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________________ * गीता दर्शन भाग-4* करना मत कुछ, लेकिन यत्न मत छोड़ देना । यत्न जारी रखना । निश्चित ही, अब यत्न तभी जारी रह सकता है, जब यत्न ही आनंद हो जाए। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, संन्यास किसलिए ? वे संन्यास की बात ही चूक गए; बात ही खतम हो गई। संन्यास किसलिए! संसार किसलिए – सार्थक है। संन्यास किसलिए— सार्थक नहीं है यह प्रश्न। संन्यास संन्यास के लिए। और तो कोई अर्थ नहीं होता। अगर संन्यास ही आनंद है, तो ही संन्यासी हो सकते हैं। अगर आपने सोचा कि संन्यास इसलिए लेते हैं कि यह-यह मिलेगा, तो आप संन्यास को भी संसार की एक चीज बना रहे हैं। संन्यास अपने में ही आनंद है। प्रार्थना अपने में ही आनंद है। पूजा अपना ही फल है। यत्न जारी रखना, आसक्ति छोड़ देना, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसे महात्माजन उस ओंकार की अक्षर ध्वनि में प्रवेश करते हैं। तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं...। और यह वही परम पद है, जिसको चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। यह आखिरी सूत्र बहुत कीमती है। ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं जिसे चाहने वाले। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है, प्रभु जैसी चर्या । जिसे प्रभु को पाना हो, उसे प्रभु को पाने के पहले ही प्रभु जैसी चर्या शुरू कर देनी चाहिए। अन्यथा प्रभु सामने खड़ा होगा और हम उसके पात्र न होंगे। अन्यथा उसके द्वार पर भी पहुंच जाएंगे, तो द्वार की सांकल बजाने की हमारी हिम्मत न होगी। इसके पहले कि प्रभु-मिलन हो, हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए, जैसे कि वह मिल गया है। हमें ऐसे जीना शुरू ही कर देना चाहिए, जैसे कि वह मिल गया है, जैसे कि वह घर में आकर बैठ गया है, जैसे कि वह मौजूद है। साथ चल रहा है; हृदय की धड़कन धड़कन में खड़ा है; पैर पैर में वही कंप रहा है। साधक को ऐसे जीना शुरू कर देना चाहिए कि परमात्मा साथ है, मिला हुआ है। तो उसकी चर्या धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस प्रभु के साथ होने के भाव से ब्रह्मचर्य बन जाती है, ब्रह्म जैसी बन जाती है । और जिस दिन चर्या ब्रह्म जैसी बन जाती है, उसी क्षण मिलन घटित हो जाता है। मुझसे लोग कहते हैं कि अभी तो मन बदला नहीं; यदि संन्यास ले लेंगे, तो क्या होगा? पहले मन पूरा बदल जाए, तो फिर हम संन्यास ले लेंगे। संन्यास की चर्या भी शुरू करने से संन्यास के आने का द्वार खुलता है। प्रार्थना के लिए होंठ हिलाने से भी परम नाद की तरफ का मार्ग खुलता है। मंदिर की तरफ चलने का खयाल भी भीतर के मंदिर के द्वार को खोलने के लिए कारण बन जाता है। चर्या शुरू करें। ऐसे जीना शुरू कर दें कि परमात्मा है। और एक दिन आप पाएंगे कि जिसे चर्या में शुरू किया था, वह अनुभूति में आ गया है। आज इतना ही । लेकिन पांच मिनट अभी कोई उठेगा नहीं। और आज कीर्तन सब बैठकर ही करने वाले हैं, इसलिए आपको उठकर देखने की | जरूरत न रहेगी। आप भी बैठकर सम्मिलित हों। एक धारा बहती है आनंद की, यहां मौजूद ही है; और गंगा किनारे से बहती हो, तो पागल न बनें, एक डुबकी आप भी लें । इतने लोग इकट्ठे हैं, अगर इतने लोग कीर्तन को पूरे भाव से करें, तो न मालूम कितनी शुद्ध किरणें चारों तरफ व्याप्त हो जाती हैं और | न मालूम कितने लोगों के लिए लाभ की हो सकती हैं । एक वर्षा ओंकार की हो सकती है अभी और यहीं । हम सारे लोग भाव से सम्मिलित हों। तालियां बजाएं। कीर्तन बोलें। बैठकर ही आनंदित हों । डोलें बैठकर ही । यह बैठकर ही कीर्तन होगा। 58
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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