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* गीता दर्शन भाग-42
जैसे ही समर्पण का भाव होगा कि हो गए एक, ले चल सूरज ___ आदमी की इस बेईमानी से बचाने के लिए, जो बहुत बुद्धिमान मुझे अपनी किरणों पर दूर की यात्रा पर; मैं राजी हूं, मैं छोड़ता हूं लोग थे, उन्होंने परमात्मा की मूर्तियां बनाईं। मूर्ति बीच की व्यवस्था अपने को। जहां तू मार्ग दिखाएगा, वहीं चल पडूंगा! थोड़ी ही देर थी। न तो व्यक्ति है वहां-बुद्ध और कृष्ण और महावीर और में पाएंगे कि किरणें अब सिर्फ चमड़ी को नहीं छतीं, कहीं भीतर | मोहम्मद नहीं हैं वहां मूर्ति पत्थर है, तो आप यह भी न कह हृदय को गुदगुदाना उन्होंने शुरू कर दिया है। कहीं कोई हृदय की | | सकेंगे कि इस पत्थर को कहीं क्रोध तो नहीं आता! और कुछ मौजूद पंखुड़ी पर भी उनकी चोट पड़ने लगी, और कहीं कोई प्राणों का | भी है, तो आप यह भी न कह सकेंगे कि जो मौजूद नहीं है, उसके पक्षी भी पंख खोलकर उड़ जाने को आतुर हो गया है। प्रति समर्पण कैसे करूं! ___ कहीं भी सीखें, किसी तरह भी सीखें। कहीं भी सीखें, किसी लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। उसने कहा, तरह भी सीखें। पत्नी को भी प्रेम देते हों, तो पूरा दे दें। मां की गोद इस पत्थर को! पत्थर के प्रति समर्पण करवा रहे हैं! इस पत्थर में में सिर रखते हों, तो पूरा रख दें। मित्र का हाथ भी लेते हों, तो फिर रखा ही क्या है। अभी चाहूं, तो दो टुकड़े करके इसके बता सकता पूरा ही हाथ हाथ में ले लें। किसी को गले भेटते हों, तो सिर्फ | | हूं। जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता, वह क्या खाक मेरी रक्षा हड्डियां ही न छुएं; छोड़ दें अपने को। एक क्षण को ले जाने दें। तो करेगा! धीरे-धीरे अर्पण का भाव खयाल में आएगा।
| दयानंद की सारी क्रांति इसी नासमझी से पैदा हुई। इसी नासमझी और उस अर्पण के भाव को ही जब सर्व विराट परमात्मा के प्रति | से, कि परमात्मा की मूर्ति को एक चूहा परेशान करता रहा। तो कोई लगा देता है, क्योंकि बाकी सब अनुभव में कोई न कोई मौजूद दयानंद ने कहा कि चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर पाते, तो मेरी क्या है। परमात्मा गैर-मौजूदगी है। इसलिए मौजूद
र-मौजूदगी है। इसलिए मौजूदगी से अनुभव लें | रक्षा करोगे और जगत की क्या रक्षा करोगे! सब बेकार है। चूहे की और जब अनुभव गहरा हो जाए, तो फिर गैर-मौजूदगी की तरफ, | | इस प्रतीति पर सारा आर्यसमाज खड़ा हुआ है! सारी दृष्टि इतनी अनुपस्थित की तरफ, जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी तरफ समर्पण | | छोटी-सी है। लेकिन मूर्ति के विरोधी हो गए दयानंद, क्योंकि मूर्ति कर दें।
अपनी रक्षा न कर पाई। वह समर्पण इसीलिए कठिन है। कोई मौजूद हो, तो समर्पण | __ और पता नहीं, यह आदमी कैसा है! कुछ भी उसे कहो, वह . आसान मालूम पड़ता है। कोई मौजूद ही नहीं, तो समर्पण किसके | | तरकीब निकालेगा और अपनी बीमारी को बचा लेगा। जीवित प्रति? लोग पूछते हैं, किसके प्रति समर्पण?
| आदमी हो, तो भूल-चूक मिलेगी। मूर्ति हो, तो पत्थर हो जाती है। लेकिन आदमी की चालाकी का कोई अंत नहीं है। एक बहुत | | और परमात्मा अगर गैर-मौजूद है, तो कहां उसके चरण हैं? कहां अजीब अनुभव मुझे हुआ। वह यह हुआ कि अगर किसी को | | और किसके चरणों पर मैं सिर रखू? और आदमी अपने को बचाता बताओ कि इसके प्रति समर्पण करो, तो वह कहता है, इसके प्रति | चला जाता है। समर्पण? इसमें तो इतनी खामियां हैं! और कहो कि इसके प्रति | इसलिए मैंने कहा, अर्पण सीखें। पृथ्वी से सीखें। आकाश से समर्पण करो, तो अहंकार को चोट लगती है कि मैं और इसके प्रति | | सीखें। सूरज से सीखें। प्रेम में सीखें। कहीं भी सीखें। एक बात समर्पण करूं? यह भी तो मेरे जैसा आदमी है; हड्डी-मांस का बना | | खयाल रखें कि अर्पण का अनुभव आपका जितना सघन होता है। भूख इसे लगती है, तो क्रोध भी जरूर लगता ही होगा। नींद इसे | चला जाए, उतना ही किसी दिन समर्पण परमात्मा के प्रति आसान आती है, तो कामवासना भी सताती ही होगी। कहीं न कहीं छिपाए । हो सकेगा। होगा सब। और मैं इसके प्रति! मैं भी तो ऐसा ही आदमी हूं! | जब भी कोई आदमी मुझे आकर कहता है कि कैसे करूं __ अगर बताओ किसी को कि इसके प्रति करो-बुद्ध सामने खड़े। | समर्पण. तब मैं जानता है. इस आदमी ने कभी कोई प्रेम नहीं हों, तो भी वही कठिनाई आ जाती है। कृष्ण सामने खड़े हों, तो भी | | किया। इस आदमी ने कभी कोई सौंदर्य की प्रतीति नहीं की। इस वही कठिनाई आ जाती है। और अगर कोई सामने न हो, तो आदमी | | आदमी को कभी फूल खिलते दिखाई नहीं पड़े; सूरज उगता नहीं का चालाक मन कहता है, किसके प्रति समर्पण करूं? कोई दिखाई | | दिखाई पड़ा। इसने कभी नदी के तट पर जाकर नदी की शीतल रेत तो पड़ता नहीं!
में अपने को लिटाया नहीं। यह कभी पानी की धार में आंख बंद