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* जीवन के ऐक्य का बोध-अ-मन में *
जाने वाले नहीं हैं।
हजार अंधे भी इकट्ठे हो जाते, तो कोई भी गलत न कहता। वे सभी और दुनिया में दो तरह के शास्त्र हैं। एक तो वे शास्त्र हैं, जो उन | ठीक कहते। फिर भी उनका ठीक आंशिक था। और भूल उनके लोगों ने कहे हैं, जिन्होंने मन को मिटाकर पूर्ण को जाना। और एक | | कहने में नहीं थी, भूल उनके विस्तार में थी। जब किसी अंधे ने कहा वे शास्त्र हैं, जो उन लोगों ने कहे हैं, जिन्होंने मन को व्यवस्थित कि हाथी किसी महल के खंभों की भांति है, तब भूल इसमें नहीं करके, शिक्षित करके, अध्ययन से, विचार से, मनन से, चिंतन | थी, जो उसने जाना था। जो उसने जाना था, वह उसने पैर जाने थे; से, तर्क से, अनुभव से मन को विकसित किया और फिर जगत के | जो उसने कहा, वह हाथी के बाबत कहा। जो जाना था, वह अंश संबंध में दृष्टि को लिपिबद्ध किया। फिलासफी और रिलिजन, धर्म | था; और जिसके संबंध में कहा, वह पूर्ण था। और जब भी कोई और दर्शन में यही फर्क है।
अंश को पूर्ण के संबंध में कहता है, तो असत्य हो जाता है। धर्म उन लोगों के वक्तव्य हैं, जिन्होंने मन को मिटाकर जाना, ___ इसलिए मन परमात्मा के संबंध में जो भी कहेगा, वह असत्य जिन्होंने मन के प्रिज्म को तोड़ डाला और अस्तित्व की किरण को | होगा। सीधा देखा-अविभाज्य, बिना बंटा हुआ, अखंड। और दर्शन, ध्यान रहे, वे लोग जो कहते हैं, ईश्वर है-मन से, उतने ही फिलासफी उन लोगों के वक्तव्य हैं, जिन्होंने मन को खूब विकसित | असत्य होंगे, जितने वे लोग जो कहते हैं, ईश्वर नहीं है-मन से। किया, ट्रेन किया, प्रशिक्षित किया, समझाया, सिखाया, पढ़ाया, | मन अंश को ही जानता है, और मन की इच्छा होती है कि पूर्ण को और फिर जगत के संबंध में एक दृष्टि निर्मित की।
कह दे कि यही है। इसलिए सब फिलासफीज अधूरी हैं; होंगी ही। कोई और उपाय | ये पांचों अंधे अगर एक-दूसरे की बात सुनकर चुप रह नहीं है। साक्रेटीज कितनी ही बड़ी बात कहे, वह बात मन की ही जाते—पर नहीं, संभव नहीं था कि चुप रह जाते! क्योंकि अंधों में है। और साक्रेटीज के पास मन का कितना ही विकसित रूप हो, | | कलह अनिवार्य हो गई। क्योंकि जब एक अंधे ने कहा कि हाथी वह मन ही है। अगर साक्रेटीज यह भी कहे कि ये सातों जो रूप खंभों की तरह है, और दूसरे अंधे ने कहा कि हाथी सूप की तरह टूट गए हैं किरण के, इनको जोड़ लेने से फिर एक किरण बन है, और तीसरे ने कुछ और चौथे ने कुछ कहा, तो उन सबने कहा सकती है, तो भी वह मन का ही अनुमान है। अरस्तू कितना ही कि ये सभी सही तो नहीं हो सकते। और मेरा अनुभव सही है, तो कहे, प्लेटो कितना ही कहे, कांट और हीगल कितना ही कहें; वे निश्चित ही दूसरे लोग गलत हैं। जो कह रहे हैं, वह उनके विचार का निष्कर्ष है, अनुभव का नहीं। इसलिए फिलासफीज लड़ती रहती हैं, संघर्ष चलता रहता है। वे जो कह रहे हैं, वह उनका तर्कबद्ध आयोजन है, प्रतीति नहीं। पांच हजार साल में मनुष्य ने बहुत तरह के दर्शनशास्त्रों को जन्म वह उनके मन की ही दृष्टि है, मन से मुक्त उनका साक्षात्कार नहीं। दिया; वे सब एक-दूसरे से कलह करते रहते हैं। वे कहते हैं कि
मन से पैदा होती है फिलासफी। मन के पार उठ जाने से जो पैदा तुम गलत हो, हम सही हैं। और जब वे कहते हैं, हम सही हैं, तो होता है, वही धर्म है।
निश्चित ही कारण हैं; उनकी प्रतीति है। मन जो भी कहेगा, वह अधूरा होगा। इसलिए मेरा मन जो कहेगा - वह जो आदमी कह रहा है कि हाथी खंभे की तरह है, वह गलत और आपका मन जो कहेगा, उसमें मेल होने का कोई भी उपाय नहीं नहीं कह रहा है। और चूंकि उसे हाथी खंभे की तरह मालूम पड़ता है। मन का कहना करीब-करीब वैसा ही है, जैसा पंचतंत्र की एक | है, वह कैसे मान ले कि हाथी सूप की तरह भी है? ये दोनों बातें पुरानी कथा में हम सब जानते हैं, पांच अंधे एक हाथी को अनुभव | एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? करते हैं। और वे जो भी कहते हैं, वह सभी सच है। जिस अंधे ने लेकिन जिनके पास आंख है, वे जानते हैं, ये दोनों बातें एक हाथी के पैर को छुआ है, उसने कहा, किसी महल के सुदृढ़ स्तंभों साथ सही हैं। हाथी सूप भी है, हाथी खंभा भी है; हाथी और बहुत की भांति है हाथी। और जिसने हाथी के कानों को छुआ, उसने कहा कुछ भी है। और जितने अंधे आते चले जाएं, हाथी उतने ही रूप कि जैसे स्त्रियां अनाज को साफ करती हैं सूप में, वैसे सूप की भांति लेता चला जाएगा। है हाथी!
___ मन जो भी देखता है, वह सही है, लेकिन आंशिक—एक बात। गलत दोनों ने नहीं कहा, गलत पांचों ने नहीं कहा; और पांच और इसलिए मन के अनुभव को कभी पूर्ण पर मत फैलाना,