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________________ गीता दर्शन भाग-4 बुद्धिहट जाती है और भाव — सिर्फ भाव - तरंगें होती हैं- क्या यह संगीत इन भाव की तरंगों को छू रहा है? अगर छू रहा है, तो बुद्धि एक तरफ रख दें उतारकर और इस भाव की धारा में बहें। चाहे फूल हो, और चाहे आकाश के तारे हों, चाहे संगीत हो, चाहे किन्हीं दो सुंदर आंखों में मिली कोई झलक हो, चाहे किसी चेहरे का सौंदर्य हो, चाहे किसी पत्थर का सौंदर्य हो, चाहे मंदिर हो, चाहे मस्जिद – जहां भी आपको लगता हो कि बुद्धि के गहरे में जाकर कोई चीज छू रही है, बुद्धि को हटा दें और अपने हृदय को खुला कर दें, ताकि वह आपके हृदय पर स्पर्श करके उसको जगा पाए । अगर कोई व्यक्ति इतनी ओपनिंग, इतना दरवाजा अपनें में बना , तो बहुत शीघ्र ही वह पाएगा कि भाव का एक अनूठा अंकुरण उसके भीतर हो जाता है। और इस भाव के अंकुरण के साथ आता प्रेम, निर्बाध प्रेम । इस भाव के अंकुरण के साथ आता है प्रार्थना का लोक - लोभरहित, बेशर्त । इस भाव के साथ आती है धीरे-धीरे भक्ति । भक्ति का अर्थ है, एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम । एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति प्रेम। जब तक सुंदर में ही सुंदर दिखाई | पड़ता है, तब तक अभी पूर्ण सौंदर्य का अनुभव नहीं हुआ। और जब कुरूप में भी सौंदर्य के दर्शन शुरू हो जाते हैं, तो पूर्ण सौंदर्य का अनुभव होता है। जब तक मित्र से ही प्रेम बनता है, तब तक पूर्ण प्रेम का कोई पता नहीं; और जब शत्रु से भी प्रेम बन जाता है, तभी पूर्ण प्रेम का पता है। जिस दिन भाव की यह धारा समस्त के प्रति बिना किसी कारण के, बिना किसी निर्णय के, बिना किसी चुनाव के बहनी शुरू हो जाती है, भक्ति बन जाती है। कृष्ण कहते हैं, भक्तियुक्त पुरुष, ऐसे भाव से भरा हुआ व्यक्ति, अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके ... । ये जो दो आंखें हैं आपकी, ये जो दो भृकुटियां हैं, आई ब्रोज हैं, इनके बीच में जगह है एक, जो इस शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह थर्ड आई, तीसरी आंख की जगह है, शिव-नेत्र की जगह है । जिस व्यक्ति का समस्त के प्रति प्रेम भाव है, प्रार्थना भाव है, पूजा भाव है, जो इस जगत में सिवाय परमात्मा के और किसी को देखता नहीं, ऐसा व्यक्ति अंत समय में भृकुटी के मध्य में ध्यान को स्थिर कर लेता है। क्यों? क्योंकि जिसका ध्यान भृकुटी के मध्य 54 स्थिर हो, उसकी आगे की शरीर- यात्रा बंद हो जाती है। आगे की शरीर - यात्रा, आवागमन, तीसरी आंख पर अगर ध्यान न हो, तो जारी रहता है। इस तीसरी आंख पर अगर ध्यान हो, तो यह द्वार है संसार से छूट जाने का। यहां मार्ग है, जहां से एक संधि है छोटी, जहां से हम शरीर के पार हो जाते हैं। इस पर अगर ध्यान हो और प्रेम से भरा हुआ चित्त हो, भाव से भरा हुआ चित्त हो, विचार की कोई तरंग ही न हो, भाव की गहनता हो, बस | विचार की कोई लहर ही न हो, क्योंकि जैसे ही विचार की लहर आती है, भृकुटी से ध्यान हट जाता है। इसे समझ लें। विचार की जरा-सी तरंग, और भृकुटी से ध्यान हट जाता है। और विचार निस्तरंग, भाव परिपूर्ण, और भृकुटी पर ठहर जाता है। इस भृकुटी पर ठहरा हुआ चित्त, निश्चल मन से स्मरण करता हुआ | दिव्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। निश्चल विचार कभी होता ही नहीं, सिर्फ भाव होता है। अगर आप कहते हैं कि मेरा विचार बहुत दृढ़ है, तो आप बड़ी गलत बात कहते हैं | विचार दृढ़ होता ही नहीं। जैसे कोई कहे कि मेरी नदी में जो लहरें उठती हैं, वे बड़ी निश्चल हैं, वह पागलपन की बात कर रहा है। लहरें निश्चल होती ही नहीं। नदी निश्चल हो सकती है, लेकिन तभी, जब लहरें न हों। भाव निश्चल हो जाता है तभी, जब विचार की तरंगें नहीं होती हैं । विचार तो तरंग है, इसलिए निस्तरंग विचार का अर्थ होता है, न- विचार, निर्विचार | विचार ही कंपन है, इसलिए अकंप विचार नहीं होता। जब अकंप विचार होता है, तो विचार होता ही नहीं । और जब भी विचार होता है, तो कंपन जारी रहते हैं। अगर जरा-सा भी कंपन है, तो भृकुटी पर नहीं ठहराया जा सकता। आदमी चूक जाता है। और भृकुटी की जो संधि है, वह इतनी छोटी है कि अगर आप बालभर भी कंप गए, तो चूक गए। अगर बालभर भी कंपन हुआ, तो चूक गए। वह जगह बहुत एटामिक है, बहुत आणविक है; वह बहुत बड़ी जगह है; बहुत | सूक्ष्म संधि है । उसमें तो सिर्फ वे ही लोग प्रवेश करते हैं, जो कंपना जानते ही नहीं, जिन्हें कंपन का पता ही नहीं रहा है अब । और ध्यान रहे, भाव बड़ा निष्कंप है। कभी आपने किसी को अगर प्रेम किया हो, जैसा कि होता नहीं। मुश्किल से कभी कोई सौभाग्यशाली होता है कि किसी को प्रेम करता है। अगर कभी किसी को प्रेम किया हो, तो सब करते हुए - सब चलते, उठते, काम में लगे हुए - भीतर कोई एक अकंप भाव उस प्रेमी का बना
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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