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स्मरण की कला
लेकिन किसलिए, फार व्हाट! विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर को कभी छोड़ते हैं। जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें भी अपने को नहीं है। बुद्धि के पास भी कोई उत्तर नहीं है।
छोड़ते नहीं। कुछ न कुछ सदा ही पीछे बचा लिया जाता है। वही हृदय से पछे क्या पाना है। और फिर बद्धि को आज्ञा दे दें कि | बचा हआ कभी भी प्रेम के अनभव तक भी हमें नहीं पहंचने देता। यह पाना है। खोजो मार्ग, खोजो विधि, खोजो व्यवस्था। और तब अगर मैं किसी को प्रेम भी करता हूं, तो अपने को रोककर, बुद्धि और हृदय संयुक्त हो जाते हैं। बुद्धि और हृदय का संयोग | बहुत-सा हिस्सा पीछे छोड़ देता हूं, जरा-सा हिस्सा बाहर भेजता जहां है, वहीं योग फलित होता है।
हूं फीलर्स की तरह, कि जरा देख तो लें कि कहां तक मामला है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से जब सुरक्षित हो जाएंगे पूरे, तब थोड़ा और हृदय का हिस्सा देंगे। युक्त हुआ निस्संदेह तू मुझे उपलब्ध होता है।
अगर जरा ही डर लगा, तो जैसे कछुआ सिकुड़ जाता है अपने मेरे में अर्पण किए हुए! मजे की बात है। हृदय सदा ही अर्पण | भीतर, हम भी सिकुड़ जाएंगे। करना चाहता है। और बुद्धि सदा अर्पण करवाना चाहती है। बुद्धि प्रेम में भी हम अपने को बचा लेते हैं। और प्रार्थना में तो हम कहती है, करो समर्पण। बुद्धि सदा दूसरे से समर्पण करवाना | और भी बचा लेते हैं। क्योंकि प्रेम करने में तो सामने कोई दिखाई चाहती है। बुद्धि समर्पण करना जानती ही नहीं। बुद्धि अहंकार है। | पड़ता है, प्रार्थना में तो वह भी नहीं दिखाई पड़ता है। तो प्रेम में
और हृदय! हृदय आक्रमण करना जानता ही नहीं। हृदय समर्पण | कभी-कभी थोड़ी सचाई की झलक भी आ जाती है, प्रार्थना तो है; हृदय अपूर्व विनम्रता है।
बिलकुल ही झूठी हो जाती है। घुटने टेकते हैं। हाथ जोड़ते हैं। __ अगर कोई बुद्धि से ही खोजता रहा, तो परमात्मा के संबंध में | नमाज पढ़ते हैं। सिर झुकाते हैं। और सब करीब-करीब एक्सरसाइज सिर्फ तर्क कर-करके समाप्त हो जाएगा। उसे कोई भी उत्तर मिलने होकर रह जाता है. व्यायाम होकर रह जाता है। वाला नहीं है। अगर परमात्मा स्वयं भी सामने खड़ा हो और बुद्धि | | क्यों ऐसा होता है? क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम हृदयपूर्वक से अगर आपने पूछा कि तुम कौन हो? तो परमात्मा चुप रह | | कैसे करें। अर्पण का भाव ही हमें पता नहीं है। अर्पण के भाव को जाएगा। इसलिए नहीं कि आपका प्रश्न गलत था; सिर्फ इसलिए | | भी सीखना पड़ता है। कि बुद्धि से पूछा गया था। बुद्धि से पूछे गए इस तरह के प्रश्नों के | कुछ न करें, रोज सुबह जब उठे, तो कुछ भी न करें, खाली उत्तर देने का कोई भी अर्थ नहीं है।
| जमीन पर लेट जाएं चारों हाथ-पैर फैलाकर। छाती को लगा लें हृदय से पूछो, तो परमात्मा को उत्तर देना भी नहीं पड़ता, वह | जमीन से। अगर नग्न लेट सकें, तो और भी प्रीतिकर है। जैसे कि हृदय के ऊपर सब भांति छा जाता है, जैसे कोई बादल किसी पहाड़ | पृथ्वी मां है और उसकी छाती पर पूरे लेट गए चारों हाथ-पैर को घेरकर छा ले, जैसे किसी फूल के आस-पास सब तरफ से | | छोड़कर। सिर रख दें जमीन में और थोड़ी देर को अनुभव करें कि सूरज की किरणें उसे घेर लें और छा लें। हृदय से पूछे, तो परमात्मा | अपने को सब का सब पृथ्वी में समा दिया, छोड़ दिया। मिट्टी है मौजूद भी न हो सामने, तो भी चारों तरफ से वह हृदय को घेर लेता | दोनों तरफ, इसलिए बहुत जल्दी संबंध बन जाता है; देर नहीं है और हृदय की कली खिल जाती है, जैसे सुबह फूल खिल जाता लगती। यह शरीर भी उसी पृथ्वी का टुकड़ा है। बहुत जल्दी इस है और सब तरफ से सूरज की रोशनी उसे घेर लेती है। लेकिन हृदय | | शरीर के कणों में और पृथ्वी के कणों में तालमेल शुरू हो जाता है, का सूत्र है, अर्पण।
संगीत प्रतिध्वनित होने लगता है। और थोड़ी ही देर में आप अनुभव तो कृष्ण कहते हैं, मेरे को अर्पण हुआ, मन-बुद्धि से युक्त, | करेंगे कि आप पृथ्वी हो गए। और इतने आह्लाद का अनुभव होगा, निस्संदेह—फिर कोई संदेह नहीं-मुझको ही उपलब्ध हो जाता है। | ऐसी अपर्व प्रसन्नता का अनभव होगा, जैसा कभी भी नहीं हआ।
समर्पण ही उपलब्धि है, समर्पण ही पहंच जाना है। जिसने रोका | | कभी सूरज की किरणों में ही लेट जाएं नग्न और सूरज की समर्पण से अपने को, वह वंचित रह जाएगा। जिसने छोड़ा अपने | | किरणों को छू लेने दें पूरे शरीर को। आंख बंद कर लें और किरणों को, साहस किया, वह पहुंच जाता है।
में अपने को समर्पित कर दें। क्योंकि सूरज की किरण के बिना इस हम सब बहुत डरे-डरे होते हैं। हम कभी भी अपने को छोड़ते | | शरीर के भीतर जीवन नहीं है। इसलिए शरीर के भीतर जो भी ऊर्जा नहीं। हमें जीवन में ऐसा एक भी स्मरण नहीं आता, जब हम अपने | । है, जीवन है, वह सूरज की किरण से जुड़ा है।