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________________ * भाव और भक्ति जैसे ही किसी का भाव भृकुटी के मध्य थिर हो जाता है, वैसे ही है, तो यत्न है। आसक्ति छूटी, तो लोग यत्न भी छोड़ देते हैं। उस थिरता में ओंकार का नाद शुरू होता है। उस नाद के साथ ही | लेकिन दोनों में ही खतरे हैं। व्यक्ति संसार से मोक्ष में प्रवेश करता है। कहें कि वह नाद वाहन | कृष्ण एक और ही बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, आसक्तिरहित है। भकटी के मध्य में जैसे-जैसे व्यक्ति करीब पहुंचने लगता है. यत्नशील। पाना कछ भी नहीं है. फिर भी प्रयास में रत्तीभर कमी नाद घनघोर होने लगता है, गहन होने लगता है। नहीं। यह बड़ी कठिन बात है। पाना कुछ भी नहीं है, फिर भी प्रयास कबीर कहते हैं, कैसी जोर की बिजली कड़कती है! कैसे घनघोर | | में रत्तीभर कमी नहीं। दौड़े ऐसे ही जा रहे हैं जैसे मंजिल पर पहुंचना बादल बरसते हैं! कैसे अमृत की बरसा हो रही है! और यह कैसा | | हो, और पहुंचना कहीं भी नहीं है। यह कैसे होगा? नाद, जो कहीं पैदा नहीं हो रहा है और सुनाई पड़ रहा है! | यह कभी-कभी होता है। अगर दौड़ने में ही आनंद आ रहा हो, जैसे-जैसे भृकुटी के मध्य आएंगे, वैसे-वैसे पूरे तन-प्राण में | तो होता है। एक नाद गूंजने लगेगा। उस क्षण में आप केवल ध्वनि का एक | एक तो दौड़ है, कहीं पहुंचने में आनंद छिपा है, कोई खजाना संग्रह मात्र रह जाएंगे-शरीर नहीं, नाद मात्र। और इस नाद पर | मिलने को है यात्रा के अंत पर, तो दौड़ रहे हैं। दौड़ने में कोई आनंद सवारी करके ही व्यक्ति भृकुटी के छिद्र से ऊपर उठता है और परम | नहीं है। आनंद तो छिपा है वहां, अंत में। मिलेगा, तो आनंद पद में प्रवेश करता है। | मिलेगा। दौड़ तो रहे हैं उसे पाने के लिए। . इसे जिसे ओंकार कहते हैं ज्ञानीजन, आसक्तिरहित—ये शब्द | अगर ऐसे व्यक्ति से कहो कि आसक्तिरहित दौड़ो, तो वह बैठ समझ लेने जैसे हैं—आसक्तिरहित यत्नशील महात्माजन उसमें | जाएगा वहीं। वह कहेगा, जब पहुंचना ही नहीं है कहीं, दौड़ना प्रवेश करते हैं। किसलिए? और कृष्ण कहते हैं, दौड़ो और पहुंचने का खयाल मत • आसक्तिरहित! जिनकी इतनी भी आसक्ति नहीं रही है कि हम करो। इसका अर्थ हुआ, दौड़ो दौड़ने के ही आनंद में। मोक्ष में प्रवेश करें। क्योंकि बाकी आसक्ति तो छोड़े कोई, तभी __ असल में जब कोई साधक गहरा उतरना शुरू होता है, तो वह भृकुटी तक पहुंचता है, लेकिन एक आसक्ति फिर भी रह जाती कि | यह नहीं कहता कि मैं ध्यान किसलिए कर रहा हूं। वह जानने लगता मैं मोक्ष में प्रवेश करूं। अगर इतनी आसक्ति भी भीतर शेष रह गई | | है कि ध्यान ही आनंद है, योग ही आनंद है। वह यह नहीं कहता कि मैं मुक्त हो जाऊं, मोक्ष में प्रवेश करूं, परम पद पा जाऊं, प्रभु | कि प्रार्थना मैं इसलिए कर रहा है कि परमात्मा मझे यह मिल जाए। को पा लूं, इतनी आसक्ति भी अगर रह गई, तो बाधा बन जाती है। वह कहता है. परमात्मा न भी हो. तो चलेगा: प्रार्थना के बिना नहीं पाने का जहां खयाल शेष रह गया, वहां संसार शुरू हो जाता है। चल सकता। वह कहता है, प्रार्थना आनंद है, इसलिए कर रहा हूं। जहां वासना आ गई कोई भी, वहीं हम फिर पुनः संसार की यात्रा । भक्तों ने बड़ी अदभुत बातें कही हैं। और भक्तों ने भगवान से पर वापस लौट जाते हैं। ऐसी शानदार टक्करें ली हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। यह बहुत समझ लेने जैसी बात है। एक भक्त कहता है कि मुझे तेरे मोक्ष-वोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं। प्रभु के खोजी को प्रभु के पाने के पहले, प्रभु को पाने की वासना | | मुझे तेरी वृंदावन की गली में ही जन्म ले लेना काफी है। मुझे तेरे भी छोड़ देनी पड़ती है। मोक्ष के खोजी को मोक्ष के द्वार पर मोक्ष | | मोक्ष-वोक्ष को नहीं चाहिए। इतना ही खयाल रखना कि वृंदावन में की वासना को भी उतारकर रख देना पड़ता है। उतनी-सी वासना | | जहां तू चला, वहीं मैं हो जाऊं, वहीं रह जाऊं, उसी धूल में पड़ा भी संसार में लौटा लाने के लिए पर्याप्त है। रहूं। मैं तेरे मोक्ष को छोड़ सकता हूं, तेरी वृंदावन की गली नहीं। आसक्तिरहित, लेकिन यत्नशील; यह बहुत अदभुत बात है। | अब यह आनंद किसी और बात की खबर है। मोक्ष को छोड़ने आसक्तिरहित और यत्नशील! आसक्त तो यत्नशील दिखाई पड़ते की हिम्मत की बात जो कह सकता है, उसने मोक्ष पा ही लिया। हैं। क्योंकि जहां आसक्ति है, वहां यत्न है, एफर्ट है, चेष्टा है। जहां | उसे अब पाने को कुछ शेष न रहा। वृंदावन की गली भी उसके लिए कुछ पाना है, वहां पाने की कोशिश होगी। लेकिन दूसरी घटना जो | मोक्ष हो जाएगी। धूल में पड़ा हुआ वह परम सिद्ध-शिला पर घटती है-घटना कहें या दुर्घटना-जब कोई व्यक्ति कहता है, | विराजमान हो जाएगा। अब कोई आसक्ति ही न रही, तो अब चेष्टा भी क्या? आसक्ति | __कृष्ण कहते हैं, आसक्तिरहित और यत्नशील। आसक्ति तो 5/
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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