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* गीता दर्शन भाग-42
जिन चार संहिताओं को हम वेद कहते हैं—ऋग्वेद को, यजुर्वेद | तक न बोला जाता और न सुना जाता। जब आप बोलना बंद कर दें, को, अथर्व को, साम को–यह मनुष्य जाति के स्मरण में उस परम चुप हो जाएं, मौन हो जाएं, भीतर भी शब्द न रह जाएं, तब भी एक वेद की पहली प्रतिछवि है। कुरान भी वेद है, और बाइबिल भी वेद | गूंज, प्राणों के प्राण में एक आवाज, एक नाद उठना शुरू हो जाता है, और महावीर के वचन भी, और बुद्ध के वचन भी—ये बाद की है। उस नाद का नाम, जानने वाले, वेद को जानने वालों ने अक्षर प्रतिछवियां हैं। लेकिन जो लोग पहली प्रतिछवि से आग्रहग्रस्त हो | कहा है। उस नाद का जो प्रतीक है, वह ओम या ओंकार है। गए, उन्होंने कहा, अब इसके बाद और कोई वेद नहीं है। जब कोई परम मौन होता है, तब उसके भीतर भी एक ध्वनि
वेद निरंतर जन्मता रहेगा। जब भी कोई व्यक्ति परमभाव को | गूंजती है। वह ध्वनि हमारी पैदा की हुई नहीं है, क्योंकि हम तो चुप उपलब्ध होता है, तब दर्पण बन जाता है। और वह जो परम वेद है, | हैं। वह ध्वनि हमारा अस्तित्व है। अस्तित्व की ध्वनि है; कहें कि जो शाश्वत ज्ञान है, जो परमात्मा के हृदय में विराजमान है, वह | अस्तित्व ही ध्वनित होता है; हमारा होना ही ध्वनित होता है। उस फिर अपनी प्रतिछवि बनाता है।
ध्वनि का नाम अक्षर है। क्योंकि हम जब नहीं थे, तब भी वह ध्वनि निश्चित ही, वह छवि दर्पण के अनुसार अलग-अलग होती है। ध्वनित हो रही थी; और हम नहीं होंगे, तब भी वह ध्वनित होती ऋग्वेद एक छवि है। कुरान दूसरी, वह मोहम्मद का दर्पण है। | रहेगी। शायद हम उस ध्वनि की एक वेव लेंथ के अतिरिक्त और बाइबिल तीसरी, वह जीसस का दर्पण है। बुद्ध या महावीर, और | कुछ भी नहीं हैं। शायद उस परम ध्वनि का ही हम एक सघन रूप लाओत्से, हजार-हजार लोग प्रतिबिंब दिए हैं, वे सभी वेद हैं। | हैं, ए पर्टिकुलराइज्ड फार्म आफ दैट साउंड, दैट साउंडलेस साउंड;
वेद किसी मुर्दा किताब का नाम नहीं। वेद उस परम ज्ञान का नाम | | उस ध्वनिरहित ध्वनि का एक सघन रूप हैं। उस ध्वनि का नाम है, जिसके समक्ष परिपूर्ण शून्य हुआ व्यक्ति खड़ा होता है। ओंकार है, ओम है।
तो कृष्ण जब वेद की बात करते हैं, तो कोई इस भ्रांति में न रहे यह ओम कोई शब्द नहीं है, इसमें कोई अर्थ नहीं है। यह कि वे कोई हिंदुओं के वेद की बात कर रहे होंगे। नहीं, कृष्ण जैसे अस्तित्व बोधक मात्र है, इंगित मात्र है। इसलिए ओम को लिखने लोग विशेषण की भाषा में नहीं बोलते। हिंदू, और मुसलमान, और का जो पुराना ढंग है, वह पिक्टोरियल है; चित्र बनाकर है। ओम ईसाई, और जैन की भाषा में नहीं बोलते। उनकी भाषा तो परम | को हम अ, उ, म से भी लिख सकते हैं। अंग्रेजी में ओम लिखना भाषा है। वेद से उनका अर्थ है, वह वेद, जो दर्पण बन गए लोगों | हो, तो हम ओ और एम से लिख सकते हैं। लेकिन नहीं, वह में प्रतिबिंबित होता रहा है।
वर्णाक्षरों में लिखना ठीक नहीं है। ओम को हम लिखते हैं ऐसे वेद को जानने वाले उस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम | पिक्टोरियल, एक चित्र में। शब्द नहीं देते उसे, चित्र देते हैं, से पुकारते हैं। अक्षर, जो कभी क्षरता नहीं, क्षीण नहीं होता, नष्ट आकृति देते हैं सिर्फ। और वह आकृति इसीलिए देते हैं, ताकि हमारे नहीं होता।
और अक्षरों से वह एक न हो जाए, संयुक्त न हो जाए। हम तो सभी वर्णमाला को अक्षर कहते हैं। अ, ब, स, द, क, वस्तुतः वही अक्षर है, शेष सब जिन्हें हम अक्षर कहते हैं, उसकी ख, ए, बी, सी, डी-सभी अक्षर हैं। लेकिन सभी क्षर जाते हैं। | | ही पैदावार हैं। ओम में अ, उ और म तीन की ध्वनियों का तालमेल
और सभी नष्ट हो जाते हैं। इनको अक्षर कहना ठीक नहीं है। अगर है। यह ओम तो अक्षर है, फिर अ, उ, म उसकी तीन उत्पत्तियां हैं। मैं न बोलूं, तो ये अक्षर पैदा भी नहीं हो सकते। अगर आप चुप और फिर हमारे सारे वर्णाक्षर उन तीन के और विस्तार हैं। रहें, तो ये अक्षर खो जाते हैं। इनको अक्षर कहा नहीं जा सकता। पूर्वीय मनीषा ने जाना है ऐसा कि सत्य है एक; और जब सत्य
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जानने वाले उस परम पद को अक्षर | संसार बनता है, तो होता है तीन; और फिर तीन से हो जाता है कहते हैं और वह अक्षर ओंकार है। एक ऐसा अक्षर भी है, ओम, | अनेक। ओम है एक। फिर अ, उ, म। और फिर सारे वर्णाक्षर पैदा जो आप न बोलें, तो ही बोला जाता है।
होते हैं। लेकिन वे सब अक्षर नहीं हैं। अक्षर तो सिर्फ ओम ही है। इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा।
इस परम पद को जानने वालों ने ओंकार कहा है, अक्षर कहा और सब अक्षर आप बोलें, तो ही बोले जाते हैं; न बोलें, तो खो है। और आसक्तिरहित, यत्नशील महात्माजन इसमें प्रवेश करते जाते हैं। एक अक्षर ऐसा भी है, जो आप जब तक बोलते रहें, तब हैं-इस ओम में, इस अक्षर में।