते हैं कि क्षणभंगुर इस लोक में तू निरंतर मेरा ही | इसलिए हमने चाहा था कि पति में परमात्मा देखा जा सके। भजन कर। क्योंकि तभी तू उसे पा सकेगा, जो कभी नहीं खोता | क्योंकि अगर पति ही देखा जा सके, तो जिस प्रेम की आशा है, वह है। बाकी तू कुछ भी पा लेगा, तो खो जाएगा। चाहे यश, चाहे | | कभी संभव नहीं हो सकता। पश्चिम में प्रेम टूटेगा, विवाह भी कीर्ति, चाहे धन, चाहे राज्य-कुछ भी इस संसार में तू कुछ | | टूटेगा, परिवार भी बिखरेगा। बिखरना ही पड़ेगा। वह एक ही भी पा लेगा, तो तू ध्यान रखना कि पा भी नहीं पाएगा कि खोना | आधार पर बन सकता था और थिर हो सकता था, कि किसी दिन शुरू हो जाएगा। पति में परमात्मा की झलक मिल जाए या पत्नी में कभी उस दिव्यता यहां हम जीत भी नहीं पाते हैं कि हार शुरू हो जाती है। पहुंच का बोध हो जाए। तो ही। जिस दिन किसी दिन पत्नी में मां दिखाई भी नहीं पाते हैं कि भटकना शुरू हो जाता है। मंजिल हाथ में आती पड़ जाए गहरे में कहीं, पति में प्रभु दिखाई पड़ जाए गहरे में कहीं, नहीं कि छीनने वाले मौजद हो जाते हैं। उसका कारण, जीवन | | उस दिन हम शाश्वत के नियम में प्रवेश कर गए। क्षणभंगुर है। . ऐसा समझें, आज हमने जमीन के पार जाने के उपाय कर लिए, ___ इसमें कुछ निराशा नहीं है। पश्चिम के लोगों ने पूरब के संबंध | | अब हम चांद पर जा सकते हैं। अब तक नहीं जा सकते थे। न जा में निरंतर ऐसा सोचा है कि पूरब के लोग बिलकुल निराश हो गए| | सकने का कारण जमीन का ग्रेविटेशन था। दो सौ मील तक जमीन हैं। इन्होंने जीवन की आशा छोड़ दी है। तभी तो ये कहते हैं, कोई | | का गुरुत्वाकर्षण पकड़े हुए है। दो सौ मील के भीतर कोई भी चीज सुख नहीं है, दुख ही दुख है। कोई आशा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं | | फेंको, जमीन उसे खींच लेगी। और या फिर उसको इतनी तीव्र गति है। कुछ नहीं होगा। में रखना पड़ेगा, जैसे हवाई जहाज को रखना पड़ता है। इतनी तीव्र लेकिन पश्चिम के लोगों को ठीक खयाल नहीं है। पूरब के लोग गति में रखना पड़ेगा कि यहां की जमीन खींच पाए, इसके पहले निराशावादी नहीं हैं। लेकिन पूरब के लोग नासमझ भी नहीं हैं। वह यहां की जमीन से आगे हट जाए। वहां की जमीन खींच पाए, अगर एक आदमी जमीन पर कूद-कूदकर हाथ-पैर तोड़ रहा है। उसके पहले आगे हट जाए। और मैं उससे कहूं कि पागल, तुझे पता नहीं कि जमीन का स्वभाव तो या उसे तीव्र गति में रखना पड़ेगा, तो जमीन उसे नहीं खींच खींच लेना है! तो खींचने के खिलाफ तू जो भी कर रहा है, पाएगी। क्योंकि जमीन के खींचने में समय लगेगा। मेरा हाथ यहां सोच-समझ के कर! अन्यथा हाथ-पैर टूट जाएंगे। और हाथ-पैर है, जमीन के खिंचाव का असर पड़ा, तब तक हाथ आगे हट गया। टूटें, तो जमीन को दोष मत देना, अपनी नासमझी को दोष देना। यह खिंचाव बेकार चला गया। तब तक उस पर असर पड़ा, आगे 355 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-42 हाथ हट गया। तो या तो हवाई जहाज की गति से घूमते रहो आ जाए। वर्तुलाकार, तो जमीन से बच जाओगे। लेकिन जमीन का कर्षण समय में, कभी आपने खयाल किया कि आपको वर्ष, माह, खींचता ही रहेगा। | जीवन इकट्ठा नहीं मिलता, एक-एक क्षण एक-एक बार मिलता हां, दो सौ मील के पार अगर हम किसी भी चीज को फेंक दें, | है! कभी आपने खयाल किया कि दो क्षण इकडे आपके हाथ में तो फिर जमीन खींचने में असमर्थ हो जाती है। दूसरा नियम शुरू | कभी नहीं होते! एक क्षण, और जब वह छिन जाता है, तभी दूसरा हो गया। जमीन के घेरे के बाहर दो सौ मील की जमीन का फील्ड आपके हाथ में उतरता है। है, एनर्जी फील्ड है। उसके बाहर फिर जमीन नहीं खींचेगी। फिर एक क्षण से ज्यादा आपके हाथ में कभी नहीं होता। कोई आदमी एक छोटा-सा कंकड़ भी छोड़ दो, तो जमीन की ताकत उसे खींचने | | कितनी ही कोशिश करे कि दो क्षण मेरे हाथ में हो जाएं, तो नहीं हो की नहीं है। फिर वह कंकड़ अनंत में घूम सकता है। | सकते। एक ही क्षण हाथ में होता है। जब वह खिसक जाता है हाथ ठीक ऐसे ही, जीवन के आंतरिक नियम भी हैं। जब तक हम | | से, तब दूसरा आता है। अगर आपने रेत से चलती हुई घड़ी देखी क्षणभंगुर के घेरे में ही सब कुछ खोजेंगे, शाश्वत को खोजेंगे, तब | | है, तो एक-एक दाना रेत का गिरता रहता है। बस, एक दाना ही तक हम क्षणभंगुर से खिंचते रहेंगे, टूटते रहेंगे, परेशान होते रहेंगे। गुजरता है छेद से। जब एक गुजर जाता है, तब दूसरा दाना गुजरता वह स्थिर हमें उपलब्ध नहीं होगा, शाश्वत की प्रतीति नहीं होगी। है। दो दाने साथ नहीं गुजरते। एक और दिशा भी है, आदमी के पार। जैसे जमीन के पार दो | समय का भी एक दाना हमें मिलता है, एक क्षण। क्षण समय सौ मील के पार उठने की, ठीक ऐसे ही, आदमी के प्रेम, वस्तुओं | का एटम है, आखिरी कण है। उसके आगे विभाजन. नहीं हो के आकर्षण के पार, परमात्मा के प्रेम की तरफ उठने की भी एक | | सकता। एक क्षण हमें मिलता है। वह खोता है, तो दूसरा हाथ में आंतरिक दिशा है। उस दिशा में उठते ही सारे नियम दूसरे हो जाते | | आता है। हैं। यहां सब क्षणभंगुर है, वहां कुछ भी क्षणभंगुर नहीं है। यहां सब । इसका अर्थ हुआ कि हमारे पास एक क्षण से ज्यादा जिंदगी कभी सुखरहित है, वहां सब दुखरहित है। | नहीं होती! चाहे बच्चा हो, चाहे जवान हो, चाहे बूढ़ा हो; चाहे मैं नहीं कहूंगा कि वहां सुख है। क्योंकि आप नहीं समझ पाएंगे। | गरीब हो, चाहे अमीर हो; चाहे ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी हो-एक • क्योंकि सुख तो आपने जाना नहीं कभी। अगर मैं कहूं, वहां सुख | क्षण से ज्यादा जिंदगी किसी के पास नहीं होती। है, तो आपकी समझ में कुछ भी न आएगा। और अगर आएगा भी, क्षणभंगुर का यह भी अर्थ है कि पूरा जीवन क्षण से ज्यादा हमारे तो वही सुख समझ में आएंगे, जो आप यहां जानना चाह रहे थे। पास नहीं होता। नहीं। मैं कहूंगा, यह संसार सुखरहित है; और वह संसार, | और क्षण कितनी छोटी चीज है आपको पता है? आपको पता परमात्मा का, दुखरहित है। दुखरहित इसलिए कि आप दुख को नहीं होगा। जिसे हम सेकेंड कहते हैं घड़ी में, वह बहुत बड़ा है। भलीभांति जानते हैं। आपका दुख वहां कोई भी नहीं होगा। । बहुत बड़ा है। अब तक समय की ठीक-ठीक जांच-पड़ताल नहीं मावतः, आपका कोई भी सुख वहां नहीं होगा। क्योंकि आपके हो सकी; क्योंकि बड़ा सूक्ष्म मामला है समय का। सब दुख इन्हीं सुखों से पैदा हुए हैं। लेकिन क्षण, आप ऐसा ही समझें, डेमोक्रीट्स या वैशेषिक यह क्षणभंगुर है, वह शाश्वत है। यहां हर चीज क्षण में बदल | भारत के आज से तीन-चार हजार साल पहले परमाणु की जो जाती है, वहां कुछ भी कभी नहीं बदला है। कल्पना करते थे, परमाणु का जो खयाल करते थे, तो उनका निश्चित ही, जहां बदलाहट बिलकुल नहीं है, वहां समय नहीं खयाल था कि परमाणु आखिरी टुकड़ा है, उससे ज्यादा नहीं टूट हो सकता, वहां टाइम नहीं हो सकता। क्योंकि समय तो बदलाहट सकता। लेकिन फिर परमाणु भी टूट गया और अब इलेक्ट्रान हमारे का माध्यम है। जहां भी समय होगा, वहां बदलाहट होगी। जहां | हाथ में है। अब इलेक्ट्रान जो है, वस्तु का आखिरी टुकड़ा है। वह बदलाहट नहीं होगी, वहां समय नहीं होगा। | कितना बड़ा है, यह कहना मुश्किल है; वह कितना छोटा है, यह यहां, जहां हम जीते हैं, वहां हम समय में जीते हैं। समय की | | कहना मुश्किल है। और जो भी बातें कही जाती हैं, वे सब अंदाज प्रक्रिया को हम समझ लें, तो क्षणभंगुर का दूसरा अर्थ समझ में हैं, अनुमान हैं। 356 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षणभंगुरता का बोध * इसे ऐसा समझें कि एक पानी की बूंद - स्याही का ड्रापर होता है, आप स्याही के ड्रापर से एक पानी की या स्याही की बूंद गिरा लें । तो वैज्ञानिक कहते हैं, एक बूंद में जितने इलेक्ट्रांस हैं, अगर पूरी पृथ्वी के लोग - तीन अरब लोग हैं अभी - तीन अरब लोग उन इलेक्ट्रांस की गिनती करने लग जाएं, तो छः करोड़ वर्ष लगेंगे ! एक पानी की बूंद में, जमीन पर जितने लोग हैं, तीन अरब लोग हैं अभी, अगर ये गिनती करने लग जाएं खाएं न, पानी न पीएं, उठें न, सोएं न, बैठें न - कुछ भी न करें, चौबीस घंटे गिनती ही करें, तो छः करोड़ वर्ष ! एक पानी की बूंद में उतने इलेक्ट्रांस हैं! कहना मुश्किल है कि एक सेकेंड में कितने क्षण हैं, कहना मुश्किल है। इलेक्ट्रांस से तो छोटे किसी हालत में नहीं होंगे। बहुत बारीक है मामला। उतना बारीक हमारे पास होता है! हमें पता भी नहीं चल पाता। बारीक इतना है कि जब आपको पता चलता है, तब तक क्षण आपके हाथ से जा चुका होता है। पता चलने में जितना वक्त लगता है, उतने में वह जा चुका होता है। आपको पता लगता है कि आपको लगा, बारह बजकर एक मिनट, जब आपको पता लगता है, तो बारह बजकर एक मिनट अब नहीं रहा । क्षण सरक गए। इसका मतलब यह हुआ कि क्षण भी हमारे हाथ में है, यह भी हमें पता नहीं चल पाता। इतना छोटा है क्षण और इतना क्षणभंगुर है जीवन कि हमारे हाथ से कब गुजर जाता है, हमें इसका भी पता नहीं चलता। इस बदलती हुई, भागती हुई समय की धारा में जो जीवन के शाश्वत भवन बनाने की कोशिश करते हैं, वे अगर दुख में पड़ जाते हैं, तो कसूर किसका है? कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, इस क्षणभंगुर और सुखरहित संसार में तू मुझ को स्मरण कर । और स्मरण के लिए कुछ बातें कहते हैं। अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, मुझ परमेश्वर को निरंतर भज । श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन कर | मुझ परमात्मा को प्रणाम कर । मेरे शरण हुआ, मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त हो जाएगा। इन सब बातों का सार तीन शब्दों में आपसे कहना चाहूं । एक, दृष्टि संसार पर मत रखो। वहां कुछ भी हाथ में आएगा नहीं। निराश होने का कोई कारण नहीं; क्योंकि जहां कुछ हाथ में आ सकता है, वह बिलकुल किनारे ही है। संसार से बहुत दूर नहीं, बस जस्ट बाई दि कार्नर । एकदम किनारे, नुक्कड़ पर ही है । जरा | मुड़ने की बात है और वह दिखाई पड़ जाएगा। संसार पर ध्यान म दो; उसकी तलाश करो, जिसमें संसार बह रहा है, जिसमें संसार उठ रहा है, जिसमें संसार खो रहा है, जिसमें संसार बना है और जिसमें संसार लीन हो जाएगा। उसकी थोड़ी फिक्र करो । आदमी से आंख थोड़ी ऊपर उठाओ; आदमी के थोड़े पार देखो । नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से तृप्त हो जाएगा। और लगता है कि वह अभागा दिन हमारे आस-पास है कहीं। आदमी अपने से तृप्त मालूम पड़ता है। धर्म का अर्थ है, आदमी का अपने से अतृप्त हो जाना, ए बेसिक डिसकंटेंट, एक आधारभूत प्राणों में असंतुष्टि, कि आदमी होना काफी नहीं है, और संसार पा लेना पर्याप्त नहीं है – कोई और खोज ! वही खोज परमात्मा की तरफ उठाती है। तो पहली बात, संसार से तृप्त मत हो जाना, संसार में खो मत जाना, डूब मत जाना, स्मरण रखना कि पार भी कोई है। एक मित्र ने पूछा है कि उस पार का हमें कोई पता ही नहीं है, तो हम उसका स्मरण कैसे करें? वे ठीक कहते हैं। उसका कोई भी पता नहीं है। उसका स्मरण कैसे करें ? बच्चा पैदा होता है। आपने कभी खयाल किया है, बच्चा पैदा होकर पहला काम क्या करता है? रोता है। इस बच्चे को रोने का भी कोई पता नहीं था । रोता क्यों है? शायद आपको खयाल में भी न हो ! रोता इसलिए है, ताकि सांस ले सके; क्योंकि मां के पेट में उसे सांस नहीं लेनी पड़ती। मां की सांस से ही काम चलता है। मां के पेट में नौ महीने बच्चे के फेफड़े काम नहीं करते। पैदा होते से ही फेफड़ों को काम करना पड़ता है। पता कुछ भी नहीं है बच्चे को कि फेफड़े कैसे काम करें? कैसे श्वास लें? लेकिन एक बेचैनी है। उसका जो पता नहीं है, उसकी भी एक बेचैनी तो है। पूरा यंत्र मांग करता है, तो एक विह्वलता पैदा होती है। कृष्ण ने उसी विह्वलता की बात कही है। रो उठता है, चीख उठता है। उसी चीखने में सांस भीतर-बाहर हो जाती है, हृदय की धड़कन शुरू हो जाती है। इसलिए अगर बच्चा न रोए, तो डाक्टर चिंतित हो जाते हैं, नर्सों घबड़ा जाती हैं, किसी तरह रुलाओ बच्चे को । | अगर बच्चा नहीं रोया, तो गया! अगर बच्चा न रोए, तो उसका मतलब है कि वह बचेगा नहीं, मर जाएगा। मरा ही हुआ होगा । रो भी नहीं सकता, तो मरा ही हुआ है। तो दूसरी बात आपसे कहता हूं, परमात्मा का तो आपको पता 357 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-4* नहीं है, लेकिन एक बात तो आपको पता चल सकती है कि जिस | और कोई निकट हो या न हो, उस एकांत निर्जन में भी उसका रुदन जगत में आप जी रहे हैं, वहां कुछ भी नहीं है। तो फिर रो तो सकते तो सुनाई ही पड़ेगा, उसके प्राण तो चिल्लाने ही लगेंगे, कि मैं हैं। जहां खोज रहे हैं, वहां कुछ भी नहीं मिल रहा है। उसका कोई कागज की नाव में बैठा हूं, अब क्या होगा? इस घटना से ही, इस पता नहीं है, माना मैंने। उसका कोई पता नहीं है, जो मिले। लेकिन विह्वलता से ही अचानक हृदय का एक नया यंत्र शुरू हो जाता है। जहां हैं, वहां कुछ भी नहीं मिल रहा है, तो छाती पीटकर रो तो - हृदय में दो यंत्र हैं। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, तो वह कहेगा, सकते हैं! हृदयपूर्वक चीख तो सकते हैं! आंसू तो बह सकते हैं! | | फेफड़े के अतिरिक्त हृदय में और कुछ भी नहीं है; फुफ्फुस है। कृष्ण ने उसे ही विह्वलता कहा है। वह विह्वलता इस बात का ही | पंपिंग सेट के सिवाय वहां कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ श्वास को सबूत है कि जो सामने है, उसमें कुछ मिलता नहीं; और तुम, जिनमें | | फेंकने और खून को शुद्ध करने का काम करता है। एक पंपिंग की मुझे मिल सकता है, तुम दिखाई नहीं पड़ते! इस क्षण में जो पीड़ा | व्यवस्था है। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, तो हृदय जैसी कोई भी चीज पैदा होती है, उसका नाम विह्वलता है। जो है, वह पाने योग्य नहीं नहीं है, फेफड़ा है; फुफ्फुस है, लेकिन शब्द हम सदा हृदय का मालम पड़ता: जो पाने योग्य है, उसका कोई पता नहीं है। तो मैं उपयोग करते हैं: हालांकि हमारे पास भी फफ्फस है अभी अभी क्या करूं? लेकिन मैं रो तो सकता हूं। हृदय नहीं है। भक्तों ने रोने का अभूतपूर्व उपयोग किया है। भक्तों ने रोने को | - हृदय उस फेफड़े का नाम है, जो दूसरे संसार में श्वास लेना शुरू योग बना लिया है। रोने का उन्होंने वही उपयोग किया है, जो बच्चा | करता है। यह फेफड़ा तो इसी संसार में श्वास लेता है, यही मां से पैदा होकर करता है अनजान जगत में प्रवेश करने के लिए। | आक्सीजन और कार्बन डायआक्साइड के बीच चलता है। एक भक्तों ने रोकर परमात्मा में प्रवेश करने के लिए वही उपयोग किया | | और भी आक्सीजन है, एक और प्राणवायु है, एक और प्राणवान है। और जो व्यक्ति उस अनजान के लिए रुदन से भर जाता है और जीवन है, जब वह शुरू होता है, तो इसी फुफ्फुस के भीतर एक उसके प्राणों में आंसू भर जाते हैं, अचानक वह पाता है कि उसके और हृदय है, जिसमें नई श्वास और नई धड़कन शुरू हो जाती है। हृदय ने नई श्वास लेनी शुरू कर दी है। वह किसी दूसरे लोक में | वह धड़कन अमृत की धड़कन है। प्रवेश कर गया है। कोई दूसरा जगत सामने खड़ा हो गया है। द्वार तो दूसरी बात है, विह्वलता। और तीसरी बात है, समर्पण। खुल गए हैं। पहली बात है, यह जो चारों तरफ है, यह व्यर्थ हो जाए, तो ही उन मित्र का पूछना ठीक है कि जिस भगवान को हम नहीं आंख उठेगी। आंख उठे, कुछ दिखाई न पड़े; जो था, वह छूट जाए; जानते, उसका स्मरण कैसे करें? जो मिलने को है, वह मिले नहीं; बीच में आदमी अटक जाए, तो मत करो स्मरण! लेकिन जिसे तुम जानते हो, उससे पूरी तरह | | विह्वलता पैदा होगी; घबड़ाहट पैदा होगी; एक बेचैनी पैदा होगी। असंतुष्ट तो हो जाओ। जहां तुम खड़े हो, उस जमीन को तो व्यर्थ | कीर्कगार्ड ने कहा है, एक ट्रेंबलिंग, एक कंपन पैदा होगा। एक चिंता समझ लो। तो तुम्हारे पैर आतुर हो जाएंगे उस जमीन को खोजने | | पैदा होगी कि अब क्या होगा? जो नाव थी वह छूट गई, नई नाव पर के लिए, जहां खड़ा हुआ जा सके। जिस नाव पर तम बेठे हो. उसे | पांव नहीं पड़े, अब तो लहर पर ही खड़े हैं, अब क्या होगा? तो देख लो कि वह कागज की है। कोई फिक्र नहीं कि दूसरी नाव | । इस विह्वलता में घटना घटेगी। का हमें कोई पता नहीं है। और हमें कोई पता नहीं है कि कोई किनारा | और तीसरी बात है, समर्पण। समर्पण का अर्थ है, जब उस नए भी मिलने वाला है। हमें कोई पता ही नहीं है कि कोई और खिवैया | | हृदय की धड़कन शुरू हो जाए, तो समग्र भाव से, अत्यंत भी हो सकता है। लेकिन यह नाव, जिस पर तुम बैठे हो, कागज | श्रद्धापूर्वक, पूरे ट्रस्ट से, भरोसे से उस नए जीवन में प्रवेश कर की है या सपने की है, जरा नीचे इसकी तलाश कर लो। । | जाना। उस नए जीवन को सौंप देना अपनी बागडोर। कहना कि तू और जिस आदमी को पता चल जाए कि मैं कागज की नाव में मुझे खींच ले। बैठा हूं, पता है वह क्या करेगा? कम से कम चीखकर रोएगा, | | दो तरह से एक आदमी नाव में जाता है। एक तो नाव होती है, चिल्लाएगा तो! पता है कि कोई सुनने वाला नहीं है, तो भी मैं जिसमें हाथ से खेना पड़ता है। एक नाव होती है, जिसमें पाल लगा कहता हूं, वह चिल्लाएगा और रोएगा। कोई किनारा हो या न हो, होता है। हवा बहती है पूरब की तरफ और पाल खोल देते हैं, तो | 358| Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * क्षणभंगुरता का बोध * हवा ही नाव को खींचकर ले जाती है। कि आप सोच-विचार में पड़ जाते हैं। वह कोई बहुत गहरा परिणाम ध्यान रहे, संसार का जो जगत है, वहां जिस नाव से हमें चलना नहीं है। या आपके मन में और अनेक प्रश्न उठ आते हैं और उनकी पड़ता है, वहां खेना होता है; वहां प्रत्येक आदमी को मेहनत उठानी चर्चा में आप पड़ जाते हैं। वह भी कोई बहुत गहरा परिणाम नहीं पड़ती है, पतवार चलानी पड़ती है। तब भी चलता नहीं कुछ, कहीं | | है। ऐसे तो अनेक जीवन आदमी सोचकर, विचारकर, प्रश्न पहुंचते नहीं। पतवार चलती है बहुत, परेशान बहुत होते हैं, | | उठाकर, जवाब खोजकर व्यय कर सकता है। किए ही हैं हमने। दौड़-धूप, पूरी जिंदगी डूब जाती है, किनारा-विनारा कभी मिलता | | कुछ चलें। एक कदम भी चलें, तो हजार कदमों की चर्चा करने नहीं। वही सागर की लहरें ही कब्र सिद्ध होती हैं। लेकिन मेहनत | से बेहतर है। परिणाम तो आते हैं, लेकिन हितकर नहीं मालूम होते। करनी पड़ती है। यहां इंचभर अगर आप रुके, तो डूब जाएंगे। ___ कल मैंने जिन मित्र के लिए कहा था कि वे मुझे मूर्ख सिद्ध करने कारण, पूरे वक्त लगे रहना पड़ता है बचने में। यहां क्षणभंगुर है के लिए यहां आना चाहते हैं, तो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं मर्ख सब। यहां पूरे वक्त लगे रहेंगे, तब भी डूबेंगे! लेकिन जितनी देर | | हं, अब कोई सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। तो आज वे मेरे ऊपर बचे रहे, उतनी देर बचे रहेंगे। हमला ही कर दिए। उन्होंने कहा, जब विवाद से सिद्ध नहीं होना एक दूसरा लोक है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, जिसकी कृष्ण | है, तो अब हमले से सिद्ध होना है! बात कर रहे हैं। उस लोक में आपको पतवार नहीं चलानी पड़ती। ___परिणाम उन पर भी आया! जो मैंने कहा, उसका परिणाम वहां पतवार लेकर पहुंच गए, तो आप मुश्किल में पड़ेंगे। वहां तो | आया। पर परिणाम यह आया कि अब विवाद की जगह हमला उस परमात्मा की हवाएं ही आपकी नाव को ले जाने लगती हैं। करना है। आपको सिर्फ छोड़ देना पड़ता है। हमारा मन कैसे परिणाम लेता है! मैंने अगर स्वीकार ही कर लेकिन जिसको पतवार चलाने की आदत है और कभी उस पाल लिया, तो बात समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन बात समाप्त नहीं वाली नाव में नहीं बैठा है, वह पाल वाली नाव में बैठकर बहुत हुई है। उनको और भी ज्यादा चेष्टा करनी पड़ेगी मुझे मूर्ख सिद्ध घबड़ाएगा कि पता नहीं कहां जाऊंगा? क्या होगा, क्या नहीं? उतर | करने की। वह चेष्टा यह है कि मुझ पर हमला किए! उनको जाऊं? क्या करूं? या पतवार भी चलाऊं? खयाल भी नहीं हो सकता कि वे क्या कर रहे हैं! खयाल ही होता, समर्पण का अर्थ है, तुम अपनी पतवार मत चलाना। वह तुम्हें | तो क्यों करेंगे! जहां ले जाए, तुम वहीं चले जाना। छोड़ देना अपने को। जब आदमी मन के एक ढांचे में फंस जाता है, तो उसी में आगे तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा जो छोड़ देता है सब, वह मुझे उपलब्ध बढ़ा चला जाता है। हर मन के ढांचे में आगे बढ़ने की तरकीब होती हो जाता है। . है, पीछे लौटने की तरकीब नहीं होती। पहले दिन वे चिल्लाकर इन दिनों में जो कछ आपसे कहा है. मेरा कोई प्रयोजन नहीं है व्यवहार किए। दूसरे दिन गाली देकर व्यवहार किए। आज हमला कि कोई सिद्धांत आपको साफ हो जाएं। सिद्धांतों के साफ होने से | करके मारकर व्यवहार किए। वे एक ढांचे में फंस गए। तो अब वे कुछ होता नहीं। कोई मार्ग साफ हो जाए, तो कुछ होता है। मार्ग ढांचे में बढ़ते चले जाएंगे। अब उनको कोई उपाय नहीं सूझेगा कि भी साफ हो जाए, तो भी बहुत कुछ नहीं होता, जब तक कि चलने कैसे पीछे लौट जाएं! की उमंग और लहर न आ जाए। चलने की उमंग और लहर भी आ उनका तो मैंने उदाहरण दिया। हम सब भी मन के ढांचों में फंसे जाए, तो भी बहुत कुछ नहीं होता, जब तक कि उस अज्ञात पर हुए लोग हैं। और हमारे मन का ढांचा हमें आगे ही धकाए चला भरोसा न आ जाए। तो फिर वह चलाता है और खे लेता है। जाता है। तो जो हमने कल किया है, वही हमसे और आगे करवाए इतने दिन इन बातों को इतनी शांति से सुना है, तो यह आशा की चला जाता है। जा सकती है कि कोई बात इनमें से आपके जीवन में बीज बन जाए, ___ धार्मिक आदमी वही हो सकता है, जो मन के इस ढांचे को किसी कोई परिणाम ले आए। परिणाम तो कुछ आते हैं, लेकिन वे | जगह कहकर बाहर निकल सके कि बहुत चला तुम्हारे साथ, अब परिणाम अक्सर वैसे नहीं होते, जैसे आने चाहिए। | मैं लौटता हूं। अब बंद! अब तुम्हारा तर्क नहीं सुनूंगा; तुम्हारी अनुभव करता हूं मैं, सुनते हैं आप मुझे, परिणाम एक आता है | व्यवस्था नहीं सुनूंगा; तुम्हारा हिसाब नहीं मानूंगा। बहुत माना। 359 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-4% अब मैं हटता हूं, तुम्हारी लीक से ही हटता हूं। लीक से ही आप हट जाएं, तो शायद वह घटना घट सके, जिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं। और वह घटना न घटे, तो जीवन व्यर्थ है। और वह घटना न घटे, तो जीवन सार्थक नहीं है। और वह घटना न घटे, तो हम जीए भी, मरे भी, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। आपके जीवन में यह मूल्य का फूल खिल सके, इस आशा से यह अध्याय पूरा करता हूं। पांच मिनट आप बैठेंगे। कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंगे, फिर हम विदा होंगे। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र ) कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति महावीर महावीर - वाणी (दो भागों में ) महावीर-वाणी (पुस्तिका) जिन सूत्र (चार भागों में ) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया बुद्ध एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) अष्टावक्र महागीता (छह भागों में ) कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया मगन भया रसि लागा घूंघट के पट खोल न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा ( दो भागों में) मीरा पद घुंघरू बांध झुक आई बदरिया सावन की दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले पलटू अहं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चु” (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उडियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलें तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सके तो चेति क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया मनुष्यः भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् सो वै सः सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेता : मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः हरि ॐ तत्सत् एक महान चुनौती : मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (आठ भागों में) पत्र-संकलन क्रांति-बीज पथ के प्रदीप अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल बोध कथा मिट्टी के दीये ध्यान, साधना, योग ध्यानयोग : प्रथम और अंतिम मुक्ति रजनीश ध्यान योग हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलि: योगसूत्र ( दो भागों में) साधना शिविर साधना-पथ ध्यान - सूत्र वही है प्रभु माटी कहे कुम्हार मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना -सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज ओशो के संबंध में भगवान श्री रजनीश : ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विद्रोही व्यक्ति संपर्क सूत्र : ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पूना 411001 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशोटाइमस... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक वर्ष में 24 अंक ओशो ३१ हिंदी व अंग्रेजी में संयुक्त रूप से प्रति तीन माह में प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिका संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पूना-411001 फोनः 660963 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्ण कोई व्यक्ति की बात नहीं है। कृष्ण तो चैतन्य की एक घड़ी है, चैतन्य की एक दशा है, परम भाव है। जब भी कोई व्यक्ति परम को उपलब्ध हुआ, और उसने फिर गीता पर कुछ कहा, तब-तब गीता से पुरानी राख झड़ गई, फिर गीता नया अंगार हो गई। ऐसे हमने गीता को जीवित रखा है। समय बदलता गया, शब्दों के अर्थ बदलते गए, लेकिन गीता को हम नया जीवन देते चले गए। गीता आज भी जिंदा है। -ओशो Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो इस सदी में महान सत्य के प्रथम प्रवेश-द्वार हैं। -जनसत्ता (बंबई) A REBEL BOOK