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* गीता दर्शन भाग-44
दिखाई नहीं पड़ता। आदमी का दिखाई पड़ना तो बिलकुल ठीक है। बात ही अलग। अगर यह न भी हो, तो भी इस खोज में आप ऊपर कृष्ण आदमी तो हैं ही, लेकिन तब हम सब जोड़ लगाकर कहते हैं | | उठ जाएंगे। कि आदमी तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भगवान कहीं दिखाई नहीं मूढ़ता हमारी कहती है कि सिद्ध करो, यह नहीं है। लेकिन हमें पड़ते। और जब आदमी दिखाई पड़ते हैं, तो हमारे अहंकार को पता नहीं कि इसे हम सिद्ध करके कि नहीं है, केवल अपने विकास कष्ट होगा बहुत कि हम सामने खड़े आदमी को, मांस-हड्डी के | की संभावनाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं, एक द्वार बंद कर रहे हैं। आदमी को, इसको हम भगवान मान लें! तो हमारे अहंकार को | | यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण कि यह है या नहीं, हम इसे देखने की भारी पीड़ा होगी।
कोशिश करें। ध्यान रहे, पहला सूत्र हमारी मूढ़ता का यह है कि जो हमें दिखाई बुद्ध के पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हमें तो कोई ऐसी पड़ता है, उसके पार हम झांकने को भी तैयार नहीं होते। दिखाई तो बात नहीं दिखाई पड़ती। महावीर के पास लोग आते हैं, वे कहते हैं पड़ेगा ही नहीं, झांकने को भी तैयार नहीं होते। तैयारी भी नहीं कि हम आपको तीर्थंकर नहीं मान सकते। दिखाते कि हम उसके पार भी देखने के लिए तैयार हैं, बल्कि हम न मानने से महावीर की कोई हानि नहीं होती। महावीर किसी गैर-तैयारी दिखाते हैं। वह हमारी मूढ़ता है।
| वोट की तलाश में नहीं हैं कि कितने लोग मानते हैं। तो महावीर हम कहेंगे कि कहां! भगवान तो दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि हम आपसे हाथ जोड़कर नहीं कहेंगे कि मानो कि मैं तीर्थंकर हूं! क्योंकि सब तरह से सिद्ध करेंगे कि भगवान है ही नहीं। क्योंकि हम कहेंगे अगर तुमने न माना, तो मैं कहीं का न रह जाऊंगा! तुम्हारे मत पर कि इस आदमी को कल मैंने देखा था। प्यास लगी थी, तो यह कह | तो मेरा सब दारोमदार है। तुम मुझे मानो। न बुद्ध आपसे हाथ रहा था, पानी लाओ! भगवान को पानी की क्या जरूरत? हमने | | जोड़कर कहेंगे कि मैं बुद्ध हूं, मुझे मानो। न कृष्ण कहेंगे। इससे देखा, यह आदमी भोजन कर रहा था। भगवान को भोजन की क्या | कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप मानते हैं कि नहीं मानते। उन्हें कोई जरूरत? धूप पड़ती है, तो कृष्ण को भी पसीना आ जाता है। | फर्क नहीं पड़ता। भगवान को पसीने की क्या जरूरत?
लेकिन आपका न मानना, आपके लिए अवरोध हो जाता है। वे हम हजार कसौटियां रखेंगे। और सब कसौटियों से हम सिद्ध हैं या नहीं, यह भी गौण है, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। अगर कोई करेंगे कि यह आदमी भगवान नहीं है, आदमी ही है। और जब हम | व्यक्ति पत्थर को भी भगवान मानकर चल पड़े, तो पत्थर भगवान सिद्ध कर लेंगे कि यह आदमी है, तो हम को बड़ी तृप्ति होगी। यह होगा कि नहीं होगा, यह सवाल नहीं है; वह आदमी जरूर ऊपर हमारी मूढ़ता है।
उठना शुरू हो जाएगा। यह सवाल उस आदमी के अपने मजा यह है कि इस सिद्ध करने से हमें कुछ मिलेगा नहीं। अगर अंतर्विकास का है। और हम जितने विराटतर को मान लेते हैं, उतने यह सही भी है कि यह आदमी ही है और हमने सिद्ध कर लिया कि | विराटतर तक पहुंचने की हमारी चेतना का मार्ग साफ हो जाता है। आदमी है, तो भी हमें मिलेगा क्या? यह हमारी मूढ़ता है। इसे हम ऐसा देखें, अगर मूढ़ न हो आदमी, अमूढ़ हो, तो वह
दूसरी बात सोचें, हो सकता है, यह भगवान न हो। लेकिन हम क्या करेगा? इस सिद्ध करने में न पड़ें कि यह भगवान नहीं है। बल्कि यह कहता मूढ़ आदमी कहेगा कि कृष्ण को भूख लगती हमारे जैसी, तो यह है, तो हम थोड़ा खोज में लगें विधायक रूप से; मूढ़ता को तोड़ने आदमी है। कृष्ण को भी कांटा गड़ता, खून निकलता, तो ये हमारे में लगें। कोशिश करें कि यह आदमी कहता है कि हां, भगवान | जैसे आदमी हैं। भगवान हम न मानेंगे। यह मूढ़ का तर्क है। प्रकट हुआ है, तो देखें, चलें; थोड़ा आगे बढ़ें। थोड़ी अपनी चेतना अमूढ़ का तर्क इससे उलटा होगा; यही, लेकिन दिशा बदल को ऊपर उठाएं। थोड़ी अपनी जगह छोड़ें। थोड़ा अपना | जाएगी। वह कहेगा, कृष्ण को भी भूख लगती है और ये भगवान पर्सपेक्टिव, अपना परिप्रेक्ष्य बदलें। देखें कि शायद यह आदमी। हो सकते हैं; मुझे भी भूख लगती है, मैं भी भगवान क्यों नहीं हो ठीक कहता हो।
सकता हूं! यह अमूढ़ आदमी का तर्क है। वही है, तर्क में कोई फर्क तो मैं आपसे कहता हूं कि यह भगवान न भी हो, तो भी यह नहीं है। लेकिन दिशा बिलकुल बदल गई है। वह कहेगा, कृष्ण के खोज आपकी चेतना को बड़ा कर जाएगी। अगर यह हो, तब तो भी पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है; मेरे पैर में भी कांटा
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