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________________ *विराट की अभीप्सा गड़ता है, तो खून निकलता है। अगर कृष्ण भगवान हो सकते हैं, अगर कोई आदमी किसी के संबंध में कुछ बुराई करे, तो हमारे तो मैं भगवान क्यों नहीं हो सकता है। हृदय का फूल ऐसे खिल जाता है, जैसे वर्षा हो गई, नई सब ताजगी कृष्ण की मनुष्यता कृष्ण के भगवान होने में बाधा नहीं बनेगी आ गई भीतर। जैसे कोई किसी की निंदा करे हमारे कान में, तो ऐसा अमूढ़ के लिए; कृष्ण की मनुष्यता स्वयं की मनुष्यता के पार जाने | लगता है कि कोई संगीत बजने लगा! प्राण नाचने लगते हैं। का द्वार बन जाएगी। इसलिए मजे की बात है, जब भी हमसे कोई किसी की निंदा करे, लेकिन कृष्ण कहते हैं, मूढजन मनुष्य का शरीर धारण करने | हम कभी इसकी फिक्र में नहीं पड़ते कि यह सही है या गलत? हम वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। | मान लेते हैं। निंदा में कोई तर्क करता ही नहीं। अगर कोई आदमी वे अपने को श्रेष्ठ नहीं समझ पाते मेरे कारण; अपने कारण | | आकर आपको मेरे बाबत कहे कि वह आदमी चोर है, तो आप एक मुझको भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने को श्रेष्ठ समझने का एक | | गवाह तक न पूछेगे उससे कि कोई गवाह है? आप कहेंगे, मैं तो मौका उन्हें था कि वे अपनी दीनता से मुक्त हो जाते, कि महिमा से | पहले ही जानता था; पहले ही से पता था। एक गवाह की भी भर जाते, कि गौरवान्वित हो जाते; कि देखते कि मेरी क्या अनंत | जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर यह भी न सोचेंगे आप कि यह जो आदमी संभावना है; कि उनका बीज भी भरोसे से भर जाता; कि आशाएं | | बोल रहा है, कहीं यह खुद तो चोर नहीं है। न; यह भी न सोचेंगे। उनमें भी खिल जातीं; कि अभीप्सा उनकी भी जग जाती; दूर का | क्योंकि इस वक्त ऐसी बातें सोचना शोभनीय नहीं है। इस वक्त इस आकाश उनको भी अपने पास मालूम होने लगता; अनंत की दूरी | आदमी पर शक करना बिलकुल ही अशोभन है। संदेह करना ही मिट जाती, अगर वे यह देखते कि ठीक मेरे जैसा मनुष्य भी भगवान | नहीं, इस वक्त तो श्रद्धा एकमात्र मार्ग है। है। लेकिन वे ऐसा नहीं देखते। वे ऐसा देखते हैं कि अच्छा, मेरे | जब कोई किसी की निंदा कर रहा हो, तो हमारे चित्त ऐसे जैसा मनुष्य भगवान का दावा कर रहा है! धोखेबाज है, तुच्छ है। | श्रद्धावान हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि दूसरा अच्छा है, इससे हमारे ऐसा दावा नहीं करना चाहिए; यह बात ठीक नहीं है! | अहंकार को पीड़ा पहुंचती है। क्योंकि ऐसा लगता है, फिर मैं? मूढ़ता अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का नाम है। लेकिन | | दूसरा बुरा है, हमारा अहंकार आनंदित होता है कि बिलकुल ठीक। अपने पैर पर कोई कुल्हाड़ी नहीं मारता। मारने वाला तो यही | अगर सारी दुनिया बुरी है, तो फिर मैं ही अच्छा बच रहता हूं! समझता है कि दूसरे के पैर पर मार रहे हैं। लेकिन कृष्ण के पैर पर | तो हम सारी दुनिया बुरी है, ऐसा मानकर चलते हैं। जिनके कुल्हाड़ी मारने का कोई उपाय नहीं है। सब कुल्हाड़ी आखिर में | | बाबत हमें अभी पता नहीं है, उनके बाबत भी हम समझते हैं कि अपने ही पैर पर पड़ जाएगी। इसलिए वे मूढ़ कह रहे हैं। कह रहे | सिर्फ पता नहीं है, बाकी होंगे तो बुरे ही। भला आदमी तो कोई हो हैं, मुझे तुच्छ समझने में मैं तुच्छ नहीं हो जाता हूं; लेकिन मुझे तुच्छ नहीं सकता, यह हमारी अंतर्निहित आस्था है। यह हमारी समझने में तुम्हारी जो गरिमा की संभावना थी, वह खो जाती है। | आस्तिकता है। सारा जगत बुरा है। किसी का पता चल गया है, बुद्ध को देखकर यह सोचने की जरूरत नहीं है कि बुद्ध को ज्ञान | | किसी का अभी पता नहीं चला है। यह सारा जगत बुरा है। हुआ या नहीं। बुद्ध को देखकर यह देखने की जरूरत है कि बुद्ध | तो जिसका पता नहीं चला है, उसके बाबत हम अपने मन में संदेह को हो सका है, तो मुझे भी हो सकता है। यह भरोसा। रखते हैं कि आज नहीं कल! आप एक दिन धोखा दे सकते हैं, दो बुद्ध की आंखों में झांककर अपने भविष्य में झांकने का नाम | दिन धोखा दे सकते हैं, कोई भी आदमी सदा तो धोखा नहीं दे ज्ञान है; और अपने तराजू पर रखकर बुद्ध को तौल लेने का नाम | सकता। आज नहीं कल कलई खल ही जाएगी। आज नहीं कल वस्त्र मूढ़ता है। बुद्ध को दरवाजा बनाओ। हम बुद्ध को तो दरवाजा नहीं | | झांककर हम देख ही लेंगे कि तुम भी नंगे हो। कब तक ढांके रहोगे! बनाते, अपने को दीवाल बनाकर खड़े हो जाते हैं। तो हम यह भाव रखते हैं। और जैसे ही किसी का पता चल जाता फिर आदमी की मूढ़ता का जो केंद्र है, वह उसका अहंकार है, | | है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। हम जानते हैं कि यह तो हम पहले ही ईगो है। इसलिए दूसरी बात, जब भी कोई आदमी हमें किसी के | जानते थे। यह हमारा अंतर्निहित विश्वास था। यह तो हमारी खिलाफ कुछ कहे, हमारे मन में बड़ी प्रफुल्लता होती है। इसे अंतरात्मा की पहले से ही दृढ़ आस्था थी कि यह आदमी बुरा है। खयाल करना। लेकिन जब कोई आदमी किसी के बाबत कहता है कि वह भला | 221
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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