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भाव और भक्ति
हता है।
कबीर से कोई पूछता है कि तुम ये सब काम में लगे हुए कैसे उसको स्मरण करते होओगे ? कबीर ने कहा, कभी समय आएगा, तो बताऊंगा | फिर एक दिन स्नान करके नदी से लौटते हैं कबीर । साथ में पूछने वाला भी है। वह फिर पूछता है, बताया नहीं ! तो कबीर ने कहा— पास में दो ग्राम-वधुएं अपने सिर पर घड़ा लिए पानी से भरा हुआ, दोनों हाथ छोड़े गपशप करती हुई रास्ते से गुजर रही हैं। कबीर ने कहा, देखते हो इन्हें, पानी से भरा हुआ घड़ा है, माथे पर रखा है, हाथ का सहारा नहीं, दोनों हाथ छोड़कर गपशप करती हुई वे मार्ग से चलती हैं। क्या तुम सोचते हो, इन्हें घड़े का स्मरण नहीं होगा ?
रोका उन्हें पूछा। तो उन्होंने कहा, अगर घड़े का स्मरण सतत न बना रहे, तो हाथ हटाया नहीं जा सकता। हाथ हटा ही इसलिए सके हैं कि स्मरण तो घड़े का बना ही हुआ है। वह स्मरण ही सम्हाले हुए है।
सारे काम में लगा हुआ व्यक्ति भी अगर भाव से भर जाए, तो फिर सब तरफ उलझा रहे, भीतर कहीं कोई चीज सम्हली ही चली जाती है। वह सम्हली ही बनी रहती है। उस भाव की दशा में यदि अंत क्षण आ जाए, तो समस्त भाव सिकुड़कर भृकुटी पर केंद्रित हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, योगबल से !
क्योंकि भृकुटी पर ध्यान को केंद्रित करने का जिन्होंने अभ्यास किया हो, उन्हीं के लिए आसान होगा कि अंत क्षण में उनका भाव भृकुटी पर आ जाए, अन्यथा संभव नहीं होगा। क्योंकि शरीर के भीतर रास्ते हैं। और अगर रास्ते टूटे हुए न हों, तो आखिरी समय में रास्ते बनाना बहुत मुश्किल है।
आप शायद ही कभी अपनी भृकुटी की तरफ ध्यान ले जाते हों। ध्यान जाता है सेक्स सेंटर की तरफ, ज्यादा से ज्यादा। ज्यादा से ज्यादा आदमी का ध्यान उसके काम-केंद्र की तरफ दौड़ता रहता है। काम-केंद्र बिलकुल उलटा है तृतीय नेत्र से, दूसरे छोर पर है। ये दो छोर हैं।
ऐसा समझ लें, काम-केंद्र का चिंतन अगर ज्यादा चलता हो, तो हमारे भीतर चेतना को जाने के लिए एक ही रास्ता होता है बना हुआ; वह बिलकुल, कहें कि हाईवे है चेतना के लिए भीतर। बिलकुल सपाट रास्ता तैयार है। जरा खिसके कि काम-केंद्र पर पहुंच जाएंगे। बीमार पड़े हैं खाली, तो कामवासना पकड़ेगी। खाली बैठे हैं, कोई
काम नहीं है दफ्तर में, तो कामवासना पकड़ेगी। कार में बैठे हैं खाली, तो कामवासना पकड़ेगी। या तो करते विचार कुछ न कुछ, उलझे रहो, और या फिर कामवासना पकड़ेगी। एक सपाट रास्ता भीतर बना है, चित्त जरा खाली हुआ, भागा।
एक दूसरा केंद्र है भृकुटी के मध्य में, योगी उसे आज्ञा चक्र कहते हैं, या कोई और नाम देते हैं। यह जो केंद्र है, यह ठीक उलटा | है। भक्त का, जैसे ही समय मिला, ध्यान भागा और भृकुटी पर आया। लेकिन इस भृकुटी के कांशसनेस के लिए, इसके चैतन्य के लिए, इसके बोध के लिए योग का अभ्यास जरूरी है। धीरे-धीरे आपको शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा आज्ञा चक्र मालूम | पड़ने लगे, और जब भी सुविधा हो, समय हो, शक्ति हो, ध्यान तत्काल आज्ञा चक्र की तरफ भाग जाए।
अगर यह रास्ता तैयार रहा, तो अंत समय में समस्त भाव आज्ञा चक्र पर इकट्ठा होकर शरीर के आवागमन के बाहर हो जाता है। लेकिन अगर यह न रहा, तो कठिनाई पड़ जाती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है।
और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को अक्षर, ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित यनशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षिप्त में कहूंगा।
वेद के जानने वाले !
सहज ही खयाल आता है कि वेद की जो चार संहिताएं हैं, उनको | जानने वाले, वेदपाठी पंडित, कृष्ण उनकी बात कर रहे होंगे ! कृष्ण जैसे व्यक्ति उनकी बात नहीं कर सकते। शास्त्र को जानने वाला, कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता। लेकिन वेद अनूठा शब्द है। वेद का अर्थ होता है केवल ज्ञान । वेद का अर्थ शास्त्र तो परोक्ष से होता है। सीधा-सीधा अर्थ होता है ज्ञान ।
जिसे हम वेद कहते रहे हैं, वह केवल उस ज्ञान की एक भनक है, एक प्रतिछवि । अनंत वेद पैदा हो सकते हैं, अगर हम उस परम | ज्ञान के सामने जितने दर्पण ले जाएंगे, उतने वेद पैदा हो सकते हैं। लेकिन वेद का इशारा उस परम ज्ञान की तरफ है। अगर वेद की चारों संहिताएं भी खो जाएं, तो भी वेद नहीं खो जाएगा। और वेद की अगर करोड़ों संहिताएं भी पैदा हो जाएं, तो भी वेद चुक नहीं जाएगा।
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