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* विराट की अभीप्सा
कर दिया। अब मुझे पता चला है कि वह दूसरों की कुंडलिनी जगा| इसे ऐसा समझें, आप चल रहे हैं, पास से चींटियों का एक रही हैं। और इतना ही नहीं कि वह जगा रही हैं, दूसरों की जगनी | | समूह जा रहा है। आपको खयाल है, चींटियों को आपके होने का भी शुरू हो गई है! वह और कठिन बात है। मूढ़ता का कोई अंत | | पता भी नहीं चल सकता! हां, चींटियों को एक ही ढंग से पता चल नहीं है!
सकता है कि आपका पैर पड़ जाए और वे मर जाएं; और समझें कृष्ण कहते हैं कि ऐसे मूढ़ लोग, चारों तरफ मैं मौजूद हूं, तो | कि कोई विपत्ति आ गई। लेकिन एक मनुष्य हमारे पास से गुजर भी अनुभव नहीं कर पाते। चारों तरफ सब जगह मैं मौजूद हूं, तो | | रहा है, यह चींटियों को पता नहीं चल सकता। क्योंकि मनुष्य को भी अनुभव नहीं कर पाते। वे कहते हैं, सामने आ जाओ, तो हम देखने के लिए कम से कम मनुष्य की चेतना चाहिए। पहचानें!
हम केवल समान तल पर अनुभव कर सकते हैं। श्रेष्ठ जो है, सदा से नास्तिकों ने यह कहा है। यह बहुत समझने जैसा है।। | वह हमारी आंख से ओझल हो जाता है। आप चींटी को देख सकते सदा से नास्तिकों ने कहा है, अगर परमात्मा है, तो सामने आ जाए! | हैं, चींटी आपको नहीं देख पाती। ऊंचाई से नीचे देखना आसान
वह सब जगह सामने है। वही है; और दूसरा कोई भी नहीं है। | है; क्योंकि आप उस रास्ते से गुजर चुके हैं। लेकिन नीचाई से ऊपर लेकिन नास्तिक सदा कहता रहा है कि वह सामने आ जाए, तो हम | | देखना असंभव है। मान लें। और मजे की बात यह है कि कृष्ण कहते हैं कि जब मेरे | आप गीता लेकर बैठे पढ़ रहे हैं। आपका कुत्ता भी आपके पास जैसा व्यक्ति सामने आ जाता है, कहते हैं कि जब मैं सामने खड़ा | बैठकर पूंछ हिला रहा है। क्या किसी भी तरह हम कल्पना कर हो जाता हूं, तो वे ही मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले सकते हैं कि उसे गीता का पता चल रहा होगा, जो आप हाथ में मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। अगर मैं सामने आ जाऊं, तो लिए बैठे हैं? वे कहते हैं कि अरे! तुम तो आदमी ही हो! तुम भगवान कैसे? आप चाहे जोर-जोर से दोहरा रहे हों, तो भी कुत्ता बैठकर अपनी अगर मैं सामने न आऊं, तो वे कहते हैं, सामने आ जाओ। क्योंकि | मक्खियां उड़ाता रहेगा। उसकी चेतना में कहीं से भी, यह आपका अगर तुम हो, तो प्रकट हो जाओ। अगर मैं प्रकट हो जाऊं, तो वे जो जोर से पाठ चल रहा है, प्रवेश नहीं करेगा। अगर आप गीता मूढजन कहते हैं कि तुम? तुम तो ठीक हमारे ही जैसे हो! तुम को छोड़कर चले जाएं, तो गीता उसे दिखाई पड़ सकती है, पर गीता भगवान कैसे?
की तरह नहीं। हो सकता है. वह उससे खेलने लगे। हो सकता है. एक बात तय है कि भगवान चाहे अप्रकट रूप से सब तरफ
| उसे फाडने लगे। हो सकता है. उसे मंह में दबाकर बाहर घमने मौजूद हो, और चाहे प्रकट रूप से आपके सामने खड़ा हो जाए, | निकल जाए। वह गीता के साथ कुछ कर सकता है, लेकिन गीता अगर मूढ़ता की दृष्टि है, तो दोनों हालत में वह दिखाई नहीं पड़ का उसे कोई बोध नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है; उसकी चेतना सकता है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि वह सामने है या नहीं, | बंद है। सवाल यह है कि भीतर मूढ़ता है या नहीं।
चेतना वहीं तक देख पाती है, जहां तक विकसित होती है। तो आप खुद ही सोचो! आपको भी कई दफे लगा होगा कि भगवान | | परमात्मा अगर सामने भी मौजूद हो जाए, तो भी हम उसे समझ नहीं सामने हो, तो अभी मान लूं। लेकिन जरा यह सोचो कि अगर | पा सकते, हम उसे देख नहीं पा सकते। हमारी हालत उसके सामने भगवान सामने हो, आप मान लोगे?
वैसी ही है, जैसी हमारे सामने एक चींटी की हो जाती है। उसका अति कठिन है। बहुत कठिन है। कठिनाइयों के कारण हैं। वे | जो.परमात्म रूप है, वह हमारी आंखें कैसे पकड़ें? जहां तक हमारी मूढ़ता की अनेक सीढ़ियां उसके कारण हैं। उनको हम थोड़ा समझ | चेतना का विकास नहीं है, वहां हम देख कैसे पाएंगे? हम वही देख
| पाते हैं, जो हम हैं। पहली बात, अपने से जो श्रेष्ठ है, उसे देखना बहुत मुश्किल है। | इसलिए अगर कृष्ण भी सामने खड़े हों, तो हमें कृष्ण में आदमी मुश्किल नहीं, असंभव कहना चाहिए, करीब-करीब असंभव। | दिखाई पड़ेगा भलीभांति। और हम गलत नहीं हैं। हम गलत नहीं क्यों? क्योंकि जहां तक हमारी चेतना गई है, उसके पार हमारी हैं। जहां तक कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ता है, हम बिलकुल सही आंख उठ नहीं सकती। जो हम हैं, वहीं तक हम देख सकते हैं। हैं। गलती हमारी वहां शुरू होती है कि आदमी के पार हमें कुछ भी
लें।
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