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*गीता दर्शन भाग-48
तपाम्यहमहं वर्ष निगृहणाम्युत्सृजामि च । | जाएगा। जो अनदेखा है, उसका आप अनुमान ही करेंगे कि होगा, अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन । । १९ ।। | वह दिखाई नहीं पड़ेगा। और ऐसा कभी नहीं कर सकते कि दोनों विद्या मां सोमपाः पूतपापा
| हिस्सों को आप एक साथ देख लें। एक छोटे-से रेत के टुकड़े के यरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
भी दोनों हिस्से एक साथ नहीं देखे जा सकते हैं। जब एक देखेंगे, ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्
दूसरा ओझल हो जाएगा। तो विराट की तो कठिनाई और भी बढ़ अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् । । २०।। जाती है। मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं तथा वर्षा को आकर्षित करता हमारा मन अंश को ही देख पाता है। यह पहली बात.ठीक से हूं और वर्षाता हूं। और हे अर्जुन, मैं ही अमृत और मृत्यु एवं समझ लें। यदि यह बात ठीक से समझ में आ जाए, तो बहुत-सी
सत और असत भी, सब कुछ मैं ही हूं। बातें समझ में आ सकेंगी। और अगर यह बात ठीक से समझ में न परंतु, जो तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को आए, तो धर्म के बहुत से सूत्र बेबूझ रह जाते हैं। यह बहुत करने वाले और सोमरस को पीने वाले एवं पापों से पवित्र बुनियादी है। हुए पुरुष मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को | मन की सामर्थ्य ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में देखने
चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इंद्रलोक को | की। मन का स्वभाव ही नहीं है किसी चीज को उसकी पूर्णता में प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। | देख लेने का। वैसे ही, जैसे आंख चाहे भी, तो भी ध्वनि को सुन
नहीं सकती. और कान चाहे भी, तो भी रूप को देख नहीं सकता।
कान का स्वभाव नहीं है, आंख का स्वभाव नहीं है कि ध्वनि को + वन है एक, अस्तित्व है एक, लेकिन मन सभी कुछ | सुन सके। आंख देख सकती है, सुन नहीं सकती। UIT तोड़कर देखता है। मन जब तक तोड़ न ले, तब तक फिर अगर कोई आंख से सुनने की कोशिश करे, और उसे कुछ
देख ही नहीं पाता है। मन के देखने की प्रक्रिया में ही | भी सुनाई न पड़े, और उसे लगे कि जगत में कोई ध्वनि नहीं है, तो जीवन खंड-खंड हो जाता है।
कसूर किसका होगा? और अगर कोई कान से देखने की कोशिश इसे ऐसा समझें, प्रकाश की एक किरण है; उसे एक कांच के | करे, और उसे कुछ भी दिखाई न पड़े, और वह कहे कि जगत में प्रिज्म से निकालें, तो सात टुकड़ों में टूट जाती है, सात रंगों में | कुछ भी नहीं है, तो कसूर किसका होगा? कान का कोई कसूर नहीं विभाजित हो जाती है। प्रकाश की किरण अविभाज्य है, अपने में | है, क्योंकि कान देख ही नहीं सकता। आंख का कसूर नहीं है, अखंड है। प्रिज्म के टुकड़े से गुजरकर टूट जाती है, हिस्सों में बंट क्योंकि आंख सुन ही नहीं सकती। कसूर उस व्यक्ति का है, जो जाती है।
आंख और कान के स्वभाव को नहीं समझ पा रहा है। हमारा मन अस्तित्व की किरण को भी ऐसे ही तोड़ देता है। मन के स्वभाव के संबंध में पहली बात कि मन किसी भी वस्तु हमारा मन जहां भी देखता है, वहां पूरे को कभी भी नहीं देख पाता को उसकी समग्रता में, टोटेलिटी में नहीं देख सकता है। जब भी है। बड़ी चीजों की तो बात ही छोड़ दें, छोटी-सी चीज को भी मन | देखेगा, अंश को देखेगा, पूर्ण को नहीं, पहली बात। पूरा देखने में असमर्थ है। एक छोटा-सा कंकड़ का टुकड़ा आपके | आज तक किसी व्यक्ति के मन ने किसी चीज की पूर्णता नहीं हाथ में रख दूं, तो भी आपकी आंखें, आपकी इंद्रियां, आपका मन देखी है। इसलिए जहां भी मन होगा, वहां अपूर्ण ही अनुभव होगा, उस टुकड़े को पूरा नहीं देख सकते; एक हिस्सा छिपा रह जाएगा। | अपूर्ण ही दृष्टि होगी, अधूरा ही खयाल होगा। इसलिए जो लोग
और जब आप दूसरा हिस्सा देखेंगे, तो पहला हिस्सा छिप जाएगा। मन से पूरे का निर्माण करते हैं, उनका निर्माण काल्पनिक हो जाता एक छोटा-सा कंकड़!
| है, अनुमान हो जाता है। जो उन्हें नहीं दिखाई पड़ता, उसका वे उसे भी छोड़ दें। एक धूल का, रेत का टुकड़ा अपने हाथ पर | अनुमान करके पूरा कर लेते हैं। जो दिखाई पड़ता है, उसमें उसे भी रख लें। उसे भी आपकी इंद्रियां पूरा नहीं देख सकती हैं, उसे भी जोड़ देते हैं, जिसको वे सोचते हैं कि होगा। इसलिए मन से निर्मित तोड़कर ही देखेंगी। एक हिस्सा दिखाई पड़ेगा, एक अनदेखा रह | दुनिया में जितने भी शास्त्र हैं, वे सभी व्यर्थ हैं, पूर्ण की तरफ ले
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